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योग दिवस (Yoga Day)
करों योग (Yoga Day) रहो निरोग
पद्मासन लगायें या फिर चाहे
करे अलोम विलोम
अगर दे योग को स्थान अपने
जीवन में
रहेंगे कोशो दूर न आयें
कौई रोग हमारे आपके जीवन में
योग का इतिहास पूराना है
इसके महत्व को आज भली भांति
जान गया है! जमाना
स्वास्थ्य के लिए ऋषि मुनि का बताया ये एक
अनमोल खजाना है
आओ करें शामिल इसे अपने
जीवन में
क्योंकि रखना है हमें अपने स्वास्थ्य का ध्यान
आयें आज योग दिवस पर
करते हैं हम प्रण
नित्य सुबह करेंगे योग
दूर करेंगे अपने जीवन से सारे रोग
अरमान
कितने अरमानों से सजाया
मैंने अपने हृदय में सुंदर तौरन द्वार
कब आओगे मेरी नन्ही मुनिया के
सपनों के राजकुमार ,
तन पे धेर धूमैर तुम्हारे बाघा होगा
सिर पर सूरज सा चमकता
सेहरा होगा और होगी कमर को
चूमती सुनहरी तलवार
कितने मधुर वो पल होंगे
लाल सुनहरे जोड़ें में लिपटी
तुम मेरी मुनिया के संग होंगे
चांद, सितारे भी शर्मा ने लगें
देख मेरी मुनिया का सौरभ श्रृंगार
थाम हाथ जब तुम दोनों
पवित्र अग्नि के फैरे लोगे
हृदय में असंख्य अरमान होंगे
उसकी आंखों में सुंदर भविष्य के सपने होंगे
मेरे धर से जब डोली पहुंचेगी तेरे द्वार
आगे बढ़कर पहन लेना उसकी बांहों का सुंदर हार
कितने सुन्दर वो पल होंगे
जब तुम दोनों संग होंगे
मुनिया के चेहरे पे दमकता सूरज होगा
वाणी में उसके शीतलता होगी
लज्जा से पलके झूकी होगी
और होगा उसके हृदय में
तुम्हारे लिए प्यार
कर सौलह श्रृंगार जब वो प्रवेश करेगी
तेरे मन के द्वार देना प्यार
दुलार तुम इतना उसको
कुछ पल के लिए वो भूल
जाते हम सब को
इंसान की दरिंदगी
इंसान की दरिंदगी का
लिखूँ मैं गुणगान,
हर दिल में विषधर मचल रहा।
हैवानियत भी हर इंसान के सर चढ़,
अपना खेल खेल रहा।
रिश्तों की मर्यादा का कोई मोल नहीं,
हवसी,दरिंदों का कोई तोल नहीं।
राम,कृष्ण की धरा पर,
इंसानियत भी दम तोड़ रही ।
जात पात और धर्म के नाम पर,
मानवता मानव को झंझोड़ रही।
करूणा,और दया की देख दयनीय स्थिति
आज के मानव से मानवता को छीन रही।
बदल जा ऐ मानव अब भी वक्त है,
तेरी हैवानियत की नहीं कोई हद नहीं।
दर्पण और मन
दोनो एक समान
जो पड जाये दरार
तो जोड न सके उसे ये संसार।
दोष बस उसका इतना
सत्य बताता है दर्पन
मन तो चंचल है वह
नही सुनता किसी की
पल में उदास तो फल में
खुश हो जाता है।
दर्पन कभी झूठ न बोले
जो जेसा होता वेसा ही दिखाता है।
ऐ मेरे मन अन्तरमन से पुछ
दर्पन से सही हमे अपने मन का
हाल बताता है।
अष्टकला के अवतारी
अष्टकला के है अवतारी
कभी दिन कभी रात है,
दिन रात मिलकर बन गये
सौलह कला के अवतारी
कृष्ण हे जगत म़े सबसे न्यारे
राधा, मीरा नंद के है वह दुलारे।
अष्ट प्रहर अष्टमी को जन्म लिए
जग में जाने क्या-क्या खेल किये
कर्मयोगी नायक गिरवर धारी
हम है इनके प्रेम पुजारी।
सबसे न्यारी अद्भुत छवि हैजग मे
गीता का हे पाठ पढाया
अष्टम तिथि का मान बढ़ाया
बालपन में मात को मुहं में ब्रह्मांड दिखाया।
युग द्ववापर में मारी पुतना, कंस,
शीशुपाल, जरासंध को मारा
भर यौवन चीर चुराया जा
द्रोपद की लाज बचाई।
पांडव कुल की कुंती प्यारी
बहना इनकी सबसे न्यारी
विदुर, सुदामा सबको त्यारे
थे गनका के सबसे प्यारे
सुवा पढावत गनका तारी
करते है अब भी ये सबकी रखवारी
गीता अमृत सबको पिलाते
अपने सेवक की लाज बचाते
कलीकाल के है अवतारी
बन पूजे जाते श्री श्याम बिहारी
लीला इनकी कौई न जाने
जय हो लीलाधर कृष्ण मुरारी की
वाणी में ही प्यार है
कोयल काली, कौआ काला
दोनो का रंग है काला काला।
कोयल किसी को क्या देती है।
कौआ किसी से क्या लेता है
सिर्फ मधुर वाणी के कारण,
कोयल सब का मन हर लेती है।
करकश बोली बोल
कागा अपना सब कुछ खो देता
जुबान दौनो की एक है
पर सुर है जुदा जुदा!
