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प्रेरणा (Inspiration)
प्रेरणा (Inspiration): युग अंतराल बाद,
घुटनों में सिर छिपाए,
बाँहों से ढांपे,
बैठा था मनुपुत्र,
वैसे ही त्रस्त, आकुल, हताश,
जैसे बैठा होगा कभी,
उसका पूर्वज मनु,
प्रलय के बाद।
चारों ओर फैला था,
भव विकराल सागर सा,
लील जाने को अस्तित्व उसका।
ऊपर कठोर आकाश
करता व्यंग्य-वज्र प्रहार।
मनु पुत्र गया था हार,
नियति के समक्ष,
आज वह हो गया था बौना,।
जीवन था अब मात्र भार ढोना।
क्या यही था उसका स्वरूप?
आचरण यह उसका,
नहीं था उसके अनुरूप।
वह था आशा-विश्वास भरा,
अभिमान भरा,
मनुपुत्र मानव था वह,
उसी का प्रतिरूप।
सृष्टि रचयिता का वंशज,
सृजन उसकी विरासत था।
नैराश्य यह, पराजित भाव यह,
उसके लिए अनजाना था।
पर आज उसका समस्त
कौशल, सम्मान, दर्प,
हो गया था चूर-चूर,
बिखर गए थे ज्योति पुंज,
हो खंड-खंड।
तमस से घिरा,
भयाकुल था वह।
क्षीण मधुर हास्य,
एक सहसा ध्वनित हुआ,
मानव चकित हुआ।
देखा चहुँ ओर सिर उठा,
कुछ न पा, दैन्य से विहणसा
छलना मन की,
कौन श्रद्धा यहाँ आएगी,
धीरज बंधाएगी?
मैं उदास, संत्रस्त,
रेतीले पर्वत काँधो पर
सिर पटक-पटक रह जाऊँगा।
परमात्मा का अंशी मैं,
बूँद ही रहूँगा,
पारावार न बन पाऊंगा।
सूख नि: श्शेष हो जाऊँगा।
फिर वही हास्य ध्वनि,
आलोक छिटकाने लगी,
मरू में मंदाकिनी लहराने लगी।
स्पर्श शीतल बयार का,
उसे सहला गया,
भास चेतना का करा गया।
देखा, सामने ही,
धूलि में चमक रहा था,
कण एक, देता मृदुल आश्वास,
कण, जिसे सूर्य किरणें,
चमका रही थीं,
सौंदर्य अनुपम दे उसे,
कुंदन बना रही थीं।
मनुपुत्र को लगा,
कण उससे कुछ कह रहा है।
संदेश दिव्य दे रहा है।
” तुच्छ मैं कितना, तेरे समक्ष
अरे मनुपुत्र!
मगर मुस्करा रहा हूँ।
धूल में पड़ा हूँ,
पैरों तले कुचला जाता हूँ,
मगर निष्प्रभ नहीं हूँ,
किरण छूते ही जगमगाता हूँ।
और तू सर्वश्रेष्ठ मानव,
बल बुद्धि का पारावार,
फिर क्यों हुआ विवश, लाचार। “
सूरज था अस्ताचल गामी,
ढल गया।
सो गया कण उजला,
संध्या की गोद में
शिशु-सा सो गया,
कल फिर जागने को।
हाँ, मनुपुत्र लेकिन जग गया।
अंधेरा था अब छंँट गया।
सबल कदमों से
लक्ष्य-पथ पर बढ़ गया।
रिमझिम बारिश
(१)
बरसा गगन धरती पर,
हरष सरस सब ओर॥
हरित गलीचा बिछ गया,
नाच उठा मन मोर॥
(२)
लघु पादप बच्चे बने,
हिल हिल करत कलोल।
खुशबू फूलों की उड़ी,
विहग स्वर मिश्री धोल।
(३)
इंद्रधनु छाया नभ में,
दृश्य हुआ अभिराम॥
बहकी बहे मलय पवन,
शोभा ललित ललाम।
(४)
मन कागद नौका बना,
उड़ता बना पतंग।
ताक् धिना धिन हो रही,
हिय में बजत मृदंग।
(५)
सब कुछ लगे नया-नया,
दिशाएँ चहक गईं।
मन सावन-सावन हुआ,
लताएंँ लहक गईं।
अचानक
उस दिन सुबह-सुबह ही
एक सज्जन मिल गए।
अजनबी थे हमारे लिए,
लेकिन चेहरे पर पहचान ला
बोले वे हमसे-
“आओ लड़ें”
हम घबराए, सकपकाए,
सोचा मन में,
यह कैसा आमंत्रण है?
