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वीर दुर्गादास राठौड़: शौर्य, पराक्रम एवं वीरता के प्रतीक
वीर दुर्गादास राठौड़: भारतीय इतिहास के आभायुक्त गरिमामय वितान का क्षत्रिय राजपूती फलक शताब्दियों से अपने त्याग, बलिदान, वीरता, स्वामिभक्ति तथा साका एवं जौहर व्रत से लोकजीवन में प्रेरणा एवं ऊर्जा का संचार करते हुए देश एवं राष्ट्र के लिए सर्वस्व समर्पण का पथ प्रशस्त करता रहा है। इस मरुभूमि ने ऐसे नर नाहर उत्पन्न किए जिनके केवल नामोच्चारण से ही अरिदल के हृदय कंपित हो जाते थे। ऐसे ही वीर दुर्गादास राठौड़ संकल्प के धनी प्रखर राजपूत योद्धा थे जिन्होंने अपनी वीरता, दूर दृष्टि, संगठन शक्ति, कूटनीति एवं शौर्य-पराक्रम से इतिहास के गगनांचल में मारवाड़ के ध्वज को नवल गरिमा से सम्पृक्त कर श्रद्धा का आधार केंद्र बना दिया था। यह वीर दुर्गादास राठौड़ के युद्ध कौशल और रणनीति का ही परिणाम था कि दिल्ली से औरंगज़ेब की क़ैद से महाराजा जसवंत सिंह की विधवा रानियों एवं शिशु अजीत सिंह को सकुशल निकाल कर मारवाड़ लाने में सफल रहे थे, जिससे औरंगजेब हाथ मलते कसमसा कर रह गया था।
वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म १३ अगस्त, १६३८ को मारवाड़ राज्यान्तर्गत सेलवा नामक ग्राम में हुआ था। पिता आसकरण राठौड़ जोधपुर नरेश महाराजा जसवंत सिंह के मंत्री एवं जागीरदार थे। माता नेतकंवर अपने पति आसकरण राठौड़ से अलग एक अन्य गाँव में रहते हुए भी दुर्गादास राठौड़ का उचित पालन-पोषण किया और उसके हृदय क्षेत्र में त्याग, बलिदान एवं वीरता के भाव बीज का रोपण महाभारत एवं रामायण की प्रेरक कथाएँ सुनाकर किया था। ओज-तेज प्रभा समन्वित बालक दुर्गादास शुक्ल पक्ष के चंद्र की भांति लोक में उजियार करने लगा।
महाराजा जसवंत सिंह की मुगल शहंशाह शाहजहाँ से मैत्री संधि थी। आगे १६७३ में मुगल शहंशाह औरंगजेब के फरमान पर जोधपुर नरेश अफगानिस्तान में एक सैन्य अभियान पर गये थे और दुर्योग से वहीं १६७८ में नि: संतान दो गर्भवती रानियों को छोड़ परलोक सिधार गये। बाद में रानियों के पुत्र हुए, जिसमें एक की मृत्यु हो गयी और दूसरा शिशु राजकुमार अजीत सिंह नाम से विख्यात हुआ। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि औरंगज़ेब महाराजा जसवंत सिंह को मेवाड़-मारवाड़ में मुगल साम्राज्य के विस्तार पथ का सबसे बड़ा कंटक मानते हुए पसंद नहीं करता था किंतु संधि होने के फलस्वरूप सीधा आक्रमण न कर हमला करने हेतु उचित कारण की तलाश में रहता था। इसका कारण यह था कि पूर्व में दिल्ली की गद्दी के लिए दारा शिकोह के साथ राजा जसवंत सिंह औरंगजेब के विद्रोह को दबाने हेतु गये थे किंतु सफल नहीं हुए थे और कालांतर में औरंगजेब ने पिता शाहजहाँ को क़ैद कर वर्ष सन् १६५८ में दिल्ली की गद्दी हथिया ली थी। तब राजा जसवंत सिंह ने भी औरंगजेब से संधि करना उचित समझा था। तो इस प्रकार महाराजा की अचानक मृत्यु हो जाने से मारवाड़ राज्य के रिक्त सिंहासन को देख औरंगजेब की राज्य लिप्सा बढ़ी और मारवाड़ को मुगल राज्य के अधीन करने का स्वप्न साधने हेतु कुछ सरदारों को लाव-लश्कर सहित जोधपुर रवाना कर दिया तथा उधर अफगानिस्तान से मारवाड़ के लिए निकली सेना को दिल्ली के बाहर रुकने तथा रानियों एवं शिशु अजीत सिंह को दिल्ली दरबार में हाज़िर होने का हुक्म