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प्रकृति पेड़-पौधे व जीव जंतुओ से प्यार, बंधुओ! यही तो अपने जीवन का आधार
प्रकृति से प्यार: रावत गर्ग
प्रकृति पेड़-पौधे व जीव जंतुओ से प्यार, बंधुओ! यही तो अपने जीवन का आधार
वन और जीवन दोनों एक−दूसरे पर आश्रित हैं। वनों से हमें शुद्ध ऑक्सीजन मिलता है और मनुष्य और अन्य किसी भी प्राणी का जीवन ऑक्सीजन के बिना नहीं चल सकता। वृक्ष और वन भू−जल को भी संरक्षित करते हैं। जैव−विविधता की रक्षा भी वनों की रक्षा से ही संभव है। विभिन्न बीमारियों के इलाज़ के लिए बहुमूल्य वनौषधियाँ हमें जंगलों से ही मिलती हैं। दुनिया में जनसंख्या वृद्धि, औद्योगिक विकास और आधुनिक जीवन शैली की वज़ह से प्राकृतिक वनों पर मानव समाज का दबाव बढ़ता जा रहा है।
इसे ध्यान में रखकर मानव जीवन की आवश्यकताओं के हिसाब से वनों के संतुलित दोहन तथा नये जंगल लगाने के लिए भी विशेष रूप से काम करने की ज़रूरत है। जंगलों को आग से बचाना भी ज़रूरी है। हरे−भरे पेड़−पौधे, विभिन्न प्रकार के जीव−जंतु, मिट्टी, हवा, पानी, पठार, नदियाँ, समुद्र, महासागर, आदि सब प्रकृति की देन है, जो हमारे अस्तित्व एवं विकास के लिए आवश्यक है।
वन पर्यावरण, लोगों और जंतुओं को कई प्रकार से लाभ पहुँचाते हैं। जिसमें वन हमें भोजन ही नहीं वरन् ज़िन्दगी जीने के लिए हर ज़रूरी चीजें मुहैया कराती है। पेड़ पृथ्वी के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं और पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करते हैं। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई एवं सिमटते जंगलों की वज़ह से भूमि बंजर और रेगिस्तान में तब्दील होती जा रही है जिससे दुनियाभर में खाद्य संकट का ख़तरा मंडराने लगा है। वन न केवल पृथ्वी पर मिट्टी की पकड़ बनाए रखता है बल्कि बाढ़ को भी रोकता और मृदा को उपजाऊ बनाए रखता है।
वर्तमान में दुनिया के ७ अरब लोगों को प्राणवायु (आक्सीजन) प्रदान करने वाले जंगल ख़ुद अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। विशेषज्ञों की राय है कि यदि जल्द ही इन्हें बचाने के लिए प्रभावी क़दम नहीं उठाए गए तो ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएँ विकराल रूप ले लेंगी। एक व्यक्ति को ज़िंदा रहने के लिए उसके आसपास १६ बड़े पेड़ों की ज़रूरत होती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ज़मीन के एक तिहाई हिस्से पर वन होना चाहिए जबकि भारत में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश के करीब २३ फीसदी हिस्से पर वन हैं, लेकिन हाल ही में आई एक गैर सरकारी संस्था की रिपोर्ट बताती है कि भारत के केवल ११ प्रतिशत हिस्से पर वन हैं।
ऐसा है तो यह काफ़ी गंभीर और चिंतनीय है। सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरनमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि देश में १८ पेड़ काटे जाते हैं तो एक पेड़ लगाया जाता है। पर्यावरण संरक्षण भारतीय संस्कृति की सनातन परम्परा है। पौधों का रोपण और देखभाल एक सामुदायिक, आध्यात्मिक गतिविधि है। हर नागरिक का धर्म है कि वह वनों की रक्षा और वानिकी का विकास करे। विश्व वानिकी दिवस वन तथा प्रकृति के प्रति हमारे कर्त्तव्य का बोध कराता है।
