मित्र का अधूरा वचन (Incomplete words)
अधूरा वचन (Incomplete words) : शंकर के पिताजी शंकर से कुछ कहना चाह रहे थे! लेकिन बात बार-बार होंठों तक आकर रूक जा रहे थे। पर पिता की व्याकुलता समझते शंकर को तनिक भी देर ना लगी, और शंकर ने पिता जी से निवेदन भरे शब्दों में व्याकुलता का कारण जानना चाहा। पिताजी ने राहत की सांस ली..और कहा शंकर अच्छा हुआ कि तुमने मेरी व्याकुलता जानने की इच्छा जताई, अन्यथा मैं तो परेशान था कि क्या कहूं? कैसे कहूं? या ना कहूं?
आखिर ऐसी कौन सी बात हो सकती है पिताजी जिसे कहने में आप इतना संकोच कर रहे हैं? शंकर ने पूछा। शंकर के पुछते हीं पिता ने जवाब दिया- बात हीं कुछ ऐसी है शंकर! खैर अब बता हीं देता हूँ। मेरे बचपन के परम हितैषी मित्र “जय” अभी कुछ वर्ष पहले हीं एक सड़क दुघर्टना में चल बसे थे, बस उन्हीं के याद ने हमें भावुक कर दिया था शंकर! यही तो जीवन की सत्यता है पिताजी – जो आया है उसे एक दिन जाना भी पड़ेगा।
लेकिन अचानक उनकी याद आपको कैसे आ गई जरूर उनकी आत्मा ने आपको आवाज दी होगी ! हाँ शंकर… शायद ऐसा हीं कुछ है। लेकिन पिताजी आप जैसे धीर पुरुष को ऐसे विचलित होते तो कभी नहीं देखा! मुझे तो यह सत्य नहीं लगता जरूर कुछ बात है। क्या बात है पिताजी? आप कुछ विस्तार से बताने की कृपा करें। जानना हीं चाहते हो तो सुनो शंकर!
बात उस समय की है जब तुम्हारे चाचा के विवाह के लिए एक सुकन्या की तलाश में लगभग दो वर्षों तक मैं भटकता रहा, कई दरवाजे खटखटाये, बहुत सारी लड़कियां देखी पर मुझे एक भी ऐसी कन्या नहीं मिली जो इस घर को घर बना सके।एकाएक मित्र “जय” की याद आई, उसकी बहन रश्मि बहुत हीं सुन्दर व सुशील स्वभाव की थी! मित्र की बहन और छोटे भाई की पत्नी बहन समान हीं होती है। मुझे लगा कि रश्मि के जैसी मेरे घर के लिए और कोई योग्य कन्या नहीं हो सकती।
मन में यही आस लिए अपने मित्र जय से मिलने पहुँचा और सकुचे स्वर में कहा मित्र- आज मैं तुमसे कुछ मांगने आया हूँ। अरे मित्र ये आपने कैसी बात कर दी …। आपको कुछ माँगना पड़े वो भी हमसे.. ये कैसी विडम्बना है। आप इशारा तो करो मैं तो आपके लिए अपनी जान भी दे दूँ ! इस जहां में जो मेरा है वो सब कुछ आपका है। जय की इतनी बातें सुनकर हृदय को थोड़ी शांति मिली।
जान नहीं मित्र! मैं तो बस यही मांगने आया था कि हम दोनों की मित्रता रिश्तेदारी में बदल जाय..। और अपने मन की बात जय के सामने रख दी।
जय थोड़ी देर तक अपना हाथ सिर पर रखकर कहीं खो से गये। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे कोई धर्म संकट में पड़ गए हों।
मैं कौतूहल वश पूछ बैठा क्या हुआ मित्र? मेरी बात सुनकर इस प्रकार सोच में क्यों डुब गए?
