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स्वार्थ सिद्धि (self-fulfillment)
स्वार्थ पूर्ति और निःस्वार्थ कार्य भावना पर निर्भर करते हैं। वैसे सूक्ष्म रूप से समझा जाए तो संसार का हर कार्य स्वार्थ सिद्धि (self-fulfillment) के लिए ही होता है या किया जाता है। निःस्वार्थ कार्य एक कल्पना मात्र है, निःस्वार्थ को स्वार्थ का विलोम कहा जाता है। चूँकि इस सृष्टि में निःस्वार्थ कार्य करने वाला कोई भी जीव होता ही नहीं है तब इसे कल्पना ही कहेंगे। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-
“स्वार्थ लाग करें सब प्रीति”
अर्थात सभी कुछ न कुछ स्वार्थ लेकर ही कार्य करते हैं। निःस्वार्थ भाव से कार्य करने वाला संसार में कोई है ही नहीं। हाँ कुछ लोग, संस्थाएँ अपने स्वार्थ को छिपाकर, न्यूनतम स्वार्थ पर कार्य करती हैं और जग में निःस्वार्थ सेवा का ढिढोरा पीठ कर अपना स्वार्थ सिद्ध करती हैं। यही परोकार कहलाने लगता है। फिर भी न्यूनतम स्वार्थ पर कार्य करने की प्रवृत्ति अच्छी ही होती है। जो संवेदना को जागृत करने में सहायक होती है। किसी अपरिचित व्यक्ति का गंभीर अवस्था में सहयोग करना भी एक तरह की निःस्वार्थ सेवा ही है। मानवीय संवेदनाओं के आधार पर आज भी बहुत कुछ होता रहता है लेकिन इस महामारी के समय कुछ तथाकथित विद्वान, संस्थान, व्यक्ति सेवा सहयोग के नाम पर जो कर रहे हैं, वह किसी से छिपा नहीं है। नकली इंजेक्शन, आक्सीजन की काला बाजारी, दवाओं में मुफ्त खोरी ने सिद्ध कर दिया है कि लोग स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
मानवता के सिद्धांत को शर्माने वाली घटनाओं के पीछे स्वार्थ सिद्धि का ही भाव कार्य करता है। असली चीज को महॅगी करके बेंचना भी अपराध होता है। पर विष को अमृत कहकर अमृत से भी महॅगा बेंचना तो महापाप, घोर अपराध ही कहा जावेगा। संवेदन हीनता का यह स्तर तो जानवरों से भी गया गुजरा है। दुश्मन भी शरणागत की रक्षा करता है। इस महामारी में तो जो जितना बुद्धिमान स्तर का आदमी (तथाकथित) है वह उतना ही शैतान बना हुआ है। मानवीय संवेदनाओं के स्थान पर पैसा कमाने की, धनाढ्य बनने की, स्वार्थ वृत्ति चरम पर है। इन हालातो को देखते हुए यह कहना उचित जान पड़ता है कि मानवीय संवेदनाओं पर भारी हुई स्वार्थपूर्ति।
आज मानव जीवन का उद्देश्य स्वार्थ सिद्धि / पूर्ति करने ही है। अब मनुष्यता, संवेदना, परोपकार या सेवा की बातें बहुत होती हैं पर जीवन में उतारी नहीं जाती, साथ ही समाज में अच्छे कार्यो को प्रोत्साहन न देकर वैभव, संपन्नता को श्रेय दिया जाता है। जिसका दुष्परिणाम ही स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रेरित करता है।
बुद्धिमान कौन?
