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दशानन (dashanan) का उभरा दर्द, ऐसे कौन जलाता है भाई
दोस्तों दशहरा आते ही देश में एक अलग ही माहौल देखने को मिलता है… जगह-जगह दशानन (dashanan) के पुतले सजने लगते हैं… आखिर उन्हें जलाना जो होता है… हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी दशानन जलेगा… है न आश्चर्य की बात… हर बार जलकर भी ये फिर जलने को आ जाता है… तो आइये पढ़ते हैं सुशील कुमार ‘नवीन’ द्वारा लिखित यह व्यंग्य… साथ में उनके कुछ और व्यंग्य भी प्रस्तुत हैं…
शहर का एक बड़ा मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पिटल। रोजाना की तरह मरीजों की आवाजाही जारी थी। प्रसिद्ध ह्रदयरोग विशेषज्ञ डॉ. रामावतार रामभरोसे ओपीडी में रोजाना की तरह मरीजों को देखने में व्यस्त थे। अचानक इंटरकॉम की बेल बजती है। ये बेल हमेशा आपातकालीन अवस्था में ही बजती है। डॉक्टर साहब ने समय को गम्भीरता को जान तुरन्त रिसीवर उठाया। रिसीवर उठते ही घबराई-सी आवाज़ सुनाई पड़ी। डॉक्टर साहब! मैं चन्द्रकिरण आईसीयू फर्स्ट से बोल रही हूँ। पेशेंट नम्बर दस सीरियस हैं। सांस बार-बार टूट रहीहै। एमओ डॉ. लक्ष्मण साहब ने आपको जल्द बुलाया है। बात सुन डॉक्टर साहब ने उसे कुछ इंजेक्शन तैयार रखने को कहा और ओपीडी बीच में ही छोड़कर वे आईसीयू की तरफ़ दौड़ पड़ें।
आईसीयू फर्स्ट कोरोना के सीरियस मरीजों के लिए विशेष तौर पर बनाया हुआ था। यहाँ तीन विदेशी मरीज एडमिट थे। एक भारी भरकम मदमस्त कुम्भकर्ण की दो दिन पहले मौत हो चुकी थी। दूसरे अंहकारी इंद्रजीत ने कल रात दम तोड़ दिया था। दोनों के शव कोरोना नियमों के तहत पैक कर मोर्चरी में रखे हुए थे। तीसरे मरीज अभिमानी दशानन की हालत भी खराब ही थी। रात से ही वह वेंटिलेटर पर था। उसी की हालत खराब होने पर डॉक्टर को बुलाया गया था।
आईसीयू के बाहर ही वार्डबॉय पीपीटी किट लिए तैयार खड़ा था। डॉक्टर ने फौरन पीपीटी किट के साथ हाथों में दस्ताने पहने। मुंह पर मास्क के साथ फेसशील्ड को धारण किया। संक्रमण से बचाव के लिये ये आभूषण अब उनकी दिनचर्या का हिस्सा बने हुए है। बीपी इतना लो हो चुका था उसके अप होने की उम्मीद अब कम ही थी। हार्टबीट शून्यता की ओर लगातार बढ़ रही थी। डॉक्टर ने नर्स को एक इंजेक्शन और लगाने को कहा। इंजेक्शन लगाते ही मरीज में एक बार हलचल-सी हुई। पर अगले ही पल वेंटिलेटर मॉनीटर से लम्बी बीप शुरू हो गई। बीप की आवाज़ डॉक्टर के साथ अन्य स्टाफ को मरीज के प्राण छोड़ने का संकेत दे चुकी थी।
डॉक्टर ने पेशेंट डायरी में ‘ही इज नो मोर’ लिखा और वहाँ से निकल गए। स्टाफ ने शव को प्लास्टिक कवर से पूरी तरह पैक कर उसे भी दो मॉर्चरी में भिजवा दिया। अब तीनों शवों का एक साथ ही हॉस्पिटल स्टाफ की देखरेख में ही अंतिम संस्कार किया जाना था। परिजन शव ले जाना चाहते थे परन्तु संक्रमण के डर के कारण ये अलाउड नहीं था।
परिजनों ने अंतिम संस्कार उनके नियमों के तहत ही करने की प्रार्थना की। उन्होंने बताया कि शवों का अंतिम संस्कार लेटाकर नहीं खड़े कर किया जाए। इसके अलावा प्रत्येक शव के साथ २० से २५ किलो पटाखे या विस्फोटक सामग्री रखी जाए। शवों को अग्नि तीर के माध्यम से ही जाए। विदेशी थे तो सम्मान स्वरूप डॉक्टर ने उनकी इस मांग को स्वीकार कर लिया। एक बड़ी एम्बुलेंस में तीनों शवों को सीधे श्मशान घाट ले जाया गया। वहाँ पहले तीनों शवों को रस्सियों के सहारे सोशल डिस्टेंस के साथ खड़ा किया गया। दशानन का शव मेघनाथ और कुम्भकर्ण के बीच में खड़ा किया गया। डॉक्टर लक्ष्मण ने मेघनाथ के शव को तीर के माध्यम से अग्नि दी। पटाखों की आवाज़ जोर-जोर से शुरू हो गई। कुछ देर के अंतराल में डॉक्टर रामभरोसे ने पहले कुम्भकर्ण और बाद में दशानन पर तीर छोड़ उन्हें विदाई दी।
अचानक लगा कि जैसे पटाखों के बीच से कोई बोल रहा हो। डॉक्टर रामभरोसे ने ध्यान दिया तो दशानन बोलता सुनाई पड़ा। कह रहा था-मैं कॉमनमैन नहीं हूँ। दशानन हूँ, दशानन। जला तो सम्मानपूर्वक देते॥न घास है न फूस। आदमी भी गिनती के चार आये हो। पटाखों में सुतली बम तो है ही नहीं। थोड़ा बजट और बढ़ा देते या चंदा करवा लेते। भारी मन से कहा-ऐसे कौन जलाता है भाई। डॉक्टर रामभरोसे ने उसकी बात को गम्भीरता से सुना। उसे यह कहकर सांत्वना दी।
