
ख़्वाब अधूरे से
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ख़्वाब अधूरे से
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ख़्वाब अधूरे से १
ख़्वाब अधूरे से
मोहन बाबू बरामदे में बैठे चाय पी रहे हैं, उनके हाथ में सुबह का अखबार है।
रौबदार चेहरा, उस पर छटी हुई सफ़ेद मूँछें, सुतवां नाक, बड़ी-बड़ी आँखें। उनको देखकर लगता है कि अपने ज़माने में वे किसी फ़िल्मी हीरो से कम नहीं रहे होंगे। शरीर पर ढीला-ढाला कुर्ता और उसी से मैच करता पायजामा पहने हुए वे चाय के साथ सुबह का अख़बार पढ़ने में लीन हैं।
मोहन बाबू के परिवार में उनकी पत्नी शीला के अलावा उनके दो बेटे और दो बेटियाँ हैं। बड़ा लड़का ग्रेजुएशन के बाद पिता के व्यवसाय में हाथ बंटा रहा है, और छोटा अपनी पढाई में व्यस्त है। पिछली साल बारहवीं की परीक्षा दी थी। उससे छोटी है शोभा जो बारहवीं में है और कंचन जो सबसे छोटी है, आठवीं में है।
सामने के कमरे से रवि निकलता हुआ आ रहा है…। उसने हाथ में कुछ किताबें पकड़ी हुई हैं…।
“गुड मॉर्निंग पापा…!”
“गुड मॉर्निंग बेटे…! कॉलेज जाने की तैयारी हो चुकी तुम्हारी…?” मोहन बाबू ने अख़बार से नज़रें उठाते हुए पूछा था।
“जी पापा जी…!”
“शोभा और कंचन दिखाई नहीं दी अभी तक…।” मोहन बाबू ने खोजती हुई नज़रों से पूछा।
“ये शोभा की बच्ची हर रोज देर करती है…।” रवि ने झुंझलाहट भरे लहजे में कहा था।
तभी शोभा और कंचन बरामदे से निकलती हुई आ पहुँचीं…।
“गुड मॉर्निंग पापा…!” दोनों का युगल स्वर खनका था।
“गुड मॉर्निंग…! गुड मॉर्निंग…!!” मोहन बाबू ने कंचन के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, जो अब तक उनके क़रीब आ चुकी थी।
“आज फिर लेट कर दिया न…!” रवि कलाई घड़ी की तरफ देख गुर्राया था।
“लेट कहाँ…? अभी तो पूरे पाँच मिनट बाकी हैं भईया…।” शोभा ने अपना दायाँ हाथ नचाते हुए कहा- “आप तो खाम ख्वाँ नाराज़ होते हैं…।”
“मालूम है… कॉलेज कितनी दूर है…?” रवि फिर गरजा- “वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते पूरे दस मिनट लग जायेंगे…।”
आप तो ऐसे कह रहे हैं भईया… जैसे हम कभी कॉलेज गए ही नहीं…।” आँखें नचाते हुए कहा था शोभा ने- “सिर्फ आप ही को पता है कि… कॉलेज कितनी दूर है…!”
“अरे भई…! अब लड़ते ही रहना है या कॉलेज भी जाओगे…?” काफी देर से शांत बैठे मोहन बाबू ने मुस्कुराते हुए कहा।
“पापा जी…! जब तक भईया और दीदी आपस में झगड़ नहीं लेते… इनका खाना हज़म नहीं होता…।” कंचन जो अब तक उन दोनों को ताके जा रही थी, शरारत भरे अंदाज़ में बोली थी।
मोहन बाबू हँसने पर मजबूर हुए थे अपनी लाडली की बात पर।
“अच्छा… अब तुम लोग कॉलेज जाओ…।” कहा था मोहन बाबू ने- “वरना कॉलेज की छुट्टी हो जाएगी और तुम दोनों यूँ ही झगड़ते रहोगे…।” इस बार कंचन भी ठहाका लगाए बिना न रह सकी। तीनों मुस्कुराते हुए मुड़े थे।
“अच्छा पापा… हम चलते हैं… बाय…!”
“ओ.के…. बाय…!”
तीनों बड़े गेट को पार कर सड़क पर पहुँच चुके थे। रवि ने एक टैक्सी को हाथ देकर रुकवाया और तीनों उसमें समा गए। टैक्सी बढ़ चली थी कॉलेज की ओर।
उधर मोहन बाबू फिर से अख़बार में खो चुके थे। अचानक शीला ने आकर उन्हें पुकारा-
“अरे…! कहाँ खोये हो इस अख़बार में। नास्ता ठंठा हो रहा है…।” शीला देवी ने मोहन बाबू के हाथों से अख़बार लेते हुए कहा- “चलिए…! चलकर नास्ता कर लीजिये…।”
“अ… हाँ…! हाँ…!! चलता हूँ…।” कुर्सी से उठते हुए कहा था मोहन बाबू ने- “ये आकाश कहाँ है…?”
“आप ही का इंतज़ार कर रहा है…। उसे ऑफिस के लिए देर हो रही है…।”
“उफ़्फ़…! मैं तो भूल ही गया था…।” मोहन बाबू ने मुस्कुराते हुए कहा।
“आपको याद ही क्या रहता है…।” शीला देवी ने व्यंगात्मक शैली में कहा था।
“क… क्या मतलब…?” मोहन बाबू बरामदे की तरफ बढ़ते हुए ठिठके थे।
“आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे… आपको कुछ पता ही नहीं…।”
“शीला मेरी परेशानी मत बढाओ…।” मोहन बाबू ने पत्नी की तरफ देखते हुए कहा- “तुम क्या कहना चाहती हो…? जरा समझाओ तो…।”
“मतलब ये कि…।” शीला देवी आगे बढ़ते हुए बोलीं थी- “कि आकाश अब जवान हो चुका है…। उसके लिए कोई लड़की देखी आपने…?”
“अरे भई… गलती हो गई हमसे…। देखते हैं… कोई लड़की उसे पसंद आ जाये…!”
“न जाने वो दिन कब आयेगा…?” गहरी सांस छोड़ते हुए कहा था शीला देवी ने।
“मम्मी…!” आकाश ने तेज आवाज़ लगाई जो खाने की मेज पर बैठा उन दोनों का इंतज़ार कर रहा था।
“आती हूँ…!”
“जल्दी चलिए न…!” जल्दी-जल्दी कदम बढाते हुए शीला देवी ने कहा- “उसे देर हो रही है।” और फिर थोड़ी देर बाद वे दोनों आकाश के सामने बैठे थे।
कमरे में पहुँचकर मोहन बाबू ने आकाश के साथ नाश्ता किया और उसे ऑफिस के लिए बिदा किया।
मोहन बाबू आज ऑफिस नहीं गए क्योंकि आज एक जरुरी मीटिंग ज्वाइन करने दिल्ली जाना है उन्हें।
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ख़्वाब अधूरे से २
रवि का आज कॉलेज में पाँचवां दिन था। अपने मृदुल स्वभाव के कारण अब तक उसने कई दोस्त बना लिए थे। हँसमुख तो था ही साथ ही ‘हैंडसम’ भी।
लम्बा कद, सुगठित शरीर, सुन्दर चेहरा, कुल मिला कर वह एक फ़िल्मी हीरो की तरह दिखता था। कॉलेज में आते ही उसके मृदु-स्वभाव के चर्चे होने लगे थे।
रवि अपने क्लास रूम के दरबाजे पर अन्दर की ओर मुँह करके खड़ा था।
“ए मिस्टर…!” किसी लड़की की कड़कती हुई आवाज़ उसके कानों से टकराई।
“ज… जी…! कहिये…!” हड़बड़ा गया था वह।
“ये दरवाजा क्या तुम्हारे बाप का है…?”
“जी… जी नहीं तो…!”
“फिर एक तरफ हटो…! मुझे अन्दर जाना है…।”
रवि एक तरफ हट चुका था। वह मन ही मन सोच रहा था, अज़ीब लड़की है…! बात ऐसे करती है जैसे सारा कॉलेज इसका गुलाम हो…। उसके बात करने के लहजे पर रवि को गुस्सा आ रहा था।
जैसे ही वह लड़की अन्दर दाख़िल हुई, कई लड़कियों के स्वर एक साथ गूंजे-
“हाय… सीमा…!”
“हाय…!” एक छोटा सा जवाब था उसका।
“अच्छा…! तो ये सीमा जी हैं…।” मन ही मन बडबड़ाया था रवि।
सीमा मुस्कुराते हुए अपनी सहेलियों के पास जा बैठी थी। और बातों में खो गई थी। इस बात से अनजान कि कोई क्रोध भरी नज़रों से देख रहा था उसे। ये रवि ही था जो उसके व्यवहार से नाखुश हुआ था। उसके जबड़े कुछ हद तक सख्त हो चुके थे। अचानक उसे चौंकना पड़ा-
“अरे रवि…! कब आया तू…?” पूछने वाला करन था। रवि के चेहरे के मनोभाव उससे छुपे न रह सके। उसके कंधे पर हाथ रखकर पूछा था करन ने-
“क्या बात है…? किसी से झगड़ा हुआ क्या…?”
“क… कुछ नहीं…। कुछ भी तो नहीं…। ऐसी कोई बात नहीं है…।”
“कुछ भी कैसे नहीं…! तेरा चेहरा बता रहा है… कि जरुर कुछ न कुछ हुआ है…।”
“कुछ ख़ास नहीं…। बाद में बताऊंगा…।” रवि ने बात को टाल देना उचित समझा क्योंकि वह प्रोफेसर को आते हुए देख चुका था।
प्रोफेसर साहब को आते देख सभी अपनी अपनी जगह बैठ चुके थे। प्रो. आर.के. शर्मा ज्यों ही कमरे में दाख़िल हुए, एक तेज स्वर गूंजा-
“गुड मोर्निंग सर…!”
“गुड मोर्निंग…! गुड मोर्निंग…!!” प्रो. शर्मा ने पूरे कमरे में एक सरसरी नज़र दौड़ाई।
“आज का लैक्चर शुरू करने से पहले मैं तुम लोगों से कुछ कहना चाहूँगा…।” प्रो. शर्मा ने शांत स्वर में कहना शुरू किया- “साइकोलोजी एक ऐसा विषय है जिसमें जीवन से जुड़े हर पहलू पर विचार विमर्श करना ही उचित है…।” कुछ क्षण रुक कर फिर वोले थे वे- “मैं चाहता हूँ कि आप लोग हर विषय के बारे में अपना संशय मिटा लें…। हर टॉपिक पर खुल कर चर्चा करें…। और आज का टॉपिक आप लोग ही निर्धारित करें…। बताइये… किस विषय पर चर्चा करें हम लोग…?” प्रो. शर्मा ने एक लड़की की तरफ उंगली उठाकर कहा।
“सर… दोस्ती…!” लड़की ने घवराहट में जवाब दिया।
“हा…! हा…!! हा…!!!” एक साथ कई ठहाके गूंजे।
“सटअप…! कीप साइलेंट…!” डपट दिया था प्रो. शर्मा ने।
“बैठ जाइये आप…।” हाथ से इशारा करते हुए वोले प्रो. शर्मा उस लड़की से- “आपका टॉपिक इन लोगों को पसंद नहीं आया… क्योंकि दोस्ती निभाना हर किसी के बस की बात नहीं…।”
कुछ देर तक कमरे में शांति छाई रही।
“सर मैं बताऊँ…!” एक लड़के ने उंगली उठाई।
“हाँ… हाँ…! क्यों नहीं…?”
“लव…! यानी प्यार…!” लड़के ने अपना टॉपिक सुझाया।
“नहीं सर…! ये तो काफी पुराना हो गया है…।” एक लड़की ने असहमति जताई।
“तो फिर आप बताएं…!” प्रो. शर्मा ने रवि की तरफ इशारा किया।
“सर मैं…!” रवि ने खड़े होते हुए पूछा।
“हाँ… आप…!”
“नम्रता…! क्योंकि आपके अन्दर नम्रता का भाव नहीं है, तो कोई भी आप से बात नहीं करना चाहेगा…।” रवि ने समझाते हुए कहा- “और बात नहीं करेगा तो दोस्ती कैसे होगी…? और अगर दोस्ती ही नहीं होगी तो प्यार कैसे हो सकता है…?”
“शाबाश…! तो आज का टॉपिक है नम्रता…।” प्रो. शर्मा ने मुस्कुराते हुए कहा।
रवि को बैठने का इशारा करते हुए अपना लैक्चर शुरू किया उन्होंने।
रवि अपनी सीट पर बैठा मुस्कुरा रहा था। कभी-कभी वह कनखियों से सीमा की तरफ भी देख लेता था जो उसकी तरफ देखकर मुँह बना रही थी।
सीमा सोच रही थी कि उसने कड़े स्वर में दो शब्द क्या कहे…? कि श्रीमान ने टॉपिक ही दे डाला नम्रता का। वह मन ही मन बड़बड़ाई- “बड़ा आया नम्रता दिखाने वाला…। हूँ…।”
प्रो. शर्मा जा चुके थे क्योकि पीरियड समाप्त हो चुका था।
अगले सभी पीरियड खाली थे। सो सभी कमरे से बाहर आ चुके थे। कोई लाइब्रेरी की तरफ जा रहा था तो कोई कॉलेज में बने लॉन की तरफ।
कहीं छोटी-छोटी फुलवारी तो कहीं लम्बे छायादार वृक्ष। ज़मीन पर नन्हीं-नन्हीं घास की हरियाली एक अद्भुत छटा बिखेर रही थी।
लॉन की हरियाली मन को शीतल कर देने वाली थी। रवि एक पेड़ के नीचे बैठा कुछ सोच रहा था।
“सुनिए…!” एक कड़कदार स्वर उभरा। पुकारने वाले का तीब्र स्वर फिर गूंजा- “अरे…! मैं आपसे ही कह रही हूँ…।”
रवि ने पीछे मुड़कर देखा तो सीमा खड़ी थी। जो उसी से मुख़ातिब थी।
“क्या आपने मुझसे कुछ कहा…?” रवि ने अनजान बनने की कोशिश की।
“नहीं…! मैं तो इस पेड़ से कुछ कह रही थी…।” सीमा ने नाटकीय अंदाज़ में कहा- “कमबख्त सुनता ही नहीं…।”
“अरे..! आप तो नाराज होने लगीं…।” रवि ने भोलेपन से कहा- “मैंने तो यूँ ही पूंछ लिया…। बैसे सुबह भी आपका पारा काफी चढ़ा हुआ था।”
“क… क्या कहा आपने…? ख़ुद को क्या समझते हैं आप…?” फिर से वही तेज तर्रार स्वर- “मैं यहाँ आपके भाषण सुनने नहीं आई…।”
“आईं तो आप हैं…!” स्वर में फिर वही भोलेपन की मिठास- “भाषण सुनने या कुछ और ये तो आप ही बता सकती हैं…।”
“ए मिस्टर…! कुछ और… से आपका क्या मतलब है…? आं…!” सीमा फिर गरजी- “ मैं इतनी देर से ये बताने की कोशिश कर रही हूँ कि… यहाँ प्रतिदिन मैं बैठा करती हूँ… यह स्थान मेरे लिए है… मेरे सिवाय कोई दूसरा नहीं बैठ सकता यहाँ… समझे आप…!”
“ओह…! तभी सोचूं कि यहाँ मुझे काँटों सी चुभन क्यों महसूस हो रही है…।” रवि ने मजाकिया अंदाज़ में कहे थे ये शब्द।
“क… क्या मतलब है आपका…?” सीमा समझ न सकी थी।
“मतलब ये कि सुबह जब आप पधारी… तब भी आपकी आवाज़ एक दम कड़क नुकीले काँटों के माफिक थी… और जब इस शीतल वातावरण में आपका पदार्पण हुआ… तो भी एक दम कड़क अंदाज़ के साथ…।” रवि ने समझाने वाले अंदाज़ में कहना प्रारंभ किया था, परन्तु शरारत भरी थी उसकी बातें। आगे वोला था वह- “जिस स्थान पर एक कड़क और रूखे मिजाज वाली लड़की बैठे… वहाँ कांटे ही चुभेंगे… न कि फूल बरसेंगे…।” ख़ामोश होना पड़ा था रवि को क्योंकि कुछ मिले-जुले स्वर गूंजे थे वहाँ।
“हाय सीमा…!” दोनों ने उस तरफ देखा तो कुछ लड़कियाँ उधर ही आ रही थीं।
“अच्छा…! चलता हूँ मैं…। फिर मिलूँगा…।” उन लड़कियों को अपनी ओर आते देख रवि ने वहाँ से उठना ही उचित समझा।
रवि उठकर लाइब्रेरी की तरफ चल पड़ा।
“तुझे तो मैं देख लूंगी…।” रवि को जाते देख बड़बड़ाई थी सीमा। अब तक रवि जा चुका था।
“अरे सीमा…! कहाँ खो गई तू…?” मुक्ता ने चुटकी लेते हुए कहा था।
“यार मुक्ता…! ये लड़का कौन था…?” सीमा ने रवि का परिचय जानने की कोशिश की थी।
“कौन लड़का…? किसके बारे में पूछ रही है तू…?”
“वही जो अभी यहाँ बैठा था…।”
“अरे…! अभी तो तू उसी से बातें कर रही थी… और मुझसे पूछती है कि कौन था…?” मुक्ता ने अपना दायाँ हाथ नचाते हुए कहा।
“मेरा मतलब है कि… कि उसका नाम क्या है…?”
“अरे वाह…! लड़का-लड़की आपस में बातें करें और एक-दूसरे का नाम तक न पूछें… वो भी अकेले में…। बात कुछ समझ नहीं आई…।” मुक्ता ने व्यंगात्मक स्वर में कहा।
“तुझे मज़ाक सूझ रहा है…?” सीमा ने डपटा।
“तेरी जानकारी के लिए बता दूँ कि…” सीमा कहती जा रही थी- “कि… वो मुझसे बात नहीं कर रहा था, बल्कि झगड़ रहा था मुझसे…।”
“क… क्या…?” स्वर में मिला-जुला आश्चर्य- “वैसे चेहरे से तो शरीफ़ लगता था…।” आगे कहा था मुक्ता ने- “ये बात समझ नहीं आई कि वो तुझसे झगड़ क्यों रहा था…?”
“हमें भी तो बताओ कि तुम दोनों के बीच किस बात को लेकर झगड़ा हुआ…?” वहाँ खड़ी एक लड़की ने पूछना चाहा।
“हाँ… हाँ…! बताओ आखिर बात क्या है…?” कई लड़कियों के स्वर एक साथ गूंजे।
“सुबह जब मैं…” और सीमा ने सुबह वाली घटना तथा कुछ देर पहले उसकी रवि के साथ जो नोक-झोंक हुई थी, विस्तार से कह सुनाई।
“अच्छा…! तो ये बात है…!” मुक्ता मुस्कुराई- “फिर तो ठीक ही कहा उसने…।”
“क्या ख़ाक ठीक कहा…? देखा नहीं… क्लास में उसने ‘नम्रता’ को लेकर क्या खिचड़ी पकाई…? नम्रता का भाव… हूँ…!” सीमा ने मुँह बनाते हुए कहा।
“अरे… ये तो वही था जिसके चर्चे आज कल कॉलेज में खूब हो रहे हैं…।”
“क्या…?”
“हाँ…! रवि नाम है उसका…! रवि सूर्यवंशी…!”
“हाँ… यार…! कितना हैंडसम है…!” मुक्ता ने आह भरी।
“अरे हैंडसम नहीं…! सरफिरा है… सरफिरा…!” सीमा ने मुँह बनाते हुए कहा- “एक दम आवारा लगता है…! हूँ…! इडियट…!”
“सीमा जी…!” मुक्ता का स्वर व्यंगपूर्ण था- “कभी हिंदी फ़िल्में देखी हैं…?”
“मेरे इस झगड़े से फिल्मों का क्या सम्बन्ध…?” सीमा ने जानना चाहा।
“बहुत गहरा सम्बन्ध है…। सीमा जी…।”
“मगर कैसे…?”
“वही तो बताने जा रही हूँ…।”
“जल्दी बता वरना…।”
“वरना क्या…?” एक अज़ीब सी अदा थी मुक्ता की।
“वरना…! वरना… मैं तेरी चोटी पकड़ कर घाट की रस्सी की तरह खींचने लगूँगी अभी…।” बनावटी गुस्सा था सीमा के चेहरे पर।
“बाप रे…! बड़े खतरनाक इरादे हैं जानेमन के…।” मुक्ता और भी शरारती हो चली थी।
“तेरी तो… अभी बताती हूँ तुझे…।” झपटी थी सीमा मुक्ता की ओर।
“अरे… रे… बता तो रही हूँ…।” संभाला था मुक्ता ने ख़ुद को।
“बक भी दे अब…।”
“तो सुन…!” मुक्ता ने कहना शुरू किया, मगर अंदाज़ बनावटी था- “देख…! हिंदी फिल्मों में पहले तो हीरो-हिरोइन आपस में झगड़ते हैं… और फिर एक दूसरे से बेइंतहा मोहब्बत करने लगते हैं…। समझी कुछ…?”
“हा… हा… हा…!” कई लड़कियाँ एक साथ हँसी।
“शटअप…!” सीमा फिर वहाँ न ठहर सकी। पैर पटकती हुई वहाँ से चली गई- “देख लूँगी तुझे भी…। मुक्ता की बच्ची…।”
“अभी देखती जाओ रानी… क्योंकि फिर कहाँ फुर्सत मिलने वाली है तुम्हे… जानेमन…!” हँसते हुए तेज स्वर में कहा था मुक्ता ने।
“हा… हा… हा…!” एक और ठहाके की आवाज़ सुनी थी सीमा ने अपने पीछे। मगर फिर कहाँ मुड़ने वाली थी वह। चलती ही गई।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ३
जिस कॉलेज में रवि पढ़ता था, उसके दो भाग थे। एक भाग में इन्टरमीडिएट तक की कक्षाएं चलती थीं, तो दूसरी तरफ ग्रेजुएशन की।
रवि, शोभा और कंचन को इस कॉलेज में एडमिट करने का मोहन बाबू का यही एक ख़ास कारण था कि तीनों साथ-साथ कॉलेज जाते रहेंगे। वे चाहते थे कि तीनों एक ही कॉलेज में रहेंगे तो उन्हें भी निश्चिन्तता रहेगी। रवि के रहते कॉलेज में शोभा और कंचन को किसी भी प्रकार की असुरक्षा महसूस न होगी। ऐसा ही हुआ, तीनों एक ही कॉलेज में एडमिशन पा गए थे।
लॉन से उठकर रवि सीधा लाइब्रेरी पहुँचा था। शोभा वहाँ पहले से ही मौजूद थी। वह अपनी किसी सहेली से बतिया रही थी। रवि को देखते ही चीख पड़ी-
“भईया…!”
“अरे शोभा…! तुम भी यहीं हो…!”
“हाँ भईया… सुबह से एक भी पीरियड नहीं लगा…। बैठे-बैठे बोर हो रही थी…। सो यहाँ चली आई…। खैर छोड़िये… ये बताइये कि आपका दिन कैसा रहा…?”
“सुबह सुबह मूड ख़राब हो गया…।” रवि ने खाली कुर्सी पर बैठते हुए कहा।
“क…क्यों…?” घवराहट भरा स्वर था शोभा का।
“कुछ ख़ास नहीं…।” रवि ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा- “बस थोड़ी सी बहस जरुर हो गई…।”
“बहस…! मगर किससे…?”
“थी एक लड़की…।”
“क्या…?”
“सीमा… हाँ… शायद यही नाम था उसका…। बड़ी अकडू है।”
“ओह…! तो जनाब किसी लड़की से झगड़ कर आ रहे हैं…।” मुस्कुराई शोभा।
“अरे मैं कहाँ… वही झगड़ रही थी मुझसे…।”
“बात तो एक ही है…।”
तभी कॉलेज का घंटा बजा।
“भईया… लगता है छुट्टी हो गई…।”
“हाँ… मुझे भी यही लगता है…।” रवि ने स्वीकृति दी।
“चलिए भईया… कंचन हमें खोजती होगी…।”
“हाँ… हाँ… चलो…। चलकर देखते हैं…।”
दोनों लाइब्रेरी से निकलकर बाहर बरामदे में दाख़िल हुए। सामने से कंचन आती नज़र आई। उसे देखते ही रवि ने पूछा-
“कैसा रहा आज का दिन…?”
“बहुत अच्छा… भईया…।”
“तो अब घर चलें…!”
“हाँ… हाँ… चलिए… मैंने कब मना किया।”
हँसी के मध्यम स्वर गूंजे थे वहाँ। और वे तीनों कॉलेज के सामने वाली सड़क की ओर बढ़ चले थे।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ४
मोहन बाबू दिल्ली से लौट चुके हैं। आकाश भी ऑफिस से आ चुका है। सभी ने शाम का भोजन किया और फिर दिन भर के अपने अपने अनुभव एक दूसरे को सुना रहे थे।
रात के दस बज चुके थे। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं-कहीं कुछ मध्यम रोशनी हो रही थी। मैंन रोड पर कुछ एक सवारियाँ चलने की आवाज़ आ रही थी। मोहल्ले के गलियारे में किसी के पदचापों की आवाज़, फिर गली के कुत्तों का भौंकना, शांत वातावरण में हलचल पैदा कर रहा था।
मोहन बाबू की कोठी भी नींद की ख़ुमारी में खो चुकी थी। लेकिन रवि पता नहीं किन खयालों में खोया था। सोचते-सोचते कब नींद ने उसे अपने आँचल में छुपा लिया, स्वयं रवि को भी न पता चला।
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ख़्वाब अधूरे से ५
अगली सुबह जब रवि कॉलेज पहुँचा तो उसकी नज़रें किसी को खोज रही थीं। तभी किसी ने उसे पुकारा-
“हाय रवि…! कैसे हो…?”
“हाय…! मैं ठीक हूँ करन…। तुम कहो कैसे हो यार…?”
“ठीक हूँ…! बिलकुल ठीक…। लेकिन…।”
“ल… लेकिन क्या…?”
“मैं तुझे कबसे ढूँढ रहा हूँ…। पता नहीं कहाँ था तू…? अब मिला भी है तो यहाँ…। पता है… कल वाली बात मुझे रात भर परेशान करती रही…। तूने कल बताया नहीं… कि बात क्या है…?” करन ने एक ही सांस में कई सवाल कर डाले।
“हाँ यार…! बो बात तो मुझे भी रात भर जगाती रही…।”
“लेकिन… हुआ क्या… यार…?”
“चल लॉन में चलते हैं। वहीँ बैठकर बात करते हैं…।”
“ओ.के…! जैसा तुम उचित समझो…।”
रवि ने करन का हाथ थाम लिया था। दोनों लॉन की ओर बढ़ चले थे। लॉन में पहुँच कर उस बड़े पेड़ के नीचे जा बैठे थे दोनों, जहाँ कल सीमा और रवि की भेंट हुई थी। जिस मुलाक़ात के बाद रवि के मस्तिष्क में हलचल बढ़ गई थी।
“हाँ… अब बता…! तू क्या कहना चाहता है…?” करन ने उसके पास खिसकते हुए पूछा।
“वो सीमा है न…! सीमा…!”
“हाँ… तो…?”
“कल वह अचानक मेरे पीछे से आई और…” रवि ने संक्षेप में दोनों घटनाएँ कह सुनाईं।”
“ओह…!”
“हाँ… यार…! तब से मैं उलझन में हूँ…।”
“अच्छा…! तो ये बात है…।” करन ने सिर खुजाते हुए कहा।
“हाँ… यार…!”
“फिर… क्या सोचा तुमने…?”
“किस बारे में…?”
“अरे…! उस सीमा के बारे में…। और किसके…?”
“अ… अब तो बस यही सोच रहा हूँ… कि इस लड़की का घमंड कैसे तोड़ा जाये…।”
“भूल जाओ…!”
“क… क्या…?”
“घमंड तोड़ने वाली बात… और उस लड़की को भी…।”
“ये… ये क्या कह रहे हो तुम…?”
“यार रवि…! इस लड़की से दूर ही रहियो…।”
“क्यों…?”
“समझा करो यार…! उसका भाई बहुत बड़ा बदमाश है…। इस वर्ष कॉलेज में नई-नई आई है…। तुम्हारी तरह…।” करन ने समझाया- “लेकिन तुम में और उसमे ज़मीन-आसमान का फर्क है…। बहुत बद्तमीज़ लड़की है वो…।”
“वो तो मैं देख ही चुका हूँ…। भाई बदमाश है इसलिए गुंडागर्दी दिखा रही है…। मैं भी देखता हूँ… कब तक दिखाएगी गुंडागर्दी…।” क्रोध और बदले की भावना स्पष्ट थी शब्दों में।
“रहने दे यार…!”
“कैसे रहने दूँ…? उसका गुरुर तो मुझे ही तोड़ना है…।” स्वर में दृढ़ता थी।
“देख…! समझाना मेरा काम था… अब तू माने या न माने… तेरी मर्जी…। वैसे तू अपना प्रोग्राम कैंसिल कर दे…।” करन ने फिर समझाया।
“नहीं…! मैंने एक बार जो सोच लिया… सो सोच लिया…। अब तो मैं उसका गुरुर तोड़कर ही दम लूँगा…।”
“ठीक है… आगे तेरी मर्जी…।” करन के चेहरे पर उदासी के भाव छलक आये थे।
“तू तो ऐसे उदास हो गया… जैसे मैं इस सीमा से नहीं बल्कि ‘उस’ सीमा पर जूझने जा रहा हूँ…। कमऑन यार…! मूड मत ख़राब कर…।”
धीमे से मुस्कुराया था करन।
तभी कॉलेज के चपरासी ने तीन बार घंटा बजाया- ‘टन-टन-टन’
“चल यार…! चलकर पीरियड अटेंड करते हैं…। दो पीरियड तो बैसे भी मिस कर चुके हम लोग…।” रवि ने उठते हुए कहा।
दोनों क्लास रूम की ओर बढ़ गए थे।
कमरे में प्रवेश करते ही प्रो. त्रिपाठी आ पहुंचे।
उनके हाथ में एक काग़ज़ था।
“गुड मोर्निंग सर…!” एक तीब्र युगल स्वर गूंजा।
“गुड मोर्निंग…! गुड मोर्निंग…!! जानते हैं… आज हम आपके लिए क्या ख़बर लाये हैं…?”
“क्या सर…?”
“बताता हूँ… बताता हूँ…। हाँ… तो आप लोग तैयार हैं… सुनने के लिए…।”
“जी सर…!”
“हाँ… तो… जैसा कि आप लोग जानते हैं… कि आजकल कॉलेजों में क्या चल रहा है… गुंडागर्दी, झगड़े, मारपीट… वगैरह वगैरह…। मैं आप लोगों के लिए नहीं कह रहा हूँ… ये तो उनके लिए है जो न पढ़ना चाहते हैं… और… न ही दूसरों को पढ़ने देना चाहते हैं…। यानी… हम तो डूबेंगे सनम… तुमको भी ले डूबेंगे…।”
“हा… हा… हा…।” तेज ठहाका गूंजा था वहाँ।
“हँसिये मत… ये हँसने की बात नहीं है… मैं सही कह रहा हूँ…। मैं आपको यह बताने आया हूँ कि… हमारे कॉलेज में हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी एक प्रोग्राम रखा है…। जो कि… इसी विषय पर आधारित है…। अर्थात… आपको अपने विचार एक कविता के माध्यम से आज के छात्रों के बारे में बताना है…। आप में से जो कोई कविता करने में रूचि रखता हो… वह मुझे मेरे ऑफिस में मिल ले…।” प्रो. त्रिपाठी ने अपनी बात समाप्त की तो कमरे में काना-फूसी जैसे मिले-जुले स्वर सुनाई दिए।
“अच्छा… तो मैं चलता हूँ… क्योंकि मुझे यह सूचना औरों को भी देनी है…।”
प्रो. त्रिपाठी के जाते ही हल्की काना-फूसी ने शोरगुल का रूप ले लिया।
परन्तु रवि शांत बैठा किसी सोच में डूबा था। सोच रहा था वह- “क्यों न इस प्रोग्राम में भाग लिया जाये… वैसे भी कई दिनों से कुछ लिखा भी नहीं है… इसी बहाने शौक भी पूरा हो जायेगा…।”
और अंतिम पीरियड बजते ही।
“नमस्ते सर…!”
“नमस्ते…! कहो…?” प्रो. त्रिपाठी ने सामने रखी फाइल से नज़रें उठाते हुए पूछा।
“जी… मेरा नाम रवि है…।”
“हाँ… बोलिए रवि जी…।”
“वो… सुबह आपने बताया था कि… मैं उस प्रोग्राम में भाग लेना चाहता हूँ…।”
“ये तो अच्छी बात है…।” प्रो. त्रिपाठी मुस्कुराये- “बैठ जाइये…।”
“जी…।” कुर्सी खींचकर बैठ चुका था रवि।
“प्रोग्राम अगले रविवार को होना है… और आज शुक्रवार है…। और जो भी स्टूडेंट इस प्रोग्राम में अच्छा प्रदर्शन करेगा… उसे पुरुस्कृत भी किया जायेगा…।”
“……..”
“वैसे मेरे पास दो-एक नाम आ भी चुके हैं… ये फॉर्म भर दीजिये…।” प्रो. त्रिपाठी ने एक फॉर्म रवि को थमाते हुए कहा।
“जी…!”
और कुछ देर बाद फॉर्म भरकर रवि ने प्रो. त्रिपाठी को वापस कर दिया- “लीजिये सर…।”
“बहुत सुन्दर… अब जाइये… जाकर प्रोग्राम की तैयारी कीजिये।” प्रो. त्रिपाठी ने मुस्कुराते हुए कहा।
“ओ.के. सर…! थैंक्स…!” रवि ने उठते हुए कहा।
रवि जा चुका था। प्रो. त्रिपाठी देखते रहे थे उसे जाते हुए।
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ख़्वाब अधूरे से ६
गोल मेज के चारों तरफ छः कुर्सियाँ पड़ी थी। उन कुर्सियों पर मोहन बाबू का पूरा परिवार विराजमान था। और मेज पर सजे थे तरह-तरह के पकवान।
मटर-पनीर… आलू-छोले की सब्जी… गोभी के पराठे… रायता… गरमागरम रोटियाँ…
“खुशबू तो बहुत अच्छी आ रही है…।” आकाश ने सूंघते हुए कहा।
“खाना भी उतना ही स्वादिष्ट है भईया…।”
“अच्छा… तो फिर शुरू करें…?”
“हाँ… हाँ… क्यों नहीं…?” मोहन बाबू बोले थे इस बार।
और सभी शुरू हो चुके थे।
“खाना तो बाकई बहुत स्वादिष्ट है…।” मोहन बाबू ने निबाला मुँह में रखते हुए कहा।
“हाँ… शोभा खाना अच्छा बनाती है…।” ये शीला देवी थीं।
“क्या…? खाना आज शोभा ने बनाया है…?” पूछा था आकाश ने।
“हाँ…।”
“भईया…! एक काठ का उल्लू ढूँढ़ना पड़ेगा इसके लिए…।” रवि को शरारत सूझी।
“क्यों…?” मुस्कुराया था आकाश।
“क्योंकि… शादी के बाद वो घर जमाई बनकर यहीं पड़ा रहे… और हमें इसके हाथ का स्वादिष्ट खाना मिलता रहे…।”
“हा… हा… हा…!” एक जोरदार ठहाका गूंजा था वहाँ।
“भईया…!” चीखी थी शोभा। चेहरे पर बनावटीपन साफ झलक रहा था।
“चिल्लाती क्यों है…? अभी से थोड़े ही ढूँढ़ने लगे हम… वो… काठ का उल्लू…।” अंतिम शब्द कुछ रुक-रुक कर कहे थे रवि ने।
“हा… हा… हा…।” फिर हँसे थे सभी।
“देखो न मम्मी…! भईया कैसे चिढ़ा रहे हैं मुझे…।”
“भाई-बहन के चक्कर में, मैं क्यों पडूँ…। न… भई… न…।”
“मम्मी…!”
“हा… हा… हा…!”
“तू क्यों हँसती है…?” रवि ने कंचन की ओर देखते हुए कहा- “तेरे लिए तो हम लोहे का उल्लू ढूंढेंगे…।”
“हा… हा… हा…।”
“पापा जी…!” इस बार कंचन चीखी थी।
“कंचन बेटे…! इस मामले में तो मेरा भी वही मत है… जो तुम्हारी मम्मी जी का है…।”
“हा… हा… हा…।”
और इसी नोंक-झोंक के बीच खाना भी समाप्त हो चुका था। खाना खाने के बाद कुछ इधर-उधर की बातें होती रहीं। उसके बाद सभी अपने-अपने कमरे में जा चुके थे। शोभा और कंचन बर्तन साफ करके किचिन में रख रही थीं।
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ख़्वाब अधूरे से ७
रवि अपने कमरे में बैठा कुछ सोच रहा था। अचानक शोभा की आवाज़ ने उसे चौंकाया- “भईया…! लगता है… आज आप लिखने के मूड़ में हैं…। मैं कब से वहाँ खड़ी देख रही हूँ… आप पता नहीं कहाँ खोये हैं…?”
“हाँ… शोभा…! आज कुछ लिखने का मन कर रहा है…।”
“वो तो मैं देख ही रही हूँ… भईया…।”
“आज प्रो. त्रिपाठी कह रहे थे कि… कॉलेज में एक प्रोग्राम होने वाला है…। बस उसी की तैयारी कर रहा हूँ…।”
“ओह… तभी कहूँ… आप इतने ध्यान मग्न क्यों हैं…? अच्छा चलती हूँ… आप अपनी कविता लिखिए…।”
शोभा चली गई।
रवि खो गया काग़ज़ और कलम में।
घड़ी ने बारह बजने का इशारा किया। तो रवि ने अपनी कलम बंद की।
“अरे… बहुत रात हो गई… अब सोना चाहिए… वैसे भी कविता तो पूरी हो चुकी…।”
रवि ने काग़ज़ और पेन एक तरफ रखा और सोने के लिए लेट गया।
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ख़्वाब अधूरे से ८
सुबह उठते ही रवि, मोहन बाबू के कमरे में जा पहुँचा।
“गुड मोर्निंग… पापा…!”
“ओह… गुड मोर्निंग…! आज सवेरे-सवेरे…?” मोहन बाबू ने पूंछने वाले अंदाज़ में कहा।
“पापा… हमारे कॉलेज में कल एक प्रोग्राम है… और आपको वहाँ चलना है…। क्योंकि प्रोग्राम में मैंने भी हिस्सा लिया है…। आप चलेंगे न…?” रवि ने उत्सुकता से पूछा।
“अरे… ये तो बहुत अच्छी बात है…। लेकिन…”
“लेकिन… क्या पापा…?”
“बेटा… मुझे दुःख है कि… कि मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकूँगा…।”
“क्यों… पापा…?” स्वर में उदासी थी।
“क्योंकि… मुझे कल जरुरी मीटिंग में जाना है…। सो सॉरी बेटा…।”
“ओह… नो… पापा…!”
“तुम ऐसा करो… अपनी मम्मी से बात कर लो… उसे कोई काम नहीं है…। शायद वह चली जाये…।”
“ठीक है… मैं मम्मी से पूंछ लूँगा…।” रवि उठता हुआ वोला।
रवि चला गया।
मोहन बाबू दुखी मन से उसे जाते हुए देखते रहे। अपने बेटे के दुःख को समझ रहे थे वे। लेकिन मजबूर थे। मीटिंग बहुत जरुरी थी।
रवि अपनी माँ के पास पहुँचा था।
“मम्मी…! मेरी अच्छी मम्मी…।” रवि ने शीला देवी को अपनी बाँहों के घेरे में लेते हुए कहा।
“अरे…रे… क्या कर रहा है तू…? ख़ुद तो गिरेगा ही… मुझे भी गिराएगा… कमबख्त…।”
“नहीं… मम्मी… अब मैं बड़ा हो गया हूँ…।”
“ठीक है… ठीक है… अब ये बता कि बात क्या है…? मुस्कुराई थीं शीला देवी।
“बस… आप हाँ कह दीजिये…।”
“हाँ… मगर किसलिए…? पूरी बात तो बता…।”
“इसलिए कि… कल आप मेरे साथ कॉलेज चलेंगी… चलेंगी न…?”
“कॉलेज क्यों…?”
“क्योंकि… कॉलेज में कल एक प्रोग्राम है… मैंने भी हिस्सा लिया है…। आपको चलना पड़ेगा…।”
“नहीं बेटे… मैं न जा सकूंगी…।”
“क्यों…? आप क्यों न जा सकेंगी…?”
“कल मैं और आकाश… बड़े मंदिर जा रहे हैं…!”
“ओह… नो… कोई नहीं… कोई भी नहीं जाना चाहता…।” रवि ने दुखी मन से कहा।
“ऐसी बात नहीं है बेटे… हम सब तेरे साथ चलते… पर क्या करें…?” समझाया शीला देवी ने।
“अच्छा चल… हाथ मुँह धो ले… मैं नाश्ता लगाती हूँ…। कंचन… आकाश और बाकी लोगों को भी ख़बर कर देना…।”
“ठीक है मम्मी… मैं अभी आया…।”
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ख़्वाब अधूरे से ९
उस दिन रवि कॉलेज नहीं गया था। उसे पता था कि कॉलेज में कल के प्रोग्राम की तैयारियां चल रही होंगी। रवि को आने वाले कल का बेसब्री से इंतज़ार था।
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ख़्वाब अधूरे से १०
कॉलेज का लम्बा-चौड़ा फील्ड छात्र-छात्राओं तथा उनके साथ आये उनके परिजनों से भरा हुआ था। सभी कुर्सियों पर बैठे प्रोग्राम शुरू होने का इंतज़ार कर रहे थे।
मंच पर प्रो. त्रिपाठी का आगमन हुआ-
“प्रिय बच्चों एवं आदरणीय अभिभावक जनो… इतनी बड़ी संख्या में आप यहाँ पधारे… इसके लिए मैं तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ आपका…। जैसा कि आप लोग जानते हैं कि… आज हमारे कॉलेज में हमेशा की तरह… एक और सांस्कृतिक कार्यक्रम होने जा रहा है…। और आज का प्रोग्राम काव्य-प्रतिस्पर्धा पर आधारित है…। मुझे बताते हुए प्रसन्नता हो रही है कि… आज की काव्य प्रतिस्पर्धा के निर्णायक सदस्य… पधार चुके हैं…। जरा जोरदार स्वागत कीजिये…।”
तालियों की गडगडाहट गूंज उठी वहाँ।
“मैं आपको बता दूँ कि ये निर्णायक मंडल… आज के प्रतिभागियों में से सर्वश्रेष्ठ प्रतिभागी का चयन करेगा…।” प्रो. त्रिपाठी फिर बोल उठे- “जिस प्रतिभागी का चयन सर्वश्रेष्ठ काव्यपाठ के लिए होगा… उसे पुरुस्कृत किया जायेगा…। तो कार्यक्रम की शुरुआत करते हैं… और सबसे पहले मैं आमंत्रित कर रहा हूँ… मिस्टर दीपक को…। तालियों से स्वागत कीजिये…।”
तालियों की ध्वनि शांत होते ही दीपक ने अपना काव्यपाठ आरम्भ किया। और कुछ देर बाद दीपक मंच से अलग हुए तो प्रो. त्रिपाठी पुनः माइक पर थे- “दोस्तों दिल थाम के बैठिये… क्योंकि इस बार मैं बुलाने जा रहा हूँ हमारे कॉलेज के नवोदित छात्र… मिस्टर रवि सूर्यवंशी को…। एक बार जोरदार तालियाँ हो जाएँ उनके स्वागत के लिए…।”
और एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा सदन गूंज उठा।
रवि का नाम सुनते ही करन को आश्चर्य हुआ। परन्तु मन ही मन खुश भी था वह। सबका अभिवादन किया रवि ने।
सीमा और उसकी सहेलियाँ आगे वाली सीटों पर विराजमान थीं। रवि को देखते ही सीमा फुसफुसाई-
“ये… ये कविता करेगा…? बच्चों का खेल नहीं हो रहा… जो देखने चले आये श्रीमान जी…।”
“लगता है… पुराने कवि जी हैं…।” मुक्ता ने भी व्यंग में कहा।
“क्या खाक कविता करेगा…! इसे इसकी ए… बी… सी… डी… भी आती है…?” सीमा बड़बड़ाये जा रही थी- “लगता है… अभी कवि महोदय पर जूतियाँ बरसानी पड़ेंगी…। तभी स्टेज छोड़कर भागेंगे कवि जी…।”
“हा… हा… हा…!” हँसी के मध्यम स्वर गूंजे थे वहाँ।
उनके पीछे की सीटों पर बैठी शोभा और कंचन उनकी बातें सुन रही थीं।
“दीदी…!” कंचन ने कुछ कहना चाहा।
शोभा ने रोक दिया उसे, और स्टेज की तरफ इशारा किया। जहाँ रवि खड़ा था।
“प्रिय बन्धुओं… एवं अतिथि जनो… पधारने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार… साथ ही मैं आभारी हूँ अपने कॉलेज प्रबंधन का… जिन्होंने कि ये कार्यक्रम आयोजित किया… और आज मुझे इस मंच पर कुछ कहने का मौका मिला…। मैं आपके समक्ष… एक छोटी सी कविता पेश करने जा रहा हूँ… अगर आपको इसमें कुछ त्रुटियाँ लगें… तो उन्हें लघु समझ… मुझे क्षमा कर देना…। तो जरा ध्यान से सुनिएगा…।”
रवि ने अपना काव्यपाठ शुरू किया-
“प्रोफ़ेसर या प्रिंसीपल, बोले यदि प्रतिकूल
हॉकी लेकर तोड़ दो, मेज और स्टूल
………………………………………………”
रवि ने कविता समाप्त की तो सारा सदन करतल ध्वनि से गुंजायमान हो उठा।
“वाह… क्या कविता पढ़ी है…!”
