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आज की पढ़ाई (today’s study)
today’s study: काली रातों की अँधेरा जब छटती है,
जब सूर्य लालीमा विखेरता है,
जब घडी़या टिक-टिक, चलती है।
सब सोते हमें जागते हैं॥
जब छ बजते, हम तैयार रहते है।
पीठ पर झोला टाँगकर करके,
तेजी से गुरूकुल की ओर भागते हैं।
जब प्रार्थना सभा ख़त्म हो जाती है।
क़दम हमारे लड़खड़ाती है,
जब लाख मना करने पर भी,
तन पढ़ने आ जाती है।
जब अपना मनचाहा हर काम,
हमको लाचारी लगती है।
अभी बातों में खोया था,
दोस्तों से गप्पोओ में ही लगा था।
यह चपरासी की क्या मजबूरी थी?
पहली घंटी लगाना ज़रूरी थी?
अचानक एक प्रतिक्रिया हुई,
अंशात महौल शांत हुई।
शिक्षका जी वर्ग में आई।
सर्वप्रथम हाजरी बनवाई।
हम अंग्रेज़ी के विद्यासागर निकालते हैं।
श्रीमती जी हमें पढ़ती है,
टेंस पेंट की जाती है।
घटी जल्द बित जाती है
दुसरी घंटी बजती हैं
शिक्षिका वर्ग में आती है,
अनुशासन हमारी परखती है।
फिर पढा़ने में जुट जाती है॥
श्यामपट्ट पर वह लिखती है,
शिक्षिका जाती अस्ति:।
महोदया पढा़कर चली जाती है।
तीसरी घंटी जब लगती है,
रोम रोम कांप जाते हैं।
अचानक भारद्वाज श्रीमान् आते हैं,
गणित के सवाल लिखवाते हैं।
जब जोर-घटाओ की प्रश्नों में,
माथे की नस दुख जाती है।
तब हमें पढ़ना गद्दारी लगती है।
वही सवाल सपनों में आकर,
सोने से जगाती है॥
चौथी घंटी की आवाज़ सुनने को,
कान हमारे तरसते हैं,
हिन्दी के अध्यापक की यादें हमें सताते हैं।
इंतज़ार का फल मीठा होता है।
चौथी घंटी तभी लगता है।
मन हमारे प्रसन्न होते हैं,
मुकुल श्रीमान् वर्ग में आते हैं।
अकबरी लोटा की कहानी सुनाते हैं।
जीवन जीने के तरीक़ा से सिखलाते हैं॥
जब लगातार घंटी बजती है,
तब अवकाश हमें मिलती है।
आज दिन था शनिवार,
चार घंटी का ही, सहना पडा़ प्रहार।
मानव-पशु में फ़र्क़ बतलाइए,
विद्या ने हमें जीना सीखलाई।
विज्ञान की महत्ता बतलाई।
यही है मेरी आज की पढ़ाई॥
मेरी पढ़ाई संघर्षों से लड़ाई
हर शख़्स की पढ़ाई से होती है तुरपाई
कोई वेतन के लिए करते है पढ़ाई
कोई वतन के लिए करता है पढ़ाई
मैं वतन के लिए पढ़ता हूँ, ज्ञान अर्जित करता हूँ।
सबको ख़ुद लड़नी पड़ती है अपनी संघर्षों की लड़ाई
आध्यात्मिक ज्ञान की खान है मेरी पढ़ाई
घनघोर तिमिर में मुझे आभा दिखलाती है मेरी पढ़ाई
गुड़ चेतना माटी की रचना से जुड़ी है मेरी पढ़ाई
एक सशक्त योद्धा की भांति लड़नी है मुझे ख़ुद की लड़ाई
भूगोल, हिंदी, गणित, संस्कृत, सामाजिक, विज्ञान
की आधार पर बनाकर सजाई है मैंने अपनी पढ़ाई
विघ्नों में रहकर बाधाओं से जूझना सिखाती है मेरी पढ़ाई
सोलह कलाओं से युक्त मालाओं जैसी
संयम् देकर गुथनी है मुझे अपनी पढ़ाई
मातृभाषा से अलंकृत कर ज्ञान अर्जित करने
की मूल दृष्टि रखता हूँ मैं अपनी पढ़ाई
अंग्रेजों की अलाफियों और जयचंदों की फलाफियों
