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हिंदुस्तान (Hindustan) में रह कर हिंदुस्तान के नियम नहीं माने तो यह दादागिरी से कम नहीं है
हिंदुस्तान (Hindustan) में रह कर हिंदुस्तान के नियम नहीं माने तो यह दादागिरी से कम नहीं है: व्यक्ति या विचाराधारा नहीं राष्ट्र महत्त्वपूर्ण है” ये इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को सीखना पड़ेगा। एक लोकतांत्रिक देश के आंतरिक मसलों में ट्वीटर जैसे किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का दखल देश की संप्रभुता से समझौता कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता है। फैक्ट्स चेक के नाम पर सरकार के मामलों में दखल देने का अधिकार एक कंपनी को किसने दिया?
अगर वह पारदर्शिता के नाम पर ऐसा करना भी चाहती है तो उसको भी पारदर्शिता का नमूना पेश करना होगा। अकाउंट वेरिफिकेशन के जो हवाला दिया जा रहा है औऱ नियमावली बताई जा रही है उस आधार पर तथाकथित नेक निर्भीक औऱ निडर पत्रकारिता का प्रमाण पत्र देकर स्वयंभू निष्पक्ष पत्रकार कहलाने वाले वामपंथी पत्रकार का अकाउंट ४ साल तक सक्रिय नहीं रहा। वर्तमान में भी ताज़ा हालात देखे तो भी चार माह तक उनका ट्विटर अकाउंट सक्रीय नहीं है तो फिर दोहरे मापदंड क्यो। देश के उप राष्ट्रपति के अकाउंट से छेड़छाड़ करना भी लोकतांत्रिक देश को चुनौती देने जैसा ही है। दुहाई दी जाती है अभिव्यक्ति की आजादी की।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अभिव्यक्ति की आजादी सिखाना हास्यप्रद है…! बेहतर तो ये होता की ट्विटर जैसी कंपनिया अपने फैक्ट्स चेक के स्रोत बताएँ और फैक्ट्स चेक के नाम पर किसी विचारधारा के संगी न बनकर एक निष्पक्ष मंच बनकर उभरे और लोगों का भरोसा जीते। प्रत्येक देश के नियम-कानून के दायरे में रहकर काम करे जिससे देश की आन्तरिक सुरक्षा को नुक़सान नहीं पहुँचे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी व्यक्ति या समूह की विचारधारा के समर्थन की आजादी नहीं दी जानी चाहिए।
देश में कौनसा कानून सही है एवं कोनसा ग़लत यह समीक्षा करने के लिए १३५ करोङ लोगों द्वारा चुनी हुई सरकार तय करेगी ना कि विदेशी एजेंडा चलाने वाले मुट्ठी भर लोग। अगर आज सरकारऔऱ विपक्ष उनके प्रति लचीलापन दिखाकर कोई कार्यवाही नहीं करती है तो सायद आने वाले समय में ग़लत परम्पराओं का चलन हो जाएगा। सरकारें तो आज किसी दल की है और कल किसी अन्य दल की होगी। हम आपस में विचारधाओ के आधार पर वैचारिक मतभेदों की लड़ाई लोकतांत्रिक तरीके से लड़ते रहेंगे लेकिन विदेशी ताकतो को मज़बूत होने से रोकना होगा।
हर जगह अभिव्यक्ति की आजादी का नंगा नाच करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। अभिव्यक्ति की आजादी हिंदुस्तान में कितनी है इसका प्रमाण पत्र किसी अन्य प्लेटफार्म से लेने की ज़रूरत नहीं है विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को अभिव्यक्ति की आजादी सिखाना सूर्य को दीपक दिखाने की तरह है। विशेष एजेंडे के तहत अभिव्यक्ति की आजादी देना भी देश के लिए घातक है।
खैर जिस तरीके से पिछले कुछ दिनों से ट्वीटर और सरकार के बीच तनातनी हुई है ट्वीटर ने उपराष्ट्रपति, भारतीय स्वयंसेवक संघ के कईं पदाधिकारियों सहित कुछ संघ की विचारधारा के लोगों के खाते से ब्लू टिक हटाया वह साफ़ जाहिर करता है कि ट्वीटर बदले की भावना के साथ एक ख़ास एजेंडा चला रहा है। भारत जैसे विशाल देश जहाँ ट्वीटर के सबसे ज़्यादा उपयोगकर्ता हैं अगर ट्वीटर पर कठोर कारवाई होती है तो यह ट्वीटर के सबसे बड़े बाज़ार को समेटने में समय नहीं लगेगा। भारत की स्वदेशी कम्पनियों ने कु नाम का एप लॉन्च कर दिया है जो ट्वीटर का विकल्प साबित हो सकता है। अब आत्मनिर्भर भारत औऱ स्वदेशी की दुहाई देने वालो को ट्वीटर जैसे बड़े प्लेटफार्म की मनमर्जी के खिलाफ आवाज़ उठाकर दूसरा सोशियल मंच तैयार करना होगा लेकिन इतना आसान भी नहीं है।
ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि हिंदुस्तान के करोड़ों लोग ट्वीटर जैसे प्लेटफार्म से जुड़े है विशेषकर राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े धुरंधर तो घर की चार दिवारी औऱ वातानुकूलित कमरे से ट्वीटर के माध्यम से ही राजनीति करते है। पक्ष औऱ विपक्ष में आरोपो औऱ प्रत्यारोपो का घमासान भी ट्वीटर पर ही देखने को मिलता हैहिंदुस्तान में ५३ करोड़ के आसपास वॉट्सऐप, ४५ करोड़ के आसपास फ़ेसबुक, २ करोड़ के आसपास ट्वीटर व ७० हज़ार के आसपास कू एप के यूजर है। इससे हम अंदाजा लगा सकते है कि सोशियल मीडिया का कितना नेटवर्क है भारत मे। सब अपनी-अपनी बात रख रहे औऱ विचारों का आदान प्रदान कर रहे है ऐसे में सिर्फ़ ट्वीटर की मनमर्जी और एक तरफा फ़ैसला लेने की नीति का भारत में स्वागत नहीं किया जा सकता। एक मैकेनिज्म तो बनाना होगा कि शिकायकर्ता अपनी बात कौनसे प्लेटफार्म पर रखे।