“हाँ… इसका सुर तो देखो…!”
“अरे… आज का पुरुस्कार तो इसी को मिलेगा…!”
सभी अपनी-अपनी राय दे रहे थे। रवि मंच से जा चुका था।
एक कोने में बैठा करन, मन ही मन बहुत प्रसन्न हो रहा था। उसे विश्वाश ही नहीं हो रहा था कि रवि इतनी बढ़िया कविता कर सकता है।
शोभा और कंचन भी काफी खुश थीं।
और सीमा…?
ख़ुद ही शर्मिंदा थी। क्या सोच रही थी वह और ठीक उल्टा हो गया।
रवि के जाने के बाद एक-एक करके कई छात्र-छात्राएं मंच पर आये और काव्यपाठ कर चले गए।
अब बस इंतज़ार था तो परिणाम घोषित होने का। सभी निर्णायक मंडल का निर्णय सुनने को आतुर थे।
आख़िरकार इंतज़ार की घड़ियाँ भी समाप्त हुईं। निर्णायक मंडल ने अपना फैसला सुना दिया। रवि को सर्वश्रेष्ठ काव्यपाठ के लिए सम्मानित किया गया।
प्रोग्राम समाप्त हो चुका था।
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ख़्वाब अधूरे से ११
रवि सबकी नज़रें बचाकर लॉन में जा बैठा था। करन भी उसे खोजते-खोजते वहाँ आ पहुँचा।
“वाह… मेरे छुपे रुस्तम… यहाँ छुपके बैठे हो…। बधाई हो यार…।” हाथ बढ़ाते हुए कहा करन ने- “कब से ढूँढ रहा हूँ तुझे…।”
करन के बढ़े हुए हाथ को थाम लिया था रवि ने।
“मुझे ये भीड़-भाड़ अच्छी नहीं लगती यार…।”
“कमाल है… लोग भीड़ जुटाने को क्या-क्या नहीं करते…? और एक तू है कि… लेकिन तूने तो कमाल ही कर दिया… इसे कहते हैं छा जाना…।” करन कहता जा रहा था- “लेकिन तुमने मुझे पहले कभी बताया नहीं कि… तुम लिखते भी हो…!”
“सॉरी यार… लेकिन जो ख़ुशी आज मिल रही है… वो मिल पाती क्या…?”
“हाँ… सो तो है… बाकई में बहुत खुश हूँ आज…।” तभी सामने देखकर बड़बड़ाया करन- “बाप रे… बेटा रवि… उठ ले यहाँ से…।”
“क्यों…? क्या हुआ…?” आश्चर्य से पूछा रवि ने।
“वो सामने देख…!”
“क्या… क्या है सामने…?”
“आंधी… आंधी आ रही है…।”
“पागल हो गया है तू… मुझे तो कुछ नज़र नहीं आ रहा… हाँ… कोई लड़की जरुर आती नज़र आ रही है…।”
“अरे… वो किसी आंधी से कम थोड़े ही है… वो सीमा है… सीमा…।”
“ओह… अब समझ में आया…। तू किस आंधी की बात कर रहा है…?”
“समझ में आ गया तो चलते बनो यहाँ से…।”
“क्यों…? तू इतना क्यों घबरा रहा है…? अरे… ये तो बाकई में यहीं आ रही है…।”
“चल कहीं और चलते हैं… वरना सारा मूड ख़राब कर देगी ये अकडू लड़की…।”
“ठीक कहते हो यार…। लेकिन इसका गुरुर भी तो तोड़ना है मुझे…।”
“तेरा ये प्रोग्राम किसी और दिन के लिए छोड़ दे… अभी तो तू चल यहाँ से…।”
“ठीक है… तू कहता है तो चलता हूँ…।”
उठने ही लगे थे दोनों।
तब तक सीमा पहुँच चुकी थी वहाँ।
“हाय…!” सीमा ने मुस्कुराते हुए कहा।
“हाय…!” दोनों का युगल स्वर। परन्तु आश्चर्य के भाव थे चेहरे पर।
“अच्छा… अब हम चलते हैं… यहाँ तो आप ही बैठ सकती हैं… है न…।” रवि ने मुस्कुराते हुए कहा।
“नहीं… नहीं… मैं यहाँ बैठने नहीं आई… मैं तो आपको बधाई देने आई हूँ…। बहुत अच्छा काव्यपाठ किया आपने…।” सीमा ने सहज स्वर में कहा।
“प्रसंशा के लिए धन्यवाद…।”
“लगता है… उस दिन की बात से अभी भी उखड़े से हैं आप…। वैसे आपकी आवाज़ भी गज़ब की है…।”
“थैंक्यू…! अच्छा… अब मैं चलता हूँ… मेरी बहनें मुझे ढूँढती होंगी…।” उठते हुए वोला रवि।
करन ने भी उसका अनुसरण किया।
दोनों चले गए।
देखती रही थी सीमा उन्हें जाते हुए।
थोड़ी दूर चलते ही शोभा और कंचन भी नज़र आ गईं।
“भईया…! मुझे तो पहले ही विश्वाश था कि… आज का पुरुस्कार… आप ही को मिलना है… सबकी छुट्टी कर देनी है आपने…।” चुटकी बजाते हुए कहा शोभा ने।
“भईया… यू… आर… ग्रेट… न…।” कंचन थी ये।
“बेटा…! ग्रेट तो वो है…।” आसमान की ओर उंगली उठाते हुए कह रहा था रवि- “वो जो करता है… अच्छा करता है… बशर्ते इंसान के इरादे नेक हों…।”
“ठीक कहते हो तुम…। ‘वो’ जो भी करता है… अच्छा करता है…।” भावुक हो उठा करन- “तभी तो… मुझ जैसे इंसान को… तेरे जैसा दोस्त और… दो प्यारी-प्यारी बहनें मिल गईं…।” शोभा और कंचन के सिर पर स्नेह भरे दोनों हाथ फेरे थे उसने।
“भईया… आप भी ना… जरा-जरा सी बात पर भावुक हो जाते हैं…।” शोभा ने करन के कंधे पर सिर टिकाते हुए कहा। आगे पूछा था उसने- “आंटी कैसी हैं अब…?”
“पहले से बेहतर है…। ऊपर वाले ने चाहा तो जल्द चलने-फिरने लगेगी…।”
“भगवान करे ऐसा ही हो…!”
“अच्छा रवि… अब मैं चलता हूँ… माँ को दवा खिलानी है…।”
“ठीक है…!”
“बाय…!”
“बाय… भईया…!” शोभा और कंचन के स्वर गूंजे थे।
चला गया था करन।
वे तीनों भी मैन रोड की ओर बढ़ गए थे। रवि ने एक टैक्सी रुकवाई। जब तीनों बैठ चुके तो ड्राईवर ने मीटर डाउन किया और आगे बढ़ गया।
“कहाँ जाना है… सा’ब…?”
“सरस्वती नगर…।”
“सरस्वती नगर में कहाँ…?”
“गली नंबर 10, 51ए, अयोध्या-सदन…।”
“अच्छा सा’ब…।”
स्पीड बढ़ा दी थी उसने।
क़रीब आठ मिनट लगे उन्हें घर तक पहुँचने में। रवि ने भाड़ा दिया और तीनों बढ़ गए थे मेन गेट की ओर।
रवि को सर्वश्रेष्ठ कविता के लिए पुरुस्कार मिला है, यह जानकर खुश हुए थे सभी।
खाना खाते समय मोहन बाबू ने बताया कि उन्हें कल शाम एक जरुरी मीटिंग में दिल्ली जाना है। साथ में रवि को भी ले जाना था।
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ख़्वाब अधूरे से १२
दोपहर को मोहन बाबू और रवि दिल्ली जाने की तैयारी कर रहे थे। मोहन बाबू के घर से स्टेशन लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर है। स्टेशन तक पहुँचने के लिए बस द्वारा जाना पड़ता है। दो बजे की ट्रेन से दोनों दिल्ली के लिए रबाना हो चुके थे। तीन घंटे का सफ़र था। आसानी से कट गया। सफ़र में कोई परेशानी नहीं हुई।
स्टेशन से होटल ‘अशोका’ के लिए टैक्सी की। होटल पहुँचकर कुछ देर आराम करने के बाद ठीक आठ बजे वे मीटिंग में शामिल हो गए। दो घंटे तक चलती रही मीटिंग। सफल भी रही। उसके बाद ‘डिनर’ लिया गया। थोड़ी इधर-उधर की बातें होती रहीं। बारह बजे विदा ली मोहन बाबू ने।
स्टेशन जाकर पता किया तो वापसी की गाड़ी एक घंटा लेट थी। दोनों प्लेटफोर्म पर पड़ी कुर्सियों पर बैठ गए। जैसे-तैसे समय बीता। क़रीब दो बजे एक ट्रेन स्टेशन पर आकर रुकी। दोनों एक खाली डिब्बे में सवार हो गए।
सुबह के लगभग छः बजे वे ‘रामपुर’ स्टेशन पर उतर चुके थे। दोनों प्लेटफ़ॉर्म से बाहर निकल ही रहे थे कि रवि की नज़र दूर एक वृद्ध पर पड़ी, जो पीछे से आ रही ट्रेन से बेख़बर पटरी पर चल रहा था। रवि को समझते देर न लगी कि हादसा होने वाला है।
“पापा जी… आप यहीं ठहरिये मैं अभी आया…।” कहते हुए वह दौड़ पड़ा।
“अरे क्या हुआ…?” मोहन बाबू ने पुकारा, लेकिन वह जा चुका था।
और बिजली की फुर्ती से वह बृद्ध तक पहुँचा और उसे झटके से एक तरफ खींचा। एक क्षण की देर और उसका काम तमाम हो जाता। लेकिन रवि ने उसे खींच लिया अपनी ओर। ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई।
बुड्ढा फूट पड़ा- “क्यों बचाया मुझे…? मर जाने दिया होता मुझे…।” कहते हुए वह फफ़क-फफ़क कर रोने लगा।
“क्यों… क्यों मरना चाहते हैं आप…? ऐसी भी क्या समस्या है जो आप जान देने पर उतारू हो गए…?” रवि ने पूछा।
“एक मजबूर बाप और क्या कर सकता है…? एक ऐसा बाप… जिसकी दो-दो जवान बेटियाँ हों…।” बुड्ढा सुबक रहा था।
“लेकिन हुआ क्या…?” रवि ने उसे सहारा देकर प्लेटफ़ॉर्म पर बैठाते हुए पूछा।
तब तक मोहन बाबू भी वहाँ पहुँच चुके थे। और कुछ आस-पास खड़े लोग भी जमा हो गए।
“भगवान ये दिन किसी बाप को न दिखाए…।” बुड्ढे ने आंसू पोंछते हुए कहा- “मेरी दो बेटियाँ हैं सा’ब… दोनों को पाल पोसकर बड़ा किया… मेहनत मजदूरी करके पढ़ाया लिखाया… मेरी पत्नी तो उनके बचपन में ही गुजर गई थी… मैं ही उनके लिए माँ-बाप दोनों हूँ… दोनों शादी योग्य हो चुकी हैं… लेकिन जहाँ भी रिश्ते के लिए जाता हूँ… दहेज़ आड़े आता है…। बिना दहेज़ कोई भी मेरी बेटियाँ लेने को तैयार नहीं…। मैं कहाँ से लाऊं इतना पैसा… मेहनत मजदूरी कर पेट पालता हूँ…। कई लोगों के आगे रोया गिड़गिड़ाया… लेकिन किसी ने मेरी एक न सुनी… मैं वो अभागा पिता हूँ जो बिना दहेज़ के अपनी बेटियों के हाथ पीले नहीं कर पा रहा हूँ… ऐसी ज़िन्दगी से तो अच्छा है कि मर ही जाऊँ…।” कहते हुए बुड्ढा फिर सुबकने लगा।
“देखिये रोइए मत… रोने से समस्या हल नहीं होती… और न मरने से…।” रवि ने समझाया- “अभी जो आप करने जा रहे थे… इसके बाद आपकी बेटियों का क्या होता… कभी सोचा आपने…?”
“देखिये रोइए मत…।” मोहन बाबू बोले थे- “हमसे जो भी बन पड़ेगा… हम करेंगे…। आइये… हमारे साथ आइये…।” बैग रवि को थमाते हुए उन्होंने कहा।
“सा’ब… बड़ी कृपा होगी आपकी… मैं ज़िन्दगी भर… आपकी गुलामी करूँगा…।” बुड्ढे ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए।
“देखिये… अपने आपको संभालिये… चलिए पहले यहाँ से बाहर चलते हैं…।”
और वे प्लेटफ़ॉर्म से बाहर जाने लगे थे। बाकी लोग भी अपने-अपने रास्ते चलते बने। स्टेशन से बाहर मेन रोड पर आकर मोहन बाबू ने रवि को एक तरफ लेजाकर कुछ बिचार विमर्श किया।
“बेटे… ज़िन्दगी में बहुत से दुःख देखे… लेकिन जवान बेटियों के ग़रीब बाप का दुःख आज ही देखा है मैंने…। सोच रहा हूँ कैसे इनका दुःख दूर करूँ…।”
“पापा… आप बुरा ना माने तो एक बात कहूँ…।” रवि ने पिता की आँखों में झाँकते हुए कहा।
“मेरे बेटे हो तुम… हर बात कहने का हक़ है तुम्हें… फिर बुरा मानने वाली तो बात ही नहीं…। बोलो बेटा… क्या कहना चाहते हो…?”
“पापा… मैं सोच रहा था कि… आकाश भईया के लिए इनकी बड़ी लड़की देख ली जाये तो…?”
“बेटे… मैं बता नहीं सकता कि मैं कितना खुश हूँ… यही तो सुनना चाहता था मैं तुमसे… मुझे फक्र है कि तुम… तुम मेरे बेटे हो…।” बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा मोहन बाबू ने।
“पापा… वो इंसान ही क्या जो… जो दूसरों का दर्द न समझ सके…!”
“तुम ठीक कहते हो बेटे…। लेकिन हर आदमी इंसान क्यों नहीं बनना चाहता…? क्यों नहीं समझता वो दूसरों के जज्वातों को…? खैर… चलो… चलकर उनसे बात करते हैं…।”
“ठीक है… आइये…।”
“भईया… हम आपकी बेटियों से मिलना चाहते हैं… अगर आपको ऐतराज न हो तो…।” मोहन बाबू ने पास जाकर दयाराम जी से पूछा। यही नाम बताया था उन्होंने अपना।
“सा’ब… कैसी बातें कर रहे हैं… भला मुझे कैसा ऐतराज होगा… जब आपने मेरी मदद करने का आश्वासन दिया है तो आप तो मेरे लिए भगवान समान हैं…।” दोनों हाथ जुड़े हुए थे।
“अरे भईया… मैं बस एक छोटा सा इंसान हूँ…। खैर… समय बरबाद मत कीजिये… चलिए… आपके घर चलते हैं…।”
“जी… चलिए सा’ब…। यहाँ से एक डेढ़ किलोमीटर दूर ही है मेरी झोपड़ी…।”
“रवि देखो कोई टैक्सी मिल जाये तो…।”
“जी पापा जी…।” कहते हुए रवि गया और एक टैक्सी लेकर आ गया।
तीनों बैठ गए तो दयाराम ने पता बताया। टैक्सी दौड़ पड़ी। और कुछ ही देर में एक पतली सी गली में जाकर रुकी। सभी उतर गए। रवि ने भाड़ा दिया।
“आइये सा’ब…।” दयाराम उत्सुकता से वोले, चेहरे पर चमक थी- “वो सामने ही मेरा घर है…।”
मोहन बाबू और रवि उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। और दयाराम का मकान भी आ गया। एक पुराना जर्जर मकान।
“आइये सा’ब…।” दरवाजे में प्रवेश करते हुए दयाराम ने कहा- “अरे बेटी… जरा पानी लेकर आओ…।” उन्होंने आवाज़ लगाई। और एक चारपाई बिछा दी।
“बैठिये सा’ब…।”
दोनों बैठने लगे। तभी एक खुबसूरत लड़की हाथ में पानी का गिलास थामे हुए आई।
“अरे बिटिया… एक और लाओ…। नीता बिटिया…! तुम ले आओ…।” उन्होंने आवाज़ दी।
एक और सुकन्या। जैसे स्वर्ग परी उतर आई हो। हाथ में पानी का गिलास लिए।
“सा’ब… यही हैं मेरी दोनों बेटियाँ…। ये बड़ी गीता है…।” उन्होंने गीता की ओर इशारा करते हुए कहा, जो मोहन बाबू को पानी का गिलास थमा रही थी- “और ये छोटी… नीता है…।” नीता जो… रवि के सामने पानी का गिलास थामे खड़ी थी। गिलास आगे बढ़ाया उसने। रवि ने गिलास थामकर होठों से लगा लिया।
दोनों ही रंग-रूप में स्वर्ग परी सी लग रही थीं। कपड़े बेशक साधारण थे, लेकिन उन साधारण कपड़ो में भी उनकी सुन्दरता दमक रही थी।
“कहाँ तक… पढ़ी हो बेटा…?” मोहन बाबू ने गीता की ओर देखते हुए पूछा।
“जी… इंटर मीडिएट…।” गीता का स्वर जैसे मिश्री घोल दी हो।
“भई… दयाराम जी… मुझे आपकी बड़ी लड़की… मेरे बड़े लड़के के लिए खूब जंच गई है… अगर आपको ऐतराज न हो तो… इसे मैं अपने घर की बहू बना लूँ…।” मोहन बाबू ने दयाराम जी की ओर देखा था।
“सा’ब…।” कहते हुए वे मोहन बाबू के क़दमों में झुक गए थे- “मुझे तो ऐसा लग रहा है… जैसे… जैसे मैं कोई सपना देख रहा हूँ… जरुर मैंने पिछले जन्म में कुछ पुण्य किये होंगे…।” कहते हुए उनकी आँखें नम हो गई थीं।
“आपको तो कोई ऐतराज नहीं हमारी भाभी बनने में…।” रवि ने मुस्कुराते हुए पूछा था गीता से।
और गीता लजाकर वहाँ से चली गई थी।
एक हल्की हँसी की फुहार।
“अच्छा… फिर ठीक है… मैं जाकर बारात लाने की तैयारी करता हूँ…। दो दिन बाद मैं बारात लेकर आ जाऊँगा…।” उठते हुए बोले थे मोहन बाबू।
“जैसी आपकी आज्ञा…।” हाथ जोड़ते हुए कहा था दयाराम जी ने।
“ये कुछ रुपये रख लीजिये…।” मोहन बाबू ने अपनी जेब से एक नोटों की छोटी सी गड्डी निकालते हुए कहा- “इससे शादी की तैयारी में आपको मदद मिलेगी…।”
“लेकिन…!” दयाराम जी ने असहजता महसूस करते हुए कहा।
“अरे… लेकिन-वेकिन… कुछ नहीं… लीजिये रख लीजिये…।” मोहन बाबू ने रुपये उनके हाथ में थमाते हुए कहा- “अच्छा… अब इजाज़त दीजिये…।”
“लोग सच ही कहते हैं कि… खोजने से भगवान भी मिल जाते हैं… और मुझे तो बिन खोजे ही मिल गए…। और मेरी किस्मत देखिये… मैं अपने भगवान की कोई सेवा भी न कर सका…।” नम आँखों से वोले थे दयाराम जी।
“भईया आप भी न…। अच्छा… अब इजाज़त दीजिये…।”
“जी…।”
“गीता बेटा…!” पुकारा था मोहन बाबू ने।
“जी…।” दुपट्टे से सर को ढकते हुए गीता सामने आई।
“ये मेरी तरफ से… तुम्हारे लिए…।” मोहन बाबू ने कुछ रुपये उसकी हथेली पर रखते हुए कहा- “सब कुछ अचानक से हो गया… सो अभी तो बस यही है मेरे पास…।”
“जो इंसान रास्ते की धूल को अपने घर का फूल बनाने जा रहा हो… ऐसे देवता का आशीर्वाद ही दुनिया के ख़जाने से कहीं अधिक है…।” गीता ने मोहन बाबू के क़दमों में झुकते हुए कहा।
“तुम भी अपने पापा की तरह वोल रही हो…।”
“संस्कार तो उन्होंने ही दिए हैं…।” आशीर्वाद लेकर उठ गई वह।
“वो तो मैं देख ही चुका हूँ बेटा…। और आशा करता हूँ कि जीवन भर तुम इन्हीं संस्कारों को जियो…।”
“जी…।”
“नीता तुम भी आओ इधर…।” मोहन बाबू ने दूर खड़ी नीता को पुकारा।
“जी…।” नीता मुस्कुराती हुई उनके पास आ खड़ी हुई।
“ये तुम्हारे लिए…।” नीता की हथेली पर भी कुछ रुपये रख दिए मोहन बाबू ने।
“लेकिन…।” नीता सकुचाई।
“रख लो बेटी… आशीर्वाद समझ कर रख लो…।” दयाराम ने समझाया।
“अच्छा… अब चलें… मेरी होने वाली भाभी जी…।” रवि ने मुस्कुराते हुए गीता की ओर देखा था।
“जी…।” मुस्कुराई थी गीता भी। चेहरे पर शर्म के भाव लाजिमी थे।
और कुछ देर बाद मोहन बाबू, रवि के साथ घर की ओर चल पड़े।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से १३
घर पहुँचकर जब मोहन बाबू और रवि ने सारी घटना शीला देवी और बाकी सब को बताई तो सब बड़े खुश हुए। और जल्दी-जल्दी शादी की तैयारियों में जुट गए सभी।
और दो दिन बाद आकाश दूल्हे के रूप में सजा मण्डप में बैठा था, और दुल्हन के लिबास में थी गीता। बहुत ही साधारण तरीके से विवाह की सारी रश्में निभाई गईं। आखिर कार विदाई का समय भी आ गया। दयाराम ने रोते बिलखते गीता को फूलों से सजी जीप में बिठाया। नीता भी आंसू बहाए जा रही थी। और गीता तो बस रोये जा रही थी।
मोहन बाबू के नजदीक पहुँचकर दयाराम ने उनके पैर पकड़ लिए।
“अरे… ये… ये क्या कर रहे हैं आप…?” मोहन बाबू ने उन्हें उठाकर सीने से लगा लिया।
“सा’ब… मैंने अपनी… फूल सी बच्ची को… बड़े दुखों में पाला है… उसका… ध्यान रखना…।” सिसकियाँ भरते हुए कहा था दयाराम ने। हाथ जुड़े हुए थे।
“अब वो हमारी बेटी है… आपको चिंतित होने की जरुरत नहीं… आप बिलकुल निश्चिन्त रहिये…। और हाँ… आप मुझे सा’ब मत बोला कीजिये…।” ढाढ़स बंधाते हुए कहा मोहन बाबू ने।
“हाँ भईया… आप बिलकुल चिंता मत कीजिये…।” शीला देवी थी ये।
“ये तो… आपका बड़प्पन है… वरना आप कहाँ और मैं कहाँ…। चलते वक्त एक और दया कर दीजिये इस बदनसीब पर…।” वह अब भी सुबक रहे थे।
“अरे भईया… आप कहिये तो…।”
“सा’ब… मेरी यह अमानत भी… कुबूल कर लीजिये…।” दयाराम ने सिसकती हुई नीता का हाथ थामते हुए कहा- “इसे भी… अपने चरणों में… थोड़ी सी जगह दे दीजिये… वरना इसके लिए भी दर दर भटकना पड़ेगा मुझे…।
“अरे… आपने तो मेरे मुँह की बात छीन ली…। इसमे हमें क्या परेशानी हो सकती है…? हाँ… अगर… रवि राजी हो जाये तो…।” मोहन बाबू मुस्कुरा उठे थे।
“क्यों रवि… क्या कहते हो…?” शीला देवी ने पूछा।
“अब… मैं क्या कहूँ… जब आप लोगों को पसंद है तो… मैं इनकार कैसे कर सकता हूँ…?” शरमा गया था रवि- “लेकिन मेरी एक शर्त है…।”
“कैसी शर्त…?”
“शादी मैं अपनी पढाई ख़त्म होने के बाद ही करूँगा…।”
“बेटा… तुमने मुझे… वो ख़ुशी दी है… जिसके आगे मैं स्वर्ग को भी ठुकरा दूँ…।” दयाराम और भी भावुक हो गए थे।
“ठीक है… लेकिन बहू को तो मैं आज ही लेकर जाउंगी अपने साथ…।” शीला देवी ने नीता को अपने सीने से लगाते हुए कहा।
“अब… जैसी आपकी मर्जी…।” रवि बस इतना ही कह सका था।
और शीला देवी ने नीता को भी गाड़ी में बिठा दिया।
बारात वापस हो चुकी थी।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से १४
गीता सुगन्धित फूलों से सजी सेज पर घुटनों में अपना मुँह छुपाये बैठी भविष्य के सुनहरे सपनों में खोई हुई थी।
आकाश ने धीरे से दरवाजा खोला और अन्दर से सिटकनी चढ़ा दी। गीता के हृदय की धड़कनें बढ़ गई थीं। आहट पाकर पलंग से नीचे उतर गई और आकाश की ओर बढ़ गए थे उसके कदम। पैरों की पायल मधुर संगीत सुनाने लगी थी।
दोनों एक दूजे के नजदीक पहुँच रहे थे। ज्योंही आकाश उसके पास आया, वह उसके क़दमों में झुक गई।
“अरे… रे… ये क्या कर रही हैं आप…?” आकाश ने गीता को उठाते हुए कहा।
“अपने स्वामी के चरणों को छूकर… अपना जीवन पावन कर लेना चाहती हूँ…।”
“स्वामी… अरे भई… मैं तो एक सीधा सादा इंसान हूँ… ये स्वामी वामी मेरी समझ में नहीं आते… मुझे तो आप इंसान ही बना रहने दीजिये…।” आकाश के होठों पर मृदुल मुस्कान खेल रही थी।
“आपकी समझ में नहीं आता… तो रहने दीजिये न… मेरी समझ में तो आता ही है…।” घूँघट के अन्दर मुस्कुराई थी गीता।
“चलो अच्छा ही है… किसी एक को तो समझ में आना ही चाहिए…।” आकाश ने मध्यम हँसी के साथ कहा।
“सारी बातें… यहीं खड़े रहकर ही करेंगे… क्या…?” कहते हुए शरमा भी गई थी वह।
“ओह… मैं तो भूल ही गया था कि… आओ फूलों की सेज हमारा इंतज़ार कर रही है…।” आकाश ने गीता का हाथ थामते हुए कहा।
खुबसूरत हाथ का प्रथम स्पर्श, जैसे आकाश को मदहोश कर रहा था। दोनों सुहाग सेज की ओर बढ़ गए। सुहाग सेज की सजावट देख दंग रह गया आकाश। इतनी जल्दी रवि ने यह सब कैसे कर लिया।
आकाश पलंग पर बैठ गया। गीता उसके कदमो के पास बैठ जूते खोलने लगी थी।
“अरे रहने दीजिये… मैं कर लूँगा…।” आकाश ने अपना पैर छुड़ाने की कोशिश की।
लेकिन गीता तब तक फीते खोल चुकी थी।
“ये तो मेरा हक़ है… मेरा हक़ मुझसे न छीनिये…।” कहते हुए उसने जूते उतार कर नीचे रख दिए।
ख़ुद भी पलंग पर बैठ गई। आकाश ने आगे बढ़कर धीरे-धीरे उसका घूँघट उलट दिया। घूँघट खुलते ही जैसे बिजली चमकी थी वहाँ। आँखे चूँधिया गई थी आकाश की। गीता का चाँद सा मुखड़ा अपनी हथेलियों में ले लिया आकाश ने। शर्म से गीता की पलकें झुकी हुई थीं।
गीता की गुलाबी पंखुड़ियों पर अपने होंठ रख दिए उसने। एक-दूजे में खोना चाहे थे दोनों।
“एक बात पूछूँ आपसे…?” आकाश ने प्रश्नभरी नज़रों से देखा उसे।
“क्या मुझसे भी कुछ कहने के लिए… आपको इजाज़त लेनी पड़ेगी…!” गीता व्यथित हो उठी- “आप मेरे पति हैं… मेरे लिए… पति परमेश्वर का रूप हैं… अगर… भगवान ही भक्त से कुछ कहने की आज्ञा मांगे… तो… भक्त… सिवाय दुखित होने के… और कर भी क्या सकता है…!” और सचमुच ही उसके चेहरे पर दुःख के भाव उमड़ आये।
आकाश तो बस देखता ही रह गया। समझ नहीं पाया था कि उसने ऐसा क्या कह दिया जो वह इतनी दुखी हो गई।
उसने सीने से लगा लिया गीता को। और उसके बालों को सहलाने लगा। गीता आकाश के चौड़े सीने में दुबक जाना चाही। उसे लगा जैसे संसार की सारी खुशियाँ उसके हिस्से में आ गई हों। वह सोच रही थी, शायद ‘स्वर्ग’ इसी को कहते हैं।
अपना सिर आकाश के सीने से टिकाते हुए पूछा गीता ने- “आप कुछ कह रहे थे… स्वामी…।”
“हाँ… लेकिन अब सोचता हूँ… कहीं तुम दुखी न हो जाओ…।”
“आप ऐसा क्यों सोचते हैं…? मैं आपकी संगिनी हूँ… आपको कुछ भी कहने सुनने का अधिकार है…।” आकाश का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा उसने।
“बस यूँ ही… दिल डरता है…।” गीता के रेशमी बालों को सहलाते हुए कहा उसने।
“जब दिल डरने लगे… तो उस डर को आपस में बाँट लेना चाहिए…।”
“शायद तुम ठीक कहती हो…! मैं पूछना चाहता था कि… तुम खुश तो हो…?”
“ऐसा कहकर आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं…। इस धूल को… ग़रीब की उस झोपड़ी से उठाकर… अपने सीने से लगा लिया आपने… इससे बड़ा सौभाग्य… और क्या हो सकता है मेरे लिए…। एक देवता ने अपनी दासी बनाकर… धन्य कर दिया मुझे… सचमुच… स्वर्ग पा गई हूँ मैं…।” भाव विभोर होकर कहती गई वह।
“ओह गीता… तुम्हें पाकर मैं इतना खुश हूँ कि… दिल चाहता है… ज़िन्दगी भर तुम मेरी बांहों में यूँ ही समाई रहो… और… और… मैं तुम्हे प्यार किये जाऊँ…।” गीता को चूमते हुए कहा आकाश ने।
“स्वामी…!” बस इतना ही कह सकी गीता। और आकाश के सीने में जा छुपी।
दोनों अपनी आँखों में भविष्य के सुनहरे सपने सजाते रहे। और रात बीतती रही। प्यार के सागर में डूबे उन दोनों को कब नींद ने अपने घेरे में ले लिया, पता ही न चला।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से १५
रात देर तक जागने के कारण गीता और आकाश अभी तक सो रहे थे।
आँख खुलते ही रवि ने दीवार पर टंगी घड़ी की ओर देखा। सात बज चुके थे। नजदीक ही पदचाप की आहट पाकर उसने दरवाजा खोल दिया। शोभा और नीता उसके कमरे तक आ चुकी थीं।
“और… ये है… आपका… होने वाला बैडरूम…।” शोभा ने शरारत भरे लहजे में कहा।
शरमा गई थी नीता। गाल सुर्ख हो गए। वह समझ गई थी कि यह रवि का कमरा है।
“गुड मोर्निंग… भईया…!”
“गुड मोर्निंग…!”
“नमस्ते जी…! नीता ने भी दोनों हाथ जोड़ दिए।
“नमस्ते… वैसे मेरा नाम… जी… नहीं… रवि है…।” हँसी थी शोभा अपने भईया की बात पर। तो नीता भी मुस्कुराये बिना न रह सकी।
“आओ… अन्दर आओ…!” रवि ने एक तरफ हटते हुए कहा।
दोनों अन्दर आ गईं। पलंग पर बैठ गई थी दोनों। रवि भी सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ चुका था।
“कंचन उठ गई…?”
“नहीं भईया… अभी सो रही है वो…।”
“और मम्मी-पापा…?”
“हाँ… उठ गए हैं दोनों…।”
“टहलने के इरादे से निकली हो…?”
“नहीं… अपनी होने वाली भाभी को… इनकी होने वाली ससुराल दिखा रही थी…।” स्वर में शरारत थी।
“शोभा की बच्ची… अभी तेरे कान उखाड़ता हूँ…।” और सचमुच वह झपटा था उसकी ओर।
“भाभी…! बचाओ न…।”
नीता खिलखिलाकर हंस पड़ी थी। शोभा उसके पीछे दुबक गयी थी। लेकिन रवि के हाथ में उसकी चोटी आ गई।
“इधर निकल…।” चोटी खींचते हुए वोला वह- “आज नहीं छोड़ने वाला तुझे…।”
“अ… आ… ई… दुखता है भईया… उई… भाभी देखो न…।”
नीता हँसे जा रही थी।
“भईया… प्लीज…!” बिनती भरा स्वर था उसका।
“छोड़ दीजिये न…।” इस बार नीता ने भी सिफारिश की।
“पहले शरारत करती है… और फिर…।” चोटी छोड़ते हुए कहा रवि ने।
अभी वह कुर्सी की ओर बढ़ ही रहा था कि शोभा फिर बोल पड़ी।
“देखा भाभी… कैसे रॉब झाड़ रहे हैं… वो भी आपके सामने… अपनी होने वाली बीबी के सामने… बच के रहना… कभी ये आपकी चोटी न उखाड़ दें…।”
“तू बाज नहीं आने वाली…।” फिर पलटा वह- “मैं सचमुच तेरी चोटी उखाड़ दूंगा…।”
“सॉरी… सॉरी… सॉरी…।” कान पकड़ते हुए वोली वह- “अब कुछ नहीं कहूँगी…।”
उधर नीता हँसे जा रही थी।
“सॉरी बोलकर बच नहीं सकती तू…।”
“भईया… कह तो दिया… अब कुछ नहीं कहूँगी…।”
“ठीक है… देखता हूँ…।” और कुर्सी पर जा बैठा वह।
“आप लोग बैठिये… मैं चाय लेकर आती हूँ…।” कहते हुए शोभा बाहर निकल गई।
“कैसा लगा घर…?” रवि ने पूछा था नीता से।
“बहुत सुन्दर…।” होठों पर मुस्कराहट थी और चेहरे पर लालिमा के भाव।
“और घर के सदस्य…?”
“बहुत… बहुत ही अच्छे…!”
“इतनी जल्दी परख लिया…?”
“तकलीफ… बुरे लोगों को परखने में होती है… अच्छे लोगों को तो… एक नज़र में ही पहचाना जा सकता है…।”
“काफी विश्वाश है… तजुर्बे पर…।”
“जी बिलकुल…।”
तब तक शोभा चाय लेकर आ चुकी थी।
“क्या बात-चीत चल रही है…?” चाय बढ़ाते हुए पूछा शोभा ने- “कॉलेज नहीं जाओगे भईया…?”
“नहीं… कुछ थकान सी महसूस हो रही है…।”
“हाँ भईया… आप आराम कीजिये… काफी मेहनत करनी पड़ गई आपको…।”
तीनों चाय की चुस्कियां लेते रहे।
कंचन और शोभा भी कॉलेज नहीं गई थीं। आकाश ने भी छुट्टी ले रखी थी। सभी घर पर ही रहे उस दिन।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से १६
रवि कॉलेज जाने की तैयारी कर रहा था। तीन चार दिन से कॉलेज नहीं जा पाया था वह। और इन तीन चार दिन में काफी कुछ बदल चुका था। जल्दी जल्दी कपड़े पहने थे उसने।
फुल आस्तीन की काली शर्ट और उसी से मैच खाता जींस-पेंट। बैल्ट बांधकर कलाई घड़ी पहनी। पलंग पर बैठ जूते पहन रहा था। उसके होठों पर कोई फ़िल्मी गीत थिरक रहा था।
“अगर ज़िन्दगी हो… तेरे संग हो…।”
आईने के सामने बाल संवारे। बाल संवार कर वह कमरे से बाहर निकला।
बरामदे में पहुंचते ही उसने शोभा को आवाज़ दी।
“शोभा…!”
शोभा बरामदे के सामने घास पर टहल रही थी। नन्हीं-नन्हीं घास पर ओश की बूँदें चमक रही थी। नंगे पैर घास पर चलना बड़ा ही अच्छा लग रहा था उसे। पलट कर देखा। रवि पुकार रहा था उसे।
“क्या हुआ भईया…?” चलते हुए वह बरामदे तक पहुँच गई।
“मम्मी कहाँ हैं…?”
“अपने कमरे में होंगी…। लेकिन ये तो बताइये कि…” शोभा ने दायाँ हाथ नचाते हुए पूछा- “इस तरह सज धज कर आप सुबह-सुबह कहाँ जा रहे हैं…?”
“कॉलेज जा रहा हूँ…। तुझे नहीं चलना…?”
“भईया… आज मैं कॉलेज नहीं जाने वाली… और हाँ… कंचन भी नहीं जाएगी…।”
“क्यों…?”
“क्योंकि…” मुस्कुराते हुए जबाव दिया शोभा ने- “आज भी हम… अपनी भाभियों के साथ बैठकर… गप शप करेंगे… समझे आप…।”
“अच्छा… तो तुम लोगों ने उन्हें ‘बोर’ करने का पूरा प्रोग्राम बना लिया है…।”
“बोर कौन करेगा…?” शोभा ने नाटकीय अंदाज़ में कहा- “हम तो बस… बातें करेंगे उनसे… नई-नई इस घर में आई हैं न… मन नहीं लगेगा उनका… लेकिन… तुम्हें क्यों चिंता हो रही है अभी से उनकी…?”
नीता जो उधर से गुजर रही थी, शोभा के अंतिम शब्द सुनकर हंस पड़ी थी। दोनों ने मुड़कर देखा, नीता मुस्कुराते हुए उन्हीं की ओर देख रही थी।
“तू अपनी हरकतों से बाज नहीं आयेगी…।” रवि ने डांटना चाहा था- “बहुत बक-बक करने लगी है… शैतान कहीं की… चल नाश्ता लगा…।”
“मैं नहीं लगाउंगी नाश्ता…।” मुँह बनाते हुए वोली थी वह।
“क्यों…? थक जाएगी क्या…?”
“उ… हूँ… आज नाश्ता… भाभी जी लगाएंगी…।” स्वर शरारती था। आगे वोली थी वह- “क्यों भाभी जी…! मैं ठीक कह रही हूँ न…।”
झेंप सी गई थी नीता।
“बदमाश…! अभी बताता हूँ तुझे…।” रवि ने पकड़ना चाहा उसे। लेकिन शोभा खिलखिलाती हुई वहाँ से भाग गई। वहीँ खड़ा रह गया वह।
“पागल कहीं की…।” रवि बडबडाया।
मुस्कुराते हुए रवि की ओर देखा नीता ने। काली ड्रेस में बहुत हैंडसम दिख रहा था वह। दोनों की आँखें चार हुईं। झेंप गई नीता। रवि देखता रहा उसे।
कुछ देर मौन छाया रहा वहाँ। नीता ने ही पहलू बदलने की कोशिश की।
“आप चलिए… नाश्ता… मैं लगा दूंगी…।” पलकें झुकी हुईं। रवि चल पड़ा उसके पीछे। किसी जादू के बशीभूत सा। रवि अपने कमरे में घुस गया। थोड़ी देर में नीता नाश्ता लेकर आ गई। अगले पल वह नाश्ता कर रहा था। बीच-बीच में दोनों की निगाहें टकरा जाती। और दोनों ही शरमा जाते। दिल की धड़कने तेज हो जाती।
रवि नाश्ता कर चुका तो नीता ने पूंछ ही लिया।
“कॉलेज जा रहे हैं…?”
“हाँ…!” छोटा सा जवाब रवि का। नीता की आँखों में झांक कर देखा उसने। असीम अपनत्व था वहाँ। जैसे कह रही हों-
“जल्दी लौट आइयेगा…।”
परन्तु नीता ज्यादा देर रवि की नज़रों का सामना न कर सकी। नारी थी वह। पलकें झुक गईं। गाल शर्म से गुलाबी हो उठे थे।
“जल्दी जाइये… वरना देर हो जाएगी…।” कहते हुए होठों पर जादुई मुस्कान थी।
“अ… हाँ…।” रवि को लगा जैसे सोते से जगाया गया हो उसे। झेंपते हुए नज़रें फेर लीं।
“ओह…।” और कलाई घड़ी पर नज़र डालते हुए वह जल्दी से अलमारी की ओर लपका। किताबें उठाई और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ बाहर निकल गया।
नीता मुस्कुरा कर पलटी। बर्तन उठाकर किचिन की ओर बढ़ गई।
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ख़्वाब अधूरे से १७
कॉलेज पहुँचते ही रवि की नज़रें करन को खोज रही थीं। कई दिन हो गए थे उससे मिले। और फिर उसे खुश खबरी भी तो सुनानी थी। करन सुनेगा तो खुश हो जायेगा। ऐसे ही बिचारों में खोया वह करन को ढूँढ रहा था। अचानक किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा-
“किसे ढूँढ रहे हो यार…?”
“अरे करन तू… मैं… मैं कब से तुझे ढूढ़ रहा हूँ…? कहाँ था तू…?”
“और सुनो… जनाब इतने दिनों से गायब हैं… और मुझसे पूंछते हैं कि… कहाँ था…?” करन ने कंधे उचकाते हुए कहा- “पहले ये तो बताओ… कि तुम थे कहाँ…?”
