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सायणी-बीजा: लोककथा में बैजू बावरा (Sayani-Bija: Baiju Bawra in Folklore)
बैजू बावरा (Baiju Bawra) की कहानी के संधान के क्रम में एक लोककथा का उल्लेख किया गया था। सबसे पहले लोककथा का वह रूप, जो राजस्थानी भाषा की “बात सायणी चारणी री” में मिलता है-
कच्छ प्रदेश के बेकरै गाँव में एक चारण रहता था-वेदा। वेदा वैभवशाली था। उसकी एक पुत्री थी-सायणी।
वह बचपन से ही पुरुषोचित पराक्रम व अपौरुषेय गुणों वाली थी। वह अपनी अटखेलियों की उम्र में भी धनुर्धर की तरह आखेट करती। सब उसे शक्ति का अवतार मानते।
सायणी के गाँव से ही कुछ दूर पर भाछडी गाँव में एक चारण युवक रहता था-बीजानंद साढाइच। वह अद्भुत गायक था। उसका अलाप सुनकर वन के मृग चले आते। बीजानंद मृगों के गले में सोने की माला डाल देता। जब गायन रुकता, तब मृग भाग जाते। जब दूसरे दिन वह अलाप भरता, तब मृग फिर आ जाते और उस समय वह सोने की माला गले में से निकाल लेता।
बीजानंद के पास चालीस-पचास घोड़े थे। वह उन्हें बेचने चला। उसने छपणय के नाले पर डेरा डाला। संयोगवश सायणी खेलती-खेलती वहाँ के तालाब पर पहुँची। डेरा लगा देखकर उसे डेरे वाले को जानने की उत्सुकता हुई। पता चला कि डेरा बीजानंद का है। उसने बीजानंद की चर्चा सुन रखी थी, वह उससे मिलना ही चाहती थी, इसलिए उसके डेरे में चली गई।
बीजानंद ने सायणी को देखते ही मुग्ध हो गया। उसने उसका स्वागत किया। बीजानंद से मिल कर सायणी भी बहुत प्रसन्न हुई। सायणी ने बीजानंद से गाना सुनने की इच्छा प्रकट की। कई गीत सुनने के अनन्तर उसने राग मल्हार सुनने की इच्छा प्रकट की। बीजानंद ने राग मल्हार में गीत गाया। गायन के साथ पानी की वर्षा होने लगी। सायणी ने प्रसन्न होकर बीजानंद से उसकी मनोवांछित वस्तु माँगने को कहा।
बीजानंद ने उससे विवाह की इच्छा प्रकट की। सायणी ने उसे मना किया, विवाह की बजाय धन-द्रव्यादि मांगने को कहा, किन्तु वह न माना। अंत में सायणी ने कहा कि यदि वह अपनी माँग पर ऐसे ही दृढ है, तो उसकी भी एक माँग है, जिसे वह पूरी कर दे, तो वह विवाह कर सकती है। यदि वह उसके लिए नौ करोड़ के गहने ले आए, तो वह उससे विवाह कर सकती है। लेकिन शर्त ये भी है कि कम से कम सात गहने हों। हर गहना कम से कम सवा-सवा करोड़ का हो, ये गहने उसे किसी एक ही राजा या सरदार के यहाँ से मिलें, वह भी छ: महीने में ही, तभी विवाह संभव होगा।
शर्त बहुत कठिन थी। लेकिन बीजानंद ने उसकी शर्त मान ली। उसने वचन के साक्षी के रूप में प्रतिष्ठित महाजनों व परिचित सरदारों आदि को बुलवाकर एक पीलू के पेड़ के सामने सौगंध गई कि अगर मैं छ: महीने में सायणी की बात न पूरी कर सका, तो सायणी अपने वचन से मुक्त हो जायेगी।