दिया। रानियों को दिल्ली पहुँचते ही क़ैद कर एक किले में नजरबंद कर दिया गया। यह धोखा वीर दुर्गादास राठौड़ को अंदर तक झकझोर गया और वह अपने सरदारों के साथ रानियों एवं राजकुमार अजीत की मुक्ति हेतु रणनीति बनाने लगे, सेना दिल्ली के बाहर तैयार ही थी। किंतु तभी औरंगजेब ने सेना को दिल्ली छोड़ने का फरमान दिया तो सेना आगे बढ़ गयी। परंतु वीर दुर्गादास ने अपने कुछ विश्वस्त सरदारों एवं युद्धाओं को गुप्त रूप से दिल्ली में रोक लिया और कुछ सरदारों को फ़ौज की टुकड़ी के साथ आसपास के गांवों में रुकने का आदेश दिया और एक दिन अनुकूल अवसर पर हमला कर औरंगजेब की नाक के नीचे से रानियों एवं शिशु राजकुमार अजीत सिंह को निकाल कर मारवाड़ पहुँचा दिया। योजनानुसार अजीत सिंह का पालन-पोषण भिन्न-भिन्न गांवों में करवाने की व्यवस्था कर वह स्वयं मुगल सेना से लोहा लेते रहे। इसी बीच कूटनीति एवं दूरदृष्टि से औरंगज़ेब को उसके घर में उलझाने का विचार कर उसके पुत्र मुहम्मद अकबर को पिता के विरुद्ध उकसाया और उसे सैन्य सहायता देकर दिल्ली पर जोरदार हमले की रणनीति बनाई।

अद्भुत संगठन शक्ति की कुशलता से दुर्गादास विभिन्न रियासतों एवं बिखरी राजपूती सैन्य शक्ति को पूर्व में ही संगठित कर नेतृत्व की भूमिका में आ गये थे। किंवदंती है कि वीर दुर्गादास राठौड़ का भोजन एवं शयन भी घोड़े की पींठ पर ही होता था। कहने का आशय केवल इतना है कि राजकुमार अजीत सिंह राठौड़ को मारवाड़ के सिंहासनासीन कराने तक वह चैन से नहीं बैठे और अपने अश्व के साथ सर्वदा युद्ध हेतु तत्पर रहे। हालांकि, अजीत सिंह का राजतिलक होने के बाद दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा। उसका कारण था कि जब शहजादा मुहम्मद अकबर के विद्रोह को औरंगजेब ने दबा दिया तो दुर्गादास राठौड़ ने उसे दक्षिण में मराठों के पास भेज दिया और एक वर्ष बाद वह वहाँ से ईरान भाग गया। इस भागमभाग में उसके एक पुत्र-पुत्री मारवाड़ में ही छूट गये जिनका पालन-पोषण दुर्गादास के संरक्षण में हुआ। एक बार युवा राजकुमार अजीत सिंह ने अकबर की पुत्री को देखा तो मुग्ध हो विवाह का प्रस्ताव रखा किंतु दुर्गादास ने नीति एवं धर्म-विरुद्ध बताकर उन पुत्र-पुत्री को औरंगजेब के पास भिजवा दिया। इससे अजीत सिंह मन ही मन दुर्गादास से अत्यंत क्रुद्ध हुआ। वह उनसे बदला ले, इसके पहले ही वह मारवाड़ छोड़कर मेवाड़ प्रवास करते हुए उज्जैन पहुँच गये।
महाकाल शिव की नगरी उज्जैन में वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ की देह २२ नवम्बर, १७१८ को पवित्र शिप्रा नदी के तट पर पावन रज में भस्मीभूत हो गयी। उनके मृत्यु स्थल पर एक छतरी का निर्माण किया गया। भारत सरकार ने उनकी स्मृति को संजोते हुए १६ अगस्त, १९८८ को एक डाक टिकट तथा २५ अगस्त, २००३ को स्मारक सिक्के जारी किये और एक सड़क का नाम उनके नाम पर वीर दुर्गादास राठौड़ मार्ग रखा। उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर ‘वीर दुर्गादास’ नाम से वर्ष १९२४ और १९६० में फ़िल्में बनाई गईं। बच्चों के लिए अमर चित्रकथा का प्रकाशन हुआ। वीर दुर्गादास राठौड़ का जीवन हमें सर्वदा देशभक्ति की प्रेरणा देता रहेगा।
प्रमोद दीक्षित मलय
शिक्षक लेखक और शैक्षिक संवाद मंच उ।प्र। के संस्थापक हैं।
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