नए कानून समाज में नफ़रत फैलाने वाले लोगों पर रोक लगाने के लिए लाए है तो फिर आपत्ति किस बात की। उस नियमों में तो बड़ा से बड़ा व्यक्ति भी ग़लत कंटेंट पर पकड़ा जाएगा औऱ एकतरफा कार्यवाही का अंदेशा नहीं रहेगा। आलोचना औऱ आलोचक लोकतंत्र व किसी भी संस्था को मज़बूत करते है फिर हमें इससे बचने की बजाय अपने में सुधार करने पर ज़ोर देना चाहिये। आलोचना सरकारो की पहले भी होती रही है औऱ अब भी होती रहेगी।
मुझे जहाँ तक विदित है कि वर्तमान प्रधानमंत्री की आलोचना भी हमें सकारात्मक नजरिये से देखनी होगी। इस समय सभी भारतीयों को एकजुट हो कर यह दर्शाना है कि हम वैचारिक मतभेदों से लोकतांत्रिक तरीके से आपस में लड़ेंगे पर किसी विदेशी ताकतों को हावी नहीं होने देंगे। ट्वीटर को भी यह समझना होगा कि हिंदुस्तान में फुट डालने की मंशा कामयाब नहीं होंगी। समानता का व्यवहार तो ट्वीटर को सीखना ही होगा विशेषकर हिंदुस्तान के संदर्भ में॥
कॉंग्रेस से गुलाम हुए आजाद तो शर्मा को भी नहीं आ रहा है आनंद…
आज से कुछ महीनों पहले जब मैंने सबकी कॉंग्रेस बनी घर की कॉंग्रेस शीर्षक से सम्पादकीय लिखा था तब न जाने मुझे कौन-कौन से शब्दों की उपाधि दी गई थी यह मैं नहीं बता सकता। जितना ज़ोर मुझे शब्दों से नवाजने पर लगाया उतना ज़ोर संपादकीय में बताई गई बातों पर लगाया होता तो सायद लगभग ४९ साल के कॉंग्रेस के सिपाही पार्टी नहीं छोड़ते। हमें संगठन या संस्था का नेतृत्व करते समय अपनी कमजोरियों को गहराई से समझने की काबिलियत भी रखनी होती है।
गुलाम नबी आजाद कॉंग्रेस से आजाद शौक से नहीं हुए है कुछ तो पार्टी छोड़ने की मजबूरी रही होगी। पार्टी के साथ जुड़ाव के बारे में कहाँ से शुरू करू मुझे ख़ुद को समझ में नहीं आ रहा है। अनुभव का तो अथाह सागर भरा हुआ था। मेरे जीवन का पहला सूरज ऊँगा तब वह सांसद बने औऱ लगभग उसके दो साल बाद वह मंत्री भी बने। कॉंग्रेस पार्टी के संगठन में लगभग ३५ वर्ष तक महासचिव के पद पर रहे औऱ ४९ साल तक कॉंग्रेस से वैचारिक रूप से जुड़े रहे।
कॉंग्रेस नेतृत्व वाली सरकारों में चार बार मंत्री भी रहे। अब ज़रा सोचिए जिस व्यक्ति ने अब तक का सम्पूर्ण समय कॉंग्रेस पार्टी को दिया हो वह पार्टी छोड़कर जा रहे है तो कही न कही पार्टी को मंथन की आवश्यकता तो है। अब अगर कोई अपनी अक्कड़ की वज़ह से अथवा पार्टी पर एकाधिकार का सिद्धांत मानते हुए मंथन नहीं करते है तो यह उनकी स्वतंत्रता है। वैसे मुझे व्यक्तिगत तौर पर कतई उम्मीद नहीं है कि कॉंग्रेस पार्टी परिवार के दायरे से बाहर निकल कर हिंदुस्तान की जनता के लिए मंथन करेगी। कॉंग्रेस का कमजोर होना हिंदुस्तान के लोकतंत्र की सेहत के लिए बहुत ही खराब है।
जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री ने पांच पन्नो की लिखी चिठ्ठी में पांच महत्त्वपूर्ण बात बताई जो लोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टियों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। मैं एक बात बड़ी साफगोई से कहूँगा की कुछ लोगों द्वारा ही फैसले लिए जाने समस्या एक कॉंग्रेस पार्टी में ही नहीं है, यह समस्या वर्तमान में हर राजनीतिक दलों में है। भाजपा में मुझे नहीं लगता कि कोई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी औऱ अमित शाह द्वारा लिए गए फैसले पर कोई बोलने की हिम्मत कर सकता है।
यही हालात आम आदमी पार्टी, राजद, जनता दल (यू) समाजवादी पार्टी अथवा अन्य क्षेत्रीय पार्टियों में भी है। अपने आकाओं के ग़लत फैसलों के खिलाफ जाने की बजाय गर्दन हिलाने में ही कार्यकर्ता अपनी भलाई समझते है। यही व्यवस्था हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ध्वस्त कर रही है। एक तर्क आप लोगों का यह हो सकता कि है कि पार्टी छोड़ने की बजाय सुधार करते तो बेहतर रहता पर यह तभी संभव है जब आप द्वारा बताई गई कमियो को स्वीकारा जाए।
कॉंग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी का पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं होना ही इस बात का प्रमाण है कॉंग्रेस की आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था कितनी चरमराई हुई थी। कॉंग्रेस पार्टी में पूर्णकालिक अध्यक्ष की माँग लगभग पिछले कई महिनों से उठ रही है। पार्टी टस से मस नहीं हो रही है। मुझे तो अब यह लग रहा है आने वाले दिनों में कही आनंद शर्मा भी अपने पद से इस्तीफा नहीं दे दे। कॉंग्रेस पार्टी को राजशाही के नजरिए से बाहर निकलने की आवश्यकता है।
बेशक कॉंग्रेस पार्टी ने महंगाई, बेरोजगारी औऱ राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर सरकार कटघरे में खड़ा किया लेकिन उनको उतना जन समर्थन नहीं मिल रहा है जितना मिलना चाहिए। यह भी तो कड़वी सच्चाई है। पार्टी को समय रहते मंथन करके अपने वरिष्ठ नेताओं की बात सुननी होगी। आज जो कॉंग्रेस पार्टी में विभिन्न पदो पर बैठे है उनकी भी यह जिम्मेदारी है कि आलाकमान को अंधेरे में नहीं रखे। सच्चाई से अवगत करवाये और संगठन को मजबूती देने में वरिष्ठ लोगों को जिम्मेदारी सौंपी जाए। कुछ फैसलो में उनकी राय भी ली जाय…
जतिन तो गए, अब क्या पायलट औऱ मिलिंद देवड़ा को कॉंग्रेस रोक पाएगी?