“सॉरी यार… वही तो बताने के लिए तुझे खोज रहा था…।” करन का हाथ थामते हुए बोला रवि।
“और… वही तो जानना चाहता हूँ मैं…।” मुस्कुराते हुए बोला करन।
“चलो कहीं बैठ कर बात करते हैं…।”
“हाँ… यही ठीक रहेगा… चलो लॉन में चलते हैं…।”
“हाँ… ठीक है…।”
और दोनों लॉन की ओर चल पड़े। लॉन में बैठने के बाद-
“हाँ… अब बता…क्या कह रहा था तू…?” करन ने पूछा।
“एक खुश खबरी है… सुनाने को…।” मुस्कुराते हुए कह गया रवि।
“खुश खबरी… फिर तो जल्दी सुना डाल…।” उताबलापन था उसके कहने के अंदाज़ में।
“बड़े उताबले हो रहे हो…? रवि मुस्कुराते हुए कह रहा था- “अच्छा बूझो तो जानू…।”
“देख… तू मेरी जिज्ञासा को और मत बढ़ा…।”
“ओ.के…. ओ.के…. तो बता दूँ…।”
“बता न… जल्दी कर…।”
“तो… बता ही दूँ…।”
“ओए… तू बताता है कि… मारूं दो हाथ…।”
“रुक… रुक… बताता हूँ…।” और रवि ने आखिर कह ही डाला- “तुझे भाभी मिल गई… और मुझे भी…।” कहकर मुस्कुराया था वह।
“क्या…? क्या सच कह रहा है…?”
“हाँ… भई हाँ…।”
“साफ साफ बोल न… पहेलियाँ क्यों बुझा रहा है…?”
“ठीक है… तो सुन…।” शांत हो गया था रवि। और वो सारा घटनाक्रम उसने करन को कह सुनाया। कैसे उसे दयाराम जी मिले? और फिर शादी का प्रोग्राम भी। सारा कुछ सुन चुकने के बाद करन मुस्कुराते हुए बोला-
“हूँ… ये तो बाकई में बहुत बड़ी खुश खबरी है…। लेकिन यार… अब उसका क्या होगा…?”
“उसका किसका…?”
“मैं उस अकडू की बात कर रहा हूँ… जो बात बात पर मुँह चिढ़ाती रहती है…।”
“ओह… तो तू सीमा की बात कर रहा है…।”
“बिलकुल सही पकड़ा…।”
“किसका क्या होना है… ये तो ऊपर वाला ही जान सकता है… उसकी मर्जी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता…।” रवि गंभीर हो गया था- “पिछले चार-पांच दिनों में… वो सब हो गया… जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी…।”
“सच कहते हो यार… वो महान है… कब क्या कर दे… कुछ पता नहीं…।” करन ने भी सहमति जताई।
“ये बात सच है कि… अभी मेरी नीता से शादी नहीं हुई… लेकिन… जब भी मैं उसके सामने जाता हूँ… तो पता नहीं क्या हो जाता है मुझे… उसकी आँखों में त्याग और अपनत्व के सिवाय… और कुछ नज़र ही नहीं आता मुझे… मैं उसके इस अपनत्व को खोना नहीं चाहता करन…। फिर कहाँ सीमा जैसी अकडू लड़की… और कहाँ वह सीधी सादी… भोली सी सूरत… लगता है जैसे… जैसे वर्षों से… उसका मेरे साथ कोई रिश्ता रहा है…।”
करन बुत बना सुनता रहा अपने दोस्त की बात को। गौर से।
“लेकिन एक बात का दुःख रहेगा कि… मैं उस अकडू लड़की का घमंड नहीं तोड़ पाया…।” रवि का इशारा सीमा की तरफ था।
“अब उसकी जरुरत भी नहीं है…।” करन ने समझाया।
“क्यों…? क्या वह सुधर गई…?” आश्चर्य था रवि की आँखों में।
“सुना था… परवाने शमां पर मंडराया करते हैं… लेकिन यहाँ तो शमां ही परवाने के पीछे पड़ गई लगती है…।” करन मुस्कुरा रहा था।
“ये क्या कह रहा है तू…?”
“यार… जिस दिन से तुम कॉलेज नहीं आये… तब से उसने मुझे परेशान कर रखा है… बार-बार तुम्हारे बारे में पूछने आती थी…।”
“क्या कह रहा है तू…?”
“अरे छोड़ यार… पहले ये बता कि तू शादी कब कर रहा है…?”
“अरे बताया तो था… कॉलेज की पढाई पूरी हो जाये… उसके बाद शादी भी कर लूँगा…।”
“कमाल है…! बीबी को घर ले आये और शादी करेंगे… पढाई पूरी होने के बाद…।” शरारत थी स्वर में।
“किस्मत है अपनी-अपनी…।” कहते हुए रवि हंसा।
करन भी हँसने पर मजबूर हुआ था।
“अब क्लास रूम में चलें…।” पूछा था रवि ने।
“हाँ… लेकिन भाभियों से कब मिलवा रहे हो…?”
“जब तुम्हारी मर्जी…।”
और दोनों उठ खड़े हुए कॉलेज की इमारत की ओर जाने के लिए।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से १८
सीमा आज गुमसुम सी बैठी पीरियड शुरू होने का इंतज़ार कर रही थी। उसकी आँखें किसी को खोज रही थीं।
तभी उसे कमरे की ओर आता हुआ रवि दिखाई दिया। रवि को देखते ही सीमा की आँखें चमक उठी। रवि ने कमरे में प्रवेश किया और जाकर एक खाली सीट पर बैठ गया। करन भी जा बैठा उसके पास। उनके बैठते ही प्रोफ़ेसर साहब भी आ गए। लेक्चर शुरू हो चुका था।
सीमा बार-बार रवि को निहारे जा रही थी। करन उसकी इस हरकत को देख चुका था। उसने मुस्कुराते हुए कोहनी से इशारा किया।
“क्या है…?” रवि फुसफुसाया।
“उधर देख…।” करन ने उसी अंदाज़ में कहते हुए सीमा की ओर इशारा किया।
रवि ने देखा उस तरफ। सीमा मुस्कुरा उठी। रवि ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। और नज़रें फेर लीं।
सीमा को मन ही मन गुस्सा आ रहा था। सह गई चुपचाप।
जैसे ही प्रोफ़ेसर साहब लेक्चर समाप्त कर बाहर निकले, सीमा सीधी रवि के पास जा पहुंची।
“रवि…!”
रवि ने मुड़कर देखा। सीमा थी।
“क… कहिये…।”
“मैं तुमसे कुछ… बात करना चाहती हूँ… पर यहाँ नहीं…।”
“क्यों…? ऐसी क्या बात है…?”
“समझा करो… चलो लॉन में चलते हैं न…।”
देखा था रवि ने उसके चेहरे को गौर से। और उठ खड़ा हुआ।
“ठीक है… चलिए…।”
दोनों लॉन में जा पहुंचे। टहलते हुए रवि ने पूछा था-
“कहिये… क्या बात है…?आप कुछ परेशान लग रही हैं…।”
“पहले ये बताओ कि…” सीमा साथ साथ चल रही थी- “तुम इतने दिन कहाँ थे…? कब से तलाश रही थी तुम्हें…!”
“कमाल है… आप मुझे क्यों तलाश रही थीं…?” रवि ने मुस्कुराते हुए कहा- “क्या हमसे कोई गलती हुई…?”
हंस पड़ी थी सीमा।
“इतना भी नहीं समझते कि… एक जवान लड़की… एक जवान लड़के को क्यों तलाशती है…?” मुस्कुराते हुए देखा था सीमा ने रवि की ओर।
ठहर गया था वह। होठों की हँसी जाती रही।
“क्या हुआ…?” सीमा ने आश्चर्य भरी निगाहों से देखा उसकी ओर।
“माफ़ करना सीमा जी… आप जो चाहती हैं… हम वो नहीं दे सकते…।”
“क्यों…? क्या खराबी है मुझमे…? क्या मैं प्यार करने लायक नहीं…? दुखी हो उठी थी वह।
“आप में कोई कमी नहीं है… लेकिन… लेकिन मैं मजबूर हूँ…।”
“परन्तु क्यों…? ऐसी क्या मज़बूरी है…?”
“आपके इस प्रश्न का उत्तर… मैं समय आने पर दूंगा…। अच्छा अब मैं चलता हूँ…।”
और सचमुच चला गया वह।
सीमा बस देखती रही उसे जाते हुए। आँखों से दो बूंद आंसू टपके और गालों से होते हुए गले में पड़े स्कार्फ़ में समा गए।
अचानक उसके चेहरे के भाव बदलने लगे।
“तुम चाहे जो भी कहो… लेकिन मैं तुम्हें पाकर रहूंगी… किसी भी कीमत पर…।”
और तेज तेज कदम बढ़ाती हुई वह कॉलेज की इमारत की ओर बढ़ गई।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से १९
दिन बीतते गए। मोहन बाबू के परिवार में खुशियों की बहार आई हुई थी। बहुत खुश थे सभी। दिन सप्ताह में और सप्ताह महीने में बदल गए।
सीमा नई-नई तरकीबे सोचती रहती थी रवि को पाने के लिए। लेकिन रवि पर कोई असर नहीं पड़ सका था इसका।
अब तो वह नीता के बारे में ही सोचता था। सोचे भी क्यों न? उसकी हमसफ़र जो बनने वाली थी वह।
एक शाम वह यूँ ही खयालों में खोया, गुन-गुनाते हुए अपने घर के बगीचे में टहल रहा था।
“भईया…!”
“अरे शोभा तुम…!”
“क्या बात है…? बड़े फ्रेश मूड में लग रहे हो…! कुछ सुनाइए न…।”
“अच्छा बोल… क्या सुनाऊं…?”
“एक मिनट भईया… आप यहाँ बैठिये…।” शोभा ने वहाँ पड़ी बेंच की ओर इशारा किया- “मैं अभी आई…।”
और दौड़ गई थी वह बरामदे की ओर। थोड़ी देर में जब वह लौटी तो उसके साथ गीता, नीता और कंचन भी थीं।
रवि खड़ा देख रहा था उन्हें आते हुए। चारों आकर बेंच पर बैठ गईं।
“हाँ भईया… अब सुनाइए…।”
“हाँ रवि… हम भी तो जाने… हमारे देवर जी कैसा गाते हैं…?” गीता वोली थी।
“क्या सुनाऊं…?” मुस्कुराते हुए पूछा रवि ने।
“अपनी कोई नई कविता या कोई गीत सुनाइए न भईया…।” शोभा ने कहा।
“हूँ… सुनाना तो पड़ेगा ही… पूरी प्लानिंग करके जो आये हो तुम लोग…।”
“हाँ… बिलकुल…।” गीता मुस्कुराई।
“ठीक है भाभी… मैं सुनाता हूँ कुछ…।”
और रवि ने गाना शुरू किया। एक नज़र नीता को देखा। नीता ने नज़रें झुका ली थीं। मुस्कुराते हुए गाना शुरू किया उसने-
“सोलवें साल में मद भरी आँख में
बैठकर यूँ न काजल लगाया करो
…………………………………….”
“वाह देवर जी… कितना सुरीला गाते हो…।” गीता ने तारीफ करते हुए कहा।
“हाँ भाभी… तभी तो सर्वश्रेष्ठ कविता के लिए सम्मानित किया गया था भईया को…।” कंचन ने बताया था।
“अच्छा… आखिर देवर किसके हैं…।” गीता ने रवि के पास जाकर उसका कॉलर उचकाते हुए कहा।
हँसी के फुहारे गूंजे थे वहाँ।
“जिसके लिए गाया गया है… वो तो कुछ कहती नहीं…।” शोभा ने शरारती अंदाज़ में नीता की ओर देखा।
“धत्त…!” कहते हुए नीता ने अपना चेहरा हथेलियों में छुपा लिया।
“अरे भई… परेशान मत करो मेरी होने वाली देवरानी को…।” गीता ने भी चुटकी ली- “क्यों देवर जी…।”
“दीदी… तुम भी…।” नीता शर्म से पानी-पानी हो रही थी।
फिर से हंस पड़े थे सभी।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से २०
सभी खाने की मेज के चारों ओर बैठे थे। मेज सजी थी पकवानों से। आलू-मटर की सब्जी… आलू-गोभी की सब्जी… उर्द-चने की दाल… आलू के पराठे… रायता… और सलाद… घी लगी रोटियाँ…।
सभी खा रहे थे।
“खाना बहुत स्वादिष्ट बना है…।” आकाश ने प्रसंशा करते हुए कहा।
“हाँ बिलकुल… खाना शोभा भी अच्छा बनाती थी… लेकिन जबसे किचिन का काम नीता ने संभाला है… खाने का स्वाद ही बढ़ गया…।” शीला देवी ने नीता की प्रसंशा करते हुए कहा- “इसके हाथ में जादू है… जादू…।”
“हाँ मम्मी ये तो मेरी उस्ताद ही निकलीं…।” शोभा ने मुस्कुराते हुए कहा था।
“चलो अच्छा है… अब काठ का उल्लू नहीं ढूढ़ना पड़ेगा…। क्यों रवि…?” मोहन बाबू जो अब तक चुपचाप खा रहे थे, बोल पड़े।
हंस पड़े थे सभी।
गीता और नीता कुछ समझ न सकी थीं। वह मुस्कुरा भर दीं।
शीला देवी ने दोनों की ओर देखा। वे समझ चुकी थी कि उनके पल्ले कुछ कम ही पड़ा। पड़ता भी कैसे? उन्हें वो काठ के उल्लू वाली बात पता जो नहीं थी।
और शीला देवी ने उन्हें बता दिया रवि का वो मजाक। सुनकर हँसी थी दोनों।
ऐसी ही बातों में खाना भी समाप्त हो गया। खाने के बाद इधर-उधर की बातें हुईं। फिर सभी अपने अपने कमरों में चले गए थे। गीता और नीता ने बाकी का काम निपटाया और वे भी अपने अपने कमरों में चली गईं।
रवि बिस्तर पर लेटा किताब पढ़ रहा था। कमरे का दरबाजा खुला था। हाथ में पेन्सिल, रबर और कुछ काग़ज़ वगैरह लेकर कमरे में दाख़िल हुई कंचन।
“भईया…!”
“अरे… कंचन बेटा तुम…!” रवि ने किताब एक तरफ रख दी और उठकर बैठ गया- “आओ… क्या बात है…?”
“भईया… मैडम ने पेंटिंग बनाने को दी थी… मुझसे नहीं बन रही… आप बना दीजिये न…।”
“ठीक है… लाओ… मैं बनाता हूँ…। किसकी पेंटिंग है…?” रवि ने हाथ बढ़ाते हुए पूछा।
“सुभाष चन्द्र बोस की…।” काग़ज़ रवि को थमाते हुए कहा उसने।
पेंटिंग देखकर हंस पड़ा रवि।
“ये क्या बना डाला तुमने…?”
“भईया… मुझसे बन ही नहीं रही… तब से कोशिश कर रही हूँ… तो ये बना पाई…।”
“अच्छा कोई बात नहीं… मैं बनाता हूँ…।”
“ठीक है भईया…।”
“लाओ… रबर मुझे दो…।”
“ये लो भईया…।”
“अब तुम जाओ… मम्मी से कहना… एक कप चाय भिजवा दें…।”
“अच्छा भईया…।”
और कंचन चली गयी। रवि कंचन द्वारा बनाई पेंटिंग को साफ करने लगा। पेंटिंग पूरी तरह मिट चुकी थी। दस मिनट लगे, नीता चाय लेकर आ गई।
“अरे… तुमने क्यों तकलीफ की…?”
“तो क्या मम्मी जी को तकलीफ उठाने देती…। और इसमें तकलीफ कैसी…?” कप मेज पर रखते हुए कहा नीता ने। स्वर धीमा था।
“शोभा भी तो थी…?”
“शोभा दीदी पढ़ रही हैं… मैंने सोचा कि…”
“अरे बैठो न…।” रवि ने कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा- “वैसे… तुम्हारे हाथ की चाय में मिठास ही कुछ और है…।” शरारत भरी थी स्वर में।
“शरारत करना तो कोई आपसे सीखे…।” मुस्कुराई थी नीता। कुर्सी पर जा बैठी।
“अच्छा… लेकिन मैंने तो कोई शरारत नहीं की…।” रवि ने भोलेपन से कहा।
“जाने दीजिये… अच्छा क्या बना रहे हैं…?”
“पेंटिंग…।”
“देखूं जरा… कंचन कह रही थी… आप बहुर सुन्दर पेंटिंग बनाते हैं…।”
“तुमसे ज्यादा खूबसूरत नहीं…।”
“मुझे पेंटिंग बनानी नहीं आती…।”
“मैं तुम्हारी बात कर रहा हूँ… पेंटिंग की नहीं…।”
“धत्त…!”
“सच्ची… बहुत सुन्दर हो तुम…।”
“रहने दीजिये… आपसे ज्यादा थोड़े हूँ…।” नज़रें झुकी हुई थीं। होठों पर मुस्कान।
“नहीं नीता… बाकई तुम बहुत खूबसूरत हो…।”
“अच्छा… शादी होते ही सब भूल जायेंगे… यही नीता फिर खाने को दौड़ेगी…।”
“मुझे तो… फिर भी उतनी ही खूबसूरत लगोगी तुम…।” रवि उठकर खड़ा हो गया था पलंग से। नीता की ओर कदम बढ़ाते हुए बोला- “बल्कि… शादी के बाद तो और भी सुन्दर लगोगी तुम…।”
नीता भी उठ गई थी कुर्सी से। भांप गई थी कि रवि कोई शरारत करने वाला है।
“सच्ची…!” कहते हुए नीता दरवाजे की ओर दौड़ी। मध्यम हँसी के स्वर छोड़ती हुई।
“अरे… रे… सुनो तो…।” रोकना चाहा रवि ने।
पर वह कहाँ रुकने वाली थी। अपने कमरे में जा समाई। दरवाजा बंद किया और बिस्तर पर जा लेटी। दिल तेजी से धड़क रहा था उसका। होठों पर मीठी सी मुस्कान और आँखों में रवि का चेहरा।
रवि ने भी अपने कमरे का दरवाजा बंद किया और लौट पड़ा पलंग की ओर। और पेंटिंग तैयार करने लगा। लगभग एक घंटा लगा उसे पेंटिंग बनाने में। काग़ज़ और बाकी सामान उठाकर मेज पर रखा। सामान रखते हुए उसकी नज़र चाय के कप पर पड़ी। जो बिलकुल ठंडी हो चुकी थी।
“ओह… नो… मैं तो भूल ही गया था कि चाय रखी है…।” बडबडाया था वह। और ठंडी चाय ही गटक गया।
चाय पीकर बिस्तर पर जा लेटा। जल्दी ही नींद आ गई उसे।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से २१
शाम के चार बज रहे थे। सीमा अपने कमरे में बैठी कुछ सोच रही थी। इस बात से अनजान कि उसके पीछे कोई काफी देर से खड़ा उसे ही देख रहा था।
“वाह यार… कमाल है…!”
“अरे मुक्ता तू… कब आई…?” घूमकर देखा था सीमा ने।
“मैं तो कब से अपनी रानी को देख रही हूँ… पता नहीं किसके खयालों में खोई हुई थी बेचारी…।” मुक्ता ने मज़ाक किया।
“बक-बक मत कर… बैठ जा चुपचाप…।” डाँटते हुए कहा सीमा ने।
“अरे वाह… इतना बुरा लगा मेरा आना… बात कुछ ज्यादा ही सीरियस लगती है… अच्छा ये बता… ख्यालों में कौन था हमारी रानी के…?” मुक्ता और भी मजाकिया हो गई थी।
“चुप कर कमबख्त…।”
“अच्छा चल छोड़…। छः के शो की दो टिकटें लाइ हूँ… चलेगी…?” पूछा मुक्ता ने।
“अब तू कहती है तो… मना भी तो नहीं कर सकती… और फिर टिकटें भी तो खरीद लाइ है तू…।” सीमा बोली थी।
“ये हुई न बात…।” मुक्ता मुस्कुराई।
“ठीक है… ठीक है…।”
“लेकिन एक बात बता यार…?” मुक्ता ने फिर पूछा।
“अब क्या है…?”
“कुछ दिन से देख रही हूँ… तू कुछ… उखड़ी उखड़ी सी रहती है… कुछ गड़बड़ हो गई क्या…?” मुक्ता और भी पास खिसक आई थी सीमा के।
“ऐसी कोई बात नहीं है…।”
“सीमा… मैं तुझे अच्छी तरह जानती हूँ… तू मुझसे जरुर कुछ छुपा रही है…।”
“तू तो पीछे ही पड़ गई… तू जानना चाहती है… तो ठीक है सुन… मुझे रवि चाहिए…।”
“क्या…? अच्छा वो… कॉलेज वाला रवि…?”
“हाँ… वही…।”
“वो क्या कोई खिलौना है… जो तुझे चाहिए…।”
“कुछ ज्यादा ही भाव खाता है…।”
“शायद उसका किसी से टांका भिड़ा हो…? लेकिन तुझसे पंगा कौन लेगी…?”
“हड्डियाँ तोड़ दूंगी उसकी…।” सीमा गुस्से में उफन पड़ी- कोई लड़की उसे लिफ्ट दे के तो देखे… भुर्ता बना दूंगी हरामजादी का…।”
“वो तो मैं जानती हूँ…।”
“जब भी मैं उसके क़रीब जाने की कोशिश करती हूँ… मजबूरियों का रोना रोने लगता है…।”
“किस बात की मज़बूरी…?”
“अब मुझे क्या मालूम…?”
“तू फ़िक्र मत कर… देखना… एक दिन तेरे क़दमों में आकर गिरेगा वो…।”
“आना ही पड़ेगा उसे…।”
“अच्छा अब छोड़ ये सब…। फिल्म देखने चलते हैं…।”
“ठीक है तू रुक… मैं तैयार होकर आती हूँ..।”
और कुछ देर बाद वे दोनों घर से निकल पड़ीं।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से २२
हॉल के बड़े परदे पर फिल्म की रील दौड़ रही थी। सीमा अपनी सहेली मुक्ता के साथ बैठी फिल्म के ‘सीन’ में खोई हुई थी।
हिरोइन को कुछ बदमाशों ने घेर लिया था। वह बदमाशों से रहम की भीख मांग रही थी। पर उन पर कोई असर नहीं हो रहा था उसकी मिन्नतों का। अचानक हीरो अवतार बनकर आ गया वहाँ। उसने अपनी जान पर खेल कर हिरोइन को बचा लिया। बदमाश भाग चुके थे। परन्तु हीरो हिरोइन एक दूजे की आँखों में खोते जा रहे थे। एक दूसरे की बांहों में खोये गुनगुनाने लगे वे।
सीमा देख रही थी ये सब। उसका मस्तिष्क तीब्र गति से कुछ सोच रहा था। सीमा सोचती रही और फिल्म की रील दौड़ती रही।
शो छूट चुका था।
सीमा घर लौट आई थी।
“सोमू…!” उसने घर के नौकर को आवाज़ लगाई- “अरे ओ सोमू… कहाँ मर गया बुड्ढा…।”
“जी मालकिन…।” एक पचास-पचपन साल का बूढा वहाँ दौड़ता हुआ आया। पुराना फटा हुआ कुर्ता और धोती लपेटी थी तन पर उसने। मैला कुचैला गमछा कंधे पर झूल रहा था। हाथ जुड़े थे उसके। भय से।
“कहाँ था अब तक…?” सीमा दहाड़ी थी।
“ज… जी… वो… बरतन धो रहा था…।”
“भईया लौटे…?”
“अभी नहीं मालकिन…।”
“जा… खाना लगा…।”
“अच्छा मालकिन…।” कहते हुए मुड़ा था सोमू।
“सुन…!”
“जी…मालकिन…।” सोमू ने यंत्रबत रुकते हुए पूछा।
“एक कप चाय ले आना पहले…।”
“अच्छा मालकिन…।”
और चला गया वह रसोई की तरफ। क़रीब दस मिनट में लौटा था वह। हाथ में चाय का कप थामे। सीमा को कप थमाकर वह फिर रसोई में घुस गया।
सीमा कुर्सी पर बैठी चाय के घूंट भर रही थी।
और खाना खाने के बाद वह बिस्तर पर जा लेटी। आँखों में नींद की जगह फिल्म का वो ‘सीन’ था जिसमे हीरो ने हिरोइन को गुंडों से बचाया था।
उसकी आँखें सोचने वाले अंदाज़ में सिकुड़ती चली गईं। तेजी से कुछ सोचती रही वह। और उसके होठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान दौड़ गई। थोड़ी ही देर में नींद ने उसे घेर लिया।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से २३
रवि, शोभा और कंचन के साथ टैक्सी से उतरा। भाड़ा चुकाने के बाद वह कॉलेज की बिल्डिंग की ओर बढ़ रहा था। सड़क सुनसान थी। कॉलेज शुरू हो चुका था। आज रवि थोड़ा लेट हो गया था, इसलिए सड़क पर कोई भी लड़का-लड़की नज़र नहीं आ रहे थे।
तीनों तेजी से बढ़ रहे थे कॉलेज के गेट की ओर। अचानक किसी के चीखने की आवाज़ सुनाई पड़ी। रवि ने इधर-उधर देखा। सड़क के बाईं ओर एक इंडिका खड़ी थी। जिसके पीछे से आवाज़ आ रही थी।
“बचाओ… बचाओ…!” स्वर फिर गूंजा, जो किसी लड़की का था।
“पकड़ो जरा…।” रवि ने अपनी किताबें शोभा की ओर बढ़ाते हुए कहा- “मैं देखता हूँ…।”
“नहीं भईया… आप वहाँ मत जाइये… पता नहीं कौन लोग हैं…?” शोभा ने रोकना चाहा।
“अरे इंसान ही तो होंगे…। अभी देखता हूँ…।” रवि ने किताबें शोभा को थमाते हुए कहा।
“अगर इंसान ही होते… तो… ऐसी हरकत क्यों करते…?” कंचन भी बोल पड़ी।
“तू घवरा मत… बस अभी आया मैं…।” कहते हुए रवि चला गया।
“बचाओ… रवि… मुझे बचाओ…।” रवि को देखते ही फिर चीखी सीमा।
“अरे सीमा…।” रवि ने उसे देखते हुए कहा- “अरे… अरे… भईया… ये क्या बदतमीजी है…?”
“ऐ छोकरे… हमारे बीच में आने की जरुरत नहीं है… समझे… वरना…।” उनमें से एक दहाड़ा था।
“वरना… वरना क्या करेंगे आप…? एक बेचारी लड़की को पकड़ रखा है… और हम पर दहाड़ कर मर्दानगी दिखा रहे हो…?” रवि का स्वर भी तेज हो गया था।
“हम सिर्फ धमकाते ही नहीं… बहुत कुछ करते हैं…।” वही बदमाश बोला था फिर।
“आप क्या करते हैं…? ये तो हम देख ही रहे हैं…। एक लड़की को उठा ले जाना कहाँ की बहादुरी है…?”
“बहादुरी तो अब दिखायेंगे हम तुझे…। बहुत बड़बड़ा रहा है…।” कहते हुए आगे बढ़ा था उनमें से एक। रवि के ऊपर अपना भारी भरकम हाथ चलाया था उसने।
रवि को जैसे इसी का इंतज़ार था। पीछे झुकते हुए उसने उसका हाथ थाम लिया। पीछे की ओर मरोड़ दिया और एक जोरदार लात मारी उसकी कमर पर।
वह भैंसे की तरह डकराता हुआ मुँह के बल ज़मीन पर जा गिरा। उसके गिरते ही बाकी तीनों भी सीमा को छोड़ रवि की ओर झपटे। गज़ब की फुर्ती दिखाई रवि ने। चारों बदमाशों पर लात-घूंसों की बरसात सी हो उठी थी। चारों बेहाल थे।
अचानक एक बदमाश ने सड़क पर पड़ा बड़ा सा पत्थर उठाकर दे मारा रवि के सिर पर।
“आह…!” दर्द से चीख पड़ा था रवि।
“मोती… हीरा… वीरू… भागो… जल्दी करो…।” एक ने कार में बैठते हुए कहा था।
वे तीनो भी भागकर बैठ गए थे गाड़ी में। और आंधी की रफ़्तार से दौड़ पड़ी थी अगले पल इंडिका।
“भईया…!” रवि की चीख सुनकर उधर ही दौड़ी थीं शोभा और कंचन।
रवि सिर थाम कर बैठ गया वहीँ। खून बह रहा था चोट से।
“हे भगवान… ये क्या हो गया…?” आंसू बहने लगे थे शोभा की आँखों से। कंचन भी रोने लगी थी अपने भईया की हालत देख।
सीमा भी पहुँच गयी थी उनके पास। उसे तो सूझ ही नहीं रहा था कि वह क्या करे। अवाक् देखती रही वह।
शोभा ने रुमाल निकाला और घाव साफ करने लगी थी, जिससे लगातार खून बह रहा था।
कंचन के रुमाल को चोट पर बाँध दिया उसने। लेकिन खून रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था।
“इनको तो काफी खून निकल रहा है…।” सीमा ने घबराते हुए कहा- “जल्दी से डॉक्टर के पास ले चलना चाहिए इन्हें…।”
रवि बेहोश हो चुका था।
“हे भगवान…! अब मैं क्या करूँ…?” शोभा ने बेचैन होते हुए कहा। आंसू अभी भी बह रहे थे- “बहन जी… हमारी मदद कीजिये… आपकी बहुत आभारी रहूंगी मैं… कहीं से टैक्सी ले आइये… प्लीज… इन्हें डॉक्टर के पास ले जाना है…।” स्वर में बिनती थी।
सीमा बिना कुछ कहे खड़ी हो गई। टैक्सी लेने जा चुकी थी वह। और थोड़ी ही देर में वह टैक्सी लेकर आ भी गई।
ड्राईवर की मदद से रवि को टैक्सी में बिठा, अपने फैमिली डॉक्टर के पास ले चली थी शोभा और कंचन। सीमा भी साथ में हो ली थी।
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ख़्वाब अधूरे से २४
नीता रवि के कमरे की सफाई कर रही थी। अचानक उसकी चीख निकल गई।
“आह..।”
“क्या हुआ बेटी…?” शीला देवी उधर ही आ रही थीं। नीता की चीख सुनकर पूछा था उन्होंने।
“क… कुछ नहीं मम्मी…।” नीता ने कहा था। परेशानी झलक रही थी उसके चेहरे से।
“लेकिन तुम चीखी क्यों…? और परेशान भी लग रही हो…।”
“मम्मी जी… पता नहीं क्यों…? मेरा जी बहुत घवरा रहा है…। और… अभी जब मैं ये किताबें अलमारी में रख रही थी तो… तो… ऐसा लगा जैसे… जैसे किसी ने कोई भारी चीज… मेरे सिर पर दे मारी हो…। कुछ अज़ीब सा लग रहा है…।” अभी भी दर्द के भाव थे उसके चेहरे पर।
“बेटी… शायद… ये तेरा बहम है…।” शीला देवी ने समझाते हुए कहा- “यहाँ मेरे सिवाय कोई भी तो नहीं…। थोड़ा आराम कर ले… सब ठीक हो जायेगा…।”
“ठीक है मम्मी…।”
नीता बिस्तर पर जा बैठी थी। शीला देवी अपने कमरे में जा चुकी थीं। नीता बिस्तर पर लेट गई थी। मन किसी अनहोनी की आशंका से घवरा रहा था।
“कहीं उनको कुछ… नहीं… नहीं… उनको कुछ नहीं हो सकता…।” नीता अपने आप ही बड़बड़ा रही थी।
बिस्तर पर लेटी वह रवि के लिए प्रार्थना करती रही।
और क़रीब दो घंटे बाद शीला देवी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।
शीला देवी बिस्तर पर लेटी सुस्ता रही थीं। अचानक उनके कानों से एक आवाज़ टकराई-
“मम्मी…!”
उन्होंने इधर-उधर देखा। वहाँ कोई भी नहीं था।
“रवि तो… कॉलेज गया है…। फिर ऐसा क्यों लगा जैसे… जैसे उसने मुझे पुकारा हो…।” शीला देवी मन ही मन बड़बड़ाई।
“हे भगवान… मेरा दिल क्यों घवरा रहा है…? कहीं रवि… नहीं… नहीं… उसे कोई मुसीबत नहीं घेर सकती…। हे भगवान…उसकी रक्षा करना…।” शीला देवी के हाथ जुड़ गए थे।
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ख़्वाब अधूरे से २५
डॉक्टर देसाई ने रवि के घाव को साफ कर उस पर पट्टी बांध दी थी। एक इंजेक्शन देते हुए वोले वह-
“बेटी… घबराने की कोई जरुरत नहीं… अभी थोड़ी देर में उसे होश आ जायेगा… मैं कुछ दवाइयां लिख रहा हूँ… इन्हें ले लेना…।”
“अच्छा अंकल जी…।” शोभा वोली थी।
“लेकिन बेटी… ये चोट लगी कैसे…?” पूछा था डॉ. देसाई ने।
शोभा कुछ कह पाती इससे पहले ही सीमा वोल पड़ी-
“ये सब मेरी बजह से हुआ है… न ये मुझे बचाते… और… न… गुंडे इन्हें चोट पहुँचाते…।” स्वर में उदासी थी।
“आप…?” डॉ. देसाई ने सीमा का परिचय जानना चाहा।
“जी मैं सीमा… रवि की क्लास फैलो हूँ…।” सीमा ने परिचय दिया।
और क़रीब एक घंटे बाद रवि के कराहने का स्वर गूंजा।
“मम्मी..!”
“दीदी… दीदी… भईया को होश आ गया… वो मम्मी को पुकार रहे हैं…।” कंचन ने पास आते हुए बताया।
“अच्छा…।” शोभा का चेहरा ख़ुशी से चमक उठा।
सभी रवि की ओर दौड़े थे।
“अब कैसी तबियत है भईया…?” रवि के पास बैठते हुए पूछा था शोभा ने।
“मुझे क्या होना है…? चंगा तो हूँ…।” मुस्कुराया था रवि।
उठकर बैठ गया था वह।
“आई.एम्. सॉरी रवि…। मेरी बजह से तुम्हे तकलीफ हुई…।” सीमा का स्वर था ये।
“मैंने तो अपना फर्ज निभाया है… बस…।”
“जिसके लिए तुमने ख़ुद को जोखिम में डाल लिया…।” सीमा फिर वोली।
“जोखिम कैसा…? जरा सा जख्म है… ठीक हो जायेगा..।” मुस्कुराते हुए वोला रवि।
“रवि बेटा…!” डॉ. देसाई बोल पड़े थे बीच में- “तुम्हे आराम की जरुरत है… अधिक बोलोगे तो खून रिसने लगेगा…। घर जाओ और… दो चार दिन बिस्तर से हिलना मत…।” कहते हुए मुस्कुराये थे डॉक्टर देसाई।
“तब तो अपने ही घर में… मुझे कैदी बना देंगे आप…।” कहकर हंस पड़ा था वह।
“हाँ… हाँ… बिलकुल… और भाभी जी से कह दूंगा कि… लाठी लेकर पहरेदारी करे तुम्हारी…।”
फिर से हँसे थे सभी।
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ख़्वाब अधूरे से २६
रवि, शोभा और कंचन घर के लिए रबाना हो गए थे। सीमा भी अपने घर चली गई थी। रास्ते में शोभा ने कुछ दवाइयां खरीदी। फिर तीनो घर आ पहुंचे। मेन गेट से होकर वे बरामदे में कदम रख रहे थे।
“हे भगवान… ये क्या हुआ तुम्हें…?” गीता रवि के सिर पर पट्टी बंधी देख घवरा गई।
“कुछ नहीं भाभी जी… वो… सड़क पर फिसल गया… और… चोट खा बैठा…।” मुस्कुराया था रवि।
“क्या…? सड़क पर फिसलने से इतनी चोट… देखूं तो…।” गीता ने उसके सिर का मुआइना किया- “हे भगवान…! तुम्हे तो काफी चोट लगी है मेरे लाल…।” और आंसू झलक आये थे उसकी आँखों में।
“भाभी… इतना दुखी होने की जरुरत नहीं है… जरा सा जख्म है…।” रवि ने समझाया।
“चुप करो…! बच्ची नहीं हूँ मैं…।” गीता ने आंसू पोंछते हुए कहा था।
“भाभी… अन्दर ले चलिए इन्हें…। डॉक्टर अंकल ने आराम करने को कहा है…।” शोभा ने गीता की ओर देखते हुए कहा।
“आओ… बिस्तर से उठने नहीं दूंगी मैं तुम्हें…।” गीता ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा।
रवि मुस्कुराता हुआ चल पड़ा उसके साथ।
नीता रवि के कमरे में ही लेटी थी। क़दमों की आहट सुन उठ बैठी। उठकर दरवाजे की ओर बढ़ ही रही थी कि गीता रवि का हाथ थामे वहाँ आ पहुंची।
कलेजा काँप गया नीता का, रवि के जख्म पर नज़र पड़ते ही।
“क्या हुआ इन्हें…?: स्वर लगभग रुंआसा था।
“कहता है… सड़क पर फिसल गया…।” गीता ने बताया था।
“हाय राम…!” नीता का स्वर घवराया हुआ था।
“घबराने की कोई बात नहीं है भाभी… डॉक्टर अंकल ने दवाइयां लिख दी थीं… मैं ले आई हूँ… दो चार दिन में जख्म भर जायेगा…।” शोभा बोली थी इस बार।
गीता ने रवि को बिस्तर पर लिटा दिया था। कंचन ने जाकर शीला देवी को भी बताया। वे दौड़ती हुई आई थीं वहाँ।
“क्या हुआ मेरे बच्चे को…?” शीला देवी ने घबराहट भरे स्वर में पूछा था।
सिरहाने बैठ गई थी वे। और रवि के बालों को सहलाने लगी थीं।
“कुछ नहीं मम्मी… जरा सी चोट है… और आप लोग खामख्वा परेशान हो रहे हैं…।” रवि ने उनका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था।
“तुझे जरा सी भी खरोंच लगे… तो मेरा कलेजा कांप जाता है…।” शीला देवी ने भरे गले से कहा था- “इसे तू जरा सी चोट बता रहा है… मेरे दिल से पूंछ… मुझपर क्या गुजरती है…।” आंसू छलछला आये थे आँखों में।
“मम्मी प्लीज…। तुम्हे पता है… मैं किसी को रोते हुए नहीं देख सकता… तुम तो मेरी माँ हो…।” रवि ने भावुक होते हुए कहा था।
“तू मुझे रोते हुए नहीं देख सकता… तो क्या मैं तेरे शरीर से खून बहता हुआ देख सकती हूँ…।” सुबकते हुए कहा था उन्होंने।
“मम्मी प्लीज… चुप हो जाइये…।” रवि ने उनकी आँखों से आंसू पोंछते हुए कहा।
“लेकिन तुझे ये चोट लगी कैसे…?”
रवि कुछ कह पाता इससे पहले ही कंचन बोल पड़ी-
“भईया को कुछ बदमाशों ने पत्थर मारा है…।”
“क्या…? लेकिन क्यों…?” शीला देवी की आँखों में आश्चर्य मिश्रित भय था।
फिर शोभा ने सारी घटना कह सुनाई।
“कहता था… सड़क पर फिसल गया हूँ…।” गीता ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- चेहरा कैसा पीला पड़ गया है इसका…!”
“भाभी जी…! आप भी खामख्वा परेशान हो रही हैं…। कहा न… थोड़ी सी चोट है…।” रवि ने फिर समझाया।
“ज्यादा मुँह मत चला…। क्या मैं नहीं समझती…?” शीला देवी ने प्यार से डांटा था।
“ठीक है… वैसे भी अब दो-चार दिन चुपचाप ही लेटना है…।” रवि ने मुस्कुराते हुए कहा।
“नहीं लेटेगा तो… कान पकड़ के… दो मारूंगी खींच के… समझा…।” इस बार गीता ने डांटा था।
रवि हंस पड़ा था।
तभी शीला देवी ने वो घटना भी कह सुनाई, जो नीता और उनके साथ घटी थी।
“हाँ मम्मी… होश में आते ही भईया ने आपको पुकारा था…।” कंचन ने बताया।
“क्या…?” रवि ने आश्चर्य से पूछा- “क्या कह रही हो मम्मी…! क्या बाकई में ऐसा हुआ था…?”
“हाँ बेटा…! नीता उस वक्त तुम्हारे कमरे में ही थी… जब मैंने इसकी चीख सुनी थी…। और शायद उसी वक्त पत्थर मारा होगा उन लोगो ने तुम्हें…।” शीला देवी कहती जा रही थीं- “ऐसा ही होता है… जब हम एक दूसरे को दिल से चाहते हैं… एक के दर्द का एहसास… दूसरे को ख़ुद व् ख़ुद हो जाता है…।”
सब अपनी-अपनी कह रहे थे। नीता के मन में क्या हलचल हो रही थी, कोई नहीं जान सका था। नीता को लग रहा था जैसे चोट रवि के सिर पर नहीं बल्कि उसके अपने दिल में चोट लगी हो। सोच रही थी वह- ‘काश…! रवि का सारा दर्द उसके हिस्से में आ जाये।’ क्या ऐसा हो सकता था? लेकिन मोहब्बत! सच्ची मोहब्बत!! जिसमें पड़कर मनुष्य कुछ भी सोच बैठता है। भूल जाता है सब कुछ। याद रहता है तो ‘प्रियतम’। वही स्थिति थी नीता की।
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ख़्वाब अधूरे से २७
शाम को जब आकाश और मोहन बाबू दफ्तर से लौटे तो शीला देवी ने उन्हें रवि के बारे में बताया। दोनों रवि के कमरे में गए थे। चोट देख कर आकाश और मोहन बाबू भी बहुत दुखी हुए थे। लेकिन सारी घटना जान लेने के बाद दोनों ने रवि की बहादुरी की खूब प्रशंशा की थी। काफी देर बैठे रहे दोनों। चिंता की कोई बात नहीं थी। आराम करने की हिदायत देकर दोनों अपने-अपने कमरे में चले गए थे, क्योंकि नीता बैठी थी रवि के पास। जब देखा रवि सो गया है, तो वो भी रसोई की तरफ चली गई थी।
क़रीब एक घंटे बाद सभी खाने की मेज पर थे। रवि अभी भी शायद सो रहा था।
“रवि सो रहा है क्या…? खाना नहीं खायेगा…। मोहन बाबू ने पूछा था।
“उसका खाना… उसके कमरे में ही भिजबा देंगे…। उसका ज्यादा चलना फिरना ठीक नहीं… खून काफी बह चुका है…।” शीला देवी ने कहा था।
“यही ठीक रहेगा…।” इस बार आकाश बोला था।
“नीता…!” गीता ने पुकारा था।
“जी दीदी…!”
“तू ऐसा कर…।” गीता ने समझाया- “रवि का खाना उसके कमरे में ही पहुँचा दे…। अपने लिए भी लेती जाना…। तुम दोनों वहीँ खा लेना…।”
“अच्छा दीदी…!” नीता ने कहते हुए रसोई की ओर कदम बढ़ाये थे।
खाना परोसा और रवि के कमरे की ओर चल पड़ी। कमरे में पहुँच कर देखा, रवि आँखें बंद किये बिस्तर पर सीधा लेटा था। खाने की थालीं मेज पर रखने लगी तो रवि ने आहट सुनकर आँखें खोल दीं। नीता ने देखा उसकी ओर।
“अब कैसी तबियत है आपकी…?”
“मेरी तबियत को क्या हो सकता है…?” मुस्कुराते हुए बोला था वह- “बिलकुल ठीक हूँ…।”
“अब तक शरारतें करते थे… अब बातें भी बनाने लगे…।” हल्की नाराजगी थी स्वर में।
“बातें कहाँ बना रहा हूँ… मैं तो…।”
“बस भी करिए…। उठकर खाना खा लीजिये…।” नीता ने बीच में ही बात काटते हुए कहा।
“सब लोग खा चुके…?” उठते हुए पूछा था रवि ने।
“हाँ… खा चुके होंगे…।”
“और तुमने…? तुमने खाया…?”
