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महिला दिवस (women’s day) पर
women’s day : नारी प्रकृति है, सृष्टी है,
नारी आद्या, व शक्ति है।
नारी सृजनकृता है,
पालती है, पोषती है।
पृथ्वी-सी धारण शक्ति,
अपार सहनशक्ति है।
इस सृष्टी रचियिता को भी
गर्भ मे।रख जन्म देती।
अपने वात्सल्य से उसे,
अपने अंक में भर लेती।
ममता का असीम सागर,
दुध बनकर छलकता है।
छाती पर चिपका कर वह
अमृत पान से जी उठता है।
प्रेम की मूरत ऐसी कि,
राधा बन विरह सहे।
मीरा की-सी दीवानी वो
एक मोहन मेरो, यही कहे।
गार्गी, अनसुईया-सी विद्वता,
शास्त्रात में अक्षिम निर्पूणता।
वेदो, उपनिषदो का ज्ञान भंडार
बुद्धी-ज्ञान में भी सक्षमता।
संगीत हो या चित्रकला,
नृत्य या गायन कला।
अर्णपूर्णा भी है वह नित्य
जानती है वह पाककला।
क्षत्राणी बन टुट पडे वैरी पर,
तलवार बाजी वह जानती।
काम पड जाए रण में तो
शत्रु दल को वह पछताडती।
प्रकृति के सारे रंग में रंगी,
हर रंग को वह खुब समझती।
दु: ख, दर्द के चारो पहिए पर
जीवन की गाडी हाँकती।
नियमो और मर्यादा में बँधती
खुद को ही वह कैदी बनाती।
आर्दशो की परिभाषा में वह
खुद को ही सँवारती, बनाती।
देह के भीतर विदेही बन,
मन से ही प्रीती करती।
बाहर के प्रपंचो से दूर वह
भीतर स्व संग रमती।
निस्वार्थ, निर्लेप, निविकार,
आत्म ज्योति-सी जलती।
करती रोशन अपनी कृति से
एक लौ बन जलती रहती।
करूणा की मूरत की भी,
दारूण कहानी बन जाती।
छलती नित्य इस जहाँ मे
न जाने कैसे वह सह जाती।
ईश्वर भी उसकी कोख में आ
खुद पर नाज़ दिखाता है।
मैया-मैया, कह पुकारे,
खुब नाच नचवाता है।
काली, दूर्गा, रूप है विकराल,
रणचण्डी बन कर दे निढाल।
आँच न आने देती संतान पर
चाहे सामने आ जाए काल।
मै गुजरा हुआ वक़्त हूँ
मै गुजरा हुआ वक़्त हूँ
माना अभी असशक्त हूँ।
जिंदगी की इस कहानी में
किरदार बडा ही जबरदस्त हूँ।
तर्जूबो की अथाह दौलत
मेरे हूनर की ही बदौलत।
खट्टे-मीठे अनुभवों से मैंने
हासिल कर ली है शोहरत।
घूटने रेंगकर बचपन बीता,
गोद-झुला कभी मां, पिता।
यौवन की दहलीज़ पार कर
उम्र के साथ रहा मैं तो जीता
उम्मीदों का न लेना सहारा,
हौसला बूलंद हो हमारा।
सुख-दुख एक समान जानो
उम्र का हर मोड़ है बस न्यारा।
मै माटी का दीप हूँ
पल भर का जीवन मेरा,
पल भर की है मस्ती मेरी
फिर भी जीवन भर दंभ रहता
बहुत बडी हो हस्ती मेरी
मै माटी का छोटा-सा दीप हूँ
क्षण भर का ही है जीवन मेरा।
काम-क्रोध, मद-मोह माया
इसी में जीवन को भरमाया।
झुठी शान-शौकत, अभिमान
खुद को ही इसी में डुबाया।
माटी का एक पुतला है बस
माटी में ही जाकर तुझे मिलाया।
अंहकार का वसन लपेटकर,