राजनीति अनिश्चितता का खेल है औऱ यह कई बार सिद्ध भी हुआ है औऱ आगे भी होगा। इसके पीछे कारण यही है कि राजनीति में न तो नैतिकता का कोई महत्त्व है न ही कोई विचारधाओ का। प्रत्येक राजनेता जब राजनीति की नर्सरी में पक कर बाहर जनता के सामने जाते है अथवा मीडिया के सामने नए नवेले नेता सफेद वेशभूषा धारण करके आते है तब पहला उद्बोधन उनका यहीं होता है कि जनता औऱ देश की सेवा करने के लिए राजनीति में आया हूँ औऱ मैं मेरी पार्टी के आदर्श और सिद्धांत को मानते हुए जनता की सेवा करूँगा।
यह रटा रटाया बयान आपको अमूमन सुनने को मिलता है और दूसरे दिन मीडिया में बड़ी ख़बर बनती है। अमुक नेताजी ने अमुक पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। नेताजी भी मीडिया बाजी को देखकर अपनी चौकड़ी तैयार करते है। इसमें चौकड़ी का भी उल्लू सीधा होता है साथ में नए नेताजी को राजनीति करने के आसपास लोगों के जमावड़े की ज़रूरत रहती है तो उनका भी काम हो जाता है।
समय बीत जाता है। साल में ३६५ दिन होते है तो बीतने में समय नहीं लगता। धीरे-धीरे नेताजी के सपनो की चादर धुंधली होती जाती है। अरमानों का गला घोंट दिया जाता है। नेताजी को अपने अरमान औऱ सपने पूरे होते नहीं दिखते तब राजनीति की नीति दलबदलू पर चलना शुरू करते है। जिस पार्टी से नैतिकता की वेशभूषा औऱ सिद्धांतो का चोला ओढ़ा था वह वापस उतारकर उसी पार्टी के कार्यालय में टाँग कर अलविदा कहते भी समय नहीं लगाते है। यह उठापटक चुनावी मौसम और उसके बाद बनने वाले सत्ता के समीकरण के आधार पर ज़्यादा देखने को मिलते है। मेरे निजी विचारों में राजनीति की यात्रा में जितना महत्त्व कुर्सी को दिया जाता है उतना महत्त्व सेवा को शायद ही कोई राजनेता देता हो क्योंकि की सेवा बिना राजनीति जितनी ज़्यादा कर सकते है उतनी राजनीति में नहीं होती।
उदाहरण के लिए हिंदुस्तान में वैश्विक महामारी में जितना सहयोग भामाशाह औऱ समाज सेवी संस्थाओं और लोगों ने किया उतना राजनेताओं से हम आशा नहीं रख सकते थे। अगर सेवा का भाव राजनीति में होता तो कोरोना का सक्रमण इतना नहीं फैलता औऱ दोषारोपण की राजनीति शुरू नहीं होती। टीके विदेश में गए सवाल उठे औऱ उठने भी चाहिए थे पर राज्यों ने बर्बाद किये तब सवाल नहीं उठे। कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं। बात घूम-फिर कर वापस वही आती है कि क्या राजनीति में कोई नैतिकता औऱ सिद्धान होते है। त्याग औऱ समर्पण होता है। तो यह हिंदुस्तान की राजनीति में कड़वी सच्चाई है कि समयनुसार यहाँ पर विचारधारा, नैतिकता औऱ सिद्धांतो का हवाला देकर राजनीतिक समझौते हुए-हुए है। जो नेता एक दूसरे को पानी पी-पी कर कोसते थे वह सत्ता की मलाई चखने के लिए साथ आ जाते है।
अगर राजनीति में विचारधारा का महत्त्व होता तो जम्मू कश्मीर में भाजपा कभी टीडीपी के साथ सरकार नहीं बनाती, महाराष्ट्र में शिवसेना कभी कॉंग्रेस औऱ एनसीपी के साथ सरकार नहीं बनाती और तो और उत्तरप्रदेश में बहन मायावती की पार्टी कभी नेताजी मुलायम सिंह यादव की पार्टी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करती है। ऐसे ढेरो उदाहरण देखने को मिलेंगे जब राजनीतिक पंडितों के अनुमानों पर पानी फिरा हो। मैं व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यह ज़रूर कह सकता हूँ कि किसी भी पार्टी का सदस्य अगर दल बदल करके दूसरी पार्टी की सदस्यता ग्रहण करता है तो ज़रूर उसकी विश्वनीयता पर प्रश्न चिह्न लगना चाहिए। चुनांवो के मौसम में इधर उधर होने वाले नेता अथवा चुनांवो के समय धन बल के बलबूते पर टीकट लाने वाले लोगों को जनता समय-समय पर आइना दिखाती है पर जब किसी ने नैतिकता को ही तिलांजलि दे दी हो तो उनसे आशा रखना व्यर्थ है।
पश्चिमी बंगाल में हाल ही में हुए दलबदलुओं की जनता ने क्या हालत की है यह हमारे सामने है। विडंबना देखिए हिंदुस्तान के लोकतंत्र की जो कल तक कॉंग्रेस पार्टी के गुण गाते थे वह आज भाजपा में शामिल होकर कॉंग्रेस के खिलाफ बोलेंगे। भाजपा में लोगों को भविष्य नज़र आ रहा है औऱ लोग पलायन कर रहे है पर मैं समझता हूँ कि मूल विचारधारा को छोड़कर दूसरों की विचारधारा में समन्वय बनाना बहुत ही मुश्किल काम है। भाजपा तो चाहेगी की कॉंग्रेस के कद्दावर नेता पार्टी छोड़े अब कॉंग्रेस को अपना कुनबा मज़बूत रख कर युवाओं को पलायन से रोकना होगा। कई ऐसा न हो कि ज्योति राजे सिंधिया के बाद जतिन प्रसाद औऱ आने वाले समय में सचिन पायलट या फिर मिलिंद देवड़ा भाजपा का दुप्पटा धारण कर ले। यह प्रश्न आम नागरिक के मन में भी है। कॉंग्रेस के सामने भी युवाओं के राजनीतिक पलायन रोकने की भारी चुनौती है अब उस चुनौती का सामना करने में कितनी खरी उतरती है यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा।
सांचौर की मूर्ति विश्नोई चंड़ीगढ़ में नर्सिंग ऑफिसर के रूप में कर रही है मानव सेवा
कोरोना जैसी वैश्विक महामारी ने पूरे विश्व में त्राही-त्राही मचाई है। हिंदुस्तान भी इससे अछूता नहीं रहा औऱ कोरोना की इस दूसरी लहर से जितनी जन हानि हुई है वह कल्पनाओं से बाहर है। हर तरफ़ निराशावादी माहौल है। ऐसे माहौल में इंसानो के लिए अपनी स्वंय जान जोखिम में डाल कर चिकित्सा विभाग के चिकित्सकों के साथ नर्सिंग स्टाफ भी उनका कंधे से कंधा मिलाकर साथ दे रहा है। राजस्थान के नर्सिंगकर्मी भी विभिन्न प्रदेशों के चिकित्सालयों में अपने परिवार के साथ बाल बच्चों को छोड़कर सेवा दे रहे है।
