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मैं विरोधी हूँ (i am anti)
मैं विरोधी हूँ (i am anti): पीने वालों का, जो किसी के मेहनत का खून पीते हैं,
वो जो सबक सिखाने की बात करते हैं,
जो औरत के लिए हदें तय करते हैं,
जाति-सी मवाद की बात करते हैं,
वर्ण की रक्त पिपासू नाग डसते हैं,
जो पुरानी रीति की खाट चढ़ते हैं,
किताबों को दीमक बनाने वालों का,
मुझमें और तुममें बैठे कुब्रे नासूर का,
मानस बने भसमासूर का,
विरोध हूँ, उनसबके
जो चुपचाप तमाशा देखते हैं,
ख़बरों से हाथ सेंकते हैं,
समय का पासा फेंकते हैं,
जो बोलने की ज़रूरत नहीं समझते हैं,
जो बोलते हैं, पर सऊर् नहीं उनमें,
जो बोलते हुए लड़खडाते हैं,
और जो कोशिश भी नहीं करते,
मैं उनके भी विरुद्ध हूँ,
जो मुँह चुराते हैं रसूखों के डर से,
जो जीभ हिलाते हैं, रत्ती भर से,
जो लार गिराते हैं, कुछ काग़ज़ों पर,
कुछ मामूली ईश्तेहारों पर,
वैशाखी का सहारा लिए कलमगारों पर,
नंगी राजनीति के खेलाड़ो पर,
मैं विरोध हूँ आपके भी
अगर आप ने एक ग़लत स्याही की बूंद
काग़ज़ की सफ़ेदी को ख़राब करने में लगाई है,
मैं विरुद्ध हूँ मेरे,
अगर मैंने शब्दों की भित्ति-सी परछाई भी झुठाई है।
वो युग है अब बीत चुके
राहत के नाम पर फिर शुरू होगा एक बंदर बाँट,
जहाँ गरीबों को लाइन में लगना होगा लोन की ख़ातिर,
और रसूख वालों के घर पर पहुँच जाएगी उनके ज़रूरत के लायक रकम,
गरीब किसानों की आत्महत्याओं का नया सिलसिला शुरू होगा,
और विदेश निकल जाएंगे बड़े-बड़े पैसे वाले चौकसी, माल्या और मोदी,
कभी बीच सड़क पर तो कभी रेलवे ट्रैक पर लेटे-लेटे भगवान की शरण में पहुँच जाते हैं दुखिये,
और कोई अपनी गाड़ियों पर सिर्फ़ एक काग़ज़ लगा कर ढो लेता है लाखों का माल,
खाने को नमक, चूरा और मिर्च है उनकी थाली में,
जिनके जलते हैं, खून और पसीने मुमालिक में,
ब्रेड, बटर, मटन और दारू नसीब है अब तक,
कलंदरों को मौत से झूझते देश की पामाली में।
दो वक़्त की रोटी के कहीं लाले हैं,
कहीं हर घर को टोकन से शराब बेचने वाले हैं,
भला हज़ार देने भर से किसी का परिवार पल जाएगा क्या?
जितना अनाज दे रहे हो चार लोगों के लिए अपने घर ले आओ,
और पूछो घर वालों से इतने में महीने का चल जायेगा क्या?
अब शेखी बघारने जब आये कोई तुम्हारी देहरी पर चाहे चार दिवारी में,
पूछना मालाओं से लदी गर्दन लिए आदमी से,
उसके जो बीत रहे इन काले दिनों में किये गए कामों के बारे में,
हो सके तो दिलाना याद उसके दिये झूठे दिलासा और मक्कारी के,
और फिर बता देना चीख़ कर कि रखो अपनी वादों की पोटली,
और निकल जाओ हम मज़दूरों के गलियों के मुहाने से,
मेरे कई भाई, बहन, माँ, बाप, बेटे बेटियाँ, पिछली बीमारी में हैं बीत चुके,
तो जाओ ढूँढो दूसरा कोई घर अब तुम,
झूठे वादों से हम सभी हैं अब रूठ चुके,
हमारे गुल के तमाम फूल पत्ते हैं अब सूख चूके,
जाओे बदलो ख़ुद को अब, देखो, सुनो,
वो युग है अब बीत चुके।
ख़बर ये नयी नहीं
ख़बर ये नयी नहीं की सफ़र हमेशा,
मुश्किल रहा है ज़िंदगी का,
बेतरीके से निभाये गये रिश्तों का,
बिल्कुल अंजान से रास्तों का,
जैसे तपती सड़क पर नँगे पाँव,
जैसे सलाखें हो चिलचिलाते धूप सी,
जैसे आवाज़ खूँ के उबाल की,
