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दुखिया दास कबीर (Kabir Das) है
जब से होश संभाला है, कबीर (Kabir Das) को पढ़ा और सुना है। कबीर की यह उक्ति भी बार-बार सुनी है-
सुखिया सब संसार है, खावै अरू सोवै,
दुःखिया दास कबीर है, जागे अरू रोवै।
मेरा बालमन कबीर के रोने की कल्पना कर दुःखी हो जाता था। कबीर रो रहा है, क्यों? पूछा तो पता चला, अनाथ है बेचारा। विधवा माँ और बाप ने उन्हें लोक लाज के भय से छोड़ दिया था। कैसे होंगे कबीर के मम्मी-पापा? छोड़ दिया नन्हे से बच्चे को। अब बच्चा रोएगा नहीं, तो क्या करेगा? यह भी बताया किसी ने बाद में कि उन्हें गुरु रामदास जी ने पाला-पोसा। मेरा मन थोड़ा-सा खुश हुआ, यह सोचकर कि अब कबीर नहीं रोएगा, मजे़ में खेलेगा-कूदेगा। गुरु जी लाख संन्यासी हों, बच्चे को तो ठीक से पाल ही लेंगे और ऐसा हुआ भी होगा, तभी तो कबीर उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते:-
सब धरती कागद करूँ, लेखनी सब बनराय।
सात समुंद की मसि करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय।
थोड़ा और बड़े होने पर सही बात पता लगी। गुरु के प्रति कबीर की कृतज्ञता का रहस्य पता लगा:-
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत कीन्ह उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावन हार।
लेकिन कबीर के दुःख का कारण अब भी समझ नहीं आया। क्यों बार-बार कहते हैं:-
दुखिया दास कबीर है।
आख़िर कबीर को दुःख है काहे का? मज़े में गृहस्थी चले रही है। बीवी है, दो बच्चे हैं। छोटा सुखी परिवार है। ताने-बाने पर झीनीझीनी चदरिया भी ध्यान से बुनी जा रही है। जिह्वा पर विराजती सरस्वती अमर काव्य के रूप में मुखरित हो रही है। तो फिर ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू सै वैर’ वाला प्रैक्टिकल दृष्टिकोण लेकर चलने वाला यह संत आख़िर दुःखी क्यों है, यह बात मुझे समझ नहीं आती। ज्यों-ज्यों सुलझाती हूँ, उलझती जाती हूँ। कुछ तो ऐसा अवश्य है, जो कबीर की संतुष्टि को असंतुष्ट कर रहा है।
कबीर के कथन में दो बातें तो पूर्णतः स्पष्ट हैं। पहली कि कबीर जागे हुए हैं, और दूसरी कि वे दुखी हैं। क्या ये दोनों बातें एक दूसरे से जुड़ी हुई नहीं हैं? क्या एक ही लक्ष्य की ओर इंगित नहीं करतीं? आइए, क्रम से विचार करें। कबीर जागे हुए हैं, अगर जागे न होते तो दुःखी न होते। अज्ञता कई बार वरदान होती है। कबीर सुविज्ञ हैं, इसीलिए दुःखी हैं। ‘सुखिया संसार’ की भांति खाते, पीते और सो नहीं सकते। उन्हें भोगवाद से कोई लगाव नहीं। रसना का रस उनके लिए अग्राह्य है। वे त्याग को महत्त्व देते हैं और जानते हैं जीवन की क्षणभंगुरता:-
पानी केरा बुदबुदा, अस मानव की जात।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।
इसी क्षणभंगुरता को वे अमरता में बदलने का मार्ग जान गए हैं। इसीलिए जागे हुए हैं। लोगों को भी जगाना चाहते हैं, लेकिन लोग सुखोन्माद में डूबे हैं, जागना नहीं चाहते। उनकी यही अज्ञानता कबीर को रूलाती है:-
झूठे सुख को सुख कहें, मानत हैं मन मोद।
जगत चबेना काल का, कछु मुख में, कछु गोद।
कबीर विषय-वासना के दास नहीं हो सकते, क्योंकि वे अपने ‘निरगुनिया’ के दास हैं। उन्हें हर जगह अपने लाल की लाली दिखाई देती है। इसी अनूठी आभा से अनुरंजित होने पर भी; मानसरोवर के सुभग जल में डूबने-उतराने पर भी, मुक्ति रूपी मुक्ता चुगने पर भी, उनका हंस क्यों बार-बारउद्ग्रीव-उत्कंठित हो आर्त पुकार लगाता है?
कबीर किसी अन्याय से पीड़ित होकर तो कतई दुखी नहीं हो सकते। अपना घर फूँक कर, लुकाठी हाथ में लिए, सरे-बाज़ार चुनौती देता यह दीवाना किसी के डर से तो दुःखी नहीं हो सकता। उनके दबंग और बेलौस व्यक्तित्व के सामने तो हर भय भयभीत हो जाता है। वे न राजा से डरते हैं न प्रजा से, न खुदा से, न खुदाई से। अपने में ही रमता यह फक्कड़ जोगी, आखिर व्यथित क्यों है? क्यों उनकी यह व्यथा-मंदाकिनी उनके संपूर्ण काव्य में अनवरत बहती है:-
साधो देखौ जग बौराना,
साँच कहौ तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना
याही विधि हंँसत चलत हैं हमको आपु कहावै सयाना।
कहीं इन्हीं सयाने लोगों का सयानप ही तो उनके दुःख का कारण नहीं? कबीर कवि हैं। जन्मजात प्रतिभासंपन्न कवि। उनका मन आहत है समाज के दोगले, असगंत आचरण से। आहत हैं वे धर्माडंबरों से, गली-सड़ी रूढ़िवादिता से, आहत हैं पाषाण-पूजन के लिए होती पशु और नरबलि देखकर। मानवता पर संकीर्णता का कसता शिकंजा उन्हें अंदर तक रूला देता है। वे छटपटाते हैं, लोगों को उनकी अज्ञानता पर लताड़ते हैंउनके न समझने पर, दुःखी हो जाते हैं।
सत्य ही तो है, जिस व्यक्ति की चेतना जाग चुकी है, जो अपने-पराए के भेद से मुक्त है, वह इस संसार में सुखी कैसे रह सकता है? ‘कुसुमादि कोमल, वज्रादपि कठोर’ उनका कवि, सुधारक, तत्वज्ञानी, भक्त मन बार-बार विगलित होता है। अपने ह्रदय के आलोक का एक-एक कण वह इस जग में छिटका देना चाहते हैं:-
जल में कुंभ, कुंभ में जल है, भीतर बाहर पानी।
फूटा कुंभ, जल जलहि समाना, यह तत कथयौ ज्ञानी।
लेकिन सयाना संसार उनकी नहीं सुनता; परपीड़ा से कातर वे पुकार लगाते हैं:-
सुखिया सब संसार है, खावै अरू सोवे।
दुःखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवे।
काश! कबीर की यह पुकार उन तक पहुँच पाती जो शोषण की नींव पर अपने वैभव की मीनारें चिन रहे हैं। जिनके कान किसी भी चीत्कार को सुन नहीं पाते, जिन्होंने अधर्म और अनीति को ही अपना जीवन-मूल्य मान लिया है। अगर ये लोग कबीर की पुकार सुनकर जाग जाते, तो उनका दुःख सदा के लिए मिट जाता। काश! कबीर का दुःख, सुख में बदल पाता। कितना सुंदर होता तब यह संसार। और तब कबीर का यह पछतावा भी सदा सर्वदा के लिए दूर हो जाता-
