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उम्रकैद (Life Prison)
“आज उम्रकैद (Life Prison) से छुटकारा मिल ही गया, माँ को” …बिलखते हुए रेखा के मुँह से शब्द फूट पड़े। हर कोई उस की बात को भली-भाँति समझ रहा था। रिश्तेदारों ने भी खुसर-फुसर करनी शुरू कर दी थी। सच ही तो कह रही थी रेखा …मैं भी दुःखी मन से सोच रही थी।
अतीत की यादों ने मुझे आ घेरा था। मेरी बचपन की सहेली उमा …कितनी प्यारी लग रही थी उस दिन वह दुल्हन के लिबास में…बेशक गेहुँआ रंग लेकिन सुंदर नैन नक़्श…हमेशा सादगी में रहने वाली शांत-सी लड़की…क्या रूप चढ़ा था… छुई-मुई-सी शर्माती हुई राजेश के साथ सात फेरे ले कर ससुराल विदा हुई। मैं खुश थी कि चलो सौतेली माँ की क़ैद से उसे छुटकारा मिला और अब वह अपने सपनों के राजकुमार के साथ सुखी जीवन व्यतीत करेगी। उमा शादी के तीन साल में ही दो बच्चों के जन्म के बाद यूँ व्यस्त हो गई मानो इस से अधिक और क्या सुख चाहिए था। सास-ससुर की सेवा…ननद की फ़रमाइशें …राजेश के मित्रो की आवभगत…बच्चों को स्कूल छोड़ने और वापिस लाने…उन की पढ़ाई-लिखाई… सब ज़िम्मेवरियों को वह बखूबी निभा रही थी। सब का ध्यान रखते-रखते कभी अपने लिए तो सोचा ही न था। मैंने कई बार उसे ख़ुद के बारे में ख़्याल रखने को समझाया पर उस के कानों में तो जैसे कभी जूँ तक न रेंगती थी।
अपने पिता की अकस्मात् मृत्यु पर उमा एक सप्ताह के लिए पीहर आई थी। “यह क्या हाल बना लिया है तुमने अपना,” मुझे याद है जब मैंने उसे टोकते हुए कहा था। वह दुबली-सी मेरी सहेली …शादी के पाँच साल में ही बहुत मोटी और अधेड़ उमर की औरत लग रही थी। उस की आँखों से आँसू लुढ़क पड़े थे। बहुत पूछने पर मेरे सामने अपने मन की व्यथा दर्शा दी थी उसने। “राजेश किसी लड़की के चक्कर में है और इसी वज़ह से उस ने अपना तबादला करवा लिया है…मैंने बहुत मिन्नतें भी की लेकिन माँ-बाप के बुढ़ापे और छोटी बहन की देखभाल का बहाना बना कर कभी भी साथ नहीं लेकर जाता …अब तो पिता जी भी नहीं रहे…तू ही बता …मैं अकेली औरत बच्चों को ले कर कहाँ जाऊँ?” …वह सिसकते हुए बोली। मैं भी निशब्द थी।
कुछ साल बाद मेरा उस से दोबारा मिलना हुआ तो पता चला कि उस की ननद की शादी हो गई थी और सास-ससुर चल बसे थे। राजेश ने उमा को उसके हाल पर छोड़ दिया था। अब तो वह घर खर्चे के लिए पैसे भी नहीं भेजता था। उमा लोगों के कपड़े सिल कर बड़ी मुश्किल से घर का गुज़ारा कर रही थी। मैंने उस की कुछ आर्थिक मदद करनी चाही परंतु उस ने मना कर दिया। फिर एक रोज़ उस का फ़ोन आया। बहुत खुश थी वह …होती भी क्यों न…उस की वर्षों की तपस्या रंग लाई थी …बेटे को सरकारी बैंक में अधिकारी की नौकरी मिल गई थी। मैं बहुत खुश थी कि चलो अब उस का बुरा वक़्त ख़त्म हुआ। लेकिन मैं भ्रम में थी …खून ने अपना रंग दिखा दिया था। उस के बेटे ने किसी लड़की से विवाह कर अपनी अलग गृहस्थी बसा ली थी। उसने एक बार भी माँ के बारे में नहीं सोचा था।
