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तुम जीवन हो
तुम जीवन हो
कविता की मधुरिम भाषा हो तुम।
प्रेमिल हृदयों की आशा हो तुम।
सौंदर्य शास्त्र का आधार सुखद,
सुंदरता की परिभाषा हो तुम॥
पग चिह्न बनाती तुम ख़ास डगर।
उर उपजाती उत्साह बन रविकर।
थके चरण, हारे मन में हरदम,
जीवन का रचती विश्वास प्रखर॥
धरा में हो तुम चंद्र ज्योति विमल।
जीवन तुम सुमधुर शुभ प्रीति प्रबल।
भावों की सुरभित सरिता में तुम,
नेह-धार मृदु, प्रेम सुधा सम्बल॥
जीवन उपवन-सा खिले
जंगल करते हैं सदा, मानव पर उपकार।
औषधियां-फल भेंटकर, दें जीवन संसार॥
तरुवर माता-पिता सम, तरुवर मानव मीत।
पोषण-सुख देते सदा, जीवन मधुरिम जीत॥
पेड़ों को मत काटिए, देते सुखकर छांव।
पेड़ बिना जीवन कहाँ, बंजर धरती गांव॥
पौधों से जो जन करें, संतति-सा व्यवहार।
सुख, शांति संतुष्टि मिले, जीवन सदाबहार॥
विटप धरा के फेफड़े, प्राणवायु शुभ गीत।
वंशी-सा बजता रहे, तन मोहक संगीत॥
जीवन उपवन-सा खिले, उर महके दिन-रात।
चहुंदिशि खुशियाँ मधु मिले, नूतन सुखद प्रभात॥
होगी निश्चित भोर
समरसता की डोर कबीरा॥
कस पकड़ो पुरजोर कबीरा॥
जीवन के सब धागे उलझे।
मिले न कोई छोर कबीरा॥
रात अंधेरी लम्बी लेकिन।
होगी निश्चित भोर कबीरा॥
बाहर शांति श्मशान सरीखी।
भीतर सागर शोर कबीरा॥
नेता अफसर भाई-भाई।
कैसे कह दूं चोर कबीरा॥
जीना मरना क़िस्मत लेखा।
नहीं किसी का ज़ोर कबीरा॥
‘मलय’ बिखेरे नेह जगत में।
खुशियाँ हों चहुंओर कबीरा।
जीवन में रस घोल
जीवन में रस घोल कबीरा।
मीठी वाणी बोल कबीरा॥
रसहीन है एकाकी जीवन।
सुख-शान्ति मेलजोल कबीरा॥
प्रकृति बाँटती जीवन हर पल।
सांसें शुभ अनमोल कबीरा॥
गुम रिश्ते-राहें मिल जातीं।
धरती सुंदर गोल कबीरा॥
व्यंग्य वचन युद्धों के पीछे।
उर विवेक मन तोल कबीरा॥
बँटी मनुजता जाति-रंग में।
सरहद ओढ़े खोल कबीरा॥
खिंचीं लकीरें नभ नफरत की।
मत सो, आंखें खोल कबीरा॥
जिसके मन श्रद्धा गहरी
हाथों में तीर कमान दिखा।
चौराहे सजा मचान दिखा॥
गाँव-गली, शहरों में दंगे।
डरा मकान हर श्मशान दिखा॥
करतब करे मदारी जैसे।
मायावी चतुर प्रधान दिखा॥
नीति कागजी आय दोगुनी।
गरीब मज़दूर किसान दिखा॥
दाल-रोटी जहाँ जिसे मिली।
उसने वह हाल मुकाम लिखा॥
अपने सुख-दु: ख बाँटे जिसने।
वह जन मुझको धनवान दिखा॥
जिसके मन शुभ श्रद्धा गहरी।
पत्थर में भी भगवान दिखा॥
फागुन घर-घर बाँटता
मानव मन में प्रीति की, बहे सदा रसधार।
अँजुरी भर-भर पीजिए, अमिय नेह हर बार॥
जब समरसता की बहे, सुरभित मलय बयार॥
