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तिलांजलि (sacrifice)
sacrifice : वह काली स्याह रात जब दामिनी सुनसान सड़कों पर भाग रही थी, खटखटा रही थी हर दरवाज़ा इस उम्मीद में की शायद उसकी विपदा की कहीं तो सुनवाई हो पर नहीं रात्री के २ बजे तक सारी उम्मीदे त्याग वह वापस घर आई तो देख कर जड़ हुई।
आह! एक ठण्डा शरीर उसके सामने पड़ा था इतिहास का एक और पन्ना पलट चुका था। उसका रुदन रात की कालिमा को चीर रहा था। पथराई आँखों से सुबह की किरण भी उसके घर की ओर बढ़ी पर उसके घर के अंधेरों को मिटा न सकीं…
कहानी को १६ साल पीछे ले जाते हुए देखते है दामिनी के जीवन का संघर्ष…
यह कहानी है राजस्थान के बहुत ही पिछड़े हुए गावं जिसके हर घर में बेटियों के लिए अलग से चाहर दीवारी बनी हुई थी। जंजीरों से जकड़ कर बेटियों को रखा जाता है। ऐसी ही एक घर की अंधेरी कोठरी में हुआ था दामिनी का जन्म। दर्द को सहकर सुन्दर-सी बच्ची को जन्म देकर भी माँ के चेहरे पर ख़ुशी न थी। बच्ची के प्रथम रुदन की आवाज़ ने पूरे घर की खुशियो को मानो ग्रहण लगा दिया हो कारण था बेटे की चाहत में बेटी का जन्म…
धिक्कार की नजरो का सामना करते हुए रूढ़ीवादिता को झेलते हुए जैसे तैसे दामिनी चार वर्ष की हुई कि अचानक एक और किलकारी गूंजी उसके भाई के रूप मे…यह एक ऐसी गूंज थी जिसमें १२ गावं शामिल थे। मिठाइयाँ बँटी पकवान बने सिर्फ़ २ शांत आँखे खड़ी थी और पूंछ रहीं थीं ख़ुद से कि…”माँ पापा ने ऐसा ही उत्सव उसके जन्म पर भी किया होगा! लेकिन मुझे याद नहीं मैं छोटी थी न”।
खैर इसी भेदभाव को झेलते हुए दामिनी बड़ी हो रही थी। अपनी सूखी और भाई की थी चुपड़ी रोटी वह ईर्षा भाव से तब भर जाती जब उसका भाई दादी की गोदी में बैठा होता और वह ख़ुद को झूठे बर्तनो के बीच पाती। इन्हीं रुढियों के कांटों से घिरी दीवारों के बीच दामिनी बड़ी हुई… बड़ी हुई या वह अबोध वह मात्र ९ साल की ही तो थी। जब विवाह की पोथी उठाए कुछ सौदागर आय और ले गए एक दूसरे पिजडे में बाँधने एक ऐसा बंधन जिसका अर्थ भी उसको नहीं पता था। सारे अगले पिछले बंधनों को समेटती हुई दामिनी ने एक नया जीवन प्रारंभ किया।
नए घर का प्रवेश द्वार उसको डरा रहा था। नए चेहरे, नए लोगों से मिलने की झिझक के साथ जैसे ही वह अपने ससुर की चरण वंदना को झुकी उसने आशीर्वाद में “खुश रहो बेटी” पाया। बेटी शब्द को बेटा में परिवर्तित होते देख वह हतप्रभ थी। घूंघट के अंदर से मुस्कराती दुनिया वह साफ़ देख पा रही थी।
घर के कामों को समेटती हुई दामिनी (Damini) कालेज में पढ़ाने वाले ससुर रत्नाकर जब भी देखते कुछ सोचते, कुछ कहना भी चाहते पर कह नहीं पाते…पर कब तक धीरज को विराम दिया जाता? संकोचो को दर-किनार कर अपनी बहु को सामने बैठाकर उन्होंने एक चौकाने वाला प्रश्न किया और वह था तुम पढ़ना चाहोगी? कशमोकश में पडी दामिनी (Damini) सोच नहीं पा रही थी कि इस प्रश्न का उत्तर क्या होगा?