फ़र्क़ इतना है दोनों की वाणी में
आपना पन मिलता कोयल काली को
होकर काला कागा उडता रहता
सबसे जुदा जुदा।
वाणी में ही प्यार है,
वाणी में ही दुत्कार है।
प्रगाढ़ विश्वास
जब तक हमारे अन्दर विश्वास है,
आसमां में चांद सितारों का साथ है,
रिश्तों में अपने प्रगाढ़ विश्वास है,
चट्टानों कि तरह जो हो अटल इरादें,
कभी न हो कहीं न हो विफल
क्योंकि सफलताओं की कुंजी
हमारे पास है।
हर सफलता के लिए विनम्र एंव
अटल रहना ही तो ज़रूरी है।
आस्था में विश्वास है, या विश्वास में आस्था,
इस प्रशन का जवाब हमारे ही पास है।
मुझे मेरे श्याम और महाकाल पर प्रगाढ़ विश्वास है।
जिन्दगी से क्या सीखा
जिन्दगी से क्या सीखा
जिन्दगी की गुरूकुल में दाखिला लिया
पहला सबक से ये सीखा कभी
खूद पर अभिमान न करना और
कभी किसी भी क़ीमत स्वभिमान न छोडना
ग्यान उसी को देना जो जिग्यासु हो
देकर ज्ञान व्यर्थ उसका महत्त्व न खोना
तुम्हारे विचारों में समानता हो हृदय में कौई दवंद न हो
ये दुनिया एक रंगमंच है और।हम इस रंगमंच की कठपुतली
जिसकी डोर नीलीछत्री के हाथ है
वो हमे हमारे करमा को देख नचाता है।
कभी रूलाता तो कभी हंसाता है
बगुला भक्तों की कमी नहीं
ग्यान देनेवाला गुरु हो ये ज़रूरी नही
सुनना सबकी लेकिन करना अपने मन की
अगर होगी शुद्धता तुम्हारे विचारों में
जिन्दगी रुपी रेल पटरी से उतरेगी नही
इसीलिए जब तक जीना है सर उठा के जियो
वरना मर-मर के तो सभी जीते है।
मंजिल तक तो कम ही पहुचतें है
बेच दी जमीनें हमने
बेच दिये सारे संस्कार पुरखों के
निकल पड़े दिखावों के झूठे
शहरों और माया के संसार में
खुली हवाओं को छोड़ आज
शहरों में प्राणवायु को तरसते
भटक रहे मर रहे हैं,
अब भी वक़्त है संभल जा
वापस अपनी संस्कृति को अपना
मांस मदिरा को छोड़ मोह
ये तो असुरों का आहार है
सात्विक जीवन ही जिना है
ऐसा कुछ विचार कर
प्रकृति किसी को नहीं बख्शती,
पेड़ पौधे लगा पर्यावरण को शुद्ध कर
जनजन से मेरी यही पुकार है
क्योंकि काल के भाल पर बैठा महाकाल है
महामारी क्या बिगाड़ेगी तेरा मेरा
हमारा रक्षक तो स्वयं महाकाल है
ऊँ नमः शिवाय, ऊँ नमः शिवाय
मैं मज़दूर हूँ
मैं सदा से बेबस, लाचार हूँ
हाँ, क्योंकि मैं मज़दूर हूँ।
लोगों के घर बनाता, फिर भी
खूद के धर से वंचित हूँ…
मजदूरी कर परिवार चलाता…
कभी खेतों में, तो कभी कारखाने की रौनक बढ़ाता…
दिन रात कड़ी मेहनत करता…
मुठ्ठी भर पैसों से मैं अपना जीवन चलाता,
तुम्हारी तिजोरियाँ की शान बढ़ाता,
आज सारा विश्व
“मज़दूर दिवस” मना रहा है…
मेरी विवशता, लाचारी दिखा
इस महामारी में भी हमें लूटने से बाज नहीं आता…
हे विधाता ये तेरा कैसा दस्तूर है।
मैं दिन रात तेरी कड़ी मेहनत कर तेरी मुर्तियाँ बनाता हूँ,
तुझे सजाता हूँ…
लाखों का चढ़ावा आता है…
फिर भी तेरे मायारूपी संसार में ही क्यों लूटा जाता हूँ…
तू भी शायद मेरी तरह बेबस और लाचार है,