नहीं मित्र! ऐसा कुछ नहीं है,मैं सोच में नहीं बल्कि धर्मसंकट में पड़ गया हूँ।आप हमसे मांगने आए हैं वो मैं किसी और को दे चुका हूँ।
मुझे क्षमा करना मित्र! अपने दिल की बात कहने में आपने थोड़ी देर कर दी यदि कुछ दिन पहले यह बात कही होती तो…. मैं आपको कभी निराश नहीं होने देता।
रही बात मित्रता को रिश्तेदारी में बदलने की, तो..ये मेरा सौभाग्य होगा कि आप जैसे महान् मित्र हमारे रिश्तेदार बनेंगे इस से बड़ी गौरव की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है- आज मैं आपको वचन देता हूँ कि मेरी पुत्री दिव्या का विवाह आपके पुत्र शंकर से हीं होगा,आज से दिव्या मेरी नहीं आपकी पुत्री है।
उस समय तुम बहुत छोटे थे शंकर, और दिव्या भी बहुत छोटी थी। इसलिए हम दोनों मित्र उस दिन की प्रतिक्षा करने लगे जिस दिन हम दोनों की संधी हो जाय।
उस दिन से हम दोनों, एक मित्र के साथ साथ रिश्तेदार जैसे भी हो गये थे रिश्ते में और भी गहराई बढ़ गई थी।उठना बैठना, खाना पीना बिल्कुल एक समधी की तरह! दिव्या बचपन से हीं थोड़ी चंचल और संस्कारों से भरी पूरी थी। कभी मजाक मज़ाक में पूछा करता था दिव्या बेटा तुम्हें कैसा लड़का चाहिए तब इठलाती हुई कहती थी अंकल.. मैं तो काॅलेज के लड़के से शादी करूंगी.. और शर्माती हुई आंगन की तरफ दौड़ने लगती थी।
जीवन के इस आपाधापी में समय कब बीत गया इसका मुझे अभास हीं न रहा। अचानक एक दिन तुम्हारी माता जी ने कहा- अजी अब मैं खाना वाना नहीं बना सकती। जाओ जा के कोई बहू ले आओ और वैसे भी शंकर अब बच्चा नहीं रह गया है। अरे हाँ कुन्ती! मैं तो भूल हीं गया था कि जीवन में जिने खाने के सिवाय कुछ और भी महत्वपूर्ण कार्य करने होते हैं,जिसे करने का समय अब निकट आ गया है। अच्छा हुआ तुमने याद दिला दी। मैं कल सुबह हीं अपने मित्र जय से मिलने जाऊंगा तुम जल्दी से नाश्ता तैयार कर देना।
अगले सुबह मित्र “जय” से मिलने के लिए जब घर से निकला तो एक संदेश मिला कि उन्होंने तो अपनी पुत्री “दिव्या” का विवाह कब के कर चुके हैं। यह संदेश सुनकर मैं अवाक् रह गया! ये क्या? मेरे मित्र मुझसे धोका नहीं कर सकते।ये सत्य नहीं हो सकता। उन्होंने मुझे वचन दिया है। और और मुझे अपने मित्र पर पूरा भरोसा है।स्थिति चाहें जैसी भी हो जाए वे अपने दिये वचनों से कभी विमुख नहीं हो सकते! तब तक एक और व्यक्ति की प्रतिक्रिया आई कि हाँ हाँ उनकी बेटी का विवाह तो हो चुका है।
यह सब सुनकर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया। मुझे अपने कानों पर तनिक भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं जो सुन रहा हूँ वो सत्य है, मैं विचार करने लगा कि अब क्या किया जाय? जय ने तो दिव्या का विवाह कर दिया है। मैं उलझन में पड़ गया और निश्चय किया कि क्यों ना इस बात को जय से ही मिलकर पुछा जाय कि आपने अपने दिए वचनों का पालन क्यों नहीं किया?
