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विद्यार्थी जीवन (Student life)
Student life: किताबों को भी कुछ़ वक्त़ दिया करो,
फोन छोड़ कुछ़ पढ़ लिया करो,
ये स्टेटस जो देखते हो आँख खुलते ही,
इसे छोड़ सवेरे ये किताबें पढ़ लिया करो,
आदत़ बदलो ये देऱ तक सोने की,
प्रातकालः कुछ़ योग, व्यायाम भी कर लिया करो,
ये मोबाइल के गेम जीवन में कहीं काम ना आयेंगें,
कुछ़ पल घर-परिवार को भी दिया करो,
व्यर्थं बातों में समय गवानें से बेहतर है,
कुछ़ इसका सदुपयोग कर लिया करो,
सीखों माता-पिता, गुरूजनों का सम्मान करना,
इनकी बातों को हल्के में मत लिया करो,
ये फैशन, मेकअप की दुनिया एक झूठ है,
आइना सच़ का भी कभी देख लिया करो,
जवानी की दहलीज़ पऱ अभी नये परिन्दे हो तुम,
उड़ने से पहले जऱा आसमाँ देख लिया करो,
ऐसे काम़ ही ना करो जिससे ठोकऱ लगे तुम्हें,
राह़ चुनने से पहले थोड़ा-सा सोच लिया करो,
जीवन का ये अमूल्य पहऱ है, तुम्हारा लौटकर ना आयेगा,
सुनहरा सवेरा होगा कल, आज़ कुछ़ परिश्रम कर लिया करो,
किताबों को भी कुछ़ वक्त़ दिया करो,
फोन छोड़ कुछ़ पढ़ लिया करो…!
गुरूवरं नमोः साकार
श्लोक
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरा
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः
गुरू ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु नमोः साकार है,
जो भी ज्ञान पाया है आपसे आपका उपकार है,
क्या महिमा गाऊँ मैं आपकी लीला अपरम्पार है,
मैं तो था एक नन्हा बीज आप मेरा आधार है,
कितना भी गुणगान करूँ मैं शब्द कम पड़ जायेंगें,
ऋणी रहूँगा सदैव आपका सिक्के हो ना पायेंगें,
सारी दौलत से बढ़कर ज्ञान आपका साकार है,
श्रृद्धा-सुमन मेरे प्रेम के अर्पित चरणों में बारम्बार है,
भटक नहीं पाया मैं आपका जो साथ पाया,
आज़ भी चलता है साथ मेरे आपका साया,
बचपन से उंगली थामी सही राह चलना सिखलाया,
जीना है कैसे जीवन क्या है आपने ही समझाया,
आशीर्वाद अपना सदा ही रखना मुझपर,
आपके बिना ये जीवन निराधार है,
आप ही ब्रह्मा आप ही विष्णु आप नमोः साकार हैं,
नमन है मेरा गुरुवरं श्री चरणों में आप मेरा आधार है…!
कारगिल: एक याद
साल था उन्नीस साै निन्यानवे, मई का वह महीना था,
पाक़ ने जब़ कारगिल की चोटी पर क़दम रखा था,
नेक इरादें लेकर वह नहीं आया था,
भारत की सरजमीं पर ध्वज अपना फहराया था,
लड़ाई छिड़ी कारगिल की वह बहुत भयंकर थी,
अपनी आखों से जो हमनें भी परदे पर देखी थी,
सीधी खड़ी पहाड़ी से पाक़ दनादन गोली बरसा रहा था,
नीचे भारत का वीर जवान अपनी जान गवाँ रहा था,
हौंसला फिर भी हारा नहीं, वह आगे ही बढ़ते गये,
बरसता रहा बारुद ऊपर से, वह हटे नहीं सीना तानें चढ़ते गये,
एक-एक अपनें सीनें में एक ही अरमाँ लाया था,
मारेंगें या मिट जायेंगें ये प्रण करके आया था,
वो भारत माँ के लाल थे लड़े पूरे जी जान से,
लड़ते-लड़ते शहीद हो गये तिरंगे की शान में,
आन-बान-शान की वह छिड़ी लड़ाई थी,
लगाकर बाजी अपनें प्राणों की भारत की लाज बचाई थी,
पस्त होकर दुश्मन वापिस घर को भागा था,
देश रक्षा की खातिर बच्चा-बच्चा जागा था,
हम भी गवाह बनें भारत के इस विजय अभियान के,
उम्र से थोड़ा मात खा गए, वरना हिस्सा होते हम भी कारगिल युद्ध महान के,
ये कहानी है वह जो सदियों तक सबको याद रहेगी,
कारगिल में शहीदों की शहादत़ हर जुबां पर आबाद़ रहेगी,
शौर्य गाथा उनकी ये समूचा भारत गायेगा,
विजय दिवस के दिन ही नहीं उनको हर पल याद किया जायेगा…!
