अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी (Hindi in non-Hindi speaking states) की दशा व दिशा
अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी (Hindi in non-Hindi speaking states) की दशा व दिशा:
भारत के परिप्रेक्ष्य में भाषाविवाद चिरप्राचीन हैं। लम्बे अर्शे से इस महादेश के लोगों ने एकभाषा-एक राष्ट्र के लिए आगजनी, हिंसा की झडपें व अगनित आन्दोलनों को देखा, परखा व सहा है। भाषागत राज्यों के गठन व संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल क्षेत्रीय भाषाओं के अस्तित्व की संरक्षा अब तक की समस्त सरकारों की पहली प्रतिबद्धता रही। यदि धरातलीय मूल्यांकन करें तो हम पाते है कि समग्र राज्य व केन्द्र सरकारें इस मुद्दें व इसके बिन्दुओं पर केवल अपनी स्वार्थ सिद्धी करती नज़र आती है व अपने वोट बैंक को साधती रही। भारत में भाषागत विवाद तथा उससे सम्बद्ध समस्त अप्रिय घटनाएँ जिनसे इतिहास रक्तरंजित है; वे सब तथाकथित स्वार्थी राजनेताओं के स्वार्थ का दुफल ही है।
लम्बे संघर्षों व राष्ट्रवादी विचारधारा के आन्दोलनों ने आख़िर हिन्दी को भारत की “राजभाषा” का दर्जा दिलवा ही दिया। अद्यावधिपर्यन्त “राष्ट्रभाषा” के नाम पर भारतीयजन की एकता आज भी विविधता ही है, यह प्रकरण की गहराई को बहुधा स्पष्ट कर देता है। आजा़दी के इतने वर्षों बाद भी हम राष्ट्रभाषा पर एकमत नहीं है। खेर बात राजभाषा की ही करें तो शिक्षा नीति में त्रिभाषा फॉर्मूला देशभर में लागू है जिसमें मातृभाषा, राज्यभाषा व राजभाषा के पठन-पाठन की प्रतिब्धता है। यहाँ तक तो ठीक था। परवर्ती राज्य सरकारों के लचीलें कानूनों ने हिन्दी भाषा के शिक्षण में आमूलचूल परीवर्तन किया है, खासकर अहिन्दी भाषी राज्यों में स्थिति की गम्भीरता हिन्दी सेवक के अश्रुपात् को शायद ही अवसान दे पाएँ।
अहिन्दी भाषी राज्यों में भाषागत आधार पर कर्तव्यबोध व निष्ठा का अभाव जग जाहीर है, जो नितान्त खेद का विषय है। प्राथमिक स्तर पर हिन्दी की पाठ्यपुस्तकें, शिक्षण, अध्यापक, अध्यापन व शब्दों व ध्वनियों के उच्चारण पठन सभी पर जितने प्रश्न चिह्न लगाएँ उतने कम? वहाँ उच्च कक्षाओं में लगभग हिन्दी विलुप्त-सी हो चुकी है। ये प्रश्न यदि किसी सज्जन को निराधार लगे तो अहिन्दी भाषी राज्यों में सार्वजनिक स्थलों तथा वहाँ लगे बोर्ड, शिलापट्ट, बेनर या रेल्वे, बस स्थानकों पर निर्दिष्ट दिशा निर्देशन करने वाले सूचना पट्ट, बोर्ड आदि-आदि को सामान्य दृष्टि से देखे तो सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
सरकारी भवनों, अस्पताओं व कई विभागों में प्रयुक्त हिन्दी भाषा का स्तर इतना गिरा हुआ है कि कुछ-कुछ अपठनीय, अकल्पनीय-सा लगता है। लेखन और वाचन की त्रुटी हृदय पर निरकुंश प्रहार ही करती है। मेरी दृष्टि में एक भाषा के साथ सबसे बड़ा अन्याय यहीं है कि उसके साथ वाचिक, पाठिक व लेखिक त्रुटी का पिष्टपेषण जोड देना। यदा-कदा जानबूझकर अशुद्ध उच्चारण करना क्या भाषा का अपमान नहीं है? सबसे बड़ा कुठाराघात यहीं है तथा इससे भाषा का मूल स्वरूप भी परिवर्तित होता है।
आज भाषा में दूसरी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग व बढ़ता चलन, हिंग्लीश का बढ़ता चलन, विराम चिह्नों का अनमेल प्रयोग आदि-आदि कहीं कमियाँ हिन्दी भाषा के मूल मौलिक व वैज्ञानिक स्वरूप के लिए घातक बनती जा रही है। आज आवश्यकता है कि प्रकरण की गहराई को समझते हुए राज्य सरकारे इस दिशा में सकारात्मक पहल करें। हिन्दी व संस्कृत में कक्षा ८ व बाद की कक्षाओं में दोनों विषयों को गहनता व विशिष्टता के साथ पृथक्-पृथक् पढ़ाया जाए अन्यथा आने वाले समय में हिन्दी भाषी छात्रों की संख्या शून्य होने में देर न लगेगी।
खुशवन्त कुमार माली उर्फ “राजेश”
शोधार्थी-संस्कृत विभाग
जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर
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