कोरोना काल में तो इसी तरह विदाई मिलेगी। ये तो हमारा भला मान कि हमने महामारी के इस दौर में भी तुम्हारा दहन कर दिया। अन्यथा किसी मोर्चरी में पड़े-पड़े सड़ जाते। बाद में कमेटी वाले आते और एक गड्डा में तुम्हें खोद गाड़ जाते। फिर हो जाता सम्मान। यहाँ रोजाना हजारों मर रहे है। तुम कोई अकेले थोड़ ही हो। रावण कुछ बोलने ही वाला था अचानक पत्नी की आवाज़ सुनाई पड़ी। उठ जाओ। रावण दहन शाम को है। पता नहीं नींद में बड़बड़ाने की तुम्हारी आदत कब छूटेगी। उसकी वाकचपलता लगातार जारी थी। मैं चुपके से उठ बाहर निकल गया। दशानन की आवाज़ अभी भी गूंज रही थी-ऐसे कौन दहन करता है भाई।
यूं रहा तो शब्दकोश ही बदलकर रख देंगे ये…
हमारे एक जानकार हैं। नाम है वागेश्वर। नाम के अनुरूप ही उनका अनुपम व्यक्तित्व है। धीर-गम्भीर, हर बात को बोलने से पहले तोलना कोई उनसे सीखे। न कोई दिखावा न कोई ढोंग। सीधे-सपाट। मुंहफट कहे तो भी चल सकता है। मोहल्ले में सब उनकी खूबियों से परिचित हैं। ऐसे में हर कोई उनसे बात करते समय सौ बार सोचता है। उम्र भले ही हमसे डेढ़ी हो पर हमारे साथ उनका सम्बन्ध मित्रवत ही है। ख़ुद कहते हैं कि आप मेरी लाइन के बन्दे हैं। खैर आप उनके प्रशंसा पुराण को छोड़ें। आप तो बात सुनें और आनन्द लें।
आज सुबह पार्क में उनके साथ मुलाकात हो गई। रामा-श्यामी तो स्वभाविक ही थी। देखकर बोले-आओ, मित्र सुंदर-सुगन्धित, हरी-भरी शीतल-स्निग्ध छाया में कुछ क्षण विश्राम कर लें। कुछ अपनी सुनाएँ, कुछ आपकी सुनें। उनका इस तरह वार्तालाप करना मेरे लिए भी नया अनुभव था। दो टूक बात कह समय की क़ीमत समझाने वाले इस व्यक्तित्व के पास आज वार्तालाप का समय जान मैं भी हैरान था। उनके निमंत्रण को स्वीकार कर हंसते हुए मैने कहा-क्या बात साहब। आज ये सूरज पश्चिम की तरफ़ से क्यों निकल रहा है।
बोले-कुछ ख़ास नहीं। वैसे ही आज गप्प लड़ाने का मूड हो रहा था। सबके अपने दर्द होते हैं ऐसे में हर किसी से बात करना जोखिमभरा होता है। आप कलमकार है, सबके सुख-दुख पर लिखते हो। आपसे बात कर अच्छा लगता है। मैंने कहा-ये आपका बड़प्पन है। बोले-यार क्या जमाना आ गया है। बोलने की कोई सेंस ही नहीं है। थोड़ी देर पहले एक आदमी यहाँ से गुजर रहा था। छोटा-सा एक बच्चा दूसरे से बोला-देख काटड़ा जाण लाग रहया। भले मानस उसके ढीलडोल को देख मोटा आदमी कह देते। पेटू, हाथी क्या नाम कम थे जो काटड़ा और नया नाम निकाल दिया। मैंने कहा-जी कोई बात नहीं, बच्चे हैं। हंसी-मजाक उनकी तो माफ़ होती है।
अब वह अपना ओरिजनल रूप धारण कर चुके थे। बोले-ठीक है ये बच्चे थे। माफ किए। पर ये बड़े जिनपर सबकी नज़र रहती है वह ऐसी गलती करें तो क्या सीख मिलेगी आने वाली पीढ़ी को। नाम सदा पहचान देने के लिए होते हैं। पहचान खोने के लिए थोड़ी। लाल-बाल-पाल के बारे में पूछो सभी लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल को सब जान जाएंगे। नेता जी माने सुभाष चन्द्र बोस, गुरुदेव माने रविन्द्र नाथ टैगोर, शास्त्री जी से लाल बहादुर शास्त्री, महात्मा से महात्मा गांधी की पहचान सभी को है। स्वर कोकिला से लता मंगेश्कर, सुर सम्राट से मोहमद रफी, याहू से शम्मी कपूर, ड्रीम गर्ल से हेमा मालिनी, पाजी से धर्मेंद्र, बिग बी से अमिताभ बच्चन जाने जाते है। उड़नपरी से पीटी उषा, लिटिल मास्टर से सुनील गावस्कर, मास्टर ब्लास्टर से सचिन तेंदुलकर, हरियाणा हरिकेन से कपिल देव अलग से ही पहचाने जाते हैं। दादा, माही, जड्ड, गब्बर, युवी भी बुरे नाम नहीं है।
अब तो स्तर और भी नीचे चला गया है। पप्पू, फेंकू, खुजलीवाल नाम अपने आप में ब्रांड बन चुके हैं। बेबी-बाबू, स्वीटू-जानू, छोटा पैकेट-बड़ा पैकेट के तो क्या कहने। मैं हंसने लगा तो फिर बोल पड़े। बोले-अभी तो हरामखोर, नॉटी गर्ल, आईटम ही नाम आगे आये हैं। इनके जन्मदाता इनके अर्थ को ही नई परिभाषा का रूप दे रहे हैं। अभी तो देखना गोश्त चॉकलेट तो मच्छी लॉलीपॉप का शब्द रूप धारण कर लेगी। कुत्ता-कमीना मतलब बहुत प्यारा हो जाएगा। गधे जैसा मतलब समझदार, बन्दर चंचल व्यक्तित्व हो जाएगा। बिल्ली मतलब ज़्यादा सयानी, हाथी पर्यावरण प्रेमी को कहा जायेगा। सियार यारों का यार तो लोमड़ रणनीतिज्ञ कहलाएगा। ख़ास बात निक्कमा काम का नहीं से बदलकर बेकार के काम न करने वाला कहलवायेगा और यदि यूँ ही इनके शब्दों के अर्थ बदलने का प्रयोग जारी रहा तो पूरा शब्दकोश बदल जायेगा। वह लगातार बोले जा रहे थे। मुझमें भी उन्हें बीच में रोकने की हिम्मत नहीं थी।
