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एक शिक्षिका का गिजुभाई बधेका के नाम पत्र
श्रद्धेय श्री गिजुभाई बधेका जी,
सादर वंदन-नमन।
मैं गुंजन भदौरिया हूँ, एक शिक्षिका। कन्नौज जनपद के विकासखण्ड कन्नौज के अंतर्गत एक गाँव के प्राथमिक विद्यालय में कार्यरत हूँ। मुझे बच्चों के साथ काम करना अच्छा लगता है। मैं हमेशा से विद्यालय को बच्चों के लिए एक खुशियों भरा स्थान बनाना चाहती थी और कुछ प्रयास भी किये। मैं लगातार खोज में थी कि कौन-सी गतिविधियाँ हो सकती हैं जिनसे कक्षा और विद्यालय परिवेश आनंदमय हो पाये। संयोग से पिछले दिनों एक शैक्षिक कार्यक्रम के पुस्तक स्टाल पर आपकी पुस्तक ‘दिवास्वप्न’ दिखी तो खरीद ली। पढ़ना शुरू किया तो लगा एक आनंदमय विद्यालय की फ़िल्म देख रही हूँ। मुझे अपने विद्यालय को बच्चों की रुचि और आत्मीयता वाली जगह बनाने की राह मिल गयी थी। इस पत्र के माध्यम से ‘दिवास्वप्न’ पर मैं अपने कुछ मनोभाव आपसे साझा करना चाहती हूँ।
आपकी कृति ‘दिवास्वप्न’ पढ़ने के बाद आपकी दूरदर्शिता को यह हृदय बार-बार नमन करता है। आज जबकि आपकी पुस्तक लेखन को एक शताब्दी से अधिक का समय बीत चुका है, फिर भी इस पुस्तक की प्रासंगिकता उतनी ही है, जितनी उस समय रही होगी।
‘दिवास्वप्न’ को पढ़ते हुए मुझे स्वयं भी इतना आश्चर्य हो रहा है कि आपके द्वारा जिन शैक्षिक प्रयोगों को अब से लगभग १०० वर्ष पूर्व कक्षा शिक्षण में सफलतापूर्वक अपनाया गया, उनको व्यवहार में लाने में हमारी शिक्षण व्यवस्था ने इतना लंबा अंतराल ले लिया। विभिन्न विषयों को पढ़ाने के लिए आपके द्वारा किए गए प्रयोगों से मुझे आज के समय में भी अपने कक्षा शिक्षण में नवाचारों को करने की प्रेरणा मिलती है। आपकी रचना के आरंभ में लिखे गए ‘जवाब दीजिए’ , ‘कैसे चैन आए?’ और ‘दो शब्द’ शिक्षक मन को आंदोलित करने में सर्वथा सक्षम हैं।
आपके द्वारा भाषा, गणित, इतिहास, भूगोल और व्याकरण शिक्षण के लिए जिन रुचिकर तकनीकों का प्रयोग किया गया है, वे वाकई सराहनीय और अनुकरणीय है। आपके द्वारा अपनाई गई विधा और शैक्षिक गतिविधियाँ छात्रों के बालमन पर गहरा और स्थाई प्रभाव छोड़ने वाली हैं। आपके द्वारा भाषा शिक्षण के लिए कहानी, गीत-गान और नाट्य विधा का प्रयोग कर छात्रों को जितनी रोचकता से सिखाया गया वह सचमुच अद्भुत है। बच्चों में अपनी आत्मीयता से आपने जिस प्रकार से अनुशासन, स्वच्छता आदि नैतिक मूल्यों का बीजारोपण किया वह हम सभी के लिए प्रेरणा है।
आपने इतिहास, भूगोल जैसे जटिल विषयों को भी अपने नवाचारी प्रयोगों द्वारा कितना सरल एवं सहज बनाकर अपने छात्रों के बीच प्रस्तुत किया है कि मैं अचंभित हो जाती हूँ। आपके द्वारा व्याकरण जैसे कठिन विषय को भी खेल-खेल में ही छात्रों को कितनी सहजता से सिखा दिया गया। इन प्रयोगों के साथ ही आपने यह भी सिद्ध कर दिया है कि कक्षा शिक्षण के लिए सिर्फ़ किताबी ज्ञान जोकि वास्तव में सूचनाएँ है, को छात्रों के सम्मुख परोसने या रटने की प्रणाली बिल्कुल भी उचित नहीं है। आपके द्वारा विद्यालय में पुस्तकालय निर्माण, खेल के द्वारा अनुशासन, कहानी, नाटक विधा द्वारा स्थाई विषय बोध जैसे शैक्षिक प्रयोग किए गए जोकि अत्यंत सफल रहे और आज भी उतने ही ग्राह्य हैं। आपके द्वारा अपनाई गई सभी शिक्षण तकनीकियों का प्रभाव बहुत ही स्थाई रहा जो कि आपके ‘बाल देवो भव’ और ‘बाल मंदिर’ की संकल्पना को प्रस्तुत करने में पूर्णतया सफल है।
