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मैं पांचाली (I am Panchali)
(१)
मैं पांचाली (I am Panchali),
पांचाल नरेश द्रुपद की राजकन्या।
यज्ञ से उद् भूत,
भगिनी धृष्टद्युम्न की,
सखी श्रीकृष्ण की।
प्राणप्रिया अर्जुन की।
भार्या पांडवों की।
कौरवकुल वधू।
पंच वीर पुत्रों की जननी,
महत् है परिचय मेरा।
पर सब कुछ होते हुए भी
मैं वंचिता हूँ।
वंचिता, प्रवंचिता।
यही सही परिचय है मेरा।
प्रवंचना का इतिहास है
जीवन मेरा।
जिसका हर अध्याय विधाता ने
अपनी वज्र-कलम से उकेरा है।
(२)
आज मैं हस्तिनापुर त्याग,
स्वर्गारोहण के मार्ग पर
अग्रसर हूँ पांडवों के साथ।
त्याग आए हैं हम,
वह हस्तिनापुर, जो हमारे लिए
सदा ही मरीचिका रहा।
जिसे पाने के लिए हमने
कितने भटकाव, कितनी थकान,
कितनी पीड़ा, कितना अपमान,
आत्मीय जन बिछोह,
क्या कुछ नहीं सहा?
अब उसी परम काम्य
हस्तिनापुर को त्याग,
चली हूँ सदेह स्वर्ग पाने
की आकांक्षा लिए।
यह भी मरीचिका है,
इस मार्ग का अंत भी
अनिश्चित है।
पर हम अभ्यस्त हैं,
आश्वस्त हैं।
जीवन भर का भटकाव
अब स्थिरता दे गया है।
(३)
कहाँ से प्रारंभ करूं?
जीवनगाथा अपनी।
जन्मते ही पिता द्रुपद को,
प्रतिकार-अनल में जलते पाया।
उनका ही प्रतिशोध,
मेरी शिराओं में रक्त बन आया।
मुझे अग्निस्नाता बना गया।
मैं श्यामा, सर्वांगसुंदरी,
नील कुंदकली-सी कमनीय,
मैं द्रौपदी, साक्षात अनल बन गई।
पितृ इच्छा पूर्ति,
मात्र जीवन-ध्येय बन गई।
(४)
आज मेरा स्वयंवर है।
पर स्वयं वरण का अधिकार
कहाँ है मुझे? जो करेगा
पिता की अपेक्षा को साकार,
वही पहनेगा मेरी जयमाल।
चाहे हो सूतपुत्र कर्ण,
या दुर्योधन, दुश्शासन।
पर यहाँ मेरा सौभाग्य
क्षणभर को मुस्कराया।
मेरा काम्य पार्थ मुझे
स्वयंवर में जीत पाया।
घोर कंगाली में जीवन बिताता,
अर्जुन था मुझे स्वीकार।
पर शेष था अभी,
विधाता का वज्र प्रहार।
मेरा दुर्भाग्य मुझसे,
दो पग आगे खड़ा था।
भविष्य को मेरे उसने
विद्रूपताओं से भरा था।
कुंती माँ के कथन का
उनके धर्म निष्ठ पुत्रों ने
जान बूझकर ग़लत अर्थ लगाया।
अधर्म को, धर्म की ओट में छिपाया।
मुझे अपने कुटिल शिकंजे में कस लिया।
पार्थ में अनुरक्त मुझे,
अन्य पांडवों ने भी वर लिया।
(५)
काश! समझी होती,
मेरी पीड़ा किसी ने।
अन्य तो पुरुष थे, पाषाण हृदय।
पर माँ कुंती! तुम तो नारी थी न।
कैसे देखती रहीं,
नारी-सम्मान की बलि?
मर्यादा, भ्रातृ-एकता,
गुरुजन वचन-पालन के
मिथ्या आदर्शों के घेरों में घिरी,
मैं उस दिन सौ-सौ मौतें,
एक साथ मर गई थी।
मेरी चुप्पी सौ-सौ वज्र बन
मुझ पर ही गिर गई थी।
राजनीति जीती थी उस दिन
प्रणय हारा था।
स्वार्थ ने भावुकता से
किया किनारा था।
वैसे भी राजनीति की दृष्टि,
किसी की पीड़ा कहाँ देख पाती है।
उसकी सारी चतुराई, सारी दूरदर्शिता,
केवल और केवल,
स्वार्थ और सत्ता ही पहचान पाती है।
मैं द्रौपदी भी इसी
राजनीति की बलि चढ़ गई।
एक की भार्या, पंचपति की
भार्या बन गई।
मुझे चिल्लाना चाहिए था जब,
तब मैं विषादलीना, मौन बन गई।
(६)
और फिर तो प्रारंभ हो गया,
मेरे दुर्भाग्यों का अनवरत क्रम।
हस्तिनापुर से निर्वासित हो
खांडवप्रस्थ में रखा कदम।
अथक श्रम से उसे इंद्रप्रस्थ बनाया
राजसूय-यज्ञ करवाया।
सोचा जीवन में शांति आई,
पर शांति यह पलभर भी
टिक न पाई।
भविष्य ने मुझ पर
दोष भरी उंगली उठाई।
दुर्योधन की अपराधी बनी
इंद्रप्रस्थ का राज प्रासाद,
मय के कला, कौशल का
दिव्य, अनुपम उपहार था।
पारदर्शी भित्तियाँ थीं उसकी,
था स्फटिक-मणिमय प्रांगण,
रजत-धवल, निर्मल सरोवर थे।
चित्र सजीव, भव्य, मनोहर थे।
जल में थल, थल में जल का,
सबको होता था सहज संभ्रम।
मय रचित राजभवन यह,
था छलना का मायावी दर्पण।
मय रचित सभागार की
विचित्रता बताई, दुर्योधन को,
सतर्क हो, चलने को कहा।
पर द्वेष-मात्सर्य उसका, इसे
उपहास समझ, तिलमिलाया।
अर्थ का अनर्थ बनाया।
अपनी हीनता से ग्रस्त उसने,
मुझे प्रतिशोध का मोहरा बनाया।
मुझे महाभारत युद्ध का
कारण ठहराया।
कौन-सी नई बात हुई थी?