वो पिता है
वो पिता है जो कांधे पऱ बैठा दूऱ तक़ ले जाता है,
बिना थके संताऩ की पहली सवारी बऩ जाता है,
वो पिता है जो रात़-दिऩ पिसता है मेहनत़ की चक्की में,
बिऩ कुछ़ कहे बस़ कर्मं किये जाता है,
वो पिता है जो माँ-सा तो दिखता नहीं,
पऱ संताऩ के लिए माँ भी बऩ जाता है,
वो पिता है जो धूप़ छाँव़ सब़ सहता है,
अपनें घावों को भी वह हँस के छिपा लेता है,
वो पिता है जो बस़ एक़ ही सपना देखता है,
उसकी संताऩ उससे आगे जाये हऱ पल़ बस़ यही सोचता है,
वो पिता है जो ऊपऱ से तो पत्थऱ नजऱ आता है,
सीने में मगऱ मोम-सा दिल़ लिये रहता है,
वो पिता है जो परिवाऱ की खातिऱ महीनों तक़ घऱ से दूऱ रहता है,
जिम्मेदारी से अपनें सारें फर्जं निभाता है,
वो पिता है जो अपना तऩ मऩ धऩ सब़ कुछ़ लुटाता है,
परिवाऱ ना टूटे यही प्रयास़ किये जाता है,
वो पिता है जो चुपके से रातों में हमें देखनें आता है,
तकलीफ़ में अगऱ हम़ आ जाये चुपके-से आसूँ बहाता है,
वो पिता है जो तमाम़ उम्र खामोशी से जीवऩ बिताता है,
थक़ जाता है जब़ बस़ थोड़ी इज्जत़ औऱ प्याऱ चाहता है,
वो पिता है…!
दिलचस्प़ जिन्दगी
ए ज़िन्दगी तू कितनी दिलचस्प़ है,
रंग़ हऱ पल़ में कितनें बदलती है…;
खुशियों का लगाकऱ मेला कभी भरपूऱ हंसाती है,
तो कभी तोड़कर पहाड़ गमों का अनगिनत़ पल़ रुलाती है…;
सुःख का है अहसास़ कभी तो
दुःख भी इसका साथी है,
कभी है ये एक़ जलता दीपक
कहीं ये बुझती हुयी बाती है…;
करती है अठखेलियाँ कदम़ दऱ कदम़
थाम़ कऱ हाथ़ दौड़ा ले जाती है,
थमती नहीं सदा ही चलती रहती
बस़ सासें इंसाँ की रूक जाती है…;
कभी रहती है सरल़, सुगम़, सुंदर
कभी विकराल, विकल हो जाती भंयकर,
हऱ पल़ में है अपने रोमांच लिये ये
कभी पीड़ा पऱ लगती बऩ मरहम़…;
एक़ पहेली अनसुलझी-सी है जिन्दगी,
नित् रंग़ नए-नए दिखलाती है,
जब़ तक़ हैं खुलकऱ पूरा जीओं
बस़ यही सीख़ सिखलाती है…;
ए ज़िन्दगी तू कितनी दिलचस्प़ है,
रंग़ हऱ पल़ में कितनें बदलती है…;
हाय़! गरमी
नभ़ से बादल़ गायब़ हैं सारें,
रवि चहुँ ओऱ अग्नि है बरसाता,
धरा भी है आग़ उगलती,
हाय़! गरमी ने जला डाला…,
हव़ा की ठंडक़ भी है खोयी-खोयी,
दिऩ जैसे-तैसे गुजऱ है जाता,
रातें भी कटती हैं अधनिंद्रा में,
हाय़! गरमी ने जला डाला…,
पसीनें से लथपथ़ रहता तऩ हरपल़,
पंखों कूलऱ को भी इसने हरा डाला,
गल़ा सूखता ही रहता है हरदम़,
हाय़! गरमी ने जला डाला…,
घटाओं को जैसे चुरा ले गया कोईं,
बारिश़ का कोईं पता ना पाता,
धरती जल़ने लगी है सारी,
हाय़! गरमी ने जला डाला…,
इलाकें सूख़ गये कईं सारे,
वृक्षों की कम़ हो गयी है छाया,
