पुनर्विवाह – एक नयी उम्मीद (Remarriage – a new hope)
पुनर्विवाह (Remarriage) : जागृति तुम पकौड़ो की तैयारी करो, मैं गरमा-गरम जलेबियाँ ले कर आता हूँ नीरज ने आवाज़ देते हुए कहा। अरे बाहर मूसलाधार बारिश हो रही है और ऐसे में कहाँ जाओगे? मैं गरमा-गरम हलवा बना देती हूँ। मैंने नीरज को समझाने की कोशिश की पर वह तो बारिश देखते ही एक अजीब-सी ऊर्जा से भर जाते थे, कहाँ रुकने वाले थे।
मैं भी उनके मनपसंद पकौड़ो की तैयारी में लग गई। पकौड़ो की तैयारी करके चाय का पानी भी गैस पर रख दिया सोचा नीरज आते ही होंगे। चाय तैयार हो गई थी पर नीरज अभी तक नहीं आए थे। गैस बंद कर बार-बार बालकनी में जाती और निराश वापस अंदर आ जाती। ना जाने क्यों आज बारिश बिल्कुल भी अच्छी नहीं लग रही थी। मन अजीब-अजीब आशंकाओं से घिरा जा रहा था।
तभी बड़े भैया और भाभी जो बगल वाले घर में ही रहते थे, हड़बड़ाते हुए आए। भाभी ने मुझे थामते हुए कहा, “जागृति जल्दी कर अस्पताल जाना है नीरज का एक्सीडेंट हो गया है”। मैं बिल्कुल पत्थर-सी हो गई। मेरी बेटी नीरज़ा सो रही थी, भाभी उसे अपने घर छोड़ आई। मैं, भैया और भाभी अस्पताल पहुँचे। अस्पताल की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते दिल इतनी तेजी से धड़क रहा था कि मानो प्राण अभी यहीं छूट जाएंगे, पर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था।
डॉक्टर की आवाज़ पिघले शीशे की तरह कानों में गूंज रही थी… सॉरी हम बचा नहीं पाए, ट्रक वाले ने बहुत बेरहमी से कुचल दिया था। नीरज की तेरहवीं के बाद सभी मेहमान जा चुके थे, नीरज की ताई जी मेरी दोनों नंदे और मेरे सास ससुर रुक गए थे। मेहमानों के जाते ही ताई जी मेरी दोनों नन्दो को लेकर मेरे कमरे में आई और पहले नीरज की अलमारी खाली की। मैं सूनी-सूनी आंखों से देखती रही। नीरज के सूट, जैकेट, पैंट-शर्ट, कुर्ते, पजामे, एक-एक कर सब अलमारी से निकाल दिया गया। उसके बाद मेरी अलमारी खोली गई।
मैं नहीं समझ पा रही थी कि मेरी अलमारी क्यों? पर यह क्या, दिल धक से रह गया। ताई जी ने मेरी नन्दो को कहा “बेटा रंगो वाली जितनी भी साड़ियाँ है वह सब भाभी के अलमारी से बाहर कर दो। इसे तुम दोनों बहने बांट लेना।” मेरी नंदे रोने लगी, नहीं ताई जी यह हम से नहीं होगा, पर ताई जी बोली, “बेटा अब भाभी के जीवन में रंगों का कोई काम नहीं है।”
मेरी सुर्ख लाल गोल्डन जरी वाली साड़ी जो नीरज बहुत प्यार से मेरे लिए लाए थे, हरी, पीली, गुलाबी बहुत से खूबसूरत रंगों वाली साड़ियाँ, सब ताई जी ने दोनों दीदियों को बांट दिया। उसके बाद मेरे ड्रेसिंग टेबल से मेरा सारा शृंगार का सामान हटा दिया गया। मेरे आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। मेरी धड़कन, मेरी सांसे, मेरी जिंदगी, मुझसे रूठ चुकी थी।
नीरज के साथ-साथ एक-एक रंग मेरे जीवन से चुन-चुन कर निकाल दिए गए थे। शाम तक मेरी दोनों नंदे और ताई जी भी अपने-अपने घर चले गए। जाते-जाते ताई जी मेरी सासू माँ को ढेर सारी हिदायतें दे गई, की बहू को अब हर शुभ काम से दूर रखना… अभी करवा चौथ, दिवाली आने वाली है। इसे कमलेश में ही रखना कमरे से बाहर ना निकले। शुभ कार्यो पर इसकी परछाई भी ना पड़े।
सासू माँ बिचारी चुपचाप सुनती रही और मुझे ऐसा लग रहा था जैसे पूरी ज़िन्दगी अब इन्हीं तिरस्कारों के साथ जीना पड़ेगा। दिन बीतते गए और मैं पत्थर-सी होती चली गयी। ना हसना, ना बोलना, ना रोना। बिचारी नन्ही नीरजा मुझसे बातें करना चाहती पर मैंने तो जैसे खामोशी की चादर ही ओढ़ ली थी।
