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रिजर्वेशन का लाल रंग (red color of reservation)
रिजर्वेशन का लाल रंग (red color of reservation) : अभी कल ही तो होली का त्योहार निकला था। आज रेलगाड़ियों में भीड़ का ये सैलाब उमड़न बिलकुल लाजिमी था। जो दूसरे शहरों में काम करते थे और होली के लिये अपने नाते-रिश्तेदारों के पास अपने शहर, अपने घर आए थे, सभी को काम पर वापस लौटने की जल्दी थी। प्लेटफॉर्म पर खड़ी पूरी की पूरी रेलगाड़ी खचाखच भर चुकी थी।
क्या जनरल बोगी और क्या रिजर्वेशन की स्लीपर बोगी, सब बोगी एक समान। ए सी बोगी में सीट के बारे में सोच पाना आम आदमी के लिये तो सपने जैसा ही था। पर आदमी मरता, क्या न करता! काम सभी के थे। जल्द से जल्द लौटना सभी की मजबूरी थी। सभी अपनी हर संभव जुगत लगाने में जुटे पड़े थे।
जब तक गाड़ी प्लेटफॉर्म पर खड़ी रही, जैसे-तैसे क्या-क्या न कर के लोगों ने बोगियों में अपने लिये जगह बनाना जारी रखा। सामान रखने की ऊँची-ऊँची सीटों पर भी लोगों ने किसी न किसी तरह अपना आसान जमाकर यात्रा का इंतजाम कर डाला। कुछ लड़कों ने तो मिलकर बोगी के दरवाजे को बंद कर दिया और उसके पीछे अपना सामान जमा दिया। सामान के ऊपर चादरें बिछाकर उन्होंने तो वहीं रास्ते में एक सोने का बिस्तर तैयार कर दिया। और फिर इन्हीं हालातों में रेलगाड़ी ने पटरियों पर सरकना शुरू कर दिया।
करीब-करीब दो घंटे की यात्रा के बाद रेलगाड़ी अगले पड़ाव पर रुकी। जिस दरवाजे के पीछे सामान का बिस्तर बनाकर लड़के नींद में एकदम धुत डूब चुके थे, उस पर दस्तक देकर कोई उसे बाहर से खुलवाने की कोशिश कर रहा था। एक लड़के ने आँखें मलते हुए खिड़की पर बंद शीशा थोड़ा ऊपर किया। करीब छः-सात लोग बाहर सामने खड़े थे। लड़के ने झिड़कते हुए पूछा- “क्या हुआ? दरवाजा तोड़ने का इरादा है क्या?”“खोलोगे नहीं, तो तोड़ना ही पड़ेगा।” बाहर खड़े होकर जवाब देने वाले लड़के की आवाज में झल्लाहट थी। ये जवाब सुनते ही अंदर लेते लड़के को भी ताव चढ़ गया। बड़े गुस्से में वो बड़बड़ाया- “जाओ, नहीं खोलता। कर लो, क्या कर लोगे!” और अपनी बात कहकर आँखें बंद करके लेट गया।“रिज़र्वेशन है मेरा अंदर।” बाहर से आए अगले इस जवाब पर फिर कोई प्रतिक्रिया न हुई।
रात के दो बज चुके थे। बूढ़े माँ-बाप, बीवी और दो छोटे बच्चों के साथ वो गाँव के अंधेरे भरे प्लेटफॉर्म पर खड़ा था। दरवाजा खुलवाने की कोशिश करते-करते अब गाड़ी छूटने का वक़्त भी हो आया था। पूरे परिवार का सारा सामान अभी नीचे जमीन पर ही पड़ा था। और फिर रेलगाड़ी का भोंपू गूँजा। दूर गार्ड के हाथों में हरी रोशनी हिलती दिखायी दी। रेलगाड़ी के पहिये एक हल्के से झटके से घूमने लगे।