सभी ने सारे विवादों की जड़
सदा नारी को ही है माना।
यहाँ मुझे, मुझ द्रौपदी को
यह कलंक पड़ा उठाना।
(७)
पर क्या यह विराम था?
नहीं, शीघ्र ही मध्य आया।
षड़यंत्र द्यूतक्रीडा़ का, रंग लाया।
पराजित पतियों ने मुझे,
वस्तु मान दांव पर लगाया।
गुरु जनों के समक्ष, अपमानित
मरणान्तक वेदना से पीड़ित,
प्रतिशोध ज्वाल में दग्ध,
अब मैं तन्वंगी श्यामा नहीं,
साक्षात मृत्यु थी।
मेरी सुचिक्कण, उन्मुक्त केश राशि,
नागिन बन फुंफकार रही थी।
काल थी मैं उनके लिए,
जिन्होंने मेरी अस्मिता हरी थी।
और अब, तेरह वर्ष का वनवास,
एक वर्ष का अज्ञात वास भोग,
कुरूक्षेत्र युद्ध की विभीषिका से
त्रस्त, आहत, संतप्त।
विजयश्री का उल्लास
मना भी न पाई,
कि अश्वत्थामा के रूप में
नियति मेरी कोख उजाड़ने,
रात के अंधेरे में,
दबे पांव चली आई।
मेरे पांच वीर युवा पुत्र
इसकी बलि चढ़ गए।
रुदन से मेरे,
धरती गगन हिल गए।
पर मेरा अंतहीन विलाप,
क्या लौटा देगा मेरे पुत्र?
मेरी ममता, मेरा वात्सल्य?
गए हैं माधव और पांडव,
मेरे अपराधी को पकड़ लाए हैं।
मेरे चरणों में पड़ा अश्वत्थामा,
क्षमायाचना कर रहा है।
भीम उसके शिरोच्छेदन को,
खड्ग लिए खड़ा है।
धर्मराज सदा की तरह
धर्म-विवेचन पर अड़ा है।
कृष्ण मुझे धैर्य सिखा रहा है।
पार्थ, नकुल, सहदेव का
धैर्य, मेरा इंगित चाह रहा है।
(८)
मैं हतभागिनी,
जो अपना जीवन
स्वेच्छया न जी सकी।
इस नराधम के जीवन पर
क्या अधिकार जताऊँ?
गुरु-पुत्र है यह, कैसे भुलाऊँ?
गुरु-पत्नी कृपी के वात्सल्य का
एक मात्र अवलंब।
मैं पुत्रहीना, क्या उनकी
पीड़ा को नहीं जानूंगी?
अपने आंसू क्यों मैं
अभागिन जननी,
उनके नेत्रों से ढालूंगी?
क्या इसके प्राणों का हरण
करेगा मेरी व्यथा का शमन?
छोड़ दूं इसे, जिए यह,
ढोता रहे चिरकाल तक,
अपना मरण तुल्य,
अपराध बोध भरा,
अभिशापित जीवन।
(९)
चिर व्यथा मेरी
शब्दातीत है।
हर स्नेहिल स्पर्श
मेरे मन को अंदर तक
आहत कर जाता है।
व्याकुलता का सागर
रह-रह कर उर में
पछाड़ें खाता है।
व्यथा अंतहीन मेरी
बढ़ती ही जाती है।
बरस-बरस कर
सूख गए हैं नेत्र।
सुधि लाड़लों की।
हर पल तड़पाती है।
मैं पाषाणी हो चुकी हूँ,
सर्वस्व खो चुकी हूँ।
वंचिता हूँ, पूर्ण वंचिता।
अब मुझे एकांत चाहिए,
हस्तिनापुर का यह
मणिमय प्रासाद,
हमें अब काम्य नहीं है।
हम इससे दूर चले
जाना चाहते हैं।
अतीत को झुठलाना चाहते हैं।
चले जाना चाहते हैं।
किसी अनदेखे स्वर्ग के संधान में
लेकिन स्वर्ग है कहाँ?
कौन-सा होगा लोक वह,
चिर विराम पाएगी
मेरी पीड़ा जहाँ।
(१०)
सखे कृष्ण!