सारी जमा पूँजी लगा कर बड़ी मुश्किल से उमा ने अपनी बेटी रेखा के हाथ पीले किए। राजेश और उस के बेटा-बहु शादी में शरीक तो हुए लेकिन मेहमानों की तरह। शायद वह मेरी उस से आख़िरी मुलाक़ात थी। गहरी धंसी हुई आँखे …काला रंग…सिर पर नाममात्र बाल…हड्डियों का पिंजर शरीर …कर्क रोग ने कैसे उस को बर्बाद कर दिया था। बहुत मन था कि कुछ दिनों के लिएवह मेरे साथ आ जाए पर वह न मानी। अभी मैं घर वापिस लौटी भी न थी कि रेखा का फ़ोन आ गया। रोते हुए बोली, “माँ, आख़िरी साँस लेते हुए आप को पुकार रही है।” मैं उल्टे पाँव वापिस लौट गई थी। सच कहते हैं …माँ की ममता कभी कम नहीं होती। “मेरे बाद बच्चों का ख़्याल रखना” …मेरा हाथ पकड़ कर बोली थी। “सब ठीक हो जाएगा” …मैं केवल इतनी ही सांत्वना दे पाई थी कि उस ने दम तोड़ दिया। शायद वह मेरा ही इंतज़ार कर रही थी।
रेखा की चीख-पुकार हर दिल को कुरेद रही थी पर आज उमा के चेहरे पर आज बिल्कुल शांति थी … आख़िरकार पंछी उम्र क़ैद के पिंजरे को तोड़ पूर्णता आज़ाद हो गया था।
परिवेश
“माँ, इन काग़ज़ातों पर जल्दी से हस्ताक्षर कर दो” राजेश ने सीता को जैसे फ़रमान सुनाते हुए कहा। हालाँकि वह राजेश और साक्षी के बीच चल रही बीती रात की बातचीत से भांप चुकी थी कि दाल में कुछ तो काला है फिर भी सीता ने हिचकिचाते हुए बेटे से पूछ ही लिया, “लेकिन यह तो मकान के काग़ज़ात हैं …इन का क्या करना है?” अभी मुश्किल से एक माह ही बीता था राजेश के पिता का स्वर्गवास हुए पर बेटे-बहू के बदलते हुए तेवर उसे ज़िन्दगी के कटु सत्य का अनुभव करवा रहे थे। “यह मकान आप मेरे नाम पर कर दो…कहाँ बार-बार विदेश से आकर कचहरी के चक्कर लगाऊँगा? …आप की भी उमर हो रही है…अब देखो न, अगर यह मकान पिता जी ने पहले ही मेरे नाम कर दिया होता तो ख़ाहमख़ाह यह मुश्किल न आती और कितना पैसा भी लगता है बार-बार नाम बदलने में…मैंने वकील से बात कर ली है…पाँच-सात रोज़ में ही काम हो जाएगा…वैसे भी, अगले महीने की दस तारीख़ को कनाडा जाने की मेरी, साक्षी और अनुज की टिकट भी तो आ गयी है” राजेश एक ही साँस में सब कुछ कह गया।
सीता इस बदलते परिवेश में राजेश और साक्षी के मन की बात को अच्छी तरह से समझ रही थी। “कितनी मुश्किल से एक-एक पाई जोड़ यह सोच कर मकान बनाया था कि बुढ़ापा आसानी से कट जाएगा…अपने अरमानों को हर बार दबा कर सिर्फ़ बेटे के सपने पूरा करने के लिए उसे विदेश में पढ़ने भेजा…और वह पिछले पच्चीस वर्षों में केवल चार बार ही मिलने आया था …वह भी शुरू-शुरू में …और अब अपने पिता के देहांत पर …उसके पिता को हमेशा यही चिंता सताती थी कि अगर उन्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा …क्या राजेश को एक बार भी न विचार आया कि अब ये माँ कहाँ जाएगी” …सोचते-सोचते सीता की आँखों में आँसू भर आए। “बेटा, मुझे कुछ समय दो सोचने के लिए” इतना कह सीता चुपचाप अपने कमरे में चली गई। उसने सारी रात बड़ी ही कश्मकश में काटी।
