Table of Contents
आह्वान (Invoke)
आह्वान (Invoke): पल-पल प्रकृति बदल रही भेष,
सबको देती यह संदेश,
आज अगर ना जागा मानव,
रह जाएगी स्मृति ही शेष।
बदलते धरती के प्रतिमान,
सबको कर रहे सावधान
अन्नदाता हुआ हैरान,
जैव विविधता से ही बचेगा
धरती का यह रूप विधान।
डोल रही है धरती देखो,
सूखी नदियाँ, दरिया देखो,
पेड़ों की चित्कार सुनो तुम,
करो ना इन पर घातक वार,
जलप्रपात भी सूख रहे हैं,
इनकी भी तो सुनो पुकार,
पीट रही छाती धरती माँ,
छलनी सीना दर्द अपार,
कोख हरी कर दो तुम मेरी,
करो ना मेरा तुम व्यापार।
आज हमारा हो संकल्प,
पन्नी का हो कोई विकल्प,
मरुभूमि श्यामला बनाने,
आज हमारा हो प्रकल्प।
जन्म लिया जिस धरती पर,
आओ उसका कर्ज़ चुकाए,
धरती माँ का करने शृंगार,
हम सब मिल कर पेड़ लगाएँ,
जीवन अपना सफल कर जाएँ॥
संत कबीर
ढोंग, आडंबर, अंधविश्वास पर,
जिसने सबको सबक सिखाकर,
सकल सहज समरसता लाकर,
जड़ चेतन का भेद बता कर,
मन को शुद्ध स्वरूप बता वह,
बना रहा मदमस्त फक़ीर,
वही हैं संत कबीर॥
वाणी जिसकी अजरअमर,
भाषा जिसकी सरल सहज,
सर्वधर्म समभाव बताकर,
जातिवाद का भेद मिटाकर,
निर्गुण भक्ति मार्ग दिखाकर,
शब्दों का कड़वा घूंट पिला वह,
हो गया ब्रह्म में लीन,
वही हैं संत कबीर॥
बना रहा फक्कडी़ वह तो,
सधुक्कड़ी में दिया संदेश,
ज्ञान प्रेम का अलख जगा,
मानवता का दिया उपदेश,
बन बैठा संतों में श्रेष्ठ,
मानव मन में बना विशेष,
साखी, सबद, रमैनी गाकर,
ढाई आखर प्रेम सिखा वह,
सत्य, अहिंसा, शान्ति में धीर,
वही हैं संत कबीर॥
मानवता फिर शरमाई
देख मेरी आँख भर आई
मानवता फिर शरमाई।
एक जीव की हत्या करते,
तुझको लाज ज़रा न आई।
प्रकृति कहाँ विध्वंश है करती,
मानव जब विध्वंसक बना,
उसके इस रूप से तो,
काल भी देखो है डरा,
ईश्वर जाने कलयुग में,
दुर्जनों का कैसे अंत होगा,
या फिर एक बार संहारक ही,
प्रचंड होगा।
यह देख मेरी आँख भर आईं,
मानवता फिर से शरमाई।
शूल बिछा कर राहोँ में,
विष के बीज बो गया,
कलयुग का मानव अब,
जैसे दानव हो गया॥
निहत्थों पर वार करना,
जीवन को तार-तार करना,
हया की सीमाए तोड़ गया,
धिक्कारता ईश्वर भी,
ये कैसा रूप गढ़ा,
यह देख मेरी आँख भर आई,
मानवता फिर से शरमाई॥
मैं मज़दूर हूँ
तालाबंदी में फँसे मजदूर,
अपने घर से दूर।
नंगे पैर, भूखे पेट,
पैदल चलने को मजबूर।
चल रहे हैं आस में,
घर की चिंता लिये,
भूख और प्यास में।
पैरों में पड़े छाले,
दर्द न बयाँ करने वाले
मंजिल है अभी दूर
पैदल चलने को मजबूर।
चल रहा है कारवां,
न अपनी ज़मीं है,
ना आसमाँ
कड़ी धूप में,
कंठ रहा सूख
पगडंडियों व
रेल पांतो के बीच
चल रहा मजदूर
मंजिल पर नजर,
मगर नज़र आती बहुत दूर।
दो गज की दूरी से
नाप रहा सड़क
कोई तो मिले,
जो पहुँचा दे घर तक
कोई नहीं सुनता
गरीब की आवाज
सरकारें हुई गूँगी,
महामारी ने घेरा,
इसी आस में चल रहा
कभी तो होगा सवेरा
लड़खड़ा रहे पैर,
थमने लगीं साँसे
तरबतर पसीने से
बोझिल हुई आँखें
कर रहा मनुहार,
सुन लो गुहार
मैं मज़दूर हूँ,
मेरा भी है घर द्वार
तालाबंदी में फँसे मजदूर
अपने घर से दूर
नंगे पैर, भूखे पेट
पैदल चलने को मजबूर।
आबादी क़ैद घरों में,
कर रही विश्राम
मैं मज़दूर हूँ
मुझे कहाँ आराम।
भूख से अकुलाई
जिजियाबाई,
देती बच्चों की दुहाई,
उठाये सिर पर भार,
महामारी के खौफ़ से दूर,
तपती दोपहरी में,
होकर मजबूर,
नंगे पैर, भूखे पेट,
चल रहा मजदूर॥
मधु तिवारी
कोंडागाँव
छत्तीसगढ़
यह भी पढ़ें-
4 thoughts on “आह्वान (Invoke)”