छतरी (Umbrella)
छतरी (Umbrella): आभा साहनी
“प्रेम से बोलो-जय माता दी” चारों तरफ़ जयकारे लगाए जा रहे। मैं भी माँ वैष्णो के दर्शन को अपने पति देव और एक साल के पुत्र को ले कर मन्नत पूरी करने गई थी। कटरे से भवन तक का लम्बा सफ़र…गर्मी की छुट्टियाँ और खचाखच भीड़…पिट्ठू और घोड़े-वाले अपनी ही मनमानी कर मुँह माँगे दाम पा रहे थे। बड़ी मुश्किल से मोल-भाव कर जैसे-तैसे दो घोड़े मिले। एक पर मेरे पति देव और दूसरे पर मैं…फिसड्डी से घोड़े लग रहे थे। सारे रास्ते में मुँह बिचका कर, मैं कुछ न कुछ बोलती जा रही थी। किसी यात्री को देख कर “जय माता दी” की आवाज़ अवश्य निकल जाती थी। पति देव मुझे बार-बार समझा रहे थे। ऊपर दर्शन को लम्बी क़तारें थीं और दुर्गम रास्ते की थकान भी… इसीलिए दर्शन के बाद कुछ समय विश्राम करना ही सही लगा।
“मौसम का साहब जी कुछ पता नहीं, क्या वापिस चलें” घोड़े-वाले की आवाज़ सुन कर मैं चौंक उठी। “चाय पी कर चलते हैं” पति देव बोले। मैं तो कुछ देर और सुस्ताना चाहती थी, इसी कारण मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। ख़ैर, बेमन से मैं घोड़े पर बैठ गयी। उस की टप-टप की बेसुरी-सी आवाज़ मुझे बिल्कुल भी न भा रही थी। ऊपर से घोडेवाले की नसीहत … “कुछ गर्म कपड़े ले कर आते तो अच्छा रहता… मौसम के मिज़ाज का पता नहीं चलता” … सुनते हुए मेरे कान पक गए थे।
जिस अनहोनी का उसे अंदेशा था …वही हुआ। अचानक मौसम ने जैसे अपने तेवर बदल लिए थे। तेज़ आँधी और तूफ़ान …रास्ते में ज़्यादा रुकना भी मुनासिब न था। लोग जल्दी-जल्दी ऐसे चल रहे थे मानो भाग रहे हों। “जय माता दी…जय माता दी” अब तो मेरे मुँह से बस यही निकल रहा था। सच ही कहा है किसी ने कि मुसीबत में प्रभु पहले याद आते हैं। मैंने अपना दुपट्टा और साथ लायी हुई शाल अपने बेटे को ओढ़ दी थी। “हे माँ! जल्दी से यह रास्ता कटे …एक सौ एक रुपए का प्रसाद चढ़ाऊँगी” …मन ही मन माता रानी से मैं प्रार्थना कर रही थी। अब तो बारिश भी शुरू हो गयी थी। बीच रास्ते कहाँ रुकें और बच्चा यदि भीग गया तो… डर के कारण हमारे तो हाथ-पाँव फूल रहे थे। “अरे! घोड़े को क्यों रोक दिया बीच सड़क में” मैंने लगभग चिल्लाते हुए घोड़े-वाले से कहा। वह कुछ नहीं बोला और हम दोनों को घोड़े से उतरने के लिए कहा। लगा जैसे कोई नयी मुसीबत आ गयी हो। पति देव की निगाहें जैसे मुझे ही घूर रही थीं। “मैंने तो उसे कुछ कहा ही नही” … इशारों से मैं उन्हें अपनी सफ़ाई दे रही थी।
घोड़े-वाले ने घोड़ों के ऊपर से फट्टे-पुराने कम्बल उतारे और अपनी और साथी की एक-एक मैली और पुरानी-सी शाल हमें ओढ़ने को दी। हमने चुपचाप उन्हें अपने बेटे और ख़ुद पर ओढ़ लिया। उन से आ रही दुर्गंध भी शायद अब बुरी नहीं लग रही थी। लगा जैसे बारिश में किसी ने अपना छाता हमें बचाने के लिए दे दिया हो। “वाह रे! नीली छतरी वाले, तूने तो साक्षात आ कर डूबते को सहारा दे दिया था” …हम दोनों शुक्र मना रहे थे। मुझे अपने पर बहुत गलानी महसूस हो रही थी … क्या-क्या अपशब्द बोल कर कोसा था मैंने घोड़े-वाले को और उस ने इस तेज़ बारिश में अपनी छतरी रूपी शाल और कम्बल दे कर हम पर कितना बड़ा उपकार कर मानवता का परिचय दिया था।
कुछ समय पश्चात बारिश रुक गयी थी और हम भी कटरा पहुँच गए थे। वहाँ पहुँच कर हम ने कुछ पैसे बख़्शीश के तौर पर घोड़े-वाले को देने चाहे पर वह बोला, “साहब, हमें ख़ुशी है कि हम आप के काम आ सके।” मैंने उन दोनों को हाथ जोड़ कर धन्यवाद किया और बड़े प्यार से बेज़ुबान जानवरों की पीठ थपथपायी। ठप-ठप करते कदमों से घोड़े अगले यात्रियों को लेने आगे बढ़ चुके थे और मेरी आँखों से पश्चाताप के आँसू टप-टप बह रहे थे।
आभा मुकेश साहनी
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