नदियाँ, नहरें, ताल़ भी सूखे,
हाय़! गरमी ने जला डाला…,
अब़ तो आजा ए वर्षा रानी,
तऩ-मऩ व्याकुल़ है सारा,
धरती तरसे, अम्बऱ तरसे,
प्राणी, पशु, पक्षी, वनस्पति को बस़ तेरा सहारा,
अबकी देऱ बहुत़ लगाईं आनें में,
हाय़! गरमी ने जला डाला…,
नभ़ से बादल़ गायब़ हैं सारें,
रवि चहुँ ओऱ अग्नि है बरसाता,
धरा भी है आग़ उगलती,
हाय़! गरमी ने जला डाला…!
आओ पर्यावरण़ बचायें
कोरोना के इस़ काल़ में आओं चलों एक़ प्रण उठायें,
ना कटनें देगें अब़ वनों को आओं पर्यावरण़ बचायें,
आधुनिकता के दौऱ में वन, जंगलों का बुरा हाल़ हुआ,
इमारतें छूती हैं आसमाँ वृक्ष झूमते थे जहाँ,
तरक्क़ी जहाँ मानव़ ने बेहिसाब़ पायी है,
प्रकृति ने भी इसकी कीमत़ बहुत़ चुकायी है,
जंगल का प्राणी अब़ शहरों में आ जाता है,
घऱ छीनने वालों के हाथों जाऩ गवांता है,
सूचना एवं तकनीक़ी ने भी जाल़ बिछाया है,
असंख्य़ कीट, पक्षियों को माऱ गिराया है,
प्रकृति से बेहिसाब़ ले लिया हमनें,
क्या प्रकृति को लौटाया है?
अपने अस्तित्व़ का सवाल़ इस़ दौऱ में प्रकृति ने स्वयं उठाया है,
कोरोना के इस़ दौऱ में हव़ा जो ज़रा मंहगी हुयी,
वृक्षों की कीमत़ मानव़ को तब़ मालूम़ हुयी,
अब़ सभी ये प्रण़ उठाने लगें हैं,
वृक्षों को बचाना है सुऱ ये लगानें लगें हैं,
बरसाती मेंढ़कों से, वादों से इसको हमें बचाना है,
जऩ-जऩ को यही एक़ प्रण़ उठाना है,
हऱ हाल़ में हमें अपना फर्जं निभाना है,
पर्यावरण़ को हऱ कीमत़ पऱ बचाना है,
कोरोना के इस़ काल़ में आओं चलों एक़ प्रण उठायें,
ना कटनें देगें अब़ वनों को आओं पर्यावरण़ बचायें…!
सफाई के सिपाही
व्योम़ पऱ रवि के आनें से पहले ये सड़कों पऱ आ जाते हैं,
करतें हैं ये साफ़-सफाईं अपना फर्जं निभातें है,
गली-मोहल्लें, गाँव़-नगऱ, महानगरों जिम्मेदारी उठाते हैं,
बऩ कऱ अभिन्न अंग समाज़ का अपनी तत्परत़ा दिखातें हैं,
आम़ आदमी हाथ़ डालने से कतराता है गंदगी में,
यें दुनियाँ भऱ का मैला उठा ले जाते हैं,
हऱपल़ जीवऩ कठिनाईंयों से भरा है इनका,
कष्ट़ जीवऩ के सारें यें सहें चलें जाते हैं,
यूँ तो पहचाऩ अपनी होती है पास़ इनके भी,
फिऱ भी लोगों द्वारा अलग़-अलग़ नामों से पुकारें जाते हैं,
कोरोना के इस़ काल़ में भी आगे बढ़कऱ फर्जं निभा रहें हैं,
वायरस़ के बीच़ से हऱ रोज़ गुजरते जाते हैं,
लोग़ कुछ़ भी कहें इनकों, चाहें अलग़-अलग़ नामों से पुकारें,
मुझको तो बस़ सफ़ाई के सिपाही नजऱ आते हैं,
व्योम़ पऱ रवि के आनें से पहले ये सड़कों पऱ आ जाते हैं,
करतें हैं ये साफ़-सफाईं अपना फर्जं निभातें है…!