मेरे ज्ञान-चक्षु खोलो।
इच्छा-नियंत्रण ही स्वर्ग प्राप्ति है।
ऐसा ही कहा था न, तुमने पार्थ से।
मुझे भी फलरहित कर्म का,
मर्म समझा दो।
मुझ ज्ञान-हीना के लिए भी,
फिर अपनी गीता गा दो।
मेरे लिए, मुझ पांचाली के लिए,
कृतज्ञा होगी, यह सखी तुम्हारी
अपने इष्ट के प्रति समर्पिता,
तुम्हारी यह पांचाली।
कृष्णा तुम्हारी।
शरण है तुम्हारी।
रखना लाज मुरारी।
मैं द्वापर हूँ
मैं द्वापर हूँ।
श्रीकृष्ण की
दिव्याभा से दीपित।
गीता-ज्ञान से पूरित,
यमुना-उर्मिल
कलगान गुंजित।
अपने युग चरणों पर खड़ा,
धर्म की स्थिरता के सहारे।
भविष्य के प्रति,
अमित विश्वास धारे।
मैं द्वापर हूँ।
साक्षी हूँ मैं,
उत्थान-पतन का।
धर्म-अधर्म का।
हास-रूदन का।
मूल्यों के अवमूल्यन का,
चारित्रिक-पतन का।
जरासंध, कंस की क्रूरता का
वसुदेव-देवकी की
अतृप्त ममता का,
मैं द्वापर हूँ।
साक्षी हूँ मैं,
कान्हा के नटखट शैशव का।
ब्रज के प्रकृति-वैभव का।
दधि-माखन की सुगंध का।
कालिंदी तट के कदंब का।
गोरज सनी गोधूलि का।
वत्स के लिए रंभाती,
आकुल गैया का।
कान्हा को दुलराती,
जसुदा मैया का।
मैं द्वापर हूँ।
साक्षी हूँ मैं,
राधा की मुस्कान का।
बांसुरी की मृदु तान का,
यमुना तट के रास का,
चंद्र-ज्योत्सना के हास का।
कालिया नाग मर्दन का
नटवर के नर्तन का।
मैं द्वापर हूँ।
साक्षी हूँ मैं,
दुष्ट कंस के संहार का।
गोपियों के प्रेम-उद्गार का,
उद्धव के निर्गुण संसार का।
भ्रमरगीत के गुंजार का।
ज्ञान पर भावना की विजय का।
ऊधो के तरंगित होते हृदय का।
उमंगित राग-पारावार का।
ब्रज के नेह अपार का।
मैं द्वापर हूँ।
साक्षी हूँ मैं,
हस्तिनापुर की गाथा का,
शांतनु की काम-पिपासा का।
पितृभक्ति की साकार प्रतिमा,
भीषण व्रत धारी देवव्रत का।
नियति-नटी के हाथ की
कठपुतली बने आर्यावर्त का।
सत्यवती के रूप-दंश का,
निर्वंश होते कुरूवंश का।
मैं द्वापर हूँ।
साक्षी हूँ मैं,
वंश-त्राता व्यास का।
व्यंग्य भरे इतिहास का।
धृतराष्ट्र के त्रास का।
पांडु के वीतराग का।
भीष्म की भग्न-आस का।
असफल संधि प्रयास का।
चक्रव्यूह निर्माण का।
अभिमन्यु के बलिदान का।
विदुर की सुनीति का,
जय पाती अनीति का।
मैं द्वापर हूँ।
साक्षी हूँ मैं,
राजनीति की जटिलता का,
शकुनि की कुटिलता का।
गांधारी के अविवेक का।
भीष्म के शक्ति-दर्प का।
अंबा के प्रतिकार का।
कुंती के हाहाकार का।
कर्ण की पहचान का,
कृष्णा के अपमान का।
आकुल-व्यथिता उत्तरा के
अश्रुसिंचित वरदान का।
मैं द्वापर हूँ।
साक्षी हूँ मैं,
लाक्षागृह-दहन का।
अधिकारों के हनन का।
द्यूतक्रीडा़ के षड़यंत्र का।
मैंने सुना है,
छल, वासना, दंभ से भरा
अट्टहास धनतंत्र का।
सुना है मैंने,
कुरूक्षेत्र की रक्तरंजित
शवों से पटी, धरा का चीत्कार।
बाल, वृद्ध, विधवाओं
का विलाप अनंत-अपार।
वक्ष पर झेला है मैंने,
युद्ध का पाशविक उन्माद,
विजय का गहराता अवसाद,
प्रलाप आशा का,
तांडव हताशा का।
मैं द्वापर हूँ।
साक्षी हूँ मैं,
वेदना के गर्भ से
जन्म लेते हर्ष का।
अरुणाभा लिए,
भरतवंश के उत्कर्ष का।
युद्ध औचित्य पर प्रश्र धरते,
विवेक और विमर्श का।
धर्म-उत्थान के लिए,
साधुजन परित्राण के लिए,
संभवामि युगे-युगे के
मंगल उद् घोष का।
नवयुग की अगवानी हेतु,
पांचजन्य के जयघोष का।
मैं द्वापर हूँ।
इक्कीसवीं सदी का मेघदूत
एक रात जब आसमान में,
काले-काले बादल छाए।
विरही पिय का मन अकुलाया।
प्रिया मेरी वह कैसी होगी?
किसके साथ, कहाँ बैठी होगी?