रात गंवाई सोय कर, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल है, कौड़ी बदले जाय।
उनके मन-प्राण अनंत के अनहद नाद में मग्न हो जाते और मानव-मृग वह कस्तूरी पा लेता, जिसकी तलाश में वह युगों-युगों से भटक रहा है, यहाँ से वहाँ तक, काबे से कैलाश तक। इस तलाश के पूरी होते ही कबीर झूम कर गा उठते:-
गगन गरजि बरसै अमिय, बादल गहर गंभीर।
चहुँ दिसि दमकै दामिनी, भीगै दास कबीर॥
मटर और ग़ज़ल
सुबह का नाश्ता-पानी निबटा कर जैसे ही कुर्सी पर आ कर बैठी कि हाथ ख़ुद ब ख़ुद मेज पर रखी डायरी को उठाने के लिए बढ़ गए। रात भर कहानी, कविताओं से बतियाने के बाद सुबह उठी, तो दिमाग़ की शाख़ पर विचारों के पक्षी कुदक-फुदक रहे थे। अब मैं इन बोलती-बतियाती ग़जल और कविताओं को काग़ज़ पर उतार लेना चाहती थी। डायरी उठाई ही थी पतिदेव पधारे। उनके हाथ में सब्जियों के दो किंग साइज थैले थे, जो उन्होंने लाकर मेरी मेज पर पटक दिए और चाय बनाने को कह कर, अखबार उठाया। मेरी बेचारी क़लम इन थैलों के नीचे दबकर कराह उठी। मैंने उसके उद्धार का उपक्रम किया ही था कि थैले में से झाँकती मेथी की मोटी गड्डी मुझे चिढा़ते हुए बोली, “लो जी, मैं आ गई, आ गई।” उसके ही बगल में धनिया-पुदीना की नन्ही-मुन्नी गड्डियाँ भी शैतानी से मुस्करा रहीं थीं। मटर का बडा़-सा लिफाफा, पंखे की हवा से फड़फडा़ता, अपनी उपस्थिति की मुनादी कर रहा था। अब क्या था, मटर और गज़ल के बीच खींचतान शुरु हो गई। ग़जल पन्नों को चूमने को बेताब थी और मटर, पनीर के साथ धाक्-धिना-धिन करना चाह रही थी।
मन ही मन, ‘भूखे भजन न होय गोपाला’ याद करते हुए मैंने अपनी डायरी और क़लम को साइड टेबल पर विश्राम दिया और मटर छीलने का अति आवश्यक कार्य शुरू किया। इसके बाद मेथी और धनिया-पुदीना। सुबह के सुहाने पल अब बीत चले थे और लंच मुझे आवाज़ दे रहा था। डायरी और क़लम मेरी ओर शिकायती नज़रों से देख रही थीं। मैंने उन्हें गुप-चुप आश्वासन दिया “अभी आई।” और सरस्वती माँ से अनुरोध किया कि वे मेरे मन में उमड़-घुमड़ करते विचारों को कुछ समय के लिए, अपने फिक्स्ड डिपॉजिट में रखें।
नित्य प्रति इस घटना चक्र की आवृत्ति के बाद, मेरी विचार-श्रृंखला, मंथन के गहन सागर में डुबकी लगाने लगी और कई बार के अवगाहन के बाद, जो निष्कर्ष रुपी मोती हाथ आया, वह यही था कि मटर और ग़जल का तालमेल ही ज़िन्दगी है। यदि चूक गए तो ‘माया मिली न राम’ वाली उलझनों में उलझ, धडा़म हो जाओगे। न मिलेगी रोटी और न होगी साहित्य-साधना। वैसे भी हम कवि टाईप के गृहस्थ किसी को नहीं छोड़ सकते।
पहले ज़माने में लोग बहुत समझदार हुआ करते थे। नाम के आगे संत और भक्त लगाया और निकल गए, डंडा-लोटा उठाकर साहित्य-साधना के लिए, मटर को चूल्हे में झोंककर। अब उसका क्या हश्र होगा, यह उनके चेले-चपाटों की सिरदर्दी। कालिदास जैसों को भी यह बात बहुत जल्दी समझ आ गई थी। पत्नी की ओर से पहला ही ग्रीन सिगनल पाते ही बगटुट उष्ट्र की भाँति भाग खडे़ हुए और काली माँ के चरणों में बैठ, ताबड़तोड़ कालजयी साहित्य रचना कर डाली। साहित्य-फील्ड में पूरी तरह एस्टेबलिश होने के बाद ही लौटे। कालातंर में कविकुल-गुरु की पदवी पाई, जिसके रिकॉर्ड को आज तक कोई चैलेंज नहीं कर पाया।
तुलसीदास भी पत्नी की एक ही फटकार से चेत गए। सीधे चित्रकूट का टिकट कटवाया, धूनी रमाई और मजे से एक से बढ़कर एक अमर काव्यों की रचना की। हाँ, इस मामले में कबीर काबिले-तारीफ़ रहे। खुदा के बंदे ने गृहस्थ में रहकर, करघे पर झीनी-बीनी चदरिया भी ख़ूब बुनी और काव्य क्षेत्र में भी झंडे गाड़ दिए। वैसे भी वे धाकड़ क़िस्म के जीव थे। उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। वे तो घर फूँक तमाशा देखने वाले मनमौजी थे। ख़ुद ही मुनादी कर दी—
अब तो उतर गई लोई,
क्या करेगा कोई।
हम तो इन महा विभूतियों के चौथाई परसेंट भी नहीं हैं। तुच्छ संसारी जीव हैं, इसलिए मटर और ग़ज़ल के बीच सैंडविच हुए पडे़ हैं।
मटर को छोडा़ नहीं जा सकता, जिंदा रहना है। ग़ज़ल को छोडा़ जा सकता है। अनेक ने छोडा़ हुआ है। बल्कि एक विडंबना भरा कटुसत्य तो यह है कि जिसने ग़ज़ल को छोडा़ वह सभी करुणा, संवेदना, प्रेम, परोपकार जैसी अव्यवहारिक, फालतू, इमोशनल अनुभूतियों से फौरन दूर हो गया और व्यवहारिकता से जुड़ पूरा का पूरा समदर्शी होगया, जीवन का मर्म पहचान गया। भवसागर तर गया। कामयाबी की बुलंदियों पर चढ़ गया और इधर ग़ज़ल वाले सीढी़ का पहला डंडा पकडे़, ‘तू छिपी है कहाँ, मैं तड़पता यहाँ’ वाले अंदाज़ में उसे पुकारते रहे। उधर कामयाबी, छज्जे पर मटर के साथ बैठी, उसे मुँह चिढा़ती रही और आज का नहीं, भई, युगों-युगों का सच यही है कि जिस पर मटर का हरियाला पन चढा, उसने मोटरें रख लीं। सीमेंट की गगनचुंबी इमारतें खडी़ कर लीं, पैट्रोल पंप डाल लिए, बडे़-बडे़ बाग़ उगा लिए, आदमियत को दूर भगाने के लिए बडे़-बडे़ कुत्ते पाल लिए। बेचारे ग़ज़ल वाले तो मजनू बने लैला को ही ढूँढते रह गए। कुछ को जब देर से समझ आई तो उन्होंने कंप्रोमाइज़ कर, फौरन ग़ज़ल के स्तर में अवमूल्यन कर दिया। कुछ मटर वालों की गोद में जा बैठे, कुछ फूहड़ता की बैसाखी लिए मंच पर उतर आए। ख़ूब वाह-वाही लूटी और मटर भी कमाई। लक्ष्मी और सरस्वती दोनों को एक ही फ़्लैट में लाकर बसा दिया।