आपकी भाषा शिक्षण की कहानी और नाट्य विधा से प्रेरित होकर हमने अपनी कक्षा में भी आपके प्रयोग को लागू करने का विचार किया। इसके लिए मैं बच्चों के साथ ही दरी पर बैठकर कक्षा में कहानी सुनाना प्रारंभ किया। बच्चों की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। छात्रों की बराबर की भागीदारी बनाए रखने के लिए मैंने बीच-बीच में ‘फिर क्या हुआ होगा?’ या अमुक चरित्र ने क्या कहा होगा? ” अमुक प्रश्न का क्या उत्तर मिला होगा? ‘ जैसे प्रश्नों को पूछा। इसके अलावा उनकी कहानी के प्रति जागरूकता बनाए रखने के लिए देशज या स्थानीय शब्दों का भी प्रयोग किया। कहानी पूरी होने पर पहले मैंने अपने छात्रों से उनके अपने शब्दों में कहानी सुनाने को कहा। आपको भी यह जानकर आश्चर्य होगा कि कक्षा में सबसे ज़्यादा शांत रहने वाले छात्र नासिर ने भी इस गतिविधि में ख़ूब बढ़-चढ़ कर भाग लिया। उसने कहानी को न सिर्फ़ अपने शब्दों में सुनाया बल्कि कहानी के उन पहलुओं पर भी विचार प्रस्तुत किए जिन पर अन्य छात्रों द्वारा ध्यान नहीं दिया गया था। नासिर के द्वारा कहानी के पात्रों के भावनात्मक पक्ष को छुआ गया। उसके द्वारा अमुक चरित्र को कितना गुस्सा आया होगा, अमुक व्यक्ति को कितना दर्द हुआ होगा जैसे प्रश्नों ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया कि आप के द्वारा प्रयोग की गई कहानी शिक्षण विधा कितनी सफल है। इसके प्रयोग से मेरे सबसे संकोची छात्र में भी संवेगों का संचार करना संभव हो सका। सभी छात्रों से कहानी सुनने के बाद मेरी अगली रणनीति उनके लेखन के लिए थी। मैंने सभी छात्रों से कहा कि जैसे उन्होंने अपने शब्दों में कहानी सुनाई थी वैसे ही अब वे अपने शब्दों में कहानी को लिखकर लाएँ। यह प्रयोग भी बहुत उपयोगी रहा। इसके बाद आपका अनुसरण करते हुए मैंने किसी छात्र की कॉपी में कोई चिह्न अंकित नहीं किया, बल्कि अपनी डायरी में नोट कर ख़ुद में यह संकल्प लिया कि अब मैं अपने छात्रों की इन कमियों पर कार्य करूँगी, साथ ही आपके दिखाए इन मार्गो पर चलते हुए अपने छात्रों की शैक्षिक समस्याओं का समाधान करूँगी।
आपकी कार्य शैली में कार्य करते हुए बहुत ही आत्म संतुष्टि का अनुभव हो रहा है। एक बँधी-बँधाई कार्यशैली में कार्य करते हुए ख़ुद में कुछ कमी अनुभव होती रहती थी, लेकिन जब से आपकी कृति ‘दिवास्वप्न’ का अध्ययन किया है, ख़ुद के कार्य, विचार और व्यवहार आदि में सकारात्मक बदलाव महसूस कर रही हूँ। ख़ुद में आए इन बदलावों के लिए मैं अपने जीवन काल में सदा आपकी आभारी रहूँगी।
मेरा अपना मानना है कि आपकी रचना ‘दिवास्वप्न’ को शिक्षा विभाग के प्रत्येक अधिकारी, कर्मचारी एवं शिक्षक को पढ़नी चाहिए। प्रत्येक प्रशिक्षण में एक सत्र इस पर चर्चा हेतु अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। अंततः पत्र समाप्त करने से पहले मैं आपको वचन देना चाहूँगी कि आपकी रचना ‘दिवास्वप्न’ से प्रेरित होकर आपके द्वारा दर्शाए गए शिक्षण के मार्ग पर चलूँगी, साथ ही अपने छात्रों में सकारात्मक सोच एवं प्रगतिशील दृष्टिकोण के विकास के लिए अपना शत प्रतिशत प्रयास करते हुए विद्यालय को आनंदमय बनाने की दिशा में बढ़ती रहूंगी।
सादर
एक शिक्षिका
गुंजन भदौरिया
सम्पर्क: लेखिका नवाचारी शिक्षिका हैं। कन्नौज, उ.प्र.
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