जगन्नाथ के हाथ नहीं है…
फिर भी वह सबकी सुनता है…
सृष्टि का सर्जन करता हैं…
ज़रूरत पड़ने जगन्नाथ भ्ईया…
ये कर दो बड़ी करूण दुहाई लगाता…
हाँ मैं जानता हूँ तू अपने किये
पर पछताता है,
तू भी मेरी तरह बेबस और लाचार है
क्योंकि तू भी सृष्टि के रचयिता
मेरी तरह मजबूर हैं।
जिंदगी
जिंदगी तो ज़िंदा दिली का नाम है
जब तक जियेगें हंस कर जियेगें
इस महामारी से नहीं डरेंगे
पंचतत्व से बना शरीर हमारा
एक दिन इसी में मिल जाना
माटी का संसार है माटी कि है ये काया
क्या साथ लेकर तू आया बंदा
क्या साथ लेकर जायेगा
सोना, चांदी मोह माया सब यही धरा का धरा रह जायेगा
न डरो इस महामारी से
अपनी इच्छा शक्ति को प्रबल करो
जीत जाओगे इस महामारी से
सौतन विधुत
गर्जन करती धनधौर धटायें
देखो कैसे मचल रही
हे धरा पर आने को
बन सौतन विधुत चमक रहा
उपहास धटाओं का कर रहा
सुन गड़गड़ाहट बादलों की मूक दृष्टि से हैैं कैसे देख रहा
देख विवशता धटाओं की बादल
विधुत से टकराता है
देख साहस बादल का
घनघौर घटायें मुस्कुराने लगी
मिल बादलों के संग वह
धरा की और चल पड़ी
बन कर ठंडी फुहार वह धरा पर
मिल फूलों से लिपट वह फूट-फूट कर रो पड़ी
दहशत भरी जिन्दगी
कल तक सब कुछ था
हरा भरा, आज कैसी विरानी
छाई हुई है
गांव गलियों, चौबारे में चहलकदमी थी
आज कैसी मरधट-सी खामोशी छाई हुई है
सहमे हुए लोग दहशत भरी निगाहें
अरे समाज के से शर्म, नेता और ठेकेदारों चुनाव को छोड़
जनमानस की सोचो
बाजारों और अस्पताल में होती काला बाजारी को रोको
देख मंज़र अस्पतालों और श्मशान का मेरा हृदय रो पडा
आज ऐसी मुश्किल घड़ी में
नहीं कौन किसी के साथ खड़ा
कैसी मुश्किल दौर से गुजर रहे देश के वाशिंदे
अपनों कि याद में उनके
अपने औंधे मुंह है पढ़ें
टूट गई उम्मीद बिखर गए सपने
दम तोड़ते परिजनों को देखते रह गए अपने
मास्क लगाएँ रखना
चेहरे पर मास्क लगाएँ रखना
दिल की धडकनो में मेरी यादें
बसायें रखना।
समाजिक दूरी बनाएँ रखना
मेरी खट्टी मीठी यादों को
दिल की धड़कनों में बसाए रखना।
जितना मास्क है ज़रूरी
उतनी ही गज भर की दूरी है ज़रूरी
ऐसा अगर नहीं हुआं तो फिर
लकड़ियों के ढेर पर सोने को
तैयार रहना
धन दौलत, दोस्त कुछ नहीं काम आयेगा
जमीन के अन्दर पड़ा खूद को असहाय पायेगा
अब भी कुछ भी नहीं बिगड़ा
वक्त रहते सम्भल जा
नहीं तो खेतों की माटी में मिल जायेगा
यही है आज के जीवन की सच्चाई,
अब भी वक़्त है चेहरे पर
मास्क है ज़रूरी
फागुन आया
फागुन आया मस्ती लाया…
फागुन आया मस्ती लाया…
छाई सतरंगी बहार,
आया सतरंगी होली का त्यौहार…
कोयल कूके हो मतवाली…
अमिया झूमें डाली डाली…
राधा हर्षित हो झूमें सखियों संग
सुनकर ढप की आवाज…
आया सतरंगी होली का त्यौहार
चढ अटरिया राधा प्यारी,
मारे रंग भर पिचकारी
झूम उठे श्री कृष्ण मुरारी…
छेडी बंशी की है तान
आया सतरंगी होली का त्यौहार…
भूलकर सारे बैर भाव,
आओ राधे श्याम संग खेले