को चुनौती देती है मेरी पढ़ाई
गीता की सार, रामायण की आधार से संचित है मेरी पढ़ाई
मुख के संग नयनों की भाषाएँ देना सिखलाती है मेरी पढ़ाई
सम्बंधों और अनुबंधों में प्रीत बांटना सिखलाती है मेरी पढ़ाई
प्रेम की वजूद है मेरी पढ़ाई
इसे षड्यंत्र से मत तोलो यह मेरी खुद्दारी की है कमाई
शब्दों की बाण से जनार्दन को बाँधना है मेरी पढ़ाई
बुनियादी शिक्षा से गहरी तुरपाई रखती है मेरी पढ़ाई
आत्मविश्वास करनी भी सिखलाती है मेरी पढ़ाई
गुरु को सत्यनारायण मानकर अपने तन-मन-धन
सर्वस्व न्योछावर करना सिखाती है मेरी पढ़ाई
पाषाण पर पुष्प खिलाना बतलाती है मेरी पढ़ाई
मर्यादित संस्कृति को बनाए रखना सिखलाती है मेरी पढ़ाई
झुककर, विन्रम, होकर जीना सिखलाती है मेरी पढ़ाई
उपर्युक्त पंक्तियों में दाखिल किया है मैंने अपनी पढ़ाई
देशहित, प्रतिबंध यौवन यही मेरा जागृत स्वपन
इसी सिद्धांत से ताल्लुक रखती हैं मेरी पढ़ाई
हर शख़्स की पढ़ाई से अलग होती है तुरपाई
कोई वेतन के लिए करते है पढ़ाई
कोई वतन के लिए करता है पढ़ाई
हिंदी की दर्द
भारत माँ की आंखों में यह कैसा तराना है?
दर्द तो अपनों ने दिए दूसरे का बहाना है।
अंग्रेजी की इस दौड़ का यह कैसा जमाना है?
मातृभाषा भाषा को छोड़कर क्या देश को बढ़ाना है?
कभी इस धरा पर दिनकर, प्रेमचंद्र का जमाना था।
हिंदी को आगे बढ़ाना उनका विश्वसनीय सपना था।
हर लब्ज में हिन्दी का नारा बहता था, हिंदुस्तान हमारा था।
इस देश की हिन्दी बोल सुन, हर कोई इसका दीवाना था।
गबन, गोदान, बीजक के आगे हर रचना पुराना था।
पूंछ जाकर पाणिनि नहीं से क्या उनके आंखों में तराना है?
जन्म लेते माँ बोलना क्या यह परम्परा अब पुराना है?
मॉम-डैड बोलकर जीना अब यह कैसा जमाना है?
अब हमारी भी एक बात सुन, इसको सिद्ध करना है।
हिंदी हैं हम हिंदुस्तान हमारा दुनिया को बताना है।
आज मेरा है… जन्म दिवस
आज मेरा है… जन्म दिवस
चित्त प्रसन्न, मन हर्षित… दुविधा मुझको घेरे है,
आज मेरा है …जन्म दिवस प्रश्न मुझको छेडे़ है।
समुंदर में उठने वाली उर्मिया,
मेरी मस्तिक में क्यों घेरे है।
पूछता हूँ… एक प्रश्न समाज से…
क्यों धरा से हिन्दी मिटती जा रहे है?
बचपन में सुनी थी…दिल्ली माँ से कहानियाँ…
राम की रामायण सुनी रचयिता वाल्मीकि को पहचाना…!
मैं वाल्मीकि बनने की ठान बैठा तो …
यह कैसा हंगामा…!
जो किस्से सुने थे…
प्रीत के, देशहित्त के,
मैं ख़ुद कहानी गढ़ उठा। तो यह कैसा हंगामा…!
पढ़ते है गबन तो गोदान भूल जाते है।!
समाज उसके पीछे साहित्यकार का ही है,
योगदान क्यों कोई नहीं बतलाते है!
पूछते हैं …जब युवा से क्या है? उनका मकसद…
अभियंता, डॉक्टर सभी सुनने को मिलते हैं।
साहित्यकार क्यों हट जाते हैं?
क्या गजलें रास नहीं आती है,
साहित्य समाज को नहीं लुभाती है?
क्यों साहित्य के नाम पर वाणी क्षीण हो जाती है…!