कोरोना: आपदा या कुछ़ और
बीते वर्षं से समय कुछ़ यूँ अपनी चाल़ चला,
चाइना से निकल़ कोरोना विश्व पटल पर आ रम़ा,
करोड़ों बनें शिकार काल़ के गाल़ में समा गये,
कोरोना के तीखें घाव़ सभी के मनों पऱ छा गये,
विपदाओं में बीता साल़ गुजऱ गया,
यूँ लगा साल़ के संग़ काल़ भी ठहऱ गया,
यूँ लगा नववर्षं नयी उम्मीदें लायेगा,
ये मालूम़ कहाँ था ये भी कहऱ बरपायेगा,
लापरवाही बरतीं राजा ने, ना कोई इंतज़ाम किया,
इस कृत्य ने फिऱ लाखों का काम़ तमाम़ किया,
ना रोकी रैलियाँ, ना गंगा का स्नाऩ रूका,
कोरोना के इस़ प्रहाऱ से कोईं बच़ ना सका,
ऑक्सीजऩ को तरसा मानव़, देश़ मदद़ बाहऱ से माँग़ रहा है
हालात़ इतनी बदतऱ हुयी, मदद़ कल़ जिनकी की,
आज़ उनका ही चेहरा ताक़ रहा है,
पैसा मदद़ में लिया देश़ से उसका कोईं हिसाब़ नहीं,
विदेशी मदद़ का भी तो कोईं लेखा साहब़ नहीं,
भ्रम़ का जाल़ भी मनों में खूब़ छा रहा है,
इसमें मानव़ बुरी तरह़ फंसता जा रहा है,
५G है या कोरोना या बुखाऱ सामान्य,
इस़ कशमकश़ में मानव़ मऩ मरता जा रहा है,
जानें वालों का हाल़ ना पूछो,
एक़ के पीछे एक़ जा रहा है,
शमशाऩ हो या कब्रिस्ताऩ,
हऱ तरफ़ लाशों का अम्बाऱ नजऱ आ रहा है,
ना जानें कब़ तक़ ये कोरोना जायेगा,
ना जानें कब़ फिऱ से मानव़ जगत़ मुस्कुरायेगा,
बीते वर्षं से समय़ कुछ़ यूँ अपनी चाल़ चला,
चाइना से निकल़ कोरोना विश्व़ पटल़ पऱ आ रम़ा…!