वास्तव में आज के ह्रदयविदारक माहौल में हर किसी को एक आशा हैं तो वह हैं चिकित्सा कर्मियों से, जिन्हें धरती के भगवान कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कुछ चिकित्सालयों में तो महिला नर्सिंगकर्मी अपने छोटे बच्चों को परिवार के भरोसे छोड़कर दिन रात सेवा में लगी हुई है।
ऐसा ही उदाहरण सांचौर निवासी मूर्ति विश्नोई का देखने को मिला। प्राप्त जानकारी के अनुसार महिला नर्सिंगकर्मी मूर्ति बिश्नोई अपने घर से करीब दो हज़ार किलोमीटर दूर चंडीगढ़ के सरकारी अस्पताल में अपनी सेवाएँ दे रहीं हैं। लाज़मी है कि इस कठिन दौर में कोरोना महामारी में अपनी सेवा देना किसी तपस्या से कम नहीं है। अगर उनकी पारिवारिक औऱ सामाजिक जीवन की पृष्ठभूमि पर अगर नज़र घुमाए तो मूर्ति बिश्नोई का जन्म जालोर जिले के सांचोर उपखंड में स्थित मीरपुरा गॉव में एक मध्यम वर्गीय शिक्षक परिवार में हुआ। उनके पिताजी प्रेमाराम पुनिया अभी भी सरकारी शिक्षक के रूप में राजकीय विद्यालय में अपनी सेवा दे रहे है। मूर्ति बिश्नोई की स्कूली शिक्षा राजकीय विद्यालय में हुई औऱ नर्सिंग प्रशिक्षण जोधपुर के आरजीएम कॉलेज से प्राप्त किया। प्रशिक्षण के पश्चात ३ साल तक कठिन प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करने के बाद मूर्ति विश्नोई का चयन राजकीय सेवा में महिला नर्सिंग आफिसर के रूप में चंडीगढ़ के जीएमसीएच हॉस्पिटल में हुआ औऱ आज भी उसी अस्तपाल में सफल नर्सिंग ऑफिसर के रूप में अभी भी सेवा दे रहीं है।
कोविड महामारी में सेवा के अनुभव को सांझा करते हुए बताती हैं कि महामारी का ख़ौफ़ सभी में हैं मानव सेवा का धर्म निभा रही हूँ। उन्होंने कहा कि परिवार से अलग रह कर कोरोना पीड़ितों के बीच अपनी सेवा देना तपस्या से कम नहीं है। कोरोना की इस दूसरी लहर में आईसीयू के अंदर चारों तरफ़ क्रिटिकल कंडीशन वाले मरीजों देखने को मिलते है। उनकी स्थिति को देखकर भावविभोर तो होती ही साथ अपना फ़र्ज़ भी बड़े आत्मविश्वास के साथ निभाती हु। अस्तपताल में क़दम रखते ही ईश्वर से यहीं प्रार्थना करती हूँ कि मेरी देखरेख में एक भी मरीज को जान गवानी नहीं पड़े पर कुछ नहीं बच नहीं पाते हैं इसका दुख भी होता हैं।
इस भयावह माहौल में ख़ुद को भी सुरक्षित रखना होता है। ऐसे माहौल में अपने आप को सुरक्षित रखना बेहद मुश्किल काम हैं फिर भी ईश्वर दुआ से स्वस्थ हूँ औऱ अपने फ़र्ज़ को बड़े ही आत्मविश्वास से निभा रहीं हूँ। सभी आमजन से मेरी एक ही अपील है कि अपने आप को घरों में ही क़ैद रखे। मास्क को जीवन का भाग बनाये औऱ दो गज की दूरी का ख़्याल रखें। इस बीमारी का सबसे बड़ा इलाज़ बचाव ही है।
अगर माधाराम सुथार ईश्वर नहीं तो ईश्वर से कम भी तो नहीं है अनिल देवासी के वास्ते
जहाँ चाह वहाँ राह औऱ अभावों में प्रभाव दिखाकर किसी जटिल कार्य को करके कोई अगर इंसान की ज़िन्दगी बचा ले तो वह अगर ईश्वर नहीं तो ईश्वर से कम भी नहीं है। किसी के घर के चिराग को बुझने से बचाना सबसे बड़ा काम है। जी, हाँ। मैं बात कर रहा हूँ राजस्थान के जालौर जिले के सांचौर तहसील मुख्यालय से मात्र ५ किलोमीटर दूर लाछड़ी गाँव में बोरवेल में गिरे ४ वर्षीय बालक अनील देवासी की औऱ उसकी जान बचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले माधाराम सुथार की।
जालौर जिले के बागोड़ा तहसील स्थित कूका मेड़ा गाँव में जन्मे माधाराम सुथार बोरवेल में गिरे अनील देवासी औऱ उनके परिवार के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं थे। बुझते हुए घर के चिराग को नई रोशनी दी है माधाराम सुथार ने। कूका निवासी माधाराम ने प्रशासनिक जाब्ते की उपस्थिति में अनील देवासी को जीवित बाहर निकाल कर अपनी दिमागी मेहनत का तो लोहा मनवाया ही एक बच्चे के जीवन यात्रा में नए पहिए जोड़े है।
लाछड़ी में हुए घटनाक्रम की पूरी जानकारी आमजन को मीडिया औऱ सोशियल मीडिया के माध्यम से वैसे मिल चुकी है फिर भी थोड़े शब्दों में बताना भी उचित रहेगा। गुरुवार को सुबह दस बजे के आसपास जैसे ही अनील खेलते-खेलते बोरवेल में गिरा तो परिवार के होश ही उड़ गए औऱ स्वाभाविक है कि चार साल का नॉनिहाल ९० फिट गहरे बोरवेल में गिर जाए तो किसी अनहोनी का अंदेशा तो रहता ही है वह ही डर परिवार को भी सता रहा था।
प्रशासन को जैसे ही सूचना मिली राहत दल के साथ मौके पर पहुँचा। जैसे-जैसे दिन ढलता गया वैसे जिले के आलाधिकारी, पुलिस प्रशासन औऱ राहत दल की केंद्रीय टीम भी पहुँची पर सफलता हाथ नहीं लगी तब आखिरकार पिछले तीन जगह अपनी दिमागी जुगाड़ से सफलता पा चुके कूका निवासी माधाराम सुथार ने मोर्चा संभाला। हालाँकि प्रशासन के लिए भी यह निर्णय कठिन रहा होगा पर जान बचाने के लिए ज़रूरी भी था औऱ माधाराम सुथार भी उनकी आशाओं पर खरे उतरे औऱ पूरे १८ घण्टे की मस्कत के बाद बच्चें को बोरवेल से बाहर निकाला गया।