रंग अबीर, गुलाल
आया सतरंगी होली का त्यौहार…
वन उपवन में टेसू खिले आपार।
आया सतरंगी होली का त्यौहार…
शक्ति का दूसरा रूप है नारी
संसार रुपी काया के
स्त्री पुरूष का है साथ।
आदि काल से चली परम्परा मे
बदलाव लाना होगा।
बायाँ और दायाँ दोनो
एक दूजे के पूरक है
परम्परा के इस भेद को हमे अब
आयना दिखलाना होगा।
अब हमे खूद को ही अपने
अस्तित्व को बचाना होगा।
नारी पुरषों से कमजोर नही
यही अब जग को दिखाना होगा
शक्ति का दूसरा स्वरूप हे नारी
ले रूप दुर्गा का तुने जग को तारा है।
ब्रह्मा, विष्णु, शंकर ने माँ दुर्गा को पूकारा है।
शक्ति का दूसरा रूप है नारी
बन जननी जिसने हम सबका जीवन संवारा है।
इंसान की दरिंदगी
इंसान की दरिंदगी का
लिखूँ मैं गुणगान,
हर दिल में विषधर मचल रहा।
हैवानियत भी हर इंसान के सर चढ़,
अपना खेल-खेल रहा।
रिश्तों की मर्यादा का कोई मोल नहीं,
हवसी, दरिंदों का कोई तोल नहीं।
राम, कृष्ण की धरा पर,
इंसानियत भी दम तोड़ रही।
जात पात और धर्म के नाम पर,
मानवता मानव को झंझोड़ रही।
करूणा, और दया की देख दयनीय स्थिति
आज के मानव से मानवता को छीन रही।
बदल जा ऐ मानव अब भी वक़्त है,
तेरी हैवानियत की नहीं कोई हद नहीं।
काश ऐ मानव
काश ऐ मानव तू न होता
तो न ही कौई झंझट होता
न ही कौई झमेला होता
धरती, अम्बर सब होता
बस तू न होता तो चहुंओर
खुशिहालीं होती
न अन्नदाताओं का आंदोलन होता
न लडाई, झगडे, दंगे फसाद होते
मुर्गा को नहीं पता जगाने वाले को
ही तू उसे काटेगा
न गो माता मरती न ही भेड बकरी कटती
न कही कौई गरीब होता न होती कौई लाचारी
धरा पर सिर्फ़ और सिर्फ़ चहुंओर
हरियाली और खुशिहालीं होती
सुबह होती रात होती बस
ऐ मानव तू न होता
तो वसुंधरा का रूप अनोखा होता
बीसा बीस में क्या खोया क्या पाया
छोटी आंखों वाले तूने फैला
करोना महामारी सबको डराया
बीसा बीस को बदनाम किया
वो तो लेकर आया था खुशियाँ
तेरी बुरी नज़र ने उसे बदनाम किया
इक्कीस का आऔ करे अभिन्नदन
बीस का न करे सम्रण
करता कौई और है, भरता कौई और है
समय बदला साल बदलेगा,
वक्त के साथ हालात बदलें
बीसा बीस में भूख देखी, देखी मानव की बेबसी ओर देखी लाचारी
बे वक़्त अपनो का बिछडना देखा
नही समझी दुनियादारी।
हमारे पितामह अग्रसेनजी का कहना है
मानव सेवा में ही बंदे रहना है
मानव सेवा ही सच्ची सेवा है
एकता में ही प्रेम बंधन है
हमें भी खूद में बदलाव लाना होगा
जनहित में सोये मानव को जगाना होगा
शीत में ठिठुरते वृक्ष और हिमशिखर पर के भाल पर
नया सूरज दमकाना होगा
उम्मीदो की धाटी पर
नववर्ष हमें मनाना है
आनेवाले नववर्ष में नव उर्जा
नव विश्वास का नेह दीप जलाना है।
बुराईयों का परित्याग करेमानव हीत की बात करे
अलविदा बीसा बीस कहते है
मानव न हो मानव का बैरी
नववर्ष में ऐसा दृढ संकल्प करे
नववर्ष का अभिंनदन सुनकर
हृदय मेरा रुंदन करने लगा
सुनकर रूंदन मेरा हिमशिखर
