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फटी रजाई
फटी रजाई: जब तक कोई चीज सामने होती है, तब तक उसकी क़ीमत नहीं के बराबर होती है। ज़िन्दगी में बहुत कुछ ऐसी चीजें होती हैं जो पास रहती हैं; हमेशा साथ देती हैं फिर भी हम उन्हें अच्छी तरह से पहचान नहीं पाते हैं। श्याम के जीवन में भी ऐसा ही हुआ था। ग़रीबी उसके साथ थी फिर भी वह महसूस नहीं कर पाया था। क्योंकि उसके पास, उसी के साथ कुबेर का खजाना भी होता था जो सदा उसकी ग़रीबी को दबाकर रखता था। ख़ुद श्याम अपने पुरुषत्व के अहम में उसे जानते हुए, पहचानते हुए भी जाना नहीं था; पहचान नहीं पाया था।
श्याम की शादी अठारह साल में भारती के साथ हो गई थी। षोडश वर्षीय भारती को गाँव के लोग यही कहते थे कि यह शहर की छोरी इसके साथ नहीं रहेगी। एक तो सभी सुविधाओं से दूर यह गांव, फिर गरीबी! यह किसी भी हालत में नहीं रहेगी। गाँव की औरतें तो बस एक श्याम के साथ भारती कैसे रह सकती है; इसी विषय पर परिचर्चा करते पाई जाती थीं। तब गाँव में शादियाँ ज़्यादा उम्र में नहीं होती थीं। शादी के बारे में एक कहावत लोग कहते थे कि ‘शादी सोलह, अठारह, बीस में कीजै, तीस में निकले खीस; तीस बरस में शादी की बात जो करीजै तो, उतार के चप्पल चाभ में दीजै!’
जीवन के फलसफे में उतार चढाव होते हैं। अगर गृहस्थ जीवन में जीवनसाथी अनुकूल, समझदार, प्रेम करने वाला हुआ तो जीवन स्वर्ग से भी ज़्यादा सुंदर हो जाता है। स्वर्ग और नरक यहीं हैं, कहीं दूर नहीं हैं। गृहस्थ जीवन सभी आश्रमों में महत्त्वपूर्ण है। गृहस्थ जीवन में परिवार होता है। परिवार पति-पत्नी से बनता है। कितनी भी ग़रीबी हो, पति-पत्नी में प्यार है, सामाजिक संरचना, समझदारी है तो ग़रीबी दूर खड़ी रहती है, उनसे बड़ी अमीरी किसी और परिवार में नहीं होती है।
अभाव में भी ज़िन्दगी को खुशहाल रखना कोई श्याम-भारती से सीखे! भाग्य को भी बदलना उनकी कला थी। गाँव में कुछ लोगों को परिवार में कलह कराने की व्यसन होती है, उनसे किसी की ख़ुशी देखी नहीं जाती है। उनका भी दिमाग़ हार गया था भारती से, श्याम से! मुझे तो लगता है कि भारती-श्याम के जैसा दाम्पत्य जीवन सुखमय बहुत कम लोग ही जीते हैं। घर में नमक-रोटी है तो भी घी-गुड़, खीर जैसा खाने का आनंद भारती से श्याम ने पाया था। घर में बच्चों को भरपेट भोजन खिलाने के बाद अक्सर खाना कम बचा करता था। भारती-श्याम में एक दूसरे को पेट भर खाने के लिए दबाव बनाया जाता था। अंत में आधा-आधा खाकर एक दूसरे को प्यार करने में पेट भर खाने का मज़ा ले लेते थे।
भारती तब भी यह कहकर कि “तुम मर्द हो मेहनत ज़्यादा पड़ती है, लो एक कौर और खा लो, लो न यह मेरा जूठा है, जो तुम्हें पसंद है, लो कितना स्वादिष्ट है यह!” ऐसे, जैसे कोई माँ अपने बच्चे को खिलाया करती है भारती, श्याम को खिला ही दिया करती थी। फिर दोनों एक-दूसरे के साथ बाहें डालकर, बच्चों को सुलाकर ख़ुद सुख की नींद सो जाते थे। भगवान भी उन दोनों के प्रेम में ग़रीबी को देकर भी उन्हें विचलित नहीं कर सके थे। भगवान को जो याद करते हैं, भगवान उन्हें कष्ट देते हैं ऐसा लोग कहते हैं, सच कहते हैं, ऐसा लोग एक-दूसरे से कहकर मन को ढांढस बंधाते हुए पाए जाते हैं।