सोच-सोच जियरा घबराया।
जैसे-तैसे रात गुजारी।
सपने में भी प्रिया निहारी।
भोर हुई; प्रिय बहुत उदास था
दुःख का कारण विलेन बॉस था।
जिसने था ट्रांसफर; करवाया।
प्रेमी-युगल का विरह करवाया।
सुबह-सुबह ही फ़ोन लगाया
घंटियाँ तो बजी निरंतर,
पर कोई रिस्पांस न आया।
क्या हो अब, कुछ समझ न आया
आसमान में चमकी चपला
प्रिय को एक आईडिया आया।
एक सलोने स्मार्ट मेघ को,
उसने अपने पास बुलाया।
हाथ पकड़ कर पास बैठाया,
मीठे स्वर में वचन सुनाया
मित्र मेघ! तुम हम जैसों की
नैया पार; लगाते आए।
तेरे ही तो पूर्वज थे,
कालिदास के काम जो आए।
दोस्त मेरे, आज ज़रा मेरी भी सुन लो
सावन की इस मदिर ऋतु में,
निगोड़ी नौकरिया के मारे,
मुझ दुखिया की पीड़ा हर लो।
मोबाइल उनका ऑफ़ है शायद
लैंडलाईन भी डैड पड़ा है।
इंटरनेट भी नहीं यहांँ पर
यार मेरे! बड़ा लफड़ा है।
डाक-विभाग में हड़ताल चल रही,
जल्दी ख़त्म न होने वाली।
नया नया यहाँ ज्वॉयन किया है
छुट्टी मुझे न मिलने वाली।
किसे सुनाऊँ दुखड़ा अपना
तुम ही मेरे बनो हवाली।
धरती की पीड़ा तुम हरते,
दो मेरे मन को हरियाली।
ले मेरा संदेश बंधुवर
दिल्ली नगरी तक हो आओ।
मित्र मेरे! मेरी प्रिया को,
मेरा ये प्रेम-पत्र दे आओ।
प्रथम श्रेणी; का फेयर दूँगा,
चाहो तो बॉय एयर जाना।
गर अकेले जाना न चाहो
अपनी गर्ल फ्रैंड ले जाना।
पिय की सुन मीठी बातें,
मन ही मन मेघ मुस्काया।
फ्री में दिल्ली घूम आने का
कैसा गोल्डन चांस ये पाया।
बोला फिर ” मैं बहुत व्यस्त हूँ
काम कई पैंड़िंग हैं मेरे।
लेकिन दुखड़ा सुना तुम्हारा
आँसू निकल पड़े हैं मेरे।
जल्दी पता बताओ बंधु
कहो, कहाँ पर जाना है?
तुम्हारा प्रेमसंदेश मित्रवर,
किस गली, घर में पहुँचाना है? “
प्रिय ने पता नोट करवाया।
साथ में पैकेट एक थमाया।
ये कुछ गिफ्ट खरीदे मैंने,
बंधु इनको भी ले जाओ।
मेरी प्रिया को मेरे ये सब,
प्रेमोपहार। झटपट दे आओ।
ठहरो लोकेशन समझा दूँ,
इधर-उधर कहीं भटक न जाना।
बैठो पूरी बात बता दूं।
भारत का दिल दिल्ली प्यारे,
जोर-जोर से धड़कता होगा,
हरेक दिशा में हलचल होगी
पूरा शहर भागता होगा
इस भागा-दौड़ी में प्यारे,
हिम्मत कर शामिल हो जाना।
सड़क पार करने से पहले
दाएँ-बाएँ नज़र घुमाना।
इधर उधर से धड़धड़ करता
काल सरीखा ट्रैफिक होगा
पॉल्यूशन के घेरे होंगे।
तुम मुँह पर रूमाल रख लेना।
अच्छा हो मेट्रो से जाना।
हम दोनों का टाइम बचाना।
दिल्ली की दक्षिणी दिशा में
वसंत-कुंज का पॉश नजारा।
इसी कुंज के एक सेक्टर में,
मेरी प्रिया का धाम है प्यारा
सजे-धजे अपने कमरे में
प्रिया मेरी वह बैठी होगी।
उसके कटे छँटे बालों से
महक शैंपू की आती होगी
टी.वी. ऑन-ऑफ करती वो,
फेसबुक पर चैटियाती होगी।
फ़िल्मी धुन वह गाती होगी।
अपनी ही धुन में खोई सी
धीरे से मुस्कराती होगी
तुम धीरे से जाकर मेघा,
दरवाजे की घंटी बजाना।
कौन है? पूछे जाने पर,
उसको सारी बात बताना।
मृगी-सी भोली आँखों वाली,
वो दरवाजे तक आएगी।
इधर उधर फिर ताक-झाँक कर
तुझे कमरे में लाएगी।
पल-पल बाहर देखेगी वो,
बेमतलब घबराएगी।
तू मत ज़्यादा देर लगाना
गिफ्ट थमाकर उसको मेरे
मेरा प्रेम संदेश सुनाना।
धीरज उसको आ जाएगा।
वो थोड़ा-सा शरमाएगी।
अपने हाथों से बनाकर फिर
वो कॉफी तुम्हें पिलाएगी।
कॉफी पी तू फौरन उठना
उससे ज़्यादा बात न करना।
तू मुझसे ज़्यादा हैंडसम है,
मेरा पत्ता साफ़ न करना।
ले पाती उसकी जल्दी आना।
मटरगश्ती में मत रम जाना।
हाँ ग़र जी चाहे तेरा तो
डोमिनो में पि़ज्जा खा लेना।
कनॉट-प्लेस में शॉपिंग कर आना।
पी ।वी. आर. में मूवी देख आना।
स्टोरी आकर मुझे सुनाना।
यहाँ तो पिक्चर हॉल न कोई
किस उजाड़ में बॉस ने पटका।
वी. आई. पी ।एप्रौच पाते ही,
दूँगा साले को, तगड़ा झटका।
लौट सीधा तू मुझ तक आना।
नहीं तो तेरी ख़ैर नहीं है।
कालिदास का यक्ष नहीं मैं,
इक्कीसवीं सदी का मानव हूँ।
तेरी लापरवाही न सहूँगा,
दाम दिए हैं तुझको ख़ासे,
तुझसे पूरा काम भी लूँगा
अब जा फौरन मितवा मेरे!