“आप खाइए न… मैं बाद में खा लूंगी…।” नीता ने थाली उसके सामने रखते हुए कहा।
“हाथ तो धोने दो…।” रवि ने उठने की कोशिश की।
“जा कहाँ रहे हैं… यहीं धो लीजिये एक तरफ… मैं पानी डालती हूँ…।”
“यहाँ कहाँ…?”
“इधर धो लीजिये… मैं बाद में साफ कर दूंगी…।” नीता ने पलंग के एक तरफ इशारा करते हुए कहा और रवि के हाथों पर पानी डालने लगी।
“तुम तो मुझे पूरा मरीज बना दोगी लगता है…।” हाथ धोते हुए बोला वह।
हाथ धोने के बाद तौलिया तलाशने लगा रवि, तो नीता ने अपना दुपट्टा बढ़ा दिया। मुस्कुराते हुए रवि ने दुपट्टे से अपने हाथ पोंछ दिए।
“तुम भी खाओ न…।”
“कह तो रही हूँ… बाद में खा लूंगी…।”
“तो फिर मैं भी बाद में खा लूँगा…।”
“आप मानेंगे नहीं…!” मुस्कुराते हुए देखा नीता ने उसकी ओर।
“उ… हूँ…! बिलकुल नहीं…!” रवि ने बच्चों की तरह जिद करते हुए कहा।
“अच्छा मैं भी खाती हूँ…। अब तो शुरू कीजिये…।” नीता ने हार मान ली।
“ये हुई न बात…।”
फिर दोनों साथ-साथ खा रहे थे बैठे।
“एक बात कहूँ…?” नीता ने खाते हुए पूछा।
“हाँ… हाँ… कहो…!”
“हमारा घर कितना पावन है… मम्मी… पापा… बड़े भईया… सभी लोग जैसे… देव रूप हैं… और आप तो… देवों के भी देव हैं… लगता है… सारा स्वर्ग जमीं पर उतर आया हो…।” कहते हुए देखा था रवि की ओर उसने।
“माँ-बाप से बढ़कर कोई देव नहीं होता नीता…। मैं बहुत गौरवान्वित होता हूँ कि मुझे… इतने अच्छे माँ-बाप मिले… जिस कारण ये घर स्वर्ग बना हुआ है…।”
नीता चुपचाप सुन रही थी। आगे बोला था रवि-
“स्वर्ग कहीं अन्यत्र नहीं होता… सब यहीं है… इसी जमीं पर…। जहाँ लोगों में प्रेम है… त्याग है… औरों के दुःख-दर्द बांटने का जज्बा है… वहीँ स्वर्ग है…। राग-द्वेष… ईर्ष्या… लोभ… क्रोध… काम… ये सब छू भी नहीं पाते उन्हें…। उन्हें तो औरों के लिए मिटने की लालशा लगी रहती है… ख़ुद का बड़े से बड़ा दर्द… उन्हें तुच्छ जान पड़ता है… और दूसरों की जरा सी खरोंच भी असह्य है उनके लिए… वे ही सच्चे देव हैं…। जहाँ ऐसे कोमल विचारों वाले इंसान रहते हैं… वह स्थान ही स्वर्ग है…।”
“धन्य हुई मैं… इस स्वर्ग को पाकर… और आपको पाकर तो और भी धन्य हो जाऊँगी…। सच कहते हैं आप… यहीं स्वर्ग है… लोग मिथ्या ही इधर-उधर भागते हैं…।” नीता ने कहा था।
“हमारे विचार एक-दूसरे से बिलकुल मिलते हैं… खूब बनेगी हम दोनों में…।” रवि ने नीता की आँखों में झाँकते हुए कहा।
मुस्कुराई थी नीता। पलकें झुक गयी थीं। गाल शुर्ख होने लगे थे।
“और लीजिये न…।” नीता ने शरमाते हुए कहा।
“नहीं… अब बिलकुल नहीं… पेट भर चुका है मेरा… वैसे भी आज कुछ ज्यादा ही खा गया…।” हँसते हुए कहा था उसने।
“फिर शुरू हो गई आपकी शरारतें…।” नीता भी मुस्कुराई थी।
“शरारतें अच्छी नहीं लगती हमारी…?” पूछा था रवि ने। होठों पर वही मुस्कराहट थी।
“लीजिये… पानी पी लीजिये…।” गिलास आगे बढाया था उसने। गाल शर्म से गुलाबी हो उठे थे।
पानी पीकर गिलास थमाते हुए फिर वोला वह-
“तो क्या समझूं…? हाँ… या न…!”
“आप समझते रहिये… मैं तो चली…।” बर्तन उठाते हुए वोली वह।
“कहाँ…?”
“अभी थोड़ा काम है मुझे…।” नीता ने कहा था आगे- “सो जाइये अब…।”
“और तुम…?” शरारत थी स्वर में।
“आप बाज नहीं आएंगे…।” कहते हुए मुस्कुराई वह। और आगे बढ़ गई दरबाजे की ओर।
“दरबाजा भेड़ देना जरा…।” पलंग पर लेटते हुए कहा रवि ने।
“जो आज्ञा…!” दबी हुई आवाज़ में बोली थी नीता। होठों पर शरारती मुस्कान दौड़ गई थी।
“क्या…?” धीरे से हंसा था वह।
“ज… जी… कुछ नहीं…।” और झटके के साथ दरबाजा बंद किया था उसने। मुस्कुराते हुए।
क़रीब एक घंटे बाद सारा काम निपटाकर वह फिर रवि के कमरे की ओर बढ़ गई। धीरे से दरबाजा खोल कर देखा, रवि आँख बंद किये हुए लेटा था। नीता ने फर्श पर फैले पानी को पोंछे से साफ किया और जाकर बैठ गई थी रवि के सिरहाने। और रवि के बालों को सहलाने लगी।
“नींद नहीं आई तुम्हें…?” आँख बंद किये ही रवि ने पूछा।
“नहीं… पर आप तो सो रहे थे… जाग क्यों गए…?”
“दिन में सोता रहा था न…। सो मुझे भी नींद नहीं आ रही।” आँखें खोलकर मुस्कुराया था वह।
“आँख बंद कीजिये… तभी तो नींद आयेगी…।”
“आँखें बंद कर लूँगा तो तुम्हे कैसे देखूंगा…?”
“मुझे देखने की क्या जरुरत…?”
“जब सामने इतनी खूबसूरत लड़की बैठी हो… तो बिना देखे कैसे रहा जाये…!”
“फिर से शरारत…!” अब चुपचाप लेट जाइये…।”
“अच्छा जी…!”
और वह ख़ामोश हो गया। नीता की नर्म उंगलियाँ रवि के बालों में घूम रही थीं। असीम सूख का अनुभव कर रहा था वह। और धीरे-धीरे उसकी पलकें बोझिल होने लगीं। जब नीता को लगा कि वह सो गया है, तो वह भी धीरे से उठी और अपने कमरे में चली गई।
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ख़्वाब अधूरे से २८
सीमा डॉ. देसाई के यहाँ से सीधी अपने घर गई थी। रास्ते भर सोचती रही थी वह। क्या सोचा था? और क्या हो गया? घर पहुँचते ही उसने सोमू को पुकारा-
“सोमू…!”
“आया मालकिन…!”
सोमू दौड़ने वाले अंदाज़ में पहुँचा था उसके कमरे में।
“जी मालकिन…!”
“जग्गू कहाँ है…?” तेज स्वर में पूछा था उसने।
“जी वो… तहखाने वाले कमरे में लेटे हैं…।”
“और बाकी के तीनो…?”
“वे भी वहीँ हैं…।”
“यहाँ भेज दे उन चारों को…।”
“जी मालकिन…।”
और इतना कह कर दौड़ गया वह।
सीमा कमरे में इधर से उधर चहल कदमी कर रही थी।
“दीदी जी… आपने हमें बुलाया…?” जग्गू आकर खड़ा हो गया था वहाँ। सिर झुकाए हुए। किसी अपराधी की तरह। उसके तीनों साथी भी उसी मुद्रा में खड़े थे, उसके पीछे।
कदम थम गए थे सीमा के। उनके सामने आ खड़ी हुई थी वह। क्रोध में जबड़े भिंचे हुए थे उसके।
“भईया ने यहाँ किसलिए रख छोड़ा है तुम लोगों को…?” कड़कदार आवाज़ गूंजी थी सीमा की।
“जी… आपकी सेवा के लिए…।” सहमा हुआ स्वर था जग्गू का।
“खूब सेवा कर रहे हो तुम लोग…!” गुर्राई थी सीमा- “गधे कहीं के…!”
“……”
भारी भरकम चारों शरीर भीगी बिल्ली बने खड़े थे वहाँ।
“कोई भी काम ठीक से नहीं होता तुम लोगों से…।”
“…….”
“उसे पत्थर मारने को किसने कहा था तुम्हें…?”
“गलती हो गई दीदी…।”
“शटअप… सूअर कहीं के…। वो मर जाता तो…? शेरनी की तरह गरज रही थी वो।
“……”
“सारा प्लान चौपट कर दिया… कमबख्तों ने…।”
“……”
“जी तो चाहता है… खोपड़ी उड़ा दूँ… तुम सबकी…।”
“……”
“दफा हो जाओ यहाँ से… नमक हरामों…।”
चारों चुपचाप लौट गए। सिर झुकाए हुए।
“क्या हुआ मालकिन…?” सोमू जो वहाँ खड़ा था, पूंछ ही बैठा।
“तड़ाक…!”
एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया था सीमा ने बूढ़े सोमू के गाल पर। हडबडाकर दो कदम पीछे हट गया वह।
“समझ गया…?’ चीखी थी सीमा।
“……”
“जा… जाकर खाना लगा…।” दहाड़ रही थी वह- “दोबारा मेरे किसी मामले में दखल दी तो हाथ-पैर तोड़ दूंगी समझे…।”
“जी… समझ गया…।” आँखें डबडबा आईं थीं सोमू की।
वह चुपचाप रसोई की ओर बढ़ गया था। अपना गाल सहलाते हुए।
सोमू खाना परोस रहा था। परन्तु उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे। आखिर कब तक भोगता रहेगा वह ये नर्क। अपने मैले गमछे से आंसू पोंछे उसने और परोसे हुए खाने को लेकर चल दिया था।
सीमा खाना खाने के बाद बिस्तर पर लेट गई थी। कुछ सोचती रही थी काफी देर तक। आखिर नींद भी आ गई उसे।
सुबह जब उठी तो सिर भारी-भारी सा महसूस हुआ उसे अपना। दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर कुर्सी पर जा बैठी थी वह। सोमू चाय लाकर रख गया था। चाय के घूंट भरते हुए वह कल की घटना के बारे में सोच रही थी।
चाय ख़त्म करके बाथरूम गयी। कपड़े उतार कर हैंगर पर टाँगे। नल खोला और नल के नीचे बैठ गई। काफी देर तक भिगोती रही ख़ुद को।
और जब वह बाथरूम से बाहर निकली तो काफी हल्का महसूस कर रही थी ख़ुद को। लेकिन कॉलेज जाने का मूड नहीं था उसका। रवि जो नहीं आने वाला था। दो-चार दिन तो लगेंगे ही उसका घाव ठीक होने में। उसके बाद ही वह कॉलेज आ सकेगा। यही सब सोचकर वह फिर बिस्तर पर जा लेटी थी।
खयाल संजोने लगी थी उसकी आँखें। और खयालों में रवि था। जिसके प्रति उसके दिल में प्रेम कम ‘बासना’ ज्यादा थी।
बचपन से ही उसे अच्छे संस्कार नहीं मिले थे। उद्दंड प्रकृति की रही थी वह। माँ-बाप बचपन में ही चल बसे थे। बड़ा भाई नरेतर अपराधी किस्म का था। जाहिर है… अच्छे संस्कार देने वाला कोई था ही नहीं। परिणाम यह हुआ कि बचपन से ही बिगडैल प्रकृति की हो गई थी वह। उद्दंडता आ गई थी उसमें। किसी के आगे झुकना नहीं सीखा था उसने। बड़ों का सम्मान कैसे किया जाता है? ये नहीं पता था उसे। जो उसे अच्छा लगता, वही करती। कोई रोकने वाला नहीं था।
नरेतर हफ्तों गायब रहता। कभी-कभी तो महीनों बीत जाते। पुलिस की नाक में दम कर रखा था उसने। चोरी… डकैती… लूट… मारकाट… स्मगलिंग… दूसरों की बहू-बेटियों की इज्जत से खिलवाड़ करना… यही दिनचर्या थी उसकी। दुनियाँ का कोई भी बुरा काम उससे अछूता न था। पूरा गैंग चला रखा था उसने।
घर में एक बूढा नौकर था। सोमू। जब भी वह सीमा को समझाने की कोशिश करता, उल्टे वह उसी को डपट देती थी। कभी-कभी तो मार-पीट पर भी उतर आती। वह चुपचाप सह जाता सब कुछ। घर का पुराना नौकर जो था। सारी जवानी इस घर की सेवा में गुजार दी। धीरे-धीरे उसने भी समझाना छोड़ दिया। सीमा पूरी तरह स्वतन्त्र जीवन बिता रही थी।
बिस्तर पर लेटी वह रवि के साथ प्यार के ख्वाब देख रही थी।
“कब तक तड़पाओगे मुझे…?” वह बडबडा रही थी- “मैं भी हार मानने वाली नहीं हूँ…। मैंने ख़ुद को अपने ही गुंडों से घिरवाया… ताकि तुम आकर मुझे बचाओ… और फिर… हम दोनों एक-दूसरे के प्यार में खो जाएँ…। जैसा उस फिल्म में हुआ था…। कमबख्तों ने सब चौपट कर दिया…। हाथापाई करने को कहा था… कमीनों ने पत्थर मार दिया…। आई. एम. सॉरी…!” बुदबुदाए जा रही थी वह- “लेकिन… एक दिन पाकर रहूंगी मैं तुम्हें…। हमारे बीच कोई नहीं आ सकता… कोई भी नहीं…। हम एक नई दुनियाँ बसायेंगे… जहाँ हम-तुम होंगे… अकेले… कोई नहीं होगा हमारे बीच…।” और उसने तकिया उठाकर बाँहों में भींच लिया था अपनी। आगे बड़बड़ाई थी वह-
“अपनी जुल्फों तले छुपा लूँगी तुम्हें… और ख़ुद को तुम्हारी मजबूत बाँहों में…।” तकिये पर जुल्म जारी था। अगर उसकी जगह कोई सजीव प्राणी होता तो शायद दम घुटने लगता उसका। लेकिन बेचारा तकिया। निर्जीव था। बाँहों में लेकर भींचती रही उसे। और करबटें बदलती रही। बासना में अंधी हो चुकी थी वह। आँखें बंद किये लेटी रही। बड़बड़ाना बंद कर दिया था उसने। तकिया अब भी उसकी गिरफ्त में था। लेकिन अब वह करबटें नहीं बदल रही थी। एक दम शांत लेटी थी। निश्चल।
सोमू कमरे में दाख़िल हुआ। सीमा की हालत देख ठिठक गया वह। कपड़े अस्त-व्यस्त थे उसके। बिस्तर की चादर में सिलबटें पड़ गई थीं। सोमू ने नज़रें झुका लीं। लौटने की सोच ही रहा था कि सीमा ने आँखें खोल दीं।
“खाना लगा दूँ मालकिन…?”
“सुअर कहीं के…।” कहते हुए सीमा ने तकिया उसके मुँह पर दे मारा। तेज स्वर फिर गूंजा था उसका- “जब जी में आये चला आता है… मुँह उठाये… इडियट…।”
सोमू ने तकिया हाथों में थाम लिया था।
“क्षमा करना मालकिन…। खाना तैयार था इसलिए…।”
“जा… जाकर लगा दे…।” गुर्राई थी वह।
तकिया पलंग पर रख वह वापस मुड़ गया।
और थोड़ी देर बाद सीमा खाना खा रही थी। खाना खाने के बाद फिर अपने कमरे में जा घुसी थी वह। अब वह बिस्तर पर लेटी थी। और कुछ ही देर में उसे नींद आ गई। सोती रही थी वह दिन भर।
शाम चार बजे उसकी आँख खुली। उठकर बाथरूम गई। तौलिये से मुँह पोंछा। बाल संवारे और बाल संवारने के बाद बैठक में आ बैठी।
“सोमू…!” आराम कुर्सी पर बैठते हुए उसने सोमू को आवाज़ दी।
“आया मालकिन…!”
थोड़ी ही देर में सोमू उसके सामने था।
“क्या बात है… मालकिन…?” उसने धीरे से पूछा।
“एक कप चाय लेकर आ…।” सीमा ने आदेश दिया।
“जी… अच्छा…।”
सोमू के कदम रसोई की तरफ बढ़ गए। पांच मिनट बाद चाय लेकर हाजिर था वह।
“दोपहर को… मालिक आये थे…।” चाय थमाते हुए कहा उसने।
“क्या…? भईया आये थे…?” सीमा ने पूछा उससे।
“जी मालकिन…! कह रहे थे… बाहर जा रहा हूँ… कल सुबह लौटूंगा…।” बताया सोमू ने।
“अच्छा ठीक है…। तू बाजार चला जा… कुछ सब्जी वगैरह लाने को होगी…?” देखा था प्रश्नभरी निगाहों से सीमा ने उसे।
“जी मालकिन…!”
थोड़ी देर में सोमू हाथ में बड़ा सा थैला पकड़े हाजिर था। सीमा ने उसे एक लिस्ट थमा दी और रुपये भी। वह बाजार चला गया।
सीमा ने एक किताब उठा ली थी। पढ़ रही थी उसे। कुछ पन्नें ही उलट पाए थे उसने अभी। किसी ने कॉल-बैल बजाई।
“कौन हो सकता है इस वक्त…?” सोचा था सीमा ने- “दरवाजा खुला है… अन्दर आ जाओ…।” उसने ऊँचे स्वर में कहा।
धीरे से दरवाजा खुला। एक बीस बाईस वर्ष के स्वस्थ युवक ने अन्दर प्रवेश किया।
“कहिये…?” सीमा ने किताब से नज़र हटाते हुए पूछा।
“नरेतर जी से मिलना था मुझे…।” आगंतुक ने जवाब दिया- “मैं उनका दोस्त हूँ… दिल्ली से आया हूँ…।”
“भईया तो बाहर गए हैं…।”
“कब तक लौटेंगे…?”
“कल सुबह…।”
“ये तो गड़बड़ हो गई… कल तक रुकना पड़ेगा मुझे…।” स्वर में परेशानी के भाव थे।
“अरे… खड़े क्यों हैं…? बैठिये न…।” सीमा ने सोफे की ओर इशारा किया।
“थैंक्स…!” सामने सोफे पर बैठते हुए वोला वह- “आप…?” परिचय जानना चाहा था उसने।
“नरेतर मेरे बड़े भईया हैं…।” सीमा ने अपना परिचय दिया।
“अच्छा… तो तुम नरेतर की बहिन हो…।” मुस्कुराते हुए कहा उसने।
“जी…!” सीमा ने स्वीकृति दी।
“क्या नाम है तुम्हारा…?”
“सीमा…!”
“बड़ा प्यारा नाम है…।”
“……..”
“नरेतर ने कभी बताया नहीं कि… उसकी एक खूबसूरत बहिन भी है…।”
“……..”
“पढ़ती हो…?”
“हाँ…!”
“किस क्लास में…?”
“बी.ए. प्रीवियस है…।”
“अच्छा…। बैसे मेरा नाम अरुण है…। जरुरी काम से आया था…। नरेतर तो है नहीं…। खामख्वा तुम्हें परेशान किया…।”
“अरे… इसमें परेशानी की क्या बात है…?” सीमा ने कहा- “आज यहीं रुक जाइये… सुबह जब भईया आ जाएँ… तो मिल लेना…।”
“तुम कहती हो तो रुकना ही पड़ेगा…।” मुस्कुराकर देखा था उसने सीमा की ओर।
झेंप गई थी सीमा।
“चाय पियेंगे…?” पूछा सीमा ने।
“नहीं… नहीं… मैं होटल से पीकर आया हूँ…।”
और फिर कुछ इधर-उधर की बातें होती रहीं। सीमा काफी घुल मिल गई थी उससे। उसकी बातें अच्छी लग रही थीं उसे। खुलकर बातें होती रहीं उन दोनों में। सीमा भा गई थी अरुण को। लेकिन अभी उसने सीमा पर जाहिर नहीं होने दिया। काफी देर तक बातें करते रहे दोनों। सोमू बाजार से लौट चुका था।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से २९
“अरे सुनो…!” अरुण ने पुकारा सोमू को।
“जी साहब…।” वह हाजिर था।
“पड़ोस में कोई शराब की दुकान है…?”
“जी हाँ साहब… एक दुकान है…।” सोमू ने बताया उसे।
“ले ये रुपये लेजा… एक बोतल लेकर आ…। मुझे पीने की तलब लग रही है…।” होठों पर जीभ फेरते हुए कहा था उसने।
“कौन सा ब्रांड लाऊं साहब…?” नोट थामते हुए पूछा सोमू ने।
“अरे कोई सा भी चलेगा… बस नशा हो जाये… गला सूख रहा है… जल्दी जा…।”
“अच्छा साहब…!”
सोमू रुपये लेकर चला गया। वापस आया तो उसके हाथ में शराब की बोतल थी।
“क्या है सोमू…?” सीमा ने पूछा।
“जी वो… साहव ने ये बोतल मंगाई थी…।” सोमू ने बोतल दिखाते हुए कहा।
“अच्छा ला… मुझे दे…।” सीमा ने हाथ बढ़ाते हुए कहा।
“लीजिये मालकिन…। ये रुपये भी बचे हैं…।” सोमू ने बोतल और रुपये सीमा की ओर बढ़ा दिए।
“ठीक है…। तू गेट बंद करके सो जा जाकर…।” सीमा ने रुपये और बोतल थाम ली।
“अच्छा मालकिन…!” कहकर वह पलट गया। बाहर की ओर।
सोमू चला तो आया लेकिन उसके मन में शंका के बादल मंडरा रहे थे। बाल यों ही सफ़ेद नहीं हो गए थे उसके। उन बूढी आँखों ने बहुत दुनियाँ देखी थी। अरुण के हाव-भाव उसे अच्छे नहीं लगे थे। परन्तु करता भी क्या? सीमा से कुछ कहे भी तो वह उसे ही डपट देगी। हाथ भी उठा सकती है। यही सब सोचता वह गेट बंद कर अपने कमरे में चला गया। उसका कमरा गेट के पास ही था। चारपाई पर लेट गया था वह। किसी गहरी सोच में डूबा। और कुछ ही देर में खर्राटे भर रहा था वह।
सीमा बोतल लेकर अरुण के कमरे में जा पहुंची। अपने कमरे के बगल वाला कमरा दे दिया था उसने अरुण को। अरुण पलंग पर बैठा कुछ सोच रहा था। सीमा को देखते ही वोला-
“अरे… सीमा तुम…!”
“हाँ… ये सोमू ने दिया है…।” सीमा ने बोतल उसकी ओर बढ़ाई।
“ओह…!” बोतल लेकर बिस्तर पर रख दी उसने।
“और ये कुछ रुपये भी…।” सीमा ने रुपये उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।
अरुण ने रुपये लेकर जेब में रख लिए।
“बिना पिए मुझे नींद नहीं आती… इसलिए…।” वह वोला था आगे- “मज़बूरी है… पीनी पड़ती है…।”
“ओह… तो ये बात है…। बड़े अज़ीब शौक पाल रखे हैं…।” सीमा वोली थी।
“सो तो है…।” कहकर मुस्कुराया वह।
“बैसे… ये आदत कब से पड़ी तुम्हें…?”
“ठीक से याद नहीं…।” बताया था उसने- “पहले शौक के लिए पीता था… लेकिन… अब तो आदत बन गई है…।”
“पानी लेकर आऊँ…?” सीमा ने प्रश्नभरी निगाह से देखते हुए पूछा।
“किसलिए…?”
“अरे भई… बिना पानी के ही पी जाओगे क्या…?” कहकर मुस्कुराई सीमा।
“ओह हाँ…। ठीक है… ले आओ…।”
और सीमा पानी लेने चली गई। जब लौटी तो उसके हाथों में एक गिलास और पानी से भरा जग था।
“ये लो…।” सीमा ने जग उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।
“थैंक्स…!” कहकर उसने जग लेकर पलंग के सिरहाने रखी मेज पर टिका दिया। और गिलास भी ले लिया सीमा से।
“और कुछ चाहिए…?” सीमा ने पूछा था।
“नहीं…! अब कुछ नहीं चाहिए…।” अरुण ने इनकार में सिर हिलाया।
“कुछ नमकीन वगैरह…?” सीमा ने फिर पूछा।
“नहीं… कुछ नहीं…।”
“अच्छा… तो अब मैं चलती हूँ…।” सीमा ने जाने का उपक्रम करते हुए कहा।
“सीमा…!” पुकारा अरुण ने।
“अब क्या चाहिए…?” सीमा ने मुस्कुराते हुए पूछा।
“क्या तुमने कभी शराब पी है…?”
“न… बाबा न… मुझे तो देखते ही ‘बू’ लगती है…।” सीमा ने नाक सिकोड़ते हुए कहा।
“पीकर तो देखो…।”
“न… बाबा न…।” इनकार की मुद्रा में सिर हिलाया सीमा ने।
“एक बार… चख कर तो देखो…। सच कहता हूँ… मजा आ जायेगा…।”
“नहीं… मुझे नहीं चखनी… मुझे तो माफ़ ही करो तुम…।”
“कमऑन यार… चखकर तो देखो… एक बार चखने में क्या जाता है…?”
“ठीक है… तुम कहते हो तो… चखकर देख लेती हूँ…।” सीमा ने हार मानते हुये कहा।
“ये हुई न बात…। तुम बैठो… मैं पैग बनाता हूँ…।” बोतल उठाते हुए कहा उसने।
“ओ.के….!”
सीमा बिस्तर पर बैठ गई। अरुण ने बोतल खोली और शराब गिलास में उड़ेली। आधा पानी मिलाया। सीमा देखती रही उसे गौर से। गिलास सीमा की ओर बढ़ा दिया अरुण ने।
“ये लो… और पी जाओ…।”
“न बाबा… ये तो पूरा गिलास है…।” सीमा ने भरे गिलास की ओर देखा।
“अरे पीकर तो देखो…।” और गिलास सीमा के हाथों में थमा दिया उसने।
“नशा तो नहीं होगा न…?” गिलास थामते हुए पूछा सीमा ने।
“अरे इतने में तो कुछ नहीं होगा…। जरा सी तो है… पी जाओ…।” अरुण ने समझाया।
सीमा ने अरुण की ओर देखते हुए गिलास होठों से लगा लिया। अरुण मुस्कुरा रहा था। एक अर्थपूर्ण मुस्कान। एक घूंट भरते ही बुरा सा मुँह बनाया सीमा ने।
“बहुत कड़बी है…।”
“कमऑन यार… अभी तो एक घूंट भी नहीं गई… गले के अन्दर…।” अरुण ने कहा था सीमा से।
“ठीक है… तुम कहते हो तो…।” और गिलास होठों से लगा लिया उसने।
“आँख बंद करो और गटक जाओ…।” मुस्कुराते हुए कहा था अरुण ने।
सचमुच…। सीमा ने आँखें मूंद लीं। और तभी खोली जब पूरा गिलास गले से नीचे उतर गया। मुस्कुरा कर देखा सीमा ने उसकी ओर। वह भी मुस्कुरा रहा था।
“ये हुई न बात…लाओ गिलास मुझे दो…।”
सीमा ने खाली गिलास उसकी ओर बढ़ा दिया। फिर अरुण ने अपने लिए पैग बनाया। और एक ही साँस में खाली कर दिया उसने गिलास। मुस्कुरा कर देखा सीमा की तरफ। जो उसे आश्चर्य से देख रही थी। उसके बाद दूसरा पैग बनाया उसने अपने लिए। धीरे-धीरे वह भी खाली कर गया। और तीसरा पैग बनाने के बाद उसने पूछा सीमा से-
“कैसा लग रहा है अब तुम्हें…?” होठों पर मुस्कान खिली हुई थी।
“कुछ अज़ीब सा… महसूस कर रही हूँ… पता नहीं क्या होता जा रहा है मुझे अरुण… कुछ नशा सा…।” कहते हुए जुबान लड़खड़ा गई उसकी।
अरुण समझ गया कि उसे नशा बढ़ता जा रहा है। मुस्कुराया वह अपनी जीत पर। और तीसरा पैग उठाकर छोटे-छोटे घूंट भरने लगा वह।
“डोंट वरी… कुछ नहीं होगा…।” मुस्कुराते हुए कहा उसने।
“अरुण… मैं ख़ुद को… संभाल नहीं… पा रही हूँ… हिच…मेरे पास… आओ न…।” शराब ने अपना असर दिखा दिया। अब वह पूरी तरह नशे में थी।
अरुण के होठों की मुस्कान और गहरी होती गई। आधा खाली गिलास मेज पर रख दिया उसने। और सीमा को गोद में उठाकर पलंग पर सीधा लिटा दिया। गिलास उठाया और आखिरी घूंट भरकर उसने गिलास पुनः मेज पर रख दिया। और दरबाजे की ओर बढ़ गया वह। दरवाजा लॉक करके पलटा तो उसके होठों पर एक कुटिल मुस्कान थिरक रही थी। आँखों के डोरे लाल हो रहे थे उसके।
“दरवाजा… क्यों… बंद… हिच… कर… दिया… अरुण…?” सीमा ने उसकी ओर देखते हुए पूछा।
“सोने का टाइम हो गया न…।” मुस्कुराते हुए कहा अरुण ने। जुबान में कोई लड़खड़ाहट नहीं। मंझे हुए शराबी की पहिचान थी यह।
“मेरे पास… आओ… हिच… हम साथ… साथ… हिच… सोयेंगे…।” होठों पर मुस्कान थी उसके।
“इसीलिए तो दरवाजा बंद किया है… जानेमन…।” धीरे से बड़बड़ाया वह।
“आओ न…।” सीमा ने उसी अंदाज़ में कहा।
अरुण पलंग के पास जा पहुँचा।
“खड़े क्यों… हिच… हो…? आओ… मेरे पास…।” सीमा ने अपनी दोनों बाहें फैलाते हुए कहा।
नशा बुरी तरह हावी हो चुका था उस पर।
“एक मिनट जानेमन…। कपड़े तो उतार दूँ…।” अरुण ने अपने सारे कपड़े उतारने शुरू कर दिए।
“उ… हूँ…।” बच्चों की तरह ठुनकी थी वह। अरुण की तरफ फैली बाँहों का भार सह न सकी। और नीचे कर लीं उसने अपनी सुडौल बांहें। नशे की अधिकता से पलकें मुंद गई थीं उसकी।
कपड़े उतार कर कुर्सी पर फेंक दिए अरुण ने। सीमा के पास बिस्तर पर जा बैठा वह। उसके कपड़े भी उतारने शुरू कर दिए उसने।
“ये क्या… कर… हिच… रहे हो… अरुण? सीमा ने अधखुली पलकों से देखा उसको।
“सोने की तैयारी कर रहा हूँ…।” उसकी मुस्कराहट और भी कुटिल होती जा रही थी।
सचमुच…। वह उस दौर से गुजर रहा था, जहाँ आकर सामान्य पुरुष जानवर बन जाता है। हैवानियत हावी हो जाती है उस पर। याद रहती है तो सिर्फ वासना।
और वे दोनों भी वासना के सागर में डूब जाने को लालायित थे।
अरुण ने सीमा के सारे कपड़े उतार फैंके। फिर दोनों जवां शरीर एक दूसरे में खोते चले गए। सीमा शराब के नशे में अंधी बन गई थी। भूल गई थी वह कि एक पाप कर रही है। अपना सबकुछ लुटा चुकी थी वह अरुण को। और वह बहशी बना लूटता रहा उसे। तब तक, जब तक कि उसकी हबस शांत न हो गई।
और जब वासना की ख़ुमारी उतरी तो उसने बैड-स्विच से कमरे की लाइट ऑफ की और सीमा के निर्बस्त्र शरीर को बाँहों में लेकर लेट गया। सीमा उसे चूम रही थी। और थोड़ी देर बाद दोनों नींद के आगोश में थे।
सीमा की नींद खुली तो उसने अरुण को कपड़े पहनते हुए पाया। ख़ुद पर नज़र पड़ी तो सिहर उठी वह। झट से चादर खींच ली अपने निर्बस्त्र शरीर पर।
“यू इडियट… बाहर निकलो…।” सीमा ने लगभग चीखते हुए कहा।
“क्यों…?” मुस्कुराते हुए देखा उसने सीमा को- “क्या हुआ…?” शर्ट के बटन लगा रहा था वह।
“मुझे कपड़े पहनने हैं…।” कहते हुए नज़र झुक गई सीमा की।
“क्यों…? शर्म आ रही है…?” होठों की मुस्कराहट और गहरी हो गई थी अरुण के।
“मैं कहती हूँ… बाहर जाओ…।” सीमा ने फिर से उसी अंदाज़ में कहा।
“ठीक है… जाता हूँ… लेकिन… रात को भरपूर साथ दिया तुमने मेरा… सच कहता हूँ… मजा ही आ गया…।”
“बाहर निकलो वरना…।” सीमा गुर्राई थी।
“ओ.के….। मैं बाहर… दरवाजे के पास ही खड़ा हूँ… मेरी जरुरत पड़े तो बुला लेना मुझे…।” शरारती मुस्कान थी अरुण के होठों पर।
वह बाहर निकल गया। सीमा घूर कर देखती रही थी उसे।
वह बिस्तर से उठी। उठकर कपड़े पहने। दीवार घड़ी पर नज़र पड़ी तो देखा, सुबह के पांच बजे हैं। सीमा बाहर निकली। अरुण सचमुच वहीँ खड़ा था। दरवाजे के पास।
“कहाँ जा रही हो…?” मुस्कुराते हुए पूछा उसने।
“अपने कमरे में…।” सीमा ने जवाब दिया।
“मुझे अकेला छोड़कर…।” शरारत थी उसके स्वर में।
“अरुण…।” गुर्राने वाला अंदाज़ था उसका- “सबेरा हो चुका है… भईया कभी भी आ सकते हैं…। तुम भी अपने कमरे में जाओ…।”
“ठीक है जानेमन…। तुम कहती हो तो जाते हैं…।”
सीमा ने घूरकर देखा एक बार उसे। और फिर अपने कमरे में जा घुसी। अरुण भी मुस्कुराते हुए अपने कमरे में आ गया। और आराम करने के इरादे से बिस्तर पर लेट गया फिर से।
सीमा अपने कमरे में आकर पलंग पर बैठ गई। रात वाली घटना के बारे में सोच रही थी वह।
जवानी की दहलीज पर आकर उसके कदम बहक चुके थे। एक बहुत बड़ी भूल कर बैठी थी वह। क्या सीमा इसे भुला पायेगी? शायद। नारी के लिए उसका सतीत्व ही उसका सबसे अनमोल गहना होता है। उसकी सबसे बड़ी पूंजी होती है। और वही सीमा लुटा चुकी थी। सीमा पलंग पर बैठी सोचती रही थी कुछ।
सुबह सात बजे ही नरेतर लौट आया था। अरुण ने उससे थोड़ी देर कुछ बातचीत की और फिर चाय पीकर चला गया था वह। नरेतर भी अपने साथियों के साथ अपने ठिकाने पर चला गया था।
सीमा एक बार बहकी तो फिर बहकती ही चली गई। अरुण अक्सर नरेतर की अनुपस्थिति में वहाँ आ जाया करता। दोनों अपनी हबस मिटाते। सुबह होते ही चला जाता था वह। सोमू से यह बात छिपी न रह सकी थी। लेकिन वह करता भी तो क्या? नौकर जो ठहरा। उसने कई बार सोचा कि नरेतर को इस बारे में बता दे। लेकिन सीमा के भय से वह कुछ न कह सका।
अरुण कभी-कभी ही आता था। लेकिन सीमा की हबस बढ़ती ही गई। अरुण के अलाबा भी कई आवारा लड़कों से उसने नजदीकियां बढ़ा ली थीं। उसका जब जी चाहता, अपने हजारी बाग वाले बंगले पर जा पहुंचती। और साथ में होता कोई नौजवान। शराब की बोतल। पहले शराब का दौर चलता… फिर शबाब का। सीमा इस बात को बिलकुल भुला चुकी थी कि जिसे वह स्वर्ग-सुख समझ कर भोग रही है, वही उसके लिए नर्क बन जायेगा एक दिन।
वास्तव में वह नर्क भोग रही थी। पर-स्त्री गमन… पर-पुरुष गमन… व्यभिचार… झूठ… क्रोध… विलासिता… अमानवीयता… निर्दयता… ये सब नर्क की ही तो निशानियाँ हैं। और ये सब सीमा के घर में मौजूद था।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ३०
रवि की चोट अब पूरी तरह ठीक हो चुकी थी। कॉलेज भी जाने लगा था वह।
“करन… क्या बात है…?” क्लास रूम से निकलते हुए पूछा रवि ने- “बहुत परेशान लग रहे हो…? लेक्चर में भी तुम्हारा मन नहीं लग रहा था…।”
“क्या बताऊँ यार…! मैं बहुत परेशान हूँ…।”
“क्यों…? क्या हुआ…?” रवि ने उसके कन्धों पर हाथ रखते हुए पूछा- “बता तो सही…।”
“माँ की तबियत बिगड़ती जा रही है…। डॉक्टर ने कहा है कि उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती कराना पड़ेगा…। कह रहे थे कि खून भी चढ़वाना पड़ सकता है…। मेरा ब्लड ग्रुप माँ के ब्लड ग्रुप से मैच नहीं करता…।” करन के चेहरे पर परेशानी के भाव उभर आये थे- “समझ में नहीं आता कि क्या करूँ…? कहाँ से करूँ मैं खून की व्यवस्था…। इतने रुपये भी तो नहीं हैं मेरे पास…। ट्यूशन करके जो कुछ भी मिलता है… सब दबाई और मेरी पढाई में खर्च हो जाता है…!”
“माँ की तबियत ख़राब है… और तू मुझे अब बता रहा है…।” शिकायत थी उसके स्वर में- “मेरी भी तो माँ है वो…।”
“रवि…!” उसके कंधे पर सिर रखकर सिसक पड़ा था वह।
“चिंता मत कर… मैं अपना ग्रुप चैक कराऊंगा… शायद एक ही हो… उसके बाद कुछ और सोचेंगे…।” रवि ने सांत्वना दी।
“भगवान तुम जैसा दोस्त सबको दे…।” आंसू पोंछते हुए उसने कहा था।
“अब जल्दी चलो… इस वक्त माँ को हमारी शख्त जरुरत है…।” रवि वोला था।
“ठीक कहते हो तुम…।”
“मैं शोभा को बता दूँ… वह परेशान हो जाएगी ढूँढते-ढूँढते…।”
“ठीक है…।”
और वे दोनों आगे बढ़ गए।
ज्यादा देर नहीं लगी शोभा को ढूढ़ने में। शोभा को बताकर दोनों चल पड़े थे।
सबसे पहले शारदा देवी को हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया। उसके बाद रवि ने अपना ब्लड ग्रुप चेक कराया। संयोग से उसका ग्रुप शारदा देवी के ग्रुप से मिल गया।
डॉक्टर ने उसके शरीर से खून निकालना शुरू कर दिया। खून निकल जाने के बाद जब वह उठा तो थोड़ी सी थकावट महसूस कर रहा था। और थोड़ी देर में डॉक्टर ने शारदा देवी को खून चढ़ाना शुरू कर दिया। शारदा देवी की नशों से होता हुआ खून उनके शरीर में पहुँच रहा था। वे निश्चल लेटी हुई थीं। बिना हरकत के। पलकें बंद थी उनकी।
“अच्छा करन… अब मैं चलता हूँ… किसी बात की परेशानी हो तो तुरंत ख़बर करना…। ये कुछ रुपये हैं…।” रवि ने कुछ रुपये निकाल कर करन को थमाए- “रख ले… सब ठीक हो जायेगा…।”
“रवि…! मैं कैसे शुक्रिया अदा करूँ तेरा…। सचमुच… तू महान है…।” आँखों में आंसू छलक आये थे उसकी- “पिछले जन्म में जरुर कुछ पुण्य किये होंगे मैंने… जो तेरे जैसा दोस्त मिला मुझे…।”
“दोस्त कहता है… और… शुक्रिया भी अदा करना चाहता है…।” करन के आंसू पोंछ दिए थे उसने- “पगले… केवल तेरी ही माँ नहीं है वो… मेरा भी हक़ बनता है उन पर…। दोस्तों में कुछ बंटा होता है क्या…?”
“ठीक कहते हो तुम…।” करन का स्वर एक दम शर्द था।
“अच्छा… अब मैं चलता हूँ… कोई प्रॉब्लम हो तो तुरंत ख़बर करना…।”
“ठीक है…।”
और रवि चला गया वहाँ से। घर पहुँचा तो शीला देवी ने देखते ही पूछा-
“आ गए बेटे तुम… शोभा बता रही थी कि…।”
“हाँ मम्मी… करन की माँ बहुत बीमार है…। खून चढ़ाया गया है उन्हें…।” रवि बीच में ही वोल पड़ा।
“तभी तेरी सूरत पीली पड़ी हुई है…।” शीला देवी ने गौर से देखा था उसे।
सकपका गया था वह। रवि शीला देवी को नहीं बताना चाहता था कि उसने ही खून दिया है। नाहक परेशान हो उठेंगी वह।
“दोस्त की माँ… और… तुम में… कोई फर्क नहीं समझता मैं… इसलिए चिंता तो होनी ही है…।” रवि ने समझाया था शीला देवी को।
“कभी-कभी सोचती हूँ… कि… इस धरती पर कैसे आ गया तू…?” शीला देवी का स्वर भावुक हो चला था।
“जैसे आप आ गई मम्मी…।” मुस्कराहट चेहरे पर बिखर गई उसके।
“सच कहती हूँ बेटा… कभी-कभी तो तेरा सम्मान करने को जी करता है…।” शीला देवी ने उसके बालों को सहलाते हुए कहा।
“आप भी कमाल करती हैं मम्मी… यह कहकर पाप का भागी क्यों बनाती हैं मुझे…।” रवि ने माँ के चेहरे की ओर देखा।
“तुझसे कोई जीत सका है भला…।” कहकर उन्होंने अपने सीने से लगा लिया उसे। वह भी किसी मासूम बच्चे की तरह छिपक गया।
“बेटा जो ठहरा आपका…।” कहकर मुस्कुराया वह।
“अच्छा अब जाकर हाथ मुँह धोले… गीता खाना लगा रही होगी शायद…। वहीँ आ जाना…।”
“ठीक है मम्मी…। मैं अभी आया…।” कहकर अपने कमरे की ओर चला गया रवि।
कमरे में पहुँचा तो देखा, नीता बिस्तर लगा रही थी।
“आ गए आप…।” मुस्कुरा कर देखा उसने रवि की ओर।
नीता बहुत प्यारी लगी रवि को मुस्कुराते हुए।
“क्यों…? नहीं आना चाहिए था क्या…?” वह भी मुस्कुराया।
“आते ही शुरू हो गए न…।” चादर बिछा रही थी वह बिस्तर पर।
“क्या किया मैंने…?” अनजान बनते हुए पूछा रवि ने।
“फिर से शरारत… और क्या…?” मुस्कुराते हुए पलट कर देखा उसने।
“इसके अलाबा कुछ सिखाया भी तो नहीं तुमने…।” रवि फिर मुस्कुराया।
“हाय राम…! मैं सिखाती हूँ शरारत करना आपको…?”
“और नहीं तो क्या मैं किसी और से सीख रहा हूँ…?”
“आप बाज नहीं आयेंगे…।”
“उ… हूँ…!”