सुखद पहलू यह भी रहा कि बच्चा आत्मबल से लबालब था औऱ समय-समय पर घर वालो से बातचीत भी कर रहा था जिससे परिवार औऱ प्रशासन अपनी सफलता के सपने संजोए हुए था। आख़िर चौथी कक्षा तक शिक्षा ग्रहण किये हुए माधाराम ने उनके सपने को साकार करके अनुमानित रात को ढाई बजे के आसपास बच्चे को जीवित बाहर निकाला। अनुमानित इसलिए लिख रहा हूँ की मैं मौके पर मौजूद नहीं था लेकिन मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा हुआ मुद्दा था तो लिखना भी मैंने उचित समझा। अखिल भारतीय जांगिड़ ब्राह्मण महासभा दिल्ली के उप प्रधान रायमल सुथार ने मुझे माधाराम जी सुथार के बारे में व्यक्तिगत जानकारी देते हुए बताया कि यह इनकी चौथी सफलता है औऱ २०१६ में घटी एक घटना में तो तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने इनको सम्मानित भी किया है।
२०१७ व २०१८ में जोधपुर जिले में ही मथानिया औऱ खेड़ापा के आसपास अपनी हुनर का लोहा मनवा चुके है। सांचौर निवासी रायमल सुथार ने आगे जानकारी देते हुए कहा कि कूका निवासी माधाराम सुथार ने कई बार पुलिस प्रशासन की जटिल वारदाताओ को सुलझाने में भी सहयोग किया है जिसमें हत्याकांड में काम में ली गई मोबाइल सिम औऱ हथौड़ा प्रमुख है वह भी लगभग ६०० फिट गहरे बोरवेल से। चौथी सफलता इनको सांचोर के ही पास लाछड़ी गाँव के मासूम बच्चे अनील देवासी की जान बचाने में मिली है। जैसी मुझें जानकारी है वैसे मैं बता रहा हो सकता कि मेरी जानकारी ग़लत हो कि बोरवेल में पाइपलाइन डाली हुई नहीं थी जिसकी वज़ह से प्रशासन को भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था उस समय माधाराम सुथार का देशी जुगाड़ काम आया तो यह भी एक सुखद अनुभव है।
इस मानवीय मूल्यों औऱ मासूम को नई ज़िन्दगी देने के पुनीत कार्य पर अखिल भारतीय जांगिड़ महासभा के उप प्रधान रायमल सुथार ने कोरोना गाइडलाइंस का पालन करते हुए स्वंय अकेले ने ही साफा पहनाकर हौसला अफजाई भी किया। मैं स्वयं भी व्यक्तिगत रूप से जालौर जिले के बागोड़ा तहसील के कूका मेडा गाँव के निवासी माधाराम सुथार औऱ प्रशासन के साथ पत्रकार साथियों का भी सादर वंदन करता हूँ कि काली रात को मौके पर रह कर एक मासूम बच्चे की जान बचाने में सहयोग किया। जब-जब अनील देवासी की जीवन यात्रा का वर्णन होगा तब-तब इस घटना का औऱ माधाराम सुथार के नाम का उल्लेख ज़रूर किया जाएगा॥
कई घरों के चिराग बुझ गए प्रधानमंत्री जी, अब तो जागो
सुबह उठकर जैसे ही श्रीमतीजी के पास बैठा तो प्रवचन प्रक्रिया शुरू हुई औऱ बोले की आपको पता है आज मेरे पीहर पक्ष में जो ७ मई की शादी थीं वह निरस्त कर दी अब आपके खर्चे की बचत हो गई। श्रीमतीजी की आवाज़ में थोड़ी उदासी थी पर मुझे थोड़ी राहत मिली। यह बात मुझे मानने में कोई हर्ज नहीं कि कोरोना काल के साथ विषम आर्थिक परिस्थितियों में सरकार द्वारा निर्धारित गाइडलाइंस का पालन करते हुए भी किसी शादी समारोह में भाग लेना मेरे लिए मुश्किल था।
सो यह ख़बर मेरे लिए सकून भरी थी। पर मैं यह सोचने पर ज़रूर मजबूर हो गया की कोरोना के बढ़ते सक्रमण से गावों में धीरे-धीरे लोगों के अंदर जागरूकता आ गई तो क्या हमारे देश के प्रधानमंत्री ने अपने विशेषज्ञ समिति के साथ आने वाले हालातों को समझ पाने में गलती की या फिर समझने की कोशिश नहीं की। जिस तरह वह पश्चिमी बंगाल के चुनावों में धड़ल्ले से चुनावी रेलिया कर रहे थे उसको देखकर नहीं लगता था कि कोरोना की भीषण त्रासदी का कोई अंदेशा था।
प्रधानमंत्री जी आप देश के प्रधानमंत्री हो औऱ हमारे मुखिया और आपके आचरण औऱ विचरण का देश की जनता पर बहुत बड़ा असर पड़ता है। आप शुरुआत में एक रैली को भी निरस्त करके पश्चिम बंगाल के चुनांवो से अपने आप को अलग कर देते तो सायद लोगों के मन में सकारात्मक संदेश जाता। आज चारों तरफ़ त्रासदी मची हुई है। नकारात्मक बातो को लिखते हुए हाथ काँप रहे पर जब मेरे पास लिखने की वेक्सीन है तो उसका उपयोग करना चाहिए यह जानते हुए की लोगों तक जब यह आलेख पहुँचेगा तब मुझे भी विभिन्न उपाधियों औऱ शब्दों से नवाजा जाएगा यह मेरे लिए कोई नया बाण नहीं होगा खैर यह तो कुदरत का नियम है आलोचना औऱ प्रशंसा तो चलती रहेगी।
हम ख़ुद भी तो किसी की आलोचना करते है तो हमें भी सहन करने की क्षमता तो रखनी होगी। पुनः विषयवस्तु पर आकर अपनी बात रखूंगा की इस त्रासदी में लोग अपने परिवार के सदस्यों को खोते जा रहे है। १ मई से जो १८ वर्ष से ऊपर वाले के टीकाकरण होने वाला था कई प्रदेशों में उसका अभी तक अता पता नहीं। लोग हॉस्पिटल में इधर उधर भाग रहे है। जीने के अधिकार से भी लोग वंचित है। ऑक्सीजन के लिए प्रदेशों के मुख्यमंत्री आपसे भीख मांग रहे है। मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि देश का मज़बूत प्रधानमंत्री इतनी भीषण त्रासदी कैसे नहीं समझ पाया। क्या वैश्विक महामारी से ज़्यादा चुनावों को महत्त्व दिया गया यह प्रश्न भी बार-बार उठ रहा है।
यह बात सच है कि एक राजनीतिक पार्टी लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव भी लड़ सकती है औऱ रेलिया भी कर सकती है पर क्या प्रधानमंत्री को इस विषम परिस्थितियों में इसमें ज़रूरत से ज़्यादा सक्रिय रहना उचित था प्रश्न यह है औऱ सवाल तो यह भी उठ रहा है कि क्या भीषण त्रासदी को देखकर जिम्मेदारी राज्यों पर डाली जबकी आपदा एक्ट के तहत समस्त शक्तियों का प्रयोग केंद्र सरकार के हाथ में है। राजनीतिक विचाधारा को छोड़ कर आम जनता को आपसे आशा थीं कि देश में ५६ इंच के सीने वाला प्रधानमंत्री है पर विडंबना यह है कि यहाँ तो स्थिति बिगड़ने के बाद ऑक्सीजन प्लांट की तरफ़ दौड़ रहे है आग लगने के बाद कुआँ खोदने की कहानी चरितार्थ हो रही है।