और सुन, ज़रा ध्यान से जाना।
चोर-उच्चकों से बचना तू,
यूँ ही किसी से भिड़ मत जाना।
लोग तमाशबीन हैं सारे,
तू बेमौत जाएगा मारा।
काम बिगड़ जाएगा सारा
मेघ ने समझा, सिर को हिलाया,
हाथ मिलाया, टा-टा की,
फिर चलने को क़दम बढ़ाया।
प्रिय के मन में धीरज आया।
तीन बंदर बापू के
जब से शहर में ‘लगे रहो’ थी
आई, गांधी संग्रहालय में बहार थी छाई।
तांता विजिटर्स का लगने लगा था।
हर कोई गांधीगीरी समझने लगा था।
संग्रहालय में रखे, बापू के तीनों बंदर,
बड़े उदास थे, होने लगे उन्हें,
नए-नए एहसास थे।
आखिर बंद मुँह से रहा न गया।
मुंँह से हाथ हटाया,
और बंद आंँख से फरमाया।
अजी, देखते हो कुछ,
या यूँ अंधे ही रहोगे?
और तुम बंद कान,
कब तक कानों में उँगली धरोगे?
आज हमारे बापू ने,
फिर है धूम मचाई,
लेकिन हाय! हमारी तुम्हारी,
किसी को याद न आई।
मैं तो अब चुप नहीं बैठूंँगा,
अन्याय होते न देखूंँगा।
यहाँ बैठे-बैठे यूँ ही निठल्ले
हो गए कितने बरस,
मुँह, आंँख, कान बंँद किए बेबस।
बंद आँखे, आँखें फाड़े, बंद मुँह को,
चिल्लाते देख रहा था।
इस चिल्लाहट से परेशान,
बंद कान, कान कुरेद रहा था।
कुछ पल देख सुनने के बाद,
बंद आँख झल्लाया।
है क्या यहाँ कुछ देखने को?
बुरा मत देखो, सुनो, बोलो,
भूले क्यों बापू के वचन को?
बंद कान भी कानों से उंगली,
निकाल गुर्राया ” बहुत हुआ,
अपनी पोजीशन में, वापस आओ।
बंदर हो बापू के, कुछ तो शरम खाओ। “
बंद मुंँह बोला, शरम ही तो
यहाँ बेच खाई है सबने,
चूर-चूर हुए बापू के सपने,
संसद में बैठे, जो देश के विधाता।
गांधी की दें दुहाई, तोड़ गांधी से नाता।
सच के मुँह पर इन्होंने ताला जड़ा है,
झूठ ऐंठा-ऐंठा, सीना ताने खड़ा है।
अब चुप बैठना होगी कायरता,
इसीलिए मुंँह खोलना पड़ा है।
सुन बात उसकी, बंद आँख भी बोला-
सच कहा मेरे यार,
देश में फैला हिंसा, शोषण भ्रष्टाचार।
अंधेपन का नाटक और न करूँगा।
स्टिंग ऑपरेशन करूँगा, मीडिया से जुडूंँगा।
हवालों, घोटालों की पोल खोलूंँगा।
जय बापू की बोलूंँगा।
बंद कान बेहद दुःखी था
बोल भी नहीं पा रहा था।
पीटता था माथा, आंँसू बहा रहा था।
दशा देख उसकी बाक़ी दो घबरा गए।
चुपाने को उसे पास आ गए।
सुना उन्होंने, वह कह रहा था
अगर पहले ही हटा लेता
उँगलियाँ कानों से,
तो तीस जनवरी को,
अहिंसा का खून न होता
सुन लेता हत्यारे के, नापाक इरादे,
बापू को अपने यूँ न खोता।
‘ तीनों बंदर लगे सिसकने,
याद बापू की ताज़ा हो आई
बापू-जिन्होंने गीता को ज़िया था।
संदेश सत्य, अहिंसा का दिया था।
आज मंदिर मस्जिद मुंँह फेरे खड़े हैं।
आतंक ने नए-नए चेहरे धरे हैं।
बापू ओ बापू! तुम वापस आओ।
हमको फिर से सही राह दिखाओ।
साकार करो रामराज्य का सपना।
हर दीन दुखी हो बंधु अपना।
चीरती सन्नाटे को आवाज़ एक आई,
उठो, देखो, बोलो, सुनो, कहो सब।
अन्याय को बिल्कुल सहो मत।
अंधेरे पर जीत सदा उजाले ने पाई।
छोड़ो निराशा, जगाओ आशा,
लगे रहो तुम मेरे भाई।
समाधान
राम रावण युद्ध,
प्रारंभ होने को था।
सेतुबंध हो रहा था।
नल-नील के कुशल प्रबंधन में,
ऋक्ष, कपि बड़ी-बड़ी शिलाएँ लाते थे।
राम-नाम अंकित कर उन पर,
श्री राम की जयकार-जयकार के साथ,
जलधि पर तैराते थे।
बड़े बड़े पाषाण खंडों को,
पानी में तैरते देख श्री राम
थे विस्मय विमुग्ध,
सहसा विचार यह उनके मन में आया,
मैं भी फेंकू्ं पत्थर एक पानी में,
देखूं कैसे उसे जलधि ने तैराया।
तीव्र औत्सुक्य लिए,
संकल्प को कार्य रूप देने,