शुचि समता सद्भाव से, उपवन सुखद बहार।
वन वाटिका गाँव नगर, छायो शुभ मधुमास।
अबीर गुलाल हाथ ले, फागुन रचता रास॥
चौपालों में सज गये, फगुआरों के रंग।
फागों की सुर-ताल में, लगे फड़कने अंग॥
आत्ममुग्ध तरुणी हुई, निरखे छवि जल ताल॥
मन मनोज नर्तन करे, दे-दे सरगम ताल॥
फागुन घर-घर बाँटता; खुशी, प्यार, मनुहार।
मन भर-भर सब लूटिए, बासंती उपहार॥
सुन फागुन के राग
फागुन दस्तक दे रहा, बानी मीठी बोल।
प्रेमसुधा भर लीजिए, हृदय झरोखा खोल॥
सरिता तट तरुणी खड़ी, डगर बिछाये नैन।
जोति जगी पिय मिलन की, नहीं परत अब चैन॥
बाहर शीतल शांति है, भीतर धधके आग।
ठूँठ पल्लवित हो रहे, सुन फागुन के राग॥
प्रेमसुधा रस पान कर, बढ़ी हृदय की प्यास।
पुनि-पुनि पीना चाहता, सदा लगाये आस॥
फागुन में बौरा रहे, महुआ, बरगद, आम।
प्रेम अंकुरित हो रहा, आग जगाये काम॥
बंजर में बोते रहे
काम करें जो लगन से, होती हरदम जीत।
मन सुरभित केसर कमल, गाते मधुरिम गीत॥
बंजर में बोते रहे, श्रम सीकर हर बार।
हार पहनते जीत के, कभी न मिलती हार॥
कमियों को रोते नहीं, दल नायक रणधीर॥
हार बदलते जीत में, सच्चे साधक वीर।
अंधकार से जो लड़े, मन में ले संकल्प।
बाट जोहती रवि किरन, दूजा नहीं विकल्प॥
सूरज बनता सारथी, कथा बाँचता लोक।
प्रकृति-पृष्ठ शोभित हुआ, श्रम पूजित आलोक॥
कर्मठता की देह पर, सजते सुंदर रंग।
काहिल कोसें भाग्य को, जग नीरस बेरंग॥
सुमिरन कर हरि नाम
दान पुण्य के सेतु से, हो भवसागर पार।
कनक कुम्भ जग कलुष सम, ईश्वर निर्मल सार॥
नश्वर यह संसार है, शाश्वत दीनानाथ।
माया जग भ्रम छोड़ कर, पकड़ ईश के हाथ॥
यह तन माटी का घड़ा, बजता है दिन रैन।
ईश मिलन के बिना अब, कहाँ मिले मन चैन॥
पुर परिजन परिवार हित, भेंट किये सौगात।
रहे जुटाते कनक भू, व्यर्थ बितायो गात॥
सुमिरन कर हरि नाम का, कहते गुरुवर बात।
दिव्यौषधि है भजन नित, मलय भजे दिन रात।
फूलों से उपवन खिला
भ्रमर कली को छेड़ता, डाल गुलाबी रंग।
नेह मेह की धार में, भींगे मधुकर अंग॥
अम्बर में छाने लगे, सुरभित रंग अबीर।
ढाई आखर प्रेम के, कहते मलय कबीर॥
फूलों से उपवन खिला, मधुवन भरी सुवास।
कलियाँ भौंरे कर रहे, प्रेम पगे परिहास॥
साँसों की धुन से सजे, मादक मन के गीत।
राग-रागिनी गूँजती, तन उपजा संगीत॥
रंगों में जब हों घुले, सहज प्रेम के भाव।
तप्त हृदय को तब मिले, सुखकर शीतल छाँव॥
प्रमोद दीक्षित ‘मलय‘
शिक्षक, बांदा (उ.प्र.)
मोबा. ९४५२०८५२३४
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