आओ गले मिलें, प्यार करें,
ऐसी बातें तो सुनी थीं।
पर एकदम नया अनुभव था
यह हमारे लिए।
हमने सोचा, मजाक कर रहे हैं,
या शायद हमने,
कुछ ग़लत सुन लिया है।
क्षमा माँगते हुए पूछा
क्या आपने हमसे कुछ कहा?
वे खिजलाए, झल्लाए,
बुरा-सा मुँह बना बोले-
हाँ, लड़ने को कहा है,
लड़ोगे क्या?
अब तो हमें यक़ीन हो गया
अनुभव की नवीनता से चेहरा
गमगीन हो गया।
आंखों में भर हैरानी उन्हें
ताकने लगे।
कौन से जन्म में उन्हें देखा था,
यादाश्त को जांचने लगे।
कुछ समझ पाते,
कि सज्जन गुर्राए
यार! अजब आदमी हो
यूँ क्यों उजबक से
मुझे ताक रहे हो।
बात मेरी समझ नहीं आई क्या
या जानबूझकर कन्नी काट रहे हो।
क्यों टैम बर्बाद करवा रहे हो।
हम पहल करें या तुम आ रहे हो।
कोई तुम अकेले नहीं हो,
हमें अभी कइयों से लड़ना है।
एक एक पै इतना टैम लगाएँगे,
तो कैसे पार पाएँगे।
हमने फिर उनकी ओर देखा
बड़ी अड़ियल काया थी।
भगवान की विचित्र माया थी।
चेहरा भ्रष्टाचार-सा दमक रहा था।
आंखों में मंदिर मस्जिद-सा
मसला चमक रहा था।
हमारे तो तोते उड़ गए।
दिन में सारे तारे दिख गए।
सोचा-इसकी तो एक पटखनी में ही
अपनी नानी मर जाएगी।
पूरी न सही, आधी जान तो,
ज़रूर निकल जाएगी।
साहस बटोर गिड़गिड़ाए
भाईसाहब! मुझे माफ़ करना,
लड़ने का मेरा कोई मूड नहीं है।
बच्चे को स्कूल छोड़ने जाना है।
घर में चाय के लिए भी दूध नहीं है।
बात हमारी उन्हें न भाई,
जुबान उनकी आप से तू पर उतर आई।
बोले-यार बोहनी तो तुझे करवानी ही पड़ेगी।
ज्यादा नहीं, थोड़ी-सी मार तो खानी पड़ेगी।
ज़रा ही देर में तेरा,
लड़ने का मूड बन जाएगा।
बीवी, बच्चा, चाय, दूध,
कुछ याद न आएगा।
यह कह वह हमारी ओर लपके।
हम गिड़गिड़ाने लगे
खुद को बचाने लगे।
क्या बिगाड़ा है मैंने तुम्हारा।
मैं तो तुम्हें जानता भी नहीं।
फिर क्यों करते हो मुझसे लड़ाई।
तुम्हारी हमारी किस बात की दुश्मनी है भाई?
वे मुस्कराए, कुछ पास आए,
बोले-तू भी बड़ा भोला है।
न कुछ भी समझता है।
कुछ बिगाड़ने पर भला,
आज कौन लड़ता है?
कुछ बिगाड़ा नहीं तूने मेरा,
इसीलिए तो लडाई है।
लड़ाई का “कॉनसेप्ट” तो तेरा क्लीयर है
पर “रीजन” की समझ न तुझे आई है।
क्या बिगाड़ा था मंगलू के बेटे ने किसी का,
जो थाने दार ने, उसे मार दिया?
क्या गुनाह था रहमत की बेटी का
जो उसे सरे आम लाचार किया?
क्या बिगाड़ा था मैंने किसी का,
जो मेरी आत्मा को तुमने मार दिया?