इसी दौरान उनके मोबाइल की घण्टी बज गई। फ़ोन के दूसरी तरफ़ से उनकी अर्धांगनी का मधुर गूंजा-कहाँ मर गए। ये चाय ठंडी हो जाएगी तब आओगे क्या। फिर इसे ही सुबड़-सुबड़ कर के पीना। मुझे और भी काम हैं। कोई तुम्हें झेलने वाला मिल गया होगा। वागेश्वर जी बोले-थोड़ा सांस तो लो। बीपी हाई हो जाएगा। पूरे दिन फिर सर पर कफ़न बाँधी रहना। बस अभी आया। यहाँ पार्क में ही बैठा हूँ। कोई अंतरिक्ष में सैर करने नहीं गया था। यह कहकर फ़ोन काट दिया। हंसकर बोले-भाई, हाइकमान का मैसेज आ गया है, तुरंत रिपोर्ट करनी होगी। अन्यथा वारंट जारी हो जाएंगे। ये कहकर वह निकल गए।
मैं भी उनके कथन को मन ही मन स्वीकारते हुए घर की राह चल पड़ा। घर पहुँचा तो स्वागत में ही नया शब्द सुनने को मिला। सुई लगाके आये या लगवाके। मैंने कहा-मतलब। जवाब मिला-मतलब ज्ञान बांट के आये हो या कोई आपसे बड़ा ज्ञानी मिल गया था, जो इतनी देर लगा दी। जवाब सुन मैं भी हंस पड़ा। शब्दकोश तो पक्का ही बदलकर रहेगा। इसे कोई नहीं बचा सकता। पत्नी मेरे शब्द बाण से हतप्रभ रह गई। मैंने उसे सारी बात बताई तो वह भी मुस्करा दी।
नाम ही नहीं, विचारों में भी करना होगा बदलाव
मॉर्निंग वॉक में मेरे साथ अजीब किस्से घटते ही रहते हैं। कोशिश करता हूँ कि बचा रहूँ पर हालात ही ऐसे बन जाते हैं कि बोले और कहे बिना रहा ही नहीं जाता। सुबह-सुबह हमारे एक दुखियारे पड़ोसी श्रीचन्द जी मिल गए। दुखियारे इसलिए कि ये ‘तारक महता का उल्टा चश्मा’ के पत्रकार पोपट लाल की तरह है। लाख जतन कर लिए पर विवाह का संजोग नहीं बन रहा। मुझसे बोले-आप हमारे बड़े भाई हैं। एक सलाह लेनी है। मैंने कहा-ज़रूर, मुझसे आपका कोई काम बने तो यह मेरा सौभाग्य होगा। एक बाबा के विज्ञापन की कटिंग दिखाकर बोले-कल इस बाबा जी के पास गया था।
मैंने उनसे सारी कहानी विस्तारपूर्वक सुनाने को कहा तो उन्होंने बताया कि दोपहर १२ बजे मैं विज्ञापन में दिए गए पते पर पहुँचा। बाबा जी एक रंगीन लाइटों से जगमगाते कक्ष में सुंदर आसन पर भस्म रमाये बैठे थे। चारों ओर धूप और दीप की सुगंध बरबस उन्हीं की ओर खींच रही थी।
कमरे में मेरे प्रवेश करते ही बाबा ने अपने दिव्य चक्षु खोले। मेरी तरफ़ देखा और हंसकर बोले-श्रीचन्द, सब गड़बड़ी तुम्हारे नाम में है। नाम बदलना पड़ेगा। मैंने भी उत्सुकतावश इस बारे में और जानना चाहा तो बोले-बड़े भोले बनते हो। नाम श्री (लक्ष्मी) चन्द (चन्द्र, सरताज, स्वामी) रखकर ‘श्री’ का वरण करना चाहते हो। नहीं हो सकता। अनन्ता, अवयुक्ता, अनिरुद्धा, अदित्या, दयानिधि, दानवेन्द्र, देवेश, देवकीनन्दन तुम्हें कभी भी ऐसा नहीं करने देंगे। नाराज है वह तुमसे। मूर्ख बालक। अपने घर की ‘श्री’ तुम्हें कौन देगा।
बाबा लगातार बोलते जा रहे थे और मैं सुनता जा रहा था। उनके रुकने पर उपाय पूछा तो वह बोले-कृपा चाहते हो तो अपने नाम के आगे से ‘श्री’ हटा दो। मैंने कहा-नाम से ‘श्री’ हटाने से तो मज़ाक बन जायेगा। ‘श्री’ के बिना तो चन्द की कोई वैल्यू ही नहीं रहेगी। बाबा गुस्सा होकर बोले-तुम तो निरे अज्ञानी हो। ‘श्री’ हटाने से भी तुम्हारे नाम में कोई कमी नहीं आएगी। रूपवान हो तो चन्द के साथ ‘रूप’ जोड़ रूपचन्द हो जाओ। परमात्मा की मेहर चाहिए तो ‘मेहर’ जोड़ मेहरचन्द हो जाओ। धार्मिकता रग-रग में भरी हो तो ‘धर्म’ जोड़ धर्मचन्द हो जाओ। दयावान हो तो ‘दया के चन्द’ दयाचन्द हो जाओ। पूर्णता प्राप्त करनी हो तो पूर्णचन्द बन जाओ। अमरता प्राप्त करनी हो तो अमरचन्द हो जाओ। रोमान्टिक हो तो प्रेमचन्द बन जाओ। सोमप्रिय हो तो सोमचन्द हो जाओ। ज्ञानवान हो तो ज्ञानचन्द बन जाओ।
बाबाजी का प्रवचन रुकने का ही नाम नहीं ले रहा था। लास्ट में बोले-एक बार आजमा के देखो। देखना, हफ्ते भर में तुम्हारी बात बन जाएगी। बाबा को प्रणाम कर मैं वहाँ से लौट आया। श्रीचन्द जी की बात सुन मैंने कहा-देखो, भाई, गुड़ की डली से बाबा राजी होता हो तो क्या बुराई है। नाम बदलने से तुम्हारा भाग्य बदलेगा या नहीं यह मैं नहीं कह सकता। पर नाम क्या, नाम में एक भी वर्ड की बढ़ोतरी और घटोत्तरी सब कुछ बदल सकती है। राम रमा तो मोहन मोहिनी, श्याम श्यामा का रूप धर लेता है तो कृष्ण कृष्णा बन जाता है। ज्ञान अज्ञान बन जाता है तो धर्म अधर्म में बदल जाता है। सत्य असत्य तो नाम अनाम बन जाता है। श्री चन्द बोले-आप भी लग गए बाबा जी जैसे ज्ञान बांटने। सीधे-सीधे समझाओ तो कोई बात बने।