एक वर्ष में हम ऑक्सीजन आपूर्ति हेतु प्लांट तो क्या टैंकर भी नहीं बना पाए। देश के हर कोने से लोगों के मौत की खबरे आ रही है। प्रधानमंत्री जी आप चुनावों से ज़्यादा देश की जनता को महत्त्व देते तो सायद हालात में सुधार हो सकता था। प्रदेशों के पास ऑक्सीजन नहीं औऱ जिस राज्यों के पास है वह वैचारिक तौर पर इतने विरोधी है कि इंसान के लिए भी विचारधारा को तिलांजलि नहीं दे पा रहे है। हॉस्पिटल में मेडिकल स्टाफ नहीं तो कही कोविड सेंटरों के संसाधनों का अभाव है। आख़िर इतने मज़बूत प्रधानमंत्री होते हुए इतने कमजोर कैसे हुए। कागजो में ज़रूर विधायक औऱ सासंद अपने कोटे से ऑक्सीजन के लिए पैसे दे रहे है पर लोगों को ऑक्सीजन चाहिए पैसे तो लोग ख़ुद अस्तपाल लेकर जा रहे है। जो गरीब औऱ मध्यम वर्गीय लोग है वह आपके प्लांट शुरू होने तक सैकड़ो में अपनी जान गवा बैठेंगे।
ऑक्सीजन औऱ अस्तपाल में संसाधन उपलब्ध नहीं होने की वज़ह से जिस घर का चिराग बुझा है उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा। जब आप वेक्सीनेशन पर अपनी पीठ थपथपाते हो मौत की जिम्मेदारी लेनी भी सिखों। आपके कहने पर ताली औऱ थाली बजाई अब क्या चारो तरफ़ हो रही मौतों पर चुपचाप घर पर बैठ कर आपके मन की बातें सुने। मीडिया की थोथी प्रशंसा से बाहर निकल कर हक़ीक़त के धरातल पर देखों। चारों तरफ़ मौत अपना तांडव मचा रही है।
लोग आपकी तरफ़ टकटकी निगाहें लगा कर बैठे है कि हमारा मज़बूत प्रधानमंत्री हमें बचाएंगे पर अफ़सोस कि जनता से ज़्यादा सत्ता की भूख थी। लोगों के विश्वास को धक्का पहुँचा है। अब भी चेतने का वक़्त है लोगों के घर के चिराग को बुझने से बचाओ। देश को रेलियों से ज़्यादा चिकित्सा सुविधा की ज़रूरत है। केन्द्र से लगाकर ग्रामीण स्तर तक चिकित्सा सुविधा पर मंथन की आवश्यकता है। केन्द्र से मेरा यहीं सवाल की आखिरी कौनसी ऐसी मजबूरी रहीं की प्रधानमंत्री कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से मजबूती के साथ सामना नहीं कर पाएँ।
ममता बनर्जी कौनसी नैतिकता की चादर ओढ़ कर शपथ लेगी
कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में भारत के चुनाव आयोग ने पाँच राज्यों के अलावा राजस्थान में उपचुनाव औऱ उत्तर प्रदेश में पंचायती राज चुनाव करवाए औऱ रविवार के दिन परिणाम भी आ गए। अब इस बहादुरी भरे काम के लिए चुनाव आयोग की निंदा करु या प्रशंसा मैं ख़ुद धर्म संकट में हूँ। लेकिन मन को सकून मिला कि कम से कम हमारे देश के प्रधानमंत्री औऱ गृहमंत्री तो राजनीतिक रेलियों से मुक्त हो गए। ईश्वर करे अब अपनी पूरी ताकत कोरोना जैसी महामारी से लड़ने में लगा दे।
हो सकता है चिकित्सा सुविधाओं को लेकर जो अफरा तफरी मची है उससे कुछ हद तक निजात दिला सके। खैर चुनाव आयोग संवैधानिक व्यवस्था के तहत चुनाव करवाकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गया और राजनीतिक पार्टियों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आंकड़ों का आइना दिखा कर मंथन के लिए छोड़ दिया। इसमें कोई शक नहीं कि जिस तरह प्रधानमंत्री औऱ गृहमंत्री ने अपनी पूरी ताकत झौक दी थी उसके अनुरूप ज़्यादा सफलता नहीं मिली औऱ तृणमूल कांग्रेस ने लोकतंत्र में संख्या बल का निर्धारित पैमाना पार कर लिया औऱ सरकार बनाने के लिए जनता का विश्वास भी जीत लिया।
अब आते है मूल्यांकन पर की जब से परिणाम आया है भाजपा की हार पर मीडिया घरानो में चर्चा हो रही है औऱ होनी भी चाहिए क्योंकि प्रधानमंत्री औऱ गृहमंत्री के अलावा मंत्रियों ने भी ताकत झौक दी थी। भाजपा को भी अपनी नीति औऱ नियत पर आत्म-मंथन की ज़रूरत है। लेकिन लोकतंत्र में चौथे सतम्भ में जब विश्लेषण की नियत का पैमाना अपने चश्मे से तय करते है तब दुःख होता है।
भाजपा का हारना लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी राजनीतिक दल की नीतियों के आधार पर अगर हम हार कह सकते है तो नन्दीग्राम से मुख्यमंत्री की हार भी लोकतंत्र में मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत तौर पर हार है औऱ किसी एक विधानसभा क्षेत्र की जनता इतनी नाराज है कि वह अपने क्षेत्र से जीता कर वापस मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहती है। पर लोकतंत्र में नैतिकता की चादर अवसर के अनुसार ओढ़ी जाती है। अब मुख्यमंत्री किसी नैतिकता की दुआई देकर शपथ लेगी यह समझ से परे है।
पार्टी को बहुमत मिला औऱ लगभग ४८ % वोट भी मिले कोई इसको नहीं नकार सकता पर मुख्यमंत्री भी हारी है इस सच्चाई से कैसे मुँह मोड़ सकते है। आंकड़ों की गणित में तृणमूल कांग्रेस को २१७ औऱ भाजपा को ७५ सीटे मिली यह जनता का दोनों पार्टियों को अपना जनादेश है। लेकिन ईमानदारी से यह भी बात स्वीकार करनी होगी कि व्यक्तिगत तौर पर ममता बनर्जी को भी जनता ने नकारा है अब तर्क में हम यह ज़रूर कह सकते है कि तृणमूल कांग्रेस को बहुमत मिला है यह वाज़िब तर्क भी है पर जब-जब मुख्यमंत्री की बात आएगी तो जनता ने नकारा यह भी स्वीकार करना होगा।