लहगें को समेटकर उम्मीदों की सांसो को भरकर वह दौड़ी अपने कमरे-कमरे के कपाट खोलकर वह बिस्तर पर जाकर यू बैठी जैसे एक विशाल बवंडर से ख़ुद को बचाकर लाई हो। शाम को धुँधलके के बीच वह ससुर के पास एक प्रश्न के साथ पहुची…”क्या होता है पढ़ाई करके? प्रश्न पर प्रश्न पाकर दामिनी के हंसे और बोले…”पढ़ाई तुम्हें पहचान दिलाएगी…, दामिनी क्या है यह बताएगी”।
मुस्कराती हुई दामिनी (Damini) अंधेरों में चमकती किरण देख रहीं थीं। सुबह उठकर उसने काम समेटे और कलम, कापी, बस्ते के साथ अपने ससुर की साइकिल के पास उनके चश्मे के साथ खड़ी थी। पति चिरंजीव भी दामिनी (Damini) के इस रूप से हदप्रद था पर कहीं न कहीं खुश भी था। स्कूल का गेट दामिनी को किसी मंदिर के कपाट जैसा लग रहा था। धरती को नमन कर वह अपने सपनों को साकार करने चल दी। विद्यालय में लड़की के कदमो की आहट ने सड़कों चौका दिया था।
दामिनी (Damini) के कदमो को रोक पाना मुश्किल था। पांच साल बीत चुके थे। रत्नाकर का सपना सफल हो रहा था, और आज दामिनी का परीक्षाफल का दिन था। दामिनी हमेशा की तरह साईकिल के पास ससुर का इंतज़ार कर रहीं थीं। पर नासाज तबीयत के कारण सुनहरे दिन का हिस्सा न बन पाने का दुख रत्नाकर ने दामिनी को बताया और आशीर्वाद के साथ उसको विदा किया। चरण वंदना कर दामिनी (Damini) विद्यालय पहुची और मंच के सामने खड़े होकर अपने भाग्य और भगवान को शुक्रिया कर रहीं थीं।
एक घंटे चले प्रोग्राम के बाद दामिनी वापस घर पहुँचती है और देखती है ससुर की कुर्सी के पास टूटा चाय का कप, कुर्सी से लटकते उनके हाथ और मुह से निकलता सफेद छाग ने दामिनी को डरा दिया। चिरंजीव ने पिता की नाक के पास हाथ लगाया पर शायद रत्नाकर अपनी अंतिम सास बहुत पहले ही ले चुके थे। दामिनी (Damini) के सपने टूट चुके थे। विद्यालय के बंद होते दरवाजे उसको आँखों के सामने घूम रहे थे। चार रोती हुई आँखे एक दूसरे समझा रहीं थीं।
थमी ज़िन्दगी के साथ दामिनी फिर लग गई थी अपनी गृहस्थी में उसको पता था आशाएँ मिट चुकी है। रसोई की चौखट पर खड़े चिरंजीव को देखकर दामिनी (Damini) के कुछ पूछने से पहले ही चिरंजीव बोला…पढ़ाई रुकनी नहीं चाहिए, पिता जी का सपना तुम्हें साकार करना है। भीगी आँखों से दामिनी ने पूछा कैसा होगा? कौन करेगा? दामिनी के प्रश्नो को विराम देते हुए चिरंजीव बोला ।”मैं हू न” ! उम्मीद समेटे ये एक शब्द सुन दामिनी ने एक बार फिर साहस बटोरा और पहुच गई विघालय, लेकिन ससुर की कमी हर कोने में थी। सब बदल चुका था। माहौल, नज़रिया, लोग…विद्यालय का तिरस्कार।