अपनी स्कुटर निकाली और चल पड़ा जय के घर की तरफ। रास्ते में जाते-जाते मन में अजीब-अजीब सी सवालें उठ रहे थे। अचानक से मेरी स्कुटर ख़राब हो गई बहुत स्टार्ट किया पर कमबख्त चालू होने का नाम ही नहीं लिया अंततः उसे धक्का लगाते हुए अपने घर को वापस लौटना पड़ा। घर आया तो तेरी मां ने पूछा क्या हुआ अपने मित्र से मिलकर आ गये? शादी की तारीख कब रखी है? मैं तुम्हारी माँ को यह सब बातें नहीं बताना चाहता था कि जय ने दिव्या का विवाह कर दिया है। इसलिए बात को छुपाते हुए मुझे कहना पड़ा कि आज तो स्कूटर ने बीच रास्ते में हीं धोका दे गई सो कल जाउंगा।
उस रात मैंने एक स्वप्न देखा! सपने में देखा कि मैं अपने मित्र जय के साथ बैठकर चाय पी रहा हूँ, और उनके दिए वचनों को याद दिलाकर उनसे कह रहा हूँ कि आपने ऐसा क्यूं किया? क्यूं दिया था आपने वचन जब निभाना हीं नहीं था! ज़वाब दो मुझे मित्र… ज़वाब दो!
वे पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए हाथ जोड़े, आंखों में आंसु लिए क्षमा याचना कर रहे हैं। अचानक से मेरी आंखें खुली, मैं पसिने से सराबोर हो चुका था। मैं तो बौखला सा गया,ये कैसा दृश्य है? ये मैं क्या देख रहा हूं? प्यास के मारे गला भी सुख रहा था।बिस्तर से उठकर किचन में गया थोड़ा पानी पिया,फिर वापस बिस्तर पर लेट गया, परन्तु नींद हीं नहीं आ रही थी। बार- बार उस स्वप्न का हीं दृश्य आंखों के सामने आ रहा था। सोचने लगा कहीं ये स्वप्न सत्य तो नहीं? हमारे मित्र हमारे हीं सामने पश्चाताप कर रहे हैं? कहीं उनसे मिलने के बाद ऐसा हीं ना हो जाए?
मन में अनेकों प्रश्न उठने लगे थे। हम दोनों मित्र के बीच आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि वो हमारे सामने सर झुकाए खड़े हो या मैं उनके सामने! और यदि यह स्वप्न सत्य हो जाए तो भला मैं अपने हीं मित्र को अपने सामने झुकते कैसे देख सकता हूँ। और मैंने उनसे ना मिलने का निश्चय कर लिया कि अब तो जो होना था वो हो गया दिव्या भी अपने ससुराल में हंसी खुशी से अपना समय व्यतीत कर रही होगी अब पुरानी बात को उकेरने से कोई लाभ नहीं! और मैं सब कुछ भूल जाना हीं उचित समझा।
समय बीतता चला गया और उस पुरानी बात को भी धीरे धीरे भूल चुका था। एक दिन की बात है हमारी कंपनी ने एक सभा का आयोजन किया था जिसमें कुशल कार्य कर्मीयों को पुरस्कृत किया जा रहा था! काफ़ी लोगों को सम्मानित किया गया, उस सम्मान समारोह में ऐसे बालक को भी सम्मानित किया गया जो मात्र अठारह वर्ष का था और सबसे अव्वल भी था! मुझे देखकर आश्चर्य हुआ और गर्व भी हुआ कि धन्य हैं वो माता पिता जिसने ऐसे पुत्र को जन्म दिया और उत्सुकतावश उसके बारे में जानने की कोशिश करने लगा!