बीजानंद वचन ले देकर चला गया। वह नगर-नगर देश-परदेश घूमता रहा। ईडर, चंपारण, कच्छ आदि तमाम जगहों पर गया, किन्तु उसकी माँग पूरी न हुई। अंत में गिरनार गढ़ के राजा मंडलीक ने बताया कि भोजराज का पुत्र भूगल जल प्रदेश का राजा है। वह काकड़े द्वीप पर रहता है। सागर का स्वामी होने से उसके पास अपार धन राशि है। वह उसकी इच्छा पूर्ण कर सकता है।
बीजानंद ने जाना कि काकडे द्वीप तक पहुँचने के दो मार्ग हैं। एक छः महीने का, दूसरा डेढ़ महीने का। छह माह का मार्ग सरल है, डेढ़ महीने वाला रास्ता बहुत दुस्तर है। तूफान आते हैं, जहाज़ टूट जाते हैं, समुद्री जीव निगल जाते हैं। बीजानंद के पास समय नहीं था, सो उसने डेढ़ महीने के ही रास्ते से जाने का निर्णय किया। उसने जहाज़ लिया और बैठ कर चल दिया।
संयोगवश रास्ता सुगमता से पार हो गया और वह सवा महीने में ही वहाँ जा पहुँचा। वह भोजराज के पुत्र भूगल के दरबार में पहुँचा। उसके प्रधान मन्त्री से मिला। मन्त्री ने आदर सत्कार किया, किंतु बताया कि राजा से अभी मिलना कठिन है। राजा विलासी है, वह एक महीने में केवल एक दिन रनिवास से बाहर निकलता है और नया विवाह कर फिर लौट जाता है। कोई उसके रंगमहल में जा नहीं सकता। अभी चूंकि वह कल ही बाहर निकला था, अत: अब तो महीने भर बाद ही मिल सकेगा।
बीजानंद के पास समय नहीं था। उसने मिलने की ज़िद की। मन्त्री ने बहुत समझाया, किन्तु वह न माना। सायणी के लिए वह मरने को भी तत्पर हो गया। अंत में मंत्री ने सब मार्ग व सुरक्षा बता कर कहा कि यदि वह अपने जान की जोखिम पर जाना ही चाहता है, तो जाए. पकड़ा और मारा जाए, तो उसका दोष नहीं है। भूगल के महल में दस ड्योढियाँ हैं। नौ ड्योढ़ियों पर तो पुरुष चौकीदार बैठते हैं। दसवीं ड्योढ़ी पर स्त्रियाँ बैठती हैं। उसके बाद राजा भूगल से मिलना होगा।
दृढसंकल्प बीजानंद ने महल में प्रवेश का ठान लिया। उसने नट का वेश धारण किया। वह नौ ड्योढ़ियों को सकुशल पार कर गया। जब वह दसवीं पर पहुँचा, तब भूगल ने उसे देख लिया। शत्रु जान कर उसे मारने के लिए धनुष बाण उठा लिया। बाण चलाने से पहले पूछ कौन है। बीजानंद ने उत्तर दिया कि वह इन्द्र का नट है। उसने सुना है कि धरती पर भोजराज के पुत्र का अखाड़ा इन्द्रपुरी से भी अच्छा है। उसे ही देखने आया है।
भूगल प्रसन्न हुआ। उसने उसे आदर के साथ बैठाया। उसका गायन सुनकर उसने बीजानंद चारण को पहचान लिया। सारी कथा जानकर उसने उसे नौ करोड़ का गहना देना स्वीकार कर लिया। शीघ्र ही बीजानंद को सायणी की शर्त के अनुरूप गहने मिल गए। चार-पांच दिनों के बाद वह उन्हें लेकर सायणी के पास लौटा। किन्तु तब तक छ: महीने पूरे हो गए थे।
इधर सायणी को अपनी शर्त पर गहरा पश्चाताप हुआ। वह बीजानंद के वियोग में व्याकुल रहने लगी। जब छ: महीने की अवधि पूरी हो गई, तब उसका धैर्य समाप्त हो गया। वह बीजानंद के गाँव जा पहुँची। उसने वहाँ के लोगों को बुलाया और पीलू के पेड़ के सामने खड़े होकर कहा कि बीजानंद उसकी शर्त के लिए निकला था, वह अब तक नहीं लौटा। अब सायणी के जीवन का औचित्य नहीं, अब वह हिमालय पर जाकर गलेगी। यह कह कर वह हिमालय के लिए निकल पड़ी।