कुछ दिनों बाद करवा चौथ आया, मेरे मन में क्या पीड़ा चल रही है इसका किसी को अंदाजा नहीं था। हर बार मोहल्ले की औरतें पूजा के लिए हमारे घर आती थी पर इस बार उन्होंने कोई और घर चुन लिया था। सासु माँ को भी वही बुलाया था पर उन्होंने जाने से मना कर दिया और घर पर ही पूजा कर ली। कुछ दिनों के बाद चाचा जी के यहाँ शादी थी। मम्मी जी मुझे भी लेकर जाना चाहती थी पर ताई जी का फ़ोन आ गया कि तुम बहू को लेकर मत आना, पर मेरी सासू माँ नहीं मानी और मुझे अपने साथ ले गई।
हलद-बान शुरू होने वाला था मैं भी वही खड़ी थी ताई जी बोली “बहू सात सुहागिनों की ज़रूरत है तुम्हारी नहीं है, तुम जाओ अंदर कमरे में बैठो। तुम्हारी तो परछाई भी नहीं पड़नी चाहिए। ना जाने तुम्हारी सास तुम्हें क्यों ले आई।” इतनी पीड़ा, इतना दुख, इतना तिरस्कार, इतना अपमान… ऐसा लग रहा था काश भगवान मुझे भी ऊपर बुला लेते। मैं अंदर जाकर बहुत रोई।
मेरी सासू माँ भी अंदर आ गई और रोने लगी, “बहु मुझे माफ़ कर दो मेरी वज़ह से ही तुम्हारा यह तिरस्कार हुआ है। पर अब नहीं होगा हम अभी चलेंगे वापस अपने घर चलेंगे।” सब के मना करने के बावजूद भी हम वापस अपने घर लौट आए। सासू माँ से मेरी हालत देखी नहीं जा रही थी। मुझे शृंगार विहीन देखकर उन्होंने अपना ही शृंगार छोड़ दिया था।
एक दिन वह मेरे पास आई और डांटते हुए बोली बेटा यह क्या हाल बना रखा है, कम से कम कंघी तो कर लिया करो। फिर वह ख़ुद ही कंघा लेकर आई और मेरे बाल सवारने लगी, फिर मेरा हाथ पकड़ कर बोली “चल बेटा आज मेरे लिए तैयार हो जा। एक अच्छी-सी साड़ी पहन लो, मन को अच्छा लगेगा। फिर ख़ुद ही साड़ी निकालने के लिए मेरी अलमारी खोली, पर मेरी अलमारी तो फिर की थी बेरंग थी।
सासू माँ तुरंत अपने कमरे में गई और एक खूबसूरत-सी साड़ी मेरे लिए लेकर आई और मुझे पहना कर ही मानी। दिन बीतते गए सासू माँ पता नहीं किस उधेड़बुन में लगी रहती थी। उनके ज़ोर देने पर मैंने पास के एक स्कूल में नौकरी कर ली थी। समय धीरे-धीरे कट रहा था, नीरजा भी बड़ी हो रही थी। एक दिन स्कूल से लौटकर जब घर पहुँची तो मेरा परिचय अंकित से कराया गया। पापा जी बोले” जागृति बेटा, यह अंकित है, मेरे दोस्त का बेटा। इसका ट्रांसफर इसी शहर में हो गया है, थोड़े दिन हमारे साथ रहेगा। उसके बाद अपने फ़्लैट में शिफ्ट हो जाएगा।
अंकित बहुत हंसमुख और मिलनसार थे, कभी माँ और मेरे साथ रसोई में हाथ बताते, तो कभी पापा जी के साथ बाहर का काम निपटा देते और समय मिलते ही नीरजा को होमवर्क कराते, कभी घुमाने ले जाते, कभी बच्चे बनकर उसके साथ खेलते। न जाने क्यों अंकित को देखते ही नीरज बहुत याद आते थे। आज पापा जी और मम्मी जी के सालगिरह थी। अंकित नीरजा को लेकर बाज़ार गए हुए थे।
मम्मी जी के लाख मना करने के बावजूद भी वह केक लेने चले गए थे। मैंने मम्मी जी से ज़िद की कि मम्मी जी आज तो आप थोड़ा-सा तैयार हो जाइए, चलिए आज मैं आपको तैयार करती हूँ। मैंने मम्मी जी की अलमारी से खूबसूरत-सी गोल्डन जरी की साड़ी निकाली, उनके बाल संवारे और जैसे ही उन्हें बिंदी लगाने लगी उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया, बोली “नहीं बेटा मैं बिंदी नहीं लगा सकती।” “पर क्यों मम्मी जी?” मैंने दुखी होकर पूछा। मुझे सीने से लगा कर बोली, “मेरी बेटी का माथा सूना और मैं बिंदी लगा लू, यह नहीं हो सकता।”