अरे ये क्या? ये तो मेरे मित्र जय का पुत्र निकला।
उसे देखते हीं मित्र जय के द्वारा दिया गया वचन याद आ गया ,और दिव्या के बारे में उससे कुछ जानना चाहा तो उसने कहा कि दीदी तो पुलिस में हैं। पिताजी के गुज़र जाने के बाद घर वही संभालती है।मैं भी थोड़ा बहुत सहयोग करता हूँ। बहुत अच्छा बेटा ऐसे हीं मेहनत करते रहो।
तुम्हारे पिताजी तो हमारे बचपन के प्रिय मित्र थे एक साथ खाना पीना एक साथ पढ़ना पर उनका यूं असमय चले जाना मुझे ज़रा भी अच्छा नहीं लगा।
क्या करेंगे अंकल भगवान की मर्जी के आगे हम इन्सानों की बस कहाँ चलती है। होनी को कौन टाल सकता है। उसकी बातें सुनकर आभास हो गया कि जब सीर पर ज़िम्मेदारियों की बोझ आ जाती है तो एक बालक भी वयस्क हो जाता है।
उसके मुख से इतने मार्मिक शब्द सुनकर दिल ने यह कहने का निर्णय नहीं ले पाया कि तुम्हारे पिताजी ने मुझे कुछ वचन दिए थे।
हां उससे उसकी बहन दिव्या की तस्वीर दिखाने को कहा। उसने तुरंत अपना मोबाइल निकाला और एक फोटो दिखाई! मैं तो देखकर दंग रह गया चेहरे पर बिल्कुल वही तेवर लिए वही मुस्कुराहट वही सौंदर्य व संस्कार, बस कद काठी बड़ी हो गई थी। पुलिस की वर्दी वाली फोटो देखकर ऐसा लग रहा था जैसे फिर से वही सवाल पुछ बैठूं दिव्या बेटा तुम्हें कैसा लड़का चाहिए और वो झट से बोल पड़ेगी अंकल मैं तो काॅलेज के लड़के से शादी करूंगी!
पुरानी यादें बिल्कुल ताजी हो गईं थी, मन में भावना की हिलोरें भी उठने लगी थी, महसूस हुआ कि अब भी समय बचा हुआ है। बीते दिन हमने जो सुना था कि दिव्या का विवाह हो गया है वो मिथ्या था। कुछ लोगों की साज़िश थी।जो हमारे और जय की मित्रता से जलते थे। वे लोग हरगिज नहीं चाहते थे कि हम दोनों की मित्रता रिश्तेदारी में बदले। दिव्या के अविवाहित होने पर आज़ सब स्पष्ट हो गया था कि ना तो हमारे मित्र अपने दिए वचनों से विमुख हुए हैं और ना हीं कभी होंगे। फिर भी यह सब बातें बालक को बताना उचित नहीं समझा। बस इतना पुछा कि बेटा दीदी की शादी के बारे में कुछ सोचा है कि नहीं?
जी अंकल जी! दीदी की शादी तय हो गई है अगले महीने हीं शादी है। सुनकर करंट सा लगा, फिर से मेरी उम्मीदों पर पानी फिर गया, पर बालक के सामने जय द्वारा दिए वचनों को उकेरना उचित नहीं समझा, सोचा उस दिन तो अन्य लोगों के मुंह से सुना था कि जय ने अपनी बेटी का विवाह कर दिया है परन्तु आज तो उनके हीं पुत्र के मुंह से सुन लिया ये झूठ नहीं हो सकता।।
अब क्या होगा? मानो जीवन को प्रज्वलित कर रही सारी ज्योतियां एक साथ बूझ गई हो,मन भारी हो गया, आंखों के सामने निराशा के अंधकार छा गए। बस बालक से इतना हीं पुछ सका कि दीदी अभी कहां है? उसने कहा दीदी की पोस्टिंग अभी बोकारो में है।
ठीक है बालक जब तुम्हारी दीदी छुट्टियों में घर आए तो जरूर बताना एक बार मिलना चाहता हूँ। फिर हम दोनों अपने अपने घर को चल पड़े।
