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बाजीगर (juggler) या नट द्वारा कला प्रदर्शन
बाजीगर (juggler) : आज से कुछ दशक पहले शहरों और बड़े कस्बों में बाजीगर या नट परिवार सहित अपनी कला का प्रदर्शन कर अपना पेट पालते थे। आजकल इस कला का प्रदर्शन कम हो गया है, कभी-कभार ही यह कला देखने को मिलती है। २ तीन बांस के ट्राईपाड के मध्य ६ गज़ या ४-५ मीटर लम्बी मोटी रस्सी को पूर्णतया तान कर तथा खींच कर मज़बूती से बाँधा दिया जाता है। भूमि से रस्सी की ऊंचाई १२ फुट के लगभग रखी जाती है। दोनों ट्राईपैड के बीच की दूरी से थोड़े अधिक व्यास का घेरा बनाकर दर्शक, आगे बैठे और उसके पीछे खड़े हो जाते हैं। बच्चों को बैठा दिया जाता था।
प्रदर्शन के आरम्भ में एक ढोल बजाने वाला व्यक्ति ताल में ढोल बजाता है और एक बच्चा उछल कूद और उठक बैठक लगाता है जिसे देखने के लिए दर्शक एकत्रित होने आरम्भ हो जाते हैं। कभी-कभी एक लड़की फ़िल्मी गीत गाती है और ढोल उसी लय में ताल बजाता है ताकि दर्शक एकत्रित हो जाएँ। भीड़ हो जाने पर एक पतला-सा नट, छोटी धोती या लुंगी को कमर पर कस कर बाँध लेता है। सिर पर हल्का-सा साफा लपेटा होता है। शरीर पर नाममात्र की छोटी-सी कमीज़ या जैकेट होती है और नंगे पांव होता है। वह एक सीढी द्वारा खिंची हुई रस्सी पर एक बांस के सहारे खड़ा हो जाता है।
वास्तविक कला का प्रदर्शन अब आरम्भ होता है। वह नट उसी बांस को अपने दोनों हाथों में पकड़ कर रस्सी पर सीधा खड़े होने का प्रयास करता है तथा धीरे-धीरे एक किनारे से दूसरे किनारे पर जाता है और वहाँ से मुड़कर वापस अपने पहले स्थान पर आ जाता है। दर्शक आश्चर्यचकित हो कर एक टक उसे देखते रहते हैं और सोचते हैं कि यदि इसका संतुलन बिगड़ गया तो भूमि पर गिर जायेगा और फिर पता नहीं क्या होगा। जब वापस अपने स्थान पर आ जाता है तो सभी दर्शक तालियों से उसके प्रदर्शन की सराहना करते हैं। नट की पत्नी एक थाली लेकर दर्शकों की ओर जाती है और दर्शक क्षमता या इच्छानुसार कुछ धनराशि थाली में रखते जाते हैं। अब वह अपने ५-६ वर्ष के बच्चे को गोद में लेकर उसे अपने साथ चिपकाकर पुनः रस्सी पर अपना संतुलन बनाकर दूसरे किनारे से वापस आजाता है और दर्शक पुनः ताली बजाकर उसकी प्रशंसा करते हैं। नट की पत्नी एक बार फिर दर्शकों से धनराशि एकत्रित कर लेती है। यही उनकी आय का स्रोत है।
नट एक बार दर्शकों से आग्रह करता है कि क्या कोई भी बच्चा मेरे साथ रस्सी पर आ सकता है और मैं उसे अपने बच्चे की तरह ही लेकर रस्सी पर चलूंगा। कोई भी तैयार नहीं होता तथा उसकी कला की केवल प्रशंसा करते हैं। दर्शकों को उसकी कला पर आस्था है परंतु जब अपने आत्मीय की बात होती है तो विश्वास नहीं होता।
नकलिए
