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मेरी यात्रा – My Journey
मेरी यात्रा – My Journey : एक छोटा-सा अनुभव सांझा कर रही हूँ मैं- वस्तुत: डरावना-सा है। अपने किसी प्रियजन कि अस्थि लेकर मुझे हरिद्वार जाना पड़ा। देखने में बात साधारण-सी थी पर मुझे वहाँ एक अलौकिक सत्य का अनुभव हुआ। शाम ९ बजे गंगा तट पर पसरी हुई निरवता एवम् खामोशी के बीच गंगा की लहेरे अपने अमरत्व का गीत गा रही थी।
हम अस्थि विसर्जन की क्रिया कराने वाले पंडित के घर हमें रुकना था। हमें वहाँ एक कमरा दिया गया। पुरानी दीवारों और चुने की छत वाले उस नार्मल से लगने वाले कमरे की खासियत थी-उसमे लगी हुई दर्जनों की खूटियाँ, जिन पर अस्थि वाली थैली को टांगा जाना था। थोड़ी ही देर में वहाँ और लोग भी आ गए देश के कोने-कोने से आये हुए दुःख से भरे हुए मन और अपने प्रियजन से विछोह की पीड़ा लिए हुए उन लोगों में एक समान बात थी-अस्थि वाली थैली।
अल सुबह तक कमरा और खूटियाँ दोनों भर चुके थे और मेरे मन में उठ रहा था विचारों का तूफ़ान। क्या मनुष्य जीवन का अंत ये थैली है? उसके ५०-६० सालों का सफ़र क़ैद है इन थैलियों में? उसके सूख-दुःख, सफलता-असफलता, यश-अपयश सबका एक पोटली बनकर इन खूटियों पर लटक जाना क्या बस इसी क्षण के लिए तमाम उम्र संघर्ष करता है, भागदौड़ करता है। अस्थियों की ये थैलियाँ चीख-चीख कर मनुष्य जीवन की नश्वरता के सत्य को उदघोषित कर रही थी और मानो कह रही थी-
” एक क्षण में हो जाओगे राख़,
लिए बुलबुले-सी ज़िन्दगी हो तुम,
फिर भी तमाम उम्र,
तेरा मेरा—…ये, वो—… ९९ के चक्कर में हो गुम “।
उस एक रात, के उस समय में, उस कमरे में अस्थियों की थैलियों के बीच मन शांत तो था पर डर-सा था कि इस जीवन की डोर परमपिता ने अपने हाथ में ले रखी है और एक दिन उसी में हर आत्मा को विलीन हो जाना है। सच कहूँ तो एक हास्यप्रद विचार भी आया मन में—की जितने भी चोर, डकैत या पापचारी है, उनको जेल में बंद करने कि बजाय अगर ऐसे किसी कमरे में अस्थियों की थैलियों के बीच बंद कर दिया जाए तो शायद वह जल्दी सुधर जाएँ।
शायद मौत का भय और अपने अंत कि ये सत्यता उनके मन परिवर्तन का कारण बन सकें। मेरे इस अनुभव को आपसे सांझा करने का उद्देश्य यह है कि, जितने भी दिन हम जिए—एक अच्छा नेक जीवन जिएँ। हंसकर जिए, खुश होकर जिए, परमात्मा को धन्यवाद देते हुए जिए। गंगा में मिलने से पहले जीवन का आनंद उठाएँ।
ज्योति सोनी “वैदेही”
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