नीता ने चुप रहना ही ठीक समझा। बिस्तर ठीक कर चुकी थी वह। सिरहाने तकिया रख रही थी तभी मुड़कर देखा, रवि अपना सिर थामे खड़ा था।
“क्या हुआ आपको…?” स्वर में चिंता के भाव थे।
“नीता जरा पानी लाना…।”
“आप बैठिये इधर…।” उसने हाथ पकड़ कर उसे बिस्तर पर बिठा दिया।
झट से पानी लेकर आई वह। और गिलास उसकी ओर बढ़ा दिया। गौर से देखा तो रवि का चेहरा कुछ थका-थका सा दिखा उसे।
“क्या बात है…? आपका चेहरा पीला सा क्यों हो रहा है…?” वह पानी पी चुका तो नीता ने पूछा।
“न… नहीं तो…।” उसने नज़रें चुराते हुए कहा।
“आप जरुर मुझसे कुछ छुपा रहे हैं…। बताइए न… क्या बात है…? ये अचानक से क्या हुआ आपको…?” स्वर में चिंता और घवराहट के भाव थे।
“नीता ऐसी कोई बात नहीं है…।”
“पहले आप लेट जाइये…।” उसने सहारा देकर रवि को बिस्तर पर लिटा दिया था।
“जरा सा सर चकरा गया बस… और कुछ नहीं…।”
“क्या मुझसे भी छुपायेंगे आप…?” नीता ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
“ये क्या कह रही हो तुम…?” स्वर व्यथित हो चला था उसका- “कभी सोचना भी मत कि… मैं तुमसे कुछ छुपाऊंगा…। मैं तो बस ये सोच रहा था कि… तुम नाहक परेशान हो उठोगी…।”
“आप मुझे बताइये तो सही…।” नीता ने जिद करते हुए कहा।
“ठीक है… बताता हूँ… लेकिन…।”
“लेकिन क्या…?” बीच में ही वोल पड़ी नीता।
“वादा करो कि… किसी को भी नहीं बताओगी तुम…। बेवजह परेशान हो उठेंगे सभी…।”
“ठीक है…! मैं किसी को भी नहीं बताउंगी…।” नीता एक गहरी साँस छोड़ते हुए वोली।
“वो करन की माँ को खून की जरुरत थी… सो मैंने अपना खून निकलवा दिया…।” शांत स्वर था रवि का।
“क्या…?”
“हाँ नीता…! खून की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी… सौभाग्य से मेरा ग्रुप मिल गया तो…।”
“आप दूसरों के लिए ख़ुद की जान जोखिम में क्यों डाल लेते हैं…?” गला भर आया था उसका- “अभी सिर की चोट ठीक हो पाई थी… और अब…।”
“किसी के काम आना ही तो ज़िन्दगी है नीता…। और वे कोई गैर नहीं… दोस्त की माँ हैं… और… मेरी माँ समान हैं…। फिर कैसे मैं…?”
“बाकई… मैं बहुत खुशनसीब हूँ…।” नीता ने भावुक होते हुए कहा।
“मुझसे ज्यादा नहीं…।” रवि मुस्कुराया।
“…….”
“मम्मी इंतज़ार कर रही होंगी… खाने के लिए बुलाया था… इंतज़ार कर रहे होंगे सब… हमें भी चलना चाहिए…।” रवि ने उठते हुए कहा।
“हाँ चलिए…।” नीता ने सहारा देकर उठाया उसे।
“अरे… मैं अच्छा भला हूँ… क्यों परेशान होती हो…।” रवि खड़ा होता हुआ वोला।
“पता है मुझे… अब चलो… हाथ मुँह धो लीजिये… और जल्दी से आ जाइये…।” नीता ने प्यार से कहा था।
रवि बाथरूम में चला गया था। और नीता बाहर।
थोड़ी देर में ही रवि खाने की मेज पर था। खाने के दौरान रवि ने मोहन बाबू को करन की माँ के बारे में बताया तो वे भी चिंतित हो उठे थे। आकाश ने तो यहाँ तक कह दिया था कि अगर उसे रुपयों की जरुरत हो तो ले जाये। मोहन बाबू ने भी सहमति जताई थी। रवि ने अपने खून देने की बात छुपा ली थी। बेवजह परेशान नहीं होने देना चाहता था वह सबको।
खाने के बाद सब अपने अपने कमरे में चले गए। नीता सारा काम निपटाकर रसोई में गई। फ्रिज खोलकर देखा। कुछ फल पड़े थे। उनमें से दो तीन अनार लेकर जूस निकाला उसने। और जूस से भरा गिलास लेकर वह रवि के कमरे में जा पहुंची। रवि शायद किसी किताब के पन्ने पलट रहा था।
“अब क्या लाई हो…?” नीता के हाथ में गिलास देखकर वोला वह।
“जूस…।”
“लेकिन…।”
“लेकिन… वेकिन कुछ नहीं… मुँह खोलिए…।” पास आते हुए वोली वह।
“अच्छा बाबा…।” सीधा बैठते हुए वोला वह।
और नीता ने जूस का गिलास रवि के होठों से लगा दिया। रवि नीता को निहारता जा रहा था और जूस भी पीता जा रहा था।
“बस… हो गया…।” जूस ख़तम करते हुए मुस्कुराया वह।
“ऐसे ही रोज सुबह शाम पीना पड़ेगा…।” गिलास मेज पर रखते हुए वोली वह।
“अरे बाप रे…।”
“और नहीं तो क्या…? वरना कमजोरी सताने लगेगी…। खून निकलवाने के बाद कितनी परेशानी होती है… मैं जानती हूँ…।”
“मुझे कोई परेशानी नहीं है… तुम तो यूँ ही फ़िक्र कर रही हो…।”
“देखूं जरा…।” नीता उसके पैरों के पास बैठ गई और तलवों पर हाथ फेरने लगी- “कितने गर्म रखे हैं… जलन भी मच रही होगी…।”
“……..” रवि कुछ न वोला।
“मुझे मालूम है… आप नहीं बताओगे…।” कहते हुए वह तलवे सहलाने लगी- “बिलकुल भी ख़याल नहीं रखते अपना…।”
“तुम जो रखती हो…।” रवि ने मुस्कुराते हुए कहा।
“वो तो मैं रखूंगी ही…। अब सो जाइये…।”
“तुम भी तो सो जाओ…।”
“आप सो जाइये… फिर मैं भी सो जाऊँगी…।” और वह पैर दबाने लगी थी। रवि ख़ामोश ही रहा फिर। जानता था कि जब तक वो सो नहीं जायेगा, नीता भी जागती रहेगी।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ३१
सरस्वती नगर की गली नंबर 10 के आखिरी छोर पर एक टैक्सी आकर रुकी। उसमें से एक बृद्ध उतरा। ये दयाराम थे। भाड़ा चुकाने के लिए कुर्ते की जेब में हाथ डाला।
“कितना हुआ भईया…?” रुपये निकालते हुए उन्होंने पूछा।
“जी दस रूपया हुआ सा’ब…।” मीटर देखते हुए जवाब दिया उसने।
“ये लो भईया…।” उन्होंने दस का नोट आगे बढ़ा दिया था।
“शुक्रिया सा’ब…।” उसने नोट थामकर जेब में डाला और टैक्सी आगे बढ़ा दी।
दयाराम ने पलट कर देखा। सामने की बिल्डिंग के बड़े गेट पर लिखा था- “अयोध्या-सदन”। वह आगे बढ़ गया। संयोग से गेट के दाहिनी ओर लगी आदमकद खिड़की खुली हुई थी। उसने खिड़की अन्दर की ओर धकेली और मुस्कुराते हुए अन्दर घुस गया वह। थोड़ा सा झुकना पड़ा था उसे।
“पापा आप…!” नीता क्यारियों में पानी दे रही थी। दयाराम को देखते ही ख़ुशी से झूम उठी वह। दौड़कर उसके सीने से जा लगी।
“कैसी है मेरी बच्ची…?” उन्होंने दुलारते हुए पूछा।
“ख़ुद ही देख लो…।” नीता ने जवाब दिया।
“ये चमकता हुआ चेहरा देख तो यही लगता है कि… बहुत सुखी है तू…।” और उन्होंने नीता का चेहरा अपनी हथेलियों में ले लिया।
“हाँ पापा…! बाकई मैं बहुत खुश हूँ…।” नीता ने उनके हाथ थामते हुए जवाब दिया।
“गीता अन्दर ही है न…।” दयाराम ने बरामदे की ओर नज़र दौड़ाते हुए पूछा।
“हाँ पापा…। आइये अन्दर चलें…। बहुत खुश होगी दीदी… आपको देखकर…।” नीता ने अपने पिता का बांया हाथ अपने कन्धों पर रखते हुए कहा।
और दोनों बरामदे की ओर चल पड़े। दोनों बातचीत करते हुए बरामदे में भी पहुँच गए।
“कौन है नीता…?” बातचीत के स्वर सुनकर गीता कमरे से बाहर निकली।
सामने अपने पिता को पाकर उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा।
“पापा…!” दौड़कर जा लगी सीने से। स्वर ख़ुशी से कांप गया था।
“मेरी बच्ची…! कैसी है तू…?” सीने से लगाये हुए ही पूछा उन्होंने।
“एक दम बढ़िया…। खा… खाकर मोटी होती जा रही हूँ…।” गीता ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
“वो तो मुझे देखते ही लग रहा है…।” वह भी मुस्कुरा उठे।
“आइये न… अन्दर बैठक में चलते हैं… मम्मी भी वहीँ बैठी हैं…।” गीता ने आगे बढ़ने का उपक्रम करते हुए कहा।
“हाँ… हाँ… चलो…!” उन्होंने सहमति जताई।
तीनों आगे बढ़े। गीता और नीता अपने पिता की बांहें थामे बैठक की ओर जा रही थीं। बैठक में पहुँचते ही-
“मम्मी…!” गीता ने पुकारा।
“क्या है बेटी…?” शीला देवी आराम कुर्सी पर आराम फरमा रही थीं। गीता की आवाज़ सुनकर पूछा था उन्होंने। वे गीता और नीता को बेटी कहकर ही पुकारती थीं।
“देखिये तो… कौन आया है…?” ख़ुशी साफ झलक रही थी स्वर में।
तीनों शीला देवी के सामने आ पहुंचे थे।
“अरे भईया आप…।” दयाराम को देखते ही उनके चेहरे पर ख़ुशी छलक पड़ी।
“हाँ भाभी जी…।” दयाराम ने जवाब दिया- “तीर्थ यात्रा पर जा रहा था… सोचा… पहले आपके दर्शन करता चलूँ…।” शीला देवी के क़दमों में झुक गए वह।
“अरे…! अरे…!! ये क्या कर रहे हैं आप…?” शीला देवी ने उन्हें बीच में ही थाम लिया।
“ये तो मेरा हक़ है भाभी जी…।” दयाराम ने श्रद्धा से उनकी ओर देखते हुए कहा।
“और मेरा हक़ है कि… ये सब करने से… मैं आपको रोकूँ…।” स्वर में दृढ़ता थी।
“क्या आप मुझे… आशीर्वाद नहीं देना चाहतीं…?” स्वर में कृतज्ञता थी।
“ये क्या कह रहे हैं भईया आप…?” शीला देवी का स्वर व्यथित हो चला- “आशीर्वाद… वो भी मैं… आशीर्वाद तो छोटों को दिया जाता है भईया… और आप तो… मैं भला आपको आशीर्वाद कैसे दे सकती हूँ… ये कहकर तो आप मुझे लज्जित कर रहे हैं…।”
“ये तो आपका बड़प्पन है…।” दयाराम ने सरल स्वर में कहा।
“खैर छोडिये…। बैठिये तो सही… आप तो खड़े रह गए…।”
दयाराम सामने के सोफे पर जा बैठे। गीता और नीता भी उनके पास बैठ गईं।
“अरे नीता…।” शीला देवी ने नीता की ओर देखते हुए पुकारा।
“जी मम्मी जी…!” जवाब मिला उन्हें।
“भईया के लिए कुछ… चाय पानी लेकर आओ भई…।” शीला देवी ने मुस्कुराते हुए कहा।
“नहीं भाभी जी…। मैं अभी कुछ नहीं लूँगा…।” दयाराम ने बीच में ही टोक दिया- “घर से खा-पीकर सीधा इधर ही आ रहा हूँ…।”
“ये क्या बात हुई भईया… कुछ तो…?”
“नहीं भाभी जी…। कुछ भी नहीं…।”
“जैसी आपकी इच्छा…। वैसे बहुत ही अच्छा किया जो आप यहाँ चले आये… कितना वक्त गुजर गया आपको देखे बिना…।”
“मेरा मन भी बहुत दिनों से आप लोगों को देखने को आतुर था…।”
“अब आये हैं तो कुछ दिन… हमारे यहाँ भी रह जाइये…।” अनुरोध था शीला देवी के स्वर में।
“नहीं भाभी जी…। हमें क्षमा करना…।” उन्होंने असहमति जताई- “हम जरा पुराने संस्कारों में ढले हुए हैं… बेटी की ससुराल में आराम फरमाना बहुत बड़ा पाप है हमारे लिए… हमें इस पाप का भोगी न बनाइये…।”
“ये क्या बात हुई भईया…? दो चार दिन रुकने में क्या हर्ज है…? अपना ही तो घर है…।” शीला देवी ने फिर विनय किया।
“नहीं…! नहीं…!! भाभी जी… हमें तो माफ़ ही कीजिये आप…।” हाथ जुड़ गए थे उनके- “बेटियों को स्वर्ग सी ससुराल मिल गई… और क्या चाहिए हमें…। हर बाप का एक ही सपना होता है कि… उसकी संतान सुखी रहे…। मैं बहुत खुशनसीब हूँ… जो आप लोगों की कृपा से अपने इस सपने को पूरा कर सका…। इस घर जैसी खुशियाँ… शायद ही इन्हें स्वर्ग में नसीब होंगी…। सचमुच… स्वर्ग से भी बढ़कर है यह घर…।”
कुछ पल रुके थे वे। शीला देवी देखती रही थीं उन्हें। अवाक्। गीता और नीता भी शांत थीं।
“अब तो बस… एक ही ख्वाहिश रह गई है इस दिल में…।” दयाराम आगे कहते गए- “मरने से पहले चारों धाम हो आऊँ बस… फिर चाहे जब बुलावा आ जाये… ख़ुशी-ख़ुशी जा सकूँगा…।”
“पापा…!” एक साथ वोली थीं गीता और नीता। स्वर में दर्द था।
दयाराम ने बांहें फैलाकर अपनी दोनों बेटियों को सीने से लगा लिया।
“जाना तो सभी को है एक दिन… प्रकृति का यही नियम है…।” दयाराम ने समझाते हुए कहा- “इंसान चला जाता है… कर्म शेष रह जाते हैं… सच पूंछो तो… आदमी की पहचान… उसके मरने के बाद ही होती है…।”
“सत्य कहते हो भईया… मरणोपरांत जिसे उसके सद्कर्मो के लिए याद किया जाये… वही सच्चा इंसान है… और उसी का जीवन सफल है…।” शीला देवी वोली थीं इस बार।
बातचीत चल ही रही थी तभी शोभा और कंचन भी कॉलेज से लौट आईं थी। दयाराम को देखते ही शोभा वोल पड़ी-
“अंकल जी…! नहीं मैं आपको पापा बोलूंगी…।” ख़ुद ही निर्णय लिया उसने- “आपको कोई ऐतराज तो नहीं है न…।”
“कैसी बातें करती हो बेटी…? भला मैं कैसे ऐतराज कर सकता हूँ…।” मुस्कुराते हुए कहा उन्होंने।
“अच्छा फिर भी आप अपनी दो बेटियों पर ही प्यार बरसाए जा रहे हैं…।” कृत्रिम नाराजगी जताई शोभा ने- “मेरा नंबर कब आयेगा…?” कहते हुए किताबें मेज पर फेंक दी उसने। और दयाराम के क़रीब पहुँच गई थी वह।
“मेरी बच्ची…!” दयाराम ने अपनी दोनों भुजाएं उसकी ओर फैला दीं।
वह उनके सीने से जा लगी।
“कितना खुशनसीब हूँ मैं…?” दयाराम ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा।
“दीदी… मैं सबसे छोटी हूँ… सबसे ज्यादा प्यार तो… मुझे मिलना चाहिए…। क्यों पापा जी…?” कंचन जो अब तक चुपचाप खड़ी देख रही थी। वोल ही पड़ी। चेहरे पर मासूमियत झलक रही थी उसके।
सभी हँसने लगे थे उसकी बात पर।
“हाँ…! हाँ…!! सबसे ज्यादा हक़ तो… तुम्हारा ही है हम पर…। आओ बिटिया रानी… हमारे पास आओ…।” उन्होंने अपने हाथ बढ़ा दिए। शोभा उनके पास ही बैठ गई।
और कंचन आगे बढ़ी।
जाकर बैठ गई थी उनकी गोद में।
शीला देवी भाव विह्वल हो देख रही थीं यह सब। उन्होंने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए शोभा से पूछा-
“आज जल्दी आ गईं बेटी…?”
“हाँ मम्मी…!”
“तुम्हारे भईया नहीं आये…?” नीता ने रवि के बारे में पूछा था।
“भईया शारदा आंटी को देखने हॉस्पिटल गए हैं भाभी…। उन्होंने ही हमें टैक्सी में बिठा दिया था…।” शोभा ने सहज स्वर में जवाब दिया।
“हॉस्पिटल…! क्या कोई बीमार है…?” दयाराम ने पूछा।
“पापाजी वो… रवि भईया के एक दोस्त हैं… करन… उनकी माँ की तबियत कुछ ख़राब है…।” शोभा ने बताया।
“ओह…!” उन्होंने खेद प्रकट किया- “क्या बीमारी है उन्हें…?”
“डॉक्टर ने उन्हें… ब्लड कैंसर बताया है…।”
“हे भगवान…! ये तो बहुत भयंकर रोग है…।” स्वर में चिंता थी दयाराम के।
“हाँ भईया…। इसमें इंसान की मौत कभी भी हो सकती है…।” शीला देवी ने भी उसी अंदाज़ में कहा- “बेचारा करन बहुत दुखी होगा…। शारदा देवी के अलावा… कोई है भी तो नहीं उसका…। वह तो अनाथ हो जायेगा…।”
“ये तो बहुत नाइंसाफी होगी उसके साथ…।” दयाराम का स्वर शर्द हो चला- “ऊपर वाला भी… कैसे-कैसे खेल खेलता रहता है…?”
“भगवान करे… वो जल्दी ठीक हो जाएँ…।” शीला देवी ने ठंडी साँस लेते हुए कहा।
और फिर काफी देर तक शांति छाई रही वहाँ।
एक दुखद शांति।
जिसे भंग किया कंचन की मधुर आवाज़ ने। जो अभी भी दयाराम की गोद में बैठी थी।
“मैं अभी आती हूँ पापाजी…।” कहते हुए उतर गई गोद से वह।
“अच्छा बिटिया…!”
कंचन किताबें उठाकर अन्दर चली गई।

“बड़ी प्यारी है…।” दयाराम ने मुस्कुराकर शीला देवी की तरफ देखा।
“प्यारी नहीं…। शरारती कहो पापाजी… शरारती…।” शोभा ने बीच में बोलते हुए कहा- “एक नंबर की शैतान है…।”
“छोटी ननद जो ठहरी…।” कहते हुए गीता हँसी।
तो बाकी सब भी हंस पड़े।
“मैं अभी आई…।” शोभा भी उठ खड़ी हुई।
“तुम कहाँ चली…?” शीला देवी ने पूछा।
“कपड़े बदलने…।” किताबें उठाते हुए वोली वह। शोभा भी चली गई अपने कमरे की ओर।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ३२
रवि हॉस्पिटल से लौट आया था। बैठक में दयाराम को बैठा देख चौंक पड़ा वह-
“अरे पापा आप…!” स्वर में आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी झलक रही थी।
“हाँ बेटे… तुम लोगों को देखने को मन किया… तो चला आया…।” मुस्कुराते हुए जवाब दिया उन्होंने।
“ये तो बहुत अच्छा किया आपने…।”
सोफे की तरफ बढ़ गया वह। दयाराम ने उठकर उसे गले से लगा लिया।
“बैठो बेटा…।”
रवि बैठ गया सोफे पर। हाथ में पकड़ी किताबें भी सोफे पर रख ली उसने।
“शोभा…!” रवि ने पास बैठी शोभा की ओर देखा।
“जी भईया…!” जवाब दिया शोभा ने।
“जरा पानी लेकर आओ बेटा…।”
शोभा उठ ही रही थी कि तभी नीता हाथ में पानी का गिलास थामे आ चुकी थी वहाँ। रवि की आवाज़ सुन चुकी थी वह किचिन से। जान गई थी कि रवि आ चुका है।
“ये लीजिये… पानी पी लीजिये…।” गिलास रवि की ओर बढाया उसने।
नीता के हाथ से गिलास लेकर पानी पीने लगा वह। पानी पीने के बाद खाली गिलास नीता की ओर बढ़ा दिया।
“और लाऊं…?” पूछा था नीता ने।
“नहीं बस…।”
नीता ने सोफे पर रखी किताबें उठाई और वापस लौट गई।
”अब कैसी तबियत है शारदा बहन की…?” काफी देर से शांत बैठी शीला देवी ने पूंछ ही लिया।
“पहले से ठीक है…।” रवि वोला था।
“भगवान करे… जल्दी ही ठीक हो जाएँ…।” शीला देवी ने एक लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा- “बेचारा करन बहुत दुखी होगा…।”
“दुःख की तो बात ही है मम्मी…।” रवि का स्वर शर्द हो चला था- “कैंसर है उनको… कभी भी कुछ भी हो सकता है मम्मी…।”
“ठीक कहते हो बेटा…।” दयाराम जी वोले- “बहुत भयंकर रोग है ये…।”
“भईया…!” कंचन का स्वर उभरा।
“वोलो बेटा…!”
“क्या आंटी कभी ठीक नहीं होंगी…?”
पल भर देखता रह गया था रवि उसको। कैसा प्रश्न पूंछ लिया उसने। कैसे कह दे कि मौत कभी भी हो सकती है उनकी। कंचन के कोमल मन पर कैसा प्रभाव पड़ेगा इसका? परन्तु सत्य तो सत्य ही है।
“कौन जान सकता है बेटा…?” रवि ने जवाब दिया। थका-थका सा स्वर था उसका- “ईश्वर ने चाहा तो जल्दी ही ठीक हो जाएँगी…।”
और फिर अन्य बातें होती रहीं।
आकाश और मोहन बाबू भी आ चुके थे। मिलना-मिलाना हुआ और काफी देर तक बार्तालाप भी।
गीता और नीता के अलावा सभी बैठे थे बैठक में। वे दोनों खाना बनाने में जुटी थीं।
“अच्छा भाई साहब…।” दयाराम ने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए- “अब मैं चलता हूँ…।”
“ये क्या कह रहे हैं भईया…?” मोहन बाबू वोले- “अभी तो आये हैं आप… और अभी जाने की बात कर रहे हैं…।”
“ग्यारह बजे की गाड़ी है भाई साहब… अब आज्ञा दीजिये…।” दयाराम ने इजाज़त लेनी चाही।
“तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं तो… मना भी नहीं कर सकता… लेकिन… हमारे यहाँ भी… कुछ दिन रह जाते तो… हमें बड़ी ख़ुशी होती भईया…।” मोहन बाबू का स्वर दुखी हो गया था- “कुछ देर और रुकिए भईया… खाना खाकर ही जाइएगा…।”
“नहीं…! नहीं…!! भईया… हमें पाप में न डालिए… बेटी के घर का पानी भी हराम है हमारे लिए तो…।” दयाराम के स्वर में बिनती के भाव थे।
“भईया आप भी…? ये भी क्या बात हुई…?” मोहन बाबू ने नाराजगी जताई।
“पापा…!” शोभा ने दयाराम की ओर देखा- “इस बेटी के घर का खाना खाने में क्या हर्ज है आपको…? मैं भी तो आपकी बेटी हूँ… मानाकि आपकी दो बेटियों का ससुराल है इस घर में… लेकिन… मेरा तो माइका है न… मेरा माइका… यानी… आपका अपना घर… और अपने घर में खाने से परहेज कैसा…? क्यों पापा जी…?”
“तुम तो… मजबूर ही कर दोगी बेटी मुझे…।” दयाराम ने होठों पर मुस्कराहट लाते हुए कहा।
“बिलकुल… बिना खाए नहीं जाने दूंगी मैं आपको…।” शोभा ने जवाब दिया।
“बेटी मेरी बात तो…।” वाक्य अधूरा ही रह गया था उनका। क्योंकि कंचन बीच में ही वोल पड़ी थी-
“पापा जी…! चलिए न… मुझे भी भूख लग रही है… आज तो हमारे साथ खाना ही पड़ेगा आपको…।”
तभी गीता वहाँ आ पहुंची।
“मम्मी जी…! खाना तैयार है…।” आते ही गीता ने कहा।
“चलिए भईया…।” शीला देवी ने उठने का प्रयास किया।
“अब तो चलना ही पड़ेगा…।” उठ गए थे वे।
फिर सभी उठ खड़े हुए।
“आइये भईया…।” मोहन बाबू ने आगे बढ़ते हुए कहा।
“हाँ…! हाँ…!! चलिए…।”
और सभी आगे बढ़ गए।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ३३
खाना खाने के बाद विदा ली थी दयाराम ने। जा चुके थे वे।
और फिर कई दिन गुजर गए।
शारदा देवी की हालत में काफी सुधार था अब। थोड़ी बहुत बातचीत भी करने लगी थीं वे। डॉक्टर ने हॉस्पिटल से छुट्टी दे दी थी उन्हें। करन घर ले आया था शारदा देवी को। वह घर पर ही देख-रेख कर रहा था उनकी। रवि भी बीच-बीच में आ जाया करता। कभी-कभी कॉलेज भी चला जाया करता करन।
सुबह-सुबह करन कॉलेज जाने के लिए तैयार हो रहा था।
“करन… बेटे…!” दबी-दबी सी आवाज़ में पुकारा शारदा देवी ने।
“क्या है माँ…?” दौड़कर पहुँचा करन उनके पास।
और उनकी हालत देख हाथ-पांव फूल गए उसके। बुरी तरह हांफ रही थीं वे।
“ये… अचानक क्या हुआ तुम्हें माँ…? और हांफ क्यों रही हो तुम…?” माथे पर पसीने की बूँदें झलक आई थीं करन के।
“मेरा… समय… पूरा… हो गया बेटा…।” बड़ी मुश्किल से वोल पा रही थीं वे।
“नहीं माँ… तू चिंता मत कर… मैं अभी हॉस्पिटल ले चलता हूँ तुझे…।” करन ख़ुद को संभालने की कोशिश कर रहा था।
“नहीं बेटे… अब… उसकी… जरुरत… नहीं… पड़ेगी…।” अब वे हिचकियाँ ले रही थीं।
करन घवरा गया उनकी हालत देखकर।
“नहीं माँ… मैं टैक्सी लेकर अभी आया… तू घवरा मत… कुछ नहीं होगा तुझे…।” करन पलटने को हुआ।
“रुक… जा… बेटे…।” शारदा देवी ने उसका हाथ थाम लिया।
हिचकियाँ और बढ़ गई थीं उनकी।
करन ठहर गया वहीँ।
“वोलो माँ…!” चारपाई के पास बैठ गया वह सिरहाने की ओर।
“कु…छ… नहीं… बेटे… ब…स… तुझे… जी… भर… क…र… देख…ना… चाहती… हूँ…।”
हालत बिगड़ती जा रही थी उनकी।
“माँ…!”
करन का गला भर्रा गया था।
“रो… न… मेरे लाल…।” शारदा देवी ने उसका चेहरा अपने दोनों हाथों में ले लिया।
करन की आँखें भर आई थीं।
“नहीं… बेटा…!”
उन्होंने बहते हुए आंसू पोंछ दिए उसके। उनकी हिचकियाँ बढ़ती ही जा रही थीं।
करन समझ गया कि अब उनका अंतिम समय क़रीब है।
“मैं बिलकुल अकेला हो जाऊँगा माँ…!” सिसक पड़ा वह।
“करन… मैं… जा… रही… हूँ… बे… टा…।”
“माँ…! मैं तो अनाथ ही हो जाऊँगा माँ…।” करन फफ़क पड़ा।
“अ…प…ना… ख…या…ल… र…ख…।” बस इतना ही कह पाई थीं वे।
और अंतिम हिचकी लेकर शांत हो गईं।
“माँ…!” करन ने झकझोरा उन्हें।
लेकिन बेकार।
उस निर्जीव शरीर में कोई हरकत नहीं थी।
दहाड़ मारकर रो पड़ा करन।
रोता रहा अविराम।
उसके करुण कृन्दन से पूरा वातावरण चीत्कार कर उठा।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ३४
रवि कॉलेज पहुँचा तो उसकी नज़रें करन को ही खोज रही थीं। वह बरामदे को पार कर रहा था।
“किसे तलाश रहे हो रवि…?” सीमा ने पास आकर पूछा।
“सीमा जी… आपने करन को देखा है…?” रवि ने पूछा उससे।
“नहीं तो…। शायद वह कॉलेज… आया ही नहीं…।” सीमा ने जवाब दिया।
“ओह…!” रवि ने कुछ उदासी भरे लहजे में कहा।
“छोड़ो भी…। चलो कहीं घूमने चलते हैं…।” सीमा ने उसकी ओर मुस्कुराकर देखा।
“नहीं सीमा जी…! क्षमा करना…! मैं आपके साथ नहीं जा सकता…।” रवि ने असमर्थता जताई।
“क्यों…?” सीमा पूंछ बैठी।
“मैं करन के घर जा रहा हूँ…।” रवि ने जवाब दिया।
“कमाल है…! यहाँ एक लड़की तुम्हें… घुमाने के लिए ले जाना चाहती है… और… तुम हो कि… अपने उस… दोस्त से ही फुर्सत नहीं है…।” सीमा कहती जा रही थी- “लड़कियों का साथ पाने के लिए… तरसते हैं लड़के… और तुम हो कि… मुँह फेर रहे हो…।”
“सीमा जी…! मैं उनमें से नहीं हूँ… जो मक्खियों की तरह… भिनभिनाते फिरते हैं लड़कियों के पीछे…। मैं आपको पहले भी कह चुका हूँ… जो आप चाहती हैं… मैं वो नहीं कर सकता…।” रवि ने सरल स्वर में जवाब दिया।
“क्यों…? क्या कमी है मुझमें…?” सीमा ने उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा।
“आप में कोई कमी नहीं है सीमा जी… लेकिन… लेकिन मैं मजबूर हूँ…।” रवि ने कहा उससे और चलने का उपक्रम करते हुए आगे वोला वह- “अभी तो मैं… करन के घर जा रहा हूँ… उसकी माँ बीमार है…।”
रवि चला गया।
सीमा देखती रही खड़ी।
“तुम चाहे जितने भी बहाने बना लो रवि… लेकिन… मैं हार नहीं मानने वाली…।” बडबडाते हुए वह क्लास रूम में जा घुसी।
रवि सीधा करन के घर की ओर बढ़ गया था। बीस मिनट लगे उसे वहाँ पहुँचने में। दरवाजे पर भीड़ देख ठिठका वह। आश्चर्य से सबकी ओर देखा उसने। करन के पड़ोसी थे वे सभी।
“क्या बात है चाचा…?” पास खड़े एक आदमी से पूछा रवि ने।
और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही आगे बढ़ गया।
बरामदे में पहुँचा तो वहाँ का नजारा देख सन्न रह गया वह।
मौत का सन्नाटा था वहाँ। एक दो सिसकियाँ गूंज रही थीं। रो-रोकर करन की आँखें सूज गई थीं। एक दम निश्चल बैठा था अब वह। कभी-कभी हिचकियाँ उसके शरीर में हलचल पैदा कर रही थीं।
शारदा देवी के निर्जीव शरीर को अर्थी पर लिटाया जा रहा था।
“करन…! ये सब… क्या हो गया मेरे भाई…?” गला भर आया था रवि का।
घुटनों के बल बैठ गया वह करन के पास।
“माँ हमें छोड़कर चली गई रवि…।” कहकर बिलख पड़ा वह।
सर रवि के काँधे पर रख दिया उसने।
“कैसे हो गया यह सब…? कल तक तो बिलकुल ठीक थीं आंटी…।” रवि भी रो पड़ा था।
करन के बालों को सहलाता भी जा रहा था वह।
“माँ के अंतिम दर्शन कर लो रवि…।” सिसकते हुए बोला वह।
सर काँधे से हटा लिया उसने।
रवि ने डबडबाई आँखों से देखा उसकी ओर और उठकर आँखों में आंसू लिए अर्थी की तरफ कदम बढ़ाये उसने।
वहीँ बैठ गया घुटनों के बल। शारदा देवी का चेहरा अपने हाथों में ले लिया उसने।
“इतनी भी क्या जल्दी थी आंटी…?” रवि रोता जा रहा था- “हमसे बिना मिले ही चली गईं…। थोड़ा… इंतज़ार किया होता…।”
करन भी बिलख रहा था। सिसकियाँ भर रहे थे सभी। पड़ोस की औरतें भी पास बैठी रो रही थीं।
अज़ीब मंजर था वहाँ का। दर्द में लिपटा हुआ। चारों ओर उदासी छाई हुई थी।
“करन बेटा…!” पड़ोस के रामू चाचा ने पुकारा करन को।
करन उनकी ओर देखने लगा। मौनबत।
“पूरी तैयारी हो चुकी है बेटा… अब देर मत करो…। भाभी को अंतिम संस्कार के लिए ले चलो…।”
“ठीक है चाचा…!” सिसकते हुए जवाब दिया करन ने।
शारदा देवी का चेहरा भी ढक दिया गया।
अर्थी उठाई गई।
एक तरफ करन चल रहा था। और दूसरी ओर रवि। दोनों ने अपने कन्धों पर अर्थी उठाई हुई थी। पीछे दो पड़ोसी कंधा दे रहे थे। भीड़ ज्यादा नहीं थी उनके पीछे। औरतें घर पर ही रह गई थीं।
और थोड़ी देर में समसान भी आ गया।
लकड़ियों से बनाई गई चिता पर लिटा दिया गया शारदा देवी के निर्जीव शरीर को।
ऊपर से भी लकड़ियाँ रख दी गईं। पूरी तरह ढक दिया गया उन्हें। पंडित ने मंत्रोच्चारण के बाद करन को इशारा किया चिता में आग लगाने का। और करन ने चिता को मुखाग्नि दे दी। धू-धूकर के जल उठा शारदा देवी का पार्थिव शरीर।
सभी घर वापस आ गए।
थोड़ी देर बैठने के बाद एक-एक करके पड़ोसी जाने लगे। पुरुषों के चले जाने के बाद पड़ोस की औरतें भी उठकर जाने लगीं।
सभी जा चुके थे।
रवि ही रह गया था करन के पास।
“मैं तो अनाथ ही हो गया रवि…।” करन ने उसकी ओर देखा। आँखों में अज़ीब सा खालीपन नज़र आ रहा था।
“ऐसा सोचना भी मत मेरे भाई…। मैं हूँ न…।” रवि ने उसका हाथ थामते हुए कहा- “तू अभी चल मेरे साथ…।”
“कहाँ…?” पूछा करन ने।
“हमारे घर…।” रवि ने जवाब दिया- “मम्मी हैं… पापा हैं… भईया हैं… सभी लोग तो हैं वहाँ…। फिर तू ख़ुद को अनाथ कैसे कह सकता है…?”
“रवि…!” करन ने लगभग सिसकते हुए कहा- “मैं तुम लोगों पर बोझ नहीं बनना चाहता मेरे भाई…। और फिर… इस घर से मेरी यादें जुड़ी हैं…। माँ की यादें…। यहीं ठीक हूँ मैं…।”
“करन…! तू अभी भी हमें गैर समझता है मेरे भाई…। हमने तो… हमेशा ही तुझे अपना भाई ही माना है…। और… तू है कि… दिल दुखाने वाली बात करता है…।” रवि का स्वर भी शर्द हो चला था- “बोझ बनेगा तू हम पर…? कैसे सोच लिया तूने…? अरे… दुनियाँ का कौन सा भाई… अपने भाई को बोझ समझता होगा…? और समझता है तो समझे…। हमारे लिए बोझ नहीं है तू…। हमारा परिवार… अन्य परिवारों की तरह नहीं है करन…। अरे… वो तो… साक्षात् स्वर्ग है… स्वर्ग…। क्या तू उस स्वर्ग को ठुकराएगा…? दिल तोड़ने जैसी बातें मत कर मेरे यार…। मेरे साथ चल मेरे भाई…।”
“मैं क्या…? दुनियाँ का कोई भी इंसान उस स्वर्ग को नहीं ठुकराना चाहेगा…। लेकिन…।”
“लेकिन… वेकिन कुछ नहीं…। तू चल रहा है बस…।” रवि ने दृढ़ स्वर में कहा।
करन मजबूर हो गया था रवि के सामने। आगे कुछ कहना उचित नहीं समझा उसने। आखिर वह चलने को तैयार हो गया।
“चल… अब सामान बांध ले…।” रवि ने उसका हाथ पकड़ कर उठाया- “सामान क्या…? अपनी किताबें और कपड़े रख ले…। वाकी सब ले जाने की जरुरत नहीं है।
दोनों सामान बांध रहे थे अब।
रवि के मना करने के बाबजूद करन ने कपड़ो और किताबों के अलावा भी कुछ जरुरी सामान रख लिया था।
“तू यहीं ठहर… मैं अभी टैक्सी लेकर आया…।” कहते हुए रवि बाहर निकल गया।
“ठीक है…।” करन ने बाहर जाते हुए रवि से कहा।
रवि चला गया।
करन निहारता रहा अपने घर को। खाली-खाली आँखों से।
थोड़ी देर में एक टैक्सी लेकर लौटा रवि। दोनों ने सारा सामान उठाकर टैक्सी में रख लिया। सामान रखने के बाद करन ने घर का दरबाजा बंद किया और ताला जड़ दिया।
“चलो रवि…!” चाबी जेब में रखते हुए कहा उसने।
“आओ बैठो…!” रवि ने टैक्सी की तरफ इशारा किया।
दोनों बैठ गए टैक्सी में।
ड्राईवर ने टैक्सी स्टार्ट की और चल पड़ा सरस्वती नगर की ओर।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ३५
“भईया…! कहाँ चले गए थे आप कॉलेज से…? मैं तो परेशान हो गई थी ढूँढते ढूँढते…। अरे… ये सामान किसका है…? कौन आया है…?” शोभा ने कई सवाल एक साथ किये।
“करन…।” रवि ने थके-थके स्वर में जवाब दिया।
“क्या…?” भय मिश्रित आश्चर्य था उसकी आँखों में।
“हाँ शोभा…! आंटी हमें छोड़कर चली गईं…। करन अकेला पड़ गया था… इसलिए मैं उसे यहाँ ले आया…। लो ये सामान… कमरे में रख दो…।” रवि ने बैग उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा- “तब तक मैं बाकी का सामान भी लेकर आता हूँ…। करन बाहर गेट पर ही खड़ा है…।”
शोभा अवाक् रह गई शारदा देवी की मौत की ख़बर सुनकर। उसने रवि के हाथों से सामान से भरे बैग ले लिए।
रवि मुड़ गया वापस।
और थोड़ी देर में लौटा तो करन भी साथ था उसके। सामान लाकर कमरे में रख दिया था दोनों ने।
“भईया… अचानक ये क्या हो गया…!” शोभा ने भरे गले से पूछा- “कल तक तो सब ठीक था…। फिर ये कैसे हो गया…?”
“सुबह मैं कॉलेज के लिए… तैयार हो रहा था… कि अचानक… माँ की हालत बिगड़ने लगी… और…।” कहते हुए सिसकने लगा करन।
शोभा भी रो पड़ी।
“रो ओ मत भईया…।” शोभा ने उसके आंसू पोंछते हुए कहा।
रवि भी उसे ढाढ़स बंधा रहा था।
“करन बेटे…!” रोने की आबाज सुनकर शीला देवी वहाँ आ गईं।
“आंटी…!”
फफ़क पड़ा करन।
शीला देवी को बात समझते देर न लगी।
“न… न… रोना मत बेटा…।” गला भर्रा गया था उनका। नजदीक आते हुए बोलीं वह- “मैं हूँ न…!”
“आंटी…!”
कहते हुए वह उनकी ओर बढ़ा।
शीला देवी ने आगे बढ़कर उसे सीने से लगा लिया। फफ़क पड़ा था वह।
“रो मत मेरे बच्चे…!” शीला देवी ने उसे दुलारते हुए कहा।
अपने आंसू मुश्किल से रोक पा रही थीं वे।
“बिलकुल अकेला हो गया आंटी मैं…।” करन ने सिसकते हुए कहा।
“आंटी नहीं… मम्मी बोल मेरे लाल…।” करन के आंसू पोंछ दिए थे उन्होंने- “तू अकेला नहीं है… हम सब हैं तेरे साथ…।”
“मम्मी…!” सिसकियाँ और बढ़ गईं उसकी।
“आज से मेरे दो नहीं… तीन बेटे हैं…। तू रो मत मेरे बच्चे…।” शीला देवी उसे चुपाने का प्रयास कर रही थीं।
“हाँ करन…! आज से तुम हमारे परिवार का एक हिस्सा हो… हम तुम्हें कोई कमी महसूस नहीं होने देंगे…।” गीता भी आ गई थी वहाँ।
“भाभी…!” स्वर कांप रहा था उसका।
“चुप हो जा करन…!” गीता का स्वर भी भीग चला था।
वह उसके पास आ चुकी थी। और चुप कराने का प्रयास कर रही थी। शोभा और कंचन भी सिसक उठी थीं। नीता का चेहरा भी उदासी में डूब गया था। पास खड़े रवि का भी यही हाल था।
“हाथ मुँह धो ले बेटा…। तूने कुछ खाया भी नहीं होगा…।” करन के शांत हो जाने के बाद शीला देवी ने कहा था।
“नहीं मम्मी जी…। इच्छा नहीं है बिलकुल भी…।” करन ने असहमति जताई।
“थोड़ा बहुत तो खा लीजिये…।” इस बार नीता ने आग्रह किया।
“हाँ भईया…। कुछ तो खा लीजिये…।” शोभा ने भी उसी अंदाज़ में कहा।
“नहीं शोभा…। इच्छा नहीं है अभी…।” करन ने फिर नकार दिया।
“खाना खा लीजिये न भईया…।” कंचन ने उसका हाथ थामते हुए कहा- “आइये… मैं आपको बाथरूम दिखा दूँ…। पहले हाथ मुँह धो लीजिये…। उसके बाद खाना खाइएगा…।” और वह हाथ पकड़ कर खींचते हुए ले गई उसे बाथरूम की ओर।
उसके बाल आग्रह के आगे मजबूर होना पड़ा करन को।
भारी भारी कदम उठाता हुआ वह उसके पीछे चल दिया।
हाथ मुँह धोने के बाद अनमने ढंग से थोड़ा बहुत खाया और फिर कमरे में आकर लेट गया था करन।
शाम को मोहन बाबू और आकाश ऑफिस से लौटे तो उन्हें शारदा देवी की मौत के बारे में मालूम हुआ। जानकर बहुत दुखी हुए थे दोनों। साथ ही करन को यहाँ रखने के लिए रवि को सराहा भी था।
दिन बीतते गए।
करन अब मोहन बाबू के परिवार का एक अभिन्न अंग बन चुका था। दिन खुशियों में बीतने लगे।
“सुनिए…!” करन ने एक दिन यूँ ही पूंछ लिया नीता से- “आपको… क्या कह कर पुकारा करूँ…?” आँखों में शरारत नाच रही थी।
“क्या कहियेगा…?” नीता ने भी मुस्कुराते हुए पूछा।
“अब देखिये न… गीता भाभी को तो भाभी कहता हूँ…। तो फिर… आपको भी भाभी ही बुलाया करूँगा…। ठीक रहेगा न…।” करन ने उसी अंदाज़ में कहा।
नीता ने उसकी ओर देखा मुस्कुराते हुए।
“क्या हुआ जो… रवि भईया से अभी आपकी शादी नहीं हुई…। जो शादी के बाद कहना है… क्यों न…? अभी से कहने लगूँ…।” करन मुस्कुराते हुए कहता जा रहा था- “साली… एक दम गाली सा लगता है न…। और भाभी… एक दम साक्षात् देवी… आँखों में एक ऐसी तस्वीर उभरकर आती है… जिसके सीने में… ममता और प्यार ही प्यार भरा हो…। सच कह रहा हूँ न मैं…।”
“शैतान कहीं के… मारूंगी अभी…।” नीता ने बनावटी डांट लगाते हुए कहा- “तुम दोनों ने क्या ट्रेनिंग ले रखी है…?”