कहते हैं एक समय लालबुझक्कड़ बुद्धिमान व्यक्ति था। जिसकी सलाह के किस्से आज भी मशहूर है। गाँव में वही कुछ पढ़ा लिखा व्यक्ति धा। उसका सभी सम्मान किया करते थे। एक बार हाधी के पैर के निशान देखकर गाॅव वालों ने पूछा भैया ऐसे निशान कभी नहीं देखें, सभी अचंभित हो रहे थे।
लालबुझक्कड़ को बुलाकर पूछा
लालबुझक्कड़ बूझ है
और न बूझे कोय।
पैर में चक्की बाँध कर
हिरना कूदा होय॥
सभी की शंका का समाधान हो गया था। एक पढ़े लिखे व्यक्ति में इतनी समझदारी थी। आज तो पढ़े लिखो का जमाना है, इसलिए समझदार हर गली मुहल्ले से लेकर देश विदेश की समस्याओं को चुटकी बजाते सुलझा रहे हैं। जी हाँ लेकिन शर्त वही “और न बूझे कोय” अर्थात हमारे बाद कोई नहीं सुलझा सकता।
इसी शर्त पर तब से लेकर आज तक समस्या का हल खोजा जाता है। जैसे काले धन की समस्या बनी तो शर्त पूर्वत नोटवंदी से हल खोज लिया। भ्रष्टाचार रोकने की समस्या शर्त वही और न बूझे कोय-प्रायवेटीकरण से हल। बेरोजगारी की समस्या शर्त वही-संविदा भर्ती, अतिथि भर्ती। कालाबाजारी की समस्या शर्त वही एक-एक को नहीं छोडेगें। कोरोना की समस्या बनी, शर्त पूर्वत पोस्टमार्टम पर रोक। संक्रमण फैलने की समस्या बनी तो शर्त पूर्वत लाॅकड़ाउन लागू। महगांई की समस्या बनी तो शर्त पूर्वत जमाखोरी की जांच। पट्रोल डीजल के भाव की समस्या, वही शर्त भाव सरकार तय नहीं करती। चुनाव की समस्या बनी तो शर्त पूर्वत ईवीएम व जुमले। पढाई की समस्या बनी तो शर्त पूर्वत आरटी और न जाने कितने मुद्दे और समस्याओं का हल उसी कहानी के आधार पर होते रहे हैं, हो रहे हैं और भविष्य में भी होगे। याद है न सूत्र घर, परिवार, समाज, समूह से लेकर देश व विदेश के लिए भी उपयोगी लालबुझक्कड़ बूझ है और न बूझें कोय।
अनसुलझा प्रश्न
वर्तमान में सकारात्मक चिंतन की ज़ोर शोर से चर्चा चल रही है और सकारात्मकता जीवन में कायाकल्प, बदलाव, हर समस्या का समाधान पाने का मूलमंत्र है। कोरोना जैसी महामारी से लड़ने के लिए सकारात्मक चिंतन, सकारात्मक विचार, सकारात्मक व्यवहार व सकारात्मक प्रतिक्रिया किसी औषधि से कम नहीं है। विगत वर्ष कोरोना के लड़ने का तरीक़ा सकारात्मकता से भरा हुआ था, जिसकी वज़ह से शीघ्र विजय भी मिली थी। जैसे ताली-थाली बजाना, दीप जलाना, चीन को गालीयाॅ देना, कोसना, विदेश की वस्तुओं का वहिष्कार, चीन व पाक से अघोषित युद्ध की खबरें, मरीजों के लिए आवश्यकता से अधिक सहुलियतें प्राप्त कराना, लाॅकड़ाउन में मुफ्त अनाज, मुफ्त बिजली, महाभारत, रामायण प्रसारण जैसी ढेरों योजना का चलना सभी जोश बढ़ाने के लिए वेहतरीन उपाय थे। इस वर्ष ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है जिससे ऐसा लगे कि हमॆं कोरोना से लड़ना है।
