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इंतज़ार (Wait)
प्रिय पाठकों… आज जनभाषाहिन्दी.कॉम के कहानी सेक्शन में प्रस्तुत है कहानी इंतजार (Wait)… कहानी के लेखक हैं राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ जी… राजीव नामदेव जी मध्य प्रदेश के शहर टीकमगढ से हैं… लेखन में रूचि रखने वाले राजीव नामदेव जी अब तक कई रचनाओं का सृजन कर चुके हैं… तो आइये पढ़ते हैं उनकी कहानी इंतजार…
सुनीता आज फिर बैठी थी. वह सोच रही थी जाने कैसी कटेगी मेरी यह नीरस ज़िन्दगी. क्या इसी का नाम ज़िन्दगी है मुझे कब तक इस प्रकार तिल-तिलकर जीना पड़ेगा .क्या इस जन्म में मुझे कष्ट ही कष्ट सहने पड़ेंगे,क्या इस जन्म में सुख मेरे भाग्य में नहीं लिखा है. तभी माँ की आवाज़ से वह चैंक सी गयी मानों वह सोते से जागी हो. माँ ने फिर से जोर से पुकारा क्या इसी तरह बैठी-बैठी रोटियाँ तोड़ती रहेगी या कुछ काम भी करेगी.
यूँ तो सुनीता अपनी पाँच बहनों में सबसे बड़ी थीं एवं देखने में भी परी सी सुन्दर या कहे कि सौन्दर्य की मूरत थी. शायद इसीलिए उसकी छोटी बहने उससे बेहद जलती रहती थीं. माँ भी उससे सौतेला व्यौवहार करती थी,पता नहीं क्यों ? इस क्यों का जबाव उसके पास नहीं था, और माँ से पूँछने की उसमें हिम्मत नहीं थी। माँ उसे हमेशा कुछ न कुछ खामियाँ निकालकर डाँटती रहती थीं या यूँ कहे कि उसे डाँटने का बहाना ढँूढ़ती रहती थीं शायद उसकी एक वजह उसकी शादी की चिंता भी होगी.
मध्यमवर्गीय परिवार था.उनका पिता अच्छी सर्विस में था लेकिन बहुत सा पैसा होने पर भी बहुत ही ज़्यादा कंजूस प्रवृत्ति का था उसके सामने तो कंजूसी भी शरमाया करती थी. ढंग से न तो किसी को अच्छा भोजन मिल पाता था और ना ही अच्छे पहने को कपड़े. बस किसी तरह ज़िन्दगी की गाड़ी को चला रहे थे। यह कहना ठीक ही रहेगा कि उनसे तो अच्छे मजदूर एवं गरीब लोग जीवन जीते है एवं सुख से रहते है जितना मिलता है उसी में संतोष करते हंै. बाप चाहता था कि जल्दी से जल्दी सुनीता का विवाह किसी भी तरह से कर दूं. लेकिन पैसा कम से कम खर्च करना पडे़ ऐसा नहीं कि उसके पास पैसा कम हो लेकिन क्या करे कंजूसी तो उनके रग-रग में बसी है. इतना पैसा कमाने एवं संग्रह करने से क्या फायदा जब हम उसका सही उपयोग और उपभोग नहीं कर सके. कोई धन दौलत थोड़े ही बाँधकर अपने साथ ले जाना हैं,लेकिन मूर्खो को उपदेश देने से क्या फायदा.
लेकिन सुनीता तो कम से कम दो साल तक विवाह नहीं करना चाहती थी क्योंकि उसे तो अभी अपनी कालेज की पढ़ाई पूरी करना है, और अभी तो वह एम.ए. प्रथम वर्ष में ही पढ़ रही है.उम्र भी तो अभी मात्र 20 वर्ष ही है, लेकिन पिता की जिद के आगे उसकी एक न चलती थी. पिता तो बस उसकी शादी की रट लगाये रहते. लड़का तो देखने कहीं कभी कभार ही जाते, किन्तु सुनीता के सामने ही उसके विवाह की शीघ्रता की चर्चा घर में प्रतिदिन करते रहते. रोज-रोज अपनी शादी की बात सुनते-सुनते सुनीता के कान पक गये थे. उसे तो अब शादी के नाम से ही चिढ़ होने लगी थी.