धर्म की दे-दे दुहाई,
मुझे बहकाया,
मेरे हाथों में पहला पत्थर
तुमने ही थमाया।
मुझे लाशों के ढेर पर खड़ा कर दिया
खुद परे हो गए,
मुझे दोषी ठहराया
खुद बरी हो गए।
और अब लड़ने से घबराते हो,
नजरें चुराते हो।
देखो मेरे ये हाथ, मेरे ही खून से
भर गए हैं।
सभी अपने-पराए मुझसे,
किनारा कर गए हैं।
सहसा हँसा वह,
फिर ज़ोर से चिल्लाने लगा
बलि पशु जैसे कोई चिल्ला रहा हो।
किसी झूठ को, किसी के छल को
मानो प्रकटा रहा हो।
मैं उसे चुपाने का, बहलाने का,
उपाय सोचने लगा।
पर वह तो एकदम चुप हो गया था।
सारे विवाद से परे हो गया था।
यह उसकी अंतिम लड़ाई थी।
और इस लड़ाई में उसने विजय पाई थी।
कवि कहो न
कहो न, कवि प्रवर!
कहते समय
गाथा महाभारत की
क्या छलके नहीं थे,
नयन तुम्हारे?
कंठ भी भावातिरेक से
रूंधा होगा।
एक बार नहीं,
कई-कई बार।
हुआ था न?
कवि कह दो न।
क्या अन्याय के प्रति,
आक्रोश भरी वाणी ने
तुम्हारी
तिरस्कार नहीं किया होगा
अन्यायी का
किया था न?
कवि कह दो न।
जब-जब अधर्म ने
स्वयं को उचित बताया,
जब-जब विरूपता ने
सत्य, शिव, सौंदर्य को
झुठलाया,
तो क्या भाव था
मन में तुम्हारे आया।
द्रौपदी का चीर हरण
नारी अस्मिता का कलंक
कैसे कर पाए
यह चित्रण?
कंपित लेखनी तुम्हारी
रो उठी होगी।
जाने कैसा-कैसा
लगा होगा तुम्हें,
लगा था न?
कवि कह दो न।
कैसा-कैसा लगा था,
तभी तो भीम-स्वर में,
किया था तुमने गर्जन।
दु: शासन के रक्त से।
द्रौपदी केश-प्रक्षालन का,
किया था प्रण।
पर फिर क्यों हो गए
विवश, अवश?
बताओ न।
क्यों नहीं किया
भीष्म की भीषण
वाणी को मुखर?
क्यों नहीं दिया,
द्रुपद-सुता के प्रश्नों का उत्तर?
क्यों पराक्रम को बैठा दिया
सिर झुकाकर?
क्यों होने दिया,
मर्यादा को अमर्यादित?
क्यों अजस्र वाणी तुम्हारी
हो गई थी मौन?
बताओ न पूज्यवर।
माना कि तुम थे,
ब्रह्मर्षि, तत्वज्ञानी
निर्विकार, निस्स्पृही,
पर जनक भी तो थे।
अपनी ही संतति का,
भीषण अधोपतन,
कैसे अंकित कर पाए
महाभारत के अध्यायों पर?
बताओ न मुनिवर।
” सब कुछ है यहीं पर,
न कुछ इससे इतर”
महाभारत के प्रारंभ में ही,
यह कह ने वाले ऋषिवर,
इसी विनाशक सब कुछ के
त्याग का संदेश
क्यों न दे पाए,
उस स्वार्थी, मदांध दंभ को
जो युद्ध-पथ पर था
अग्रसर, निरंतर?
दिया था न?
बताओ न।
गीता के अमर उद्-घोषक,
लीला पुरुषोत्तम
श्रीकृष्ण के रूप में,
कर्मयोगी बने तुम,
अनिष्ट को
टाल क्यों न पाए?
बताओ न।
जब कोमलताएँ रो रहीं थीं।
मदमस्त थी अहम्मन्यता,
सत्ता थी निरंकुश,
शक्ति थी विवश,
तो पूज्य पितामह व्यास,
तुम क्यों न कर पाए,
उसका ताड़न,
उसका वर्जन?
बताओ न।
किया था न?
युद्ध की विभीषिका,
मृत्यु का तांडव
अपार हाहाकार,
वेदना, चीत्कार,
वीभत्स होती स्थितियाँ,
कैसे सह पाए होगे
तुम करूण-अंतर,
कविवर?