अब तो ऐसा माहौल बना दिया जैसे कोरोना के आगे देश ने आत्मसमर्पण कर दिया हो। कहते हैं भूतकाल की सीख ही वर्तमान में सफलता देती है और भविष्य का मार्ग प्रशस्त करती है। लेकिन हमने तो कुछ महिने पहले के ही इतिहास को भूला दिया। सकारात्मकता और नकारात्मकता का काम सिर्फ़ मीडिया के कंधों पर डाल दिया गया है। अब तो मीडिया के सही आॅकड़े नकारात्मक लगने लगे हैं। डॉ, वैद्य, नेता, अभिनेता, सलाहकार सभी मीडिया से दूर रहने की सलाह देते हैं। अच्छा तो यह होना था कि मीडिया को भी कुछ सकारात्मक दिखाने योग्य कार्य किये जाते। सकारात्मक के नाम पर पक्ष और विपक्ष एक दूसरे पर दोषारोपण करते हैं। विशेषज्ञ चिकित्सक व वैद्य जिनके बड़े नाम, बोर्ड और औषधालय है, रोगियों का आत्मबल बढ़ाने का काम करते थे ताला लगाकर नदारत हो गए, रोगी के उपचार की बात तो दूर सीधा कोविड़ सेंटर जाने की सलाह मोबाइल पर देते हैं। मरीज का आत्मबल बढने की वज़ह घट जाता है, मन में निराशा का भाव आ जाता है, फिर भी सकारात्मक सोचने की सलाह मिलती है।
अपनी सुरक्षा के लिए कोविड़ बैक्सीन लगवाने से किसी को बुखार आ जावे तो इलाज़ के लिए, परामर्श के लिए, कोई व्यवस्था नहीं है। यदि बुखार बना रहता है तो कोविड़ सेंटर जाना पड़ता है। यहाँ भी कोई पूछ परख नहीं, संक्रमण का अधिक ख़तरा समझ मरीज निराश हो जाता है। फिर भी सकारात्मक सोचने की सलाह मिलती है। भला करें उन झोलाछाप ड़ाॅक्टरो का, जिनके औषधालय शहरी एम बी-बी एस को पीछे छोड़ चुके हैं। हर मरीज को बाॅटल-इंजेक्शन देकर संतुष्टि प्रदान कर आत्मविश्वास बढ़ा रहे हैं। यह अलग बात है कि ये कोविड़ को मिटा रहे या बढ़ा रहे यह तो चिकित्सा विज्ञान या भगवान जाने। साहित्यकार नहीं बता सकता लेकिन रुपये अच्छा छाप रहे हैं। फिर भी बात सकारात्मक चिंतन बढ़ाने की है। शहरों के मरीज गाॅव में इलाज़ कराने आते हैं और प्रायः संतुष्ट हो कर लौटते हैं। बात ही कुछ ऐसी है न कोविड़ की जाॅच, न शहरी डाॅक्टर की तरह दूसरी मंज़िल से सलाह, न डाॅक्टर की फीस डिब्बे में डालना, न बातचीत का परहेज, सब कुछ सकारात्मक। यह सकारात्मकता किसी-किसी को जीवनदानी भी साबित हो रही है। सकारात्मक सोच रखें, सकारात्मक चिंतन करें, स्वस्थ रहें।
कोरोना काल में कैसी हो दीपावली
दीपावली का त्यौहार हमारे देश में खुशियों का, विजय प्रतीकका, सत्य की जीत का, धार्मिक त्योंहार है। इसके मनाने के पीछे की कहानी भगवान राम की अयोध्या वापिसी से जुड़ी है। भगवान राम ने अत्याचारी रावण का वध कर, लंका विजय के वाद अयोध्या आए तो नगरवासियों द्वारा सारे नगर की सफ़ाई की तथा पूरे नगर में दीप जलाये। तब से यह पर्व कार्तिक अमावस्या की रात को दीपमाला जलाकर लक्ष्मी कुबेर पूजन के साथ बनाया जाता है।
वर्तमान कोरोना काल में दीपावली का त्यौहार कुछ सावधानियों के साथ मनाने पर वरदान साबित हो सकता है। कोरोना के लिए सफ़ाई अभियान चलना, स्वतः दीपावली पर्व पर हो रहा है। सम्पूर्ण देश को एक साथ एक समय पर स्वच्छ कर पाना किसी शासन के वश में नहीं है लेकिन दीपावली पर्व की तैयारी हर परिवार द्वारा की जाती है जिसमें हर घर को अन्दर बाहर से साफ़ कर पुताई की जाती है, यह सेनेंटाइजर करने की प्रक्रिया ही तो है। जिससे बाह्य सतह पर उपस्थित सूक्ष्म जीव, वायरस स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं।
दूसरा उपाय दीपावली की रात सम्पूर्ण भारत में एक साथ घी या तेल के दीपक करोड़ो करोड़ की संख्या में जलाये जाते हैं जिससे वातावरण में उपस्थित प्रदूषण व वायरस भी साफ़ हो जाता है, इस तरह कोरोना युद्ध में दीप प्रज्वलन अभियान वरदान बन सकता है।