सायणी के जाने के दूसरे दिन बीजानंद पहुँचा। उसे सारी बातें ज्ञात हुई। उसने पीलू के पेड़ को ही सारे गहने पहना दिये और वह भी हिमालय की ओर चल दिया। दोनों के मार्ग अलग-अलग थे। रास्ते में सायणी को मालदेव नामक सरदार के मिला। मालदेव दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन की नौकरी में था। वह बहुत भला आदमी था। सायणी उस रात उसी के यहाँ ठहरी। उधर दिल्ली में अलाउद्दीन के यहाँ मुजरा था। सरदार मालदेव को वहाँ जाना था, किन्तु वह वहाँ नहीं गया।
दूसरे दिन बादशाह ने मालदेव से न आने का कारण पूछा। सरदार ने उत्तर दिया कि हमारे यहाँ एक देव आए थे, इसी लिए वह नहीं आ सका था। यह बात विश्वास के लायक न थी, इसलिए बादशाह ने पूछा, कैसा देव है तुम्हारा, वह जिलाता है कि मारता है। मालदेव ने उत्तर दिया कि वह जिलाता है।
बादशाह ने उसे बुलाने को कहा। सायणी को दरबार में बुलाया गया। सायणी देवी की तरह पहुँची। बादशाह ने पूछा कि क्या वह मरे को ज़िला सकती है। सायणी ने हाँ में उत्तर दिया। बादशाह ने परीक्षा लेने के लिए अपने घोड़े को साँप से कटवा कर मार डाला। सायणी ने अपनी शक्ति से उसे ज़िला दिया।
बादशाह ने उसे डायन समझा। सायणी को मारने की नीयत से उसने अपने राज्य के एक रहस्यमय विवर से भूगर्भ में प्रवेश करने की चुनौती दी, जो सर्पलोक में जाता था। सायणी ने साहस के साथ मालदेव को लेकर भूगर्भ में प्रवेश किया। दोनों पाताल में पहुँचे। वहाँ साँपों ने उनका स्वागत कर बैठने को आसन दिया। साँपों ने अपने रस से भर कर प्याला दिया। सायणी ने सरदार को दिया। उसने डर से ओठों से लगाया आँख बचाकर बाक़ी गिरा दिया। होठों से लगने के कारण सरदार के बड़ी-बड़ी मूँछें निकल आईं, जो पहले नहीं थी।
इधर अलाउद्दीन ने भूगर्भ जाने वाले विवर का द्वार चुनवा दिया। सायणी जब लौटी, तो द्वार बंद देख कर उसने हाथ से उस दीवार को छुआ और वह दूर जा गिरी। फिर क्रुद्ध होकर अलाउद्दीन को शाप दिया कि उसका राज्य नष्ट हो जाएगा। तदुपरान्त वह हिमालय पर चली गई। वहीं हिम में जाकर गल गयी। बीजानंद भी पीछे वहाँ पहुँचा और वह भी उसी के साथ गल गया।
कथा राजस्थानी की “बात सायणी चारणी री” से ली गई है। इसके रचयिता, रचना काल, लिपि काल, कवि-परिचय, कवि का जीवनवृत्त सब अज्ञात है। यह वार्ता सर्वप्रथम राजस्थानी भारती भाग १ अंक २३ जुलाई, अक्टूबर सन् १९४६ ई० में प्राचीन राजस्थानी साहित्य शीर्षक की खोज के अन्तर्गत यह प्रकाशित हुई है। संपादक ने टिप्पणी में लिखा है-‘ सायणी को शक्ति का अवतार माना गया है। जान पड़ती हैं, कई एक अवतारोचित बातें कहानी में पीछे जोड़ दी गई हैं, कुछ और भी परिवर्तन हुआ, फलतः कहानी की कई बातें परस्पर मेल खाती हुई नहीं दीख पड़तीं।