श्रीराम अकेले ही चल दिए,
सागर की ओर।
पवनसुत राम के अनन्य भक्त,
प्रतिपल समर्पित इष्ट के समक्ष,
भगवान को यूँ चुपचाप,
अकेले ही दूर जाते देख चकराए,
श्रीराम की सेवा का अवसर पा,
जिज्ञासा भरे पीछे-पीछे धाए।
अस्ताचल गामी था सूर्य,
लहरों का फेनिल नर्तन,
सागर का मंद्र गर्जन,
नील जल पर विकीर्ण
किरणों की इंद्रधनुषी आभा,
दूर दीप्तिमय,
लंका का प्रासाद हेममय,
अपूर्व अनुपम छटा,
निहारते रहे राम,
अनिमेष, चित्रलिखित।
सहसा ही प्रयोजन स्मरण आया।
इधर-उधर देख,
लघु पाषाण एक उठाया,
फेंका सागर-लहरों में,
पर व्यर्थ प्रयास,
सागर ने पाहन न तैराया।
कुछ पल प्रतीक्षा कर,
राम वापस ही थे मुड़े,
कि पवनसुत चरणों में पड़े,
संकोच भरे मन से,
पवनसुत को अपना,
संशय बताया।
सुंदर सहज समाधान जिसका
श्री हनुमान ने बताया।
विहंस बोले मृदुल स्वर में,
आप से परित्यक्त कोई,
भला कैसे तर सकता है?
पाहन हो या प्राणी,
आपकी शरण गह कर ही,
पार उतर सकता है।
आपकी कृपा से ही तो,
ऋक्ष-कपि सेतुबंध कर रहे हैं,
राम नाम अंकित पाहन,
तभी तो जलधि पर
तिर रहे हैं।
राम की जिज्ञासा का समाधान,
यूँ कपीश ने पूरा किया,
विहंस राम ने प्रणत कपि को,
उठा, उर से लगा लिया।
***
राम * राम * राम * राम * राम * राम
राम – राम
***
आदमी और जूता
आदमी और जूते में पुराना नाता है।
जैसे मंदिर के बिना भगवान,
लाला के बिना दुकान,
मीठे के बिना पकवान,
शैतानी के बिना शैतान,
वैसे ही जूते के बिना इंसान,
नजर आता है।
जूते का इतिहास बहुत पुराना है।
सदियों से आदमी इसका दीवाना है।
इब्नबतूता जूते के चक्कर में,
जापान घूम आया था।
वॉस्कोडिगामा और कोलम्बस को भी,
जूते ने ही रास्ता दिखाया था।
बाबर जूता पहन कर ही,
समरकंद से हिंदुस्तान आया था।
अंग्रेजों ने जहाँगीर के जूते सीधे कर
अपना जाल बिछाया था।
कोेहनूर का दाम
महाराजा रणजीत सिंह ने
एक जूता बताया था।
जूता मानव जाति की,
उन्नति का आधार है।
बिना इसके अधूरा ऋंगार है।
जूते ने बड़े-बड़े पूंजीपति बनाएँ हैं।
जूते दिखाकर, ठीक कर करवा कर,
अनेक जीवन की बाजी जीत पाए हैं।
जूता शासन भी चलाता है।
भरत जी को इसने ही
दुविधा से निकाला था।
श्रीराम की एबसेन्स में इसने ही
अयोध्या का राज्य संभाला था।
चाँदी का जूता बड़े काम आता है।
असंभव को संभव कर दिखाता है।
बड़े से बड़ा भूत,
इसकी मार से घबराता है।
लंगोटी छोड़, सिर पर धर पाँव
भाग जाता है।
अभिनय के क्षेत्र में भी इसका कमाल है।
ट्रेजडी और कॉमेडी दोनों में ही,
यह बेमिसाल है।
फ़िल्मी नायक रो नहीं पाता,
मत धबराइए,
उसे कील वाला जूता पहनाइए।
अभिनय में जान पड़ जाएगी।
रोते-रोते दर्शकों की तबीयत बिगड़ जाएगी।
जूता ही फ़िल्म में सस्पेंस बनाता, खुलवाता है।
हीरो हीरोइन की प्रेमकथा को,
क्लाईमेक्स पर पहुँचाता है।
हीरोइन सैंड़िल उठाती है,
हीरो सर झुकाता है
प्रेम परवान चढ़ता है
विलेन जूते पर जूता खाता है।
प्रोड्यूसर ख़ुशी से जूते चटखाता है।
एक जमाना था, लोग जूते को
अंडर-एस्टीमेट करते थे।
मूर्ख थे, बड़ी मिस्टेक करते थे।
अब महिमा इसकी बखूबी जान गए हैं,
इस पॉवर फुल प्रक्षेपास्त्र को,
सीधे टारगेट पर चलाते हैं।
सुर्खियों में जगह पाते हैं।
जूते होते भी तो कितने प्यारे हैं,
मंदिर की सीढ़ियों पर रखे,
स्मार्ट ब्रैंडैड जूते किसका मन
नहीं लुभाते हैं,
इसीलिए तो अक्सर गायब हो जाते हैं।
कुछ लोग अक्लमंद होते हैं
जूते बगल में दाब पूजा कर आते हैं।