हम से तो यह भी नहीं होता। अडि़यल जो हैं पूरे के पूरे। गीत और ग़ज़ल का सुर-ताल बिगड़ने नहीं देंगे, चाहे ज़िन्दगी के सुर कितने ही बेसुरे क्यों न हो जाएँ। चाहे घर के फ्रिज में अकाल ही क्यों न पड़ जाए। आख़िर कालजयी साहित्य रचने का ठेका भी तो हमीं ने लिया है। यदि सारे लेखक ही ‘यूज एंड थ्रो’ वाला लेखन करने लगे, तो साहित्य बेचारा ख़ुद ही खुदकशी कर लेगा और हम जैसों के रहते उसकी यह बुरी गत नहीं हो सकती। हम उसकी रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। हमें उसे हर हाल में बचाना है, तभी तो भावी पीढियाँ रामायण, महाभारत, प्रेमचंद, निराला के बाद भी अमर-काव्य के उदाहरण दे पाएँगी।
मटर के चाहने वाले, उसके गुणगान करने वाले बहुत हैं, ग़ज़ल के कद्रदान विरले ही होते है़ंं। यहाँ एक सच्ची घटना याद आ गई। हुआ यों कि हमारी सोसाइटी के लोगों ने गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया। इसमें एक छोटा-सा कवि सम्मेलन भी रखा गया। मेरे जैसे कुछ लोग मंच की शोभा बढ़ा़ने पहुँच गए। बहुत बडा़ पंडाल लगाया गया। जिसके बाहर मटर वालों ने अपने-अपने खोमचे लगाए। तरह-तरह की खुशबुएँ वातावरण को महका रही थीं। ध्वनि-विस्तारक गलाफाडू स्वर में देशभक्ति के पुराने-सुहाने गाने सुना रहे थे। सुंदर समां था।
बच्चे, बूढे़, मम्मियाँ, पापा सब फुर्सत में, पिकनिक के से उत्साह में नज़र आ रहे थे। हम भी उन सब पर अपनी प्रतिभा की धाक बिठाने की बात सोचकर पुलकित हो रहे थे। पहले सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ। कॉलोनी के बच्चों ने अपने-अपने हुनर का प्रदर्शन किया। हर तरफ़ मोबाइल से फोटो खींचे जा रहे थे। फिर ईनाम बाँटे गए और सबके बाद बारी आई कवियों की। हम सब बडी़ गरिमा-उत्साह से मंच पर विराजमान हुए। इधर संचालक महोदय ने संचालन के लिए माईक संभाला, उधर हमारी दर्शक-श्रोता मंडली अपने-अपने पप्पू-पप्पियों की उंगली थामे खोमचों वालों की ओर जाने लगी। संचालक महोदय का बार-बार किया जाने वाला अनुरोध भी उन्हें लक्ष्य से डिगा नहीं पाया। पंडाल में ग़जल के इक्के-दुक्के कद्रदान ही रह गए। मटर के कद्रदानों का सैलाब आ गया। समय की कमी का हवाला देते हुए संचालक महोदय ने कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा की और हम कविगण झेंपते हुए, अपनी-अपनी नाक सँभाले, वहाँ से खिसक लिए। मटर के सामने भला ग़जल की क्या औकात? आज हमें अच्छे से समझ आ गया कि एक म्यान में दो तलवारें यानी एक पंडाल में मटर और ग़जल की गुज़र नामुमकिन है।
अब हमने मन बना लिया है कि मटर से दूरी बना कर ग़जल लिखेंगे। स्वान्तःसुखाय टाईप की। स्वान्तःसुखाय ही सच्चे अर्थों में पर हिताय होता है। मटर, मेथी, धनिया आदि-आदि इतराओ मत। तुम्हारी हरियाली एक विशेष जीव धारी को भले ही आकर्षित कर ले, हम जैसों पर इसका असर होने वाला नहीं है। हम तो प्रतिबद्ध हैं ग़ज़ल लिखने के लिए। ग़ज़ल, कभी वेदना से सुबकती, तो कभी अंगारे बरसाती। कभी शांति तो कभी क्रांति बरपाती। आस और विश्वास जगाती। आँधियों! बदस्तूर पूरे दम खम से आती रहो, हम टस से मस होने वाले नहीं हैं। हम तो जलेंगे दीपशिखा की तरह। जो रात भर जलेगी, चुनौती देगी अंधेरे को, थपेडे़ सहेगी, भीजेगी, खीझेगी, लेकिन भोर का आलेख लिखे बिना न झुकेगी, न बुझेगी। मटर को पानी-पानी होना ही होगा। ग़ज़ल को गूंजना ही होगा।
याते नीचे नैन
रहीम एक महामानव ज्ञान, परोपकार, सह्रदयता की प्रतिमूर्ति। सहस्र स्वर्ण मुद्रा प्रतिदिन दान देने पर भी नेत्र संकोच से नत। ऐसा क्यों? कहीं दानवीरता का अहंकार सिर न उठा ले। भ्रम न हो जाए दाता होने का। क्योंकि दाता तो एकमात्र वही परमपिता है, जो अपने अक्षय-कोष से नित सबको देता है। पाए हुए को दूसरे को देने में कौन-सी महिमा, कौन-सी बड़ाई?
देनहार कोऊ और है, देत रहत दिन रैन।
लोग भरम मो पर करैं, याते नीचै नैन।
रहीम का संकोच उनकी विनम्रता का पर्याय है, यह बात तो समझ आती है लेकिन हमारे नयन नीचे क्यों? दानवीरता की बात तो कदापि नहीं, क्योंकि हम तो दान ही तभी करते हैं, जब दो-चार लोग उसके साक्षी न हों। दान देते समय कैसा संकोच? हमारा मन ताे दाता होने के गर्व से फूला-फूला रहता है। आखिर, पूरी अठन्नी दान में दी है, क्या यह कोई छोटी-मोटी बात है? दान का अहंकार आँखों में भरा है। मस्तक गर्वोन्नत है। याचक हमें ढेर-सी दुआ देगा। कृतज्ञ होगा हमारा, ऐसी इच्छा भी रखते हैं।
लेकिन यह गर्व कितना थाेथा, कितना बेमानी और कितना क्षुद्र है, सभी जानते हैं। यह छोटापन है, जो हमें हमारी ही दृष्टि में गिरा देता है, अपनी दृष्टि में गिरना सचमुच मरण है। धिक्कार के योग्य है। आज हमारे नेत्र झुके होने का एकमात्र कारण हमारे व्यक्तित्व का बौनापन ही नहीं है।
हमारे नयन इसलिए भी झुके हैं क्योंकि आज जो हम देख रहे हैं, वह शोभन नहीं है, प्रिय नहीं है। यह अप्रियता मन में सघन पीड़ा भर रही है, लेकिन इसे समाप्त करने का, संघंर्ष करने का साहस हममें नहीं है। गलत-सही की पहचान रखते हुए भी हम कायरता वश उससे अनजान बने रहने का अभिनय कर रहे हैं।
याद हैं न, भीष्म के नत नयन। द्रुपद-दुलारी बार-बार अपने प्रति होने वाले अन्याय का प्रतिकार कर रही है। प्रश्र पर प्रश्र उठा रही है। सभी गुरुजन, पितामह उसकी सहायता में पूर्ण समर्थ हैं, धर्म वेत्ता हैं, लेकिन वे मौन साधे बैठे हैं। उनके ह्रदय में भले ही अपार हाहाकार पछाड़ें खा रहा हो, लेकिन अधर शांत हैं, सिर झुका है, नयन नत हैं। ये सभी भविष्य के अपराधी हैं। इनके नयन तो झुकेंगे ही। हम भी आज विवशता को जीने वाले नपुंसक ही तो हैं, नेत्र तो नत होंगे ही।
बात-बात में बड़े-बड़े सिद्धांतों का बखान करने वाले, पर-उपदेश कुशल हम, आज आचरण की कसौटी पर एकदम फिसड्डी हैं। हमारे सिद्धांत व्यवहार से परे हैं। हमारे आदर्श, यथार्थ के समक्ष निस्तेज हो रहे हैं। फिर भी हम उनका बखान करते, अघाते नहीं है। कहीं हमारी लज्जा का कारण, कहनी और कथनी का यही अंतर तो नहीं?