जानवरों के उधरते मोटे खाल की,
सड़कों पर प्रदर्शन के बवाल की
सरकार से पूछती तीखे सवाल की,
ख़बर ये नयी नहीं की सफ़र हमेशा,
मुश्किल रहा है ज़िंदगी का,
ख़ुद के निर्मित गड्ढों में गिरने का,
और फूटी कोहनी के बल उठने का,
मुठ्ठी में फंसे रेत का,
माथे पर चमके पसीने का
दाँत कटे ज़ुबाँ का,
निर्मम और लिजलिजे जबाल सा,
कभी गले में लटके टाई सा,
कभी अँधेरे में डराते प्रेत सा,
जिस्म में धँसे घाव जैसे,
जिनसे नहीं है शरीर का कोई लगाव,
गुज़र रहा वक़्त मामूल से,
लगे है, कि जैसे तूफानी मझदार में नाव सा,
ख़बर ये नयी नहीं की सफ़र हमेशा,
मुश्किल रहा है ज़िंदगी का
मैं साथी हूँ
मैं, मैं साथी हूँ
बोधिक्त का साथी हूँ,
संभक्त का साथी हूँ,
निशक्त का साथी हूँ,
नालियों में गहरे उतरने वालों का,
कचरे हटाने वालों का,
तेज़ दुपहरी में आदमी खींचने वाले का,
निर्भीक मछुआरों का,
उनका जो पीड़ित है, पर स्वनिरमित है,
उसका भी जिसके भीतर साहस है, सच बोलने को
जिसके भीतर ढांडस है, पराजय को सहने का,
हाड-माँस का वह पुतला जो दूर धरातल सूंघ रहा,
मैं साथी हूँ, उनका जो खाना खाने के बाद दो रोटी सड़क पर किसी जानवर के लिए छोड़ते हैं,
जिसमें संभाव बची हुई है,
जिसे कुछ भी छीन लेने की चाह नहीं,
राही को जो पानी पिला दे,
किसी को जो कपड़ा पहना दे,
निर्बल का जो टोह ले ले,
निर्धन को जो भात खिला दे,
ठिठुरते को जो चाय पिला दे,
जो बात न्याय की न्याय से करे,
अलगू-सा अब यहाँ राई भर ही है,
जिसके भावी शब्दों का मैं साथी हूँ,
इनमें से आप यदि एक हैं,
तो ही मैं आपका भी साथी हूँ।
खोटे नहीं सिक्के मेरे
खोटे नहीं सिक्के मेरे,
सिर्फ जज़्बात शब्दहीन हैं,
साबित करने की ज़रूरत नहीं मुझे,
अक्ल मेरा सलीम है,
करना काबू, नहीं मकसद में मेरे,
हासिल पर मेरा यक़ीन है,
तू नज़र को अपनी ऊपर उठा,
पायेगा तू उड़ानें मेरी तसलीम है,
कोई अपना हाथ चाहे उठा ले,
बदल ले मौक़े पर इरादे अपने,
करले कोशिश बदगुमान करने का,
या बाँध जाये परेशानी दामन को मेरे,
मुझे यक़ीन तो बस एक पर है,
जो सबके वफ़ा का पैरोकार है,
जिसके करिश्मे का ज़माना भी तलबगार है,
जो वलीम है, और सबका इसलाहे तदबीर भी,
तो तू रख यही इरादे बढ़ जा,
तू रख यही इरादे बढ़ जा,
खोटे नहीं सिक्के मेरे,
सिर्फ जज़्बात शब्दहीन हैं।
तुम्हें ख़बर नहीं है
मैं तुमसे, हाँ तुमसे कितनी बात करता हूँ,
तुम्हें ख़बर नहीं है,
चलो मैं ही बताये देता हूँ,
मैं रोज़ तुमसे बात करते हुए, समन्दर की रेत पर घंटों चलता रहता हूँ,
तुम नहीं होती हो फ़िर कैसे,
यही सोच रही होगी, है ना,
अभी और बताता हूँ,
आईने को साइड से देखता हूँ,
तुमने जो चेहरे देखने की तरक़ीब सिखाई थी,
ठीक वैसे ही,
और तुम्हारे आँखों की पलकों के दोनों किनारे से
ख़ुशी के ढुलके आँसू को अपने लब से चूम लेता हूँ,
वक़्त निकाल लेता हूँ, शाम, रात और नींद के खुलते ही,
क्योंकि हमेशा की तरह, हर पहर की शुरुआत तुमको याद करके करने का वादा जो है,
वैसे तो जहाँ में मेरे जेहन की अब वह क़द्र नहीं रही हैं, जो साइंसदाँ तुम्हारे साथ रहकर था,
ज़्यादा मैं दुनिया की पहले ही की तरह नहीं सोचता हूँ,
पर हाँ कुछ ख़ास वक़्त, जैसे, चाय, खाने की मेज़,