एक पंथ दो काज का उदाहरण दे जाते हैं।
जूता अभिनंदन के भी काम आता है,
जूतों का हार पहना”बड़े लोगों” का
जुलूस निकाला जाता है।
जूता आपकी हैसियत की पहचान है।
जूता यदि तगड़ा है, समाज में आपकी शान है।
फटा हुआ जूता आपको मुँह चिढ़ाता है,
आपकी पंक्चर हुई ज़िंदगी की
असलियत बताता है।
आज जूते की मांग,
बढ़ती ही जा रही है।
सारी दुनिया जूते में ही
समा रही है
आप भी जूते के उपासक बनिए,
सुबहो-शाम उसकी ही महिमा गाइए
उसे सीधा कीजिए, पॉलिश लगाइए,
तकदीर आपकी संवर जाएगी।
परिभाषा ज़िंदगी की बदल जाएगी।
मिट्टी बोली
मैं मिट्टी हूँ।
सृष्टि के प्रारंभ से थी।
सृष्टि के अंत तक रहूंँगी।
साक्षी हूँ मैं युगों-युगों से,
सृष्टि के उत्थान-पतन की।
निर्माण और विनाश की।
पतझर और मधुमास की।
रूदन और हास्य की।
तांडव और लास्य की।
मैं मिट्टी हूँ।
अनेक विरोधों का सौंदर्य
समाए हूँ अपनी काया में।
मिट्टी हूँ पर मिटी नहीं।
तुच्छ हूँ, पर अनमोल
मुझ-सा कुछ भी नहीं।
मैं जड़ हूँ, मगर चेतन
जीवन उपजाती हूँ।
गर्भ में बीज को धारती हूँ,
अंकुर को उगाती हूँ।
गोद में अखिल जग को
पोसती हूँ, दुलराती हूँ।
नदियाँ बहा, वक्ष पर अपने।
वात्सल्य-सलिल बहाती हूं़।
खलिहानों में शस्य बन,
इठलाती, मुस्कराती हूंँ।
मैं मिट्टी हूँ।
कान्हा तेरा मुझ पर ही,
धुटुरुनि चला है।
उसका अनगढ़ खिलौना भी,
मैंने ही धड़ा है।
तेरे ईश्वर की मूरत भी
मैंने ही गढ़ी है।
दिया बन आरती भी
मैंने करी है।
प्रकृति संपदा सारी,
मेरे दम पर खड़ी है।
मैं मिट्टी हूँ।
मैं संस्कृति-प्रगति की
पहचान हूँ।
मानव गौरव-गाथा का
जयगान हूँ।
मैं जीवनदायिनी हूँ।
संजीवनी हूँ, प्राण हूँ।
मेरी रक्षा, रक्षा है तेरी।
यही मात्र परित्राण है।
नदियों को, स्वच्छ बहने दे।
जंगलों पर मत चला कुठार।
पेड़ों का उपहार दे मुझे,
पर्वत पर मत कर प्रहार।
मत कर बंजर मुझे,
आने दे मुझ पर बहार।
तभी उऋण होगा, मम ऋण से।
होंगे समस्त सपन साकार।
मैं माटी, कृतज्ञ बनूंँगी तब तेरी।
लुटा दूंँगी तुझ पर दुलार।
मैं मृतिका हूँ जननी तेरी,
विधाता का अनुपम उपहार।
प्रीत वाला रंग
फाग की उमंग में,
मस्ती भरी तरंग में,
होली के हुड़दंग में,
डूबा गया जग सारा,
प्रीत वाले रंग में।
कान्हा करे बरजोरी,
रोक ली राधा गोरी।
राधा लजा, मुस्काई
छीन पीतांबर, मुरली छुपाई।
हुलास अंग-अंग में।
छैला-रसिया बन-ठन घूमे।
सब जन भंग-रंग में झूमे।
धार स्वांग, खूब होए ठिठोली।
गाली भी लगे मीठी बोली।
फगुनाए फागुनी रंग में।
बैशाखी की हुई अगवानी,
खिल-खिल हंसती शस्य सुहानी।
भौंरे गाल गुलों के चूमें,
पंछी गाएँ मीठे नगमे।
मन में बजा मृदंग रे।
जले होली विद्वेष की,
विदाई हो हर क्लेश की,
इंद्रधनु उतरे धरती पर,
हर मन बन गया रंगोंली।
अब पड़े न रंग में भंग।
हुई रंगीली हर दिशा,
प्रीत वाले रंग में।
पोपल गाथा
सीता जी की खोज में गए
हनुमानजी ने लंका में,
विभीषण को पाया।
हालचाल पूछा जब,
तब विभीषण ने दुखड़ा सुनाया।
क्या बताएँ बंधु वर
हम हाल अपना।
कैसा रहना, कैसा बसना।
सुनहू पवनसुत रहनि हमारी
जिमि दसननि में जीभ बिचारी।
सच ही कहा विभीषण ने
क्योंकि लंका में राक्षस थे
सभी लंबदंत, सूर्पनख धारी।
और विभीषण बेचारा तो,
नाम का ही भीषण था,
यही थी उसकी लाचारी।
आज यही प्रश्न पूछा
हमारे मन ने हमसे
कहो भाई, कैसी कट रही है,
दुनिया में जी रहे हो।
या लाश अपनी ढो रहे हो।
सचमुच हँसते हो
या रो रहे हो?
