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फागुन (Holi) आया
व्यस्तताओं के कारण कई दिनों के बाद आज लौटा हूँ परिकल्पना पर। इस बार मैंने फागुन (Holi) पर कुछ भी नहीं लिखा… न कोई कविता… न कोई गीत… न कोई ग़ज़ल …! अब चूँकि फागुन जाने को है और परिकल्पना पर फागुन की चर्चा न हो तो बेमानी होगी, इसलिए मैंने सोचा कि आज अतीत के आईनों में झाँक कर फागुन को देखने की कोशिश की जाए।
आईये देखते हैं हिन्दी साहित्य में फागुन (Holi) की गंध-शुरुआत करते हैं फणीश्वर नाथ रेणु से, हिन्दी साहित्य को अमर उपन्यास देने वाले फणीश्वर नाथ रेणु के बहुचर्चित आंचलिक उपन्यास “मैला आँचल” में फाग गीत अथवा ऋतुगीत के नाम से गाये जाने वाले लोक गीतों का बड़ा ही मार्मिक व् सटीक उपयोग हुआ है, जिसमें से एक है कान्हा के रंगीले मोहक मिज़ाज का मोहमय वर्णन, जो इस प्रकार है-
“अरे बहियाँ पकडि झकझोरे श्याम रे
फूटल रेसम जोड़ी चूडी
मसुकी गयी चोली भिंगावल साडी
आँचल उडि जाए हो
ऐसी होरी मचायो श्याम रे …!”
मैला आँचल में एक पात्र है फुलिया जिसने रमजू की स्त्री के आँगन में खलासी जी से भेंट करके कहा था कि “इस साल होली नैहर में ही मनाने दो” मन की मस्ती भरी इस इच्छा को गीत के रूप में इस प्रकार उडेला गया है-
“नयना मिलानी करी ले रे सईयाँ
नयना मिलानी करी ले
अब की बेर हम नैहर रहिबो
जो दिल चाहे सो करी ले …!”
आईये एक ऐसे कवि की चर्चा करते हैं जिन्होंने हिन्दी साहित्य को गीत विधा का नया रूप ही नहीं दिया अपितु गीत के माध्यम से हिन्दी साहित्य को नया आयाम भी दिया, नाम है गोपाल सिंह नेपाली जिन्होंने होली पर अपनी अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार दी है-
” बरस-बरस पर आती होली,
रंगों का त्यौहार अनूठा
चुनरी इधर, उधर पिचकारी,
गाल-भाल पर कुमकुम फूटा
लाल-लाल बन जाते काले,
गोरी सूरत पीली-नीली,
मेरा देश बड़ा गर्वीला,
रीति-रसम-ऋतु रंग-रगीली,
नीले नभ पर बादल काले,
हरियाली में सरसों पीली! “
यह गीत उन्होंने वर्ष १९५७ में लिखी, जो आज भी प्रासंगिक है। कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने फागुन का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है-
” सखि, बसंत आया।
भरा हर्ष बन के मन, नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव-वय लतिका
मिली मधुर प्रिय-उर तरु पतिका,
मधुप-वृन्द वंदी पिक-स्वर नभ सरसाया।
सखि, बसंत आया। “
वहीं डा० हरिवंश राय बच्चन की नज़रों में होली ऐसी है-
” एक बरस में एक बार ही
जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाजी,
जलती दीपो की माला,
दुनिया वालों, किंतु किसी दिन
आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली,
रोज मनाती मधुशाला! “
प्रखर गीतकार गोपाल दास नीरज की नज़रों में बसंत कुछ ऐसा है-
” आज वसंत की रात,
गमन की बात न करना।
धूल बिछाए फूल-खिलौना,
बगिया पहने चांदी-सोना,
कलियाँ फेंके जादू-टोना,
महक उठे सब पात,
हवन की बात न करना। “
जबकि इससे अलग हटकर मेरे एक वरिष्ठ मित्र श्री राम दुबे का कहना है, कि-
” अपने हाथों ख़ुद ही लेना, मुट्ठी भर आकाश,
जो बाहों में भर ले पगले, उसका ही मधुमास …! “
इस सन्दर्भ में मेरा मानना है कि-” जीवन रुपी प्रवृतियों के कलश में सामूहिकता का रंग भरना ही होली है… रंगों का यह निश्छल त्यौहार आप और आपके परिवारजन के स्वस्थ प्रवृतियों का शृंगार करे …आत्मिक शक्तियों का विकास करे …रखे उल्लासित, उत्साहित और प्रसन्नचित हमेशा …संचारित करे चेतना में सदिच्छा-सदभाव-सदाचार …आप सभी के लिए होली मंगलमय हो …!
