
पश्चाताप के आंसू
पश्चाताप के आंसू : सुनंदा ने अपनी कच्ची उम्र से लेकर बुढ़ापे तक की यात्रा अपने पति के साथ की। दोनों बहुत खुश थे। एक दूसरे का बहुत ख़्याल रखते थे। उनके पास पुश्तैनी जागीर थी इसलिए किसी के सामने हाथ फैलाने की ज़रूरत कभी नहीं पड़ी। दोनों बेटे परदेस में कमाने लगे। यहाँ दोनों आराम से गुज़ारा कर लेते और बचाया हुआ दोनों बेटों में बांट दिया करते थे। दोनों पति पत्नी के प्रेम की आस पास के गाँव में चर्चा होती थी। वे कभी कभार शहर की ओर को आते लेकिन दोनों साथ साथ। मानों एक के बिना दूसरा अधूरा था। दोनों एक ही गाड़ी के दो पहिए थे। एक के बिना दूसरे के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। धीरे-धीरे समय के साथ उम्र का पड़ाव आया। पति बीमार रहने लगा। छोटी मोटी दवा दारू से वह ठीक तो हो जाता परंतु सुनंदा को चिंता सताने लगी। इनके चले जाने के बाद मेरा क्या होगा। मेरी देखभाल कौन करेगा। ऐसे बहुत सारे प्रश्न थे जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहे थे। पति ने उसके चेहरे को पढ़ लिया और वह समझ गया था कि उसे किस बात की चिंता हो रही है। उसने उसे कह रखा था कि मेरे बाद तेरी देखभाल तेरा बड़ा बेटा ही करेगा। मेरे बाद तू उसके पास चली जाना छोटे का कोई भरोसा नहीं है। वह तो अपनी जोरू का गुलाम बन बैठा है। परंतु माँ छोटे बेटे को ही अधिक स्नेह करती थी और उसे बहुत चाहती थी।
एक दिन ऐसा भी आया जब उसका पति उसे यहाँ अकेला छोड़कर दूसरी दुनिया में चला गया। अब अकेली हो गई थी। उसकी दुनिया ही ख़त्म हो गई। अब वह किसके सहारे जीवित रहेगी। पिता की मृत्यु पर दोनों बेटे ने माँ को सांत्वना दी। १३ वी का सारा काम निपटाया। पूरे गाँव को भोज दिया। सारे मेहमानों के चले जाने के बाद सुनंदा पुनः अकेलापन महसूस करने लगी। उसे चिंता थी कि अब मैं किसके साथ रहूंगी। छोटा बेटा मीठी-मीठी बातों में फंसा कर माँ को अपने साथ शहर ले गया। अपने घर लाकर उसने माँ की ख़ूब सेवा की। खाने पीने में कोई कसर ना रखी। सुनंदा उसके झांसे में आ गई। उसे अपने पति द्वारा कही बात खोटी लगने लगी। बेटे में उसे श्रवण का रूप दिखने लगा। अब आश्वस्त हो गई थी। उसने यह निश्चय कर लिया कि वह छोटे के पास ही रहेगी। वह निश्चिंत होकर ईश्वर के भजन करती और सेवा पूजा में अपना दिन व्यतीत करती।

चार ६ महीने बीतने के बाद एक दिन बेटा अपनी माँ के पास आया और कहने लगा कि माँ अब गाँव में क्या धरा है। तुझे तो यही रहना है। वहाँ घर की देखभाल करने वाला भी कोई नहीं है। वहाँ बैंक में पड़े रुपयों पैसों का हिसाब भी कौन रखेगा। खेत खलिहानों का ध्यान भी कौन रखेगा। माँ ने बस बेटे की बातों में आ गई। बेटे की बात उसे सही लगी और दोनों वहाँ का निपटारा करने के लिए दोनों गाँव आ गए। पिता द्वारा बचत की हुई सारी संपत्ति और रुपया पैसा लेकर पुनः दोनों शहर आ गए। जब सारा रुपया पैसा हाथ में आ गया उसके बाद बेटे बहू ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। माँ को अपने से अलग मकान दिला दिया। उस पर ख़र्च की गई पाई-पाई का हिसाब रखा जाने लगा। वह बेचारी इन सब बातों से बेख़बर थी। अपने बेटे द्वारा पीठ पीछे जो षड्यंत्र किया जा रहा था उससे अनजान सुनंदा उसे दुआएँ दे रही थी। अपने स्वर्गवासी पति को दोष दे रही थी कि व्यर्थ ही इस पर क्रोध करते थे। उसे भला-बुरा कहते थे। मेरा लाल कितना दयालु और सेवाभावी है। आज्ञाकारी है। माँ का कितना ख़्याल रखता है।