प्रश्न पैना था
जले पर नमक छिड़क गया।
हम पहले ही ज़माने के सताए थे
बहुत चोट खाए थे।
अब अंतर ने भी,
कस कर तमाचा दिया।
संभल कर बोले।
विभीषणी दशा से तो,
हालत हमारी कुछ ही अच्छी हैं।
संदर्भ तो वहीं हैं,
बदली परिस्थिति है।
तब त्रेता युग था।
अब कलियुगी बस्ती है।
दंत नख धारी तो यहाँ भी हैं।
बहुत ही महान हस्ती हैं।
पर यहाँ कुछ पोपले भी बसते हैं।
काटने की कोशिश भी करते हैं।
पर निहित स्वार्थों के
नाकाम हो जाते हैं।
काटना छोड़ केवल भौंकते हैं।
मौके-बेमौके चाटने लग जाते हैं।
पोपली आत्मीयता दर्शाते हैं।
हम ख़ुद भी इसी श्रेणी में आते हैं।
इसीलिए तो भाई यहाँ
जी पा रहे हैं।
मरे पड़े हैं पूरी तरह,
अभिनय जीने का
किए जा रहे हैं।
ज़रूरी है यह ढोंग
प्रवंचना निरीहता की
वरना यहाँ तो ऐसे-ऐसे हैं।
जो तुम्हें कच्चा चबा जाएंगें।
तुम्हें ख़बर भी न होगी,
ये हज़म कर जाएंगे।
मरने पर तुम्हारे ये
उत्सव मनाएंगे
निमंत्रण तुम्हें भी पठाएंगे।
और तुम चूंकि पोपले हो,
कुछ भी न कर पाओगे।
उत्सव में जाेगे,
स्वांग धारोगे,
बधाइयाँ दोगे
तालियाँ बजाओगे।
महज़ दर्शक बने
जश्न अपनी बर्बादी का
देखते रह जाओगे।
क्या विभीषण बनोगे?
इतिहास दुहराओगे।
अरे विभीषण-सा साहस
कहाँ से लाओगे?
औकात है क्या
सच बोलने की?
लात रावण की सह पाेगे।
और ग़र विभीषण बन भी गए
तो राम कहाँ पाओगे?
जो तुम्हें अभय दान देगा,
लंकेश बनाएगा।
आज का कलियुगी त्राता तो।
मदद से तुम्हारी लंका जीतेगा,
तुम्हें अज्ञातवास देगा निसंकोच ख़ुद राज भोगेगा।
तुम भूमिगत हो जाओगे।
सच बोलने का इनाम पाओगे।
कोसोगे ख़ुद को, पछताओगे।
इसीलिए लिए भाई
पोपले बने रहने में ही भलाई है।
झुकना ही सनातन सच्चाई है
दुनिया इस पोपली बैसाखी पर
ही चल रही है।
दांतों के बीच जीभ
तभी तो बच रही है।
कर विषयान्तर
प्रभु मेरे,
सुना है,
तेरी इच्छा से चलता है
जग सारा।
फिर दयालु क्यों
आज परिस्थिति विकट है?
प्राणों पर गहराया संकट है।
प्रभु शरण में तेरी हम,
कुछ ऐसा चमत्कार कर।
हटे पीड़ा,
चमके सुख दिनकर।
हे प्रभु,
मैं विषयान्तर चाहती हूँ।
लिखना चाहती है
लेखनी मेरी,
आवारा नदियों,
उगते-ढलते सूरज,
गुलों की नरम पत्तियों
झूमते भौंरों, तितली,
बहकी वतास की बाबत।
गुन गुनाना चाहतीं हैं
ग़ज़लें मेरी
मैदानों में दौड़ लगाती,
हँसती, खिलखिलाती
मासूम खुशियों को।
बुनना चाहती हैं
मेरी क़लम सलाइयाँ
महफिल सजा बतियाते
प्रौढों की ज़िन्दगी के
सतरंगी रंगों का गलीचा
जिसके रंग अभी चटख हैं।
जिस पर कूदफांद कर
नई पीढ़ी लक्ष्य छू पाई है।
सुनाना चाहतीं हैं
कहानियाँ मेरी
राजा, रानी, पंछी
और परियों के किस्से
अबोध, चकित विमुग्ध
नयनों से निहारते
दादी नानी की
गोद में मस्त पसरे
शैशव को।
कर्म-पथ पर मुस्तैद डटी,
मजबूत कंधों वाली
युवा पीढ़ी की पीठ,
थपथपाना चाहते हैं
शब्द मेरे।
गलबहियांँ डाले
बतियाती, इठलाती, इतराती
मित्रों की टोली की
बेलौस बातों को
विषय बनाना चाहती हूँ
मैं अपनी कविता का।
चाहती हूँ
जीवन गीत के विधान को,
सुर-ताल से सजाना।
जिंदगी के मेले ठेले,
गहमा गहमियों,
विविधता को
उतारना चाहती हूँ
काव्य में अपने।
छिटकाना चाहती हूँ
आस की उजास।
होगा यह,
विश्वास है मुझे,
पर चाहिए तेरी कृपा,
धीरज तुझसे।
रख दो प्रभु अपना
आशीष भरा, वरद हस्त
इस व्यथित जग के सिर पर।
अभयदान दो प्रभु।
हर पीड़ा लो हर।
करो विषयान्तर।
भय त्रास छंटे,
विश्वास जगे।
जीवन का गूंजे
सहज स्वर।
प्रभु कर विषयान्तर।
वीणा गुप्त
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