मैंने कहा-मेरे भाई। सब आजमा लिया। ये भी आजमा लो। मन तो सन्तुष्ट होगा ही। कुछ मिलेगा तो ठीक अन्यथा जैसे हो वैसे तो रहोगे ही। वह बोले-मतलब। मैंने कहा-नाम के साथ विचारों में भी बदलाव ज़रूरी है। दुष्ट प्रवृति और नाम सुशील, ख़्याल पुराने नाम नवीन, काम राक्षसों के और नाम प्रभुदयाल रखने से थोड़े भलाई पाओगे। मुखौटा छलावे के लिए ही होता है। मुखौटा पहनने का शौक है तो ये भी आजमाकर देख लो। पोपट के साथ चाहे लाल लगाओ चाहे चन्द। रहेगा तो वह पोपट ही। बॉम्ब को बम कहने से वह विनाश कम थोड़े ही न करेगा। श्रीचन्द ने दोनों हाथ जोड़े और कहा-भाई, गलती हो गई, जो आपसे सलाह मांग ली। आपने तो बात को सुलझाने की जगह इसे और उलझा कर छोड़ दिया। मुझे ख़ुद ही इस बारे में कोई निर्णय लेना पड़ेगा। यह कहकर वह वहाँ से निकल गए। मुझे उनसे इस प्रत्युत्तर की उम्मीद कतई नहीं थी।
आप ही बताओ मैंने क्या ग़लत कहा। जब ‘बिल्लू बारबर’ फ़िल्म पर विवाद हुआ तो बारबर हटा ‘बिल्लू’ कर दिया। पद्मावती ‘पद्मावत’ बन गई। रैम्बो राजकुमार ‘आर राजकुमार’ बन गया। मेंटल है क्या ने ” जजमेंटल है क्या’का रूप धर लिया। लवरात्रि को’ लवयात्री’तो रामलीला को’ गोलियों की रासलीला-रामलीला’बना दिया। इससे कुछ फ़र्क़ पड़ा। कहानी वही, पात्र वही रहे। फेरबदल सिर्फ़ नाम का और कुछ नहीं। ताज़ा उदाहरण’ लक्ष्मी बॉम्ब’का है। विवाद हुआ तो बॉम्ब हटा’ लक्ष्मी’ नाम कर दिया गया है वह भी स्पेलिंग बदलकर। अब इससे क्या फ़र्क़ पड़ेगा। जब नाम बदलने से कहानी में, थीम में फ़र्क़ ही नहीं पड़ रहा तो नाम बदलना क्या ज़रूरी है। बदलना है तो विचार बदलें। नाम तो लोग अपने आप धर लेंगे।
ऐसे तो महंगा पड़ जाएगा ‘फ्री’ का हरी मिर्च और धनिया
सुबह-सुबह घर के आगे बैठ अख़बार की सुर्खियाँ पढ़ रहा था। इसी दौरान हमारे एक पड़ोसी धनीराम जी का आना हो गया। मिलनसार प्रवृत्ति के धनीराम जी शासकीय कर्मचारी हैं। हर किसी को अपना बनाते वे देर नहीं लगाते हैं। रेहड़ी-खोमचे वाले से लेकर जिसे भी इनके घर के आगे से गुजरना हो, इनकी राम-राम और बदले में राम-राम देना बेहद टोल टैक्स अदा करने जैसा ज़रूरी होता है। यही वज़ह है कि मोहल्ले में वह धनीराम के नाम से कम और राम-राम के नाम से ज़्यादा प्रसिद्ध हैं। इनकी राम-राम से जुड़ा एक मजेदार किस्सा फिर किसी लेख के संदर्भ में सुनाऊंगा। आज तो आप वतर्मान का ही मज़ा लें।
पास आने पर आज उनके कहने से पहले ही हमने राम-राम बोल दिया। मुस्कराकर उन्होंने भी राम-राम से जवाब दिया। घर-परिवार की कुशलक्षेम पूछने के बाद मैंने यों ही पूछ लिया कि आज सुबह-सुबह थैले में क्या भर लाए। बोले-थैले में नीरी राम-राम हैं। कहो, तो कुछ तुम्हें भी दे दूं। मैंने भी हंसकर कहा-क्या बात, आज तो मजाकिया मूड में हो। बोले-कई बार आदमी का स्वभाव ही उसके मजे ले लेता है।
मेरे मन में भी उत्सुकता जाग गई कि मिलनसार स्वभाव वाले धनीराम जी के साथ ऐसा क्या हो गया कि वह अपने इसी स्वभाव को ही मज़ाक का कारण मान रहे हैं। पूछने पर बोले-आज का अख़बार पढ़ा है। नहीं पढा हो तो पढ़ लो। बिल्कुल आज मेरे साथ वैसा ही हुआ है। मैंने कहा-घुमाफिरा कर कहने की जगह आज तो आप सीधा समझाओ। बोले-सुबह आज तुम्हारी भाभी ने सब्जी लाने को मंडी भेज दिया। वहाँ एक जानकार सब्जी वाला मिल गया। राम-राम होने के बाद अब दूसरी जगह तो जाना बनना ही नहीं था। जानकार निकला तो मोलभाव भी नहीं होना था। उसी से सौ रुपये की सब्जी ले ली। धनिया-मिर्च उसके पास नहीं था। दूसरे दुकानदार के पास गया तो बोला-सब्जी खरीदो, तभी मिलेगा।
अब धनिया-मिर्ची के चक्कर में उससे भी वह सब्जी खरीदनी पड़ गई, जिसकी ज़रूरत ही नहीं थी। फ्री के धनिया-मिर्च के चक्कर में सुबह-सुबह पचास रुपये की फटाक बेवजह लग गई। मैंने कहा-कोई बात नहीं सब्जी ही है, काम आ जाएगी। बोले-बात तुम्हारी सही है, आलू, प्याज उसके पास होते तो कोई दिक्कत नहीं थी। पर उसके पास भी पालक, सरसों ही थे। जो पहले ही ले रखे थे। अब एक टाइम की सब्जी तो खराब होनी ही होनी। पहले वाले से राम-राम नहीं की होती तो दूसरे से ही सब्जी खरीद लेता। नुक़सान तो नहीं होता। मैंने कहा-चलो, राम-राम वाली पालक-सरसों मेरे पास छोड़ जाओ। हंसकर बोले-आप भी राम-राम के ऑफर की चपेट में आ ही गए। मैंने कहा-मुझे तो वैसे भी आज ये लानी ही थी।
आप तो ये बताओ कि अख़बार की कौन-सी ख़बर का ये उदाहरण था। बोले-खजाना मंत्री ने कर्मचारियों को आज दो तोहफे दिए। दोनों फ्री के धनिया-मिर्च जैसे हैं। पर इन्हें लेने के लिए महंगे भाव के गोभी-कद्दू लेने पड़ेंगे। बिना इन्हें खरीदे ये नहीं मिलेंगे। मैंने कहा-आपकी बात समझ में नहीं आई। बोले-कर्मचारियों को चार साल में एक बार एलटीसी मिलती है। अब तक एक माह के वेतन के बराबर एलटीसी मिलती थी। अब कह रहे हैं तीन गुना ख़र्च करोगे तो पूरी राशि मिलेगी।