चाल चले ज्यू धन-कूबेर की ।
धन-लोलूप, असभ्य मानव,
अशिष्टता है आचरण-व्यहार की।
माटी की देह में प्राणों की वायु
कीमत है सिर्फ़ चंद श्वासो की।
तु भी माटी मैं भी माटी हूँ,
भेद तेरा मेरा कुछ भी नहीं।
तु चढा ऊंची अट्टालिकाओं में
मुझे मिली एक देहरी भी नहीं।
मै भी जला उम्र भर और तु भी
मिलेगे हम मिट्टी में, बचेगा कुछ नहीं।
जय हो माँ तेरी
हे माँ तुम सब दु: ख हर लो,
सारे जग में भय छाया है,
नव-नव यह कैसा संताप आया है,
अपनी सहस्र भुजाओं से मां,
यह संताप दूर कर लो मां…
हे माँ तुम सब दु: ख हर लो…
मंदिर-मंदिर द्वार बंद पड़े हैं,
तेरे दर्शन को हम कब से खड़े हैं।
अपना रूप विराट कर लो मां,
अपने भक्तों को दर्शन दो मां…
हे माँ तुम सब दु: ख हर लो मां…
घर-घर घट स्थापना हो रही,
कहीं पूजा, कहीं आरती हो रही।
मन-मंदिर के द्वार खोल दो मां
मन में ही तुम बिराजो मां…
हे माँ तुम सब दु: ख हर लो मां…
मन के भावों की भेंट चढ़ाऊँ,
कैसे मैं तुझे मनाऊँ, रिझाऊँ।
शेर की सवारी करके आ जाओ
अपना दर्शन दिखा दो मां
हे माँ तुम सब दु: ख हर लो मां…
आजादी के दीवाने
नमन है वीर शहीदों को, वतन पर जान लुटाई,
बंसती रंग का चोला पहन, प्रीत वतन से लगाई।
भगतसिंह, सुखविंदर, और चन्द्रशेखर आज़ाद,
वंदे मातरम् गा गाकर, अलख वतन में जगाई।
वतन की माटी को तन पर लपेटे आजादी के दीवाने,
इसके लिए जीए और इस पर निकले जान लुटाने।
इनकी यह दीवानगी, याद रखें इनकी कुर्बानियाँ,
वतन के यह सब लाडले, वतन के थे मस्ताने।
फांसी का फंदा भी इन्हे फुलों का कोमल हार लगे,
जब देखी मौत सामने तो, गीत वतन के गाने लगे।
मर कर फिर जन्म लेंगे, यह अंतिम अभिलाषा थी,
मातृभूमि का कर्ज़ चुकाना है, चाहे जन्म दुबारा लगे।
मर कर फिर, जिन्दा रहेंगे, ऐसे यह दीवाने थे,
मौत का कफ़न गले में लपेटे, यह परवाने थे।
मौत ही इनकी थी महबूबा, जान उस पर वार दी,
इंकलाब के नारों से गूंजे, यही सुरीले तराने थे।
क्यूं बिक रहे हैं पत्रकार
देश में हर तरफ़ मचा है हाहाकार
बेबसी, बिमारी से सब है लाचार।
फिर भी आंखें मूंद कर, मुंह फेरे
अपने फ़र्ज़ से भटक रहा है पत्रकार।
सुरसा के मुंह की तरफ़ बढ़ी महामारी,
गांव-गांव, शहर-शहर फैलीं है बिमारी।
प्रशासन असफल, नाकाम हो रही सरकार
इन अहम मुद्दों से क्यूं है अनजान पत्रकार।
नदियों ने उफ़ान मार अपने तट तोड डाले,
ग़रीब, लाचार जनों के घर पानी में डुबा डाले।
बच्चे-बूढे, नर-नारी सभी करने लगे हाहाकार
देख इनकी करूण-व्यथा को चुप है पत्रकार।
टेलीविजन चैनलों पर समाचार बिक रहे हैं,
नेताओं और अभिनेताओं के चेहरे दिख रहे हैं।
राष्ट्रीय मुद्दे सब गायब, कैसे-२समाचार