दामिनी से सहन नहीं हो रहा था। चिरंजीव का हाथ पकड़ दामिनी (Damini) ने उससे वापस चलने को कहा और किताबों को विघालय के गेट पर ही छोड़कर वह घर लौट आई। रूढ़ीवादिता के शिकंजो में बसा वह विद्यालय एक उगता चमकता सूरज खो रहा था। लेकिन क्या यहाँ दामिनी के संघर्षों का अंत हो रहा था। लेकिन क्या यहा दामिनी के संघर्षों का अंत हो रहा था? चारो तरफ़ सुनसान नजारे देख दामिनी टूटती जा रही थी पति के सामने इस समाज से दामिनी (Damini) अपनी हार स्वीकारी और आगे न बढ़ पाने की अंत कड़ी देख फुट-फुट कर रो पडी, पर पति के कड़े अल्फाजों ने उसको चौका दिया।
मेरी किताबे तुम्हारा सहारा बनेगी। जो मैं पढूगा वहीं तुम्हारे लिए सार होगा दामिनी (Damini) के चेहरे को अपने हाथों से ऊपर उठाकर चिरंजीव एक बार फिर बोला “मैं हू न” अरमानो की नई दिशा पाकर दामिनी खुश थी। वह रोज़ काम निपटाकर अपने पति के आने का इंतज़ार करती और फिर पढ़ाई करती। इसी तरह समय ने करवट ली…९ साल की दामिनी पांच साल के उतारचढाव के बाद १९ साल की हो चुकी थी।
संघर्ष बढ़ रहा था, दामिनी डॉक्टर बनने के सपने को बुन रही थी। ऐसा एक दिन था जो दामिनी (Damini) के जीवन का सबक था वह अपने पति के साथ किताबे खरीद रही थी, किताबों को खरीदने के बाद पति पैसे के बदले जब हाथरस देने लगे तो… दामिनी जैसे शून्य हो गई हो…पारिवारिक इस हालत से दामिनी बेख़बर थी। पति का हाथ पीछे करते हुए दामिनी ने पति को रोका, पर “मैं हूँ न” शब्दों ने फिर विराम लगा दिया।
लेकिन दामिनी भी कई चीजों से बेख़बर थी, कई सच्चाइयों से अंजान थी, चिरंजीव अपनी पढ़ाई रोक कर दामिनी को पढ़ा रहा था, घर के खर्चे के लिए नौकरी कर रहा था सभी मुश्किलों से बेख़बर दामिनी अपनी पढ़ाई पूरी कर चुकी थी। बधाई देने दामिनी चिरंजीव के पास गई, उसने भी खांसते हुए मुह पर रखे रुमाल को तकिया के नीचे छुपाता हुआ। दामिनी (Damini) को गले लगाता है।
दामिनी को बीती रात खून से सना रुमाल मिला और छिपा हुआ वह डॉक्टर की रिपोर्ट जिसमे टीबी की लास्ट स्टेज पर चिरंजीव जीवन की सांसे ले रहा था। बस और नहीं…यह कहकर दामिनी ने किताबों के मोह को छोड़ दिया…क्युकी कहीं न कहीं वह ख़ुद को ज़िम्मेदार मान रही थी। लेकिन भाग्य से जीता नहीं जा सकता। दामिनी पति की सेवा में लग गई थी। दामिनी गाव के ताने सुन रही थी “किताबों के मोह में ससुर और पति को खा गई” कलंकिनी, मनहूस हमसे दूर रह “
अपने आप को रूढ़ियों का ग्रास बनते देख दामिनी (Damini) अपनी बेटी के भविष्य के साथ घर में क़ैद हो गई… कहानी का प्रथम भाग को जोड़ते हुए… पति को खोकर ख़ुद को क़ैद करके जीवन शून्य कर दिया दामिनी ने।
यह थी उसकी तिलांजलि…रूढ़ियाँ तो ख़त्म न होगी पर सपनो को यूहीं तिलांजलि मिलती रहेगी क्या फिर कोई दामिनी बनना चाहेगा…? यदि नहीं तो क्या मिलकर कदमो को बढ़ाया जाए।
श्वेता कनौजिया
प्रधानाध्यापिका, गौतमबुद्ध नगर (उ.प्र.)
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