उम्मीद न करें थके हारे अधमरों से
अब सवाल यह उठने लगे हैं कि देश किन पर भरोसा करे। समाज किनसे उम्मीदें रखें और कौन समाज व देश के लिए सर्वस्व बलिदान को तैयार है। यहाँ बात सेना और हमारे कर्णधारों की नहीं बल्कि उन लोगों की हो रही है जो पैसा पूरा चाहते हैं, सभी प्रकार के संसाधनों का उपयोग करना चाहते हैं, हर जगह अपने अन्यतम प्रभुत्व और प्रतिष्ठा को चाहने के लिए सब कुछ करने को तैयार रहते हैं और यह सब पा जाने के लिए ये लोग दुनिया के सारे काम कर सकते हैं, सिवाय अपने निर्धारित कर्म के।
ख़ुद के जिम्मे के कामों को छोड़कर ये लोग दूसरा कुछ भी कर सकते हैं। इनसे अपने काम के सिवा कुछ भी करा लो, हरदम तैयार रहते हैं। अपने दायित्वों से कहीं अधिक आनंद इन लोगों को दूसरे कामों में आता है और उनकी यह आदत ज़िन्दगी भर बनी रहती है। इससे इन लोगों को अनिर्वचनीय सुकून मिलता है, भले ही दूसरे लोगों को उनकी यह आदत कितना ही परेशान करे, चक्कर कटवाए और दुःखी करे। हर इंसान में भरपूर क्षमता विद्यमान होती है। लेकिन अधिकांश लोग इसका इस्तेमाल नहीं करते।
बहुत सारे लोग आजकल इतने प्रमादी और आलसी हो गए हैं कि जानबूझकर कोई काम करना नहीं चाहते। अपने आपको जन्मजात निकम्मा और नुगरा सिद्ध करते हुए बिना काम के धींगामस्ती करने वाले और मौज उड़ाने वालों की अब कोई कमी नहीं रही। हर जगह अब इन लोगों का जमघट रहने लगा है।
कोई-सा काम बताने पर ये लोग हमेशा यही प्रयास करते हैं कि जैसे भी हो, काम टाला जाए या दूसरे के पाले में डाल दिया जाए। इन लोगों की पूरी मानसिकता पलायनवादी होती है और इस वज़ह से प्रथम दृष्ट्या ये लोग यही प्रयास करते हैं कि कामों से सायास दूरी बनाये रखी जाए और जैसे भी हो यही हो कि काम अपने पास आए ही नहीं।
अपने आपको द्वीप की तरह ढाल लेने वाले इन लोगों के पास हज़ार बहाने हमेशा तैयार रहते हैं। इसके बावजूद कोई-सा काम आ ही जाए तब ये बेमन से काम करते हुए अपने आपको इतना अधिक थका-हारा और अधमरा दिखाते हैं कि कुछ नहीं कहा जा सकता। समझदार लोगों के लिए इनकी अधमरी दीन दशा और स्वाँग धर्मसंकट की स्थिति पैदा कर देते हैं कि इन लोगों की इस विचित्र दशा पर रोया जाए कि इन पर दया-करुणा का भाव रखा जाए। तकरीबन हर बाड़े में कुछेक लोग ऎसे होते ही होते हैं जो हर तरह से यह प्रयास करते हैं कि कम से कम काम करना पड़े और बिना कोई मेहनत किए अधिक से अधिक प्राप्ति होती रहे।
इन लोगों की पूरी ज़िन्दगी अस्त-व्यस्त रहती है इसलिए न टाईम पर आ सकते हैं, न टाईम पर कोई काम कर सकते हैं। हर सौंपा हुआ काम इन्हें अपने भार से भी अधिक भारी लगता है इसलिए अपने कामों को करने में मौत ही आ जाती है। फिर आजकल बहुत से लोग हैं जो अपने आपको लाटसाहब या भाग्य निर्माता समझते हैं या कि किसी बड़े आदमी के अनुचर होने का दंभ भरते हैं। इनकी स्वाधीनता, उद्दण्डता, उन्माद, उन्मुक्तता और स्वेच्छाचारिता के बारे में कुछ कहना भी निरापद नहीं होता।
इसलिए इस क़िस्म के लोगों को न कोई छेड़ता है, न इनके बारे में कोई टिप्पणी करना पसंद करता है क्योंकि आदमी अपने आपे में हो, अपने आप में हो तब तो किसी को भी समझाया जा सकता है लेकिन जब आदमी किसी बड़े आदमी का पालतु हो जाता है तब उसे सभी समझदार लोग फालतू समझकर उपेक्षित कर दिया करते हैं।
और यही बात इन लोगों के हक़ में होती है जो उन्हें स्वेच्छाचार के लिए इतना अधिक स्वतंत्र कर दिया करती है कि फिर इन लोगों का जीवन आवारा साण्डों की तरह हो जाता है। इससे भी अधिक हुनर हो तो ये उन्मादी श्वानों की तरह बन जाते हैं, जिन्हें पूरी स्वतंत्रता है कि कहीं भी भौंक सकते हैं, किसी के भी पीछे लपक सकते हैं और चाहे उसे काट भी सकते हैं। यह तो गनीमत है कि ऎसे थके-हारे और अधमरे या शातिर लोग बाड़ों के भीतर हैं, सीमाओं पर होते तो पता नहीं हम कब से इनके कुकर्मों का शिकार होकर फिर से गुलामी के भँवर में फंस गए होते।
इसी बात को खैरियत मानकर चलना होगा वरना पृथ्वी पर कोई भार है तो ये ही लोग हैं जो जानबूझकर देश का पैसा खा रहे हैं और काम के मामले में जीरो। अपने आस-पास भी ऎसे लोग हों तो इनसे कोई उम्मीद न रखें वरना न कोई काम हो पाएगा, न जीने का सुकून मिल पाएगा।
ये थके-हारे और अधमरे पालतु, फालतु और खुराफाती लोग ही ज़िम्मेदार हैं जिनकी वज़ह से देश सब कुछ होते हुए भी तरक्क़ी नहीं कर पा रहा है। इनके अस्तित्व को न चुनौती दें, न इनके बारे में चर्चा करें। समाज और देश का भला चाहें तो इतना ही कर दें कि दूसरे लोगों को न बिगड़ने दें वरना छूत की यह घातक महामारी सभी को ले डूबेगी।
तुलसी चौधरी
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