तथाकथित निष्पक्ष औऱ निडर पत्रकारिता का दम्भ भरने वाले किसी एक पार्टी का विरोध करना ही अपनी बहादुरी का प्रतीक मानते है। राजनीतिक व्यवस्था में पार्टियों की नीति औऱ नियत के आधार पर जब तक विरोध करने औऱ विश्लेषण करने की नीति से काम नहीं करेंगे तब तक संतोषप्रद मूल्यांकन भी नहीं कहा जा सकता औऱ लोकतंत्र के साथ भी विश्वासघात होगा। किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री का हारना भी लोकतंत्र का सुखद पहलू है। कोरोना के शुरुआती दौर में केन्द्र सरकार की नीतियों का विरोध नहीं किया तो आज परिणाम सबके सामने है।
लोग चिकित्सा सुविधा के लिए इधर उधर तड़प-तड़प रहे है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में समयानुसार औऱ जनहित के लिए समय-समय ग़लत बातों का विरोध करना ही लोकतंत्र की मजबूती में सकारात्मक सहयोग होगा। किसी मुख्यमंत्री का हारना भी हार है क्योंकि पूरे प्रदेश में मुख्यमंत्री की विशेष पहचान होती है। मुझे यह बात कहने में कोई हर्ज नहीं कि विधायक ज़रूर जीते है पर मुख्यमंत्री की ज़रूर हार हुई है अब वह कौनसी नैतिकता की चादर ओढ़ कर मुख्यमंत्री के पद की शपथ लेगी यह उनको ख़ुद को तय करना है। हालांकि भाजपा ने भी अपने ५ सांसदों को मैदान में उतारा था दो ही जीत पाए है लेकिन उनके बारे में कह सकते है जनता ने भाजपा को वैसे भी स्वीकार नहीं किया है तो उसमें उनकी गिनती आ गई। सवाल प्रदेश की मुखिया का है देखते जवाब किया रहता है।
सामाजिक समरसता का प्रतीक है होली
होली पर्व एक ऐसा त्यौहार है जिसका हिंदुस्तान के धार्मिक इतिहास में अपनी विशेष जगह है। वैसे तो विश्व में भारतीय भूमि त्यौहारो की भूमि ही कही जाती है क्योंकि यहाँ के लोग हर पर्व को बड़ी ही आस्था व श्रद्धा के साथ मनाते है फिर भी मैं बड़े आत्मविश्वास से कह सकता हूँ कि होली का अपना अलग महत्त्व है। भारत के चारों दिशाओं में होली मनाने के अपने-अपने तरीके है औऱ अलग अंदाज़ है।
इस त्यौहार को मनाने का उद्देश्य भाईचारा, असत्य पर सत्य की औऱ पाप पर धर्म की विजय है। यह पर्व हमारी हिंदुस्तानी सनातन संस्कृति के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली जैसे पवित्र त्यौहार को मनाकर हर भारतवासी अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है। होली सिर्फ़ दो शब्दों के नाम का या फिर मौज मस्ती का त्यौहार नहीं है बल्कि इसके पीछे एक महान आदर्श व हिंदुस्तान की भूमि को गौरवान्वित करने वाली महागाथा है।
यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिभवति भारत अभ्युत्थानम ही धर्मस्य धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।
अर्थात जब-जब भी इस जगत जननी धरती माता पर पाप ने पैर पसारने की कोशिश की कोशिश की है तब-तब कुदरत ने अपने नेक बंदों को धरती पर भेजा है औऱ पाप का नाश करके पुनः धर्म की स्थापना की गई है उसी की कड़ी में होलिका दहन को ले सकते है। प्राचीन समय में हिरण्य कश्यप नामक एक राजा था। बड़ा ही निर्दय व क्रूर प्रकृति की अपनी आसुरी (राक्षसी) शक्तियों के मद में चूर एवं अभिमानी हिरण्य कश्यप का राज्य में अपना तांडव हुआ करता था।
वेदों के अनुसार हिरण्य कश्यप आसुरी शक्तियों से विद्या के द्वारा पाप का राज चलाता था। आसुरी शक्तियों से मेह औऱ मौत को अपने कब्जे में कर लिया था औऱ चारों सुंटो में राज करने की चाहत पाल रखी थी। वह अपने राज्य का हरिनारायण औऱ मॉलिक ख़ुद को मानता था। औऱ ईश्वर को याद करने वाले को सजा देता था। जनता को ख़ुद का संस्मरण करने व पूजा के लिए कहता था। हिरण्य कश्यप की अमानवीय नीति बढ़ती गई औऱ ईश्वर के प्रति नास्तिक बन गया। अधर्म का दायरा बढ़ता गया। तभी कुदरत की कृपा कहो या विधि का विधान मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार कुल में कन्या का जन्म हुआ औऱ नाम रखा श्रीयादे।
श्रीयादे बड़ी विलक्षण प्रतिभा की धनी व जन्म से मॉलिक की बंदगी में रहने वाली कन्या थी। जैसे-जैसे समय बीतता गया श्रीयादे धर्म की धारा में बहती गई औऱ अपने आसपास पूरा वातावरण भक्तिमय बना दिया। पाप को पहचानने में देर नहीं लगी औऱ हिरण्य कश्यप के पापों का अंत करने की सोची। कुदरत का खेल देखिए पूरा साम्राज्य आसुरी शक्तियों से परिपूर्ण राजा हिरण्य कश्यप के साथ और धर्म के रास्ते पर चलने वाली श्रीयादे के साथ ईश्वरीय शक्ति। गरीब कुम्हार की बेटी श्रीयादे ने अपने इरादे जारी रखें।
जो दृढ़ राखे धर्म को तू ही राखे करतार
पंक्तियों को चरितार्थ करते हुए पाप के पालक हिरण्य कश्यप का सामना करने की सोची औऱ उन्होंने बच्चों के मन में धर्म की ज्योति जगा कर आसुरी शक्तियों से परिपूर्ण हिरण्य कश्यप का अंत करने का फ़ैसला किया। बच्चों को धर्म के सागर में डुबकी लगाते देख ख़ुद पुत्र प्रहलाद भी ईश्वर की भक्ति में लीन में हो गया। वो ख़ुद अपने पिता के पाप औऱ अत्याचार से अपनी प्रजा को छुटकारा दिलाना चाहता था। श्रीयादे ने प्रहलाद को परमेश्वर की महिमा बताई साथ में अपनी सनातन संस्कृति से अवगत भी करवाया। चिंगारी को हवा की ही ज़रूरत थी यानी धर्म औऱ अधर्म के बारे में सम्पूर्ण जानकारी श्रीयादे से प्राप्त करके प्रहलाद अपने पिता हिरण्य कश्यप के खिलाफ खड़ा हो गया।