बताओ न।
पर मुझे पता है,
तुम मानो या न मानो,
धैर्य तो तुम्हारा भी,
अधीर हुआ होगा।
नियति की प्रबलता,
होनी की अनिवार्यता,
कर्मफल का भोग,
कह कर, इन प्रश्नों को,
अनसुना मत करो,
उत्तर दो।
क्योंकि प्रश्न ये,
मेरे ही नहीं हैं,
तुम्हारे भी हैं।
हैं न? स्वीकार करो,
बताओ न।
भले ही वीतरागी थे तुम,
मोह-राग से परे संन्यासी,
पर मानव भी तो थे।
मन के किसी कोने में
संवेदन भी धड़कते होंगे
अश्रु भी छलकते होंगे।
भीगा होगा मन,
तुम्हारा भी बार-बार
जब उत्तरा की कोख में,
पल रहे कुरू वंश के
इकलौते अंकुर पर,
किया गया था
ब्रह्मास्त्र प्रहार।
हाँ, बरसे थे,
तब नयन तुम्हारे,
मूसलाधार।
बरसे थे न?
मुझे तो पता है।
तुम भी कहो न,
विगलित अंतर,
कवि प्रवर।
कह दो न।
इंगित पर तुम्हारे
श्रीकृष्ण ने दिया था
जीवनदान,
महाभारत के रक्तरंजित
अंबर पर हुआ था
कुरूकुल सूर्योदय।
पूज्यवर!
वेदना असीम तुम्हारी,
क्या थमी नहीं होगी
उस समय?
लेखनी भी हुई होगी
उल्लसित,
आई होगी
क्षीण-सी मुस्कान,
तुम्हारे अधरों पर।
आई थी न?
कह दो न।
महाभारत के प्रणेता,
संस्कृति के वाहक,
अमर गाथा-गायक,
महर्षि वेदव्यास!
कैसा लगा होगा तुम्हें,
जब विजय-प्राप्ति के बाद,
देखा होगा तुमने,
मरघट बने,
हस्तिनापुर में प्रविष्ट होते,
कातर-आर्त ह्रदय लिए,
युधिष्ठिर को,
भग्न विजयोल्लास धारे,
भीम और अर्जुन को,
पुत्र-वंचिता पांचाली को,
और पुत्रहंताओं के
स्वागत में खड़े
अंधनेत्रों में प्रतिशोध भरे,
क्रोध-कंपित तन लिए,
वचनों में श्राप छिपाए,
अधरों पर मुस्कान सजाए,
सर्वस्व वंचित,
धृतराष्ट्र और गांधारी को।
कवि कहो न।
कैसे देख पाए होगे तुम?
यह सब?
कितना अकुलाया होगा मन?
कहना है कठिन,
मुझे पता है।
पर कह दो न।
आज कह दो,
बात मन की सब।
कहने से व्यथा बँट जाएगी।
दुःख की अमा छँट जाएगी।
कैसे कह दूँ मैं यह,
पर आश्वस्त हूँ मैं,
कह देने पर सब
सच-सच
पुनरावृत्ति महाभारत की
नहीं हो पाएगी।
मानवता और आँसू
न बहाएगी।
धरा कुरूक्षेत्र की
शोणित यह,
कुछ उजली हो जाएगी।
स्वर लहरी गीता की
लहराएगी।
आशीष भरा अपना
शीतल, वरद-हस्त,
जगती के
संतप्त मस्तक पर,
धर दो न कविवर,
धरोगे न?
कवि कहो न?
दृष्टि विस्तार
गीत को गुनगुनाने का,
कोई आधार तो होगा।
जो हर ले उर संताप सब,
कोई उद्गार तो होगा।
बैठा रहेगा कब तलक
दायरों में घिरा यूं ही
बाहर निकल, झांक तो
दृष्टि विस्तार तो होगा।
तट पर बैठा गिने लहरें
गहराई जानेगा कैसे?