वन संसाधनों के बेहतर प्रबंधन और संवर्धन से हम भावी पीढ़ी का जीवन सुरक्षित रख सकेंगे। हमें अगर जिन्दा रहना है तो प्रकृति से प्रेम करें और उसे बचाने के लिए हर संभव कोशिश करें। पेड़−पौधे रहेंगे तो हमारा वजूद रहेगा। उनके नष्ट होते ही मानव सभ्यता का भी पतन हो जायेगा। आज पृथ्वी पर लगभग ११ प्रतिशत वन संरक्षित हैं जो विश्व पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही कम है। स्वस्थ्य पर्यावरण हेतु पर पृथ्वी पर लगभग एक तिहाई वनों का होना अति आवश्यक है लेकिन मानवीय विकास की अन्धी होड़, जनसंख्या विस्फोट एवं औद्योगिक वृद्धि के कारण मानवीय आवश्यकताओं व ग़लत वन नीतियों के कारण वनों के क्षेत्रफल में लगातार कमी आ रही है जो एक विश्व स्तरीय समस्या बन चुकी है।
पृथ्वी से मानव ने आज तक सब कुछ लिया ही है दिया कुछ भी नहीं है। यदि हम समय रहते नहीं सजग हुये तो पृथ्वी पर पर्यावरणीय संकट और भी गहरा हो सकता है। पेड़ संस्कृति के वाहक हैं, प्रकृति की सुरक्षा से ही संस्कृति की सुरक्षा हो सकती है। हमें बेकार पड़ी भूमि पर वृक्ष लगाने चाहिए। सड़क, रेलमार्ग और नदियों के किनारे वृक्ष लगाने चाहिए। शहरों और गाँवों में भी पर्याप्त मात्रा में पेड़−पौधे लगाने चाहिए। सरकार को भी वनों की अवैध कटाई पर रोक लगानी चाहिए। वृक्षों का अर्थ है जल, जल का अर्थ है रोटी और रोटी ही जीवन है।
प्रकृति पेड़-पौधे व जीव जंतुओ से प्यार।बंधुओ! यही तो अपने जीवन का आधार॥
महिलाओं में शिक्षा जागरूकता की कमी पर हावी उत्पीड़न और घरेलू हिंसा
हमारे देश में बढ़ती जा रही महिलाओं पर घरेलू हिंसा और उत्पीड़न के मामलों का बढ़ना निश्चित रूप से गहरी चिंता का विषय है। भारत सरकार वर्तमान में महिला सशक्तिकरण के लिए सराहनीय कार्य कर रही है बावजूद इसके आधुनिक युग में महिलाएँ अपने अधिकारों से कोसों दूर हैं। सरकार ने महिलाओं के उत्थान के लिए भले ही सैकड़ों योजनाएँ तैयारकर लागू की हों, परंतु आज भी महिला वर्ग में शिक्षा व जागरूकता की कमी आज भी निश्चित रूप से देखी जा सकती है।
महिलाएँ अपने कर्तव्यों तथा अधिकारों से बेख़बर महिलाओं की दुनिया को चूल्हे चैके तक ही सीमित रखा जा रहा है। भारत में आदिवासी समुदाय की महिलाएँ अपने अधिकारों से बेख़बर हैं और उनका जीवन आज भी एक त्रासदी की तरह है। आम महिलाओं और युवतियों की ही भांति अल्पसंख्यक समाज की महिलाओं पर भी कहीं एसिड अटैक हो रहे हैं, तो कहीं निरंतर हत्याएं-बलात्कार हो रहे और कहीं तलाश-दहेज उत्पीड़न की घटनाएँ हो रही हैं।
इन घटनाओं पर कभी-कभार शोर भी होता है, लोग विरोध प्रकट करते हैं, मीडिया सक्रिय होता है पर अपराध कम होने का नाम नहीं लेते क्यों। हम देख रहे हैं कि एक ओर भारतीय नेतृत्व में इच्छाशक्ति बढ़ी है लेकिन विडम्बना तो यह है कि आम नागरिकों में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को लेकर कोई बहुत आक्रोश या इस स्थिति में बदलाव की चाहत भी नहीं है। वे स्वाभाव से ही पुरुष वर्चस्व के पक्षधर और सामंती मनःस्थिति के कायल हैं। तब इस समस्या का समाधान कैसे सम्भव है?