कभी-कभी तो सुनीता पिता से कह देती कि क्या मैं इतनी बुरी लगने लगी हँू ? कि आप मुझे इस घर से भगाने की जल्दी करने लगे हो. पिताजी क्या जबाव देते सुनकर चुप्पी बाँध लेते ,लेकिन माँ की जुबान कैंची की तरह चलती तुरंत कहती क्या तुझे जिऩ्दगी भर यहीं पडे़-पड़े खिलाते रहेंगें. लेकिन माँ भी यह नहीं चाहती थी कि सुनीता की शादी जल्दी हो जाये क्योंकि वही तो थी जो घर का सारा काम अपने हाथों से करती थी ठीक एक नौकरानी की तरह दिनभर काम में जुटी रहती थी और माँ थीं कि बस दिन भर हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती या फिर पलंग पर महारानी की तरह आराम फरमाती रहती. पानी तक अपने हाथ उठाकर नहीं पीती थी. वह तो दिन भर सुनीता को ही कोसती रहती जैसे उसकी दुश्मन हो और मानो वह उससे अपने पिछले जन्म का वदला इस जन्म में ले रही हो.
सुनीता ने तो पुस्तकों में पढ़ा था कि ‘माँ’ तो एक ममता का सागर होती है और अपने बच्चों को वह अपनी जान से भी ज़्यादा चाहती है. वक़्त पड़ने पर अपनी जान की बाजी लगाकर अपने बच्चों की जान बचाती हैं. लेकिन उसकी यह माँ तो बिल्कुल इसके विपवरीत गुणों की हैं बिल्कुल राक्षसी प्रवृत्ती की. माँ ने सुनीता के हृदय में माँ के प्रति इस कदर नफ़रत के बीज बो दिय थे कि उसे माँ शब्द से ही घ्रृणा होने लगी थी और घृणा होना उसके लिए स्वाभाविक था, भला कोई माँ अपनी बेटियों साथ ऐसा क्रूर व्यवहार करता है. सौतेली माँ तक इतनी कठोर एवं निर्दयी नहीं होती, जितनी उसकी माँ थी. लेकिन सुनीता भी बेचारी क्या करे, वह बेवस और मजबूर थीं.
सुनीता कि माँ तो उसे कभी चाहती ही नहीं थी जबकि सुनीता सबसे ज्यादा काम करती थी उसकी बाकी बहनें तो दिन भर खेलने में ही मस्त रहती थीं. और भी तो उन्हें कुछ भी काम करने को नहीं कहती थीं. बहुत सर पर चढ रखा था उन्हें कभी डाँट पड़ती तो वह केवल सुनीता को ही.पाँच बहिनों में एक अकेला भाई था प्रकाश, लेकिन उसे अपनी दुकान के कामों एवं अपनी मौज मस्ती से ही कहा फुरसत मिलती थी लेकिन फिर भी वह सुनीता को बहुत चाहता था.
सुनीता कि एक सहेली थी आरती जो कि पडोस में ही रहती थी. जब कभी भी सुनीता बहुत परेशान एवं उदास होती तो उससे मिलकर एवं बातंे करके अपने मन को हल्का कर लेती. आरती भी उसे समय-समय पर उचित सलाह देकर उसका ग़म हल्का करती रहती और उसे दिलासा दिलाती रहती कि सब ठीक हो जायेगा अच्छा वक़्त आने दो. लगता है कि अभी तुम्हारा वक़्त खराब चल रहा है लेकिन धैर्य रखो. सुनीता भी आरती की बात मानती थी माने भी क्यो न पक्की सहेली जो थीं और एक साथ एक ही कक्षा में पढ़ती भी थीं.
आरती का एक भाई था संजय जो कि सुनीता कि ही हमउम्र का था और आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी. वह सुनीता को मन ही मन बहुत चाहता था लेकिन अपनी चाहत का इज़हार करने की हिम्मत अभी तक नहीं जुटा पाया था.दिल की बातें ओठों तक नहीं आ पा रही थी. सुनीता भी संजय की ओर आकर्षित होने लगी थी शायद उसके दिल में भी संजय के लिए थोड़ी सी जगह थीं,लेकिन वह सामने कुछ भी प्रकट नहीं होने देती थीं.
संजय की अभी नयी नयी नौकरी एक प्राइवेट कंपनी में लगी थीं 8000रू.महिने मिलते थे. वैसे पैसो की कमी तो उसे भी नहीं थीं क्योंकि उसके पिता शासकीय सेवा में उच्च पद पर थे लेकिन वह अपने पैरों पर स्वयं खड़ा होना चाहता था. उसे घमण्ड़ तो नाममात्र भी न था. मृदुभाषी,शांत एवं गंभीर स्वभाव था उसका शायद यही कारण था कि सुनीता जैसी सीधी एवं सभ्य लड़की लड़को से बाते तो दूर उसकी शक्ल तक देखना पंसद नहीं थीं वह भी संजय की ओर खिंचती चली आयी जैसे कोई चुम्बक लोहे को अपनी ओर खींच लेता है. आरती के माध्यम से दोनों के बीच बातचीत का जो सिलसिला शुरू हुआ था.