गोता लगाकर देख तो,
ये सागर पार तो होगा।
लगेगी ठोकर, गिरेगा।
पड़ेंगे पैर में छाले।
सहलाने मत बैठ, चला चल
गति संचार तो होगा।
अंधेरा है बहुत माना,
सो गई आस की किरन।
जुगनू पकड़ ले एक कोई,
ज्योति पसार तो होगा।
छल आहत कर रहा,
झूठ जाल बुन रहा।
दे उतार नकाब सब,
सच उजियार तो होगा।
जम गईं हैं संवेदना,
मन पाषाण बन गए।
तू नेह-ताप तो छुआ,
मंजर बहार का होगा।
भुला तेरा और मेरा
सब उसका ही पसारा है।
सुख दुःख सब यहीं पर हैं।
यहीं उद्धार भी होगा।
धरती अंबर मिल रहे गले
उजली सुबह, शाम ढले।
रंगों की गगरी छलकती
क्षितिज गुलज़ार तो होगा।
नमन करो स्वीकार
कबीर के प्रति
काव्य-अंबर में दमका,
सूरज सम संत कबीर।
अनंत लालिमा से जिसने,
मेटी हर तमस लकीर।
जिसके अंतर में बाजे,
नित ही अनहद-मंजीर।
मानवता का है मसीहा,
वह रोए, देख पराई पीर।
दुल्हनिया वह राम की,
बैठा है ओढ़ चदरिया,
निर्गुन प्रेम-रस भीनी।
सहजभाव से बुनता जाए
वह कविता झीनी-बीनी।
उसकी बेबाक बयानी,
नदिया का बहता पानी।
सब को निर्मल करता,
तोड़े हर लीक पुरानी।
ले लुकाठी वह खड़ा है।
हर अन्याय से भिड़ा है।
उसके अनगढ़ शब्दों ने
ज़िंदगी को गढ़ा है।
अक्खड़ वह, मस्तमौला,
युग चेता, वह दीवाना।
वह कलाकार सच्चा,
झुकना न उसने जाना।
उसे मोह-माया नहीं है,
वह सच्चा और सही है।
वह मर्म धर्म का जाने,
उस जैसा कोई नहीं है।
सूरदास के प्रति
कृष्ण काव्य के अमर गायक।
तुम कृष्ण-भक्ति के उन्नायक।
सूर सूर्य-सा आलोक तुम्हारा।
प्रवहमान वत्सल-रसधारा।
तुम रंग और छवि का संसार।
तुम दिव्य-चक्षु, वेणु झंकार।
तुम राधा की प्रणय-केलि हो।
मोहन की मोहक मनुहार।
तुम जसुमति के ममत्व की छाया।
तुम कान्हा की नटखट माया।
तुम भ्रमर कृष्ण चरण-कंवल के।
दर्शक कृष्ण-लीला स्थल के।
गोपाल सखा तुम गोचारण के।
तुम साक्षी इंद्र गर्व-हरण के।
भक्त अनन्य तरण-तारण के।
निर्मल, उज्ज्वल, शुचि दर्पण से।
तुम साकार अभिव्यक्ति विनय की।
प्रेम-सख्य की मृद परिभाषा।
जमुन-जल में प्रति पल बिंबित,
तुम श्याम-सलोने की सुगाथा।
ब्रज भाषा की माधुरी मनहर
भाव और रस संगम सुंदर।
तेरी वाणी में हुई तरंगायित,
कला धन्य हुई तुझको पाकर।
भूमिजा
तमसा तट बैठी सिया,
मन हुआ अतीत संचार।
प्रथम दर्शन वह राम का
उर मधुर प्रणय झंकार।
वह आयोजन स्वयंवर का
सब बैठे हार स्वीकार।
पिता जनक की व्यथा
लखन का रोष संचार
धनुष भंग किया राम ने
दस दिशि गूंजी टंकार।
सखिन सहित सिय चली
राम उर शोभित जय हार।
अवध वीथियों में बहा
हर्ष पारावार अपार।
तात मात पुरजन सभी
वारें मणि मुक्ता हार।
आई घड़ी राजतिलक की
हुए बहु विधि मंगलाचार।
नियति ने चली चाल कुटिल
रस-रंग हुआ जल क्षार।
राम लखन संग वन चली
धार वल्कल सिय सुकुमारि
पग परस पा माँ धरणी का
उर सकुचे, करे हाहाकार॥
चित्रकूट की पर्णकुटी सुखद
प्रकृति का मनहर श्रृंगार।