हाँ, मैं कवि हूँ
हांँ मैं कवि हूंँ, प्रेम से परे रवि हूंँ मैं।
साहित्य की रीत, प्रेम की प्रीत हूंँ मैं
तम, तिमीर, अंधेरा ने सताया मुझे
मरुस्थल की प्यास ने तड़पाया मुझे
भूख की दलीलों ने रुलाया है मुझे
साहित्य की लत ने लुभाया है मुझे
अपनी प्यास बुझाने के लिए मुझे
राष्ट्र की स्याही में लेखनी डुबोकर,
जन-जन पर अंकित किया मैंने।
शब्दों को अपनी दृष्टि देकर,
अलंकृत करनी है मुझे।
हांँ मैं राष्ट्र की दलील हूंँ,
साहित्य की वकील हूँ।
भीग रही थी तन मेरी,
खजुराहो की मूरत सी,
तभी से क़लम पकड़ा है मैंने।
जन-जन कृत प्रेम की प्रीत
रचना है मुझको,
राजनीतिक पर भी कुछ,
टिप्पणी करना है मुझे।
अर्थव्यवस्था की ओर,
भी बड़ना है मुझे।
मात्री की भाषा को,
संभालना है मुझे
हरि की उपदेश जन-जन,
तक पहुंँचाना है मुझको।
हांँ मैं यायावर घुमक्कड़ हूंँ,
यात्रावृतांत करना है मुझे।
दिनकर, निराला, प्रेमचंद हूँ मैं
हांँ मैं कवि हूंँ प्रेम से परे रवि हूंँ मैं
मातृभूमि के रक्षक
नतमस्तक है उनको जो कश्मीर की वादियों में डटे रहते हैं।
हिमालय की घाटीयाँ जिनके चरण चुमने को तरसते हैं।
जो सरहद पर जान हथेली, में लेकर खड़े रहते हैं।
अनिल अनिल जिनके तप भंग नहीं कर सकते हैं।
जनरक्षा के लिए जो रक्त का कतरा-कतरा बहाते हैं।
सगा रक्त से तन, सिंचते माही पर, बढ़ते क़दम ना रुकते हैं।
मातृभूमि की रक्षा के लिए जो सर्वथा न्योछावर करते हैं।
जिनके पराक्रम को कवि शब्दों में वर्णन नहीं कर पाते हैं।
कदाचित चैन की नींद नसीब होती होगी,
सच्ची मायने में मिट्टी का कर्ज़ वही झुकाते हैं।
जिनको काल पाकर हुआ पावन उनको सर हम झुकाते हैं।
जिनके लहू बंजर ज़मीन पर गिरे तो उपजाऊ बन जाते हैं।
मजहब से बढ़कर जो मातृभूमि की सेवा समझते हैं।
नतमस्तक है उनको जो कश्मीर की वादियों में डटे रहते हैं।
बिहार का अतीत
हाँ यह वही बिहार पाटली ग्राम है जहांँ का आचार्य चाणक्य प्रधान है
हाँ वही बिहार है जहाँ आकर आत्मसमर्पण कर दिया सिकंदर महान है
यह वही बिहार जहाँ स्वर्ण युग का प्रारंभ निर्माण है॥
हाँ यह वही बिहार है धर्म की चेतना का निर्माण है।
यह वही बिहार है जहाँ बौद्ध धर्म अनुआई अशोक महान है।
दुनिया पूछता है उगता सूरज पर हम ढलते के पुजारी है।
यह वही बिहार है जहाँ जन्म लेते भारत माँ के संतान है।
यह वही बिहार है विश्वामित्र जैसे ऋषि महान है।
हाँ यह वही बिहार जिस धरा से उत्पन्न होते हैं आईपीएस महान है।
हांँ यह वही बिहार है जहाँ से चाणक्य का अखंड भारत का निर्माण है।
हांँ वही बिहार है मातृभूमि पर सर कटाने वाले जवान है।
शारदा लोक शौली गायक सुर की पहचान हम ही तो हैं।
सहनाई जिस पर नाज़ करे बिस्मिल्लाह खान हम भी तो हैं।
एक पंथ में दो काज करने वाले, लेखक और प्रधानमंत्री,
डॉ राजेंद्र प्रसाद ही तो है।
दुनिया पूछती है उगता सूरज हम ढलते के पुजारी हैं।
हांँ हम धरती पुत्र बिहारी है।
यह वही बिहार पाटली ग्राम है जहांँ का आचार्य चाणक्य प्रधान है।
मां
मानव तुम बड़ी सहजता से पत्थर को भगवान बना पाओगे।
भीषण अग्नि की ताप को भी नंगे क़दम से झेल पाओगे।
इस तरह से तुम अपने रूठे इष्ट देव को मना पाओगे।
परंतु,
हरगिज जन्नत नहीं नसीब होगी अगर माँ को भूल जाओगे।
हर पथ पर भार्या तुम्हारा साथ निभाते नज़र तो आएगी।
क्या?