सवाल़ पूछता है भारत़
कोरोना की माऱ को फिऱ से झेल़ रहा है भारत़,
खड़ा मौत़ के मुँह पऱ सवाल़ यह़ पूछ रहा है भारत़,
गत़ वर्षं हम़ लड़े औऱ जंग़ भी लगभग़ जीत़ गये,
इस़ वर्षं वह सारें जीत के दावें किधऱ गये,
घऱ-घऱ में सन्नाटा पसरा पांव जमाये,
घऱ से बाहर है कोरोना घात़ लगाये,
कोईं भी दूज़ा देश़ इस़ बाऱ सुर्खियों में नहीं छाया,
इस़ वर्षं भारत़ में इतना कोरोना किधऱ से आया,
पड़ोसी देशों में भी इस़ बाऱ सुकूऩ के साये हैं,
मेरे देश़ में क्यूँ इस़ वर्षं मौत़ के इतने बादल़ मंडराये है,
नये-नये ये म्यूटेंटस़ जानें कहाँ से चले आये हैं,
मौत़ का इतना भारी तांडव़ यहाँ मचाये हैं,
क्या कुंभ़ स्नाऩ इस़ बाऱ इतना ज़रूरी था,
पंचायतों का चुनाव़ भी क्या कोईं मजबूरी था,
आस्था का स्नाऩ कितनें जीवऩ निगल़ गया,
पंचायतों की आग़ में हऱ वर्ग का कर्मचारी जल़ गया,
आस्था और चुनावी रैली में शासऩ ये भी भूल़ गया,
मानव़ जीवऩ का आखिऱ मूल्य़ है क्या,
वनों का देश़ आखिऱकाऱ ऑक्सीजऩ को क्यों जूझ़ गया,
बाहऱ से जो भंडार मंगाया वह आखिऱ कहाँ गया,
पिछलें वर्षं के दाऩ का कोईं हिसाब़ नहीं मिलता,
मन्दिऱ तो बनतें हैं कईं, कहीं कोईं मुफ्त़ अस्पताल़ नहीं बनता,
क्यों मंहगाई की माऱ को झेल रहा है भारत़,
खड़ा मौत़ के मुँह पऱ सवाल़ यह़ पूछ रहा है भारत़
कोरोना की माऱ को फिऱ से झेल़ रहा है भारत़,
खड़ा मौत़ के मुँह पऱ सवाल़ यह़ पूछ रहा है भारत़,
खड़ा मौत़ के मुँह पऱ सवाल़ यह़ पूछ रहा है भारत़…!
भीम़
हम़ आजाद़ी से जी सके द़ौऱ-ए-गुलामी इसलिएँ वह आये थे,
परतन्त्रता के काले रंग़ पऱ आसमाँ बऩ वह छाये थे,
संघर्षं देखा था अपाऱ उन्होनें बाल्यकाल़ से,
शूल़ अनेक फूल़ से मऩ पऱ खाये थे,
तिरस्काऱ देखा कदम़-कदम़ पऱ अपमाऩ सहे,
शिक्षा पाने के लिएँ दिऩ-रात़ वह लड़े,
शिक्षित़ होने का प्रण़ वह मऩ में उठाये थे,
सहकऱ कष्ट़ यात्नाएँ अनगिनत़ ही वह भीम़ कहलाये थे,
ना तीऱ चलाये ना तलवारों से काम़ लिया,
शिक्षा को बऩा हथियाऱ अज्ञानता पऱ वार किया,
कानूऩ का ले सहारा स्वयं को काबिल़ बनाया,
नज़रों से गिरा देखते थे जो उनकों कराऱा जवाब़ दिया,
गुलामी के कीचड़ से बऩ कमल़ वह आये थे,
शिक्षा़ के बल़ पऱ ही संविधाऩ रचियता कहलाये थे,
संविधाऩ बना सबको एक़ समान बताया था,
समाज़ में दलितों को भी एक़ स्थाऩ दिलाया था,
जाति भेद़ की गिराकऱ दीवाऱ को,
शिक्षा की अलख़ को जलाया था,
यह़ उनका ही प्रयास़ था हम़ सिऱ उठाकर जीतें है,
बाबा साहब़ ने ही तो हमें यह़ सम्मान दिलाया था,
हम़ आजाद़ी से जी सके द़ौऱ-ए-गुलामी इसलिएँ वह आये थे,
परतन्त्रता के काले रंग़ पऱ आसमाँ बऩ वह छाये थे।…!