“किस बात की…?” करन ने अनजान बनते हुए पूछा।
“शरारतें करने की…।” कहते हुए नीता फिर मुस्कुराई।
“रवि भईया का तो पता नहीं… लेकिन… मैं सच कह रहा हूँ… मैंने कोई ट्रेनिंग वेनिंग नहीं ली है…।” करन ने भोलेपन से कहा।
“अच्छा… रुको… अभी बताती हूँ तुम्हें…।” कहते हुए झपटी वह करन की ओर।
“मैं भईया से शिकायत कर दूंगा भाभी…।” कहते हुए वह बाहर की ओर भाग गया।
“बदमाश…!” नीता देखती रह गई मुस्कुराते हुए।
“क्या हुआ नीता…?” पीछे से किसी ने पुकारा उसे।
नीता ने मुड़कर देखा। रवि खड़ा था उसके सामने।
“वो… करन…!”
“क्या किया करन ने…?” रवि ने बीच में ही पूछ लिया।
“जो आप करते हैं…।” नीता शरमाते हुए कह गई।
“ये क्या पहेलियाँ बुझा रही हो तुम…?” रवि ने मुस्कुराते हुए पूछा।
“क्यों…? आप शरारतें नहीं करते…?” नीता फिर मुस्कुराई।
“अच्छा…! क्या शरारत की उसने…?” रवि पूंछ बैठा।
“आप उसी से जाकर पूंछिये…।” नीता शरमा गई थी।
“अच्छा…! तो ये बात है…।” रवि मुस्कुराया।
“हूँ…।” नीता ने शर्म से गर्दन झुका ली।
“ठीक है…। मैं उसी से पूंछ लेता हूँ…।” रवि ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।
नीता ने नज़रें उठाकर उसकी ओर देखा। गाल शर्म से गुलाबी हो उठे थे उसके।
“तो जाऊँ…?” रवि ने मुस्कुराते हुए पूछा।
“कहाँ…?” नीता ने आश्चर्य से देखा उसकी ओर।
“करन से पूंछने…।” रवि ने शरारती अंदाज़ में जवाब दिया।
“बेशर्म कहीं के…!” नीता ने धीरे से कहा। होठों पर मुस्कराहट थी।
“अब जैसा भी हूँ… तुम्हारा होने वाला हूँ…।” रवि और शरारती हो चला था।
“ओफ्फो…! अब बस भी कीजिये…!” नीता ने मुस्कुराते हुए डांटा।
“क्या…?” होठों पर मुस्कान थिरक रही थी।
“आपकी शरारतें… और क्या…?” नीता ने भी उसी अंदाज़ में जवाब दिया।
“अच्छी नहीं लगती क्या…?”
नीता मुस्कुराते हुए देखती रही उसे।
बिना कुछ बोले।
“कुछ तो कहो…।”
नीता के नाजुक होंठ फड़फड़ाए। और शांत हो गए। कहना तो बहुत कुछ चाहते थे। पर लज्जा बलबती रही।
“नीता…!” अचानक गीता ने पुकारा उसे।
वह उसी ओर चल पड़ी।
“अरे सुनो तो…! जवाब तो देती जाओ…। रवि ने पीछे से पुकारा उसे।
पर वह मुस्कुराते हुए चली गई वहाँ से।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ३६
“काली…!” नरेतर ने उसकी ओर देखा।
“जी… कहिये बॉस…!” उसने जवाब दिया।
“ये माल तुम्हें… विकासनगर पहुँचाना है…।” नरेतर ने मेज पर रखे एक बैग की ओर इशारा किया।
“हो जायेगा बॉस…।” काली ने किसी आज्ञाकारी शिष्य की तरह जवाब दिया।
“ठिकाना तो पता ही है तुम्हें…?” उसने सिगरेट का पैकेट जेब से निकालते हुए पूछा।
“यस बॉस…!”
“ध्यान रहे…! वहाँ का इंस्पेक्टर बहुत ही चीमड़ आदमी है…।” पैकेट से सिगरेट निकाल कर होठों में दबा लिया उसने और लाइटर जलाया। सिगरेट सुलग उठी। लाइटर जेब में डाला। और एक लम्बा कश लेते हुए बोला वह- “होशियार रहना… किसी को शक न होने पाए…।”
“बेफिक्र रहिये बॉस…!”
“ये बैग उठा लो…।” धुंए के छल्ले छोड़ते हुए उसने मेज पर रखे थैले की ओर इशारा किया- “पूरे दस लाख का माल है…। कोई गड़बड़ नहीं होनी चाहिए…।”
“भरोसा रखिये बॉस…।” काली ने बैग उठाते हुए जवाब दिया- “माल पहुँच जायेगा…।”
“नाकामी मुझे पसंद नहीं…।” नरेतर ने अधजली सिगरेट को जूते से मसल दिया। शख्त स्वर में बोला वह- “और… ये बात तुम अच्छी तरह जानते हो काली…।”
“मैंने कभी आपको निराश नहीं किया है बॉस…।” उसने बड़े ही इत्मिनान के साथ जवाब दिया- “हर काम में फतह पाई है आज तक…।”
“वही चाहिए मुझे…।” नरेतर ने उसी अंदाज़ में कहा- “और हाँ… शंकर को भी अपने साथ ले लो…। काम आएगा…।”
“वैसे इस काम के लिए तो मैं अकेला ही काफी था बॉस…। लेकिन… अगर आप कहते हैं तो… उसे भी साथ लेता जाऊँगा…।” काली ने अपने ख़ास अंदाज़ में कहा- “पुरानी कहाबत भी है बॉस… एक से भले दो…।”
“ठीक है…! अब देर मत करो…। लेकिन… एक बात याद रखना…।” नरेतर का स्वर फिर से शख्त हो चला- “कोई भी गड़बड़ हुई… तो जिन्दा दफ़न कर दूंगा तुम दोनों को…।”
“………”
कोई जवाब नहीं दिया काली ने। एकदम मौन। बस एक नज़र देखा था उसकी ओर। वह जानता था कि नरेतर सच कह रहा है। लेकिन उसे भी ख़ुद पर पूरा भरोसा था। अब तक न जाने कितने कामों को अंजाम तक पहुँचा चुका था वह। फिर यह तो मामूली सा काम है। बस माल को इधर का उधर करना है। यही सब सोचते हुए वह पलट गया पीछे की ओर।
नरेतर भी अपनी कुर्सी पर जा बैठा था फिर। कुछ देर यूँ ही शांत बैठा रहा वह। फिर मेज पर रखी शराब की बोतल उठा ली उसने। कॉर्क खोलने के बाद शराब गिलास में उड़ेली। पैग बनाया। और गिलास होठों से लगाकर एक-एक घूंट भरने लगा।
मस्तिष्क में कई तरह के बिचार आ जा रहे थे। गिलास खाली हो गया तो दूसरा पैग बनाना शुरू कर दिया उसने।
काली वहाँ से सीधा शंकर के पास गया। और उसे अपने साथ लेकर वह विकासनगर के लिए रबाना हो गया।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ३७
विकासनगर चौराहे के दाईं ओर बने फुटपाथ पर दो शख्स खड़े थे। शायद उन्हें किसी का इंतज़ार था। दोनों ही अच्छी कदकाठी के स्वामी थे। एक गोरा चिट्टा था तो दूसरा सांवला। उनमें से एक ने एक पुराना सा बैग पकड़ा हुआ था।
ये दोनों कोई और नहीं बल्कि शंकर और काली ही थे। काली ने वही बैग पकड़ रखा था जो उसे नरेतर ने दिया था। दोनों यहाँ से कृष्णा होटल जाने के लिए बस का इंतज़ार कर रहे थे। चौराहे पर ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं थी। तेज धूप होने के कारण कुछ एक लोग ही आ जा रहे थे। एक ओर तीन चार रिक्शे वाले भी सवारियों के इंतज़ार में खड़े थे।
काली बार-बार कलाई घड़ी की ओर देख लेता था। उसके चेहरे पर कुछ बेचैनी के भाव आ जा रहे थे। शंकर ने पॉकेट से दो सिगरेट निकाली और सुलगा लीं। एक अपने होठों से लगा कर दूसरी काली की ओर बढ़ा दी। काली ने सिगरेट थामी और लम्बे-लम्बे कश भरने लगा। इस बात से बिलकुल बेख़बर कि दूर एक कोने से दो आँखें उन्हें ही घूर रही हैं। बेहद सतर्क।
कोने से हटकर वे आँखें आगे की ओर बढीं। और जा घुसीं सामने के टेलीफोन बूथ में।
नंबर डायल किया।
थोड़े इंतज़ार के बाद रिसीबर उठा लिया गया दूसरी तरफ।
“हैलो सर…! मैं भोला…।” उसने सावधानी पूर्वक इधर-उधर नज़र दौड़ाई।
“……..”
“हाँ सर… कुछ ऐसा ही समझो…।”
“……..”
“यहाँ चौराहे पर उसके दो आदमी खड़े बस का इंतज़ार कर रहे हैं…।” भोला ने लगभग फुस-फुसाने वाले अंदाज़ में कहा।
“………”
“हाँ सर… शंकर और काली हैं…। नरेतर के ख़ास आदमी…।” वह पूरी सावधानी बरत रहा था।
“………”
“एक पुराना सा बैग है काली के हाथ में…। आप तुरंत पहुँचिये सर…। जरुर कुछ गड़बड़ करने वाले हैं वे दोनों…।”
“………”
“हाँ सर… अभी भी वहीँ खड़े हैं दोनों…।” उसने दोनों की ओर एक सरसरी निगाह दौड़ाई।
“……….”
“ओके सर…।”
और भोला ने रिसीवर रख दिया।
थोड़ी देर बाद वह बूथ से बाहर निकल आया। चारों तरफ नज़र दौड़ाई उसने। शंकर और काली अभी वहीँ खड़े थे। दोनों कुछ बातचीत कर रहे थे अब। जिसे भोला सुन न सका। अभी थोड़ी ही देर हुई थी उन्हें बातचीत करते हुए।
एक हृष्ट पुष्ट युवक उनके पास आकर रुका। काफी आकर्षक व्यक्तित्व था उसका। जिसे देख दूर खड़े भोला के होठों पर रहष्य मयी मुस्कान थिरक उठी।
“भाई साहब… कहाँ जाना है आपको…?” आगंतुक ने मुस्कुराते हुए पूछा।
“तुमसे मतलब…?” शंकर ने बेरुखी से जवाब दिया।
“नहीं… मतलब तो कुछ भी नहीं है…। बस पूंछ लिया…। बैसे मुझे… कृष्णा होटल जाना है…।” वह यूँ ही कह गया।
“तुम कहीं भी जाओ…। हमें इससे कोई लेना देना नहीं… समझे…।” इस बार काली ने डपटना चाहा।
कुछ देर के लिए शांत हो गया आगंतुक! इधर-उधर देखा उसने। एक नज़र उन दोनों पर डाली और फिर बोल पड़ा वह।
“भाई साहब…! आप लोग तो… अच्छे खासे मालूम होते हैं… आपका पहनावा बता रहा है कि आप ऊँची सोसाइटी के लोग हैं… फिर ये… फटीचर थैला साथ में लेकर क्यों घूम रहे हैं…?” उसने उस थैले की ओर इशारा करते हुए कहा- “कोई… ख़ास चीज है क्या इस थैले में…? बात कुछ समझ में नहीं आ रही…?”
“बहुत जुबान चलाता है साले… चुपचाप यहाँ से चलता बन…। वरना…।” शंकर दहाड़ा।
“वरना क्या करोगे तुम…?” उसका स्वर भी शख्त हो चला था।
“खुपड़िया उड़ा देंगे हम तेरी…। समझा…।” दांत पीसते हुए जवाब दिया शंकर ने।
“मैं तो समझ गया… लेकिन… अब तुम समझो मिस्टर शंकर…।”
शंकर उस अजनबी के मुँह से अपना नाम सुनकर चौंक पड़ा। काली भी चौंका था।
“चौंको मत शंकर…। तुषार… तुषार बौद्ध नाम है मेरा…। विकास नगर का सीनिअर इंस्पेक्टर…। जहाँ भी जाता हूँ… कांपने लगते हैं अपराधी…।”
तुषार ने फ़िल्मी अंदाज़ में अपना परिचय दिया। जिसे सुनते ही दोनों के चेहरे सफ़ेद पड़ गए।
“भागने की कोशिश मत करना…।” तुषार ने पिस्तौल तान दी- “मैं तुम दोनों को गिरफ्तार करता हूँ…।” तुषार ने जेब से हथकड़ियाँ निकालते हुए कहा।
दोनों भागना चाहे।
“भाग नहीं सकोगे तुम…।” तुषार दहाड़ा- “चारों तरफ से घिर चुके हो तुम दोनों…। और बैसे भी… भागने वाले अपराधियों को मैं गोली मार देता हूँ…।”
बढ़ते कदम ठहर गए दोनों के। अपराधी कितना भी बड़ा हो, जान सबको प्यारी होती है। चारों तरफ देखा उन्होंने। परन्तु कोई भी सिपाही नज़र नहीं आया उन्हें।
“घवराओ मत… पूरा इंतजाम किया है मैंने…।” तुषार मुस्कुराया- “ये चारों ओर जो सादा वर्दी में खड़े हैं न… सब पुलिस वाले हैं… मेरी तरह…।”
दोनों ने फिर से चारों ओर एक सरसरी निगाह दौड़ाई। हिम्मत जवाब दे गई दोनों की। चारों तरफ से घिर चुके थे वे।
इंस्पेक्टर बौद्ध ने शीटी बजाकर इशारा किया। और चारों ओर से कई शख्स दौड़ पड़े। उनकी ओर। एक साथ। घेर लिए गए शंकर और काली।
तुषार को आश्चर्य हुआ जानकर कि दोनों निहत्थे थे। इतने बड़े गिरोह के आदमी, और बिना हथियार। खैर दोनों को हथकड़ी पहना दी गई।
“बैग में क्या है…?” तुषार ने पूछा।
“………..”
दोनों मौन रहे।
“अच्छा… तो अब बोलती बंद हो गई तुम्हारी…।” तुषार ने उन दोनों की ओर देखा- “कोई बात नहीं… हम ख़ुद देख लेते हैं…।”
“……………”
“कबीर…!” उसने हबलदार कबीर को पुकारा।
“जी सर…!” जवाब मिला।
“बैग खोलो… देखो क्या है इसमें…?” तुषार का आदेशात्मक स्वर गूंजा।
“ओके… सर…!”
और कबीर ने थैले को खोलना शुरू किया।
“सर स्मैक… स्मैक है इसमें…।” थैले में रखी स्मैक पर नज़र पड़ते ही वह चीखा।
थैला तुषार की ओर बढाया उसने।
“ओह…! तो शहर के मासूम लोगों की ज़िन्दगी में जहर घोलने का काम करते हो तुम लोग…।” उसने थैले से मुट्ठी भर स्मैक अपने हाथ में लेते हुए कहा।
“……….”
दोनों मौन खड़े थे।
“ऐसी सजा दूंगा कि… ख़ुद की ज़िन्दगी भी जहर लगने लगेगी तुम्हें…।” शब्दों को चबाते हुए वोला तुषार। हाथ में ली हुई स्मैक थैले में वापस डाल दी।
“…………”
दोनों ने घूर कर देखा उसे।
“दूसरों की ज़िन्दगी में जहर घोलने वाले बहशी दरिंदो… तुम्हारी ज़िन्दगी का भी वही हस्र करूँगा मैं…।” तुषार उसी अंदाज़ में वोल रहा था।
तब तक पुलिस जीप भी आ चुकी थी वहाँ। और भोला भी।
“बहुत-बहुत शुक्रिया भोला…।” तुषार ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- “तुम्हारी बजह से आज हम इन खतरनाक मुजरिमों को पकड़ने में कामयाब रहे…।”
“ये तो मेरा फर्ज था सर…।” उसने शांत स्वर में जवाब दिया।
“काश…! इस देश का हर नागरिक… तुम्हारी तरह अपना फर्ज निभा रहा होता…।” एक लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा तुषार ने।
“मुझमें ऐसा क्या है सर…?” भोला मुस्कुराया- “जो आप मेरी तारीफ किए जा रहे हैं…।”
“मानवता का जज्बा है तुम में… भोला… अगर तुम हमारी मदद न करते तो…।” तुषार कहता गया- “ये हरामजादे अपने नापाक मकसद में कामयाब हो जाते…।”
“वो तो ठीक है सर… लेकिन अब इन्हें इनके असली ठिकाने पर तो पहुँचा दीजिये…।” कहते हुए मुस्कुराया भोला।
“वो तो मैं पहुँचा ही दूंगा…।” कहते हुए मुस्कुराया तुषार भी।
शंकर और काली घूरते रहे उन्हें।
“ले चलो इन्हें…।” तुषार ने आदेश दिया।
और वहाँ खड़े सादा वेशधारी सिपाहियों ने धकेलते हुए बिठा लिया जीप में दोनों को।
“अच्छा भोला… हम चलते हैं अब… अपना ख्याल रखना…।” तुषार ने अगली शीट पर बैठते हुए कहा।
“ओके… सर…! नमस्ते…!” भोला ने अपने दोनों हाथ अभिवादन में जोड़ दिए।
“नमस्ते…!” तुषार ने अभिवादन स्वीकारा। और जीप आगे बढ़ाने का संकेत दिया।
जीप चल पड़ी।
भोला खड़ा देखता रहा उन्हें।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ३८
“बॉस… एक बुरी ख़बर है…।” मोंटी ने आकर सहमते हुए बताया।
पलटकर देखा नरेतर ने।
“कहो… क्या बात है…?” मुँह से सिगरेट का धुआं उगलते हुए बोला वह।
“बॉस… वो… शंकर और काली… दोनों… पकड़े गए… माल के साथ…।“ घबराते हुए बताया मोंटी ने।
“हा…! हा…!! हा…!!!” अचानक एक जोरदार ठहाका लगाया नरेतर ने।
मोंटी और भी घबरा गया उसकी इस अप्रत्याशित हँसी के कारण।
बाकी साथी भी सहमे-सहमे से खड़े थे।
खिसियाई हँसी हंस रहा था नरेतर।
और थोड़ी देर बाद वह शांत होने लगा।
मोंटी को घूरा उसने।
“किसी… भोला नाम के मुखबिर ने पुलिस को ख़बर दी थी…।“ मोंटी फिर उसी अंदाज़ में बोला।
“उससे तो मैं बाद में निपट लूँगा…।“ यकायक क्रोध में आ गया नरेतर। हँसी का नामोनिशान तक नहीं था चेहरे पर। हाथ में पकड़ी हुई अधजली सिगरेट ज़मीन पर गिरा दी उसने। पैर के जूते से उसे मसलते हुए बोला वह- “पहले उन नमक हरामों को सबक सिखा दूँ…।“
“………”
“अशोभन को जाकर ख़बर करो कि… हमने उसे याद किया है…।“
“बॉस… वो मंत्री…?” मोंटी ने डरते हुए पूछा।
“और क्या तेरा बाप…! साला…! दिमाग खाता है…।“ नरेतर दहाड़ा था मोंटी पर।
मोंटी ने सहमते हुए एक बार उसकी ओर देखा और पलट गया।
मोंटी बाहर निकल गया।
नरेतर के चेहरे पर बेचैनी के भाव उभरने लगे थे। इधर से उधर… उधर से इधर चहल कदमी करने लगा था वह।
एक सुन्दर सा हॉल था यह। इसके आगे दो कमरे और उसके आगे टूटा फूटा गलियारा… हूबहू सुरंगनुमा। बाहर से देखने पर खण्डहर लगती थी यह जगह। जिसे देख कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि इसके अन्दर सुन्दर कमरे और बड़ा हॉल भी हो सकता है।
सरस्वती नगर का बाहरी कोना था यह। एक दम निर्जन। यही नरेतर का मुख्य अड्डा था, जहाँ से वह अपने काले कारनामों को अंजाम तक पहुँचाता था।
वह अभी भी चहलकदमी कर रहा था।
क़रीब एक घंटे बाद लौटा मोंटी।
एक सफ़ेद कुर्ताधारी भी था उसके साथ।
अशोभन था यह।
“आओ मंत्री जी… आओ…!” नरेतर ने उसकी ओर देखा। कदम रुक गए थे उसके।
“राम-राम भैया…!” मुस्कुराते हुए दोनों हाथ जोड़ दिए अशोभन ने।
“ठीक है… ठीक है… आओ बैठो…!” नरेतर मेज के पास पड़ी कुर्सियों की ओर बढ़ा।
“पहलें ज तौ बताऔ भैया… हमें काय कों बुलाओ है…?” वह भी कुर्सियों की ओर बढ़ते हुए बोला।
अशोभन कुर्सी खींचकर बैठ गया।
“जरा सा काम है तुमसे…।” नरेतर ने कुर्सी पर बैठते हुए जवाब दिया।
“का काम है भैया… बताऔ तौ हमें…।” अशोभन ने आगे पूछा उससे।
“हमारे दो आदमी पकड़े गए हैं…।” नरेतर ने उसकी ओर देखते हुए जवाब दिया।
“अरे भैया…! ज तौ बहोत बड़ी गड़बड़ है गई…।” वह परेशान होते हुए बोला।
“हाँ अशोभन…! दस लाख का माल भी पकड़ा गया है हमारा…।” नरेतर ने गंभीर होते हुए जवाब दिया।
“अब हम का करें…?” अशोभन ने सहमते हुए पूछा।
“विकासनगर के इंस्पेक्टर को फोन लगाकर कहो कि… हमारे आदमियों को छोड़ दे…।” नरेतर ने समझाया।
“अरे भैया… पुलिस-उलिस के चक्कर में न डारौ हमें…।” अशोभन के चेहरे पर परेशानी के भाव उमड़ आये।
“अशोभन…!” नरेतर की पेशानी पर बल पड़ गए। स्वर तेज हो चला उसका- “तुम्हें हमने एक… निपट अंगूठा टेक से मंत्री बनवा दिया… लेकिन तुम वहीँ के वहीँ रहे…। तुम्हें ख़ुद मालूम नहीं है कि तुम्हारी अहमियत क्या है…!” नरेतर कहता गया- “एक मामूली से इंस्पेक्टर से डर रहे हो तुम…। इंकार कर रहे हो तुम मुझे…! साल भर बाद फिर से इलेक्शन आने वाले हैं… सोच लो…।”
“नाराज हुइ रहे हौ भैया तुम तौ…।” अशोभन सहमते हुए वोला।
“तो क्या ख़ुशी मनाऊँ…?” नरेतर झल्लाते हुए वोला।
“अरे भैया… छोडौ सब बातें…।” अशोभन ने सामान्य होते हुए कहा- “ज बताऔ… हमें कन्नों का है…? हम ठैरे अनपढ़ आदमी… तुम बताऔ सोई करें…।”
“इंस्पेक्टर तुषार को फोन लगाओ… और कहो कि वो शंकर और काली को छोड़ दे…।” नरेतर ने आदेशात्मक अंदाज़ में कहा।
“काइ कों मज़ाक करि रहे हौ भैया…।” खीसें निपोरते हुए अशोभन बोला- “जु फोन-ओन नंबर हम नाइ मिलाइ पात कछु…।”
“ओ हो मंत्री…!” नरेतर ने अपना सर धुन लिया- “मैं तो समझा था कि तूने… कुछ तो सीख ही लिया होगा…।”
“मोंटी…!” नरेतर ने मोंटी की तरफ देखते हुए पुकारा उसे।
“यस बॉस…!” वह हाजिर था।
“फोन लगा इंस्पेक्टर को…!” उसने आदेश दिया।
“ओ.के. बॉस…।” कहते हुए पलटा वह।
मोंटी एक कोने में रखी मेज की ओर बढ़ा। मेज पर रखा मोबाइल फोन उठा लिया उसने। कुछ अंक दबाये और कान से लगा लिया।
“रिंग जा रही है बॉस…।” मोंटी ने बताया।
“मंत्री जी को पकड़ा फोन…।” नरेतर ने फिर आदेश सुनाया।
“जी बॉस…। लीजिये मंत्री जी…।” उसने आज्ञा का पालन करते हुए मोबाइल फोन अशोभन की ओर बढ़ाया।
“लाऔ…।” अशोभन ने मोबाइल फोन थामते हुए कहा।
“मंत्री जी ठीक से पकड़िये न…!” मोंटी ने उसे मोबाइल फोन ठीक से पकड़ाया- “हाँ… अब ठीक है…। जैसे ही उधर से कोई बोले… आप बात कर लीजिये…।” समझाकर वह पास ही खड़ा हो गया।
“हाँ… हाँ… ठीक है…।” अशोभन ने नरेतर की तरफ देखा। फिर फोन रिसीव होने का इंतज़ार करने लगा।
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“हैलो…!”
“…..”
“हाँ… मैं तुषार बोल रहा हूँ…।”
“…..”
“अच्छा… कहिये… मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ…!” तुषार ने सामान्य स्वर में पूछा।
“…..”
“जी मंत्री जी… मैंने ही गिरफ्तार किया है उन्हें…। अभी पूछताछ बाकी है सर…।” तुषार ने जवाब दिया।
“…..”
“क्या…?” चौंक पड़ा वह।
“…..”
“लेकिन क्यों सर…? अपराधी हैं वे दोनों… रंगे हाथ पकड़ा है हमने उन्हें…।” परेशानी के भाव साफ नज़र आ रहे थे तुषार के चेहरे पर।
“…..”
“उनके पास से स्मैक बरामद हुई है सर…।”
“…..”
“लेकिन मंत्री जी…।”
“…..”
“परन्तु हम…।”
“…..”
“ठीक है… सर…।”
और एक झटके के साथ उसने रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया।
“कबीर…!” इंस्पेक्टर तुषार ने ऊँचे स्वर में पुकारा उसे।
“जी सर…।” एक हबलदार हाजिर हो गया।
“छोड़ दो उन दोनों को…।”
“मगर सर…!”
“मंत्री जी का आदेश है…।” झल्लाते हुए जवाब दिया तुषार ने।
“लेकिन सर… वो दोनों रंगे हाथ पकड़े गए हैं…!” कबीर के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आये।
“छोड़ दो उन्हें…! दिस इज माई ऑर्डर…!” क्रोध की अधिकता से चीख पड़ा तुषार।
“ठीक है सर…।” कबीर उसकी मजबूरी समझ चुका था। उदासी छा गई थी उसके चेहरे पर भी।
चला गया वह।
और उस कोठरी के सामने रुका जिसमें शंकर और काली बंद थे। जेब से चाबी निकाली। और ताला खोल दिया उसने। दोनों ने उसकी तरफ बेरुखी से देखा।
“जा सकते हो तुम दोनों…।” कबीर ने उन दोनों को घूरते हुए कहा।
दोनों के चेहरे खिल उठे थे।
सींखचों का दरबाजा एक ओर धकेलते हुए बाहर आ गए दोनों। चलते हुए तुषार की कुर्सी के नजदीक जा पहुंचे। सीने तने हुए थे उनके।
तुषार दोनों हाथों में अपना सर थामे कुहनियों को मेज पर टिकाये हुए बैठा था इस वक्त।
“क्यों इंस्पेक्टर…! बहुत अकड़ रहे थे…!” काली के चेहरे पर कुटिल मुस्कान थिरक रही थी- “अब समझ में आया कि हम… क्या चीज हैं…?”
तुषार ने चेहरा उठाकर देखा। क्रोध की अधिकता से जबड़े भिच गए थे उसके।
“चल यार… देख नहीं रहा है… इंस्पेक्टर साहब… कितने परेशान लग रहे हैं…!” चेहरे पर कुटिल भाव और बैसी ही मुस्कान लाते हुए शंकर बोला था।
“ठीक कहते हो यार… बहुत दुखी हैं बेचारे…।” काली भी उसी अंदाज़ में कह गया।
“माना कि अभी मजबूर हैं हम… लेकिन ‘वो’ बिलकुल स्वतन्त्र है…।” तुषार ने ऊपर की ओर उंगली उठाते हुए कहा। स्वर में कठोरता थी।
“अभी भी तुम्हें ऊपर वाले पर विश्वास है इंस्पेक्टर…! बड़े बेबकूफ हो तुम…!!” शंकर ने मुस्कराते हुए कहा उससे।
“ये तो वक्त बताएगा… कि कौन कितना बेबकूफ है…!” शब्दों को चबाते हुए बोला तुषार।
“चल यार… क्यों वक्त बरबाद करता है…। बॉस हमारा इंतज़ार करते होंगे…।” चलने का उपक्रम करते हुए काली ने शंकर से कहा।
“हाँ… चलो यार…।”
और दोनों मुस्कुराते हुए चले गए बाहर। तुषार घूरता रहा उन्हें। दरबाजे के बाहर निकले दोनों तो तुषार ने भी अपना चेहरा घुमा लिया। जबड़े अभी भी भिंचे हुए थे उसके।
“जाने दीजिये सर…।” कबीर ने पास आते हुए कहा- “ऊपर वाला सब देख रहा है…। ‘वो’ इन पापियों को कभी नहीं बख्शेगा…।”
“वो सिर्फ देखता ही तो रहता है ऊपर बैठा… करता कुछ नहीं…।” मन की भड़ास निकाल देना चाहता था तुषार। तभी तो कह गया था वह यह सब।
“ऐसा मत कहिये सर…।” पास खड़ा हबलदार अजीत भी बोल पड़ा था।
“क्यों न कहूँ मैं ऐसा…? बोलो अजीत… क्यों चुप रहूँ मैं…?” तुषार झल्लाहट में कह रहा था।
अजीत मौन रहा, और कबीर भी। दोनों ने देखा था एक नज़र तुषार की ओर।
“उस अंगूठा टेक को मंत्री बना दिया… ताकि… गद्दारों को शरण देता रहे वह…।” तुषार कहता गया- “धिक्कार है मुझ पर… एक जाहिल गंवार के कारण… अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ना पड़ा आज मुझे…। क्या इसीलिए ये वर्दी पहनी थी मैंने…? ये जानते हुए भी कि… वे दोनों अपराधी हैं… छोड़ना पड़ा उन दोनों को मुझे…। कुछ न कर सका मैं…। और ख़ामोश देखता रहा बस… तुम्हारा ‘वो’ ऊपर वाला भी…। क्यों…? आखिर क्यों…?” कहते हुए उसने अपना सर धुन डाला।
दोनों विह्बल हो उठे थे उसे देखकर। आगे कुछ कहने का साहस न जुटा सके। बस मौन खड़े देखते रहे। उस ‘क्यों’ का उनके पास कोई जवाब नहीं था।
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अशोभन जा चुका था।
कुर्सी पर बैठे नरेतर के मस्तिष्क में कई योजनायें चल रही थीं। शंकर और काली के आने का इंतज़ार भी था उसे।
“मोंटी…!” विचारों में खोये नरेतर ने उसे पुकारते हुए उसकी ओर देखा।
“जी बॉस…!” जवाब मिला उसे।
“कब्र तैयार करवाओ फटाफट…।” आदेश दिया नरेतर ने।
“क… क्यों बॉस…?” डरते हुए पूछा उसने।
“जितना कहा जाये… उतना करो समझे…।” नरेतर गुर्राया- “जाओ… जाकर कब्र खुदवाओ…।”
“ज… जी… बॉस…।” सहम गया था वह। अब तक उसकी समझ में कुछ कुछ आने लगा था। सोचकर सिहर उठा था वह। लेकिन उसे तो आदेश का पालन करना था।
चला गया वह। कुछ साथियों को लेकर। नरेतर बैठा रहा था वहीँ। सिगरेट सुलगा ली थी उसने। हलके-हलके कश ले रहा था वह। एक के बाद एक। कई सिगरेटें फूंक दी उसने। हॉल में खड़े उसके बाकी साथी देखते रहे उसे। किंकर्तव्यविमूढ़। आने वाली हर घड़ी से अंजान। मूक दर्शक बने।
और कुछ देर बाद काली और शंकर ने प्रवेश किया हॉल में। डरे सहमे थे दोनों।
“आओ मेरे शूरमाओं…! आओ…! तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे हम… बहुत नेक काम किये हो तुम…!” नरेतर ने क्रूर नज़रों से देखा उनकी ओर। होठों पर बैसी ही मुस्कराहट भी थी।
बढ़ते कदम रुक गए थे दोनों के। चेहरों पर भय की चादर फ़ैल गई थी। डरते डरते कदम बढ़ाये उन्होंने आगे की ओर। धीरे धीरे चलकर नरेतर के सामने जाकर रुक गए दोनों। सर झुकाए। अपराधियों की तरह।
“हमें माफ़ कर दीजिये बॉस…। गलती हो गई…।” शंकर ने कातर नज़रों से देखा उसकी ओर।
“माफ़…! माफ़ कर दें…! बहुत अच्छे…! जरुर कर देंगे…! हमेशा के लिए…!” नरेतर के होठों पर क्रूर मुस्कराहट और भी गहरी हो गई।
“पहली गलती है बॉस…। आगे से ऐसा नहीं होगा…।” काली ने सहमते हुए कहा।
नरेतर ने घूर कर देखा उसे। वह और भी सहम गया। नरेतर की उन क्रूर नज़रों का सामना नहीं कर सका वह।
“हाँ बॉस… दोबारा शिकायत नहीं मिलेगी आपको…।” शंकर ने भी घबराते हुए सफाई पेश की।
“दोबारा गलती करने के लिए जिन्दा नहीं रहोगे तुम…।” नरेतर दहाड़ा।
“माफ़ कर दीजिये बॉस…!” दोनों एक साथ गिडगिडाए।
“बिल्ला… साका… चीता…!” नरेतर ने पुकारा तीनों को।
“जी बॉस…!” तीनों हाजिर।
“हाथ-पांव बांध दो सालों के…।” गरजते हुए आदेश सुनाया नरेतर ने।
“नहीं बॉस…! माफ़ कर दीजिये हमें…!”
“रहम कीजिये हम पर…!”
दोनों गिडगिडाते हुए पैरों पर गिर पड़े। रहम की भीख मांगते रहे दोनों।
लेकिन कौन सुनता उनकी?
जो आज तक ‘रहम’ नाम के शब्द से भी बाकिफ न थे। आज वही रहम की भीख मांग रहे थे। और नरेतर? उसने तो सिर्फ क्रूरता का पाठ ही पढ़ा था। दया… माफ़ी… रहम… ये तो थे ही नहीं उसके शब्दकोष में।
आज तक ‘कहर’ बरपाता रहा था वह। और वही कर भी रहा था वह। हाथ पैर बांध दिए गए शंकर और काली के। ज़मीन पर पड़े छटपटा रहे थे दोनों।
“कब्र तैयार है बॉस…।” मोंटी ने आकर सूचना दी।
परन्तु शंकर और काली पर नज़र पड़ते ही उसके चेहरे का रंग उड़ गया। उसके दोनों खूंखार साथी बेबस पड़े थे। रोते… गिडगिडाते…। अब वह सब कुछ समझ रहा था।
“ले चलो दोनों को…।” नरेतर फिर गरजा।
“नहीं… नहीं… छोड़ दो हमें…।”
“माफ़ कर दीजिये बॉस… फिर कभी गलती नहीं होगी…।”
दोनों छटपटाते रहे। बेबस।
लेकिन बेकार।
उठा लिया गया दोनों को। और ले चले थे बाहर की ओर। पीछे पीछे नरेतर भी चल रहा था। जबड़े भिंचे हुए थे उसके।
बाहर से खण्डहर नज़र आने वाले उस स्थान के पीछे घनी झाड़ियाँ थीं। जहाँ कब्र तैयार की गई थी। सभी उसी ओर बढ़ रहे थे। शंकर और काली गिडगिडाए जा रहे थे। नरेतर के आगे सब कुछ बेअसर था।
थोड़ी दूर चलकर एक जगह ठहर गए सभी। क़रीब चार फुट चौड़ा और छः फुट लम्बा एवं इतना ही गहराई का एक गढ्ढा खोदा गया था वहाँ। एक ओर गढ्ढे से निकाली गई मिट्टी का ढेर लगा हुआ था।
“डाल दो दोनों को गढ्ढे में…।” नरेतर ने आदेश दिया अपने आदमियों को।
“नहीं… नहीं… नहीं…!” दोनों चीख रहे थे।
“रहम कीजिये हम पर…!”
“दया कीजिये बॉस…!”
दोनों बिलख बिलख कर रहम की भीख मांग रहे थे। लेकिन उन बेरहम दिलों में रहम कहाँ। डाल दिया गया दोनों को गढ्ढे में। दोनों चीखते रहे। चिल्लाते रहे। छटपटाते रहे। दया की भीख मांगते रहे। और वही नहीं मिल सकी उन्हें।
“ढक दो मिट्टी से हरामजादों को…!” नरेतर का क्रूर स्वर गूंजा।
“नहीं…! रहम करो…!”
“छोड़ दो हमें…!”
दोनों बिलख रहे थे। आँखों में आंसू छलछला आये थे। परन्तु वहाँ खड़े माटी के पुतले तो जैसे नरेतर के हाथों की कठपुतलियाँ मात्र थे। उसके आदेश का पालन करना ही जैसे उनका परम कर्तव्य था।
शुरू हो गए वे।
“नहीं…! नहीं…!!”
“ऐसा मत करो…!”
दोनों डकरा रहे थे। उनकी चीखें वातावरण को भयानक बना रही थीं। लेकिन वे कहाँ रुकने वाले थे। मिट्टी फैंकते रहे दोनों के शरीर पर। शंकर और काली तड़पते रहे। बिलखते रहे। छटपटाते रहे।
आस पास के वातावरण में भयानकता व्याप्त थी। उनके शरीर का प्रत्येक अंग ढक चुका था मिट्टी से। अभी भी छटपटा रहे थे दोनों। मिट्टी की ऊपर की सतह हिल रही थी। जो दोनों के दर्द को बयां कर रही थी। बड़ा ही भयानक दृश्य था यह। रोंगटे खड़े कर देने वाला। वहाँ खड़ा प्रत्येक शख्स ऑंखें फाड़े कांपती नज़रों से देख रहा था यह सब।
नरेतर ठहाके लगा रहा था यह सब देख। मिट्टी में तब तक हलचल होती रही जब तक दोनों में साँस बाकी रही। आखिर कब तक जूझते वे मौत से? दम घुट गया दोनों का। शरीर शांत हो चुके थे अब। मिट्टी का हिलना बंद हो चुका था। पूरी मिट्टी उनके ऊपर बिछा दी गई।
“वापस चलो…!” नरेतर ने पीछे मुड़ते हुए कहा।
सभी ने उसका अनुसरण किया।
पीछे पीछे चल दिए सभी।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ३९
कॉलेज से आने के बाद रवि कपड़े बदल रहा था। कुछ जल्दी में लग रहा था। शायद कहीं जाना था उसे। दरवाजे पर किसी के आने की आहट हुई, रवि ने मुड़कर देखा। नीता थी। हाथ में पानी का गिलास लिए।
“कहीं जा रहे हैं…?” नीता ने पानी का गिलास रवि की ओर बढ़ाते हुए पूछा।
“हाँ…!” कहते हुए रवि ने गिलास ले लिया था।
“कहाँ…?” नीता ने फिर पूछा था।
“बाहर…” पानी पीते हुए वोला था वह- “थोड़ी हवा खाकर आता हूँ…।” खाली गिलास नीता को पकड़ा दिया था।
“पर अभी तो आये हैं आप… बाहर से।” मन में जिज्ञासा थी।
“अरे भई…! जल्दी लौट आऊंगा…।” प्यार से देखा था उसने नीता की ओर- “अच्छा… मैं चलता हूँ…।“ कहते हुए वह जाने लगा था।
नीता बस देखती रह गई, उसे जाते हुए। कुछ सोचते हुए मुड़ी और बिस्तर पर पड़ी किताबें मेज पर रखने लगी। एक बार सरसरी निगाह से कमरे का निरक्षण किया और फिर खाली गिलास लिए रसोई की ओर बढ़ गई। बैठक में झांककर देखा, गीता और शीला देवी टी.वी. पर कोई कार्यक्रम देखने में व्यस्त थीं। करन, शोभा और कंचन अपने अपने कमरों में थे। शायद आराम कर रहे हों।
रसोई में आकर नीता शाम के खाने की तैयारी में जुट गई। क़रीब दो घंटे बाद रवि का स्वर सुनाई दिया उसे। शायद वह लौट आया था। नीता के हाथ और तेज चलने लगे। चेहरे पर चमक आ गई थी। कुछ देर में आकाश और मोहन बाबू भी आ चुके थे।
और फिर कुछ देर बाद सभी बैठक में इकट्ठे थे। गीता रसोई का जायजा लेने चली गई थी। क़रीब पंद्रह मिनट बाद गीता ने सूचना दी कि खाना तैयार है। फिर सब खाने की मेज पर पहुँच गए।
गीता और नीता ने सबको खाना परोसा। और बाद में अपने लिए भी। खाने के साथ साथ इधर उधर की बातें भी होती रहीं। खाने के बाद सब अपने अपने कमरों में चले गए। गीता और नीता रसोई और वर्तनों की सफाई में जुट गईं। एक डेढ़ घंटे में फुरसत मिली उन्हें। सारा काम निपटाने के बाद गीता भी अपने कमरे में जाने लगी।
“अच्छा नीता…! अब तू भी सो जा जाकर… और हाँ… किचिन का दरवाजा बंद कर देना…।” कहते हुए वह रसोई से बाहर निकल गई।
“ठीक है दीदी…।” नीता ने जवाब दिया और फ्रिज की ओर बढ़ गई। फ्रिज खोलकर देखा, कुछ सेब पड़े थे। उसने दो सेब उठाये और फ्रिज बंद कर दिया।
सेब धोने के बाद प्लेट में रखे। चाकू उठाया और रसोई से बाहर निकल आई। दरवाजा बंद किया और चल पड़ी। मंजिल थी रवि का कमरा। जानती थी कि शाम को हल्का फुल्का खाने के बाद रवि को फल या भुने चने खाना बहुत पसंद है।
रवि के कमरे की ओर देखा, लाइट अब भी जल रही थी। रवि ज्यादातर लेट ही सोता है।
“अरे…! क्या लाई हो…?” नीता को अपने कमरे में प्रवेश करते हुए देखा तो पूंछ बैठा रवि- “सोई नहीं अभी तक…?”