आज से ८ दशक पहले गाँव में किसी के यहाँ बारात आने पर नकलिए अवश्य आते थे। केवल २ ही व्यक्ति होते थे। उनका काम बारातियों और अन्य उपस्थित लोगों को हंसाना होता था। गांव में विवाह की तिथि का सभी को पता चल जाता था। बारातियों को ठहराने और खान-पान की व्यवस्था में सभी भागीदार होते थे। रहने के लिए कमरे और चारपाईओं का प्रबंध सब मिलकर कर लेते थे। गांव में कोई सराय, पंचायत घर या धर्मशाला नहीं होती थी।
बारात कहाँ से और कैसे आ रही है। लड़के का पिता और लडका क्या करता है आदि की पूरी सूचना पहले ही नकलिए एकत्रित कर लेते थे। उनका काम लोगों का मनोरंजन कर इनाम हासिल करना होता था। यह कलाकार अभिनय करने में कुशल और तुरन्त समयानुसार पूरी तैयारी के साथ बारात के स्वागत के साथ ही आ जाते थे।
रेलवे टिकट चैकर
बारात आ गई थी और कुछ देर बाद रात का खाना परोसा जाना था। सफेद जीन की वर्दी तथा सिर पर सोला हैट लगाए रेलवे का टिकट चैकर और उसके साथ खाकी वर्दी और सिर पर पुलिस की खाकी पगड़ी लगाये एक सिपाही ने आकर बारातियों से पूछा “लड़के का पिता कौन है और हमें उसे गिरफ्तार करना है। उसे शीघ्र बुलाओ, हमने और भी काम करने हैं।”
लड़के का पिता स्वयं ही आ जाता है और घबराते हुए बोला, “क्या गलती हो गई है जो हमें गिरफ्तार करने आये हो। हम तो बाहर से आये हैं।”
“तभी तो, ४० आदमी रेलगाडी में बिना टिकट के कपूरथला से बंगा आये हैं। सबके टिकट के दुगने पैसे देने होंगे।” टिकट चैकर ने कहा।
सिपाही के हाथ में हथकड़ी है और वह लड़के के पिता को पास जाकर पकड़ लेता है। इस पर चैकर सिपाही को डांटते हुए बोला “पकड़कर रख इसे, बड़ी मुश्किल से मिला है। इसने सरकार को धोखा दिया है।”
“जी हजूर, नहीं छोड़ूंगा, इसने सरकारी पैसा मारा है, इससे टिकट के पैसै और जुर्माना ले लो।” सिपाही का उत्तर था।
टिकट चैकर ने एक चमड़े का छित्तर सिपाही की कमर पर मारा। सब हंसने लगते हैं तो एक और छित्तर सिपाही की कमर पर पड़ता है।
“तीन सौ रुपये बनते हैं और यहाँ पंडित जी के घर आओ हो। बड़े दयालु हैं और यह सबकी सहायता करते हैं इसलिए २०० रुपये दे दो और मामला निवट जायेगा।” कहकर टिकट चैकर ने कोट की जेब से एक कापी और कापिंग पेंसल निकाली और लिखने लगा, मानों सत्य में वह रसीद बना रहा हो। एक छित्तर सिपाही के और जड़ दिया।
लड़के के पिता को पता था कि यह नकलिए हैं और कहा “यह लो ३० रुपए और खाना खाकर दफा हो जाना।” सब से अधिक बच्चे और महिलाएँ खुश हो जाते हैं। इतनी देर में सभी को खाना परोसना आरम्भ हो जाता है।
दरोगा जी
गाँव वाले पुलिस से बहुत डरते हैं और उससे बचना चाहते हैं। पुलिस वाला गाँव में कोई कत्ल, विशेष घटना, चोरी आदि हो जाए, तभी आता है और उसे देख सभी छुप जाना चाहते हैं। यदि सिपाही के साथ दरोगा हो तो और भी अधिक भय का वातावरण बन जाता है। ऐसे में बारात रात को खाने के लिये बैठ रही हो और वहाँ पुलिस आ जाए तो सभी भयभीत और सहमे से होते हैं।