भारत की वैविध्य पूर्ण धरती से जुड़े होकर भी हम सबके प्रति उदार क्यों नहीं हो पाते। भारत की त्याग-प्रधान संस्कृति के उत्तराधिकारी होते हुए भी हमारी अनैतिकता, हमारी स्वार्थपरता का कोई ओर-छोर नहीं। “वसुधैव कुटुम्बकम्” का नारा बुलंद करने वाले हम, अपने अतिरिक्त किसी को देख ही नहीं पाते। हमारी मानसिकता का आकाश इतना संकीर्ण हो गया है कि उसमें करुणा-मेघ नहीं उमड़ते। न ही वर्षा होती है। सूर्य किरण नहीं झिलमिलाती। उसमें कोई इंद्रधनुष नहीं बनता। तमस-पटल पर ज्योति-रेख खींचने वाले हाथ, आज प्रकाश के सामने चेहरा ढाँप रहे हैं। फलस्वरूप नयनों का झुकना स्वाभाविक है।
अपनी धर्मनिरपेक्षता का नगाड़ा पूरे ज़ोर से पीटने वाले हम, धर्म का मतलब तक नहीं जान पाए। लज्जा की यह स्थिति अगर अपराध-बोध के कारण है, तो निराशा बहुत सघन नहीं है, क्योंकि अपराध-बोध के बाद ही प्रायश्चित की भावना जागती है और अगर यह पश्चाताप सच्चा है, तो बिगड़ी बात बन सकती है। व्यक्ति के सभी दोष इस अग्नि में तपकर, अश्रुधारा बन बह जाते हैं और निखर उठता है व्यक्तित्व का वह उजला पक्ष, जो काम्य है। जिसमें मानव मन का कोमल, संवेदनशील पक्ष है; मानवीयता है।
यह एक ऐसा जुड़ाव है, जिसमें नेत्रों के झुकने का प्रश्न ही नहीं उठता। हाँ, अगर तब ये नेत्र झुकते भी हैं, तो रहीम के व्यक्तित्व की विनम्रता लेकर। फूल-फल से लदे रसाल-वृक्ष का सौंदर्य और सुवास लेकर। सुवास, जो महकती रहेगी, अनंत आगत तक, आह्लाद भरी। मैं इन्हीं नत नयनों की प्रतीक्षा में हूँ। काश! यह प्रतीक्षा शीघ्र ही पूर्ण हो।
जब बरसहि वर वारि विचारू
साहित्य सृजन। भाव-मेघों का मानस आकाश में उमड़ना घनीभूत होना, बरसना, बरसना ऐसी रिमझिम फुहारों का, जो सूखे-बंजर मन में भी रस का संचार कर दे अंकुरित हो आशावान जीवन। हरीतिमा से भर जाए धरती का कण-कण। सुरभित, सुवासित, सौंदर्य समन्वित हों मन-प्राण। तभी तो सार्थक होगा आगमन सावन का, बलिदान मेघों का। समष्टि के लिए व्यष्टि-अस्तित्व का समर्पण सदा सराहनीय, श्रेयस, वांछनीय।
यदि ऐसा नहीं है तो व्यर्थ है बरसना भावों का, सृजन साहित्य का। मसृण शब्दजाल चमत्कृत भले ही कर दे, रचयिता के मन में सृष्टा का भ्रम उत्पन्न कर अहंकार के बीज भले ही बो दे पर मन, प्राण, बुद्धि की तृप्ति में असमर्थ ही होगा। ऐसा सर्जन उस वर्षा के समान होगा, जो बरसती तो है पर प्यास नहीं बुझाती। धरती पर पड़ते ही जिसकी बूँदें सूख जाती हैं और प्रतीक्षारत धरती प्यासी ही रह जाती है। उद्देश्य रहित रचना साहित्य नहीं। साहित्य की सार्थकता है उसकी प्रेरक शक्ति। प्रेरणा, जन कल्याण की। गोस्वामी तुलसीदास ने स्पष्ट स्वीकार किया है:-
कीरति भनति भूति भल सोई,
सुरसरि सम सब कहँ हित होई।
साहित्य-धारा पुण्य-सलिला गंगा बन सके इसके लिए आवश्यक है उसका मानवीय भावों से एकीभूत होना, संवेदना को विस्तार देना।
अयं निजम् परावेत्ति,
गणना लघु चेतसाम्
उदार चरितानाम् तु,
वसुधैव कुटुम्बकम्।
क्षुद्रता, संकीर्णता से बाहर निकल उदारमना होना, अर्थात् हर स्वाति बूंद का अनमोल मोती बनना। अर्थवान होना कवि अभिव्यक्ति का।
जब बरसहिं वर वारि विचारू
होहि कवित्त मुक्ता मनि चारू।
लेकिन विडंबना, आज रचयिता का दृष्टिकोण बदल चुका है। रचनाधर्मिता के मूल उद्देश्यों को भुला, अपना अस्तित्व खोकर, वह भी भीड़ का एक हिस्सा बन गया है। वह भीड़, जो अपने स्वार्थ के दायरों तक सीमित है। स्वार्थ-तमस से आच्छादित क्षुद्रभावना उसे, उन लोगों का चारण बना देती है, जिनका उसे विरोध करना चाहिए। मानवीय मूल्यों का पक्षधर ही जब दल बदल ले, तो विनाश अवश्यम्भावी है। हाथ आएगा तो केवल पछतावा:-
कीन्है प्राकृत जन गुणगाना,
गिरा लागि सिर धुन पछिताना।
साहित्यकार का यह आचरण भयावह है। साहित्यिक गरिमा से गिरना यानी संस्कृति, परंपरा और आदर्श की जड़ों पर कुठाराघात करना। भविष्य को अनिश्चय के अरण्य में भटकने के लिए छोड़ देना। साहित्य का यह अवमूल्यन एक ईमानदार साहित्यकार, एक सच्चे पाठक को स्वीकार नहीं हो सकता। यश और धन-अर्जन के लिए मन के कुत्सित विचारों का प्रदर्शन, दूषित अहम् का पोषण सरस्वती-पुत्रों को शोभा नहीं देता। साहित्य समर्पण है, व्यापार नहीं। साहित्य पीयूषवर्षा है, संजीवनी है, वसंत का आगमन है। साहित्य भास्कर है, भास्वर है।
साहित्य की मर्यादा का पालन न करना अक्षम्य अपराध है ऐसा साहित्यकार पूरी मानवता के समक्ष जवाबदेह है, क्योंकि वह साहित्य को हित रहित मानता है। क्या है साहित्य का ध्येय? परंपरा ने स्पष्ट कहा है:-
काव्यं यशसे, अर्थ कृते,
व्यवहारविदे, शिवेतर रक्षतये।
सद्य परिनिवृत्तये,
कांता सम्मितौपदेशयुजै।
लेकिन परंपरा का अनुपालन, लकीर का फ़क़ीर वाली परिपाटी अब अतीत हो गई है। आज रचनाकार लीक से हटकर कुछ नया दिखाना चाहता है। इस नए को परिभाषित करना सरल नहीं है क्योंकि हर वर्तमान विगत के लिए और भविष्य वर्तमान के लिए नया होता है। तो किसे कहें नवीन? उसे जो युग और परिस्थिति सापेक्ष हो। हर कसौटी पर खरा उतरे।
क्षणे-क्षणे यन्ननवतांमुपैति
तदैव रूपं रमणीयताया।
जो चिर पुरातन होते हुए भी चिर नवीन हो। स्वान्त: सुखाय होते हुए भी सर्वजन हिताय हो। जो सुरूचि और संस्कार का रक्षक हो। मानवता का पथप्रदर्शक हो। तभी कवि-वेदना का गीत, सबके प्राणों का संगीत बन गुंजित होगा दिशा दिशान्तर तक, युग युगान्तर तक। रचना होगी अमर साहित्य की, निर्माण होगा नवयुग का, उत्थान मानवता का। हरी-भरी हो जाएगी धरती, शीतल भावों की फुहार पाकर। साहित्य-सीप में ढलेगा अनमोल आभा भरा मोती।