“नहीं…!” नीता ने सेब की प्लेट बिस्तर पर रख दी और कुर्सी खींचकर बैठ गई वहीँ।
एक सेब उठाया और छीलने लगी।
“अच्छा… तो मेरी पसंद नापसंद का खयाल रखा जाने लगा है…।” रवि ने मुस्कुराते हुए कहा। हाथ में कोई पुस्तक थी। तकिये के सहारे आधा लेटा था वह बिस्तर पर।
“……” नीता केवल मुस्कुराई।
“वैसे… अब तक तो तुम सब कुछ जान गई हो मेरे बारे में…। है न…!” रवि ने देखा था उसे मुस्कुराते हुए।
“हाँ…! मैं जान चुकी हूँ कि आप बहुत लापरवाह हैं… अपने मामले में… औरों की बहुत फ़िक्र रहती है आपको…। केवल अपने लिए ही फुरसत नहीं मिलती…।” बड़े प्यार से डांट रही थी नीता।
“ये क्या बात हुई…?” रवि ने कुछ अज़ीब अंदाज़ में कहा था।
“सही बात हुई…!” सेब काटकर रवि की ओर बढ़ाते हुए बोली वह।
“अच्छा जी…!” सेब के टुकड़े लेते हुए बोला वह। किताब एक तरफ रख दी थी।
“कॉलेज से आने के बाद पता नहीं कहाँ चले गए थे…! ये नहीं कि थोड़ा आराम कर लें…! लौटने में भी दो घंटे लगा दिए…!” नीता दूसरा सेब छीलते हुए बोले जा रही थी।
“अच्छा…! तो किसी को ये जानना है कि मैंने ये दो घंटे कहाँ बिताये…? है न…!” रवि ने कुछ अजब से भाव लाये थे चेहरे पर।
“……” नीता फिर चुप रही। दूसरा सेब भी काटकर प्लेट में रख दिया था उसने।
“एक बात कहूँ…! आज पहली बार किसी ने यूँ प्यार भरे गुस्से से डांटा है मुझे… सच्ची…! मुझे क्या पता था कि गुस्से में इतना खूबसूरत लगती हो तुम…!!”
नीता ख़ुद को रोक नहीं पाई। खिल खिलाकर हंस पड़ी वह। रवि देखता रहा कई क्षण।
“सेब खा लीजिये…।“ नीता ने हँसी रोकते हुए कहा।
“अ… हाँ…! तुम भी लो न…।” उसने एक टुकड़ा नीता की ओर बढ़ाया।
नीता ने सेब का टुकड़ा थाम लिया था और खाने लगी थी।
“वो पीछे वाली बस्ती में हमारा पुराना मकान है न… मैं वहीँ गया था आज…।”
“अच्छा… हमारा एक और मकान है…!”
“हाँ…! बहुत पुराना है…। खाली पड़ा है… कई साल से…।”
“आप क्यों गए थे वहाँ…?”
“उधर बस्ती में बहुत सारे ग़रीब बच्चे हैं… जो पैसे के अभाव में अपनी पढाई ठीक से नहीं कर पाते…।” रवि कह रहा था- “मैंने उनको मुफ्त ट्यूशन देने का सोचा है…।”
“ये तो बहुत अच्छी बात है…।”
“हाँ… अभी आठ दस बच्चे आये थे आज… धीरे धीरे और भी आएंगे…।”
“मुझे तो पता था… आप किसी परोपकारी काम में ही गए होंगे…।”
“नीता… वो जीवन ही क्या…? जो किसी के काम न आ सके…!”
“सही कहा आपने…।”
“अच्छा… अब काफी रात हो गई… तुम जाकर सो जाओ… थक गई होगी…।”
“मैं कौन सा फावड़ा चलाती हूँ… जो थक जाउंगी…! किचिन का काम ही तो है बस… पूरे दिन तो आराम ही करती रहती हूँ…। आप ही सुबह से रात तक लगे रहते हैं…।” नीता बोले जा रही थी- “आप सो जाइये… फिर मैं चली जाऊँगी सोने…।” किताब लेकर एक तरफ रख दी थी नीता ने। चाकू और प्लेट भी मेज पर रख दिए।
“अच्छा… ठीक है… मैं सोने लगा बस…।” रवि सीधा लेट गया था बिस्तर पर।
“एक बात कहूँ…?” चादर उढ़ाते हुए पूछा उसने।
“हाँ… बोलो न…!”
“एक मोबाइल फोन क्यों नहीं ले लेते आप अपने लिए…! आप घर से बाहर रहते हैं… मुझे चिंता होती है…!”
“ठीक है… कल लेता हूँ… खुश…!”
“हूँ…!” नीता मुस्कुराई थी।
“अच्छा शुभ रात्रि…!”
“जी… मेरी तो हर रात शुभ ही होती है… आपको सुलाकर जो सोती हूँ…।” नीता कहते हुए मुड़ी थी। होठों पर मुस्कराहट।
“अच्छा जी…!”
“हूँ…!” सेब के छिलकों को वाइपर से एक कोने में इकठ्ठा कर दिया था उसने।
एक नज़र रवि को देखा। कमरे की लाइट ऑफ की और दरवाजा भेड़कर अपने कमरे की ओर चली गई।
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“अरे करन…!” बरामदे से गुजर रहे करन को आवाज़ दी रवि ने।
“हाँ भैया…!” करन ठहर गया था वहीँ। अब वो रवि को भैया ही बुलाता था।
“भैया कहाँ हैं…?” रवि ने पूछा था।
“वो आज… रविवार है न…! भैया भाभी को लेकर कहीं घूमने गए हैं…!” करन ने पास आते हुए बताया।
“अरे…! ये तो बहुत अच्छी बात है…!”
“तुम बता रहे थे… तुम्हें भी कहीं जाना था आज…?” करन ने याद दिलाया।
“हाँ…! आज तो बहुत सारा काम है… परसों मेरा कार्यक्रम भी है दिल्ली…।”
“अच्छा… फिर परसों ही निकलोगे या…?”
“नहीं… मैं कल शाम को ही निकल जाऊँगा…।”
“अच्छा…!”
“अरे सुन…! मैं तो आज बहुत व्यस्त हूँ… ये कुछ रुपये हैं…।” रवि ने पर्स से कुछ नोट निकालते हुए करन की ओर बढ़ाये।
“ये क्यों…? कुछ मंगाना है क्या…?”
“हाँ… वो नीता मोबाइल फोन के लिए बोल रही थी… बाजार जाते वक्त लेते आना…।”
“ठीक है… कौन सा लाऊं…?”
“कोई अच्छी कंपनी का देख लेना… बैटरी बैकअप ठीक हो…।”
“ठीक…!”
“अच्छा… मैं निकल रहा हूँ… मम्मी को बोल देना… लौटते में देर हो जाएगी…।” कहते हुए रवि बाहर चला गया।
“हाँ… बोल दूंगा…।” करन भी अपने कमरे की ओर बढ़ गया।
कमरे में पहुँचकर कपड़े बदले और बैठक की ओर बढ़ गया था। मोहन बाबू और शीला देवी दोनों वहीँ बैठे थे। कंचन और शोभा नीता के कमरे में थी।
“मम्मी… मैं बाजार जा रहा हूँ…।” बैठक के दरवाजे से झांककर बोला वह।
“ठीक है बेटा…। रवि अपने कमरे में है क्या…?”
“नहीं…! वो किसी काम से बाहर गए हैं… कह रहे थे… देर लगेगी आने में…।”
“अच्छा… जा… और जल्दी आना…।”
“ठीक है मम्मी…!” कहते हुए वह चला गया।
“कितना घुल मिल गया है करन… पूरे परिवार से…!” शीला देवी ने अख़बार पढ़ रहे मोहन बाबू की ओर देखते हुए कहा।
“हाँ…! बड़ा प्यारा है…! रवि ने बहुत नेक काम किया उसे यहाँ लाकर…।”
“सो तो है…। उसकी तो जितनी तारीफ की जाये… कम है… देखना… खूब नाम करेगा हमारा रवि…!”
“सही कहा तुमने…। उसकी मेहनत जरुर रंग लाएगी…।” मोहन बाबू बोले जा रहे थे- “हर काम में समर्पण झलकता है उसके… रात रात भर जागते हुए देखा है मैंने उसे… उसकी मेहनत का फल उसे जरुर मिलेगा… देखना तुम…!”
“ईश्वर करे… वो दिन जल्द आये…!” शीला देवी बोली थीं।
और इसी तरह की बातें होती रही फिर।
क़रीब दो घंटे बाद करन बाजार से लौटा। हाथ में एक पैकेट पकड़े हुए था। वह सीधा नीता के कमरे में ही गया। शोभा और कंचन अभी भी वहीँ थी। तीनों किसी बात को लेकर हंस रही थीं।
“भाभी… देखिये मैं आपके लिए क्या लाया हूँ…?” करन ने कमरे में घुसते ही हाथ में पकड़ा पैकेट नीता की ओर बढ़ाया।
“क्या है इसमें…?” नीता, कंचन, शोभा तीनों एक साथ बोल पड़ी।
“खोलकर देख लीजिये न…!” करन ने पैकेट नीता को पकड़ा दिया।
“अरे… इसमें तो मोबाइल लगता है…!” नीता ने पैकेट को गौर से देखते हुए कहा।
“जल्दी खोलिए न भाभी…! देखें तो सही… कैसा है…?” कंचन ने उतावलेपन से कहा।
“हाँ भाभी… खोलो तो सही…!” शोभा भी बोल पड़ी।
“अच्छा देखती हूँ…।” नीता ने पैकेट खोलते हुए कहा।
पैकेट खुलते ही रेड-मी का न्यू ब्रांड मोबाइल सामने था। नीता ने उलट पलट कर देखा।
“अरे… ऑन तो कीजिये भाभी…! लाइए… मैं करती हूँ…।” कंचन ने मोबाइल फोन लेते हुए कहा।
कंचन ने पॉवर बटन दबाकर मोबाइल फोन ऑन किया।
“इसमें तो बहुत सारे फंक्शन हैं…।” कंचन देखते हुए बोली।
“कैसा लगा भाभी…?” करन ने पूछा था।
“म… मैं… इसके बारे में क्या जानूं…! इनको… पसंद… आना चाहिए बस…!” नीता झेंपते हुए बोली।
“इनको मतलब…? भैया के लिए मंगवाया है आपने…?” करन ने पूछा।
“अ… और नहीं तो क्या…?”
“ओ… हो…!” तीनों एक साथ बोले थे। कुछ इस अंदाज़ में कि नीता शरमा गई।
कुछ देर इसी तरह की ठिठोलियाँ चलती रहीं। फिर करन उन तीनों को मोबाइल के फंक्शन्स के बारे में समझाता रहा था काफी देर। फिर तीनों अपने अपने कमरों में चले गए थे। नीता रह गई थी अकेली अपने कमरे में। लेट गई थी। आराम करने के इरादे से।
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सभी खाने की मेज पर थे। खाने के दौरान आकाश और नीता बता रहे थे कि आज उन्होंने क्या क्या देखा, कहाँ कहाँ गए। बहुत खुश थे दोनों। बातों बातों में खाना भी हो गया। सब अपने अपने कमरों में चले गए। नीता भी रसोई के काम से जल्दी फुरसत हो गई थी। क्योंकि शोभा आ गई थी उसका हाथ बंटाने को।
फुरसत मिलते ही वह रवि के कमरे में जा पहुंची। जाकर देखा, रवि बिस्तर पर पेट के बल लेटा था। आहट पाकर ऑंखें खोल दी उसने।
“क्या हुआ…? थके थके से लग रहे हैं आप…?” पास ही बिस्तर पर बैठते हुए पूछा उसने।
“नहीं… कुछ नहीं बस… आज चलना कुछ ज्यादा ही हो गया…।” रवि ने नीता की ओर चेहरा करते हुए बताया।
“लाओ… मैं पैर दबा देती हूँ…।” नीता ने पैरों की ओर खिसकते हुए कहा।
“अरे रहने दो न…! इतना भी नहीं थका हूँ…!” रवि ने मना करना चाहा।
पर तब तक नीता पैर दबाने लगी थी।
“आप कितने भी थके होंगे… तब भी यही कहेंगे…।”
“……”
“अब सीधे लेट जाइये… हाँ… ऐसे ही…।” नीता ने उसे सीधा लिटाते हुए कहा और फिर पैर दबाने लगी।
रवि चुपचाप देखता रहा था उसे।
“आपने अपना मोबाइल देखा…? कैसा है…?”
“कहाँ है…?”
“वो सामने अलमारी में ही तो रख दिया था मैंने… देखा नहीं आपने…? रुकिए… मैं देती हूँ…।” कहते हुए वह उठी और मोबाइल फोन लाकर रवि को पकड़ा दिया- “ये देखिये…।”
“करन लाया है तो ठीक ही होगा…।” देखते हुए कहा उसने।
“करन कह रहे थे… आप कल कहीं जाने वाले हैं…!” नीता फिर पैरों की तरफ बैठ गई थी और धीरे धीरे पैर दबाती जा रही थी।
“अरे हाँ… परसों कार्यक्रम है मेरा…।”
“दिल्ली में…?”
“हाँ…! कल शाम को निकलूंगा…।”
“……”
“अरे… क्या हुआ…? तुम चुप क्यों हो गईं…?” मोबाइल से नज़र हटाकर देखा था नीता की ओर उसने।
“मुझे अच्छा नहीं लगेगा…।” नीता ने उदासी भरे लहजे में कहा था।
“इसमें उदास होने वाली क्या बात है…? अब तो मोबाइल भी रहेगा मेरे पास… तुम जब चाहो… तब बात कर सकती हो मुझसे… घर में फोन है ही… और फिर… दो दिन की ही तो बात है…।”
“…….” नीता कुछ नहीं कह पाई। ख़ामोश रही। अन्दर भावनाओं का समंदर हिलोरें मार रहा था।
“तुम तो एकदम ख़ामोश हो गईं…! अच्छा तो फिर मैं नहीं जाता हूँ… खुश…!”
“ऐसा कब कहा मैंने…? मैं कहाँ रोक रही हूँ आपको…?”
“फिर ये गुब्बारे क्यों फुला लिए…?” रवि ने कुछ इस अंदाज़ से कहा कि नीता मुस्कुराये बिना न रह सकी।
“ये हुई न बात…! अच्छा इसी बात पर एक फोटो हो जाये…!” उठकर बैठ गया वह।
“फोटो…?” आश्चर्य से देखा उसने।
“हाँ… मोबाइल है न…!” रवि ने मोबाइल का कैमरे वाला फंक्शन खोला और सेल्फी मोड पर कर लिया।
नीता मुस्कुराते हुए उसके क़रीब आ गई थी। रवि ने पोजीशन ठीक करते हुए क्लिक कर दिया।
“देखूं… कैसा आया…?” नीता ने आग्रह किया।
“बहुत सुन्दर…!” रवि ने मोबाइल उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।
“अरे बाकई…! फोटो तो बहुत खूबसूरत आया…!”
“तुम जो हो इसमें…!” रवि ने निहारते हुए कहा।
“धत्त…! आप भी तो हो…।” शरमा गई थी वह- “चलो चलो… अब लेट जाओ… अभी मेरा काम पूरा नहीं हुआ…।”
“ये लो…।” और वह फिर लेट गया था।
नीता फिर से पैर दबाने लगी थी।
“अब हो गया न…! जाओ सो जाओ…!” कुछ देर बाद बोला था वह।
“ऊँ हूँ…!”
“अच्छा बाबा… कर लो मनमानी…!” गहरी साँस छोड़ते हुए कहा उसने।
नीता मुस्कुराते हुए पैर दबाती रही। कुछ देर और दबाने के बाद देखा उसने, रवि की पलकें भारी होने लगी थीं। वह मुस्कुराई। बिस्तर से उठी और रवि के हाथ से मोबाइल फोन लेकर मेज पर रख दिया। चादर उढ़ा दी। लाइट ऑफ की और दरवाजा भेड़ कर बाहर आ गई। अपने कमरे में पहुँचकर लाइट ऑफ की और बिस्तर पर जा लेटी।
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रवि कॉलेज से जल्दी आ गया था। दिल्ली जो जाना था उसे। कमरे में पहुँचा तो देखा, नीता बैग में कपड़े रख रही थी।
“आ गए आप…?” रवि को आया देख कहा था उसने।
“तुमने तो पूरी तैयारी कर दी लगता है…?” बैड पर बैठते हुए वोला वह।
“हाँ…! डायरी… पेन… एक जोड़ी कपड़े… पानी की बोतल… एक किताब भी रख दी है…। और कुछ रखना है…?” पूछा था उसने।
“नहीं… ठीक है…।”
“रास्ते में खाने के लिए कुछ बना दूँ…?”
“अरे नहीं…!”
“हाँ… आप तो बैसे भी कुछ खाते नहीं हो रास्ते में… आपके चने रख देती हूँ थोड़े…।”
“जैसी तुम्हारी मर्जी…!”
“अभी तो काफी समय है… आप थोड़ा आराम कर लीजिये…।” उसने घड़ी की ओर देखते हुए कहा था।
“अच्छी बात है…।” जूते उतार कर बैड पर तकिये के सहारे लेट गया था वह- “पानी पिला दो थोड़ा सा…।”
“हे भगवान…! मुझे तो ध्यान ही नहीं रहा… अभी लाती हूँ…।” बैग एक तरफ रखकर जल्दी से कमरे से निकल गई।
लौटी तो पानी का जग और गिलास था हाथ में।
“लीजिये…!” जग से पानी गिलास में डालकर आगे बढ़ा दिया।
गिलास लेकर होठों से लगा लिया था उसने। दो तीन घूंट में गिलास खाली कर नीता की ओर बढ़ा दिया था।
“और दूँ…?” गिलास लेते पूछा उसने।
“नहीं… बस…।” कहते हुए वह लेट गया था।
नीता ने खाली गिलास फिर से भरा और ख़ुद पीने लगी। पानी पीने के बाद गिलास और जग मेज पर रख दिया था। पास ही कुर्सी पर बैठ गई थी। रवि से मोबाइल फोन ले लिया था उसने और देखने लगी थी।
रवि ने कुछ नंबर सेव किये थे। कई नम्बरों पर बात भी की थी। नीता ने फोन गैलरी खोलकर देखी तो उसमें कुछ फोटो थे रवि के दोस्तों के। कॉलेज में लिए होंगे शायद। अंत में वो फोटो भी था जो रवि ने कल रात खींचा था। देखती रही थी कई क्षण। होठों पर मुस्कराहट भी दौड़ गई थी हल्की। रवि की ओर देखा, उसकी पलकें बंद थीं। नीता ने निहारा था कई क्षण उसे। और फिर मोबाइल फोन में कुछ देखती रही थी। क़रीब आधा घंटे बाद गीता और शीला देवी आई थीं कमरे में।
“सब तैयारी हो गई…?” शीला देवी ने आते हुए पूछा था।
“जी मम्मी जी…!” कुर्सी से उठते हुए बोली थी वह- “मैंने बैग तैयार कर दिया है… अभी खाने के लिए कुछ बना देती हूँ मैं…।”
“न… रहने दे… मम्मी जी और मैंने बना दिया है…।” गीता ने बताया था।
“आपने क्यों तकलीफ की…! मैं कर लेती न…!”
“तो क्या हुआ…? वैसे भी… तुम्हीं तो करती हो सब…।” शीला देवी ने कहा।
“अरे मम्मी…! बैठो…!” रवि ने भी ऑंखें खोल दी थीं।
“नहीं… मैं तो देखने आई थी बस… जाओ तो बोल देना… मैं बैठक में हूँ तब तक…।” कहते हुए चली गई थीं वे।
“भाभी बैठो न…!” रवि उठकर बैठ गया था।
गीता उसके पास ही बैठ गई।
“अपना नंबर तो दे दो… तुमसे बात करनी हुई तो…?” गीता ने कहा।
“ओह… मैं तो भूल ही गया था…!”
“मैंने आपकी डायरी में लिख दिया है दीदी…।” नीता ने बताया था।
“अच्छा… मैंने देखा नहीं शायद…!”
“मैं खाना ले आऊँ… आप अभी खायेंगे तो…?” नीता ने पूछा रवि से।
“ठीक है… ले आओ…।”
नीता चली गई थी।
“रात में पहुंचोगे तो ठहरोगे कहाँ बेटा…?” गीता ने पूछा।
“होटल में ठहरने की व्यवस्था है भाभी जी…।”
“प्रोग्राम तो शाम को होगा कल… दिन में क्या करोगे…?” गीता पूछ बैठी।
“वो क्या है भाभी जी… दो जगह कार्यक्रम है कल… सुबह १० बजे शूटिंग के लिए बुलाया है… दो तीन घंटे उसमें लग जायेंगे…।” रवि बता रहा था- “फिर शाम को ७ बजे से कार्यक्रम है दूसरा…।”
“खाना लाई हूँ…।” नीता ने कमरे में प्रवेश किया।
“ला इधर दे…।” गीता ने थाली थामते हुए कहा।
गीता ने थाली लेकर बैड पर ही रख दी थी।
और फिर रवि खाता रहा था।
खाना खाने के बाद कपड़े बदले और तैयार होने लगा था। गीता बर्तन उठा ले गई थी। नीता बैठी देख रही थी रवि को तैयार होते हुए।
“अच्छा… तो मैं चलूँ…!” तैयार होने के बाद बोला वह।
“पहुँचकर फोन करियेगा…।” बैग उठाकर देते हुए कहा था नीता ने। चेहरे पर उदासी थी।
“हाँ… करूँगा न…! आओ मम्मी को बोल देता हूँ…।” कहते हुए वह नीता के साथ साथ कमरे से बाहर निकला।
बैठक में गीता और शीला देवी दोनों ही थीं।
“मम्मी मैं जा रहा हूँ फिर…!” कहते हुए क़दमों में झुक गया था वह।
शीला देवी ने आशीर्वाद देते हुए उसके हाथों को चूम लिया था।
“अच्छा भाभी…!” कहते हुए रवि ने गीता के भी पांव छुए थे।
“पहुँच जाओ तो फोन करना…।”
“जी भाभी जी…!” कहते हुए वह गेट की ओर बढ़ा था।
तीनों गेट तक आई थीं छोड़ने। और तब तक देखती रहीं जब तक वह ओझल न हो गया। फिर मुड़ी थीं, अन्दर जाने के लिए।
“तुझे क्या हुआ…?” गीता ने नीता के उदास चेहरे को देखते हुए पूछा था।
“क… कुछ भी नहीं…।” नीता ने नज़रें चुराते हुए कहा था।
“परसों आ जायेगा न…!” शीला देवी ने उसे अपने सीने से लगाते हुए कहा था- “उदास नहीं होते… चल… अन्दर चलते हैं…।” नीता को सीने से लगाये ही वे बैठक की ओर बढ़ी थीं।
नीता ने सम्भाला था ख़ुद को और फिर बैठक की ओर चली गई थीं तीनों।
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सुबह के ११ बजे थे। कंचन, गीता, शीला देवी और नीता घर पर ही थीं। कंचन आज स्कूल नहीं गई थी। गीता और शीला देवी बैठक में थीं। नीता रवि के कमरे में बिस्तर पर लेटी थी उदास सी।
“भाभी देखना… ये पोस्टमैन दे गया है…।” कंचन हाथ में एक पैकेट थामे नीता के पास आई थी- “रवि भैया के नाम है…।”
“अच्छा देखूं…!” उठकर बैठते हुए हाथ बढ़ाये थे उसने।
कंचन ने पैकेट नीता को पकड़ा दिया और पास ही बैठ गई। नीता ने पैकेट देखा, जिस पर रवि के नाम के साथ पूरा पता लिखा था। नीता ने खोला उसे। कुछ किताबें थी उसमें।
“ये तो किताबें हैं…!” कंचन ने एक किताब लेते हुए कहा- “अरे भाभी…! ये तो भैया की लिखी हुई है…! ये देखो…! भैया का नाम पड़ा है इस पर…!”
नीता ने भी देखा। ऊपर पुस्तक का नाम लिखा था और नीचे एक कोने में रवि का नाम।
“हाँ…! ये तो… इन्हीं की है…!” चेहरे पर ख़ुशी के भाव आ गए थे।
“हाँ… हाँ… देखो…! पीछे फोटो भी है भैया का…!” कंचन ने किताब पलटकर देखते हुए कहा था- “मैं भाभी और मम्मी को दिखाकर आती हूँ…।” कहते हुए वह दौड़ी थी।
पैकेट में पुस्तक की १० प्रतियाँ थीं। नीता ने बाकी मेज पर रखते हुए एक पुस्तक लेकर पढ़ने लगी थी।
उधर गीता और शीला देवी भी पुस्तक देखकर बहुत प्रसन्न हुई थीं। पुस्तक पढ़ते पढ़ते नीता ने सोचा कि रवि को फोन करके सूचित कर दे। पर फिर कुछ सोचकर रह गई। अभी सुबह ही तो बात की थी। अभी तो व्यस्त होंगे शायद। यही सब सोचकर उसने जाने दिया और फिर किताब पढ़ने लगी थी।
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रवि रात एक बजे की ट्रेन से लौट आया था कार्यक्रम समाप्त करके। घर पहुंचते पहुंचते सुबह के पांच बज चुके थे। दरवाजे पर लगा स्विच दबाया और इंतज़ार करने लगा। दरवाजा खुला तो देखा नीता थी। जैसे ही रवि अन्दर आया, नीता लिपट गई थी उससे।
“अरे… ये क्या…!” रवि ने नीता के चेहरे की ओर देखा था मुस्कुराते हुए- “तो किसी ने… बहुत मिस किया मुझे… हूँ…!”
“……..” नीता ने हाँ में सर हिलाया था। बिना कुछ बोले।
“अब अन्दर चलें…!”
“अ… हाँ…!” नीता ने बैग ले लिया था उससे और कमरे की ओर बढ़े थे दोनों।
बाकी सभी अभी जागे नहीं थे शायद। या जागे होंगे तो अपने अपने कमरों में होंगे। कमरे में पहुँचकर बैग एक तरफ रख दिया था नीता ने और तौलिया दे दिया था रवि को। जो बैड पर बैठ चुका था। तौलिया लेकर कपड़े बदल लिए थे उसने।
“नींद लगी होगी आपको… थके भी होंगे… सो लीजिये थोड़ा…।” तकिया ठीक करते हुए बोली वह।
“हाँ… नींद तो लगी है… चलो… सो जाता हूँ…।” और लेट गया था वह।
नीता ने चादर उढ़ा दिया था और बैठ गई थी पास ही।
“कैसा रहा प्रोग्राम…?”
“अच्छा रहा…!”
“और शूटिंग…?”
“शूटिंग भी हो गई ठीक… यूट्यूब चैनल था एक…।”
“आपकी किताब भी प्रकाशित होकर आ गई है कल…!”
“कहाँ है…? दिखाओ जरा…!”
नीता ने मेज से एक पुस्तक उठाकर दी थी।
“तुम्हें पता है…! ये मेरा पहला काव्य संग्रह है…।” रवि ने किताब देखते हुए कहा था।
“हूँ…!”
“आज मैं बहुत खुश हूँ नीता…!” नीता के चेहरे की ओर देखा था उसने।
“और मैं भी…! चलिए… अब सो जाइये… आपकी आँखों में नींद भरी है…।” उसने किताब हाथ से ले ली थी और मेज पर रख दी थी।
सिरहाने बैठकर रवि के बालों को सहलाने लगी थी। रवि ने पलकें मूंद ली थीं। काफी देर तक वह यूँ ही सहलाती रही। रवि सो गया था। उसके सो जाने के बाद वह धीरे से उठी और फिर घर की साफ सफाई में लग गई थी।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ४०
दिन तेजी से गुजर रहे थे। जब आपकी पहचान बढ़ती है, तो जिम्मेदारियां भी बढ़ जाती हैं। समाज के प्रति, देश के प्रति। रवि ने शैक्षिक और सामाजिक गतिविधियों को अंजाम देने के लिए एक संस्था का शुभारम्भ किया। और धीरे धीरे युवाओं की एक पूरी टीम तैयार हो गई। मकसद था, क्षेत्र के होनहार बच्चों को उनकी मंजिल तक पहुँचने में मदद करना। जुर्म के खिलाफ आवाज़ उठाना।
जब इरादे नेक होते हैं तो मंजिलें आसान हो ही जाती हैं। यही तो बात थी जो कुछ ही समय में संस्था के कार्यों की चर्चा दूर दूर तक फ़ैल गई थी। हर कोई संस्था के युवाओं की कार्यशैली, उनके नेक इरादों की प्रसंशा कर रहा था। संस्था की बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखकर कुछ राजनीतिक लोगों को भी पसीने आ गए थे। हालाँकि संस्था का राजनीति से कोई लेना देना नहीं था, फिर भी कुछ लोगों को संस्था की नेक गतिविधियां रास नहीं आ रही थीं। इनमें सबसे ऊपर था अशोभन। उसको अपना राजनीतिक भविष्य खतरे में नज़र आने लगा था। अप्रत्यक्ष रूप से उसने कई बार संस्था के युवाओं और स्वयं रवि को डराने धमकाने का प्रयास किया था। परन्तु रवि पर इसका कोई असर नहीं हुआ था। क्योंकि वह जानता था कि वह गलत नहीं है।
उधर साहित्य के क्षेत्र में भी एक के बाद एक सफलताएँ रवि को प्राप्त हो रही थीं। अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि उसकी पहली पुस्तक को पुरस्कृत किया जाना थी। बाद में कुछ और भी पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं रवि की। साहित्य प्रेमियों ने इनको खूब सराहा था। न केवल गृह राज्य बल्कि देश के अन्य राज्यों से भी उसे साहित्यिक कार्यक्रमों में बुलाया जाने लगा था। कुल मिलाकर साहित्य जगत को एक नया कलमकार मिल गया था।
इधर नरेतर की आपराधिक गतिविधियाँ भी चरम पर पहुँच रही थीं। कई बार उसकी मुठभेड़ इंस्पेक्टर तुषार के साथ हो चुकी थी। नरेतर तुषार को अपने रास्ते से हटाने की युक्तियाँ भी सोचता रहता था। लेकिन अभी तक कामयाब नहीं हो सका था।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ४१
रविवार का दिन।
शाम के ३ बज रहे थे।
आकाश और मोहन बाबू बगीचे में बैठे कुछ चर्चा कर रहे थे। शीला देवी अपने कमरे में थीं। करन और कंचन बगीचे में कुछ पौधे रोप रहे थे।
बैठक में रखे फोन की घंटी बजी।
रिसीवर गीता ने उठाया।
“हाँ जी… कहिये…!”
“…….”
“अरे रवि तुम हो…!”
“……..”
“कहाँ हो सुबह से…?” चिंतित होने वाले अंदाज़ में पूछा था गीता ने।
“……..”
“बोलो… क्या बात है…?”
“……..”
“हाँ… मैं देती हूँ उसे…।” कहते हुए गीता ने आवाज़ लगाई- “नीता…!”
“जी दीदी…!” नीता बाहर बरामदे में शोभा के साथ बैठी थी।
“फोन है तेरे लिए…।” गीता ने ऊँची आवाज़ में कहा था।
“जी आई…!” कहते हुए पहुँच भी गई थी- “किसका है…?”
“देवर है मेरा…!” गीता मुस्कुराई थी शरारती अंदाज़ में।
रिसीवर पकड़ाकर चली गई वह।
नीता शरमा गई थी। रिसीवर पकड़कर कान से लगाया-
“जी…!”
“……..”
“अभी…!” स्वर में थोड़ा आश्चर्य भी था।
“……..”
“कहीं जाना है…?” पूछा था नीता ने धीरे से।
“……..”
“ठीक है…! मैं तैयार होती हूँ…।”
“……..”
“जी…!” कहते हुए रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया था नीता ने। चेहरे पर प्रसन्नता के भाव।
जल्दी से पलटी थी। तुरंत शीला देवी के कमरे में पहुंची।
“मम्मी जी…!” सहमते हुए बोली थी नीता।
“हाँ बेटा…! बोलो… क्या बात है…?” पूछा उन्होंने।
“वो…!” सकुचा रही थी नीता।
“अरे…! तू तो शरमाये जा रही है…! थोड़ा आश्चर्य और प्रसन्नता के भाव थे चेहरे पर- “कुछ बोल तो सही…!”
“वो… इनका फोन था… तैयार होने को बोला है…।” नीता रुक रुक कर कह गई।
“तो इसमें शरमाने की क्या बात है…?” चेहरे पर ख़ुशी के भाव- “कहीं घूमने का प्लान होगा उसका…?”
“ज… जी…!”
“तो फटाफट तैयार हो जाकर…! पूछ क्या रही है…? पगली…!”
“जी मम्मी जी…!” कहते हुए पलट गई और तेज तेज क़दमों से अपने कमरे की ओर बढ़ी।
शीला देवी मुस्कुराती हुई देखती रही थीं उसे जाते हुए।
नीता कमरे में पहुंची और तैयार होने लगी थी। शोभा भी आ गई थी उसके पीछे पीछे।
“कहीं जाने की तैयारी हो रही है…?” पूछा था शोभा ने।
“हाँ…! वो तुम्हारे… भैया का फोन आया था…।”
“वैसे… कहाँ जा रहे हैं आप दोनों…?” शरारती अंदाज़ में पूछा था उसने।
“बताया नहीं… उन्होंने…!”
“अच्छा…! तो सीक्रेट है…!” नाटकीय अंदाज़ चेहरे पर।
“……..” नीता मुसकुरा भर दी थी।
“वो वाला नहीं…।” शोभा ने पीला शूट उठा रही नीता को टोका था- “ये वाला पहनिए…।” एक गुलाबी शूट उठाकर दिया था शोभा ने।
और फिर शोभा भी मदद करने लगी थी उसे तैयार होने में।
क़रीब २० मिनट में रवि आया तो देखा नीता एक दम तैयार खड़ी थी।
“जल्दी तैयार हो गईं…!” रवि ने देखा नीता को। बहुत खूबसूरत लग रही थी वह सजी संवरी।
“अब जाइये भी…!” शोभा ने टोका था- “या यों ही निहारते रहोगे एक दूसरे को…?”
नीता झेंप गई थी। चेहरे पर लालिमा।
“आओ…!” रवि ने चलने का उपक्रम किया था।
“रुकिए… मैं मम्मी को बोल दूँ…!” नीता ने कहा था।
“भाभी आप जाओ न…! मैं बोल दूंगी…।” शोभा ने प्यार से नीता को हल्का सा धकेला था।
फिर दोनों मुस्कुराते हुए गेट की ओर बढ़ गए।
गेट पार किया। थोड़ी दूर चलने के बाद रवि ने ऑटो ले लिया था।
“कहाँ जाना है सा’ब…?” जब दोनों बैठ गए तो पूछा था ड्राईवर ने।
“रोज़ी पार्क…!” रवि ने छोटा सा जवाब दिया।
“अच्छा सा’ब…!” कहते हुए उसने स्पीड बढ़ा दी।
और थोड़ी देर में वे दोनों रोज़ी पार्क में थे।
रोज़ी पार्क।
शहर के बाहर शांत वातावरण में बहुत ही खूबसूरत जगह। हर तरफ कई तरह के गुलाब लहलहा रहे थे।
नीता ने देखा चारों ओर। बहुत सारे युगल नज़र आ रहे थे वहाँ। कुछ शादीशुदा तो कुछ अविवाहित। साथ ही कुछ परिवार भी नज़र आये थे उसे। एक किनारे पर छोटा सा मार्केट भी था।
“आओ… पहले कुछ खाते हैं…!” रवि ने मार्केट की ओर बढ़ते हुए कहा।
“जी…!” कहते हुए वह उसके साथ हो ली। हाथ थाम लिया था उसने रवि का।
नीता ने सामने देखा। गोलगप्पे का स्टाल लगा था।
“मुझे गोलगप्पे खाने हैं…!” गोलगप्पे के स्टाल की ओर इशारा करते हुए कहा उसने।
“गोलगप्पे…!” आश्चर्य से देखा था रवि ने नीता को।
“हाँ…!” किसी बच्चे की तरह आग्रह किया उसने।
“ठीक है…! आओ…!” कहते हुए बढ़ गया वह।
स्टाल ज्यादा दूर नहीं था। पहुँच गए दोनों।
“भैया…! गोलगप्पे खिलाएंगे…?” रवि ने बड़े प्यार से कहा था।
“क्यों नहीं सा’ब…! जरुर खिलाएंगे…!” कहते हुए उसने दोनों को एक एक प्लेट थमा दी। चेहरे पर मुस्कराहट थी।
और फिर पानी में डुबोकर बारी बारी दोनों की प्लेट में गोलगप्पे रखने लगा। दोनों खा रहे थे। एक दूसरे को निहारते हुए। अचानक रवि को खांसी आ गई। शायद मिर्ची की बजह से।
“क्या हुआ…?” नीता ने प्लेट वहीँ छोड़ दी और झट से मग में पानी लेकर रवि को पिलाने लगी थी। साथ ही पीठ पर हाथ भी फेर रही थी।
गोलगप्पे वाला असमंजस में देख रहा था सब।
“ठीक हूँ मैं…।” पानी पीने के बाद बोला वह- “तुम खाओ न…!”
“नहीं…! अब नहीं खाना मुझे…!” कहते हुए नीता ने रवि के सीने पर भी हाथ फेरा था।
“पानी तो पीलो…!” रवि ने आग्रह किया।
“हूँ…!” कहते हुए रवि के हाथ से मग लेकर पानी पीने लगी वह।
रवि ने गोलगप्पे वाले को पैसे दिए और फिर आगे बढ़ गए थे दोनों।
“मिर्ची ज्यादा थी…!” नीता ने धीरे से पूछा था।
“नहीं…! इतनी ज्यादा भी नहीं थी…!”
“कुछ… मीठा खा लीजिये न…!” प्यार भरा आग्रह। चिंता अधिक।
“आओ…!” रवि बढ़ गया था एक ओर।
फिर दोनों एक बड़ी सी होटलनुमा दुकान के अन्दर चले गए थे। अन्दर मेज और कुर्सियाँ पड़ी थी। जिन पर कुछ लोग बैठे खा रहे थे।
“आओ… उधर बैठते हैं…!” एक खाली टेबिल की ओर इशारा करते हुए रवि बोला था।
दोनों ही उधर बढ़ गए थे। खाली कुर्सियों पर बैठ गए दोनों। उनके बैठते ही एक लड़का आया था।
“क्या लेंगे सा’ब…?” नम्रता से पूछा था उसने।
“भैया पहले एक आइसक्रीम ले आइये प्लीज…!” नीता ने आग्रह किया।
लड़के ने रवि की ओर देखा।
“तो तुम आइसक्रीम खाओगी…?” रवि ने टेबिल पर रखा मेन्यु उठा लिया था।
“वो… मैं आपके लिए मंगा रही हूँ… मिर्ची से आपका मुँह जल गया न…!” नीता ने बताया था।
“भैया पहले दो आइसक्रीम दे जाइये…. बाकी मैं बाद में बताता हूँ…।” कहते हुए मेन्यु रख दिया था उसने।
“अच्छा सा’ब…!” कहते हुए लड़का चला गया।
रवि नीता को निहारने लगा था एकटक।
“ऐसे क्या देख रहे हैं…?” नीता थोड़ा लजा गई थी।
“इतना खयाल क्यों रखती हो तुम मेरा…?”
“आप नहीं रखते न… तो मुझे रखना पड़ता है…।”
“अच्छा जी…!”
“और नहीं तो क्या…? ये नहीं कि… कम से कम… सन्डे के दिन तो घर पर रहा करें… लेकिन नहीं… जनाब इस दिन तो और भी व्यस्त हो जाते हैं… पूरे के पूरे दिन गायब…!”
रवि मुस्कुराते हुए देखता रहा था। चुपचाप।
“लीजिये सा’ब…!” लड़का आइसक्रीम ले आया था।
“ठीक है…! थोड़ी देर में आर्डर ले जाना…।” आइसक्रीम थामते हुए बोला वह।
“अच्छा सा’ब…!” कहते हुए वह चला गया।
“ये लीजिये… आइसक्रीम खाइए…!”
“आज भी तो सुबह से गायब थे…।” आइसक्रीम लेते हुए बोल रही थी वह।
“बाद में डांट लेना… पहले आइसक्रीम ख़तम करो… वरना पिघल जाएगी…।” रवि मुस्कुराते हुए बोला था।
“हे भगवान…! मैं कहाँ डांट रही हूँ आपको…! मैं तो बस… बोल रही थी… कि…।”
“आइसक्रीम…!” बीच में ही टोकते हुए आइसक्रीम की ओर इशारा किया था रवि ने।
“खा तो रही हूँ…!”
फिर दोनों चुपचाप खाते रहे। कुछ देर में ख़तम भी कर ली। रवि के होठों के किनारों पर थोड़ी आइसक्रीम लगी रह गई थी। जिसे देख नीता मुसकुरा ही पड़ी थी। और उसे साफ करने को उठकर रवि के नजदीक आ गई थी।
“क्या हुआ…?” रवि ने पूछा था।
“आइसक्रीम खाना भी नहीं आता आपको तो…!” कहते हुए दुपट्टे से उसके होठों को साफ कर दिया था। आँखों में अपनत्व और चेहरे पर मुस्कराहट।
“अच्छा बताओ… खाने में क्या लोगी…?” रवि ने पूछा था।
“मैं क्या बताऊँ…? आप ही मंगवा लीजिये… जो अच्छा लगे…।”
कहते हुए वह फिर कुर्सी पर बैठ गई।
रवि ने लड़के को बुलाया। मेन्यु से कुछ आर्डर किया और फिर मेन्यु को टेबिल पर रख दिया। लड़का आर्डर लेकर चला गया था। फिर कुछ देर में ही वह टेबिल पर खाना सजा गया। दोनों ने खाना खाया। खाने के बाद बिल चुकाया और फिर दोनों पार्क में टहलने लगे थे। नीता ने रवि का हाथ थाम रखा था।
“कितनी खूबसूरत जगह है…! है न…! नीता ने कहा था।
“हाँ… है तो…!”
“उधर देखिये न… कितने सुन्दर सुन्दर गुलाब लगे हैं…!” नीता ने उंगली से इशारा किया।
“हूँ… पर मेरे साथ जो गुलाब चल रहा है… वो ज्यादा सुन्दर है…!” रवि ने निहारते हुए कहा।
“धत्त…!” नीता शरमाई थी फिर।
“आओ… उधर बैंच पर बैठते हैं…!” कहते हुए वह सामने पड़ी बैंच की ओर बढ़ा था।
दोनों अभी बैठने वाले थे कि अचानक-
“तो ये है तुम्हारी मज़बूरी…!” क्रोध भरा स्वर। सीमा थी ये।
वो भी पार्क में घूमने आई थी शायद।
“ठीक पहचाना तुमने सीमा… लेकिन… ये मेरी मज़बूरी नहीं… बल्कि मेरी हिम्मत है… ताकत है… ज़िन्दगी है मेरी…!” कहते हुए रवि ने नीता को और पास खींच लिया था।
“हाँ… मैं देख रही हूँ… ऐसा क्या है इसमें… जो मुझमें नहीं है…?”
“ये तुम नहीं समझोगी…।”
“मुझे क्या बेबकूफ समझ रखा है… कॉलेज में बड़े शरीफ बनते हो… और यहाँ देखो… पता नहीं किसके साथ गुलछर्रे उड़ाते फिर रहे हो…? तुमने इसके लिए मुझे ठुकरा दिया…! इसे तो मैं अभी मजा चखाती हूँ…।” कहते हुए वह नीता की ओर बढ़ी थी।
“ए हवस की पुजारिन…!” नीता जो अब तक माजरे को समझ चुकी थी, गरज पड़ी- “किस पर कीचड़ उछाल रही है तू…? होने वाले पति हैं मेरे… बकबास की तो मुँह तोड़ दूंगी… समझी…!” नीता कहे जा रही थी- “और क्या कहा तूने…? गुलछर्रे…! अरे… ये जानते हुए भी कि मैं इनकी होने वाली पत्नी हूँ… कभी बेबजह छूने की भी कोशिश नहीं की इन्होंने… पर तुझे देखकर लगता नहीं कि… ये बातें तेरी समझ में आयेंगी…।”
“अच्छा… तो ये बात है… मैं भी देखती हूँ… कैसे शादी करते हो तुम…!”
“सीमा जाओ यहाँ से…!” आस पास इकट्ठी होती हुई भीड़ को देखकर बोला था रवि- “तमाशा मत बनाओ…!”