अनुमान किया जाता है कि यह वार्ता राजस्थानी के प्राचीन काव्य में से एक है, जो लोकगीतों और लोकगाथाओं का आधार पर रची गई है, जिनमें अनेक सामयिक परिवर्तन समाहित हो गए। विशेष रूप से अलाउद्दीन की कहानी से इसका योग बिल्कुल अप्रासंगिक लगता है। लेकिन उसी बहाने सायणी को चमत्कारी भी दिखाया गया है, जबकि इससे पूर्व ऐसी कोई घटना नहीं है।
वार्ता भले नयी हो, लेकिन कथावस्तु प्राचीन लगती है। सर्पों के प्रति दिव्यता व चमत्कार कहानी की प्राचीनता के द्योतक हैं। प्रस्तुत रचना गद्य में है। संस्कृत भाषा में प्रेमाख्यान गद्य और पद्य दोनों में लिखे जाते थे। हिन्दी में भी दोनों रूपों का निर्वाह रहा है। परंतु संस्कृत व हिन्दी के मध्य उनकी प्राप्ति विरल है। प्राकृत और अपभ्रंश में गद्य के प्रेमाख्यान संभवत: लिखे गये होंगे, किन्तु अभी वे अप्राप्य हैं।
यह कहानी राजस्थान में अन्य रूप में भी मिलती है। वहाँ सायणी सैणल है, बीजा बीझा। सैणल गोरवीयाली गाँव की रहने वाली है, बीझा पास के बैणप गाँव का रहने वाला। वहाँ सायणी से विवाह के लिए वह नहीं, अपितु उसके पिता शर्त रखते हैं। वह भी धन की नहीं, अपितु नौचंदी भैंसें लाने की शर्त। वहाँ अलाउद्दीन या वैसी कोई कहानी नहीं है। इस कथारूप को पहले अलग से उल्लेखित किया जा चुका है।
किसी कथारूप में सैणल के पिता नौचंदी की बजाय सौचंदी भैंसें लाने की शर्त रखते हैं। इसके समान ही शर्त वैदिक काल में ऋचीक-सत्यवती की कथा में मिलती है। सत्यवती राजा गाधि की पुत्री व विश्वामित्र की बहन थी। जब सत्यवती युवा हुई, तो महर्षि ऋचीक ने विवाह हेतु सत्यवती की याचना की। गाधि ने उसे दरिद्र समझकर शुल्क रूप में उससे एक सहस्र श्वेत वर्ण तथा एक ओर से काले कानों वाले एक सहस्र घोड़े मांगे।
ऋचीक ने वरुण की उपासना कर वे घोड़े उन्हें दिये और फिर सत्यवती से विवाह किया। ऐसी ही कहानी विश्वामित्र के शिष्य गालव के आग्रह पर आठ सौ श्यामकर्ण सफेद घोड़ों की मांग को पूरा करने के लिए ययाति की पुत्री माधवी के द्वारा हर्यश्व, दिवोदास, उशीनर व विश्वामित्र के रूप में चार पतियों के वरण कहानी है। इन दोनों कथारूढियों का सैणी की कहानी पर स्पष्ट प्रभाव है। सत्यवती बाद में नदी बन गई। सत्यवती के नदी बनने की कहानी का सैणी के नंदा पर्वतचोटी बनने की कहानी से भी कुछ प्रतीकात्मक साम्य है।
संयोगवश यह कहानी उत्तराखंड में गढ़वाली में भी मिल जाती है। वहाँ सायणी का मूल नाम नंदा है, बिना माँ के पली है, इसलिए पिता प्यार से छैणी कहते हैं। बीझा का नाम भी बैजू है। दोनों पहाड़ी नदी के इस पार उस पार के रहने वाले हैं। वहाँ पिता नौचंदी की बजाय सौचंदी भैंसें लाने की शर्त रखता है। छैणी जिस जगह बर्फ में दफन हो प्राण दे देती है, वहाँ नंदा देवी पर्वत चोटी बन जाती है। इस कहानी में कहीं राजस्थान या अन्य स्थान का नाम भी नहीं आता।