और बुद्ध मुस्कराए
बुद्ध पूर्णिमा। धरती को आलोक-स्नात करती पूर्णिमा की धवल चंद्रिका सदृश ही बुद्ध की स्निग्ध स्मिति समस्त प्राणीजगत पर करुणा छिटका रही है। बुद्ध का मानस करुणा का अक्षय स्रोत है। क्रूर अहेरी के बाण से बिद्ध हंस हो, रोग ग्रस्त शरीर या ज़रा-जर्जरित काया, सभी बुद्ध की करुणा की छाया पा जाते हैं। संसार के कष्टों का निवारण करने के लिए, द्रवित ह्रदय लिए, एक तरूण राजकुमार, राजवैभव को ठुकरा, प्रणय और ममत्व के बंधन तोड, रात्रि के निविड़ अंधकार में ज्ञान-आलोक की खोज में निकल पड़ता है। अपार कष्ट सहन कर, धैर्य और संयम के उपरांत यह खोज पूरी होती है और सिद्धार्थ वास्तव में सिद्ध अर्थ हो, बोधि प्राप्त करते हैं, बुद्ध बन जाते हैं। दिव्य प्रभामंडल से परिवेष्टित, प्रसन्नवदन बोधिसत्व मानवता को दुःखों से मुक्ति का मार्ग बताने निकल पड़ते हैं। अनेक चरण उनका अनुसरण करते हैं। मानवता पुलकित हो जाती है।
बुद्ध की करुणा कृपा-वर्षा से भीग-भीग जाती है। कितने क्रूर अशोक प्रियदर्शी हो जाते हैं, धरती अशोक हो जाती है। आज भी बुद्ध-पूर्णिमा है। ग्यारह मई, सन् उन्नीस सौ अट्ठानवें की बुद्ध पूर्णिमा। देश स्वतंत्रता की स्वर्णजयंती मना रहा है। स्वतंत्रता निरंतर उन्नति के सोपान चढ़ रही है। देश परमाणु-परीक्षण कर रहा है और बुद्ध मुस्करा रहे हैं। क्या बुद्ध सचमुच मुस्करा रहे हैं? विरोधाभास तो अवश्य है। परमाणु की विभीषिका तो आज भी दहला देती है। द्वितीय विश्वयुद्ध में ध्वस्त नागासाकी और हिरोशिमा की भयावह त्रासदी परमाणु का पैशाचिक अट्टहास ही तो था। फिर क्यों यह परमाणु-परीक्षण। भस्मासुर का आवाहन-क्यों? और वह भी शांति के उपासक कहे जाने वाले भारत के द्वारा और बुद्ध की मुस्कान? ध्वंस पर शांति की स्मिति, कितनी विचित्र, कैसी असंगत।
इस विचित्रता को समझने के लिए हमें अपने देश के इतिहास की गहराइयों में उतरना होगा। अवगाहन करना होगा सदियों से भारत-भूमि पर बहती मानव-मूल्यों की गंगा-धारा में। अवगत होना होगा अपने देश की संस्कृति से, शौर्य से। भारत वीरों की भूमि है। हमारे देश का इतिहास इस बात का साक्षी है कि हमने अपनी वीरता का परिचय कभी भी, साम्राज्य विस्तार, रक्त-लिप्सा या आक्रांता के रूप में नहीं दिया। हमने आक्रमण कारी को उचित प्रत्युत्तर दिया है, कभी आक्रमण नहीं किया। हम शांति चाहते हैं। ‘अहिंसा परम धर्म’ में हमारा पूर्ण विश्वास है, लेकिन इस अहिंसा को कायरता का पर्याय न माना जाए, इसलिए हमने हिंसा को आपद् धर्म भी माना है। युद्ध की तैयारी शांति काल में ही होती है, यह बात सर्वविदित है। हमारा परमाणु-परीक्षण आत्म-रक्षा की दिशा में उठाया गया एक मज़बूत क़दम है। भारत की रक्षा का अर्थ है सत्य, शिव और सौंदर्य की रक्षा। हमारे परमाणु-परीक्षण में निहित लोकमंगल की यह पुण्य कामना ही बुद्ध की मुस्कान का कारण है।
भारत जीवन के प्रति आस्थावान है। जीवन की गतिशीलता को बनाए रखने के लिए उसके मार्ग में आए सभी अवरोधों को दूर करना आवश्यक है। विज्ञान का चरम-लक्ष्य भी जीवन को उन्नत करना है। परमाणु-ऊर्जा, जीवन-ऊर्जा के लिए नए क्षितिज खोजेगी। इसी उद्देश्य को लेकर किया गया हमारा परमाणु-परीक्षण निस्संदेह बुद्ध की मुस्कान का रहस्य है।
भारत सदा ही आशा का गीत गुनगुनाता आया है। वह विध्वंस में निर्माण का, असत्य में सत्य का और मृत्यु में अमरता का स्वर सुन लेता है। हममें हर प्रलय को झेलने का साहस हैं और इसी साहस का परिचय आज हमने इस परीक्षण के रूप में दिया है। शक्ति और क्षमा से युक्त, स्वाभिमान से जीने का, नैतिक अंकुश से बल को नियंत्रित करने का, हमारा यह प्रयास ही बुद्ध की मुस्कान का कारण है। संपूर्ण जगती का कल्याण निहित है इस मुस्कान में। यूँ ही मुस्कराओ बुद्ध अनंत तक, ताकि स्नेह की शीतल छाया में मानवता विकास पा सके। शक्ति के आंचल में जग कल्याण मुस्करा सके। ” असतो माँ सद्गमय’ का उद्घोष अग-जग गुंजा सके।
जानत प्रिया एक मन मोरा
तुलसीदास मर्यादावादी कवि हैं। मानव मन में उठने वाले प्रत्येक सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव का वर्णन उन्होंने मर्यादा की सीमा में रहकर ही किया है। इसी मर्यादा पालन ने उन्हें गौरव दिया है, लेकिन अनेक साहित्यकार मर्यादा के उल्लंघन को साहस का नाम देते आए हैं। इस भ्रांत धारणा को लेकर किया गया लेखन ‘साहित्य’ की कोटि में कितना आता है, यह विज्ञ जन भलीभाँति जानते हैं। तुलसी साहित्य की मूलभावना से सुपरिचित थे। इसका प्रमाण उन्होंने अपने काव्यों में पग-पग पर दिया है।
कीरति भनिति भूति भल सोई,
सुरसरि सम सब कहँ हित होई।
वही साहित्य रचना श्रेष्ठ है, जो सुरसरिता गंगा के समान हितकारी हो। श्री रामचरित मानस हिंदी-साहित्य का प्राण है और उसके नायक श्रीराम केवल तुलसी के ही नहीं, वरन् समस्त जनमानस के प्रेरणा स्रोत हैं। उनका पावन चरित्र आदर्श और मर्यादा की प्रभा से मंडित है। उन के चरित्र में वे सभी उद्दात्त गुण हैं, जो उन्हें सबका आराघ्य बनाते हैं।