संत समागम से नित-नित
पाए ज्ञान-धर्म विस्तार।
लखन का सेवाभाव अतुल
वनवासियों का वह प्यार।
वन खग-मृग सब सखावत
कण कण में छाई बहार।
सहसा ही बदल गया दृश्य
चला काल चाल विकराल।
स्वर्ण-हिरन की मरीचिका
लाई विरह-व्यथा अपार।
वह मोह माया-मृग का,
आसुरी छल प्रपंच प्रहार।
रावण ने किया अपहरण,
सिया पीड़ा, रुदन अपार।
पराक्रम तात जटायु का।
खल किया निठुर प्रहार।
कटे पंख, क्षत हुए जटायु
गिरे भू पर, कर चीत्कार।
वह अशोक वाटिका भव्य
रावण का भय संसार।
वह आगमन हनुमान का
वह प्रिय-मुद्रिका उपहार।
आश्वासन दिया बजरंग ने,
किया सिया पीड़ा निस्तार।
आस, विश्वास हुआ प्रबल
अब श्रीराम करेंगे उद्धार।
सेतु बनाकर राम फिर,
ससैन्य, आए सागर पार,
प्रचण्ड युद्ध रावण राम का,
मिला विजय उपहार।
अग्नि परीक्षा लेकर की
राम ने सिय स्वीकार।
सब लौटे फिर अवध में
मना पावन दीप त्यौहार।
श्रीराम बने अवधेश अब
हुआ सुख का विस्तार।
सीता के सुख सूर्य को,
लगा ग्रहण तत्काल॥
तजी राम ने प्राण प्रिया
कर प्रजामत स्वीकार।
राजरानी सीता बनी,
विषाद प्रतिमा साकार॥
एकाकी वनवासिनी,
पीड़ा असह्य अपार।
नारी को कब समझा,
यह पाषाणी संसार?
मौन रही, सहा सब कुछ,
बहाई ममत्व की धार।
सर्वस्व सदा अर्पित किया,
पर पाया क्या प्रतिकार।
तमसा तीर बैठी सिया
लिए अश्रुपूरित नैन।
कैसे धारे धीर वह,
मन है विकल, बेचैन।
भूमिजा को सहसा हुआ,
आत्मशक्ति का बोध।
पोंछे निज अश्रु स्वयं ही
हटा गति का अवरोध।
धरा सुता वह फिर उठी
मन लिए अडिग विश्वास।
गर्भ में धारण किए है,
वह रघुकुल की आस॥
देगी वह अब प्रसन्न मना
रघुकुल को यह दान।
उसका यह बलिदान ही
है उसकी अमिट पहचान॥
नहीं चाहिए उसे कोई
सांत्वना या सत्कार।
युगों युगों तक रहे ऋणी
उसका, यह संसार।
सीता दृढ़ मना चल पड़ीं
नूतन पथ की ओर।
छंटा नैराश्य का तमस।
मुस्काई आशा भोर।
मृत्यु से अमृत की ओर
रोज जैसा ही था वह दिन भी।
उस दिन भी उजला सूरज निकला था।
पत्तियों को थपकाती,
संगीत सुनाती,
फूलों से ख़ुशबू चुराती,
हवा इठलाती-सी बह रही थी
चिड़ियाँ भी गा रही थी
ओसकण चमकते थे मोती से।
दुधमुंँहे का चूम माथा।
माँ उसे जगा रही थी,
सचमुच वह दिन भी
रोज-सा ही सुंदर था।
हाँ, आकाश में
आशंकाएँ ज़रूर मंडरा रही थीं।
लेकिन विश्वास भी प्रबल था
इनके छंट जाने का।
दुर्भाग्य लेकिन
रूख हवाओं के बदल गए।
सूरज कांँप कर छिप गया।
कलेजा पर्वत का हिल गया।
ओसकण अश्रु बन गए।
सपन हो दफ़न गए।
एक मनहूस मरघटी सन्नाटा,
पसर गया सब ओर
दुनिया को लील जाने को।
मौत करोड़ों जीभें
लपलपाने लगी।
परमाणु का पिशाची अट्टहास
विश्व को दहला गया।
धिक्कार उठा विज्ञान ख़ुद को
ज़ार-ज़ार रो दिया।
धरती के बेटों ने
माँ की छाती पर
कुलिश प्रहार किया।
इतिहास में
कालिमा से भी काला,
रक्तभरा, दुर्गंधयुक्त,
एक पन्ना और जुड़ गया,
युद्ध का, विध्वंस का,