कोरोना-अनदेखा दुश्मऩ
ये बात़ है बीतें साल़ की, एक़ अनदेखा दुश्मऩ चाईना से आया था,
बऩकऱ कहऱ देश़ दुनियाँ पऱ बुरी तरह़ छाया था,
ना गोली, ना बारूद़ था इसके पास़ कोईं,
हव़ा में घुल़ इसने मौत़ का ताडंव़ मचाया था,
दुनियाँ बंद़ थी सारी घरों में जाऩ बचाने को,
धरती भी कम़ हो गयी थी जलानें-दफनानें को,
कुछ़ ऐसा रंग़ इसने अपना दिखाया था,
ये बात़ है बीतें साल़ की, एक़ अनदेखा दुश्मऩ चाईना से आया था,
सोच़ रहे थे दव़ा आयेगी, इससे छुटकारा पायेंगें,
ये मालूम़ ना था, औऱ बुरें फंस़ जायेंगें,
ये उससे भी ज्याद़ा है, जितना पिछले ने दिखाया था,
ये बात़ है बीतें साल़ की, एक़ अनदेखा दुश्मऩ चाईना से आया था,
फिऱ से बन्द़ का डऱ सतानें लगा है,
आम़ आदमी फिऱ परेशाऩ नज़ऱ आनें लगा है,
रफ्ताऱ पऱ रोजगाऱ की शिकजां फिऱ से लगाया है,
ये बात़ है बीतें साल़ की, एक़ अनदेखा दुश्मऩ चाईना से आया है,
छात्र फंसा गया बुरी तरह़ दुविधा में,
मेहनत़ साल़ भऱ की बेकाऱ है इस़ सरकारी सुविधा में,
क्या करें क्या ना करें समझ़ कुछ़ नहीं आता है,
हऱ दिऩ नया संदेशां सरकारी,
साथ़ अपनें नईं-नईं योजनाएँ नया जंजाल़ लिये आता है,
कोरोना औऱ सरकार ने बुरा सबको फंसाया है,
ये बात़ है बीतें साल़ की, एक़ अनदेखा दुश्मऩ चाईना से आया है,
नहीं कुछ़ मालूम़ डूबेंगें या तऱ जायेंगे,
इस़ सबसे कब़ तक़ निजात़ पायेंगें,
डऱ का भयंकऱ जाल़ इसनें यहाँ फैलाया है,
ये बात़ है बीतें साल़ की, एक़ अनदेखा दुश्मऩ चाईना से आया है,
ये बात़ है बीतें साल़ की, एक़ अनदेखा दुश्मऩ चाईना से आया है…!
प्रीत वाला रंग
बरसों से खुशियाँ खोईं हुईं थी ज़िन्दगी में,
अबके लौट़ के बहाऱ फिऱ आईं है,
बरसा है फिऱ प्याऱ झूम़ के यहाँ,
ये होली रंग़ प्रीत़ वाला लाईं है…;
ना अपना पता था, ना मंजिल़ का निशां था,
मैं खोया था जानें किस़ गली में, हऱ रास्ता धुआँ-धुआँ था,
हाथ़ थाम़ कऱ ज़िन्दगी मुझे लौटा लाईं है,
प्रीत़ का लेकऱ प्याऱ ये होली आईं है।…;
इस़ होली पऱ खुशियों ने घऱ में शहनाईं बजाईं है,
एक़ किलकारी आंगऩ में हमारें गुनगुनाईं है,
उस़ परी के आनें से महका है घऱ द्वाऱ,
दुआएँ मेहऱ बऩ परिवाऱ पऱ बरस़ आईं है,
रंग़ प्रीत़ का ये होली घऱ में ले आईं है…,
दुआं है दिल़ से यही हऱ जीवऩ को प्याऱ मिलें,
महके हऱ घऱ खुशियों से हऱ आंगऩ में ख़ुशी के दीप़ जले,
रंगों के इस़ उत्सव़ पऱ यही दुआं जुबां पऱ आईं है,
प्रीत़ के रंग़ ये होली ले आईं है…;
बरसों से खुशियाँ खोईं हुईं थी ज़िन्दगी में,
अबके लौट़ के बहाऱ फिऱ आईं है,
बरसा है फिऱ प्याऱ झूम़ के यहाँ,
ये होली रंग़ प्रीत़ वाला लाईं है…!