श्रीराम का सर्वश्रेष्ठ गुण है कि वे अपने कर्तव्यों से सुपरिचित हैं। एक पुत्र, भ्राता, शिष्य, पति, सखा, शासक, स्वामी हर रूप में कर्तव्य पालन के लिए सन्नद्ध हैं। वे एक आदर्श प्रेमी हैं। उनमें उच्छृंखलता का लेश नहीं है। पुष्प वाटिका में वे प्रथम बार श्रीसीता को देखते हैं, जो गौरी पूजन के लिए वहाँ आईं हैं। श्रीराम उन्हें देखकर लक्ष्मण के प्रति अपने सहज मनोभाव व्यक्त करते हैं:-
कंकन किंकनि नूपुर धुनि सुनि
कहते लखन सन राम हृदय गुनि।
मानहु मदन दुंदुभी दीन्हि,
विश्व विजय मनसा मन कीन्हीं।
सीता का राम के प्रति आकर्षण भी अत्यधिक संयत है।
लोचन मग रामहिं उर आनि
दिए पलक कपाट सयानि।
यह प्रणय उभय-पक्षीय है। दोनों बिन कहे एक दूसरे के भाव जानते हैं। स्वयंवर के समय दोनों के भावों का मार्मिक अंकन तुलसीदास करते हैं। सीता यह सोच कर चिंतित हैं कि श्रीराम शिव-धनुष भंग कर पाएंगे या नहीं। उनकी व्याकुलता चरम सीमा पर पहुँच गई है। किसी से कह नहीं सकतीं। सभी देवी-देवताओं को मना चुकीं हैं। यहाँ तक कि शिव धनुष से भी लघुभार होने की याचना कर चुकीं हैं।
निज जड़ता लोगन्ह पर डारि,
मोहि हरुअ रघुपतिहि निहारि।
कभी राम की ओर कभी धनुष की ओर देखतीं हैं।
प्रभुहि चितई पुनि चितब महि,
राजत लोचन रोल।
खेलते मनसिजु-मीन-जुग,
जनु विधु मंडल डोल।
श्रीराम उनकी मनःस्थिति को जानते हैं, उन्हें चुपचाप आश्वासन देते हैं और धनुष भंग करने के लिए बढ़ते हैं। पति के रूप में उन्होंने सीता के प्रति अपने जिस मर्यादित प्रेम का परिचय दिया है, वह अनुपम है। वन गमन के समय सीता को वन की भयावह स्थिति से परिचित करवाते हैं। उन्हें बार-बार रोकना चाहते हैं। सीता-हरण के समय उनका विलाप
“हे खग मृग, हे मधुकर श्रेनी
तुम देखी सीता मृग नैनी”
पाषाण-ह्रदय पाठक को भी द्रवित कर देता है। प्रेम की इसी प्रगाढ़ता और गहनता का एक अन्य उदाहरण हमें उनके उस प्रेम-संदेश में मिलता है, जो वे पवन-पुत्र द्वारा सीता के लिए भिजवाते हैं।
श्रीराम का प्रेमिल-भावुक मन, उनके वचनों से छलक-छलक पड़ता है। इसे सुनकर अशोक वृक्ष से अंगार की याचना करने वाली सीता धैर्य धारण करती हैं। राम के वचन संजीवनी हैं, वे मृतप्राय: सीता के लिए जीवन दायक बन जाते हैं। कितने भावपूर्ण क्षण हैं। पवनपुत्र अपना परिचय सीता जी को देते हैं:-
राम दूत मैं मातु जानकी,
सत्य सपथ करूणानिधान की।
नर और वानर की मित्रता की कथा सुनाते हैं। सीता आश्वस्त हो जाती हैं। श्रीराम और लक्ष्मण जी की कुशल पूछती हैं। उपालंभ देती हैं:-
अहह नाथ हौं निपट बिसारी।
वे राम, जो अपने सेवकों का भी सहज ध्यान रखते हैं, वे क्या सीता को भुला सकते हैं? हनुमान इस उपालंभ को समझते हैं। सीता भी इसकी सत्यता को जानती हैं और राम तो सुविज्ञ हैं। पवनपुत्र सीता को दृढ़ शब्दों में धैर्य बंधाते हैं:-
जनि जननी मानहु जिय ऊना
तुम्ह तें प्रेम राम के दूना।
और फिर नेत्रों में प्रेमाश्रु भर, गद्-गद् स्वर में श्रीराम का संदेश सुनाते हैं। कुछ ही शब्दों में ह्रदय की सारी कसक, वेदना और प्रेम के गंभीर और मर्यादित रूप तो इस संदेश के माध्यम से व्यक्त कर देते हैं।
कहेहु राम वियाेग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए विपरीता।
नव तरू किसलय मनहु कृसानु,
काल निसा सम रवि ससि भानु।
कहेहु तें कछु दुख कम होहिं,
काहु कहें यह जान न कोई।
प्रकृति भी वियोग के क्षणों में प्रतिकूल हो गई है। सुख देने वाले सभी पदार्थ दुःखद हो गए हैं। वे अपने मन की व्यथा किससे कहें। राम जानते हैं दुःख कहने से कम होता है, लेकिन कोई तो हो ऐसा जिसके सामने वे अपना ह्रदय खोल सकें। एक बात और भी है, कुछ बातें कही नहीं जातीं, अनुभूति का विषय होती हैं। अनुभूति का साधन है मन और राम का मन सीता के पास है। उनके मन के भाव ही सीता के मन के भाव हैं। द्वैत की स्थिति ही नहीं। वह प्रेम ही क्या, जिसकी अभिव्यक्ति करनी पड़े। मौन संवाद ही प्रेम की पराकाष्ठा है। यही पराकाष्ठा प्रकट होती है राम के इस कथन से:-
तत्व प्रेम कर मम अरू तोरा
जानत प्रिया एक मन मोरा।
सो मन सदा रहत तेहि पाहि,
जानु प्रीति रस एतनेहु मांहि।
प्राणाधिक प्रिय राम का यह संदेश सुन वैदेही, विदेही हो जाती हैं। प्रेममग्न हो तनमन की सुधि भूल जाती हैं। भूल जाती हैं विरह को, रावण के त्रास को, लंका की अशोक वाटिका को। राम उनसे दूर नहीं हैं, उनके ही पास है। सदा उनकी कृपा दृष्टि उन पर है। वे पूर्णकाम हैं। वे उनके कष्टों का निवारण करेंगे। लंका दहन के पश्चात् सीता जी की चूड़ामणि लेकर जब हनुमानजी श्रीराम के पास जाते हैं, तो वे उनके प्रति कृतज्ञता दिखाते हैं। सीताकी कुशल-मंगल पूछते हैं। हनुमान भावपूर्ण शब्दों में सीता जी की दशा का निवेदन करते हैं:-
विरह-अग्नि तनु तूल समीरा,
स्वास जरई छन मांहि सरीरा।
नयनु स्रवहि जलु, निज हित लागि।
जरि न पाव देह विरहागि।
निमिष-निमिष करूणा निधि,
जाहि कलप सम बीति
बेगि करहु प्रभु आनहु,
भुजबल खल दल जीति।
सीता की विपत्ति अकथनीय है। राम के जल इसकी कल्पना मात्र से ही अश्रुपूरित हो जाते हैं। उन जैसे स्वामी के रहते उनकी प्रिया की यह स्थिति? वेदना असहनीय हो जाती है। तुरंत सेना को प्रस्थान की अनुमति देते हैं। ससैन्य लंका की ओर उनका प्रयाण ही सीता के सभी कष्टों का प्रस्थान हैऔर प्रमाण है राम की कर्त्तव्य-निष्ठा, साहस और उनके उज्ज्वल पावन प्रेम का, जो उन्हें प्रणयी शिरोमणि बना देता है।