हमारे देश-समाज में स्त्रियों का यौन उत्पीड़न लगातार जारी है लेकिन यह बिडम्बना ही कही जायेगी कि सरकार, प्रशासन, न्यायालय, समाज और सामाजिक संस्थाओं के साथ मीडिया भी इस कुकृत्य में कमी लाने में सफल नहीं हो पाये हैं। देश के हर कोने से महिलाओं के साथ दुष्कर्म, यौन प्रताड़ना, दहेज के लिये जलाया जाना, शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना और स्त्रियों की खरीद-फरोख्त के समाचार सुनने को मिलते रहते हैं। साथ ही छोटे से बड़े हर स्तर पर असमानता और भेदभाव के कारण इसमें गिरावट के चिह्न कभी नहीं देखे गए।
ऐसे में महिलाओं को अल्पसंख्यक दायरे में लाने का क्या मतलब रह जाता है, इसे आप और हम बेहतर तरीके से सोच और जान सकते हैं। महिलाओं को अल्पसंख्यक दायरे में लाने मात्र से उन पर हो रहे अत्याचारों पर नियंत्रण नहीं हो सकता। क्योंकि नारी उत्पीड़न, नारी तिरस्कार तथा नारी को निचले व निम्न दर्जे का समझने की जड़ हमारे प्राचीन धर्मशास्त्रों, हमारे रीति-रिवाजों, संस्कारों तथा धार्मिक ग्रंथों व धर्म सम्बंधी कथाओं में पायी जाती हैं। नारी को नीचा दिखाने की परम्परा भारतीय समाज को धर्मशास्त्रों के माध्यम से विरासत में मिली है। जाहिर है कि सहस्त्राब्दियों से हम जिन धर्मशास्त्रों, धार्मिक परम्पराओं व रीति-रिवाजों का अनुसरण करते आ रहे हैं उनसे मुक्ति पाना इतना आसान नहीं है।
नारी को छोटा व दोयम दर्जा का समझने की मानसिकता भारतीय समाज की रग-रग में समा चुकी है। असल प्रश्न इसी मानसिकता को बदलने का है। इन वर्षों में अपराध को छुपाने और अपराधी से डरने की प्रवृत्ति ख़त्म होने लगी है। वे चाहे मीटू जैसे आन्दोलनों से हो या निर्भया कांड के बाद बने कानूनों से। इसलिए ऐसे अपराध पूरे न सही लेकिन फिर भी काफ़ी सामने आने लगे हैं। अन्यायी तब तक अन्याय करता है, जब तक कि उसे सहा जाये। महिलाओं में इस धारणा को पैदा करने के लिये न्याय प्रणाली और मानसिकता में मौलिक बदलाव की भी ज़रूरत है। देश में लोगों को महिलाओं के अधिकारों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है और इसका पालन पूरी गंभीरता और इच्छाशक्ति से नहीं होता है।
महिला सशक्तीकरण के तमाम दावों के बाद भी महिलाएँ अपने असल अधिकार से कोसों दूर हैं। उन्हें इस बात को समझना होगा कि दुर्घटना व्यक्ति और वक़्त का चुनाव नहीं करती है और यह सब कुछ होने में उनका कोई दोष नहीं है। महिलाओं को हिंसामुक्त जीवन प्रदत्त करने के लिये पुरुष-समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्त्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढ़लान में उतर गये जहाँ रफ़्तार तेज है और विवेक अनियंत्रण हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार।
पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को ज़हर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है। विश्व महिला हिंसा-उन्मूलन दिवस गैर-सरकारी संगठनों, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और सरकारों के लिए महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के प्रति जन-जागरूकता फैलाने का अवसर होता है। दुनिया को महिलाओं की मानवीय प्रतिष्ठा के वास्तविक सम्मान के लिए भूमिका प्रशस्त करना चाहिए ताकि उनके वास्तविक अधिकारों को दिलाने का काम व्यावहारिक हो सके। ताकि इस सृष्टि में बलात्कार, गैंगरेप, नारी उत्पीड़न, नारी-हिंसा जैसे शब्दों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए।
महिलाओं पर बढ़ती हिंसा और उत्पीड़न बहुत चिंता का विषय