इस वर्ष की दीपावली पर्व पर साफ़ सफ़ाई अभियान कोरोना विजय का संकेत दे सकता है, लेकिन कोरोना गाइड़ लाइन का ध्यान रखते हुए तथा आतिशबाजी से होने वाले नुक़सान से बचना चाहिए। यदि वर्तमान कोरोना परिवेश को सुधार करने में दीपावली पर्व सार्थक सिद्ध हुआ तो निश्चित तौर पर जो उपलब्धि योग को, गायत्री मंत्र को, भारतीय भोजन को, भारतीय जीवनशैली को विश्व स्तर पर मिल रही है, वही उपलब्धि मान्यता भारतीय त्यौहार दीपावली को विश्वस्तर पर मिल सकती है।
२१वीं सदी का सुदृढ़ भारत
हर देश अपने आप को सुदृढ़ बनाना चाहता है, सुदृढ़ रहना चाहता है। सुदृढ़ता हासिल करना ही उसकी अभिलाषा होती। सुदृढ़ का शाब्दिक अर्थ होता है बहुत मजबूत, ठोस होना लेकिन देश के लिए सुदृढ़ होना का मतलब आत्मनिर्भता से लिया जाता है।
भारत एक समय आत्मनिर्भर देश ही था। इसलिए तो भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। लगातार विदेशी आक्रांताओं द्वारा लूटे जाने, आपसी फूट पड़ने तथा शताब्दियों की दास्ता में पड़ने से स्वाभिमाता को भूलकर दासत्व की जीवनशैली में जीता रहा है। अब आजादी के बाद पुनः सुदृढ़ भारत बनने की ओर निरंतर प्रगति मार्ग पर बढ़ रहा है। सुदृढ़ होने का तात्पर्य संपन्नता से, साधन सुविधा से, अच्छे खानपान से, रहन सहन से नहीं होता। सुदृढ़ होने का मतलब आत्मनिर्भर, स्वाभिमानी, समृद्ध, स्वदेशीता से निर्भर भारत। आजादी के बाद से ही भारत के हर क्षेत्र में लगातार विकास हुआ तथा कृषि क्षेत्र में सर्वप्रथम आत्मनिर्भर होकर देश ने गौरव पाया। किसी देश की आत्मनिर्भरता का मतलब किसी अन्य देश के सामने आधारभूत आवश्यकताओं के लिए हाथ न फैलाना। देश की सुदृढ़ता नागरिकों के व्यवहार, चरित्र तथा देशभक्ति के भाव पर निर्भर करती है। इक्कीसवीं सदी का भारत अपने नागरिकों में यही भाव जगाने में सफल हो रहा है, प्रयास कर रहा है। आज विश्व भर में युवा देश के नाम से भारत ने पहचान बना ली है। विश्व का ऐसा कोई भी देश नहीं जहाँ भारतीयों ने उत्कृष्ट प्रदर्शन कर अपनी प्रतिभा का लोहा न मनवाया हो।
वर्तमान परिस्थितियों में हर देश अपने को ताकतवर बनाने में लगा है, सैन्य बल बढ़ाकर अपने आप को शक्तिशाली स्थापित कर, अन्य देशों का शोषण करने में लगे है। हमारी संस्कृति एकपक्षीय नहीं रही, हम विकास तो चाहते है लेकिन किसी का शोषण न कर, सबको साथ लेकर। यहीं वज़ह है कि आज दुनिया भर में भारत का सम्मान है, मित्र देशों की संख्या अधिक है। भारत की ऋषिप्रणीत सभ्यता को सारा विश्व अपना रहा है। भारत हर क्षेत्र में अपने बलबूते स्वदेशीकरण अपनाकर आत्मनिर्भरता की ओर तीव्रगति से बढ़ रहा है।
इक्कीसवीं सदी का भारत सर्वांगीण विकास कर विश्व का नेतृत्व करेगा, इसकी भविष्यवाणी हमारे ऋषि मुनियों से लेकर युगपिरोंधा स्वामी विवेकानंद जी ने भी की है। स्वामी जी अनुसार” आगे बढ़ों आगे बढ़ो, उज्जवल भारत तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहा है।