ऐसा भी देखने में आया है कि जो कुटिल हृदय दिखावटी पूजा-पाठ करता है, सदा कैसे किसका धन अपहृत कर लूं ऐसे विकार मन में रखता है, भगवान उसे सबकुछ दिए रहता है। जीवन का सच्चा सुख दाम्पत्य जीवन सुखमय है तो है, बांकी धन है शुकून नहीं है, संतोष नहीं है, घर में अनबन रहती है तो जीवन नरक है। ग़रीबी में ही आटा गीला हो जाता है। श्याम का सुख भगवान से देखा नहीं गया था। एक दिन भारती के पेट में दर्द उठा था। भारती को लेकर श्याम शहर के जाने-माने डाक्टर के पास गया था। डाक्टर डहरवाल ने अपने कमीशन पोषित मशीन में जांच करवाई थी। जांच में पथरी होने की घोषणा डाक्टर डहरवाल ने किया था।

डाक्टर डहरवाल ने दवा किया था। बहुत-सी गोली दवाइयाँ भी दिया था। हजारों का पर्चा बनाया था। श्याम ने पैसे दिए थे। घर आकर रात में भारती की तबीयत कुछ ज़्यादा बिगड़ गई थी। गाँव में सभी बुरे नहीं होते हैं, कुछ अच्छे लोग भी होते हैं। उन्हीं में से नरेंद्र लेंडे भी थे। नरेंद्र लेंडे ने पैसे श्याम को दिए थे। श्याम भारती को चार पहिया वाहन से एक सरकारी अस्पताल ले गया था। जहाँ एमरजेंसी डाक्टर का होना निश्चित होता है। सरकारी में पैसा भी कम जमा होंगे ऐसा सोचकर वह सरकारी अस्पताल में ले गया था। सरकारी अस्पताल में डॉक्टर जो आपातकालीन ड्यूटी पर था; भारती को अच्छी तरह से देखा था। डाक्टर डहरवाल ने दवा किया है, ऐसा सुनकर वह डॉक्टर जिसका नाम डाक्टर सूरज उइके था, चौंक गया।
डाक्टर उइके ने कहा, “लगता है डहरवाल डाक्टरी अफ्रीका से खरीदा है। उसका बाप भी डाक्टर था पैसे की कमी नहीं, डाक्टरी की आमदनी से आधे शहर में उनकी ज़मीन है। यहाँ सरकारी अस्पताल में कोई सुविधा नहीं है। तुम गरीब हो मेरा कहा मानो बहुत जल्दी इनको कहीं बड़े चिकित्सक के पास ले जाओ!” श्याम ने उसी दम भारती को डाक्टर उइके के सलाह पर भोपाल लेकर गया था। अपने खेत बेंच दिया। सरकारी मदद की गुहार लगाई थी। श्याम को कोई सरकारी मदद नहीं मिली थी; मिलती भी क्यों, उसके पास कोई सिफ़ारिश नहीं थी। श्याम ने कोई कोर कसर नहीं उठा रखी थी, भारती के इलाज़ में! जब भगवान ही से श्याम की ख़ुशी देखी नहीं गई तो, इससे ज़्यादा क्या कहा जा सकता है।
भारती एक दिन श्याम का साथ छोड़ दिया था। भारती का वश चलता तो, वह श्याम को कहाँ छोड़ सकती थी? वह जिसे लोग भगवान कहते हैं; जबरन श्याम से भारती को छीनकर ले गया था। मकरसंक्रांति, तिल चतुर्थी व्रत का समय था एक पुरानी रजाई जिसे कोई पुरानी कह ही नहीं सकता था। भारती ने ऐसे संभाल कर जो रखा था। उसी रजाई से अपने जाड़े को दूर भगाना चाहता था श्याम! जाड़ा था कि कहीं से भी सांस पाकर श्याम को कंपकंपा देता था। सहसा श्याम की नज़र रजाई के बीचोंबीच अटक गई थी। वह रजाई एक बार संदूक के कोने से उलझकर फट गई थी।
भारती ने श्याम से कहा था कि “सुनते हो जी, कल सुई ले आना मैं थोड़ा-सा धागा रखी हूँ; कल इस रजाई को सिल दूंगी, नहीं तो यह बच्चों के चक्कर में पड़कर पूरी की पूरी फट जायेगी!” श्याम को वह बात याद आ गई थी। श्याम को, भारती का वह कल आया ही नहीं था। रात में ही भारती को शहर ले जाना पड़ा था, जहाँ डाक्टर डहरवाल यमराज बनकर श्याम की भारती का इंतज़ार कर रहा था। श्याम सोच रहा था कि इस फटी रजाई को सिलने के लिए अब मेरे लिए वह कल कहाँ आएगा? कहाँ आएगा वह कल जब भारती कहती कि “मेरे भुलक्कड़ महराज मैंने कल क्या कहा था कि सुई ले आना, तुम फिर भूल गए; जाओ, अभी जाओ तुरकरे की दुकान से सुई लेकर आओ!”