अभी तक दरवाजा खुलवाने की कोशिश में जुटा वो लड़का आखिर चिल्ला पड़ा-“अरे सुनो! कोई तो खोलो। मेरा रिज़र्वेशन है अंदर। घर बेचकर आया हूँ। भाई के इलाज के लिये कल ही पहुँचना है। गोविंदा बना था। मटकी नहीं फोड़ पाया। डॉक्टर ने बोला है, जल्दी ऑपरेशन नहीं हुआ, तो बचेगा नहीं। मैं पहुँच कर रकम दूँगा, तभी इलाज़ शुरू हो पायेगा। सुनो, बस एक बार दरवाजा… …” वो बस बोलता जा रहा था। उसे नहीं पता था, उतनी रात वो चिल्ला-चिल्ला कर किसे क्या सुना रहा था।
इसी दौरान पटरी पर सरकने लगी रेलगाड़ी की एक बोगी के दरवाजे की आड़ से उसे एक रोशनी झाँकती दिखायी दी। शायद वो दरवाजे को धक्का देकर अंदर जा सकता था। वो फौरन ही लपक पड़ा। कंधे पर एक बैग डालकर उसने दौड़ते-दौड़ते एक हाथ से हैंडल पकड़ा और लगभग बोगी से लटकते-लटकते दूसरे हाथ से दरवाजे को धक्का दिया। बोगी में अंदर की तरफ़ जमीन पर लेटे एक आदमी के पाँवों को धक्का लगा, तो उसने भी दरवाजे को वापस धकेल दिया।
खुलकर वापस बंद होते दरवाजे को चोट ऐसी जोरदार थी, लड़के के हाथ से एकाएक भरभराकर खून निकलने लगा। दर्द की टीस से बिलखकर वो जमीन पर गिर पड़ा। जमीन पर गिरते हुए बदन कुछ यूँ लड़खड़ाया, लड़के की उँगलियाँ पटरियों पर आ गयीं। एक पल न लगा रेलगाड़ी के भारी-भरकम पहियों ने उँगलियों की हड्डियों तक को चकनाचूर रौंद डाला। आँखों से धार बाँध कर बह पड़े आँसुओं के साथ वो बस एक बार ही पीछे खड़े परिवार को देख पाया। उसके बेसुध होठ धीरे से बस इतना ही बुदबुदा पाये- “मेरा तो रिज़र्वेशन था न!”
जिस्मानी तौर का रिश्ता
“मेरी बेटी यहाँ बैठेगी…” सोचते हुए ही सुचित्रा कमरे में दाखिल हुई थी। कमरे का दरवाजा खोलते ही सुचित्रा के चेहरे पर असमंजस के भाव थे। फाइव स्टार होटल का यह एयर-कंडीशनर कमरा चार लोगों के दिनरात के ठहरने के हिसाब से डिजाइन किया गया था। दो जोड़ी बड़े-बड़े बेड, सोफे, कुर्सियां, मेज और इस तरह के इंतजामात कमरे में थे कि चार लोगों के लिए ठहरने के लिए बने कमरे में आराम से आठ-दस लोग बैठ सकते थे। अब जब इंतजाम मौजूद थे, तो उन सुविधाओं का फायदा उठाने में भला किसी को क्या परेशानी हो सकती थी! पर सुचित्रा के लिए तो जैसे यही परेशानी की बात थी।
चटकती गर्मी के मौसम में जहां शाम के वक्त में भी बाहर आसमान से धधक बरस रही थी, दुल्हन के जोड़े में सजी रचना के ये ढेर सारे सगे रिश्तेदार फाइव-स्टार होटल के एयर-कंडीशनर कमरे के आराम के लुत्फ उठाने में जुटे हुए थे। सगे रिश्तेदार मतलब रचना के दादा-दादी, बुआ-फूफा, चाचा-चाची, बुआ की दो लड़कियाँ, चाचा जी के दो लड़के और एक लड़की, सभी को मिलाकर कुल ग्यारह लोगों का पूरा कुनबा था, जो परिवार में हो रही शादी का अहम हिस्सा बनने को बेताब था और उसी के लिहाज से वो सब के सब जाने क्या-क्या और न जाने कितना कुछ बतियाने में जुटे हुए थे!