लगभग १२-महीने बीत जाने के बाद एक दिन बेटा अपनी माँ के पास जाकर कहता है, “मां अब मेरे पास कुछ नहीं बचा है। गाँव से तू जो रुपया पैसा वगैरह लाई थी वह सब तुम पर ख़र्च हो चुका है।” अचानक ऐसी बात सुनकर माँ समझ नहीं पाई कि बेटा क्या कह रहा है। माँ ने उसे पुनः ठीक से समझा कर बताने के लिए कहा। तो उसने समझाया कि अब उस पर ख़र्च करने-करने को बचा ही क्या है जो अब शहर में रहेगी। बेटे के मुंह से ऐसी बात सुनते ही वह ज़ोर जोर से रोने लगी। उसे सारी बात समझ में आ गई थी। बेटा हाथ में सारा हिसाब लिए खड़ा-खड़ा अपनी माँ का तमाशा देख रहा था। सुनंदा को अपने पति द्वारा कही बात याद आ रही थी। उसे चारों ओर घोर अंधकार नज़र आने लगा। उसे अपने किए पर पश्चाताप हो रहा था। किंतु समय हाथ से निकल चुका था। अब उसके हाथ में क्या था जो वह कुछ कर सके। आखिर बेटे ने सारा हिसाब उसके सामने रख कर कहा कि तू जितना रुपया पैसा लाई थी वह सब तुम पर ख़र्च हो चुका है। उसी का यह हिसाब है। उस हिसाबी पत्र में सुनंदा पर ख़र्च की गई हर छोटी-मोटी चीजों की क़ीमत लिखी थी। वह विवश थी। उसके पैरों तले धरती खिसक रही थी। आंखों के सामने घोर अँधेरा छा गया। चारों दिशाएँ घूमती हुई नज़र आने लगी। बार-बार उसे अपने पति का चेहरा याद आ रहा था।
अब उसे अपने बड़े बेटे की याद आई। उसने छोटे से कहा, “अगर तुम मुझे अपने पास नहीं रख सकता तो बड़े के पास छोड़ आ।” वह ठूंठ की भांति खड़ा-खड़ा सब सुन रहा था परंतु चोर की भांति माँ से नज़र नहीं मिला पा रहा था। उसे अपनी आत्मा धिक्कार रही थी। मन ग्लानि से भर गया था। शर्म से पानी-पानी हो रहा था। परंतु वह क़दम आगे बढ़ा चुका था और अपनी पत्नी के सामने उसकी एक ना चलती। आख़िर उसे भी तो घर में रहना था। उसने सोचा किस मुंह से अपनी माँ को लेकर जाएगा। बड़े को अपना मुंह कैसे दिखाएगा। छोटे की पत्नी उसकी इस कमजोरी से वाक़िफ़ थी। सासु को भेजने का उसने पूरा इंतज़ाम पहले से ही कर रखा था। वह उसे लेकर अपने जेठ के घर यह कहकर छोड़ आई कि इसने तो हमें परेशान कर दिया है। हमारी ज़िन्दगी नरक बन गई है। इसे हम और बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसके बेटे ने परेशान होकर इस से रिश्ता ही तोड़ दिया। यह तो मैं भले घर की थी कि इसे लेकर यहाँ छोड़ने आ गई हूँ। सुनंदा अपने आपको कूढ़ती हुई कातर नजरों से उसे देख रही थी। उसकी आंखों में क्रोध, दया और पश्चाताप के आंसू थे।
निलेश जोशी “विनायका”
बाली, पाली, राजस्थान
मो- ९६९४८५०४५०
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