“तमाशा तो अब बनेगा… तुम दोनों की ज़िन्दगी का…। अभी तो मैं जा रही हूँ… लेकिन… छोडूंगी नहीं तुम्हें…।” क्रोध में उफनती हुई सीमा वहाँ से चली गई।
रवि और नीता भी पास पड़ी बैंच पर बैठ गए थे। जमा हुए लोग भी छितर गए थे।
“साथ में पढ़ती है… कॉलेज में…।” रवि ने बताया था- “सीमा नाम है उसका… मैं उसको कई बार बोल चुका हूँ कि… वो जो चाहती है… मैं नहीं कर सकता… लेकिन…।”
“कुछ मत कहिये… मैं सब समझ गई…।” बीच में ही रोक दिया था नीता ने।
नीता ने अपना सर रवि के कंधे से टिका दिया। रवि ने भी अपना हाथ उसके कन्धों पर टिका दिया था। और नीता ने चूम ही तो लिया था रवि का हाथ। अपने हाथों में लेकर। रवि ने बस प्यार से देखा था उसे। ख़ामोशी छाई रही दोनों के बीच। प्यार भरी ख़ामोशी। काफी देर यूँ ही बैठे रहे थे दोनों।
“चलें घर…!” रवि ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा।
“हाँ… चलिए…!”
“आओ…!” उठते हुए बोला वह।
“मैं कंचन और शोभा दीदी के लिए आइसक्रीम ले लूँ…?” आगे बढ़ते हुए पूछा था नीता ने।
“हाँ… हाँ… ले लो न…! आओ…! उस तरफ…।” आइसक्रीम पार्लर की ओर बढ़ गए थे दोनों
“ऐसा करते हैं… सबके लिए ले लेते हैं…।” रवि ने कहा था।
“हाँ… ये ठीक रहेगा… ।” नीता ने भी सहमति जताई थी।
और फिर रवि ने आइसक्रीम पैक करवाई। फिर दोनों पार्क के गेट की तरफ बढ़ गए थे। बाहर आकर ऑटो किया और वापस हो लिए।
“क्या लाईं भाभी…?” कंचन ने पोलीथिन बैग देखते हुए पूछा जो नीता ने पकड़ी हुई थी।
“आइसक्रीम…!” नीता ने धीरे से मुस्कुराते हुए बताया।
“वाऊ…! मेरे लिए…!” कंचन ने खुश होते हुए पूछा।
“सबके लिए…!” नीता बोली थी।
“दीजिये न…!” कंचन उतावली हो उठी थी।
“अभी नहीं…! खाना खाने के बाद… । तब तक फ्रिज में रख देती हूँ… ठीक है…।” नीता ने समझाया था।
“हाँ… हाँ… ये ठीक है…!”
दोनों रसोई की ओर बढ़ गई थीं फिर। और रवि अपने कमरे की ओर।
सात बज चुके थे।
सब खाने की मेज पर थे। रवि को छोड़कर।
“रवि नहीं आया अभी तक…!” आकाश ने पूछा था।
“जी वो… मना कर रहे थे… खाने की…।” नीता ने खाना परोसते हुए बताया।
“क्यों…?” फिर पूछा उसने।
“रवि आज नीता को लेकर रोज़ी पार्क गया था…। वहीँ से खाकर आये हैं दोनों…।” इस बार गीता ने मुस्कुराते हुए बताया था।
“ओह…! अच्छा किया उसने…!” आकाश भी खुश होता हुआ बोला।
“फुरसत मिल ही गई आज उसे…।” ,मोहन बाबू बोले थे।
“हाँ… ख़ुद ही फोन किया था दोपहर को…।” शीला देवी ने बताया।
“चलो अच्छा है… बैसे भी… नीता जबसे आई है… घर से बाहर ही नहीं गई…।” मोहन बाबू ने खाना शुरू करते हुए कहा।
बाकी सब भी खाने लगे थे फिर।
“सही कहा अपने…।” शीला देवी बोली थीं।
“भैया व्यस्त जो रहते हैं इतने…।” शोभा थी ये।
“हाँ… नई किताब पर काम कर रहे हैं आज कल… और संस्था का काम भी बढ़ गया है अब तो…।” करन ने बताया था इस बार।
“जो भी है… महीने में एक दिन तो निकालना ही चाहिए… आखिर… नीता का भी तो हक़ बनता है उस पर…।” मोहन बाबू बोल रहे थे।
“सो तो है…। कह दूंगी उसे… आगे से ध्यान रखा करे…।” शीला देवी ने सहमत होते हुए कहा था।
“अरे मम्मी…! वो ख़ुद का ध्यान नहीं रखता… नीता का क्या ध्यान रखेगा…?” आकाश बोला था हल्की हँसी के साथ।
“अ… ऐसी… बात… नहीं है…।” नीता जो अब तक खड़ी खड़ी सब सुन रही थी, बोल पड़ी- “वो तो मेरा… बहुत खयाल रखते हैं… अभी से…।”
“अच्छा…!” सब एक साथ बोले थे इस अंदाज़ में कि नीता लजा गई। और हथेलियों से चेहरा छुपा लिया था।
हँसी की फुलझड़ी फूटी थी वहाँ।
“भाभी… पानी देना जरा…!” करन ने नीता को पुकारा था।
और नीता ने जग उठाकर करन का गिलास पानी से भर दिया।
“मेरा तो पेट भर गया…।” कंचन बोली थी- “अब तो ले आओ भाभी…!” उसने नीता की ओर देखा था।
“हाँ… अभी लाती हूँ…!” कहते हुए वह रसोई की ओर बढ़ गई।
“अब क्या चाहिए तुझे…?” आकाश भी खाना समाप्त करते हुए बोला।
“भैया बाहर गए थे न… कुछ न कुछ लाये होंगे…।” शोभा पानी पीते हुए बोली।
“हाँ… आइसक्रीम…!” कंचन ने खुश होते हुए बताया।
“ओ हो…!” करन ने कहा था।
“हाँ… जब भी भैया बाहर जाते हैं… मेरे लिए जरुर कुछ लाते हैं…।” कंचन फिर बोली।
“भैया की लाड़ली जो है…।” गीता प्यार से बोली थी। तब तक नीता आइसक्रीम लेकर आ गई थी। सबसे पहले कंचन को दी फिर बाकी सभी को देने लगी थी। सभी बैठे आइसक्रीम खा रहे थे फिर। नीता बर्तन समेटने लगी थी।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ४२
सीमा कई दिन तक कॉलेज नहीं गई थी। रवि से बदला लेने की युक्तियाँ खोज रही थी। एक दिन नरेतर ने सीमा को परेशान सा देखा तो पूछा-
“क्या बात है सीमा…? देख रहा हूँ… कई दिन से तुम कॉलेज नहीं जा रही हो… कोई समस्या है तो बताओ मुझे…?”
“नहीं भैया… कोई समस्या नहीं है… बस… मूड नहीं है कॉलेज जाने का…।” सीमा ने बात छुपाते हुए कहा था।
“ठीक है… जब मूड ठीक हो… तो चले जाना…।”
“जी भैया…!” कहते हुए वह अपने कमरे में समा गई।
नरेतर भी चला गया था बाहर।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ४३
रवि तेजी से विकासनगर के ऑटो स्टैंड की तरफ बढ़ रहा था। सड़क के दाई ओर कुछ दूरी पर नज़र पड़ी तो ठिठक गया था वह। आठ दस बदमाश टाइप के लोग एक नौजवान को घेरे खड़े थे। और फिर अचानक वे सब उस अकेले शख्स पर टूट पड़े। इंस्पेक्टर तुषार था ये। वो भी जुट गया था उन बदमाशों पर। रवि दौड़कर पहुँच गया था उसकी मदद के लिए। और फिर दोनों ने मिलकर बुरी तरह धोया सभी को। आखिरकार जान बचाकर भागना पड़ा उन्हें।
“भाग गए साले…!” इंस्पेक्टर तुषार ने आस्तीन चढ़ाते हुए कहा। फिर पलटकर रवि की ओर देखा- “शुक्रिया दोस्त…!”
“ये तो… फर्ज था मेरा…।” रवि ने कहा था- “वैसे… कौन थे ये लोग…?”
“नरेतर के भेजे हुए गुंडे… बहुत बड़ा बदमाश है…।” बताया था तुषार ने- “खैर… मैं तुषार… तुषार बौद्ध… विकासनगर का इंस्पेक्टर…।”
“ओह…!” रवि ने हाथ बढ़ाया था- “रवि… रवि सूर्यवंशी…!”
“नाम तो सुना सुना सा लगता है…!” तुषार ने हाथ थामते हुए कहा था- “ओह… पहचाना… अहो भाग्य…! मैं एक… साहित्यकार से मिल रहा हूँ…!”
“बस… थोड़ा बहुत लिख लेता हूँ…।”
“थोड़ा बहुत…! मैंने तो आपकी बहुत सारी रचनाएँ पढ़ी हैं पत्र पत्रिकाओं में… वीडियो भी देखे हैं यूट्यूब पर… और आप तो एक संस्था भी चला रहे हैं… आपके तो दूर दूर तक चर्चे हैं…।”
“अरे नहीं…! मैं तो बस…।”
“भई मानना पड़ेगा…! कलम के साथ साथ… हाथ पैर भी अच्छे चला लेते हैं आप तो…!”
“अच्छा जी…!”
दोनों बातें कर ही रहे थे कि एक पुलिस जीप आकर रुकी वहाँ।
“आप ठीक तो हैं सर…?” कबीर ने जीप से उतरते हुए पूछा था- “किसी ने ख़बर दी कि आप पर हमला हुआ है…!”
“हाँ… पर भाग गए सब के सब… इनकी बजह से…।” तुषार ने रवि की ओर इशारा किया था।
“अरे नहीं सर… मैं तो बस…!”
“सर नहीं… दोस्त… आज से हम दोस्त हुए…।”
दोनों गले मिले थे। अजीत और बाकी सिपाही भी पास आ गए थे।
“देखा कबीर… आज ईश्वर ने मुझे एक अनमोल तोहफा दिया है… सुप्रसिद्ध साहित्यकार… रवि सूर्यवंशी… मेरा नया दोस्त…!”
“क्या बात है सर…! मैं तो इनका फैन हूँ सर…!”
“हाँ सर… मैंने भी इनको बहुत सुना है…!” अजीत बोला था।
“आप लोग तो… तारीफ ही किये जा रहे हैं…।” रवि मुस्कुराया था- “अब मुझे चलना चाहिए… फिर मुलाक़ात होगी…।”
“ठीक है…!” तुषार बोला था- “आइये… हम आपको घर छोड़ देते हैं…।”
“नहीं… आप परेशान मत होइए… मैं ऑटो ले लेता हूँ…।”
“शरमाइये मत… फिर दोस्ती कैसी…? आओ बैठो…!” तुषार ने हाथ पकड़कर खींचा था जीप की ओर।
रवि को बैठना ही पड़ा। तुषार भी बैठ गया था। बाद में बाकी सब भी।
“सरस्वती नगर… गली नंबर १०…।” रवि ने जीप चला रहे सिपाही को बताया था।
और फिर जीप चल पड़ी थी। रास्ते भर बातें होती रहीं। तुषार और रवि खूब घुल मिल गए थे। आखिर जीप सरस्वती नगर की १० नंबर गली में मुड़ गई।
“वो सामने… बड़ा सा गेट दिख रखा है न… वहीँ…।” रवि ने इशारे से बताया था।
जीप अयोध्या-सदन के गेट के सामने रुकी।
रवि उतरा था।
“आइये… अन्दर आइये…!” रवि ने आग्रह किया।
“फुरसत में आऊंगा दोस्त…! अभी तो माफ़ करो…!” तुषार ने मुस्कुराते हुए कहा।
“ठीक है… लेकिन आना जरुर…।”
“बिलकुल…!” कहते हुए ड्राईवर को इशारा किया था तुषार ने।
जीप आगे बढ़ गई।
रवि भी अन्दर चला गया था।
बाथरूम गया। हाथ मुँह धोये। तौलिया उठाया। मुँह पोंछा। कमरे में गया। कपड़े बदले। घड़ी की ओर देखा। आठ बज चुके थे। जल्दी से खाने की मेज पर पहुँचा। सब उसी का इंतज़ार कर रहे थे। उसके बैठते ही नीता ने खाना परोसना शुरू किया।
“वो… रास्ते में… एक दोस्त… मिल गया था… तो…।” रवि ने बताया था सहमते हुए।
“ठीक है…! खाना खाओ…!” मोहन बाबू बोले थे।
“कितनी बार कहा है… टाइम पर घर आ जाया करो… लेकिन सुनता कौन है…?” शीला देवी का शिकायती स्वर।
“मम्मी… अब खाना शुरू करो न…!” आकाश ने समझाया था।
रवि चुप ही रहा था फिर। खाने लगा था। बाकी सब भी शुरू कर चुके थे।
“आज तो खैर नहीं भैया जी…!” पास की कुर्सी पर बैठा करन फुसफुसाया था रवि के कान में।
रवि ने देखा था उसे। और फिर नीता को। ऊपर से एक दम शांत दिख रही थी। लेकिन अन्दर ही अन्दर गुस्सा उफन रहा था। एक नज़र गीता की ओर भी देखा था उसने। हल्के से मुस्कुराई थी वह। शरारत भरी। शोभा और कंचन भी दबी दबी मुस्कुराई थीं खाते खाते। रवि समझ गया था। आज तो पारा गरम है नीता का। चुपचाप खाता रहा था।
रवि ने खाना ख़तम करके पानी का गिलास उठाया ही था कि नीता ने एक और रोटी उसकी थाली में रख दी।
“नहीं… अब न… हीं…!” कहते हुए उसने नीता की ओर देखा। शब्द अधूरे ही रह गए। फिर चुपचाप खाने लगा था।
इस बार सब हँसे थे दबी दबी हँसी।
आखिर सब उठ गए थे खाकर। रवि रह गया था। अकेला। पास में केवल नीता थी।
“गुस्सा हो…!” कहते हुए पानी का गिलास होठों से लगाया था।
“………” नीता ने कोई जवाब नहीं दिया।
बरतन समेटने लगी थी वह।
“मैं मदद… करूँ…!” खाली गिलास उसकी तरफ बढ़ाते हुए बोला वह।
“बिस्तर लगा दिया है… जाकर आराम कीजिये…।” नीता बिना उसकी ओर देखे ही बोल रही थी। स्वर एक दम संयत।
“पर…!” रवि धीरे से बोला था।
नीता ने देखा था उसकी ओर। रवि चुपचाप कमरे की ओर चल पड़ा था। मासूम बच्चे की तरह।
जैसे ही रवि कमरे में दाख़िल हुआ, करन और शोभा पहुँच गए थे नीता के पास।
“क्या बात है भाभी…! आज तो भैया की भी क्लास लग गई…!” शोभा ने बरतन उठाने में उसकी मदद करते हुए कहा।
“हाँ… तो… हमारी भाभी… कम थोड़े न हैं किसी से…!” करन भी दो प्लेटें उठाकर उनके पीछे पीछे चल दिया था रसोई की ओर।
“भैया के चमचे… मक्खन मत लगाओ मुझे…!” नीता ने चेहरे पर मुस्कुराहट लाते हुए कहा था- “और ये क्या कर रहे हो तुम…? भागो यहाँ से… नहीं तो तुम्हें भी पीट दूंगी…!”
“मतलब…! भैया भी पिटने वाले हैं आज…?” प्लेटें रखते हुए अज़ीब चेहरा बनाया था उसने।
“रुक बदमाश…!” कहते हुए वह करन की ओर झपटी।
लेकिन करन भाग गया था वहाँ से। हँसते हुए। अपने कमरे की ओर।
दोनों हँसती हुई देख रही थीं उसे जाते हुए। फिर बरतनों की सफाई में जुट गईं।
“अच्छा भाभी… मैं तो चली…!” सारा काम निपटने के बाद बोली थी शोभा।
“हाँ… जाओ तुम…!”
“अच्छा गुड नाईट भाभी… और हाँ… ज्यादा मत डांटना मेरे भैया को…!” कहते हुए मुस्कुराई थी वह।
“चल शरारती…!” नीता भी मुस्कुराई थी- “मैं भला उन्हें डांट सकती हूँ कभी…!”
“मैं जानती हूँ…।” शोभा ने प्यार से उसे अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया था- “मैं तो बस…!”
“अच्छा रात बहुत हो चुकी है… जाकर सो जाओ… कॉलेज जाना है सुबह तुम्हें…!” नीता ने बीच में ही टोकते हुए कहा था।
“हूँ…!” कहते हुए वह चली गई थी।
नीता ने थोड़े काजू कटोरी में रखे। रसोई का दरवाजा बंद किया और चल दी रवि के कमरे की ओर। कमरे में जाकर देखा, रवि चादर ओढ़े मुँह ढककर लेटा था। जान गई थी कि जानबूझ कर सोने का नाटक कर रहा है वह। कटोरी मेज पर रख कर धीरे से रवि के चेहरे से चादर हटाई। रवि ने कसमसाते हुए ऑंखें खोल दीं।
“तुम… सोई नहीं…!”
“…….” ख़ामोश रही वह।
कुर्सी खींचकर बैठ गई थी और काजू की कटोरी उसकी तरफ बढ़ा दी।
“नाराज हो…?” दो तीन काजू उठा लिए थे उसने और एक मुँह में रख लिया था।
“जानबूझ कर थोड़े न लेट हुआ हूँ…!” काजू खाते हुए कहा था उसने।
“……..”
“गुब्बारे सा मुँह मत फुलाया करो तुम…!” उसने हंसाने की कोशिश की नीता को।
पर बेअसर!
“कुछ तो बोलो नीता…!” उठकर बैठ गया था वह।
“क्या बोलूं मैं…!” भावुक हो गई थी वह- “आप सुनते कहाँ हैं मेरी…! सुबह केवल नाश्ता करके गए थे… रात के आठ बजे लौटे… ऐसा कोई करता है भला…! मुझ पर क्या गुजरती है… कभी सोचा है आपने…?” कहते हुए आँखों में आंसू भर आये थे।
रवि बेचैन हो उठा था। और काजू कटोरी में रख दिए थे।
“नीता…! तुम तो रो रही हो…!” कहते हुए उसके चेहरे को ऊपर उठाया था। हाथों में ले।
आँखों से आंसू छलक पड़े थे। सीने से लगा लिया था रवि ने उसे। और नीता सुबकने लगी थी।
“नहीं नीता… रोओ मत…!” तड़प उठा था वह।
बार बार आंसू पोंछ रहा था। उठाकर पास ही बिठा लिया था उसे। और फिर कई बार माथे को चूमता रहा वह।
“पगली…! जरा सी बात पर इतना रोता है कोई…?” फिर सीने में छुपा लिया था उसने नीता को।
“आप दिन भर भूखे रहें… ये जरा सी बात नहीं है मेरे लिए…।” नीता थोड़ा शांत होते हुए बोली थी।
“गलती हो गई… माफ़ कर दो न अब… अच्छा मैं कान…।” कहते हुए उसने कान पकड़ने चाहे थे।
पर नीता ने बीच में ही हाथ पकड़ लिए थे।
“फिर मुस्कुरा दो न…!” आग्रह था उसके स्वर में।
नीता ने मुस्कुराने की कोशिश की थी।
“ऐसे कोई मुस्कुराता है क्या…! मुस्कुराना भी नहीं आता तुम्हें तो…।” रवि ने उसकी नाक पकड़कर हिलाई थी हल्के से।
और नीता फिर हँसे बिना न रह सकी। दुबक गई थी उसके चौड़े सीने में। रवि उसके बालों से खेलता रहा था।
“सोना नहीं है आज…!” धीरे से पूछा था नीता ने।
“तुम पास हो… तो फिर नींद किसे…?” रवि भी उसी अंदाज़ में बोला।
“धत्त…! चलिए… सो जाइये अब…!” नीता ने रवि को लिटाते हुए कहा।
“ये तो नाइंसाफी है…!” बच्चों की तरह मुँह बनाया था उसने।
“सो जाइये न…!” कहते हुए उसके बालों को सहलाने लगी थी वह।
रवि को सुकून मिल रहा था बेहद। बिना बोले निहारता रहा था उस मासूम चेहरे को।
नीता मुस्कुराते हुए उंगलियाँ फेर रही थी बालों में।
“सो जाइये…!” कहते हुए एक हथेली से ऑंखें बंद कर दी उसकी।
रवि भी सोने की कोशिश करने लगा फिर। और कुछ देर में ऑंखें बोझिल होने लगी उसकी। नीता अब भी उसके बालों को सहलाये जा रही थी। फिर देखा कि वह सोने लगा है, चादर उढ़ा दी थी। धीरे से उठी और लाइट ऑफ करने को मुड़ी। लेकिन आगे नहीं बढ़ पाई। दुपट्टा उलझ गया था शायद उसका। पीछे मुड़कर देखा। दुपट्टे का सिरा रवि के कंधे के नीचे दबा था। मुस्कुराई वह। और हल्के से दबा हुआ दुपट्टा निकाला था उसने। कुछ पल निहारा रवि को। और फिर लाइट ऑफ़ कर दी। दरवाजा बंद किया और चली गई अपने कमरे में। दरवाजा बंद किया। फिर लाइट भी और बिस्तर पर लेट गई। सोने के लिए।
õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ ख़्वाब अधूरे से õõõ
ख़्वाब अधूरे से ४४
“आओ मंत्री…! सब ठीक तो है…? अचानक कैसे…?” नरेतर ने अशोभन को आते देखा तो पूछा।
“कछु ठीक नाइ है… बुरी आफति में फसि गए भैया…!” कुर्सी पर बैठते हुए बताया उसने।
“तभी मुँह लटका हुआ है तुम्हारा… कहो… अब किसको टपकाना है…?” मुस्कुराते हुए पूछा उसने।
“छोकरा है एकु…!”
“क्या मंत्री…? छोकरों से भी डरने लगे अब…!” अज़ीब तरह से देखा था नरेतर ने उसे।
“मामूली छोकरा नाइ है बु… पता नाइ कौन कौन सी जाँच करवाइ रओ है… रोज काउ न काउ अफसर को फोनु आइ जातु है ससुर…!” परेशानी के भाव छलक रहे थे चेहरे पर।
“अच्छा…!”
“हाँ भैया…! मूतिबो दूभर करि दओ सारे ने…!”
“शहर में ऐसा कौन है… जो तुमसे उलझने चला है…?”
“अरे कोई रवी है… मंचन पे गीत बीत पढिवे कत्तु… कोई संस्थऊ चलाइ रहो है… एक तौ जू… ऊपर तै पार्टी बारे जान खांइ… कइ रहे हैं कि तुमतै बढ़िया तो जु छोरा काम कर रओ… हम तौ परेशान हैं… काउ पार्टी में मिलि गओ… तौ हम तौ जीवन में चुनाव नाइ जीति पइयें…।”
“चिंता मत करो मंत्री…! निपट जायेगा…!” नरेतर ने लापरवाही से कहा था।
“जु है… देखौ…!” फोटो देते हुए बोला अशोभन।
“ओह… तो ये है…! हीरा…!” फोटो देखते हुए पुकारा था उसने।
“जी बॉस…!”
“देख लो गौर से…!” फोटो पकड़ा दिया था उसने।
“अरे…बॉस…! ये तो वही है…! सीमा दीदी के कॉलेज में पढ़ता है… आपने बोला था न… पता लगाने को… सीमा दीदी की परेशानी का कारण भी यही है…!”
“अच्छा तो यही है वो…!”
“हाँ बॉस…! और उस दिन इंस्पेक्टर को भी इसी ने बचाया था…!”
“फिर तो इसे मरना ही होगा…! मेरी बहिन को ठुकराया न…! ऊपर से मेरे काम में दखलंदाजी…! मंत्री…! जाकर निश्चिन्त होकर सो जाओ…! अब ये तुम्हारी प्रोब्लम नहीं… मेरी समस्या है…!” जबड़े भींचते हुए बोला नरेतर।
“ठीक है भैया…! थोड़ी जल्दी करिओ…!”
“मंत्री… समझो हो गया…!”
“अच्छा भैया…!”
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ख़्वाब अधूरे से ४५
दोपहर के ढाई बजे थे।
नीता कमरे में लेटी थी। कुछ देर पहले ही आंख लगी थी उसकी। लेकिन ये क्या? अचानक आंख खुल गई थी उसकी। चेहरे पर भय की झलक साफ नज़र आ रही थी। मन किसी अनजानी आशंका से जोर जोर से धड़कने लगा था।
“हे भगवान…! ये कैसा सपना है…? नहीं… नहीं…! हे परमेश्वर…! कृपा रखना…!” कहते हुए वह जल्दी जल्दी रवि के कमरे में गई थी।
रवि नहीं था वहाँ। घड़ी की ओर देखा। उसके आने में अभी देर थी। लौट आई। फिर रसोई की तरफ बढ़ गई। पानी लिया और धीरे धीरे पीने लगी। दिल की धड़कन थोड़ी सहज हुई थी। मुँह धोया। पानी का जग और गिलास लेकर वापस रवि के कमरे में पहुंची। गिलास और जग मेज पर रखे। तौलिये से मुँह पोंछा। तौलिये को हैंगर पर टांगा। और फिर पलट गई थी बैठक की ओर। सीधी उस कोने में गई जहाँ टेलीफोन रखा था। नंबर डायल किया और इंतज़ार करने लगी।
“ह… हैलो…!”
“हाँ नीता…! बोलो क्या बात है…?”
“क… कहाँ है आप…?”
“ये कैसा प्रश्न है…? अरे भई… कॉलेज में हूँ…! और कहाँ…?”
“अ… आप… ठीक तो हैं…?”
“नीता…! क्या हुआ तुम्हें…? घबराई हुई लग रही हो…!”
“क… कुछ नहीं… अ… आप… कब तक आएंगे…?”
“आधा घंटा और लगेगा कॉलेज में… उसके बाद आ ही रहा हूँ…! बात क्या है…?”
“कुछ नहीं…! आप आ जाइये बस…!”
“ओ.के. बाबा…! सीधा घर ही आऊंगा… खुश…!”
“म… मैं रखती हूँ… फोन…!”
“हाँ… ठीक है…!”
और नीता ने रिसीवर रख दिया था। मन थोड़ा हल्का हुआ था। पर चिंता अभी भी चेहरे पर थी। वापस रवि के कमरे में पहुंची। बिस्तर पर बैठ गई। बैठी रही यूँ ही। गहरी सोच में डूबी। फिर लेट गई थी।
क़रीब ३:३० बजे रवि, करन, कंचन और शोभा कॉलेज से लौटे थे। रवि कमरे में पहुँचा तो देखा, नीता कुछ सोचती हुई सी लेटी थी बिस्तर पर।
“आ गए आप…!” उठते हुए बोली वह। चेहरा खिल उठा था।
“क्या हुआ तुम्हें…?” किताबें मेज पर रखते हुए पूछा उसने।
“कुछ नहीं…!” जाकर लिपट गई थी वह रवि से- “आपको देखने का मन कर रहा था… इसलिए…!”
रवि ने भी मुस्कुराते हुए उसे अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया था। कुछ देर यूँ ही लिपटी रही और फिर अलग हुई तो जग से पानी गिलास में डाला और रवि की ओर बढ़ा दिया।
“लीजिये… पानी पी लीजिये…!”
गिलास होठों से लगा लिया रवि ने और बैठ गया था बिस्तर पर।
“और दूँ…?”
“हाँ… थोड़ा और…!”
नीता ने गिलास फिर से भर दिया था। इस बार आधा गिलास खाली कर नीता की ओर बढ़ाया था उसने। नीता ने गिलास लेकर अपने होठों से लगाया और बचा हुआ पानी पीने लगी। फिर जग और गिलास मेज पर रख दिये थे। जाकर बैठ गई थी पास ही।
“क्या बात है नीता…? खोई खोई सी लग रही हो कुछ…!” रवि ने नीता का हाथ अपने हाथ में ले लिया था।
“नहीं तो…!” कहते हुए सर रवि के कंधे पर टिका दिया उसने।
“अच्छा ठीक है… शाम को बात करते हैं… लाओ… कपड़े बदल लूँ…! बच्चे आने वाले होंगे… पता है… चार बजे से पहले ही आ जाते हैं सब…!” रवि बोला था।
“अच्छा रुको… मैं देती हूँ निकालकर…!” उठते हुए बोली वह। और अलमारी में से कपड़े निकालने लगी।
पिंक कलर की शर्ट… और ब्लैक पेंट निकालकर अलमारी बंद कर दी उसने। पलट कर देखा। रवि शर्ट के बटन खोल रहा था। जब तक वह शर्ट उतारता, नीता ने कपड़े बैड पर रख दिए और तौलिया उठाकर रवि को दी थी। तौलिया लपेटकर उसने पेंट भी उतार दी। और फिर जल्दी से नीता द्वारा निकाली गई ब्लैक पेंट पहन ली। तब तक नीता ने रवि के द्वारा उतारे हुए कपड़े उठाकर हैंगर पर टांग दिए थे। अब वह शर्ट पहन रहा था।
नीता नजदीक पहुँचकर शर्ट के बटन बंद करने लगी थी।
“मैं भी चलूँ…?” नीता ने धीरे से पूछा था।
“तुम… तुम क्या करोगी वहाँ…?” मुस्कुराते हुए बोला था वह।
“नहीं… मैं भी चलूंगी… मुझे भी हमारा पुराना मकान देखना है…!” नीता फिर बोली थी।
“पर…?”
“नहीं मैं चलूंगी…!” नीता ने बच्चों की तरह जिद करते हुए कहा।
सच तो ये था कि वह एक पल के लिए भी रवि को अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी। अपनी आँखों के सामने रखना चाहती थी उसे। बजह थी वो डरावना सपना, जो दोपहर उसने देखा था।
“ठीक है… चलो फिर…!” नीता बटन लगा चुकी तो रवि ने बेल्ट बांधते हुए कहा।
खुश हो गई थी नीता। एक नज़र आइने में देखा ख़ुद को। बाल संवारे। दुपट्टा ठीक किया। बिस्तर पर पड़ा मोबाइल फोन उठाकर पकड़ाया रवि को। और रवि की ओर मुड़ी।
“चलिए…!”
रवि मुस्कुराते हुए चल पड़ा था।
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ख़्वाब अधूरे से ४६
“तुम तो कह रहे थे… वो अकेला ही आता है इधर… उसके साथ तो कोई लड़की भी है…!” हीरा ने धीरे से जग्गू से कहा था।
“दोनों को ही उठा लेते हैं…!” जग्गू बोला था।
“ठीक है…!” हीरा ने कहा और वैन में बैठे बाकी साथियों को इशारा किया।
वैन का गेट खोल लिया था उन्होंने। इंजन जाग रहा था वैन का।
रवि और नीता इस सबसे बेख़बर चले जा रहे थे। नीता रवि का हाथ थामे थी। दोनों कुछ बातचीत करते हुए जा रहे थे। जैसे ही दोनों ने वैन को पार किया, अचानक पीछे से हीरा और जग्गू ने एक साथ लोहे की छड से दोनों के सर पर बार किया। दबी दबी सी चीख निकली दोनों के मुँह से और फिर गिर पड़े दोनों। बेहोश हो चुके थे वे। वैन में बैठे बदमाशों ने दौड़कर उन्हें उठाया और वैन में डाल लिया। बाकी सब भी घुस गए अन्दर और दरवाजा बंद कर लिया।
“जल्दी चलो अब…!” जग्गू चीखा था।
और वैन रफ़्तार भर चुकी थी। कुछ दूर चलने पर पुलिस जीप नज़र आई। सामने से आती हुई।
“चुपचाप चलते रहो… रोकें भी तो रुकना मत…!” हीरा ने कहा था।
पुलिस जीप में कोई और नहीं, इंस्पेक्टर तुषार था। अपने साथी सिपाहियों के साथ। वैन उनके सामने से निकल गई। तीब्र गति से।
“कुछ गड़बड़ लगता है सर…!” अजीत ने कहा था।
“हाँ… मुझे भी लगता है…! गाड़ी मोड़ो… पीछा करो इसका…!” तुषार ने आदेश दिया।
“ठीक है सर…!”
और फिर वे सब भी चल पड़े थे। पीछा करते हुए।
वैन सीधा नरेतर के अड्डे पर रुकी। नीता और रवि को उतारा गया और अन्दर ले गए बेहोशी की हालत में ही।
तुषार ने जीप को थोड़ा दूर ही रुकवा लिया था।
“जब तक मैं इशारा न करूँ… तुम लोग यहीं रुकोगे…!” तुषार ने समझाया था।
“लेकिन सर…!”
“जो बोल रहा हूँ… वैसा करो…!”
“ठीक है सर…!”
और फिर तुषार बड़ी सावधानी से आगे बढ़ने लगा।
अन्दर नरेतर और उसके आदमियों के अलाबा अशोभन भी मौजूद था।
“ये लड़की कौन है…?” नरेतर ने पूछा था।
“इसकी प्रेमिका है बॉस…! ये भी साथ में थी तो…!”
“ठीक है… बांध दो दोनों को…!”
फिर रवि के हाथ बांध दिए गए और नीता के भी।
“होश में आने दो पहले…!”
“ओ.के. बॉस…!”
पहले रवि को होश आया धीरे धीरे। उसने महसूस किया कि हाथ बंधे हैं उसके। उठने की कोशिश की उसने। देखा… सामने नीता बेहोश पड़ी थी।
उधर तुषार बड़ी सावधानी से अन्दर दाख़िल हो रहा था। तभी उसे पीछे से किसी के पदचाप सुनाई दिए। कोई इधर ही आ रहा था शायद। उसने ख़ुद को एक खम्भे के पीछे छुपा लिया।और आने वाले की प्रतीक्षा करने लगा। ये तो कोई लड़की है! उसने मन ही मन कहा। सीमा थी ये। उसे भी रवि के यहाँ होने की ख़बर मिल चुकी थी। तुषार ने देखा, वह सीधी उधर ही बढ़ गई थी जहाँ रवि और नीता थे।
रवि अपने हाथों को खोलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन कामयाब नहीं हो पाया।
“नीता… होश में आओ… उठो नीता…!” पुकारा था रवि ने।
सामने देखा, सीमा उधर ही आ रही थी।
“तो ये सब… तुम्हारा किया धरा है…?” घृणा से देखा था उसकी तरफ।
“इसका नहीं… ये सब तो हमारा किया धरा है बच्चे…!” नरेतर और अशोभन क्रूर हँसी हँसते हुए आ चुके थे उसके पास।
“ओह…! मंत्री जी…!” रवि बोला था उन्हें देखते हुए।
“हाँ बचुआ… का सोची तुमने…? भौत परेशान करो हमें…!” अशोभन बोला था।
“काफी हिसाब बाकी है तुझसे…!” नरेतर और नजदीक पहुँच गया था।
रवि मुश्किल से खड़ा हो पाया। हाथ जो पीछे बंधे हुए थे।
“हाथ खोलो… फिर बताता हूँ…!” रवि ने शब्दों को लगभग चबाते हुए कहा था।
“बेबकूफ समझा है क्या…?” कहते हुए उसने रवि के बाल पकड़ लिए थे।
“छोड़ दो इन्हें…!” नीता चीखी थी जो अब तक होश में आ गई थी।
“ओहो… प्यार आ रहा है…!” सीमा थी यह जो नीता पर झपटी थी- “बहुत उछल रही थी न उस दिन…! अब देख… मैं क्या करती हूँ…?”
“तुम्हें जो करना है… मेरे साथ करो… लेकिन उन्हें छोड़ दो… मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ…!” बेबस नीता गिड़गिड़ा रही थी।
“नहीं नीता… किसी के आगे गिडगिडाने की जरुरत नहीं तुम्हें…!” रवि बोला था।
“अकड़ मरने के बाद ही जाएगी तेरी… रुक तू…!” कहते हुए जोरदार घूंसा जड़ा था नरेतर ने रवि के जबड़े पर।
“नहीं…! छोड़ दो उन्हें… मेरी जान ले लो… इन्हें छोड़ दो…!” कहते हुए रो पड़ी थी नीता।
दर्द साफ झलक रहा था रवि की आँखों में।
“रो… और रो…!” सीमा ने बाल पकड़ कर खींचा था नीता को।
नीता दर्द से कराही थी। रवि छटपटा कर रह गया था। हाथ जो बंधे थे उसके।
“सिर्फ एक बार… मेरे हाथ खोल दे…!” रवि दांत पीसते हुए बोला था।
“तू रुक अभी… तेरा किस्सा ही ख़तम कर देता हूँ…!” कहते हुए उठा था नरेतर और दूर खड़े बिल्ला के हाथ से रिवाल्वर ले ली थी।
“रुको भैया…! ये मेरा शिकार है…!” कहते हुए सीमा ने नरेतर के हाथ से रिवाल्वर ले लिया।
“बहुत तड़पाया तूने मुझे… अब मर… तड़प तड़पकर मर…!” सीमा ने रिवाल्वर रवि पर तान दी।
और जैसे ही उसने ट्रिगर दवाया, नीता उछलकर रवि के सामने आ गई।
धमाका हुआ!
और गोली नीता के सीने में समा गई। एक भिची भिची सी चीख निकली थी नीता के मुँह से और वह धम से ज़मीन पर गिर पड़ी।
“नीता…!” कहते हुए दहाड़ा था रवि।
दर्द की पराकाष्ठा।
“रुक जाओ…!” तभी तुषार चीखा था।
लेकिन वह कुछ कर पाता इससे पहले एक गोली उसके हाथ को चीरती हुई निकल गई। रिवाल्वर हाथ से छिटककर दूर जा गिरा। नरेतर के आदमियों ने घेर लिया था उसे।
सीमा ने देखा, नीता दम तोड़ चुकी थी। रवि उसके पास ही घुटनों के बल बैठ गया था। बुरी तरह बिलख रहा था वह।
“ये क्या किया नीता तुमने…?” कहते हुए जार जार रो रहा था वह।
“नहीं… गोली मत चलना…!” सीमा को दोबारा निशाना लगाते हुए देख चीखा था तुषार।
लेकिन वो कहाँ रुकने वाली थी। और तभी दूसरी गोली रवि के भेजे में समा गई। नीता के मृत शरीर पर ही लुड़क गया था वह और हो गया बेजान।
तुषार छटपटा कर रह गया था बस।
सीमा ने एक जोरदार अट्टहास किया था। नरेतर और अशोभन भी हँसे थे। लेकिन तभी वहाँ खड़े प्रत्येक शख्स ने एक अज़ीब नजारा देखा। उन बेजान शरीरों से दो तेज रोशनियाँ निकली थीं। सभी की ऑंखें फटी की फटी रह गईं। हंसना भूल गए सब। देखते रहे भयभीत।
शरीर से निकलकर वे रोशनियाँ एक दूसरे के पास आईं। जैसे एक दूसरे में खो जाना चाहती हों। कई क्षण यों ही एकाकार होती रही वे। तुषार ने भी देखा था ये नजारा। और फिर धीरे धीरे वातावरण में अज़ीब सी सिहरन पैदा होने लगी। भय के कारण सबके रोंगटे खड़े हो गए।
एक दूसरे में समाहित आत्माएं धीरे धीरे सीमा, नरेतर और अशोभन के सामने पहुँच गई थीं। तीनों के काटो तो खून नहीं। बारी बारी तीनों के चक्कर लगाये उन तेज स्वरूपों ने। और जैसे क्रोध में भर उठी हों।
कुछ ऊपर उठीं और सबसे पहले सीमा की ओर बढ़ी थीं। सीमा डर के मारे पसीने पसीने थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे। हिम्मत करके गोली चलाई थी लेकिन बेकार। वह भूल गई थी कि आत्माओं पर गोलियों का असर नहीं होता।
वे रोशनियाँ और क्रोधित हो उठी थीं। एक जोरदार धक्का दिया सीमा को उन्होंने। सीमा दूर जा खम्भे से टकराई। सब भयातुर बस देख पा रहे थे। कुछ करने की शक्ति ही नहीं बची थी उनमें।
गोलियों की आवाज़ सुनकर तुषार के साथी सिपाही भी आ गए थे। लेकिन अन्दर का नजारा देख उनके भी होश उड़ गए। आत्माएं फिर सीमा की ओर बढ़ी थी। इस बार सीमा हवा में झूल रही थी।
“छोड़ दो मुझे… माफ़ कर दो…!” वह गिड़गिड़ाई।
लेकिन क्या उसने सुनी थी उनकी पुकार… जो वे सुनतीं। बुरी तरह दे मारा ज़मीन पर। सीमा के सर के चीथड़े उड़ गए।
भयानक दृश्य!
फिर बारी थी अशोभन की। जैसे ही आत्माएं उसके पास पहुंची, भय से कांप उठा वह।
देखते ही देखते हवा में उठा वह। उछला और फर्श पर गिरा। बुरी तरह घायल हो चुका था वह। दया की भीख मांग रहा था पर बेकार।
फिर से हवा में उछला। इस बार इतनी जोर से खम्भे से टकराया कि शरीर के दो टुकड़े हो गए। खम्भा भी टूट कर गिरा था उसके ऊपर। फडफडाकर शांत हो गए उसके शरीर के दोनों हिस्से।
बेचारा नरेतर! दहशत की दुनिया का बेताज बादशाह! आज ख़ुद दहशतजदा था! एक भारी सा पत्थर हवा में उछला और नरेतर के ऊपर जा गिरा। बुरी तरह दहाड़ा था वह।
फिर देखा उसने। उसके दोनों हाथ हवा में उठे और विपरीत दिशा में खिचने लगे।
“छोड़ दो मुझे…! बख्स दो…!”
लेकिन एक जोरदार झटका… और उसके दोनों बाजू कन्धों से जुदा हो गए। दर्दनाक चीख और खून के छींटे बिखरे थे वहाँ। और देखते ही देखते वह हवा में तैर रहा था। रहम की भीख मांग रहा था वह, जिसने कभी किसी पर रहम नहीं किया।
ऊपर उठा और बुरी तरह ज़मीन पर पटका गया कि ज़मीन तक धंस गई और वह उसमें समा गया। फिर दोनों आत्माएं एक कोने की ओर बढ़ी जहाँ सारा गोला बारूद रखा था।
तुषार को समझते देर न लगी कि अब क्या होने वाला है।
“कबीर…! तुरंत बाहर हो जाओ सबके सब यहाँ से…! जल्दी करो…!” तुषार ने आदेश दिया।
सब गेट के पास ही खड़े थे। सभी भागे थे एक साथ। उनके पीछे तुषार भी। जैसे ही सब बाहर हुए, तुषार ने गेट बंद कर दिया तुरंत। क्योंकि नरेतर के बाकी साथी भी भागकर बाहर निकलना चाहते थे। पर भाग न सके। एक जोरदार धमाका हुआ और पूरा अड्डा जमीदोज होने लगा। तुषार सभी सिपाहियों को लेकर दूर जा खड़ा हुआ था।
भयानक चीखें गूंजी थी वहाँ। तुषार ने देखा, आग के उस भीषण गुबार से दोनों आत्माएं बाहर निकलती हुई उसी की ओर आ रही थीं। अजीत, कबीर और बाकी सिपाही सहम गए थे। लेकिन तुषार जानता था, वे उसे नुकसान नहीं पहुँचाएंगी। देखता रहा उन्हें आते हुए।
दोनों रोशनियाँ उसके सामने आकर रुकीं।
“मुझे माफ़ करना दोस्त…! मैं दोस्ती का फर्ज नहीं निभा सका…!” कहते हुए भावुक हो गया था तुषार।
उनमें से एक प्रकाशपुंज थोड़ा और नजदीक आया तुषार के। उसे लगा, जैसे कह रहा हो… दुखी मत हो दोस्त…!
कुछ क्षण आत्मा उसे निहारती रही फिर पीछे चली गई। और फिर दोनों आत्माएं ऊपर आकाश की ओर बढ़ने लगीं। एक नई दुनिया में।
उन ख्वाबों को पूरा करने… जो दोनों ने मिलकर सजाये थे। शायद… अगले जनम में… क्योंकि… इस जनम में तो… दोनों के ही रह गए थे… बहुत से… ख़्वाब अधूरे से…!
***समाप्त***
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