कुछ दिन बाद उसकी दीदी गांव आई। तुरंत बालक का फोन आया। अंकल आप दीदी से मिलना चाहते थे ना वो अभी आई है आकर मिल लीजिए। ठीक बालक मैं समय निकालकर आता हूँ। हृदय गति तेज होती जा रही थी।कैसी होगी मेरी दिव्या? क्या वो मुझे पहचान भी पाएगी? मन में यही सब सवाल लिए चल पड़ा दिव्या से मिलने। उसके घर पहुंचा तो दिव्या ने मेरे पैर छुए।
मन को असीम शांति की अनुभूति हुई। मैं तो चाहकर भी उसे कुछ नहीं कह सकता था क्योंकि अब वो किसी दूसरे घर की बहू होने वाली थी। इसलिए बस ख़ुश रहो, सुखी रहो का आशीर्वाद हीं मेरे मुख से निकला। मेरे मित्र जय की वो शब्द आज भी ठीक-ठीक याद थे कि आज से दिव्या मेरी बेटी नहीं, आपकी बेटी है। इसलिए एक पिता स्वरूप होने के नाते बस यही चाहा कि वो जहाँ भी रहे सुखी रहे।
उसकी मम्मी उसके चाचा सभी से मिला, मिलकर बहुत अच्छा लगा,पर दिल को तसल्ली नहीं मिली। मुझसे रहा नहीं गया और बालक से कह दिया कि बेटा, दीदी का विवाह मेरे घर कर दो मैं तुम्हारी सभी बहनों को अपने घर ब्याह लाउँगा। उन्हें बहू नहीं बेटी बनाकर रखुँगा।हमें कोई दहेज वहेज भी नहीं चाहिए।
इस पर बालक ने वही पुरानी आवाज दुहराई जो कभी उनके स्वर्गवासी पिता ने कहा था कि— आपने थोड़ी देर कर दी। मैं आपको उसी दिन बताया था अंकल! कि दीदी का विवाह तय हो चुका है। कास यह बात आप मुझे पहले बताए होते तो आपको कभी निराश नहीं होने देता।
अपने मित्र जय के वचनों को सत्य करने के लिए ये मेरा अंतिम प्रयास था, चुकीं सीधे-सीधे मित्र के वचनों को बालक के सामने प्रत्यक्ष नहीं कह सकता था। वो इसलिए कि बालक को यह जानकार बहुत दुःख होता कि उनके धर्मात्मा पिता ने किसी को वचन दिया था जिसे पूरा करने से पहले ही इस नश्वर शरीर को त्याग कर अपने परमधाम को सिधार गए। और इससे भी बड़ा दुःख इस बात से होता कि अब वो भी अपने पिता के इस वचन को पूरा नहीं कर सकता क्योंकि अपनी बहन का विवाह कहीं और तय कर चुका था।
मैं बालक को ऐसे धर्मसंकट में नहीं डालना चाहता था, इसलिए मैं चुप रहने में ही भला समझा। वैसे दिव्या का विवाह अभी भी नहीं हुआ है। शायद वैश्विक महामारी के कारण शादी की समय सीमा बढा दी गई है।भगवान ना जाने क्या क्या करवाता है। पिता के मुख से, अपने जीवन से जुड़ी इतनी मार्मिक व रहस्यमयी कहानी को शंकर शांतचित्त होकर सुन रहा था।
वैसे यह कहानी यहीं खत्म नहीं हो जाती। लेखक ने तो इस कहानी का भविष्य भी लिख डाला है,जो अभी घटित नहीं हुई है उनका कहना है कि आगे की कथा सुनाने का उचित समय नहीं आया है। आगे की कथा वे स्वयं सभी को सुनाएंगे इसलिेए हम आगे की कहानी नहीं सुना सकते और ना हीं मुझे आगे की कथा का ज्ञान है। अब बाबा को कुछ दान दक्षिणा दो और विदा करो। अलख निरंजन!
अमित प्रेमशंकर
ग्राम+ पोस्ट:- एदलाप्रखंड:-सिमरियाजिला:-चतरा (झारखण्ड)
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