सुबह उठी तो राजेश को अपने पास बुला कर बोली, “बेटा, आज तुम, मैं और अनुज कचहरी जाएँगे। मैंने निर्णय ले लिया है कि इस मकान में अपने नाम के साथ तुम्हारे बेटे अनुज का नाम दर्ज करवा दूँगी ताकि मेरे जाने के बाद कोई मुश्किल न हो।” राजेश भौचक्का-सा रह गया। अनायास-सी उस के मुँह से निकल गया, “अनुज तो कल अपनी गृहस्थी बसा लेगा और अगर उस ने मुझे और साक्षी को घर में न रहने दिया तो …नहीं माँ, उस के नाम पर तो सही नहीं रहेगा।” फीकी-सी हँसी मुख पर लाते हुए सीता बोली, “बेटा, यह बात तो तुम्हें भी सोचनी चाहिए न।” निरुत्तर हो गया था राजेश क्योंकि वह समझ चुका था कि बदलते परिवेश ने माँ को बहुत समझदार बना दिया था। अगले दो दिन तक राजेश और साक्षी ने सीधे मुँह माँ से बात न की। तीसरे ही दिन तत्काल में उन की कनाडा वापसी की टिकट आ चुकी थी। सीता दुःखी मन से सोच रही थी कि बदलते परिवेश ने सामाजिक मूल्यों को कितना गिरा दिया था।
खूँटी
“माँ, जब भी पिता जी की चिट्ठी आती है, चंद अल्फ़ाज़ ही लिखे होते हैं …यहाँ सब सकुशल है …आशा है कि तुम सब भी ठीक होंगे …अपना, दामाद जी और बच्चों का ध्यान रखना। कितनी चिट्ठियाँ लिखो तब जाकर दो-चार बार जवाब आता है” हर बार रमा माँ को उलाहना देती थी। कई बार तो रमा को लगता जैसे उसके पिता उसे लाड़ करना ही भूल गए थे…जब भी मायके मिलने आती तो पिता जी को पहले से ज़्यादा गुमसुम पाती…क्या हो गया था उनको…अब तो लगता था जैसे बरसों बीत गए हों उसे कहे कि बैठ बिटिया, मेरे लिखे नए गाने या भजन की धुन सुन…बचपन में तो हर रोज़ नया गाना या भजन लिखते और कई बार तो ज़बर्दस्ती सुनना पढ़ता था…तब तो रमा को अपने खेलने से फुर्सत न होती थी और अब जब वह उनसे विशेष तौर पर मिलने दिल्ली से आती …बस कुछ-कुछ ख़ास बात न हो पाती। रमा की माँ उसे समझाते हुए कहती, “तुम्हें बहुत प्यार करते हैं। बस उमर के साथ बढ़ती ज़िम्मेदारियों में इंसान फँस जाता है।”
समय बीतता गया। रमा की माँ मधुमेह से ग्रस्त होने के कारण चल बसी थी। अब तो उसका मन मायके आने से भी घबराता था। उसे हर बात में कहीं न कहीं माँ की कमी खलती थी। अब जब भी मायके आना होता तो ज़्यादा समय भाई और बहनों के घर बीतता। हर बार देखती कि पिता जी कभी बड़े और कभी छोटे भाई के घर होते। कई बार रमा का मन बहुत उदास होता और सोचने पर विवश हो जाती कि कितने चाव से उन्होंने घर बनाया था। उनका कमरा अब भतीजे के पढ़ने के कमरे में तब्दील हो चुका था। नाम के लिए वहाँ एक अलमारी ज़रूर थी उनकी जिसमें उनके चंद कपड़े और शायद कुछ काग़ज़ात थे। हाँ, स्टोर में एक खूँटी पर उनका रैक्सीन का थैला (बैग) टंगा होता था जिस में छोटा-सा ताला लगा होता था। रमा का कई बार मन हुआ कि पूछ ही ले, “न जाने क्या रखा है” …फिर लगता शायद कुछ ज़रूरी काग़ज़ या पैसे होंगे, इसलिए चुप हो जाती।
रमा की माँ के जाने के पाँच साल बाद ही उस के पिता जी भी चल बसे। रमा का तो मायका ही जैसे छूट रहा था। उसके पिता जी की अलमारी से कपड़े और सामान उठाया जा रहा था …आज वह नहीं तो इन सब का भी क्या काम … शायद उसके भतीजे को उस अलमारी में अब अपने कपड़े रखने थे। तभी उस की नज़र छोटी-सी चाबी पर पड़ी जो शायद स्टोर में खूँटी से टंगे उस थैले की थी। आज भरे मन से चाबी भाई की ओर बढ़ाते हुए रमा ने पूछ ही लिया, “पिता जी के इस थैले में आख़िर क्या है?” शायद उस के भाई को भी मालूम नहीं था। ख़ैर, ताला खोला गया। फफक-फफक