अब कोई हरियाली नहीं लहराती थी,
अब कोई शिशु नहीं तुतलाता था,
अब कोई चिड़िया नहीं चहचहाती थी।
अब कोई प्यार का गीत नहीं गाता था।
निर्माणों के सभी ऊँचे परचम
धराशायी हो गए थे।
सारी संवेदनाएँ, मूल्य सारे
ओढ़े बिना कफ़न ही,
आगोश में मौत की सो गए थे।
हिरोशिमा और नागासाकी के
स्मृतिशेष अतीत और वर्तमान को,
अजन्मे, अज्ञात, अपंग आगत को,
वक्ष से चिपटाए
धरती बिलख रही थी।
मरघट की उस चुप्पी को
चीरता उसका विलाप,
जो चिथड़े-चिथड़े हो गए
क्षितिज से टकराता,
और फिर
उसी तक लौट आता था।
बार-बार, कितना करूण था।
एक गूंज और भी थी वहाँ
निठुर विजेता के प्रेतिल उन्माद की,
रासायनिक धुएँ के बादल बनाती,
फुँफकारती।
पाषाण-सी निस्पंद, व्यथित धरती,
सुनती थी यह गूंज-अनुगूंज।
अंतराल बाद,
बदलाव आया,
दुर्गंध कम होने लगी,
छटपटाती धरती फिर से,
जन्म मानवता को देने लगी।
अंधेरा छंटने लगा,
किरण जगमगाने लगी।
विनाश में निर्माण की
आहटें आने लगीं।
विश्व कल्याण का लक्ष्य लेकर
यू एन ओ आने लगी।
शंखनाद हुआ नवयुग का
आशा का अंकुर पनपा।
सूरज की सतरंगी किरण
उसे नहलाने लगी।
पीड़ित दलित मानवता को उठाने,
यू एन ओ आने लगी।
अंधकार से प्रकाश की ओर
असत्य से सत्य की ओर
मृत्यु से अमृत की ओर
धरती ये जाने लगी।
पिता
पिता परिवार की दृढ नींव,
पिता बरगद की ठंडी छांव।
सपने पूरे करने को हमारे,
ताउम्र भटके नगर और गाँव।
पिता माँ के माथे की बिंदिया,
पिता से सजे सारे त्यौहार।
जन्म, पालन, शिक्षा-संस्कार,
पिता का ही अनुपम उपहार।
पितृ-ऋण से उऋण हों तभी
करें हर सेवा का प्रतिकार।
कभी न दुखाओ मन उनका,
रखो सदा ही शिष्ट व्यवहार।
पिता मन, सागर की गहराई
पिता ही है गगन विस्तार॥
पिता ही है ईश्वर की मूरत
पिता ही त्याग और बलिदान।
पिता का करो सदा सम्मान
रखो सदा ही उनका ध्यान।
पिता का मान सदा आभार,
निज कर्त्तव्य का रहे भान।
मना पितृ दिवस एक दिन
बधाई दे, दें पुष्प उपहार।
नहीं बनाता सुसंतति हमें,
पिता से करो निस्वार्थ प्यार।
बहन बोली
बहन बोली सुनो भैया, तुम्हारे पास आई हूँ।
वही बचपन, पुरानापन, जिसे मैं साथ लाई हूँ।
भुला सकूँ मैं कैसे भैया, वह लड़ना, रूठ-मनाना।
खूब शैतानी करना, किसी को कुछ न बताना।
जीवन-नदिया के हम, अब दो किनारे हो गए।
पर नेह धारा में बह, मन एक हमारे हो गए।
इस राखी में बाँधी मैंने, यादें सभी पुरानी।
अश्रु भरे ये नैन कह रहे, यही मृदुल कहानी।
सजा थाल रोली-अक्षत, पास तुम्हारे आई हूँ।
चिरजीवौ भैया तुम मेरे, यही दुआएंँ लाई हूँ।
यह मेरी राखी का धागा, बने कलाई का सिंगार।
लाए तेरे घरआँगन में, खुशियों की बहार अपार।
नहीं चाहूँ उपहार मैं कोई, बस मुझे सदा मान मिले।
बढ़े सदा यश तुम्हारा, उजला सुखद विहान मिले।
साथ हमारा कभी न छूटे, कभी न हम आपस में रूठे,
सुख दुःख के बन कर साथी, हर कर्तव्य निभाएँ अपने।