खाकी जीन की वर्दी में सिर पर खाकी सोला हैट लगाये पुलिस के दरोगा की तरह और उसका साथी सिपाही पुलिस की वर्दी में आ जाए तो बच्चे और महिलाएँ तथा कुछ बाराती सहम जाते हैं। बड़ी कड़कती आवाज़ में अपने बैंत को इधर उधर घुमाता दरोगा बारातियों को डांटते हुए बोला ” कहाँ है लडके का पिता और चाचा, इन्होंने मिलकर भूमि के पटे (फर्द) की हेराफेरी की है। लड़के के पिता झाखोलाड़ी गाँव के पटवारी हैं और अपने भाई के नाम पटा कर दिया है। वहाँ से तफ्तीश (पता करना) कर उन दोनों को हिरासत में लेने के लिये हमें भेजा गया है।
“पता कर वह कहाँ है? उसे पकड़कर यहाँ लाओ।” दरोगा ने सिपाही को डांटकर कहा और एक छित्तर कमर पर जड़ दिया।
चारों ओर सन्नाटा छा जाता है और आगे क्या होगा, जानने को बच्चे, महिलायें और कुछ बाराती उत्सुक हो जाते हैं। दरोगा ने सिपाही को मोटी-सी गाली देते हुए कहा “तू कुछ नहीं कर सकता। कहाँ मेरे साथ आ गया।” एक छित्तर उसकी कमर पर पड़ा तो बोला”हजूर पटवारी को मैं हाथ नहीं लगा सकता। उससे तो डी-सी भी डरता है कि कहीं इसने ज़मीन के खाते में गल्त लिख दिया तो दुनिया में कोई भी ठीक नहीं कर सकता। आप ही पकड़ लो।” और हाथ जोड़कर पीछे हट गया।
दरोगा गंभीर सोच के बाद लड़के के पिता को कहने लगा “आप से तो भगवान भी डरता है परंतु तुम हमारे हलके (क्षेत्र) के नहीं हो और हमारा पेट का सवाल है, हमें १०० रुपये बतौर इनाम दे दो।” और हाथ जोड़ दिए।
लड़के के पिता ने कहा”बहुत अच्छे नकलिये हो और आज बहुत अच्छी तरह अपना रोल निभाया है, इसलिए तुम्हें ५० रुपया दे रहा हूँ। ले लो और खाना खाने के बाद ही जाना।”
दरोगा और सिपाही ने अपने हाथ जोड़कर बधाई दी और धन्यवाद किया।
(छित्तर या जूते का तला। इस तरह का चमड़े का डेढ़ फुट के लगभग लम्बा टेबल टेनिस के बैट जैसा जब कमर पर मारा जाता है तो चोट नहीं लगती परंतु आवाज़ अधिक होती है।)
लाकडाऊन की टीस
लाकडाऊन के पहले तीन दिन तो इसी प्रतीक्षा में रहे कि सब्जी की गाड़ी और आटा दाल वाली गाड़ी आ रही है। तीसरे दिन सब्जी वाली गाड़ी आई तो लेने वालों की लाइन बहुत लम्बी लगी थी, गाड़ी वाले ने कहा, आप कल ले लेना। भगवान की दया और बच्चों की सोच और परिश्रम के कारण १० दिन ठीक तरह बीत गये और बाद में सामान की होम डिलिवरी होने के कारण थोड़ी-बहुत राहत हो गई। डिलिवरी में सभी सामग्री नहीं मिल रही थी। यातायात बंद होने के कारण और श्रमिक न मिलने के कारण उन तक सामग्री नहीं आ रही थी। थोड़ा भाव भी बढ़ा दिया और कुछ गुणवत्ता कम हो गई। ३ महीने बाद सब्ज़ी और फल वालों ने मिनी ट्रक में दूर के गाँव से सब्जी लाकर बेचनी शुरु की तथा बाहर से ही आलू, प्याज और फल लाकर दुगने भाव पर बेचने आरम्भ कर दिये। जो मिल रहा है वही ले लो। अंत में इससे समझौता करना ही पड़ा।