कर रो रही थी वह …उसके पिता जी को उसकी बुआ (जो कई बरस पहले स्वर्ग सिधार गयी थी) और रमा की लिखी हुई एक-एक चिट्ठी…कितने क़रीने से उन्होंने जैसे सजा कर रखी हुई थीं…उन चिट्ठियों के कितने अक्षर उसके पिता जी के आंसुओं से धुले हुए थे और कितने अब रमा की आँखों से धुल रहे थे। एक पुरानी से डायरी जिस में उन्होंने रमा की माँ की बीमारी के बारे में उनके रोज़ ढलते क्षणों को लिखा हुआ था और उसके माता जी और पिता जी की एक पुराने से फ़्रेम में जड़ी तस्वीर जो शायद रमा के दूसरे या तीसरे जन्मदिन पर सब भाई-बहनों के साथ खिंचवाई हुई थी …यह ही उनकी वह यादें थी जिसे वह सब से छुपा कर रखे हुए थे। रमा को उस के पिता की चुप्पी के हर सवाल का जवाब मिल गया था। आज उसे लगा कि दीवार पर टंगी वह खूँटी जैसे चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी की कि उस के पिता जी के सिवा इन सब पर किसी ओर का क़ब्ज़ा नहीं।
एक रक्षा-बंधन ऐसा भी
“गीता, बहुत सुंदर राखियाँ बनाई हैं। ऐसे लगता है जैसे तुम ने अपना सारा प्यार उड़ेल दिया है इन में …पर यह क्या… इस बार ढेरों रखियाँ,” केशव ने गीता के हाथों की बनाई हुई राखियों को देखते हुए कहा। सच में बहुत ही सुंदर राखियाँ थी … कुछ लाल-पीले मोतियों से बनी, कुछ मौली के धागे से और कुछ हाथ से बने छोटे-छोटे फूलों की। गीता की आँखों में आँसू झलक गए थे। केशव भली भाँति उस की मनोदशा को महसूस कर रहा था। हर वर्ष वह इसी तरह अपने हाथों से भाई के लिए राखियाँ बनाती रही है और जब भी उस ने अपने भाई को राखी बाँधने के लिए मायके जाना चाहा, उस की भाभी ने हमेशा ही कोई न कोई बहाना बना दिया। कई बार भाई से भी आग्रह किया कि वह ही गीता के घर आ जाए लेकिन एक अमीर भाई यदि गरीब बहन के घर आए तो क्या उस की शान में कमी नहीं आ जाएगी? …शायद सच में खून का रंग सफ़ेद हो गया था। फिर भी उस के अपने भाई के प्रति प्यार में कभी भी कमी न आई थी …तभी तो हर साल अपने हाथों से बड़े चाव भाई के लिए राखियाँ बनाती थी। हाँ, वह अलग बात थी कि राखी वाले दिन बहुत उदास भी रहती। गीता को वह दिन याद आ कर बहुत सताते जब शादी से पहले उस का भाई सुबह सवेरे तैयार हो जाता था…राखी बँधवाने को। अब तो उस के दीदार को गीता की आँखे तरसती थी। केशव भी गीता का मन बदलने के लिए भरसक प्रयास कर रहा था।
आज रक्षा बंधन का दिन था। कल से ही भाई का फ़ोन बंद आ रहा था। न कोई न्योता और न ही गीता का भाई राखी बँधवाने को आया। बेचैन हो कर गीता अपने भाई के घर पहुँच गयी। गेट पर लटकते हुए ताले को देख मन और विचलित हो गया। काफ़ी प्रयास के बाद आख़िर उस की भाभी ने फ़ोन उठा कर बताया कि भाभी के भाई को राखी बाँधने के लिए वह दोनों दिल्ली गए थे। गाड़ी में बैठते ही गीता फूट-फूट कर रोने लगी। “मैं कब अपने भाई को राखी बाँधूँगी?” …उस के मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा था। अब तो उसे रह-रह कर भाई पर भी ग़ुस्सा आ रहा था।