ख़र्च भी जीएसटी लगे उत्पादों पर करना होगा। अब ये बताओ ऐसा कौन होगा जो १० हज़ार के फ्री ओवन के चक्कर में ४० हज़ार की वाशिंग मशीन खरीदेगा। या डीटीएच फ्री सर्विस के लिए ३०हजार की एलईडी खरीद अपना बजट बिगाड़ेगा। जब काम १० हज़ार की वाशिंग मशीन और १० हज़ार की एलईडी से चल रहा है तो ऐसा ऑफर लेना तो मूर्खता ही है। मैंने कहा-ये ऑफर का गणित मेरे समझ में नहीं आया। बोले-दो दिन रूक जाओ, सारे कर्मचारी बिलबिलाते देखोगे। महानुभाव, फेस्टिवल ऑफर का नुक़सान का आकलन हमेशा खरीद के समय नहीं, बाद में होता है।
पालक-सरसों के रुपये जब देने लगा तो बोले-ये भाईचारे का ऑफर है, फेस्टिवल का नहीं। यह कह हंसकर निकल लिए। मुझे भी उनकी बात में गम्भीरता लगी। ऐसे तो महंगा पड़ जाएगा, ये फ्री का मिर्च और धनिया। भला १०० रुपये की शर्त जीतने के चक्कर में पांच सौ का नोट फाड़कर थोड़े ही दिखाएंगे।
सपना के ब्याह ने तोड़े बड़े-बूढ़ों के ‘सपने’
उसे ‘चस्का रेड फरारी’ का भले ही रहा हो पर ‘बोल तेरे मीठे-मीठे’ की शालीनता आलोचकों को भी शर्मसार करने वाली रही है। जब भी ‘वा गजबन पानी नै चाली’ है, सब ओर से ‘आज्या नै तेरे लाड लड़ाऊं’ की आवाज़ सुनाई पड़ी है। ‘गाडनजोगी’ कह कितने ही हंसी-ठठे किये गए हो पर मरजानी की ‘हवा कसूती’ बनाने में चाहने वालों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
मोरनी की-सी उसकी चाल ‘और’ आंख्या का काजल’ने बड़े-बड़ों को कमर लचकाने को मजबूर किया।’ इसे ढूंगे मारे जाणै कोय जलेबी-सी तारै ‘पर उठे उसके कदमों से बलम की अल्टो पलटी ही पलटी। टल्ली होकर’ वीरे की वेडिंग’से बॉलीवुड में जोरदार एंट्री और’ नानू की जानू’में अभय देओल संग लगाए ठुमकों से वह सबके मन को भा गई।
दिलेर मेहंदी के साथ’ बावली तरेड़’बन गाने का जो मौका मिला वह तो करिअर का स्वर्णिम अध्याय लिख गया।’ चांद लुक्या हांडे जनै घूंघट की ओट’पर जब-जब क़दम थिरके,’ तेरे घाल दयूं थूथकारा, कदै टोक लाग ज्या’के बोल बुरी नज़र से बचा गए।’ सॉलिड बॉडी से ‘जादूगरनी, चीज लाजवाब, बदली-बदली लाग्गे, जीरो फिगर, जबर बरोठा आदि गीतों पर अपने डांस से देशभर के दिल को धड़काने वाली’ वो सपना सपने में भी आने लगी’है।’ आप भी सोच रहे होंगे कि लेखनी ने आज कौन-सी राह पकड़ ली है। चिंता न करें। बीपी, हार्ट बीट सब ठीक है। कुछ नया है। पढ़कर मज़ा लीजिए।
सुबह-सुबह आज पार्क में एक रिटायर्ड मास्टर जी से मुलाकात हो गई। मास्टर जी सपना चौधरी के जबरिया फैन है। रिटायरमेंट के बाद टाइमपास करने में सपना के डांस वीडियो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। फ़ोन मेमोरी में भले ही उन्हें किसी का कॉन्टेक्ट नंबर फीड करना न आता हो, पर यू ट्यूब पर सपना का कोई भी डांस का गाना चाहे आधी रात को सर्च करवा लो। राम-राम के बाद हुई बातचीत में मास्टरजी थोड़ा असहज से लगे। मैंने पूछा-क्या हुआ मास्टर जी। मास्टरनी से सबेरे-सबेरे लठ बाजग्या कै। बोले-नहीं जी, वह अपने सत्संग, भजन कीर्तन में व्यस्त रहती है। सो बहस का अवसर ही नहीं मिलता।
मैने पूछा-तो बात क्या हुई। बोले-एक बात बताओ, सपना का ब्याह और छोरा होने वाली बात सही है। मैंने कहा-हाँ, पर इसमें आप क्यों परेशान हो। आपने कौन-सा उसके ब्याह में कन्यादान लिखवाण जाना था। मास्टरजी बोले-आप को भी मौका चाहिए डायलॉग मारने का। वह इतनी बड़ी कलाकार। ब्याह कर लिया और किसी को बताया तक नहीं। मैंने फिर सिक्सर दे मारा। कहा-तो आपकै धोरे कोण-सा वीर साहू का बारात का न्यून्दा (निमंत्रण) आना था। मियां-बीवी राजी तो क्या करेगा काजी। बोले-मुद्दे की गम्भीरता को समझें। सपना ने इस तरह ब्याह करके लाखों लोगों के सपने तोड़ दिए। भला कोई ऐसे करता है क्या। मुझसे कहे बिना फिर नहीं रहा गया।
कहा-मास्टरनी नै जाके बताऊँ कै, बूढ़ा हाथां तै जा लिया। मेरे ये कहने पर वह थोड़ा झेंप से गए। बोले-आप बात को समझ नहीं रहे। इस कोरोना ने बाज़ार की हालत खराब कर रखी है। सोचो। यदि ये धूमधाम से ब्याह करती तो व्यापारी-दुकानदार भाइयाँ के कितना फायदा होता। डीजे, टेंट हाउस, कैटरिंग, साज सिंगार, बन्दड़ा-बन्दड़ी के ब्याह की ड्रेस, टुम (आभूषण) की खरीद सब के सब अपने लोकल लोगों से होती। बड़े-बड़े लोग ब्याह में आते तो पूरी रौनक रहती। जब तक ब्याह न होता तब तक अख़बार और लोकल चैनलों वालों को काम मिला रहता। लग्न टीका, मेहदी, लेडीज संगीत, ढुकाव फेरे सब लाइव देखने को मिलते। मैंने कहा-वह सेलिब्रिटी है अब। छोटे-मोटे बाजारों का उसका लेवल नहीं है।