सिरहाने का तकिया, अलगनी में लटका और हवाओं से बात करता,
मचलता, कभी दूर, तो कभी सिमट कर आगोश में आता, तुम्हारा दुपट्टा, मुझे याद आता हैं,
तब दुःख होता है, बाकि कुछ तकलीफ़ नहीं है,
मैं तुमसे, हाँ तुमसे कितनी बात करता हूँ,
तुम्हें ख़बर नहीं है।
और हाँ पुरानी आदत है, अब तुम्हारी तस्वीर से अदा करता हूँ,
पहले तुम्हारी आँखों में झाँकता हूँ,
और फिर सूरमा लगा के आँसू गिराता हूँ,
और तुम रूमाल से…
हम कैसे एक दूसरे की आँखों में मुहब्बत मापते थे,
तुम कहती थी कि तुम्हारी आँखों में मुहब्बत ज़्यादा गहरा है,
और मैं कहता, बिल्कुल ग़लत, तुम्हारी आँखों में चोर है,
और तुम मुझे तकियों से मारने लगती,
फिर हम यूँही लड़ते लड़ते, सो जाते,
सुबह जब आँख खुलती तो तुम मासूमियत से मेरे बाँह पर सोयी रहती थी,
चलो मैं सोने की कोशिश करने जा रहा हूँ,
सर्दी की रात है।
मैं तुमसे, हाँ तुमसे कितनी बात करता हूँ,
तुम्हें ख़बर नहीं है,
कलाकार के बड़े निराले होते अंदाज़ हैं
कलाकार के बड़े निराले होते अंदाज़ हैं,
सबको करके साथ शुरू करते साज़ हैं,
माज़ में हो या आज हो,
हमेशा से रहा है, दिलों पर राज इनका,
असलियत को बयाँ करते हैं, ये
भले ही कितना ही कष्टकर क्यूँ न हो,
खेलते हैं, हर रंग से,
सफ़ेद और काली दीवारों को भी रंगते हैं, ये
हम-आप इनकी हर एक परत को समझ नहीं पाते,
नहीं करते इंसाफ़ इनकी जज़्बात से,
फिर भी इनकी मुस्कुराहट कम नहीं होती,
कई सारे फ़न में होते हैं ये माहिर,
इनके स्वभाव को समझना, है बेहद पेचीदा,
आसानी से करते नहीं जाहिर,
छुपाने की हुनर में, होते हैं ये बहुत माहिर,
करिश्मे से अपने, हमें बना देते हैं, साहिर,
इनके रास्ते यूँ तो अक्सर काँटों से होते हैं, सजे
पर ये हमेशा पेश करते हैं,
खिले हुए फूल की पंखुड़ियाँ-सी मुस्कान,
और खुशबु का पूरा बाग,
काँटों की चुभन और तकलीफ़ को छुपाने की काबिलियत इनमें होती बहुत ख़ूब है
सजे-सजाये रास्ते तो बस इनको जलवा-ए अफरोज़ हैं,
चेहरे पर फ़ैज़ इनके ऐसा दिखता है,
जैसे नूर इन्हीं के सदका-ए खोज़ है।
नई चुनौतियों को कलाकार सजदा-ए-बरोज़ है।
याद बचपन की
दिल सबका करता होगा, दिल सबका करता होगा,
छोटे से पाँव, धीमे से आँव
नन्हे से चाँव, दूधिया सफेद दाँत,
चपकी हुई नाक, मोटे से गाल, खूबसूरती बेनिशान,
मखमली गालों पर माँ के खुरदुरे हाथों का कोमल स्पर्श,
दिल सबका करता होगा, दिल सबका करता होगा,
वो सुरीली हँसी,
वो तोतली बोली,
छोटी-सी मुट्ठी से आँखों के काजल फ़ैलाना और भूत बन जाना और
खूब खिलखिलाना,
नाक से आती नमकीन पानी को प्यार से उंगलियों में लगाना,
दिल सबका करता होगा, दिल सबका करता होगा,
वो मासुमियत से की गयी गलतियाँ, वह टकले होने का डर,
मोहल्ले में गंजी से ढके शरीर लिए घूम लेना,
गर्मी की दुपहरी में माँ को चकमा दे कर आम के टिकोले खाना,
ना जाने ऐसी ही कितनी नादानियाँ करने का,
फिर से प्यार और उस मासुमियत को जीने का,
माँ के गोद में सिर रख के सोने का,
दिल सबका करता होगा, दिल सबका करता होगा,
महफूज़ निसार
बिहार
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१- आत्महत्या
२- संघर्ष
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