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हाँ मैं २१ वी सदी की नारी (21st century woman) हूँ
आदर करना जानती हूँ,
तो अत्याचार के खिलाफ
सर कुचलना भी जानती हूँ,
हाँ मैं २१ वी सदी की नारी (21st century woman) हूँ,
रीति रिवाज़ निभाने में भी सक्षम हूँ,
पर अंधविश्वास को आँख मुन कर स्वीकारना
मुझे गवारा नहीं, संस्कारों की मर्यादा भी जानती हूँ,
पर कुप्रथाओं के बोझ तले दबना मुझे गवारा नहीं,
हाँ मैं २१ वी सदी की नारी हूँ,
जीन्स पहना गवारा हैं, पर अंग प्रदर्शन कर
औरत जात की नाम की बेज्जती करूं ये गवारा
नहीं, नौकरी करना स्वाबलबी बनना जानती हूँ,
पर उसका धौस अपनो को दिखाऊँ ये गवारा नहीं,
हाँ मैं २१ वी सदी की नारी हूँ,
हाँ मैं बहुत जल्दी धैर्य खो बैठती हूँ, पर ख़ुद से ख़ुद का
धैर्य बाँधना भी जानती हूँ, दूसरे मुझे सभाले ये गवारा नहीं,
खुद का सम्मान भी बहुत करती हूँ, पर बुजुर्गों का कोई तिरस्कार
करें ये गवारा नहीं,
हाँ मैं २१ वी सदी की नारी हूँ,
बहुत जल्दी टूट भी जाती हूँ, पर सबके सामने टूटकर बिखरना
हमें गवारा नहीं, खुद टूटती हूँ, बिखरती हूँ, और ख़ुद को ही समेटती हूँ,
और मुझे आजादी भी पसंद हैं, पर आजादी के नाम पर माता पिता का सर झुकना हमें गवारा नहीं, हाँ मैं २१ वी सदी की नारी हूँ,
आखिर क्यों?
बचपन में ही सब सहना शुरू कर देती हैं,
आखिर क्यों?
बेटा साईकिल चला सकता, बेटी चलाए तो
आवारा कहलाए, आख़िर क्यों?
खुलकर अगर हंस दे तो ये पवांदी लग जाए,
लड़का हो क्या लड़कीयाँ यूं ज़ोर से नहीं हंसती हैं,
आखिर क्यों?
दस साल की हुए नहीं अगर मासिक धर्म ९साल में
ही अा जाए और वह बच्चों के जैसे ख़ुद को समझे
और पिता कंधे पर झूले तो यह कह कर हटाया जाय
अब बड़ी हुई, और कुछ ऐसा करें तो कहाँ जाए अभी
तुम बच्ची, वो बच्ची क्या समझे ख़ुद को,
आख़िर क्यों?
शरीर की बनावट से वो१२साल की उम्र में १८साल
की दिखने लगे, स्कूल आकर घर माँ बाप को बताए
की रास्ते में कुछ समस्या हो रही, तो माँ बाप से डांट खा
जाए, की १२साल में कोई इसे कैसे झेड़ेगा,
आखिर क्यों?
वो बच्ची ना बड़ी हो पाती ना बच्ची कोई उसकी
मानसिक स्थिति क्या समझ पाता, किशोरा अवस्था
में वैसे ही बच्चे कई परेशानियों से जूझते, अगर
ऐसे में परिवार के लोग उस बच्चे को ना समझे
आखिर क्यों?
कम उम्र में शादी हो जाए और सब की आपेक्षा
उससे परिपक्वता वाली रहे,
आखिर क्यों?
जब वह बड़ी होती उसे रोक दिया जाता समाज
के डरावने सपने दिखा कर, उसे खुल कर जीने
की अपने सपनों को पूरा करने की इजाज़त नहीं
मिलती,
आखिर क्यों?
लेकिन ये दिल कहाँ किसी की सुनता है उसे भी
हो जाता हैं किसी से प्यार, एक खूबसूत जिंदगी
के सपने बुनती है, उन सपनों को पूरा किए बिना
मां बाप की इज़्ज़त के लिए वह किसी और के साथ
घर बसा लेती,
आखिर क्यों?
अपने दर्द अपने आसूं दिल में दबा कर नए घर में
कदम रखती हैं, सब की सुनती हैं, सब को खुश
रखने कि कोशिश करती हैं, पर अपने मन का
दर्द कहीं ना कह पाती,
आखिर क्यों?
वक्त कहाँ रुकता फिर शुरु होते रोज़ रोज के
झगड़े ताने अपनी परवाह किए बिना सब को
सुलझाने की कोशिश करती हैं, सब की सुनकर
भी कुछ नहीं कहती कोने में बैठ आंसु बहा लेती,
आखिर क्यों?
सहती रहती जब सहना बहुत मुश्किल हो जाता
तो ख़ुद में ख़ुद को समेट लेती हैं, भूल जाती खुशी
किसे कहते बस अगर कुछ याद रहता तो एक दर्द,
आखिर क्यों?