अब बारी मास्टरजी की थी। बोले-वो सेलिब्रिटी ज़रूर है। पर जड़ें नहीं छोड़ी है। देसी है और छोरा भी तो देसी ही चुना है। हरियाणा के गीतों को उसके डांस ने ही अजर अमर कर दिया है। धातुओं में सोना, डांसरों में सपना का कोई तोड़ नहीं। अब उनकी इस बात का समर्थन करने के सिवाय मेरे पास कोई दूसरा विकल्प ही नहीं था। मैंने कहा-बात तो आपकी सही है मास्टर जी।
खैर और बताओ। क्या चल रहा है। मास्टरजी का दर्द आख़िर में उभर ही आया। धीमी आवाज़ में बोले-और तो सब ठीक है। पता नहीं सपना का नया डांस नम्बर अब कब आएगा। तेरे कातिल जौवन नै लूट लिया दिल म्हारा…गा सपना के सपने तोड़ने का दर्द छलकाकर वह वहाँ से निकल गए। उनके जाने के बाद मुझे भी हल्के-हल्के दर्द का अहसास-सा हो रहा है। मुझे लगता है लेख पढ़ औरों के भी दर्द शुरू हो जाएगा।
सब कुछ नम्बर वन तो जीरो नम्बर क्यों लें जनाब
राजा नम्बर वन, मंत्री-सभासद नम्बर वन। प्रजा नम्बर वन, प्रजातन्त्र नम्बर वन। प्रचार नम्बर वन, प्रचारक नम्बर वन। प्रोजेक्ट नम्बर वन, प्रोजेक्टर नम्बर वन। मोटिव नम्बर वन, मोटिवेटर नम्बर वन। ज्ञान नम्बर वन, ज्ञानी नम्बर वन। राग नम्बर वन, रागी नम्बर वन। व्यापार नम्बर वन, व्यापारी नम्बर वन। किसान नम्बर वन, किसानी नम्बर वन। जब सब कुछ नम्बर वन हैं तो आंकलन और आंकलनकर्ता भी नम्बर वन ही होना चाहिए। सामयिक मुद्दा कृषि विधेयकों का है।
ये किसान विरोधी हैं या नहीं इसकी सटीक विवेचना करने वाले दूर-दूर तक नहीं दिख रहे हैं। जो विशेषज्ञ सामने आ रहे हैं उनके अपने-अपने स्वार्थ हैं। सत्ता पक्ष के विशेषज्ञों को हर हाल में इसी बात पर अडिग रहना है कि ये किसानों के लिए सरकार का तोहफा है तो विपक्ष से जुड़ें विशेषज्ञों को तो इसमें मीनमेख निकालनी ही निकालनी है। ऐसे में किसान किसे सही मानें। पर जिस तरह बवाल हो रहा है उससे तो उन्हें पुराना सिस्टम ही उचित-सा लगने लगा है। खैर छोड़िए इसे। ये लड़ाई अभी लम्बी चलनी है। आप तो बस एक कहानी सुनें और आनन्द लें।
विदेश यात्रा गए राजा साहब को वहाँ दो घोड़े पसन्द आ गए। राजा ने घोड़ों के मालिक से मोलभाव किया पर वह उन्हें बेचने को तैयार नहीं था। राजा साहब मुंहमांगे दाम पर भी लेने पर अड़े थे। घोड़ा मालिक का तर्क था कि ये आपके लायक नहीं हैं। ये सुंदर हैं, मनभावन हैं पर आरामपरस्त हैं। कल को इन्हें युद्ध आदि में भी प्रयोग करना चाहोगे तब काम नहीं आएंगे। दूसरे आपके यहाँ गर्मी बहुत है, ये ठंडे मौसम के आदी हैं। बीमार हो जाएंगे। जान का भी जोखिम अलग से रहेगा। इन्हें छोड़ आप आपके देश के अनुरूप घोड़े ले जाएँ। हठ पर घोड़ा मालिक ने इस शर्त पर राजा को घोड़े दे दिए कि इन्हें धूप तक नहीं लगनी चाहिए।
राजा विशेष व्यवस्था कर घोड़ों को अपने राज्य में ले आया। उनके लिए विशेष अस्तबल तैयार करवाया गया। देखभाल के लिए कर्मचारी नियुक्त कर दिए गए। विदेश से विशेष घोड़ों को लाने की ख़बर प्रजा तक भी जा पहुँची। हर कोई इन्हें देखना चाहता था पर राजा के अलावा अस्तबल में जाने की किसी को इजाज़त तक नहीं थी। एक दिन राजसभा में मंत्री ने राजा से उन घोड़ों की खूबियों के बारे में पूछा तो राजा ने कहा-एक नम्बर के घोड़े हैं। उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। सुंदरता में, कदकाठी में, चाल में सब एक नम्बर है। मंत्री ने कहा-जी ऐसे है तो प्रजा को भी इन्हें एक बार देखने का मौका मिलना चाहिए।
मौसम ठीक जान एक दिन राजा ने आमजन के लिए घोड़ों के दर्शन कराने का निर्णय लिया। मुनादी के बाद तय समय पर मंत्री, सभासद व आमजन राजमहल के बाहर खुले मैदान में जमा हो गए। दुदम्भी की ध्वनि के साथ घोषणा की गई कि सभी दिल थाम कर बैठें। सुंदरता में नम्बर एक, कदकाठी में नम्बर एक, चाल में नम्बर एक राजसी घोड़े जो कभी न देखे होंगे, न उनके बारे में सुना होगा। जल्द सामने आ रहे हैं। फूलों से सजे वाहन में दोनों घोड़ों को बाहर लाया गया। देखते ही घोड़े सबके मन को भा गए।
बाहर की हवा लगते ही घोड़े जोर-जोर से हिनहिनाये। प्रजा ने मधुर आवाज़ पर तालियाँ बजाई। वह फिर हिनहिनाये। तालियाँ फिर बजने लगी। पर ये क्या, घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज़ रुकने का ही नाम नहीं ले रही थी। हिनहिनाने के साथ घोड़ों ने वाहन में ही उछलकूद शुरू कर दी। लात मार कर्मचारी भगा दिए। रस्सी से अपने आपको आजाद करवाकर अस्तबल की ओर दौड़ लगा दी। थोड़ी-सी दूरी के बाद ही दोनों गिर पड़े और अचेत हो गए। पशुवैद्य ने जांच उन्हें शीघ्र अस्तबल में ले जाने की कही। वहाँ जाते ही घोड़ों ने आराम महसूस किया। घण्टे भर में वह सामान्य हो गए। राजा को आकर पशुवैद्य ने आकर जानकारी दी की अब वह सामान्य हैं। इसके बाद राजा ने उन घोड़ों को बाहर नहीं निकाला।