उस के विचारों की शृंखला तब टूटी जब केशव ने गाड़ी रोकी। पर यह क्या …वो तो वृद्धाश्रम के बाहर खड़े थे। मूक-सी ताक रही थी केशव को गीता …यहाँ आने का क्या मक़सद था? केशव ने एक पैकेट गीता के हाथों थमा दिया जिस में उस के हाथों से बनाई हुई १५-१६ राखियाँ थीं। वह एक डिब्बा गाड़ी में से निकाल कर वृद्धाश्रम की ओर बढ़ा गया। गीता भी चुपचाप उस के पीछे चल दी। दोनों भीतर प्रवेश कर चुके थे। उदासी से भरे कुछ वृद्ध सूनी कलाईयाँ लिए एक कक्ष में बैठे थे। दोनों ने वहाँ उनके पाँव छुए। “गीता आप के लिए अपने हाथों से बनी हुई राखियाँ लायी है…क्या आप बँधवाएँगे,” कहते हुए केशव ने हाथ जोड़ दिए। उन बुजुर्गों के साथ-साथ गीता की आँखे भी भर आयी थीं। बड़े ही प्यार से सब के हाथ आगे बढ़ गए। एक-एक हाथ पर राखी बाँधते हुए गीता की जैसे बरसों की चाह पूरी हो रही थी। केशव ने भी बुज़ुर्ग महिलाओं से अपने हाथ पर राखी बँधवायी। साथ लाए हुए डिब्बे में कुछ फल और मिठाइयाँ थीं जो उन्होंने उन के साथ साँझा की। बुजुर्गों के भी चेहरे पर आभा देखते न बन पा रही थी। उन के हृदय से ढेरों दुआएँ गीता और केशव को मिल रही थी। आज गीता ने ज़िंदगी में सब से सुंदर ढंग से रक्षा-बंधन के पावन त्यौहार को मनाया था। उसे इस सच्चाई का एहसास हो गया था कि रिश्ते सिर्फ़ रक्त के सम्बंधों से बंधे नहीं होते अपितु रिश्ते तो वह होते हैं जो एक दूसरे के सुख और दुःख को बाँट सकें।
मकान
मेरी सखी गौरी अपने माता-पिता को माँ बाबू जी कह कर सम्बोधित करती! क्लर्क की नौकरी और सरकारी क्वॉर्टर में रहते-रहते बाबू जी का अपना मकान बनाने का बस एक ही सपना था। यूँ कहें तो धुन सवार थी। अक्सर कहते-“अपने मकान में रहने की अलग ही ठाठ होती है।” बूढ़े माता-पिता, पाँच-पाँच बेटियाँ और एक लाड़ले बेटे की ज़िम्मेवारी, लगता ना था कि बाबू जी का सपना कभी पूरा होगा। धीरे-धीरे बाबू जी की तरक़्क़ी होती गयी। अब वह उप-अधीक्षक बन गए थे।
मुझे याद है वह दिन जब एक शाम बाबू जी अपने कार्यालय से वापिस लौटे तो उन के हाथ में जलेबियों का लिफ़ाफ़ा था। वह उस दिन बहुत खुश नज़र आ रहे थे। आते ही बोले-गौरी की माँ, कुछ गर्मागर्म पकौड़े तल लेना, जलेबियाँ लाया हूँ। चाय के साथ, सब बैठ कर खाएँगे। माँ जी ने पूछा-क्या आज कोई विशेष बात है? बोले मंदिर में माथा टेक कर आया हूँ। हमारी बरसों की मुराद पूरी होने जा रही है। वित्त विभाग में मैंने मकान बनाने के लिए क़र्ज़ की जो अर्ज़ी लगायी थी, उस की मंज़ूरी आ गयी है, कुछ पैसे बैंक में भी जमा कर रखे हैं, अब हम अपनी पुश्तैनी ज़मीन पर मकान बना पाएँगे। छोटे बच्चे से चहक रहे थे बाबू जी उस दिन। माँ जी भी अपने पुराने ट्रंक से एक बक्सा उठा लायीं जिस में उन के कुछ पुराने शायद शादी के समय के गहने थे। बाबू जी की ओर बढ़ाते हुए नम आँखों से बोली-आप इन्हें भी बेच देना। यूँ भी मुझे गहनों का ख़ास शौक़ नहीं। मैंने कौन-सा पार्टी में जाना होता है जो सब को दिखाती फिरूँ। एक पुरानी-सी पोटली जिस में शायद कुछ पैसे जोड़ कर रखे थे, उसे भी चुपचाप उनकी ओर सरका दिया। हर भारतीय नारी की तरह बाबू जी का सपना भी तो माँ जी का ही सपना था।