सहने को तो बहुत सह लेती हैं औरत जब नहीं
सहा जाता तो ख़ामोश कर लेती ख़ुद को और दुनियाँ से
चली जाती,
आखिर क्यों?
चली जाती दुनियाँ से फिर भी लोगों की निगाह
में गुनहगार कहलाती,
आखिर क्यों?
क्यूं टूट रहा परिवार
क्यूं एक दूसरे की हो
रही दो बाते नहीं बर्दाश्त,
रिश्ते नाते ज़िन्दगी ख़ूब सारा
प्यार, क्यूं टूट रहा परिवार,
थोड़ा ग़म खा लो नहीं करो
टकरार, मत तोड़ो परिवार,
मत बदलों मन भाव को,
प्रेम रखो मन में, खुद से ना
अलगाओ करो, मत तोड़ो परिवार,
मत तोड़ो परिवार,
नहीं कलंकित खून करो, ना भूलो संस्कार,
कांटे मत तुम बोओ सुंदर हो परिवार,
रहिए सबके बीच में, ना छोड़ो घर द्वार,
डाली से शोभा रहे-रहे घर संसार,
मत तोड़ो परिवार,
छोड़ दिया परिवार तुम्हें तो, मत होना उदास,
मान नहीं होता कभी छूट अकेले आस,
सावधान दुश्मन रहे, जो बांटे परिवार,
समझो तुम इस बात को रहना उनसे दूर ही यार,
मत तोड़ो परिवार,
बाग ना सूखे प्रेम का, रखो ख़ूब तुम स्नेह,
रिश्ते हो विश्वास से कैसे बरसे नेह,
घर की सूखी रोटी खा कर भी रहे परिवार उमंग,
उसी भरोसे आदमी, जाता लड़ हर जंग,
मत तोड़ो परिवार,
आंगन को आंगन रखो, ना करना बर्बाद,
मत बांटो खिड़की यहाँ रहने दो आबाद,
रहो कलह से बचके, मत तोड़ो परिवार,
हंसे पड़ोसी जब खड़ा हो घर में दीवार,
मत तोड़ो परिवार, मिलकर रहो साथ साथ,
नींबू का शरबत
नींबू का शरबत पीते,
लोग बहुत अघाय,
देह ताज़गी से भरे
गर्मी तुरन्त भगाए,
शोभे माता के गले
नींबू वाली माल,
बहुत ख़ुशी माँ को मिले
कभी ना आवे काल,
उद्घाटन कोई करे सुन
लो सब ये बात, नीबू
मिर्ची से भागे रह बूरी
नज़र का काल,
नमक नींबू में जो
लगे, खाओ तब अचार
एक बार जो खा लिया
दिन भर खाए यार,
मैं चाहती हूँ मैं बुरी ही बनी रहूँ
हाँ मैं चाहती हूँ, वहम का पर्दा बना रहें,
जो फ़रेब कर रहे उससे, बेख़बर नहीं हूँ,
मैं बस चुप हूँ, ताकि अपनों से रिश्ता बना रहें,
पूरा मजमा आया हैं, मरहम सहित मगर,
पर सब चाहते हैं, ज़ख़्म हमेशा बना रहे,
ख्याति की बुलंदी पर पहुँचने से भी ज्यादा,
कठिन हैं, हमेशा वहीं जगह बना रहे,
हैं मुतमयीन लौट कर आना नहीं हैं पर,
ख्वाहिश हैं फिर भी आने का रास्ता बना
रहे,
ख्वाबगाह में मिलने का वादा तो हैं लेकिन
नयनों में नींद का सौदा मगर बना रहे,
इस क़दर दर्द, तकलीफ, घुटन, बेबसी, जिल्लत,
ये इश्क़ हैं तो इश्क़ से तौबा बना रहे,
हमनें रात को ढलते देखा
हर अपनों को बदलते देखा,
कलियों को फोल और फूलों…
को मुरझा कर बिखरते देखा…
हमनें रात को ढलते देखा…
उगते सूरज को नमन करते देखा,
डूबते को नज़र उठा कर भी देखते ना देखा, दुनिया सलाम करती है पद, प्रतिष्ठा, और माया को, हमनें रोते बिलखते बच्चें को
देखा, हमनें रात को ढलते देखा…
बिन रोए माँ भी बच्चें को दूध पिलाती नहीं, स्वार्थ के सब रिश्ते नाते माया पर सब आके जाते, संतानों में भेद कर जाते जो
मोटी गड्डी दे जाते, दुनियाँ के हर रंग को देखा, अपनों को गैरों को देखा, हमनें रात को ढलते देखा…
कहते हैं भेख से भीख मिलते हैं,
खाली जेब लेके निकलो, कुर्सी तो दूर, लोग नजरें चुरा के निकाल जायेंगे, दो रुपए उधार मांग ना बैठे लोग कतरा कर निकल जाएंगे, हमनें रात को ढलते देखा…
मनीषा झा
सिद्धार्थनगर
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