मैं किसान हूँ
मैं किसान हूँ, अपनी गाथा आज़ बताता हूँ;
सफ़र है मेरा तकलीफों से भरा,
व्यथा अपनी आज़ सुनाता हूँ,
मैं किसान हूँ, अपनी गाथा आज़ बताता हूँ;
कोई अन्नदाता कहे मुझको,
कोई धरती माँ का लाल पुकारे,
सीना चीऱ कर माँ का अपनी,
अन्न उससे उपजाता हूँ,
मैं किसान हूँ, अपनी गाथा आज बताता हूँँ;
नर्म हो माटी चाहे बंजर ही मिल़ जाये मुझे,
पत्थरों में भी मैं फूल़ खिलात़ा हूँं,
कैसे ही रूप़ में मिल़ जाये धरा मुझे,
मैं उसको शीश़ झुकाता हूँ,
मैं किसान हूँ, अपनी गाथा आज़ बताता हूँ;
गर्मी की आग़ में हूँ जलता, लू के थपेड़े भी मैं सहता हूँ,
ठिठुराती सर्दी की रातों में भी, फ़सलों को पानी देता हूँ,
घनघोर बरसती घटाओं में भी, खेतों में अपने आता हूँ,
मैं किसान हूँं, अपनी गाथा आज़ बताता हूँ;
विपदाओं का और मेरा तो अटूट् नाता है,
कदम़-कदम़ पऱ जीवन में मेरे बाधा ही बाधा है,
हऱ मौसम़ की मार सहकर फ़सलों को बचात़ा हूँ,
मैं किसान हूँ, अपनी गाथा आज़ बताता हूँ;
कभी आसमां से बरसती आग़, फ़सलें जल़ा जाती है,
कभी बाढ़ आक़र मुझे तबाह़ कर जाती है,
ओलावृष्टि तो कभी पाला मेहनत़ मेरी जल़ा जाता है,
मैं किसान हूँ, अपनी गाथा आज़ बताता हूँ;
हऱ सितम़ सहकऱ भी मैं गुनगुनाता हूँ,
जीवन भर रहकऱ कर्जदाऱ, अर्थव्यवस्था में हाथ़ बटांता हूँ,
परवाह़ नहीं किसी को मेरी हालत़ की,
लोग़ धनी हों जातें है मेरी मेहनत़ से, मैं बस़ कर्जं चुकाता हूँ,
जीवन की दौड़ में पिछड़ता हूँ, तो फन्दे से झूल़ जाता हूँ,
मैं किसान हूँ, अपनी गाथा आज़ बताता हूँ;
सरकारें आती हैं, सरकारें जाती हैं,
वायदे करती है बड़े-बड़े, बस़ ढोल़ बजाये जाती है,
मैं पिसता हूँ, वायदों उम्मीदों की चक्की में,
सरकारें बस़ वोट कमाती है,
अपनें हक़ की ग़र मैं बात़ करूं,
लाठी-डंडों फटकारों का प्रसाद़ मैं उनसे पाता हूँ,
मैं किसान हूँ, अपनी गाथा आज़ बताता हूँ;
मैं किसान हूँ, अपनी गाथा आज़ बताता हूँ,
सफ़र है मेरा तकलीफों से भरा,
व्यथा अपनी आज़ सुनाता हूँ,
मैं किसान हूँ, अपनी गाथा आज़ बताता हूँ…॥
एक दिवाली ४०₹ वाली
आओं मित्रो सभी को एक वृतान्त सुनाता हूँ…
एक आयी थी दीवाली ४० रूपये वाली,
उसका किस्सा बतलाता हूँ…
बचपन की मस्ती, लड़कपन का जमाऩा था…
धूम-धड़ाके और पटाखों का मैं दीवाना था…
नादानियों पऱ अपनी अब़ भी मुस्कुराता हूँ…
एक आयी थी दीवाली ४० रूपये वाली,
उसका किस्सा बतलाता हूँ…
थोड़ा होश़ संभला मस्ती से मैं दूऱ हुआ…
बाहऱ निकला दुनियाँ देखी रंग बिंरगी…
समाज के रूप देखने को मजब़ूर हुआ…
बदलाव़ की कहानी वह सबको आज़ सुनाता हूँ…
एक आयी थी दीवाली ४० रूपये वाली,
उसका किस्सा बतलाता हूँ…
बचपन को देखा मैंने मुफ़लिसी में तरसते हुए…
हँसी ख़ुशी को देखा ऐसे बच्चों से बचते हुए…
फटे हाल़ हाथ़ फैलाती देवियाँ (कन्या) देखी यहाँ…
अनगिनत़ मासूम़ देखे, दूसरों की ख़ुशी में हँसते हुए…
प्रत्यक्ष होक़र गुज़रा जिनसे वह लम्हें दिखाता हूँ…