यहाँ आकर कहानी का एक सिरा इसे बैजू बावरा की किंवदंती से जोड़ता है। बैजू को संगीतज्ञ कहा गया है, उसको तानसेन को पराजित करने की किंवदंती है। लेकिन बैजू को बावरा क्यों कहा गया, यह स्पष्ट नहीं है। उत्तराखंड की लोककथा का बैजू की प्रिया नंदा देवी है। बैजू स्वयं में भोलेनाथ शिव का एक नाम है, बैजनाथ के रूप में। यह बैजनाथ शब्द संस्कृत के वैद्यनाथ का रूपांतर माना जाता है।
झारखंड के देवघर में बैजनाथ धाम के नाम प्रसिद्ध मंदिर भी है, जो उनके प्रसिद्ध बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। वहाँ भी कहानी में शिवलिंग की स्थापना या खोज से किसी चरवाहे की कहानी जुड़ी हुई है। कुछ के अनुसार रावण शिव को प्रसन्न करने उपरांत शिवलिंग लेकर आ रहा था, परंतु लघुशंका के कारण वह उसे एक चरवाहे या ग्वाले को दे दिया, फिर वह शिवलिंग वहाँ से न उठा, वहीं बैजनाथ धाम बन गया।
चूंकि यह कहानी रावण के शिवधनुष के लिए यथावत् है, इसलिए इस कथा की प्रामाणिकता संदिग्ध है। कुछ के अनुसार इसकी पूजा पहले पहल शिव के अनन्य भक्त बैजू चरवाहे ने की थी, इसलिए इसे बैजनाथ धाम कहा जाता है। बाबा बैद्यनाथ मन्दिर परिसर के पश्चिम में देवघर के मुख्य बाज़ार में तीन और मन्दिर भी हैं, जिन्हें बैजू मन्दिर के नाम से जाना जाता है।
इनके निर्माता बैद्यनाथ मन्दिर के पुजारियों के पूर्वज माने जाते हैं। इससे भी संभावना बनती है कि बैजू की कथा के पीछे किसी शिवभक्त बैजू चरवाहे या स्वयं बैद्यनाथ शिव व पार्वती रूप नंदा की कहानी का लोकरूपक हो सकता है। नंदा या सायणी को वेदा की पुत्री बताया गया है। वेदा शब्द ब्रह्मा को ध्वनित करता है। पार्वती पूर्व जन्म में सती के रूप में दक्ष प्रजापति की पुत्री हैं, वहाँ प्रजापति भी ब्रह्मा के रूप माने जाते हैं।
सायणी या सैणी या सैणल को लोकभाषा का शब्द माना जाता है, परंतु राजस्थानी भाषा में ठीक से अर्थ निकाल पाना कठिन है। अधिक से अधिक सेनी या सैनी से अर्थ ध्वनित करा सकते हैं। संस्कृत में श्येन शब्द धवल व बाज के लिए प्रयुक्त होता है। संभव है, ग़ौर रूप व आखेटक प्रवृत्ति के कारण कभी उसे श्येनी कहा गया हो, जो सायणी या सैणी या सैणल बन गया हो। बाद में विरागिनी होकर वह कात्यायनी बन गई हो, कौशेय वस्त्र धारण कर।
यह लगभग तय है कि बैजू बावरा के साथ ये अकबर, तानसेन व अलाउद्दीन की कथाएँ बहुत बाद में कभी जोड़ी गई हैं। वैसे भी अलाउद्दीन का बेवजह बीच में आना, उसके काल को पार कर अचानक मालदेव के समय में पहुँच जाना, उसको ऐतिहासिक राजा की बजाय सरदार दिखाना, फिर बीजा को भोज परमार के पुत्र भूगल के पास भेजकर धन पाते दिखाना, सब कालक्रम की दृष्टि से असंगत-सा लगता है। बहुत संभव है, कभी तानसेन को अपने संगीत पर अहंकार हुआ हो, तब मानमर्दन के लिए शिवरूप या शिवभक्त को आधार बनाकर कथा रची गई हो। सब दूर का अनुमान भर है, सत्य कौन जाने…!