भी जडवित करहाने लगा
नही कौई देता बधाई, शुभकामनाएँ
ओरो के नववर्ष में क्यो खुशियाँ मनायें
मैं तो झमूगीं नाचूंगी, गाऊंगी
चैत्र सूदी एकम को नववर्ष मानाऊंगी
विक्रम संवत्सर अठहतर को धरा
भी ओढ धानी चुनरिया
करने स्वागत माता का रंगबिरंगे
पुष्प लेकर पूजन कर हरषित होगी
और मेरे वतन की माटी में तपते सूरज की वह प्यार भरी गरमाहट होगी
कोयल कू केगी डाली डाली
लहरायें खतो में स्वरणिम
गेहूँ की बाली
फैलाया वर्षो ज़हर जिसनें
वो केसे हो सकते है मेरे अपने
न वह कभी हमारे थे न उनका नववर्ष हमारा है।
चैत्र सूदी एकम लगता हमको प्यारा है।
नव वर्ष
दिन बीते महीने बीते,
बीसा बीस जाने वाला है।
नववर्ष इक्कीस की मैं क्यों करुँ तैयारी,
मेरा नववर्ष चेत्र सूदी प्रतिप्रदा को आने वाला है॥
बीसा बीस में जो फैली महामारी,
हम सब को दुविधा में डाला है।
जब से आयी महामारी छूटे मेरे संगी, साथी,
अब तो बस मोबाइल का ही सहारा है॥
छोटी आंखों वाले तूने जो किया,
वो तो जग जाहिर है।
कर ना पायेगा तू कुछ भी पर,
चाहे जितना माहिर है॥
कब तक पंख फैलायेगी ये,
चिड़िया महामारी की।
जल्द ही कतरेंगे पंख इसके,
जैसे ना जंग कोई हारी थी॥
हमें इससे डरना नहीं पर,
दो गज की दूरी अब भी ज़रूरी है।
छोटी आँखों वाले तू न अब हमें डरा,
क्योंकि भारत मातृभूमि हमारी है॥
ईंट का जवाब पत्थर से देगें,
ये हमको क़सम हमारी है।
यहाँ कामयाब ना होगी साजिश,
क्योंकि ये पावन भूमि हमें प्यारी है॥
क्योंकि गंगा, जमुना, सरस्वती और
धरा पर बसती मथुरा, काशी है॥
गीता जयंती
गीता के हर श्लोकों में
भरा ज्ञान का भंडार है,
फिर भी आज का मानव
इससे अंजान है ये कैसी विडंबना
गीता निकली श्री कृष्ण के मुखारविंद से
महाभारत युद्ध से पहले
कुरुक्षेत्र के मैदान में दिया
पार्थ को ज्ञान मोह माया छोड
दो लक्ष्य पर ध्यान आदि मैं भी
अन्त मैं भी और सम्भालो तीर कमान
धर्म की रक्षा करो, करो अधर्म का नाश
यही है गीता का ज्ञान
मेरी धरती मेरा किसान
चीरने सीना वसुंधरा का,
लेकर हलधर हल चला।
नहीं परवाह कि गर्मी सर्दी,
चला बस खेतों क़दम बढ़ा॥
जब लहू बनकर पसीना,
धरा के सीने पर गिरा।
तब जाकर किसी खेतों में,
अनाज लहलहा कर उगा॥
ऐ मेरी प्यारी धरती मां,
रिश्ता हमारा अनमोल है।
तेरी महानता, त्याग कहूँ क्या,
नहीं इसका कोई मोल है॥
आज नहीं समझ रहे हम,
तेरी इस अनमोल रहमत को।
प्रण करती हूँ मैं आज नहीं कि,
करने दूंगी खिलवाड़ किसी को॥
बिना तेरे, कृषि, मुद्रा के क्या!
आग बुझेगी पेट की?
बुरी नज़र लगी हलधर को,
आज न जाने किस-किस की?
उजाड़ रहा है वह घर मेरा,
आकर उनकी चिकनी चुपड़ी बातों में।
भ्रमित हो गई मती उनकी इससे,
और आ रहे हैं झांसों में॥
अरे वक़्त है अब भी समझो,
सारा जन जीवन बेहाल है।
नहीं लाभ इसमें तुम्हारा,
ये दुश्मनों की गहरी चाल है॥
कृष्णा भिवानीवाला
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