हिरण्य कश्यप के लिए अब अपनी आसुरी शक्तियों के बल पर राज करना औऱ प्रजा को ईश्वर से विमुख करके ख़ुद की भक्ति में लीन करना मुश्किल हो गया। पाप के खिलाफ प्रहलाद के खड़े होते ही हिरण्य कश्यप को लग गया कि अब मेरी पोल खुलने वाली है तभी हिरण्य कश्यप ने प्रहलाद का अंत करने की सोची। अपनी योजना के अनुसार कई तरीके अपनाएँ पर प्रहलाद का बाल भी बाँका नहीं कर पाया औऱ अंत में क्रोधित होकर प्रहलाद को मारने की जिम्मेदारी बहन होलिका को सौपी क्योंकि वह राक्षसी विद्या व मायावी शक्तियों से परिपूर्ण होने के साथ-साथ अग्नि स्नान का वरदान लिए हुए थी। हिरण्य कश्यप को लगा कि बहन के वरदान अग्नि स्नान में प्रह्लाद जल कर राख हो जाएगा पर कुदरत अन्याय को कभी विजयी होने नहीं देती है। होलिका भ्रातत्व भाव में बहकर इस अनैतिक कार्य को करने के लिए राजी हो गई। फाल्गुन महीने की पूर्णिमा को के दिन लकड़ी की चिता बना बनवाकर उसमें अपने भतीजे प्रहलाद को लेकर बैठ गई औऱ आदेशानुसार आग लगा दी लेकिन कहा गया है।
जाको राखे साइया मार सके ना कोई, बाल न बाँका कर सके, जग बैरी जो होय
प्रहलाद बच गया व होलिका अग्नि स्नान में भस्म हो गई। बहन के भस्म होते ही हिरण्य कश्यप अपना आपा खो बैठा औऱ प्रहलाद को अग्नि स्नान से बाहर की ओर आते देख हिरण्य कश्यप ने प्रहलाद को खांडे (तलवार) से मारने के लिए दौड़ा ऐसा कहा जाता है कि तभी कुदरती प्रेरणा से नरसिंह नाम का एक सिंह जो हिरण्य कश्यप के पिंजरे में क़ैद था वह पिंजरा तोड़कर बाहर निकला औऱ उसी गो धूलिक (न सुबह, न शाम) बेला में असुर (हिरण्य कश्यप) को चीरकर मार दिया गया इस किदवंती से एक बार फिर धर्म की पाप पर और असत्य पर सत्य की जीत हुई। पौराणिक कथाओं में ऐसा माना गया कि तभी से हर वर्ष फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन पाप के प्रतीक में होलिका का दहन किया जाता है। दूसरे दिन धुलडी के रूप में एक दूसरे को अबीर गुलाल से बधाई देते है। धर्म की रक्षा के लिए पिता के विरुद्ध जाने में पुत्र ने कोई देरी नहीं कि। धर्म के लिए पिता को भी नहीं बख्शा। हिन्दू सनातन संस्कृति में होली भी अपना महत्त्व रखती है। हिंदुस्तान की जनता बड़े ही मर्यादित तरीके से होली मनाती है।
देश की जनता औऱ पाठकों को ख़ूब खूब होलिका दहन की शुभकामनाएँ।
कितने विकास दुबे है कुछ कह नहीं सकते
शाम का समय था, श्री मतिजी का आदेश था घरेलु सामान की पूर्ति का तो चल पड़ा बाज़ार की तरफ। चिरपरिचित अंदाज़ में दुकान वाले भाईसाहब को समान की सूची दी। दुकानदार ने सूची देखकर मुस्कराते हुए कहा कि आप आधे घंटे बाद आइए सामान तैयार मिलेगा। मैं बाज़ार में एक मित्र की दुकान की तरफ़ चल पड़ा तभी कुछ दूरी पर दो लोग आपस में बात कर रहे थे वह बातचीत झगड़ालू प्रवृति की थी। उनकी भाषा में एक दूसरे को धमकाने का ग़ज़ब का आत्मविश्वास। दोनों एक से बढ़कर एक शब्दों का प्रयोग कर रहे थे। उम्र देखिये महज़ १८ से २९ वर्ष के बीच।
युवाओं में चढ़ते खून की कितनी गर्मी होती है वह उनकी भाषा से झलक रही थी तभी मुझे उत्तरप्रदेश के कानपुर के गैंगस्टर विकास दुबे का एनकाउंटर प्रकरण याद आया। औऱ उसके इतिहास के पन्नों को टटोला, कई काले कारनामों के काले अक्षरों में नाम लिखा हुआ था। पिछले सप्ताह ३ जुलाई की काली रात को कानपुर में हुए एनकाउंटर में विकास दुबे नामक खूंखार गैंगस्टर ने आठ पुलिस के जवानों की जान ले ली थी और वह ख़ुद भागने में कामयाब रहा। जुर्म की दुनिया का बेताज बादशाह विकास दुबे आलीशान गाडियों में घूमने के साथ-साथ कई जघन्य अपराधों को अंजाम देने का आरोपी था। ख़ौफ़ लोगों में इतना कि जुर्म के चश्मदीद गवाह होने के बावजूद कोई गवाही को तैयार नहीं।
कानून की लाचारी देखिये की २००२-२००३ में सरेआम थाने में मंत्री की हत्या करने के बावजूद सबूतों और गवाही के अभाव में जमानत मिल गई औऱ बेखौफ बाहर आ गया। तब से विकास के अपराधों का विकास की शुरुआत कहे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होंगी। पुलिस के मूवमेंट की जानकारी अपराधी तक आसानी से पहुँचती है तो सायद यह इससे बड़ी कमजोरी कुछ नहीं हो सकती। सवाल तो पुलिस का कार्यप्रणाली पर भी उठ रहे है कि जब उनको पता था कि यह खूंखार अपराधी है तो बिना हथियारों औऱ दलबल से नहीं पहुचना चाहिए था।
आधी अधूरी तैयारी ने अपराधियों को हावी होने का अवसर दे दिया औऱ हमारे आठ जवानों को प्राण गवाने पड़े। अपराधी पुलिस से भी बड़ी तैयारी के साथ था। एनकाउंटर के बाद बिल्डिंग के सर्च ऑपरेशन में जो जानकारियाँ सामने आई उससे यह ज़रूर लग रहा है कि विकास कोई अपराध का बड़ा विकास करने वाला था। २ किलोग्राम विस्फोटक औऱ १५ ज़िंदा बम की मिलना कोई बड़ी साज़िश की तरफ़ इशारा करता है। मुठभेड़ में पुलिस ने विकास दुबे के दो गुर्गों को मारने के साथ एक को ज़िंदा पकड़ा लेकिन इस बीच खूंखार अपराधी भागने में कामयाब रहा।
अंदेशा जताया जा रहा है कि यह नेपाल अथवा मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश कर सकता है। अब सवाल यह उठता है कि बिना सरंक्षण क्या कोई अपराध जगत का बेताज बादशाह बन सकता है। अगर कोई बुद्धिजीवी इस प्रश्न का उत्तर खोजेगा तो सायद यही पायेगे की बिना सरंक्षण संभव नहीं है। सरंक्षण में भी आर्थिक की जगह राजनीतिक सरंक्षण की उपयोगिता ज़्यादा हो जाती है। पिछले २० साल का विकास दुबे का रिकॉर्ड देखे तो बिना सरंक्षण उसका पनप पाना सम्भव नहीं था। घर के तहखानों में हथियार का मिलना अपराध जगत में कहाँ तक जाने की मंशा थी यही दर्शाता है।
गुलाब कुमावत
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