वर्तमान समय में जब भारत की तुलना अन्य देशों से करते है तो पाते है कि हमारे स्थिति आर्थिक रूप से बेहतर ही है। हम ऊर्जा के क्षेत्र में, व्यापार के क्षेत्र में, सैन्यबल के क्षेत्र में तथा आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र अन्य कई देशों को पीछे छोंड़ चुके है। हमारे देश व अन्य देशों में सिर्फ़ एक बड़ा अन्तर यह है कि हमारा देश सिर्फ़ अपना विकास व सुरक्षा के उद्देश्य से सबको साथ लेकर बढ़ता है जबकि कुछ देश दूसरे देशों को हानि पहुँचाकर। भविष्य हमारी प्रतिक्षा कर रहा है जब हम अग्रणी भूमिका में होंगे। इन सब के पीछे अहम भूमिका होती है नागरिकों के उत्साह, जोश, स्वाभिमान, देशभक्तिपूर्ण जज्वात की, इन सबकी पूर्ति शिक्षा से होती है।
आज भारत में स्वाभिमान के मानक स्थापित हो रहे है। गुलामी के निशान, दाग, धब्बे शैने-शैने घुलते जा रहे है। राममंदिर की स्थापना, जम्मू कश्मीर से धारा ३७० ख़त्म होना, नई शिक्षा व्यवस्था का आगाज जैसे निर्णय नागरिकों को नये भारत की सौगात लेकर आये हैं। जिससे भारतीय नागरिकों में देशभक्ति, स्वाभिमान, उच्च चरित्र जैसे गुणों की स्थापना पुनः जाग्रित हो रही है। अब पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि इक्कीसवीं सदी का भारत सुदृढ़, समृद्ध बनने जा रहा है। वह दिन दूर नहीं जब भारत विश्व का नेतृत्व करेगा।
जय हिंद, जय भारत की गूँज विश्वव्यापी होकर रहेगी।
अयोध्या के राम
अयोध्या के राम का सीधा शब्दिक अर्थ होता है कि अयोध्या नगरी में बसने वाले, जन्म लेने वाले राम। आम बोलचाल की भाषा में ऐसा सम्बोधन आज भी समाज में प्रचलित है तथा व्यक्तियों की पहचान के लिए प्रयुक्त होता है। लेकिन यहाँ न तो अयोध्या साधारण है न ही राम साधारण है।
यहाँ दोंनो नाम अयोध्या और राम अपने आप में सम्पूर्ण मानव जाति के लिए ही नहीं सम्पूर्ण सचराचर के लिए मुक्ति प्रदायक हैं। अयोध्या उस पावन नगरी का नाम जिसे हिन्दू मान्यता के चारों धाम जैसी श्रेष्टता प्रदान की गई है, राम स्वयं जगतनियंता, सचराचर के स्वामी, पारब्रह्म परमात्मा भगवान विष्णु के अवतार रूप का नाम है। वेद पुराण उपनिषद से लेकर हिन्दू धर्म का कोई भी ऐसा ग्रंथ नहीं है जो राम अवतार की महिमा से अछूता हो। जगत को उच्च आदर्श, मर्यादा, भक्ति, चरित्र सिखाने तथा दुष्टता, अधर्म का नास और सज्जनता, धर्म का विकास स्थापित करने परमात्मा अवतार रूप में आते रहे हैं।
ऐसा ही त्रेता युग का वृत्तांत है जब असुरों के अत्याचार से साधु सज्जन धार्मिक प्रवृति के लोग असहाय होकर प्रभु को पुकारने लगे। तब धर्म की स्थापना और अधर्म का उन्मूलन करने ब्रह्म का यथार्थ स्वरूप चेतनात्मक सर्वव्यापी सत्ता के रूप में निराकार से साकार होकर परमात्मा राम ने अयोध्या नगरी में राजा दशरथ के घर जन्म लिया। जो न सिर्फ़ वाणी, लेखनी, प्रेरणा, मार्गदर्शन आदि से वरन अपने उज्ज्वल चरित्र से, मर्यादा पालन से, जनसाधारण में परिवर्तनकारी उत्साह उत्पन्न करते है। वे युग पुरूष के रूप में, संत सुधारक, मर्यादा पुरूषोत्तम के रूप में अपना चरित्र, कर्त्तव्य उपस्थित कर जनमानस में अनुकरण की, अनुगमन की चेतना पैदा कर, भगवान के रूप में प्रतिष्ठित हो जगत में जाने।जाते है।