औने-पौने के दामों में बिक रहे हैं पत्रकार।
भूख से दम तोड रहे हैं देश के नौनिहाल,
बढती बेरोजगारी से हमारा समाज बेहाल।
कैसे होंगे आत्मनिर्भर भारत का सपना साकार
किंकर्तव्यविमूढ़ और भ्रष्ट से त्रस्त है आज पत्रकार।
हो रहें सरे-आम दंगल टेलीविजन चैनलों पर,
लग रहें गैर ज़िम्मेदार ईल्जाम चैनलों पर।
ऊंची बांहे चढ़ाकर क्यूं लगाते हैं फटकार,
क्या यही है एक सभ्य और शिष्ट पत्रकार।
अब बोले मेरी कंगना
बहुत खनकी थी मैं तेरे हाथों में,
बहुत सहमी-सी मैं तेरे हाथों में।
तेरे ज़ुल्म सितम की इंतहा हो गई
अब ले ली मैंने तलवार हाथों में।
नाजुक कलईयो का गहना बनाया
कांच के टुकड़ों में मुझे सजाया।
नारी हूँ यह कह कर बंधक बनाया
दमन और अत्याचार से तड़पाया।
अब यह अत्याचार नहीं है सहना
हर ज़ुल्म का मुंह तोड़ जवाब देना
कब तक बंधक रहूँ मैं तेरे अंगना
मै निडर, बेबाक अबला हूँ कंगना।
श्राद्धपक्ष में आया हूँ
पिता का प्रथम श्राद्ध:—
आज श्राद्धपक्ष की प्रथम तिथि पर,
अर्पण-तर्पण लेने आ गया हूँ तेरे दर।
श्रद्धा से पूजन-अर्चन, सुमन अर्पित कर
दे देना बहुत दान-दक्षिणा पंडित को भर।
यज्ञोपवीत धारण कर पिंडदान कर देना,
अंजूली में कुश संग जल से तर्पण कर देना।
पितृपक्ष के मंत्रोच्चारण से संकल्प कर लेना
अपने पिता का पुत्र तुम श्राद्ध कर लेना।
गंगा जल लोटे में भर कर शुद्धिकरण करना
गायत्री मंत्र का जाप कर मंत्रोच्चारण करना।
काले तिल, उड़द का पिंड तुम बना देना
शास्त्र विधि से सनियम श्राद्धकर्म कर देना।
ब्रह्म भोज में पांच जनऊ धारी को बुलाना,
खीर-पुडी और मालपुआ, खिला देना।
रूपए-पैसे और कपड़ा देकर, विदा करना
पितृपक्ष में हे, पुत्र, तुम मेरा श्राद्ध कर देना।
संस्कारों और ईमानदारी की दौलत से तुम
सच्चे मन से अर्पण-तर्पण करना तुम।
तृप्ति और मूक्ति मिल जाए, जतन करना तुम,
दूंगा ढेरों आशिष तुम्हें, यह विश्वास करना तुम।
किसकी आजादी
सिर्फ पंन्द्रह अगस्त को मनाते आजादी,
फिर न जाने कहाँ छिप जाती आजादी।
जब-जब विपदाएँ घेर कर खड़ी होती है,
तब तब राहतो का मार्ग रोकती आजादी।
भूखी-प्यासी, नंगे पैर तपती धूप में चलती,
तब अपने शयनकक्ष में सोती है आजादी।
मासुम बहनों की सरेराह लाज लुटती है
तब किसी रेस्तरां में झुमती है आजादी।
भूख से दम तोड़ते मासुम नौनिहाल,
तब पांच सितारा होटल में खाती आजादी।
बाढ से डूबते, मरते हैं जन-जन, पशु
स्विमिंग पूल का लुत्फ उठाती है आजादी।
अनावृष्टि से क्षूब्ध धरती पुत्र दम तोड़ते,
झुठे भोजन को नाली में बहाती आजादी।
दल-बदल कर अपनी मोटी बोली लगाते जो,
किसी साहूकार की तरह होती है आजादी।
