भटकते नौजवान (wandering youth)
आज आपके लिए पेश है, एक व्यंग्य भटकते नौजवान- wandering youth… जिसकी लेखिका हैं श्वेता कनौजिया जी… श्वेता कनौजिया जी पेशे से अध्यापिका हैं… साथ ही लिखने में रूचि रखती हैं… इन्होंने अब तक बहुत सी रचनाओं का सृजन किया है… तो आइये पढ़ते हैं श्वेता जी द्वारा लिखे व्यंग्य भटकते नौजवान…
चकाचौंध की दीवानी आज की पीढ़ी को आसमान में चमकते सितारे तो दिखते हैं, लेकिन वह अँधेरा और तारों का साहस, परिश्रम नहीं दिखता जो उस अंधेरे को मात देकर आसमान में चमकते हैं क्या करें …जी? जिस दुकान की ज़्यादा चमक सारी भीड़ उधर लेकिन चीज सामान क्या हुआ? जो सामान खराब निकल गया…कोई नहीं कौन हमें जीवन भर चलानी है दूसरी ले आएंगे जन्मदिन है तो मॉल, कोई त्यौहार है तो मॉल, शादी की सालगिरह है तो भी भाई साहब मॉल में ही जाएंगे… मूवी देखेंगे खाना बाहर खाकर ही मनाएंगे क्या करेंगे बुजुर्गो का आशीर्वाद लेकर, मंदिर जाकर वहाँ गए तो सर पर पल्ला करना पड़ेगा बाल खराब होंगे जूते उतारने पड़ेंगे तो पैर खराब होंगे उफ्फ… मुसीबत ज़्यादा है ना।
ख़ुद खा कर आ गए खाना बाहर से और घर के कोने में बड़े बूढ़े माँ बाप से आकर पूछते हैं कुछ बना कर खा क्यूँ नहीं लेते? मानव को बस रुपया प्यारा है भाई भी उस दिन साथ बैठते हैं जिस दिन जायदाद का बंटवारा होता है। आजकल नवयुवक मनमानी को स्वतंत्रता मानता है। स्वतंत्र हो अपनी सोच से, एसी स्वतंत्रता किस काम की जो बूढ़े माँ बाप को वृद्धाश्रम भेजती हो स्वतंत्र हो राग, द्वेष भावना से, स्वतंत्र हो विलासिता से भरे जीवन से, स्वतंत्र हो रुपये के दीवानेपन से, स्वतंत्र हो बेईमानी से, स्वतंत्र हो जातिवाद से, अवगुण से और यदि बाँधना ही है तो बाँधों ख़ुद को इमानदारी से, कर्तव्य से, नियमों से, अच्छे कर्मों से, सज्जनता से, प्रेम व्यवहार से, मानवता से …यही है असली स्वतंत्रता। स्वतंत्र होना है तो बुरे विचारों से हो और बंदना है तो अच्छे विचारों से बंधो…
श्वेता कनौजिया
प्रधानाध्यापिका
गौतमबुद्ध नगर
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