एक़ आयी थी दीवाली ४० रूपये वाली,
उसका किस्सा बतलाता हूँ…
धुएँ में उड़ती लक्ष्मी (₹) देखी…
बुझता हुआ पर्यावरण भी देखा…
शोऱ सुना दिल दहलाने वाला…
गैसों से घिरा वायुमंडल भी देखा…
हृदय परिवर्तन का हिस्सा एक सुनाता हूँ…
एक आयी थी दीवाली ४० रूपये वाली…
उसका किस्सा बतलाता हूँ…
इन सारी घटनाओं से दिल़ एक दिन टूट गया…
मेरे भीतर जो छिपा था एक बालक इस सबसे वह रूठ गया…
इस़ बार जब़ आयी दीवाली खुद़ से एक बदलाव वह लाया…
घऱ सजाया, पूरी तन्मयता से मन्दिर का शृंगार किया…
मिलें थे पैसे जो पटाखों के लिए,
उनसे ४० रूपये का एक़ गुलाब का पौधा लिया…
वर्षं कईं गुजरे इसके, वह पौधा अब़ भी महकाता है…
उस़ दिऩ से ये ‘राज’ हऱ वर्षं एक़ पौधा लगाता है…
स्वयं दर्शन से जो सीख मिली वही आप तक पहुँचाता हूँ,
एक आयी थी दीवाली ४० रुपये वाली,
उसका किस्सा बतलाता हूँ…
नईं पीढ़ी अभी दूऱ है इससे उनको भी बतलाना है,
किस्सा मेरे जीवन का उनको भी दिखलाना है,
सीख जो मैंने सीखी, उनको सिखलाना चाहता हूँ,
एक आयी थी दीवाली ४० रुपये वाली,
उसका किस्सा बतलाता हूँ…
एक आयी थी दीवाली ४० रूपये वाली…
जीवन साथी
कुछ़ तो मर्जी रही होगी उस़ रब़ की,
हमको जो उसने मिलाया है,
सात़ फ़ेरों का कर के बहाना,
हमको जीवन साथी बनाया है;
भूल़ स्वयं को मैं स्वयं से ही दूर था,
खुशियाँ बिखरीं थी मेरे आंगन में,
हस्ति भूल़ा अपनी, खुशियों से सारी दूर था,
मुझसे ही परिच़य मेरा तुमने करवाया है,
उस रब़ का मैं सज़दा करूं हऱ पल़,
हमको जीवन साथी बनाया है;
चुप़ रह कर सभी के लिए सब़ कुछ़ कऱ देती हो,
परिस्थिती हो कितनी ही विकट़ तुम संभाल लेती हो,
छोटा-सा आशियाँ ये बिख़रा था मेरा,
मन्दिर इसको तुमने बनाया है,
रब़ ने कुछ़ तो सोचा होगा अच्छा,
हमको जीवन साथी बनाया है;
काटें लिपटे थे मुझसे, दामन तार-तार था,
सब़ कुछ़ होकर भी मुझमें, जीवन निराधार था,
क्षमताओं का मेरी दर्शन तुमने करवाया है,
रब़ ने बरसायी रहमतें मुझ पर,
हमको जीवन साथी बनाया है;
क्रोध को भी मेरे चुप हो हँस कर सह लेती हो,
शब्दों का ना लेकर सहारा
खामोशी से कह देती हो,
हर पल हर हाल में तुमने साथ़ निभाया है,
रब़ का है ये आशीर्वाद मिला,
हमको जीवन साथी बनाया है;
ये सफलता मेरी, जो भी मेरा काम हो रहा है,
है विश्वास से तुम्हारे, जाे भी मेरा नाम हो रहा है,
प्रेरक बन कर तुमने मार्ग दिखाया है,
सही मर्जी थी ये उस रब़ की,
हमको जीवन साथी बनाया है;
किस्सा ये यूँ ही उम्र सारी चलता रहे,
शब्दों में मेरे हम़ दोनों का ज़िक्र भी मिलता रहे,
रिश्तें पर हमारे परमपिता ने प्यार अपना सदा बरसाया है,
हमको जीवन साथी जो रब़ ने बनाया है;
कुछ़ तो मर्जी रही होगी उस़ रब़ की,
हमको जो उसने मिलाया है,
सात़ फ़ेरों का कर के बहाना,
हमको जीवन साथी बनाया है॥
वरूण राज ढलौत्रा
सहारनपुर
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