भारत में महिलाएँ हर तरह के सामाजिक, धार्मिक, प्रान्तिक परिवेश में हिंसा का शिकार हुई हैं। महिलाओं को भारतीय समाज के द्वारा दी गई हर तरह की क्रूरता को सहन करना पड़ता है चाहे वह घरेलू हो या फिर शारीरिक, सामाजिक, मानसिक, आर्थिक हो। भारत में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को बड़े स्तर पर इतिहास के पन्नों में साफ़ देखा जा सकता है। वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति आज के मुकाबले बहुत सुखद थी पर उसके बाद, समय के बदलने के साथ-साथ महिलाओं के हालातों में भी काफ़ी बदलाव आता चला गया। परिणामस्वरुप हिंसा में होते इज़ाफे के कारण महिलाओं ने अपने शिक्षा के साथ सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक समारोह में भागीदारी के अवसर भी खो दिए।
महिलाओं पर बढ़ते अत्याचारों के कारण उन्हें भरपेट भोजन नहीं दिया जाता था, उन्हें अपने मनपसंद कपड़े पहनने की अनुमति नहीं थी, जबरदस्ती उनका विवाह करवा दिया जाता था, उन्हें गुलाम बना के रखा जाने लगा, वैश्यावृति में धकेला गया। महिलाओं को सीमित तथा आज्ञाकारी बनाने के पीछे पुरुषों की ही सोच थी। पुरुष महिलाओं को एक वस्तु के रूप में देखते थे जिससे वे अपनी पसंद का काम करवा सके। भारतीय समाज में अक्सर ऐसा माना जाता है कि हर महिला का पति उसके लिए भगवान समान है। उन्हें अपने पति की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखना चाहिए तथा हर चीज़ के लिए उन्हें अपने पति पर निर्भर रहना चाहिए। पुराने समय में विधवा महिलाओं के दोबारा विवाह पर पाबंदी थी तथा उन्हें सती प्रथा को मानने का दबाव डाला जाता था।
महिला उत्पीड़न व घरेलू हिंसा की शिकार सायर-
आज महिला उत्पीड़न सबसे चर्चित विषय है। बेवजह महिला के साथ अन्याय कर मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। कुछ ऐसा ही उदाहरण राजस्थान के जैसलमेर जिले के एक गाँव से है जहाँ एक महिला लगभग चार-पांच महीने से बहुत गहरी मानसिक पीड़ा झेल रही है। मुझे मिली जानकारी व पुलिस उपाधीक्षक को सौंपे ज्ञापन की काॅपी के अनुसार इस महिला की दास्तान बयाँ करती है कि आज से तकरीबन पन्द्रह साल पहले पीड़िता सायर गर्ग जिसनें सातों जन्म के साथ का वादा लेकर बाबुल के घर से विदा हुई थी उसी हमसफर पति नें अपने माता-पिता व भाईयो के साथ मिलकर छोटे चार बच्चों सहित पीड़िता को गहरी मानसिक पीड़ा दी है।
न्याय की दरकार के उम्मीद से पीड़िता सायर पहुँची डिप्टी के द्वार-
झूठे मुकदमे व न्याय दिलवाने के लिए पीड़िता सायर गर्ग ने दिया पुलिस उपाधीक्षक पोकरण को ज्ञापन-
जैसलमेर जिले के पोकरण उपखंड क्षेत्र के ग्राम पंचायत राजमथाई के लोंगासर निवासी सायर गर्ग पत्नी भगाराम ने पुलिस उपाधीक्षक वृत पोकरण कार्यालय में उपस्थित होकर ज्ञापन सौंपकर न्याय की गुहार लगाई।
सौंपे ज्ञापन में पीड़िता ने अपने पति भगाराम सहित सास टीबीदेवी ससुर केशराराम गर्ग जेठ तांबाराम व दुर्जनराम गर्ग पर मारपीट कर जान से मारने, जबरदस्ती तलाक देने व पड़ोसियों से ग़लत सम्बंध होने का झूठा आरोप लगाकर केस कारवाई में फंसाया जा रहा है।
पीड़िता ने बताया कि मेरे चार छोटे बच्चे है जिनका पालन-पोषण मैं स्वयं कर रही हूँ और मेरा पति करीब चार माह से घर नहीं आ रहा है और अपने माता-पिता व भाईयो के बहकावे में आकर मेरे पर झूठा आरोप लगाकर जबरदस्ती तलाक लेना चाहता है जिसके लिए उसने कोर्ट में अर्जी दाखिल की है। मुझे तलाक नहीं लेना है मेरे बच्चों के साथ रहकर यहीं परजिन्दगी गुजारनी चाहती हूँ।
पीड़िता सायर कहानी उनकी जुबानी, पति सहित अपने हुए खिलाफ-
पीड़िता सायर ने बताया कि पिछले महीने की चार तारीख को मेरे साथ सास टीबीदेवी-ससुर कैशराराम, जेठ तांबाराम, दुरजनराम और पति भगाराम ने एकराय हो मिलकर मेरे साथ मारपीट की और रस्सी से बाँध दिया था फिर मेरे बच्चों ने खोला अगले दिन मैंने हल्का पुलिस थाना फलसुंड में इनके खिलाफ मामला दर्ज करवाया, इसके बाद फिर बाइस तारीख को मामला दर्ज कराया बावजूद इसके अभी तक मुझे कोई न्याय नहीं मिल पाया है। पीड़िता सायर का कहना है कि ससुर के ट्यूबवेल में मेरा हिस्सा है फिर भी पानी नहीं देते है।