कानून को रूमाल की तरह जेब में रख घूमती,
धृतराष्ट्र की उच्च महत्त्वाकांक्षा होती आजादी।
न भूख की और न किसी गरीब मेहनतकश की
ऊच्चीं अटालिकाओ की चमक होती है आजादी।
गोकुल सूना
गोकुल सुना, वृंदावन भी सुना
सुने-सुने है सब ब्रज के धाम।
ग्वाल-बाल सब गोप-गोपियाँ
राहे तके तेरी आठो ही याम।
गौ माताएँ सारी अश्रु बहाती,
अब न वह सुबह, शाम रंभाती
अपने बछड़ों को संग लेकर
सुने वन में तेरी ही राह तकती।
अब न कोई पनघट पर जाएँ
गोपियाँ भी न जल भर लाएँ।
सर पर मटकी दुध-माखन की
कौन कान्हा उन्हें अब चुराएँ।
बाल-ग्वाल न मटकी फोड़ते,
चुपके चुपके माखन वह खाते।
अब न कोई वहाँ मुरली बजाएँ
सब बस नित्य तेरा पथ निहारते।
कंदब की डाल अब नहीं झुकती
गोपियाँ भी न अब वहाँ नहाती।
कोई नहीं जो उनका चीर चुराएँ
सब मिल बैठकर बस आहें भरती
भक्त तुम्हारे प्रेम से पुकार रहें हैं
हाथ जोड़ कर अश्रु बहा रहे हैं
“हेमा” की भी विनती सुन लो प्रभु
कब से हम आपको बुला रहे हैं।
मानव बनाम दानव
भुल से दानव बस्ती में आ गई,
एक हथिनी अपनी जान गंवा गई।
छल से बारूद भरा एक फल में
भोजन समझ खा गई पल में।
धोखे में नासमझ वह आ गई
एक हथिनी अपनी जान गंवा गई…
गर्भ में पल रहा शिशु देख रहा था
यह कैसा फल आग उगल रहा था
मां, तु यह कैसा फल लेकर आ गई
एक हथिनी अपनी जान गंवा गई…
मां, यह कैसा मानव का जाल है,
नर में छुपा कोई जैसे ब्याल है।
हदे उसकी सब पार हो गई
एक हथिनी अपनी जान गंवा गई…
मां, मै भी तेरे संग यह जहान छोड़ूंगा,
ऐसी मानवता को नहीं देखूंगा।
मानवता तार-तार हो गई
एक हथिनी अपनी जान गंवा गई।
मिलजुल कर रहें
मिलजुल कर रहे सभी यही रीत पूरानी,
आओ गाएँ गीत हम सब है हिन्दुस्तानी।
मिलकर ही लडी हमने आजादी की लड़ाई
चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम, सिख-ईसाई।
जब-जब भी देश पर कोई संकट आया है
एकजुटता का ही संदेश हमने सदा दिया है।
आज भी महामारी ने देश को झकझोर किया
ग़रीब मजदूरों को और भूखों को मजबूर किया।
देवदूत और फरिश्तों ने आकर निज धर्म निभाया
जात-पात से ऊपर उठकर अपना फ़र्ज़ निभाया।
इंसानियत से बढ़कर नहीं कोई धर्म है दूजा
मानव सेवा से बढ़कर नहीं कोई कर्म पूजा।
मन का बीमार है, वहीं रोग यहां-वहा फैलाता,
इंसानियत का दुश्मन, ऐसा नर ही कहलाता।
लकड़ीयों का बंद गंठल, कोई न तोड पाया,
एकता में है बड़ी शक्ति, यही हमने दिखाया।
मिलकर ही मनाते आए हैं ईद और दिवाली,
देश हमारा उपवन है, हम सब इसके माली।
“हेमा” शांति और अहिंसा का है यह वतन हमारा
अखण्डता में है एकता, बस एक ही यह नारा।
हेमा पालीवाल उदयपुरी
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