माँ की तरह उंगली पकड़ कर चलना भी सीखलाएगी।
मार्ग में बाधाएँ और कमियांँ अगर कहीं नज़र आएगी।
बतलाने वाले बहुत मिलेंगे मगर, माँ की यादें सताएगी।
नौ माह का दर्द स्तन की महत्ता तुम समझ ना पाओगे।
तो भला,
किस तरह इस जन्म में तुम इनका मूल्य चुकाओगे?
माँ वही जो दूध से, जीवन में हरियाली लाए।
पुत्र वही जो दूध का कर्ज़ चुका पाए।
अपने मनोबल से तुम, रूठे इष्ट देव को मनापाओगे।
हरगिज़ जन्नत न नसीब होगी अगर माँ को भूल जाओगे।
भारत की माटी
इस देश की माटी से वीरों की ख़ुशबू आती है,
चंद्रगुप्त चाणक्य की मिसाल याद दिलाती है।
राम का रामायण कृष्ण की गीता, सबको सीख सिखलाती हैं।
निष्काम कर्मयोग यही सुंदर संदेश सुनाती है।
गंगा यमुना सरस्वती ने इस धरा को पवित्र किया।
सिकंदर ने भी यहांँ आकर अपना माथा टेक दिया।
जूझना यमराज से आदत हमारी पुरानी है।
सावित्री क्या कम थी, नचिकेता भी जवाब लाया है।
सिंह शावक के दंत गीन खेलना हमारी आदत है।
इस देश के गुरुओं के आगे राम-कृष्ण का भी सर झुका है़।
इस देहरी पर खेल कान्हा बड़ा हुआ है,
घर उसकी परम तत्व की राजधानी हो गई है।
मौका मिले तो पूछना बुजुर्गों से कभी भी,
सिंदूरदान राखियों की प्रतीक्षा हमारी पुरानी व्यथा है।
इस देश की माटी से वीरों की ख़ुशबू आती है,
दिनकर चतुर्वेदी की साहित्य याद दिलाती है।
तुम गए क्या जम्मू दीप सुना कर गए
तुम गए क्या जम्मू दीप सुना कर गए।
दर्द का आकार दुना कर गए।
प्रशंसकों के हिये को क्यों जुदा कह गए?
मन की व्यथा क्यों विचलित कर गए?
तुम गए क्या शहर सुना कर गए?
प्रेम की परिभाषा पूर्ण कर गए।
मुंह की जाल तोर कर गए।
लोग सीख लेंगे तुमसे प्रीत की परिभाषा।
तुम गए क्या आर्यावर्त सुना कर गए?
दुनिया पूछेगी अगर मुझसे
कृष्णा और सुशांत में फ़र्क़ कितना है?
राधा कृष्ण की तो अनदेखी कहानी थी। मगर,
सुशांत ने इतिहास के पृष्ठ पर सिद्ध कर गए।
कृष्ण की समर्पण पूरी हो चुकी थी।
पर तुम ना जुदाई को सहन कर सके।
तुम गए क्या जम्मू दीप सुना कर गए।
आत्महत्या की विकल्प क्यों अमर कर गए?
टीम-टीमा रहे थे बॉलीवुड की तारे,
क्यों तुम उसे उझल कर गए।
होगी प्रभु की दया कई आएंगे,
सितारे आर्यावर्त की नाम ऊंचा करेंगे।
तुम गए क्या आर्यावर्त सुना कर गए।
भारतीय कप्तान की जीवनी अमर कर गए।
लोग पढ़ लेंगे तुमसे सबक प्यार का।
तेरी कहानी में मेरी एक सलाह का।
आत्महत्या करने से पहले तुम,
सोच क्या तेरे साथ आया था?
परंतु उसके अलावा अब जुड़ चुकी है।
कई की नयन सपन तुमसे।
तुम गए क्या जम्मू दीप सुना कर गए।
दर्द का आकार दुना कर गए।
लक्ष्मीकांत
पटना, बिहार
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