वह कब धीरे-धीरे प्यार में बदल गया पता ही नहीं चला.दोनों एक दूसरे को बेहद प्यार करने लगे और दो जिस्म एक जान हो गये. इस प्रकार कब दो साल बीत गये पता ही नहीं चला.संजय अब सुनीता से शादी करनेके लिए जोर देने लगा था लेकिन सुनीता है कि अपने माँ-बाप की मर्जी के खिलाफ़ शादी करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थीं. संजय और आसरती के समझाने पर भी भी सुनीता शादी के लिए तैयार नहीं हो रही थीं वां कहती थीं कि मैं अपनी पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़ी हँू और यदि मैंने अपनी मर्जी से माँ-बाप के खिलाफ़ जाकर लव मेरिज शादी कर ली तो बाकी बहिनों का क्या होगा उनका विवाह कैसे होगा समाज में हमारा परिवार बदनाम हो जायेगा।
संजय यही सोचकर अपने मन को तसल्ली देता रहता था कि शायद किसी दिन सुनीता उस नरकीय यातना देने वाले घर से छूट कर मेरे पास विवाह करने के लिए आ जाये. हद तो तब हो जाती थी कि जब सुनीता की छोटी बहिने उसपर किसी बात पर लड़ते-लड़ते हाथ तक उठा देती थी और सुनीता माँ से जाकर उनकी शिकायत करती तो माँ केवल छोड़ा सा उन्हें डाँट कर शांत हो जाती. लेकिन शांत स्वभाव की सुनीता चुपचाप मूक दर्शक बनकर शांत रह जाती थीं.
कभी-कभी तो सुनीता को अपना यह जीवन बहुत नीरस लगता था और कभी-कभी तो उसके मन में आत्महत्या करने जैसे विचार मन में आने लगते थे लेकिन संजय के प्यार की डोर सुनीता को अभी तक जीवित रखी थी. संजय से वह प्यार तो बहुत करती थीं लेकिन उससे शादी करने के लिए तैयार नहीं होती थीं. संजय ने सुनीता के नीरस जीवन में रंग भरने की भरपूर कोशिश की थी,लेकिन शायद संजय के प्यार के रंग पक्के नहीं थे जो कि कुछ समय बाद धुँधले पड़ते गये, आख़िर कब तक संजय सुनीता के लिए इंतज़ार करता उसके लिए उसके पिता ने एक लड़की पंसद की थीं. उसका नाम प्रभा था वह भी सुंदर,पढ़ी-लिखी एवं संपन्न परिवार से थीं. लब संजय को विवाह के लिए दबाव डाला गया तो वह भी प्रभा से विवाह करने करने के लिए तैयार हो गया,लेकिन वह सुनीता को भूल नहीं पा रहा था. सुनीता की ज़िन्दगी में जो कुछ दिन संजय के रूप में बहार बनकर आये थे वे भी चले गये आरे उसकी ज़िन्दगी फिर से नीरस हो गयी. शायद भगवान नेू उसकी किस्मत में यही लिखा था.
कभी-कभी सुनीता यह सोचती कि कब वह इस जिल्लत की ज़िन्दगी से छुटकारा पायेगी, पर शायद अभी उसे कुछ दिन और उसे यँू ही गुज़ारना पड़ेगा, थोड़ा इंतज़ार करना पडे़गा. यह नीरस एवं मजबूर बेबस जीवन जब तक कि उसका विवाह कहीं हो नहीं जाता. ससुराल में एक नई जिऩ्दगी की शुरूआत करेगी वह इसी शुभ घड़ी का इंतज़ार कर रही है जब पिताजी उसकी कहीं कर देगें,लेकिन अभी वह कर ही क्या सकती है केवल सोच-सोच कर अपने दिल को तसल्ली तो दे सकती है और कुछ देर अकेले में रोकर अपना मन हल्का कर लेती है शायद उसके जीने का यही क्रम बन गया था. दामन खुशियों भरने के लिए अभी उसे और इंतजार करना पडेगा। कितना इंतज़ार करना पडे़गा, यह तो ऊपरवाला ही जानता है.
राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
संपादक ‘आकांक्षा’ पत्रिका, अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ, टीकमगढ़, शिवनगर कालौनी, टीकमगढ़ (म.प्र.)
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