हम लोग वरिष्ठ नागरिकों के वर्ग में आते हैं। हमें प्रतिदिन थोड़ा सैर करना या टहलना आवश्यक है। सभी चिकित्सक कहते हैं कि जब तक चल सकते हो चलते रहो, एक बार बैठ गये तो फिर उठना कठिन है। घर की चारदिवारी से हम बाहर निकल सकते नहीं फिर बाहर कहाँ टहलना। घर के आंगन में स्थान तो है परंतु वहाँ टहलना अच्छा नहीं लगता, क्या कोहलू के बैल की तरह चक्कर काटते रहो। घर में जितना शारीरिक व्यायाम हो सकता है वही किया।
प्रतिदिन के व्यय के लिए धन का प्रबंधन करना समस्या थी। कुछ दिन तो काम चला परंतु अब बैंक जा नहीं सकते और फिर कोई भी दुकानदार उधार देने को तैयार नहीं क्योंकि उसने भी नकद सामान खरीदना है। बहुत कठिन परिस्थित का दौर रहा। ऐसे में निराशा, आक्रोश और आत्मग्लानि हुई, जैसे-तैसे वे दिन सदा के लिए एक संदेश दे गये कि अपने पास घर में कुछ धन रखना चाहिए ताकि ऐसा कष्टदायक समय कट जाये। नियमित सेवा वालों को तो वेतन और पैंशन वालों को पैंशन मिल जानी थी परंतु अन्य का क्या होगा। श्रमिकों और ऐसे ही दैनिक वेतनभोगी व्यक्तियों और उन पर आश्रित लोगों का तो बहुत ही बुरा हाल हुआ था। शहर छोड़कर अपने गाँव चल पड़े थे। उन पर दया तोआती परंतु सहायता करने की विवशता थी। धन के बिना बाज़ार से कुछ नहीं मिल सकता था।
कोरोना काल का सबसे पहला प्रभाव हमारी अपनी सोच पर पड़ा जिससे बेचैनी और तनाव शुरु हो गया। सोच नकारात्मक हो गई क्योंकि सीमित वातावरण में रहने से वही सब आसपास रहता है। पहले घर के सभी सदस्य कुछ न कुछ काम तो करते थे अब उनकी दिनचर्या बदल गई। अब घर के ही ४, ६ कमरों तक ही पहुँच रह गई। बच्चों का स्कूल बंद और घर में रहें। दिन तो कट ही जाने थे इसलिए अधिक सोचने का कोई लाभ नहीं, संतोष रखना पड़ेगा। कभी कभी हमें ऐसा अनुभव हुआ कि हम बिना हथकड़ी के बंद घर में हैं जहाँ सुख सुविधा पर्याप्त हैं, हम मानसिक रूप में घर की चारदीवारी तक ही सीमित हैं। हमारे बच्चे बड़े हैं, आगे उनके बच्चे भी हैं। उनकी भी अपनी दुनिया है। उनकी आय का स्रोत अलग है। उनकी अपनी इच्छाएँ हैं और हमारी भी कुछ इच्छाएँ हैं। कोरोना के पदार्पण से पहले हम और बच्चे अब स्वतंत्र रूप से रहते थे। दोनों को ही अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं की सीमाएँ हैं। इनमें सामंजस्य बिठाकर चलना ही उचित होगा। आज कल अपने बच्चों की बात मान लेनी चाहिए क्योंकि उनके अनुभव अब तकनीक पर आधारित हैं। हमने ऐसा ही करने का प्रयास किया।
अब घर से बाहर पड़ोसी से बात करनी हो तो पहले मास्क लगाएँ और ६ फुट के अंतर पर खडे होकर बात करें। मानों हम दोनों न चाहते हुए बात कर रहें हैं। ऐसा भी लग सकता है कि हम एक दूसरे से केवल औपचारिकता निभा रहे हैं और शायद वह भी ऐसा ही सोच रहा होगा। सब को एक दूसरे से भय लगता है कि कहीं संक्रमण न हो जाए।