भगवान राम के जन्म से सांकेतधाम गमन तक की कथाओं का गुणगान करने वाले लोगों का नाम भी संसार में प्रतिष्ठा प्राप्त है, जिसे पढ़ सुन कर युगों-युगों से जनमानस मानवता के धर्म कर्म का अनुसरण कर रहा है। भगवान राम की कथा, लीला अमर है साथ हि कहा जाता है कि रामायण शतकोटि अपारा अर्थात भगवान राम पर उपलब्ध साहित्य संभवतः दुनिया भर के महापुरूषों पर सर्वाधिक सृजित साहित्य से सबसे अधिक है। साहित्यिक सम्राट पुरूष भी भगवान राम की पहचान है। जिनके सम्बंध में कहा गया है कि
बिनी पग चलै सुनै बिनु काना, कर बिनु करम करै जग नाना
जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू, मायाधीस ज्ञान गुन धामू
राम कथा से तो सभी परिचित है जैसे राम जन्म, धनुषयज्ञ, विवाह, वनगमन, सीताहरण, सेतुनिर्माण, लंकाविजय, राज्याभिषेक आदि। इसलिए इन पर लिखना आज प्रसांगिक नहीं।
कालान्तर में जन मानस इन लीला प्रसंगों का पढ़न पाढ़न ही राम भक्ति, राम कृपा, राम की प्रसंनता समझा, यहीं से विसंगति पैदा हो गयी। आराध्य सत्ता की जन्मस्थिली अयोध्या नगरी हिन्दू संस्कृति सभ्यता एवं धार्मिकता की प्रतीक होकर पूजनीय मानी जाती है, जिसकी वंदना।स्वयं भगवान राम ने की है, अयोध्या नगरी के दर्शन मात्र से प्राणी पापों से मुक्त हो जाता है। इसी मान्यता से अयोध्या श्रृद्धा और विश्वास का केन्द्र मानी जाती है। युग आये गये पर भारतीय जनमानस में अयोध्या के प्रति, राम जन्मभूमि के प्रति, राम राज्य के प्रति आस्था कम नहीं हो सकी। अनेक असुर प्रवृतियों के अक्रांतओं द्वारा हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू धर्म के प्रतिकों को मिटाने प्रयास किये गये।
इसी उद्देश्य को लेकर राम जन्मभूमि के मंदिर को गिरा कर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया गया। लेकिन कहाँ गया है-
मम गुन ग्राम नाम रत, गत ममता मद मोह
अर्थात जो राम के नाम धाम में रत रहें उसका जीवन धन्य है। इसी भाव प्रेरणा से प्रेरित हिन्दू समाज पुनः राम मंदिर निर्माण के लिए प्रयत्न शील रहा। पाँच सौ वर्ष के लंबे संघर्ष, लाखों बलिदान, लम्बी न्याय प्रक्रिया के उपरांत आज रामजन्मभूमि स्थल पर मंदिर निर्माण की शिला स्थापित की गई। बहुत से कटु अनुभव, वैमनुष्यता के भाव, जातिवाद के संघर्ष तथा भय और आतंक का सामना करते हुए यह शुभ दिन आया। लेकिन आज भी बिना द्वेष भाव के हिन्दू समाज इस संघर्ष को प्रभु की लीला, भक्तों की परीक्षा मानकर संतोष व्यक्त करता है, यहीं है राम के आचरण की सीख रही—
सोई सेवक मम प्रियतम सोई, मम अनुसासन मानै जोई
अयोध्या के राम, जगत के राम है अयोध्या और राम के दर्शन पाकर हिन्दू धर्मानुयायी जीवन को सफल मानते है और इस संयोग के लिए—
राम दरस लगि लोग सब, करत नेम उपवास। तजि-तजि भोजन भोग सुख, जियत अबधि की आस॥
अंत में
नमन करूँ श्रीराम को, नमन अयोध्या धाम।
नमन करूँ माँ भारती, नमन सनातन धर्म॥
आत्महत्या
स्वभाविक सत्य है कि कोई भी मरना नहीं चाहता, युगों-युगों से मानव, दैत्य भी देवताओं की तरह अमरता चाहते हैं। अमर होने के लिए जप, तप आदि करने के अनेक कथानक पूर्व काल के साहित्य में वर्णित हैं साथही अमृत नाम के रस का महत्त्व व बोलचाल में उपयोग आज भी सम्मान के साथ होता है। अमृत रस पिने से अमर हो जाना ही माना जाता है। अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि जीना सब चाहते हैं पर मरना कोई नहीं चाहता। जीने के लिए ही तो हर प्राणीं जीवन भर तरह-तरह के कष्ट साध्य कार्य करते हैं। जीने को सुखद, आनंददायक तथा सांसारिक भोग बिलास पूर्ण बनाने के लिए मानव विविध संसाधन व सुविधाओं को जुटाता रहता है, यही सांसारिक माया कहलाती हैं।