सुचित्रा ने कमरे में दाखिल होने के साथ ही एक पल को दाहिने से बाएं गर्दन घुमाते हुए उन सभी को घूरा। फिर मानो एकदम से चीख पड़ी-“आप सभी लोग निकलो यहां से। मेरी बेटी यहां बैठेगी।”
परिवार में हो रही शादी के लिहाज से सज-धज कर भयानक गर्मी के मौसम में एयर-कंडीशन कमरे में सुख के पल काट रहे सभी के लिए ही साफतौर पर ये यकायक शब्द दिल में गहरे चुभने वाले थे। एक अकेली रचना को बिठाने के लिए आखिर इतने सारे लोगों को उठाकर कमरे से बाहर निकालने की क्या जरूरत थी! और मान भी लिया जाये कि रचना को इसी कमरे में बिठाना था, तो दुल्हन के जोड़े में सजी रचना के लिए ये सारे रिश्तेदार इतने नजदीकी थे कि उसे गोद में खिलाने से लेकर आज तक की हर घड़ी ही रचना ने उनके इर्द-गिर्द ही गुजारी थी।
तो दुल्हन के पहनावे के भारी गहनों-कपड़ों की वजह से गर्मी से ज्यादा ही परेशान रचना यदि उन सभी के बीच बिना किसी झिझक तसल्ली से आराम फरमाती, तो भला किसको और भला क्या दिक्कत होती? पर सुचित्रा के मन में भरी तल्खी इस वक़्त जिस तरह जाहिर हुई थी, उसके भी अपने कारण थे।
इतने सारे रिश्तेदारों के होते हुए भी छोटे से लेकर बड़े तक हर एक काम के लिए सुचित्रा को खुद ही भागना पड़ रहा था। कहने के लिए रचना के दादा-दादी, बुआ-फूफा, चाचा-चाची सब रचना की शादी करवाने के लिए आये थे, पर जब से वो सुबह आये थे, उसके बाद सुचित्रा ने सीधे अब शाम को और वो भी इस कमरे के अन्दर उनकी शक्ल देखी थी। पति दिवाकर ने भी ऐसी परिस्थिति में, ऐसे मोड़ पर लाकर यूं अचानक सुचित्रा का साथ छोड़ा था कि गुस्से के कड़वे घूंट खामोशी से निगलने के अलावा उसके पास कोई चारा ही न था।
सुचित्रा ने जिस दिन अपनी पसंद का यह लड़का बेटी रचना से शादी के लिए तय किया था, दिवाकर की भौहें उसे लगातार तनी ही मिलती थीं। और फिर अब जब शादी के लिए सब कुछ तय होने के बाद शादी में मुश्किल से चार दिन का वक्त बचा था, दिवाकर को एक बहुत जरूरी बिजनेस मीटिंग के लिए देश से बाहर जाना पड़ा था। और फिर सुबह ही खबर आई थी कि बिजनेस मीटिंग के बाद लौटते हुए कुछ गोपनीय कारणों से उसे पुलिस ने हिरासत में ले लिया था। सुचित्रा एक तो शादी की तैयारियों और मेहमानों की आवभगत में अकेले परेशान हो रही थी, दूसरी तरफ दिवाकर की गिरफ्तारी की खबर ने उसे जैसे दिमागी तौर पर तोड़ कर रख दिया था।
सुचित्रा के हिस्से में परेशानी की बड़ी बात यह थी कि जो कुछ उसके मन में चल रहा था, उसने वह किसी को भी बताया नहीं था और उसके चेहरे से उसकी परेशानियों को पढ़ पाना उस घर में दिवाकर के अलावा किसी को आता ना था। यही सब सम्मिलित कारण थे कि क्यों मन की टीस उस चिल्लाहट में भरकर बाहर आई थी।
सुचित्रा ने जिस तरह से आकर इन सारे परिवार वालों को कमरे से बाहर निकल जाने के लिए कहा था, उन सभी लोगों का इस बात पर बुरा मान जाना बिल्कुल लाजिमी था। पर सुचित्रा का बोला इतना भला-बुरा सुनने के बाद जैसा किया जाना चाहिए था, उसके ठीक उलट, उन सारे रिश्तेदारों में से किसी ने भी जैसे किसी भी बात का जरा भी बुरा ना मानना। बल्कि उन सबने तो जैसे सुचित्रा की बोली हर बात को बिल्कुल अनसुना-अनदेखा करके, वहीं पर जमे बैठे रहे और अपनी बातों की आवाजों को उन्होंने पहले से भी तेज कर दिया। वो, ये सब जो कर रहे हुए थे, उनके पास इसकी अपनी वजह थी।
सुचित्रा के ससुराल में सब उसका व्यवहार, उसकी आदत बड़ी अच्छी तरह से जानते थे। वह जानते थे कि उनका दिवाकर उनसे दूर केवल इसी सुचित्रा की वजह से ही रहना पड़ रहा था। जब से दिवाकर की सुचित्रा से शादी हुई थी, तब से ही वह अपने घर वालों का दिवाकर न रहा था। और सारे घर वालों को पता था कि कुछ और नहीं, बस यह एक जिस्मानी रिश्ता ही था, जिसकी वजह से दिवाकर अब केवल नाम के लिए ही ‘उनका’ दिवाकर रह गया था। और जब अभी दिवाकर ही उस जगह मौजूद न था, जहाँ दिवाकर की बेटी की शादी हो रही थी, तो भला एक जिस्मानी रिश्ते से जुड़े रिश्ते को वो सारे परिवार वाले भला किस मोल से तोलते?
आशीष आनन्द आर्य “इच्छित”
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