श्याम सोच रहा था कि जैसे ही मैं दुकान जाने को तैयार होता, भारती फिर नरम हो जाती। कहने लगती, “ओ आज्ञाकारी भोंदू महराज, थके-थकान आए हो लो पानी पी लो, थोड़ा आराम कर लो; मैं जाकर सुई लेकर आती हूँ, सामने ही तो तुरकरे की दुकान है!” श्याम की आंखों में अविरल धारा आंसुओं की बह रही थी। श्याम सोच रहा था कि दोनों ज़िद करते दुकान जाने की! आख़िर भारती कहती कि “कोई न कोई फुरसती दरबारी वहाँ दुकान पर बैठा होगा; तुम भूल जाओगे भूख-प्यास! फिर गाँव दारी की बातें होंगी लोग कहेंगे श्याम भी रहा है, कसमें खाओगे फिर भी दुश्मनी की गांठ पड़ ही जाएगी!”
श्याम सोच रहा था कि आख़िर भारती की सख्ती के आगे मुझे ही रुक जाना पड़ता! भारती दौड़कर जाती, सुई लेकर आती, पुराने धागे से ही सही इस फटी रजाई को सिलकर, इस रजाई की उम्र बढ़ा ही देती। फिर मेरे जीवन का वह खुशनुमा कल, अब नहीं आएगा यह सोचकर श्याम का कलेजा फटने लगा था। आंसुओं के सैलाब में ख़ुद श्याम बहने लगा था। श्याम को लग रहा था कि वह अभागिन रात मेरे जीवन में ठहर गई है जिस रात में मेरी भारती के पेट में दर्द उसकी मौत बनकर उठा था। वह फटी रजाई श्याम के आंसुओं से भीग गई थी। श्याम बेसुध होकर रो रहा था। अब शायद अकेले रोते-रोते श्याम को भी जाना ही होगा। इस फटी रजाई को अब कौन सिलेगा? इसे श्याम ओढ़ता है; एक दिन श्याम को भी जाना होगा! फटी रजाई और फटेगी जब श्याम का शरीर जलेगा पता नहीं यह फटी रजाई रहेगी भी या नहीं! पूरी रात बीत गई थी। आज वही रात थी। मकरसंक्रांति में बच्चे मिठाई खाने के, अच्छी दुल्हन पाने के चक्कर में ‘अर्की है, अर्की है’ चिल्ला रहे थे। तब भारती के बच्चे भी इस ठंड में नदी नहाने जाते थे।
अब नदी सूख गई है, बच्चे ठाकरे के बोर में नहा रहे हैं। बच्चों को जल्दी इसलिए भी है कि मौसम खराब है; कहीं बिजली न चली जाए!
घना कोहरा छाया हुआ है। फिर भी गाँव में चहल-पहल है, श्याम इन सबसे अलग बेसुध होकर सोच रहा था कि ‘काश! डहरवाल की डाक्टरी में भारती को नहीं ले गया होता! डहरवाल से अच्छा तो गाँव का झोलाछाप डॉक्टर था, कम-से-कम डरकर दवाइयाँ देता!’
तभी श्याम के पोते ने श्याम का दरवाज़ा खटखटाया, “उठो न दादू, आज मिठाई खाना चाहिए, नहा लो बढ़िया, सुंदर दुल्हनियाँ मिलेगी!”
उस अबोध को क्या पता कि वह क्या कह रहा है! श्याम के दिल में एक असहनीय पीड़ा का अहसास हुआ था। श्याम उसे दबा गया था। श्याम जानता था कि यही पीड़ा एक दिन मुझे भारती से मिला सकती है। भारती के विछोह की पीड़ा से मुक्ति दिला सकती है। श्याम चुपचाप पड़ा रहा! कुछ देर बाद उठकर वह नित्य क्रिया करने के लिए धीरे-धीरे चल पड़ा था। श्याम यही सोच रहा था कि ‘जाने कब भारती के विछोह के दर्द से छुटकारा मिलेगा!’
डॉ. सतीश “बब्बा”
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