वैसे जीने के लिए ईश्वर द्वारा वह सारी व्यवस्था पूर्व से ही उपलब्ध है जैसे हवा, पानी, धरा, वृक्ष, वनस्पति अर्थात प्रकृति जो आवश्यक या अतिमहत्त्वपूर्ण कही जाती हैं। लेकिन कुछ लोगों द्वारा अपने ही द्वारा अपनी जीवन लीला को समाप्त करना या आत्महत्या करना चिंतन और चिंता का विषय है। वैसे तो आत्महत्या करना पूर्व कालों में भी वर्णित है लेकिन किसी विशेष उद्देश्य जैसे धर्मरक्षा या देश, समाज, राष्ट्र के लिए या विधर्मियों से अपने आप को बचाने व आन बान शान मर्यादा की रक्षा के लिए की जाती थीं। जिन्हें बलिदान ही कहा जा सकता हैं। परन्तु आधुनिक युग में अपने घर या बाहर अज्ञात रूप से आत्महत्या करना एक सनक, पागलपन या यूं कहें नसमझी ही है। अच्छे-अच्छे पढ़े लिखे ड्राँक्टर, इंजिनियर, वैद्य, विद्यार्थीं, व्यापारी, अधिकारी, कलाकार तथा वकील, न्यायाधीश आदि द्वारा आत्महत्या की जाना शोचनीय विषय है।
यह स्वाभाविक है कि मरना सहज नहीं होता कोई न कोई ऐसी समस्या अवश्य होती होगी जो मरने के लिए मजबूर करती होगी। लेकिन बुद्धिवादी युग में भी इस तरह की कायरता शोभनीय नहीं हो सकती। कुछ मामलों में तो आत्महत्या करने के कारण ही समझ नहीं आते है। छोटा, सुखी, सम्पन्न, पढ़ा लिखा, सर्वसुविधा युक्त परिवार का व्यक्ति जब आत्महत्या करता है तो बड़ा अचरज होता है।
लगता है आज का मानव धर्म कर्म सेवा परोपकार आध्यात्म को भूलकर पेट, प्रजनन, संग्रह के अतिवाद का आदी होता जा रहा है। शिक्षा से विद्या का पक्ष अलग हो गया और पढ़ना सिर्फ़ कमाने तक सीमित हो गया साथ ही मानव ने शरीर पर तो ख़ूब ध्यान दिया लेकिन मस्तिष्क पर ध्यान नहीं दिया जिससे मस्तिष्क का वह भाग जो विषम परिस्थितियों में सक्रियता से प्रदीप्त होकर निराकरण खोंज लेता था सुप्त-सा हो गया। मानव छोटी-छोटी समस्या प्रेम, धनदौलत, ज़मीन ज्याजाद, बटवारा, कार्य में असफलता, बीमारी आदि-आदि को लेकर तनावग्रस्त हो जाता है और लगातार तनावग्रस्त होने से आत्महत्या जैसा क़दम उठाया जाता होगा।
आत्महत्या के बढ़ते प्रकरणों को देखते हुए बुद्धिजीवियों को विचार करते हुए कुछ उपाय अवश्य खोजना चाहिए क्योंकि यह मानसिक बीमारी है जो बाह्य उपचार से ठीक होने वाली नहीं है। इसके लिए आंतरिक उपचार, खान पान, रहन सहन तथा अति महात्वाकांक्षा में सुधार करना होगा। सुझाव के तौर पर एक समान शिक्षा प्रणाली, नैतिक शिक्षा की अनिवार्यता, संयुक्त परिवार को बढ़ावा, धन के आधार पर सम्मान नहीं आचरण व व्यवहार को मान्यता, धन दौलत संग्रह करने की सीमा का निर्धारण, न्यायालय द्वारा पारिवारिक विवादों का शीघ्र व सर्वसम्मति से नैतिक आधार पर निराकरण, सत्संग विद्यालयों की स्थापना जिसमें प्रति व्यक्ति माह में एक दिन उपस्थिति अनिवार्य, आदि जैसे उपाय इस गंभीर मनोगत बीमारी को कम कर सकतें हैं।
राजेश कुमार कौरव सुमित्र
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