एक गृहणी को घर के कितने काम करने होते हैं, इसका कोई ठिकाना नहीं है, इस पर गृहणी फिर भी सोचती है कि शायद कुछ रह गया है। सूर्योदय से पहले ही उसका काम शुरू हो जाता है और रात अँधेरा होने के बाद जब सब सो जाते हैं तब तक चलता रहता है। इसमें लगभग दिन के २४ घंटे में १८ घंटे काम और केवल ६ घंटे की नींद। बैड टी से लेकर रात सोने से पहले के दूध तक, इस बीच सवेरे का नाश्ता, दोपहर का खाना, शाम की चाय और रात का खाना तो आम बात है। कभी किसी की फरमाइश कि शाम को चाय के साथ पकौड़े या दोपहर से पहले एक कप चाय या कॉफी या कोई फल मिल जाए। बच्चों की मांग उनके मूड पर निर्भर करती है। घर की सफाई, बर्तन साफ़ करना और कपड़े धोने और उन्हें सुखाकर प्रेस करना भी उसी के ज़िम्मे हैं। अब यह निर्भर करता है कि घर के सदस्य उसके किस काम में कौन कितना सहयोग करता है। घर में काम करने वाली बाई को बुला नहीं सकते। लाकडाऊन ने सबको घर का कोई न कोई काम करने की आदत डाल दी। इससे गृहणी की सहायता हो जाती थी और सबने काम में व्यस्त रह कर समय का सदुपयोग करना सीख लिया। यह सभ्य परिवार में तालाबंदी का अपरोक्ष लाभ रहा है।
समाचारों में दिखाया जा रहा था कि कुछ परिवार इस तालाबंदी में कारोबार के स्थान से वापस अपने गाँव को पैदल ही चल पड़े हैं। खाने के लिए पैसे नहीं है और उनका अपना गांव १२०० किलोमीटर दूर है। कैसे वहाँ पहुँचेंगे, कोई पता नहीं, ईश्वर के भरोसे निकल रहे हैं। जहाँ रहते थे वहाँ कमरे के किराए के लिए पैसे नहीं थे। किस से मांगते। क्या गारंटी है हमारे पास, क्या काम दोबारा इसी जगह मिलेगा, कब दोबारा काम मिलेगा, इस मध्य हम कहाँ रह सकते हैं। ऐसे ही हजारों प्रश्न थे, जिनका उत्तर नहीं था। केवल मौत। इस से अच्छा है कि अपने गाँव में जा कर अपने गाँव के लोगों के पास कुछ राहत मिल जाए। कम से कम अपने गाँव की मिट्टी तो मिल जाए। ऐसे सैंकड़ों प्रश्न हैं जिनका उत्तर उस बेरोजगार और खाली जेब वाले के पास नहीं है। अब या तो खुदकुशी कर या वहाँ से निकल भागे। खुदकशी करने पर बीवी और बच्चों का क्या होगा, यही सोच कर वहाँ से निकलने का ही रास्ता ठीक लगा होगा।
सरकार ने घोषनायें तो बहुत की जैसे ऐसे परिवारों और व्यक्तियों को स्कूलों तथा आश्रमों में रखें, सरकार इनके खाने के लिए सहायता देगी। कुछ लोग वहाँ रहे भी, परंतु कब तक। बहुत संस्थाओं और स्वयंसेवकों ने खाने से लेकर जूते तक बांटे। इस तरह कुछ भाग्यवान अपने गाँव पहुँच भी गए। गुरुद्वारे, आश्रमों तथा धनी व्यक्तियों ने बहुत बढ़ कर ऐसे लोगों की सहायता की है। मैं सोचता हूँ कि शायद इन श्रमिकों का यह क़दम अमानवीय था। क्या ऐसे लोगों ने अपने राज्य से बाहर काम लेने से पहले सोचा था कि हम ऐसे स्थान पर जा रहे हैं जहाँ हमारी सहायता के लिए कोई नहीं है। आने वाले समय के लिए कुछ प्रबंध करने आवश्यक हैं। विदेश जाने से पहले यह सब सोचा जाता है। इनके लिए यह भी विदेश है। कुछ व्यक्तियों को अभी तक भी अपने राज्य में काम नहीं मिला है। लाकडाऊन में ढील मिलने पर विशेष बसों से इन लोगों को वापस बुलाया जा रहा है। कुछ को वायुयान द्वारा लाया गया है। लाकडाऊन के दौरान बहुत से ऐसे व्यक्ति दुर्घटनाओं से या कुछ अन्य कारणों से यात्रा में ही चल बसे।