कुछ ही दिन बाद बाबू जी ने दफ़्तर से छुट्टी मंज़ूर करवा ली और गाँव चले गए। सिर्फ़ इतवार के दिन ही वह अपनी पुरानी साइकिल पर घर आते। उन का रंग काला, आँखों के नीचे घने घेरे, चेहरे पर थकान और बालों की रंगत में बर्फ़-सी सफ़ेदी नज़र आने लगी थी।
आख़िर आठ महीने की कड़ी मशक़्क़त के बाद बाबू जी का सपना पूरा हो ही गया। सरकारी क्वॉर्टर को अलविदा कह वह सपरिवार अपने नए मकान में चले गए। एक रात मैं भी उनके घर रहने के लिए गयी। घर के बाहर “सरस्वती निवास” का बोर्ड टंगा था। माँ ने बहुत सादगी परंतु सुंदरता से नये घर को सजाया था। उनके हाथ की कढ़ाई वाले मेज़पोश पर वह सफ़ेद गुलदान, गौरी के हाथ की बनी पेंटिंग, वह कोने में बने मंदिर पर लटकती मोती और सीपों की माला, दीवार पर टंगी प्लास्टर ओफ़ पेरिस की शिवजी की प्रतिमा, फ्रिज पर नया कवर और एक तरफ़ माँ बाबू जी के विवाह की फ़ोटो…सब बहुत सुंदर लग रहे थे। इन्हीं खूबसूरत यादों को संजो, मैं अपने घर वापिस आ गयी। हाँ, अपनी सहेली और उसके परिवार से दूर जाने का हमेशा मुझे ग़म रहा।
कई वर्ष बीत गए। मेरा विवाह दूसरे शहर हो गया। एक दिन पति देव का बाबू जी के गाँव का दौरा था। मैं भी ज़िद्द कर उनके साथ चल पड़ी। आख़िर मुझे माँ, बाबू जी से मिलना जो था। इन्होंने मुझे अपने ड्राइवर के साथ गाड़ी में उन्हें मिलने भेज दिया। ये क्या! “सरस्वती निवास” के बोर्ड की जगह “शर्मा निवास” कुछ अटपटा-सा लगा। एक पल तो मैं ठिठकी। फिर दूसरे ही क्षण “माँ” “बाबू जी” चिल्लाते हुए छोटी बच्ची की भाँति मैं अंदर भागी गयी। कौन है? अंदर से भाभी की कर्कश आवाज़ आयी। मुझे देख चेहरे पर दिखावटी मुस्कान ले बोली-अरे गुड्डो तुम, इतने दिनों बाद। पर मुझे तो माँ जी और बाबू जी से मिलने की उत्सुकता थी। वह मुझे घर के पिछवाड़े में जहाँ कभी स्टोर रूम था, ले गयी। चारपाई पर पुरानी-सी चादर पर मैंने बाबू जी को लेटे हुए देखा। उनका शरीर एक कंकाल की भाँति प्रतीत हो रहा था। बाबू जी, गुड्डों आयी है। कहने लगी-इन्हें अब ऊँचा सुनाई देता है। मैं बाबू जी के सीने से लिपट गयी। पता चला दो वर्ष पूर्व माँ जी स्वर्ग सिधार गयी थीं। मेरा हाथ थाम कर रोते हुए बोले, इन्होंने सरस्वती के आँख मूँदते ही मकान के बाहर से उस के नाम का बोर्ड हटा दिया। उमर के आख़िरी पड़ाव में बहुत लाचार और अकेलापन महसूस कर रहे थे।
स्तब्ध रह गयी, जिस इंसान ने अपना मकान बनाने के लिए अपनी सारी ज़िन्दगी लगा दी, वह अपने ही घर के एक कोने में बेबसी का जीवन व्यतीत कर रहा था। खिन्न मन से दो घंटे व्यतीत करने के बाद मैं बाबू जी के ढेरों आशीष और शगुन के तौर पर उनके मेरी मुट्ठी में दिए इक्कावन रुपए को लिए अपने ससुराल वापिस लौट आयी। कुछ वर्ष बाद पता चला कि बाबूजी भी चल बसे। उन के सपनों का आशियाना, उन का मकान बिक गया था। मैं मूक बनी सोच रही थी कि शायद उन का मकान में रहने का सपना तो माँ जी के गुज़रने के बाद ही चूर-चूर हो गया था जब उनके बेटे ने अपनी माँ के नाम की तख़्ती को हटा दिया था और बाबूजी को उनकी यादों के सहारे ज़िंदा या मुर्दा रहने के लिए उसी मकान के एक कोने में अकेला छोड़ दिया था।
आभा मुकेश साहनी
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