राखी का पर्व यह पावन, होगा सचमुच तभी सुहावन।
सम्बंधों का यह अपनापन, रहे सदा ऐसा मनभावन।
बहना बोली सुनो भैया, मैं तुम्हारे पास आई हूँ।
वही बचपन, पुरानापन, जिसे मैं साथ लाई हूँ।
आया सावन झूम के
मिलने आया पिय सावन,
प्रिया धरा से झूम के।
बादल दोस्त बजाए नगाड़ा,
चपला नाचे धूम से।
विरहिन बनी बैठी धरा,
मन था बहुत उदास।
मटमैला, आंचल हुआ,
लेती दीर्घ निश्वास।
पाते ही प्रियतम के
आगमन का संदेश।
छाई उमंग, पुलक मन,
बदल गया परिवेश।
बरसी वर्षा छम, छमा छम,
उर की कलिका लहके।
हरियाली परिधान धार
प्रिया धरती अब चहके।
पुष्पों के आभूषण पहने
कर सोलह शृंगार।
ताक् धिना धिन हो रही
मन गाए राग मल्हार।
पानी के दर्पण में धरती
अपना रूप निहारे।
देर हो गई पिया बहुत,
अब जल्दी से आ रे।
आम पुरोहित ने बाँधी
नव किसलय वंदनवार।
मयूर नाचे थिरक-थिरक
भ्रमर करे मंगलाचार।
कोयल, पपीहा मगन हो
बजा रहे शहनाई।
दौड़ दौड़ नाईन पुरवैया,
न्यौता सबको दे आई।
पन्ने-सी धरती बनी,
मूंगे-सा हुआ आकाश,
चांदी की बूंदें दमकीं,
सोना बिखराए रवि।
पिय सावन के पाश में
बंधी धरा शरमाय।
उर अनंत शतदल खिले
रस पयोधि उमगाय।
अभिलाषा पूरी हुई
महकी मंद सुवास।
आया सावन झूम के.
छाया धरती मधुमास।
पर्व राखी का आया
श्रावण की पूर्णिमा सुहावन,
चंद्रिका धवल हुआ नभ-आंगन।
भरता मन में स्नेहिल उजास।
दायित्व वहन का सुखद भास,
ले त्याग, समर्पण, प्रेम आस,
पर्व आया राखी का आज।
कच्चे कलावे का दृढ़ बंधन,
लगा भाल पर अक्षत, चंदन,
बाँधो उस कलाई पर आज,
सीमा पर खड़ा सजग प्रहरी,
जो बचा रहा भारत-भू लाज।
स्वेद कणों से सींच धरा को,
जिसने स्वर्णिम शस्य उगाई,
अपने कला-कौशल से जिसने
देश गरिमा-ध्वजा फहराई।
रक्षासूत्र बाँधो उस कर पर,
जिसने गाया श्रम-कर्म का राग।
जब सम्बधों में मृदु मिठास हो,
अपनेपन का एहसास हो।
हर आँसू को सहलाने बढ़ता,
जब सबल औरअभय हाथ हो
रक्षा बंधन सजे उस कर पर,
भरे जो प्राणों में उल्लास।
ले त्याग, समर्पण, प्रेम, आस
पर्व आया राखी का आज॥
त्यौहार राखी का
सावन के मौसम में जब
छाई हर ओर बहार।
सम्बंधों की जड़ों को सींचने
आया राखी का त्यौहार॥
पर्व यह प्रेम विश्वास का है।
मन की पावन उजास का है।
इसकी आभा के आगे फीकी,
सूरज-चंदा की चमकार॥
भाई बहन का सुंदर नाता।
कच्चा धागा दृढ़ कर जाता।
हर सुख दुःख औ’ धूप छाँव में,
इक दूजे के बने आधार।
कोई अलग न रह पाएगा,
जब-जब भी स्मृति-घन छाएगा,
छलक उठेंगे नैना इनके
बहेंगे बन गंगा की धार।
रक्षा का दायित्व उठाएंँ,
जी-जान से उसे निभाएंँ।
मन में कभी कोई भेद न आए।
है यही अमोल उपहार॥
सम्बंधों की जड़ों को सींचे।
यह राखी का त्यौहार।
पुष्पित हों मृदु भावों के,
सुरभित पुष्प अपार।
आया राखी का त्यौहार।
वीणा गुप्त
नई दिल्ली
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