केंद्र सरकार ने विशेष रेलगाड़ियों द्वारा ऐसे व्मक्तियों को ले जाने की व्यवस्था की। कुछ राज्य सरकारों ने योगदान दिया और सफल भी रहे। कुछ राज्य राजनीति में फंस गये और रेलगाड़ियों को रोकना पड़ा। सरकारी और निजी बसों को इस काम में लगातार लगाया, बहुत लोगों ने लाभ उठाया और आए व्यक्तियों को राज्य सरकार अपने यहाँ ही काम देंगी। कुछ ही को काम मिला है। सामान्य स्थिति में देखा जा रहा है कि बहुत लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में काम करने जाते हैं।
कोई भी व्यक्ति अपने राज्य में काम नहीं करना चाहता। उसकी इच्छा विदेश जाने या दूसरे राज्य में जाने की रहती है। बिहार और उत्तर प्रदेश से लोग मुम्बई, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, देहली में काम करना चाहते हैं। दूसरे राज्य वाले भी ऐसा ही चाहते हैं। शायद अपने राज्य में उन्हें काम करने में संकोच होता है। सब लोग सरकारी नौकरी चाहते हैं और सरकार के पास इतनी नौकरियाँ हैं नहीं। अब तो आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है और सरकार को भी अपने कुछ काम टालने पड़ रहे हैैं। ठेके पर अथवा किसी निजी एजेंसी द्वारा काम करवाया जा रहा है। लोग कम वेतन पर भी काम करने को तैयार हैं। पहले कभी नौकरियाँ अधिक थी तो उपलब्ध व्यक्ति कम थे, आज नौकरियाँ कम हैं परंतु आवेदकों की भरमार है। ऐसा भी है कि लोग जो काम कर रहे हैं उससे वे खुश नहीं हैं तथा अपनो पसंद का काम न मिलने के कारण अपने आप को मिसफिट मानते हैं। यह संघर्ष लंबे समय तक चलने वाला है। सरकारी तंत्र को इस समस्या का समाधान निकालना ही होगा। अब परिवर्तन का युग है और जनता संतुष्ट नहीं है, सरकार को कुछ स्थायी हल करना चाहिए।
इतनी टीस महसूस होने पर भी एक सुखद बात सामने आई है। कोरोना से संक्रमित लोग प्रायः संभ्रांत और उच्च मध्यम वर्ग के ही देखे गये हैं। कहीं निम्न वर्ग जैसे झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले और दैनिक वेतनभोगी संक्रमित नहीं मिले या उनमें कोरोना प्रतिरोधक क्षमता पर्याप्त रही और वे बचे रहे, अन्यथा कोरोना का मुकाबला करना सरकार के वश में नहीं था।
कोरोनाकाल और मानसिक तनाव
कोविड-१९, कोरोना महामारी के प्रकोप से आज सम्पूर्ण विश्व त्रस्त है। आज मानव जिस कठिन परिस्थिति से गुज़र रहा है, उसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी। इस कठिन दौर ने हमारी जीवन शैली पर गहरा दुष्प्रभाव डाला है। इसके परिणामस्वरूप हमारी दिनचर्या, हमारा आचार-व्यवहार, हमारी मान्यताएँ, परमपराएँ और हमारे रीति-रिवाजों को मनाने का तौर-तरीका, यहाँ तक कि हमारी कार्य शैली और कार्य-प्रणाली भी प्रभावित हुई है। पिछले सात महीनों से हम ऐसी परिस्थितियों से जूझ रहे हैं, जिसके हम अभ्यस्त नहीं हैं। धीरे-धीरे इस बदलती जीवन शैली के साथ हम स्वयं को ढालने में प्रयत्नशील हैं, परन्तु इस जानलेवा महामारी के कारण आज समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग मनोवैज्ञानिक रूप से त्रस्त एवं तनाव ग्रस्त है।