पड़ोसी डूंगराराम पुत्र नारणाराम जाति मेघवाल को पिछले साल मेरे पति भगाराम ससुर केशराराम गर्ग जेठ सहित सभी मिलकर अपनी सहमति से मेरे हिस्से की २०बीघा ज़मीन हिस्से पर दो साल की बोली पर दिलाई थी परन्तु एक सीजन सियालु लेने के बाद पड़ोसियो पर नाजायज ग़लत होने का आरोप लगाकर ज़मीन छुड़वा ली अब काफ़ी समय गुजर जाने के बाद भी मुझे न यह ज़मीन हिस्से पर जोतते और न ही पड़ोसियो को देने देते है मेरी आजीविका खेती मजदूरी पर ही निर्भर है।
उत्पीड़न की शिकार सायर के साथ न्याय करें प्रशासन-
पीड़िता के पुलिस उपाधीक्षक को न्याय की गुहार लगाते हुए ज्ञापन में लिखा कि मेरे सास-ससुर जेठ पति को बहकावे में लेकर अपने साथ ले गए है मुझे पिछले करीब चार-पांच महीने से मानसिक रूप से प्रताड़ित दुखी कर रहे है मेरी शादी को हुए करीब पन्द्रह साल से अधिक समय हुआ है। मेरी चार संतान है जिसमे दो पुत्र व दो पुत्री है जो छोटे है। पति सहित सास-ससुर व जेठ मेरे पर तलाक का दबाव डालकर घर व संपत्ति से बेदखल करना चाहते है और बोलते कि तुम बच्चे लेकर पीहर चली जाओ।
पीड़िता सायरों ने बताया कि मेरे पिताजी व भाई गरीब है और मुझे वहाँ नहीं रख सकते है। पीड़िता ने सौपें ज्ञापन में बड़े ससुर के पुत्र लीलाराम पुत्र रेंवताराम गर्ग, हमीराराम पुत्र प्रतापाराम गर्ग और गाँव दांतल निवासी शिवराम गर्ग पर आरोप लगाते हुए लिखा कि यह लोग मेरे सास-ससुर, जेठ व पति को ग़लत झूठी बातों में साथ देकर बहका रहे है जिस पर मेरे साथ मारपीट करावा कर झूठे मामलो में फंसाकर बेवजह मानसिक पीड़ा दे प्रताड़ित कर रहे है। पीड़िता सायर ने अपनी जान को ख़तरा बताते हुए पुलिस उपाधीक्षक वृत पोकरण को लिखा कि मेरे साथ जल्द न्याय दिलावें और आरोपियों को पाबंद किया जावें।
बढ़ती महिला हिंसा उत्पीड़न गहरी चिंता का विषय-
मध्यकालीन युग में इस्लाम और हिन्दू धर्म के टकराव ने महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को बढ़ावा दिया। नाबालिग लड़कियों का बहुत कम उम्र में विवाह कर दिया जाता था और उन्हें हर समय पर्दे में रहने की सख्त हिदायत दी जाती थी। इस कारण महिलाओं के लिए अपने पति तथा परिवार के अलावा बाहरी दुनिया से किसी भी तरह का संपर्क स्थापित करना नामुमकिन था। इसके साथ ही समाज में बहुविवाह प्रथा ने जन्म लिया जिससे महिलाओं को अपने पति का प्यार दूसरी महिलाओं से बांटना पड़ता था।
नववधू की हत्या, कन्या भ्रूण हत्या और दहेज़ प्रथा महिलाओं पर होती बड़ी हिंसा का उदाहरण है। इसके अलावा महिलाओं को भरपेट खाना न मिलना, सही स्वास्थ्य सुविधा की कमी, शिक्षा के प्रयाप्त अवसर न होना, नाबालिग लड़कियों का यौन उत्पीड़न, दुल्हन को जिन्दा जला देना, पत्नी से मारपीट, परिवार में वृद्ध महिला की अनदेखी आदि समस्याएँ भी महिलाओं को सहनी पड़ती थी।
भारत में महिला हिंसा से जुड़े केसों में होती वृद्धि को कम करने के लिए २०१५ में भारत सरकार जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रेन) बिल लाई। इसका उद्देश्य साल २००० के इंडियन जुवेनाइल लॉ को बदलने का था क्योंकि इसी कानून के चलते निर्भया केस के जुवेनाइल आरोपी को सख्त सजा नहीं हो पाई। इस कानून के आने के बाद १६ से १८ साल के किशोर, जो गंभीर अपराधों में संलिप्त है, के लिए भारतीय कानून के अंतर्गत सख्त सज़ा का प्रावधान है।
–सूबेदार रावत गर्ग उण्डू
(सहायक उपानिरीक्षक-रक्षा सेवाएँ व स्वतंत्र लेखक, रचनाकार, साहित्य प्रेमी आकाशवाणी श्रोता)
श्री गर्गवास राजबेरा, बाड़मेर, राजस्थान
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