कहानी मूलतः गुजरात की पृष्ठभूमि की है, किंतु संभवतः गुजरात से अधिक राजस्थान में लोकप्रिय रही है। उत्तराखंड तक कथा का विस्तार है, जिसमें वह वहीं की है। हर जगह कथा कुछ बदलती है, लेकिन हर कथारूप में सायणी अंत में हिमालय जाती है और देवी-सी बन जाती है। यह और बात है कि कहीं वह हिमालय पर्वत की पावन चोटी बनती हैं, कहीं वह मनसादेवी की तरह नागमाता बनती हैं, कहीं सिद्ध या साधिका सी. राजस्थानी कथारूपों में सब बहुत अप्रत्याशित हो जाता है, बिना किसी दैवी पृष्ठभूमि के.
लेकिन जहाँ वह गोरवीयाली की कही गई है, उससे एक धर्मस्थल विस्मित रूप में जुड़ता है। राजस्थान के जोधपुर के बालेसर के जूडिया गाँव में सैणल माता जी के नाम का एक मंदिर भी है, जहाँ उन्हें देवी के रूप में पूजा जाता है। श्रद्धालुजन की मान्यता है कि सैणल माताजी राजस्थान में आगमन गुजरात के सौराष्ट्र के जूनागढ़ के गोरवीयाली गाँव से हुआ था, जो वर्तमान में वहाँ के भेषण ताल्लुका का एक छोटा-सा गाँव है। अब कुछ चकित करने वाले संकेत हैं। संभव है, सायणी ने सीता की तरह प्रीति की पूरकता के लिए गौरी की आराधना की हो, वही देवीरूप गुजरात से राजस्थान में प्रतिष्ठित हुआ हो।
सायणी या सैणल की आराध्या होने से देवी को सैणलमाताजी कहा गया हो, तत्पुरुष समास से। गोरवीयाली शब्द गौरी से मिलता जुलता है। निस्संदेह सैणल माताजी में गौरी की रूपकात्मकता रही होगी। एक दूसरी संभावना यह भी हो सकती है कि सायणी या सैणल नाम से गोरवीयाली में पहले से कोई लोकदेवी रही हों और गोरवीयाली की इस नायिका का नामकरण उक्त देवी के नाम पर हुआ रहा हो। एक और तर्क जुड़ता है, जो सत्य व मिथक को जोड़ता है। संभव है, सायणी सचमुच की ही बाला रही हो।
सपनों के राजकुमार की आस लगाए हो कि अचानक कोई दूरागत जोगी आ गया हो द्वार, गीत गाता, उसे बुलाता सा। जोगी चला गया हो, सायणी बँध गई हो, बिंध गई हो। जोगी या फिर जोग की तलाश में निकल पड़ी हो, हिमालय। आगे क्या पता, क्या हुआ, पर्वत की चोटी पर जमी, या नदी में लीन हुई. जाते-जाते कोई दिव्यता-सी पा गई हो। फिर अपनी-अपनी कहानियाँ चल निकली हों, जुड़ती, जोड़ती।
कोई पुरानी पोस्ट याद हो आई है-“राजकुमार और जोगन”
किसी ने किसी से कहा-
” अगर प्यार में भी धन का संसार न होता,
तो सबके सपनों में राजकुमार ही क्यों होता,
कोई साधारण, कोई विपन्न, कोई अकिंचन क्यों नहीं।”
उसने सुना और मुस्करा कर कहा-
” तुमने कहानियाँ बहुत सुनी हैं,
मगर शायद गीत नहीं सुने,
वरना जानते कि वहाँ राजकुमार से ज़्यादा अकिंचन जोगी आते है।”
फिर बात ख़त्म करते हुए उसने कहा-
” वह प्यार ही क्या,
जो जोगी में भी राजकुमार न दिखा दे,
और
राजकुमार को भी जोगी न बना दे।”॥
सुरेश मीणा
बांसवाड़ा राजस्थान
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