आज हमारा समाज कोरोना से पीड़ित व्यक्ति के लिए महंगी दवाइयाँ, अत्यधिक महंगी स्वास्थ्य सेवाएँ और उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी के कारण आर्थिक तथा मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित हुआ है। परिणामस्वरूप मानसिक रूप से स्वस्थ, सचेत और जागरुक व्यक्ति भी संक्रमण का शिकार हो जाता है। ऐसा व्यक्ति प्रायः तनाव से ग्रस्त होकर इसी सोच में डूबा रहता है कि यदि उसकी रिपोर्ट पौज़ेटिव आई तो क्या होगा। ऐसे में तनावजन्य अन्य कई रोग अपने पैर पसार रहे हैं। तनाव के कारण व्यक्ति मानसिक रूप से अशक्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसे अवसाद, बेचैनी, उदासीनता, थकान, चिड़चिड़ापन आदि व्याधियाँ घेर लेती हैं। उच्च और निम्न रक्तचाप, जोड़ों का दर्द आदि भी इसी से सम्बन्धित हैं। टेंशन, स्ट्रैस आदि जैसे लक्षण हमारे लिए सामान्य हो गए हैं।
ऐसी परिस्थिति में सर्व प्रथम अपना मनोबल बढ़ाने का प्रयत्न होना चाहिए। हमें यह सोचना चाहिए कि हम कोरोना को हरा सकते हैं। एक रोग ही तो है, इसका उचित उपचार करेंगे तो स्वस्थ रह सकते हैं। जब कोरोना से संक्रमित व्यक्ति पुनः स्वस्थ हो रहे हैं तो हम भी इसे रोक सकते हैं। प्रबल इच्छाशक्ति और सबल मनोबल इसके लिए आवश्यक हैं।
समय का सदुपयोग अपनी किसी हाबी को पूरा करने में लगायें। फोटोग्राफी, बागवानी, संगीत का कोई वाद्य बजाना अथवा गायन सीखना और उसका अभ्यास करना, स्वाध्याय, अच्छा साहित्य पढ़ना, रचनात्मक और सृजनात्मक लेखन में प्रवृत्त होना तथा अपने प्रिय विषय से सम्बन्धित अनुसंधान के बारे में जानने और उसमें व्यस्त होना आदि कई क्षेत्र ऐसे हैं जिनसे बौद्धिक विकास के साथ-साथ आपका रचनात्मक और सामाजिक योगदान भी बढ़ेगा। खाना बनाना, नए और विशेष प्रकार के पकवान बनाने की विधियाँ सीखना और परिवार के साथ उनका आनन्द लेना आदि आपको एक नई ऊर्जा प्रदान करेगा। इसी प्रकार अन्य गृहकार्यों में सहभागिता, गृहसज्जा में सहायता देकर आप गृहणी के कार्य को मनोरंजक बनाने में सहयोग कर सकते हैं। इससे घर का वातावरण सुखद और तनाव रहित रहता है और स्वयं भी तनाव मुक्त होकर सकारात्मक सोच से भर जाते हैं। अतः अच्छा साहित्य पढ़िए, सकारात्मक सोच रखिए, अच्छा संगीत सुनिए और अपने वातावरण को सुखद बनाइए। योगाभ्यास के माध्यम से स्वस्थ और तनाव रहित जीवन जीएँ।
डॉ. वी. के. शर्मा
शिमला
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