उधर, वह एक नम्बरी घोड़े प्रजा के लिए फिर चर्चा का विषय बन गए। एक बोला-भाई, राजा के घोड़े हैं तो एक नम्बर के। दूसरे ने भी हामी भरी। बोला-बिल्कुल, देखते ही मन भा गए। तीसरे का जवाब भी कुछ ऐसा ही था। चौथा चुपचाप उनकी बात सुन रहा था। सबने घोड़ों पर उसकी भी राय जानी। बोला-घोड़े एक नम्बर के हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। पर राजा के तो जीरो नम्बर हो गए। सब बोले-घोड़े एक नम्बर के तो राजा के जीरो नम्बर क्यों। राजा ही तो अपनी बुद्धिमानी से इन्हें छांटकर खरीदकर लाया है, ऐसे में राजा ने भी तो एक नम्बर का ही काम किया है। उसने कहा-ज़रूर, राजा एक नम्बर, सभा-सभासद सब एक नम्बर, काम भी एक नम्बर। राजा का सलेक्शन भी एक नम्बर का है। पर ऐसे घोड़ों का क्या फायदा। जिन्हें न राजा किसी को दिखा सकता है, न सवारी कर सकता है। न सेना में शामिल कर सकता है, न किसी को उपहार में दे सकता है। बोलो, हैं ना। ये जीरो नम्बर का काम।
उसकी बात सबको उचित-सी लगी। बोले-तुम ही बताओ, राजा को क्या करना चाहिए। बोला-जब यहाँ के वातावरण के अनुसार ये हैं ही नहीं तो राजा क्यों इन्हें मारने पर तुला है। जहाँ से इन्हें लाया गया, वहीं इन्हें भिजवा दें। जो उपयोगी नहीं, उसे लौटाना ही ठीक। बात राजा तक भी पहुँच गई। उसने सोचा जब मेरे पास पहले से सबकुछ एक नम्बर है तो इन घोड़ों के चक्कर में अपने नम्बर क्यूं कम करवाऊँ। राजा ने घोड़े ठंडे प्रदेश में वापस लौटा दिए। विदेशी नम्बर वन घोड़ों के चक्कर में राजा ने अपने नम्बर जीरो करवा लिए थे। अब राजा का टारगेट प्रजा में अपने जीरो नम्बर को फिर से एक नम्बर में बदलने का हो गया। आगे क्या हुआ, ये फिर कभी बताऊंगा। आज के लिए इतना ही काफी।।
ठाडे कै सब यार, बोदे सदा ए खावैं मार
प्रकृति का नियम है हर बड़ी मछली छोटी को खा जाती है। जंगल में वही शेर राजा कहलाएगा, जिसके आने भर की आहट से दूसरे शेर रास्ता बदल लेते हों। गली में वही कुत्ते सरदार होते हैं जो दूसरे कुत्तों के मुंह से रोटी छीनने का मादा रखते हों और तो और गाँव में भी वही सांड रह पाता है जिसके सींगों में दूसरे सांड को उठा फैंकने का साहस होता है। पूंछ दबा पीछे हटते कुत्तों, लड़ना छोड़ भागने वाले सांड सदा मार ही खाते हैं। रणक्षेत्र में वही वीर टिकते हैं जिनमें लड़ने के साहस के साथ मौत से दो हाथ करने का जज़्बा हो। कायरता किसी के खून में नहीं होती, कायरता मन में उमड़े कमजोरी के भावों से होती है। कहते हैं ना, जो डर गया समझो मर गया।
आप भी सोच रहे होंगे कि आज ये भगवत ज्ञान कैसे मुखरित हो रहा है। तो सुनिए, ज्ञान भी तभी मुखरित होता है जब उस ज्ञान को आत्मसात किया हुआ हो। हमारे एक मित्र वैचारिक रूप से बड़े ज्ञानी है। नाम है अनोखे लाल। नाम की तरह वे अपने विचारों से भी अनोखे हैं। बोलते समय सामने वाले को ऐसा सम्मोहित कर देते हैं कि उनके कहे को अस्वीकारना असंभव हो जाता है। लास्ट में आप ही सही, कहकर उठना पड़ता है।
तो अनोखे लाल जी आज सुबह पार्क में गुनगुनी धूप का आनन्द ले रहे थे।
इसी दौरान हमारा भी वहाँ जाना हो गया। राम रमी के बाद चर्चा चलते-चलते अमेरिका के नए राजनीतिक घटनाक्रम पर चल पड़ी। मैंने भी जिज्ञासावश उनके आगे एक प्रश्न छोड़ दिया कि भारत-अमेरिका सम्बन्धों पर क्या इससे फ़र्क़ पड़ेगा। आदतन पहले गांभीर्यता को अपने अंदर धारण किया फिर बोले-शर्मा जी! आपने कभी सांड लड़ते देखे हैं। मैंने कहा-ये संयोग तो होता ही रहता है।
बोले-सांडों की लड़ाई का परिणाम क्या होता है, ये भी आप जानते ही है। सांडों का कुछ बिगड़ता नहीं, उसका खामियाजा दूसरे भुगतते हैं। बाज़ार में लड़े तो रेहड़ीवाले, सड़क पर लड़े तो बाइक सवार, गली में लड़े तो लोहे के दरवाजे, खुले में लड़े तो झाड़-बोझड़े इसके शिकार बनते हैं। मैंने कहा-ये उदाहरण तो समझ से परे है। बोले-अमेरिका में कोई राष्ट्रपति बने, भारत पर इसका कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। हमारे लिए ट्रम्प जितना सहयोगी रहा है उतना ही बाइडेन को रहना होगा। हमारा साथ उन्हें भी ज़रूरी है।
मैंने कहा-राजा बदलने से सम्बन्धों पर क्या कोई असर नहीं पड़ता है। बोले-चेहरा बदलने से सारा स्वरूप थोड़े ही बदल जाता है। गीदड़ शेर का मुखौटा धारण कर शेर नहीं बन सकता। वह चेहरा तो बदल सकता है पर शेर जैसी हिम्मत और ताकत मुखौटा धारण करने से नहीं आ सकती। मैंने फिर टोका कि बात अभी भी समझ नहीं आई। वह फिर बोले-भाई, दुनिया की फ़ितरत है। साथ हमेशा मज़बूत लोगों का दिया और लिया जाता है। कमजोर का न कोई साथ लेता है और न उसका साथ देता है। कोई साथ देता भी तो उसकी अपनी गर्ज होती है।