भीगा भीगा मन
दूर तक तपन का सिलसिला है। धरती सुलग रही है, अकुला रही है। सारी हरियाली पहले मुरझाई, फिर सूखी और लुप्त हो गई। लगता ही नहीं कि कभी यहाँ कलियाँ थीं जो पवन के हाथों सुगंध भरे संदेशे भेजती थीं। नेह निमंत्रण पाकर चली आती थीं, भ्रमरावलियाँ, रंग बिरंगी तितलियाँ। कोयल भी पंचम गा लेती थी। इंद्रधनुषी फूलों का क्रम क्षितिज तक फैला था। नंदन कानन को लजाती थी यहाँ की धरती। दृष्टि का उत्सव था प्रतिपल।
लेकिन अब? मन भीग-भीग उठता है यह देखकर। बदलाव का यह भयावह दृश्य सिहरा देता है। क्या सारी सुंदरता यूँ ही कुरूपता में बदल जाएगी? क्या विनाश यूँ ही तांडव करता रहेगा यहाँ पर? प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहता। न जाने कहाँ, अंतस के कोने में बैठा आस-विहग मंद स्वर में चहकता है, “यह आशंका क्यों?” विनाश और निर्माण, रूदन और हास, पतन और उत्थान, तांडव और लास्य सृष्टि का नियम है। यहाँ भी दृश्यांतर अवश्य होगा। बिहारी का ‘अलि’ गुलाब मूल में यूँ ही तो अटका नहीं है, कुछ आस लगाए है:—
यहि आस अटक्यो रहत, अलि गुलाब के मूल।
अइहहि फेरि वसंत रितु, इन डारन वै फूल
तो वसंत का आगमन तो पक्का है। कब आएगा वसंत? तभी न, जब ताप इतना बढ़ जाएगा कि सागर का जल मेघों का रूप धारेगा। सजल मेघ धरती की तपन को देखकर आर्द्रता से उस पर झुक जाएँगे, भर देंगे वे सभी दरारें, जो धरती का कलेजा फटने से बनी हैं। धरती समतल हो जाएगी। चिकनी और सौंधी मिट्टी से शरारती बच्चों से अनगिन अंकुर झाँकेंगे। एक दूसरे को देखकर हँसेंगे, शरमाएँगे। बढेंगे, पल्लवित-पुष्पित होंगे। वतास फिर सुरभि के संदेशे भेजेगी। फिर पर्व मनेगा। मन भीग-भीग उठेगा, यह देखकर।
आज मन भीगता है, यह देख कर कि कैसे दिक्-दिगंत तक शांति प्रसारित करने वाली, वसुधैव कुटुम्बकम् का साम्य गीत गाने वाली, परोपकार और करूणा से सिक्तदेशकीसंस्कृति-लतिका आज मुरझाने लगी है। संकीर्णता, साम्प्रदायिकता, हिंसा की गर्म लूएँ चल रही हैं। अनाचार और भ्रष्टाचार का सूर्य मध्याह्न में है। अपनी किरण-शलाकाओं से धरती माँ का वक्ष जला रहा है। चोट पर चोट पड़ रही है। न जाने कहाँ-कहाँ से, कैसे-कैसे विवाद उठने लगे हैं। देश-परिवार फिर महाभारत की ओर बढ़ रहा है।
आज भी मन भीगता है जब दिनभर के कठोर श्रम के बाद भी भूख नहीं मिटती। बचपन बिलखता है। योग्यता का सम्मान नहीं। प्रतिभा के मार्ग में अनेकानेक व्यवधान हैं। परिवार संयुक्त से एकाकी हो रहे हैं। ‘मैं’ हावी होता जा रहा है। अपने से परे कुछ दिखाई ही नहीं देता। बूढ़े माता-पिता बोझ बन गए हैं। नारी प्रगति के आकाश में ऊँची छलाँगें लगाने पर भी, धरती पर अनेक प्रकार से प्रताड़ित हो रही है। मन भीग-भीग उठता है समाज का यह दोगलापन देखकर। प्रवंचना और ढोंग के आकर्षक मुखौटों को देखकर। यौवन खोखले दंभ में, पराई पहचान में अपनी पहचान भुला, अहंकार में चूर हो घूमता है। अपनी भाषा, देश, संस्कृति, परिवार सब उसे तुच्छ दिखाई देते हैं।
मन तब भी भीगता है, जब ऊँचे-ऊँचे मंचों से देश और मानवता के अभूतपूर्व विकास की घोषणा की जाती है। यथार्थ वस्तुस्थिति को नकार कर अंतरिक्ष अभियान किए जाते हैं। खेल-प्रतियोगिताओं के आयोजन में कुबेर के खजाने लुटा दिए जाते हैं। बारूद मानवता का रक्षक बना बैठा है। आतंकवाद रोज़ नए चेहरे लेकर प्रकट हो रहा है। जनता का जीवन त्रस्त, असुरक्षित है। कहीं कोई शांति नहीं, मात्रआशंका, कुंठा, संत्रास और तनाव हमारी नियति बन गया है। सभी एक लक्ष्यहीन अंधी दौड़ में शामिल हो गए हैं। न साधन की परवाह है, न ही उचित-अनुचित का विवेक। विडम्बना यह, कि यही गति का पर्याय बन गया है।
मन भीगता है यह देखकर भी कि नदी, पर्वत, वन जहाँ गोपाल, गौ-गोपों के साथ विचरता था। गोवर्धन, जो आपद् विपद् में शरण बनता था, यमुना का किनारा, जो रास-महारास का साक्षी था, आज सूना पड़ा है। जंगल उजड़ गए हैं। नदियाँ मैला ढो रही हैं। आश्चर्य होता है कि प्रकृति की पूजा करने वाला देश, आज प्रकृति के प्रति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है।
लेकिन एक आस है, मन भीग रहा है। यह भीगा मन कुछ तो करेगा ही। बिना कुछ किए तो आँसू बहाना बेकार है। पीड़ा सामने है, उसका कारण भी जानते हैं, तो क्या पीड़ा केनिराकरण के लिए कोई आएगा नहीं। विश्वास है, हमें देश के प्रबुद्ध मानस पर। जो इस भीगे मन की पीड़ा को दूर करने के लिए कुछ ठोस कार्यवाही करेंगे। नैतिकता, मानव मूल्यों, समानता और प्रकृति के नए पुरोधा, इसी भीगी मानस-माटी में जन्म लेंगे। सभी अभावों से मुक्ति दिलवाएंगे। देखो न, कितनी मशालें देदीप्यमान हो रही हैं विश्व भर में।
तमस के समर्थकों! रास्ता छोड़ो क्योंकि प्रकाश का ज्योतित रथ तीव्रगति से बढ़ने लगा है। विश्व सरोवर में मानवता-जलज विहँसने लगा है। जलज-पत्रों पर भीगे मन के अश्रु, मोती बन चमक रहे हैं। भीगा-भीगा मन नई, करूणा से ओत-प्रोत, सृष्टि करना हैचाहता है, ऐसी सृष्टि जो संपूर्ण जग के लिए सत्य, शिव और सौंदर्य के अनंत वातायन खोलेगी।
को करि तरक बढ़ावहि शाखा