मम्मी जी आप ही कैसी बातें कर रही है, मैं और भी परेशान हो गई। आपने मेरी वज़ह से बिंदी, सिंदूर लगाना छोड़ दिया, नहीं मम्मी प्लीज आप ऐसा मत करिए। मैं लगभग रो पड़ी। “बेटा तुम चाहो तो मुझे मेरी एनिवर्सरी पर बिंदी और सिंदूर तोहफे में दे सकती हो”। “जी मम्मी, मैं जब कल स्कूल से लौट आऊंगी, तो पक्का आपके लिए बिंदी और सिंदूर लेती हुई आऊंगी। पर आज तो यह लगा लीजिए।”
“नहीं बेटा मैं उस बाज़ार से लाये हुए तोहफे की बात नहीं कर रही हूँ, मैं तो तुमसे तोहफे में बिंदी सिंदूर की वज़ह चाहती हूँ।” मैं कुछ भी नहीं समझ पा रही थी, तभी मम्मी ने रोते हुए कहा बेटा, मैं तुम्हारी मांग में सिंदूर और माथे पर बिंदिया देखना चाहती हूँ। बताओ क्या तुम मुझे तोहफा दोगी। “मम्मी जी कैसे? नहीं यह नहीं हो सकता।” तभी फिर पापा जी ने कमरे में प्रवेश किया, “क्यों नहीं हो सकता बेटा? पुनर्विवाह में हर्ज ही क्या है?” “पर पापा पुनर्विवाह तो पाप है।” ” नहीं बेटा, यह पाप और पुण्य हमने ही बनाए हैं।
पहले हमारे समाज में पति की मृत्यु होते ही पत्नी को सती होने पर मजबूर किया जाता था। धीरे-धीरे समाज ने माना कि सती प्रथा के नाम पर स्त्रियों के साथ अमानवीय व्यवहार होता था और यह कुप्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो गई। बेटा अपना कोई बिछड़ता है तो बहुत दुख होता है पर जाने वाले के साथ ज़िन्दगी नहीं ख़त्म की जाती है। हर विधवा स्त्री को जीवन में दोबारा रंग भरने का हक़ मिलना चाहिए। “पापा जी बोले जा रहे थे,” बेटा तुम्हारी हाँ समाज को एक नई दिशा देगी, कितनी स्त्रियों को जीवन में दोबारा रंग भरने का अवसर मिलेगा।”
“पर पापा यह सब कैसे संभव है? कौन करेगा मुझसे शादी? कौन अपनाएगा नीरज़ा को? “मेरी आंखों में अनगिनत प्रश्न थे।” मैं अपनाउंगा नीरज़ा को, बोलो क्या तुम मुझसे शादी करोगी”? मेरे सामने अंकित खड़े थे। मैं कभी मम्मी जी को, कभी पापा जी को, तो कभी अंकित को देख रही थी। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पापा जी बोले” बेटा मैं और तुम्हारी मम्मी बहुत समय से तुम्हारे लिए एक योग्य वर देख रहे थे।
अंकित मेरे बचपन के दोस्त का बेटा है। डिलीवरी के समय इसकी पत्नी और बच्ची, दोनों ही दुनिया से चल बसे। उसके बाद अंकित अमेरिका चला गया। तुम्हें ध्यान है बेटा, कुछ महीनों पहले मैं अपने दोस्त के देहांत पर गया था वह अंकित के पिता ही थे और तभी अंकित अमेरिका से वापस आया था। मैंने अंकित और भाभी को तुम्हारे बारे में बताया, दोनों इस रिश्ते को पसंद करते हैं। मैंने तुम्हारे मम्मी और पापा से भी बात कर ली है।
बस बेटा तुम हाँ कर दो। बेटा पुनर्विवाह पाप नहीं है, यह तो रेगिस्तान में बारिश की तरह है, बेरंग से रंगीन जीवन का सफ़र है, अभागन से सुहागन होने का सुख है। ” मेरी आंखों से आंसू छलक रहे थे। मुझ में खड़े रहने की हिम्मत न थी मैं वही कुर्सी पर बैठ गई, दिमाग़ में तेजी से सब घूमने लगा, ताई जी का मेरे जीवन से रंगों का बाहर कर देना, हर शुभ काम से मुझे दूर कर देना, मेरी परछाई भी सुहागन पर ना पड़े, मेरे पड़ोसियों का मुझसे मुँह चुराना, सब कुछ एक-एक करके मेरी आंखों के सामने घूमने लगा।
एक तरफ़ ऐसा समाज था जो मुझे अपशगुनी मान रहा था और एक तरफ़ मेरे सास-ससुर जो मेरा पुनर्विवाह करा कर मेरे जीवन को रंगों से भरना चाह रहे थे। एक हफ्ते बाद ही विवाह की तारीख तय हुई, मुझे दुल्हन की तरह सजाया गया और हाँ मेरी सासु माँ भी सुर्ख साड़ी, सिंदूर और बिंदिया में किसी दुल्हन से कम नहीं लग रही थी। आख़िर आज उनकी बेटी को फिर से जीवन के हर रंग जो मिल रहे थे।
पुष्पा बंसल
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