चीन का साथ पाकर नेपाल की बदली ज़ुबान हम देख ही चुके हैं। हम मज़बूत हैं तभी हमसे दोस्ती करने वाले देशों की संख्या बढ़ रही है। हम मज़बूत रहेंगे तो ट्रम्प-बाइडेन ज्यों साथ मिलता रहेगा। हम कमजोर पड़ते दिखे तो ओली जैसे नेता मुखर होते साफ़ दिख जाएंगे। बोले-बावले भाई, दो टूक की यही बात है। ठाडे कै सब यार, बोदे (कमजोर) सदा ए खावैं मार।
उनके बेबाक सम्बोधन को विराम देना सहज नहीं है। औरों की तरह लास्ट में मुझे भी यही कहकर चर्चा ख़त्म करनी पड़ी कि आपकी बात बिल्कुल सही है। सोचा जाए तो अनोखेलाल जी की बात ग़लत भी नहीं है। आप भी ज़रा इस पर विचार करें।
बेशर्मी के लिए नशा बहुत ज़रूरी है जनाब
आप भी सोच रहे होंगे कि भला ये भी कोई बात है कि बेशर्मी के लिए नशा बहुत ज़रूरी है। क्या इसके बिना बेशर्म नहीं हुआ जा सकता। इसके बिना भी तो पता नहीं हम कितनी बार बेशर्म हो हुए हैं। हमारे सामने न जाने कितनी बार अबला से छेड़छाड़ हुई है और हम उसे न रोककर तमाशबीन बन देखते रहे। न जाने कितने राहगीर घायल अवस्था में बीच सड़क पर तड़पते मिले और हम ग्राउंड जीरो से रिपोर्टर बन उसकी एक-एक तड़प का फ़िल्मांकन करते रहे। क्या ये बेशर्मी का उदाहरण नहीं है और छोड़िए, किसी मजबूर लाचार की मदद न कर उसका उपहास उड़ाकर हमने कौनसा साहसिक कार्य किया।
जनाब हम जन्मजात बेशर्म है। कुछ कम तो कुछ ज़रूरत से ज्यादा। हमारी हर वह हरकत बेशर्मी है। जो हमें सुख की अनुभूति कराती रही और दूसरे को पीड़ा। ये नशा ही तो है जो हमें बेशर्म बनाता है। नशा पद, प्रतिष्ठा, सत्ता का ही सकता है। नशा समृद्धि-कारोबार का हो सकता है। नशा हमारी मूर्खता भरी विद्वता का भी हो सकता है। नशा हमारे भले और दूसरे के बुरे वक़्त का भी हो सकता है। सिर्फ़ खाने-पीने का ही नशा नहीं होता। नशा हर वह चीज है जो हमे राह से भटकाता है।
अब इसका दूसरा पहलू लीजिए। हम बेशर्म हीं क्यों बनें। क्या इसके बिना काम नहीं चल सकता। इसका जवाब होगा कतई नहीं। जब तक आप होश में होंगे कोई भी ऐसी हरकत नहीं करेंगे जिस पर आपका मज़ाक बन सकता है। शर्म-झिझक के चलते जिससे आप आँख नहीं मिला सकते। मन की बात कह नहीं सकते। एक पैग अंदर जाते ही वही डरावनी आंखें ‘समुंद्र’ बन जाती है और आप तैरना न जान भी उसमें डूबने को तैयार हो जाते हैं। इस दौरान आप न जाने, क्या चांद, क्या सितारे सबकुछ ज़मीं पर लाने का दावा कर जाते हैं। ये तो भलीमानसी होती है सामने वाली की, की वह आपसे सूरज की डिमांड नहीं करती। अन्यथा आप तो उसका भी वादा कर आते।
अब आप हमारे सितारों को ही लीजिए। पुरुष होकर नारी वेश धारण कर आपका भरपूर मनोरंजन करते हैं। कभी दादी कभी, नानी बन मेहमानों से फ्लर्ट करते हैं तो कभी गुत्थी बन ‘हमार तो ज़िन्दगी खराब हो गई’ डायलॉग मार विरह वेदना का प्रस्तुतिकरण करते हैं। कभी सपना बन मसाज के मेन्यू कार्ड की चर्चा करते हैं तो कभी पलक बन अपने संवादों से हमें लुभाते हैं। आपके सामने वह सब हरकतें करतें हैं जिसे सपरिवार देखने की हमारी हिम्मत नहीं होती। फिर भी हम उनकी सारी बेशर्मी को दरकिनार कर उन्हें ललचाई नजरों से न केवल देखते हैं अपितु ठहाके भी लगाते हैं। क्योंकि हम भी तो बेशर्म हैं। स्वाद का नशा हम पर हावी रहता है।
अब वह थोड़ा नशा गांजा, कोकीन, सुल्फा आदि का कर भी लें तो कोई गुनाह थोड़े ही है। अपनी बेइज्जती करवाकर आपको हंसाना कोई सहज काम थोड़े ही है। ये तो वही काम है कि भरे बाज़ार में पेटीकोट-ब्लाऊज पहना कोई आपको दौड़ने को कह दे। विवाह शादी में पत्नी की चुन्नी ओढ़ कर ठुमके तभी लगा पाते हो जब दो पैग गटके हुए हो। नागिन डांस में ज़मीन पर भी ऐसे लोटमलोट नहीं हो सकते। अब बेचारा कपिल हवाई उड़ान में किसी से लड़ पड़े या भारती के पास गांजा मिल जाये तो हवा में न उड़िये। नशे में हम सब हैं। क्योंकि बिना नशे के हम बेशर्म हो ही नहीं सकते। नशा न होता तो हम सबको अच्छे-बुरे सब कर्मों की फ़िक्र होती जो वर्तमान में हमें नहीं है। तो सबसे पहले अपने नशे की खुमारी उतारिये फिर दूसरों के नशे पर चर्चा करें।
नोट: लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसका किसी के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं है।
सुशील कुमार ‘नवीन’
हिसार (हरियाणा)
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