विज्ञान का युग। तर्क का युग। किसी की बात सुने तल जलबिना तर्क करने का दुराग्रह है आज हर किसी में। छोटा हो या बड़ा, स्त्री हो या पुरुष, नेता हो या अभिनेता, शिक्षक हो या शिष्य, सभी तर्कशास्त्र में पारंगत दिखाई देते हैं। क्या दर्शाती है यह निपुणता? तर्क करने वाले का पांडित्य, उसका अहंकार, पहचान बनाने का प्रयास? नहीं, इसमें से कुछ भी नहीं। तर्क मात्र तर्क के लिए। तर्क इसलिए कि आज हममें किसी की बात सुनने का धैर्य ही नहीं है, सह्रदयता नहीं है, जैसे ही किसी ने कुछ समझाना प्रारंभ किया, श्रोता आपत्ति उठाता है, तर्क करता है। अपनी बात को उचित और दूसरे की बात को अनुचित सिद्ध करने की कुचेष्टा ही तर्क, या कुतर्क की जननी है। कुतर्क, जो हर मर्यादा तोड़ देता है, हर शिष्टाचार को छोड़ देता है। अप्रियता और कटुता की सृष्टि करता है। बात की मिठास में विष घाेल देता है। वातावरण को असह्य और बोझिल बना देता है।
इस अवांछित स्थिति को कुशलता से टालने का सहज-सा समाधान बताया था भगवान् शिव ने। माता सती के पिता प्रजापति दक्ष के यहाँ महायज्ञ का आयोजन है। समस्त देवगण, ऋषि और राजा, सुसज्जित हो, सपरिवार इसमें भाग लेने जा रहे हैं। और दक्ष की प्रिय पुत्री को इस आयोजन का भान तक नहीं है, निमंत्रण तो दूर की बात है। सती भगवान् शिव के समक्ष अपनी जिज्ञासा रखती हैं। सबके उत्साह और उल्लास कारण पूछती हैं और कारण जानते ही पिता के यहाँ जाने को आतुर हो जाती हैं। शिव समझाते हैं “बिना निमंत्रण पाए जाना उचित नहीं है।” सती नहीं समझतीं या यूँ कहें समझना ही नहीं चाहतीं। तर्क देती हैं “पिता के घर जाने के लिए पुत्री को निमंत्रण की क्या आवश्यकता?” प्रिया का हठ देख शिव अपने मन को समझा लेते हैं:-
होगा वही जो राम रचि राखा
को करि तरक बढ़ावहि शाखा।
शिव मौन हो जाते हैं। मौन को स्वीकृति मान सती पिता के भवन की ओर प्रस्थान करती हैं। शिव का मौन उस समय की अप्रिय स्थिति को टाल देता है, लेकिन बाद में यह स्थिति कितनी भयावह हो जाती है, यह सर्वविदित है। पिता द्वारा पति के अपमान को सती सह नहीं पातीं और यज्ञकुंड की अग्नि में आत्मदाह कर लेती हैं। सती के बिछोह से भगवान् शिव का चिरविरह प्रारंभ होता है और प्रारंभ होती है जन्म-जन्मान्तर की व्यथा की अकथनीय गाथा।
आज हर क्षेत्र में ऐसी ही अनेकानेक परिस्थितियों उत्पन्न हो रही हैं, जिनकी उपेक्षा”को करि तर्क” कहकर नहीं की जा सकती। तर्क जब कुतर्क में बदलता है तो विनाश ही लाता है। महाभारत का प्रसंग स्मरण कीजिए। द्रुपद सभा में उपस्थित अनेक धनुर्धारियों का गर्व चूर-चूर कर अर्जुन, मत्स्य-वेध कर, द्रौपदी का वरण कर माता कुंती के पास आते हैं। स्वर में विजय गर्व और उल्लास भर कर माता को बताते हैं कि आज वे अनुपम भिक्षा लाए हैं। नित्य की भाँति, कुंती बिना देखे ही कह देतीं हैं, “सब बाँट कर ग्रहण करो।” सभी पांडव यह सुनकर हतप्रभ हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में क्या होना चाहिए, सब जानते हैं। लेकिन तभी कपट पूर्ण कुतर्क सिर उठाता है। माँ का वचन, उसकी आज्ञा मानना पुत्र-धर्म है। सबको बाँटनी ही होगी यह भिक्षा। ” कुतर्क अट्टहास करता है। अधर्म, धर्म की आड़ में सिर उठाता है। द्रुपद सुता की व्यथा, उसके व्याकुल प्राणों की पुकार सुनने की किसी को आवश्यकता ही नहीं, या कहा जाए तो इच्छा ही नहीं। हाँ, अर्जुन छटपटाते हैं। प्रिया द्रौपदी के मनोभाव उन्हें आहत कर देते हैं, लेकिन वे शिष्टाचार और मर्यादा का मुखौटा लगाए कुतर्क के समक्ष विवश हैं। अंतत: कुतर्क विजयी होता है और महाभारत की महान गाथा में, नारी के अपमान का एक और कलंकित अध्याय जुड़ जाता है।
वस्तुतः कुतर्क एक प्रतिगामी शक्ति है, जिसके समक्ष सिर झुकाने का अर्थ है, लोकहित की अवहेलना। श्रेष्ठ और वांछनीय मूल्यों का पतन। अतःइस कुतर्क को किसी भी मूल्य पर कुचलना ही होगा। सत्य, असत्य का विजयघोष नहीं सुन सकता। और सुने भी क्यों? विवश मौन ज्वालामुखी होता है। साहस कभी कायरता से नहीं घबराता। सत्यवक्ता साहसी होता है, स्पष्ट होता है क्योंकि उसके तर्क का उद् गम् उसके और निश्चल और पावन ह्रदय से होता है। उसकी दृष्टि में उदारता है, तभी वह कुतर्क का सामना कर पाता है।
कैकेयी द्वारा, राम को वनवास देने के अनेक कुतर्क भी, भरत को भ्रमित नहीं कर पाते। सहज भाव से प्रेरित भरत, भ्राता श्रीराम को मनाने और उनसे क्षमायाचना करने चित्रकूट की ओर चल पड़ते हैं। भरत का यही उत्तम आचरण, उन्हें “भयहु न जगत भरत सम भाई” का गौरव प्रदान करवाता है। और कुतर्क इसके सामने लज्जित और कुंठित हो जाता है। अपनी स्वार्थ दलदल में आपादमस्तक डूब जाता है। ग्लानि धिक्कारती है:-
युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी,
रघुकुल में थी एक अभागी रानी।
कुतर्क हमें अनेक प्रकार से भ्रमित करता है। कभी मंथरा की कुटिल मंत्रणा बनकर। तो कभी आकर्षक नारेबाजी, संकुचित दृष्टिकोण, दूषित मानसिकता, जड़ भौतिकता और अंधभक्ति का सहारा लेकर यह हमें आकर्षित करता है लेकिन आकर्षण की यह स्थिति अनेक बार अल्पकालिक होती है। मोह भंग होते ही सजग और विवेकयुत् प्राण मुक्ति केलिए लिए छटपटाने लगते हैं, संघर्षरत होते हैंऔर कुतर्क की समस्त व्यूह रचना को तोड़ सत्य के पथ पर बढ़ते हैं। वही तर्क, जिसमें विवेक है, बुद्धि की कुटिलता न होकर ह्रदय की मधुरता है, हमारे लिए काम्य है। ऐसा ही तर्क भावना और बुद्धि का संतुलन बनाए रखता हैऔर यह संतुलन ही संतुष्टि और प्रगति का पर्याय है।
वीणा गुप्त
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