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फेरीवाला (hawker)
फेरीवाला (hawker) : दीनू एक साफ-सुथरी कॉलोनी में पास की बस्ती से सब्जी बेचने आता है। सब्जी क्या बस पूरी पौष्टिकता की दुकान है, उसके ठेले पर। साथ में साफ़ सफ़ाई की कोई किल्लत नहीं, सुबह-सुबह सब्जी मंडी से लाता और उसे धोता उसकी बीवी कपड़े से पोंछकर ठेले पर लगाती और कपड़े से ढकती रहती थी।
इसी कारण दीनू की सारी सब्जी ख़ूब अच्छे दामों में बिक जाया करती थी और शाम को वह ख़ूब खुशी-खुशी अपने घर आते थे। रोज़ कमाते थे और थोड़ा-थोड़ा बचाते थे अपने बेटे छोटू के लिए। छोटू भी कभी कभार अपने पापा केकाम में हाथ बटाता था। दीनू अपने बेटे को अच्छे स्कूल में पढ़ने भेजता था। बड़े आराम से मजे में चल रहा था। १ दिन दीनू को सब्जियाँ बेचकर वापस आते-आते लोग चौराहे पर कुछ चर्चा करते हुए मिले।
“भाई बहुत गंदी बीमारी है बस किसी को ना हो जाए अपने-अपने घर में ही रहो सब, सुना है चीन में तो बहुत सारे लोग मर गए हैं और हमारे देश में भी अब बहुत लोगों को हो चुका है अब तो पता नहीं क्या होने वाला है।” और दीनू यह सुनकर चुपचाप अपना ठेला खींचता घर की तरफ़ चल दिया। घर पहुँच कर अपनी पत्नी को बताता है कहता है”, निर्मला आज तुम साथ नहीं थी, आज तो पांच नंबर वाली बीवी जी ने अपने छोटे के लिए नया फ़ोन लिया है।
बहुत प्यार करते हैं हमारे सारे ग्राहक हमें। देखो पांच नंबर वाले साहब तो कह रहे थे कि दीनू कोई भी ज़रूरत पड़े तो कहना।” , पर मैंने कहा “, साहब भगवान की दया है और आप लोगों का प्यार बस सब ठीक है।” , निर्मला ने कहा”, हम भी तो बहुत ध्यान रखते हैं अपने ग्राहकों का, कभी बांसी सब्जियाँ झूठ बोलकर नहीं बेचते हैं, हमेशा साफ-सुथरी सब्जियाँ सही दाम में देते हैं।”
हाँ यह तो है पर फिर भी छोटू की माँ पैसे वाले लोग हैं, कहाँ पूछते हैं किसी को पर हमारा तो फिर भी कितना ध्यान रखते हैं। इन्हीं भावों की गंगा में गोते लगाते हुए दीनू बड़ा भावुक होकर अपना ठेला झूमता-सा रख देता है और खाना खा कर सो जाता है। अगले दिन सुबह सोकर उठता है तो पता चलता है कि मोदी जी ने लोकडाउन कर दिया है।
कोई भी बाहर सड़क पर नहीं घूमेगा सभी चीजों पर कोरोना के कारण प्रतिबंध लगा दिया गया स्कूल बंद दुकानें बंद ट्रेनें बंद सब कुछ बंद क्योंकि कोरोनावायरस फैल रहा है। दीनू तो अवाक-सा रह गया अरे! ऐसे कैसे काम चलेगा हम अपने ग्राहकों तक सब्जी कैसे भेजेंगे? हमारा गुज़ारा कैसे होगा? तभी उसके फ़ोन पर पांच नंबर वाले साहब का फ़ोन आता है। दीनू भाई तुम हमारे घर सब्जी पहुँचा सकते हो क्या? दीनू, साहब आपने याद किया है तो कैसे नहीं हो जाएंगे, ज़रूर लाऊंगा साहब ज़रूर।
दीनू अपना के, ठेला उठाता है और सब्जियाँ लेकर चल पड़ता है, बिना यह सोचे कि रास्ते में क्या-क्या होगा अब घर से रोज़ जिस रास्ते से जाता था आज वह सब बंद है। बहुत सारी गलियाँ बंद है फिर भी सारे शहर का चक्कर लगाकर जैसे भी हो दीनों पुरानी कॉलोनी पहुँचता है और सब्जियाँ देता है। पांच नंबर वाले साहब बड़े खुश होकर उससे बहुत सारी सब्जियाँ खरीद लेते हैं। और वह बाक़ी सब्जियाँ बेचकर जैसे-तैसे बड़ी मुश्किलों से घर पहुँचता है।
निर्मला बड़ी दुखी होती है, क्यों? आज क्यों गए थे इतनी मुश्किल है उठा कर? क्या ज़रूरत थी? एक-दो दिन में खुलेगा तो चले जाते। अरे नहीं पता नहीं कब खुलेगा कौन जाने कुछ तो लोग कह रहे हैं कर्फ्यू लगने वाला है पता नहीं फिर क्या होगा। यही पेट की मुश्किल है जो सिर्फ़ रोटी को जानती है और कुछ नहीं और वह सब सो जाते हैं। ऐसे ही कुछ दिन यह सिलसिला चलता रहता है। और एक दिन दीनू का छोटू बीमार हो जाता है।
और उसे बहुत बुखार खांसी होती है वह दोनों बहुत घबरा जाते हैं, और घबराकर पांच नंबर वाले साहब को फ़ोन करके साहब हम क्या करें बच्चा बहुत बीमार है यदि कुछ मदद हो जाती तो, उधर से साहब बोलते हैं कि इस समय कोरोना फैल रहा है सरकार भी सख्त है हम कोई रिस्क नहीं ले सकते। तुम्हें भी इसे सरकारी अस्पताल में ले जाना चाहिए, अरे बेटे को अपने से दूर कर दो उसे कोरोना हो सकता है।
अब तुम सब्जी लेकर भी घर मत आना हम ऐसे ही काम चला लेंगे बेचारा बड़े दुखी मन से बेटे को मास्क लगाकर ठेले के साथ-साथ अस्पताल ले जाता है और डॉक्टर से कहता है”, इसे तो कोरोना हो गया है, अब ये यहीं रहेगा।” , निर्मला को बेटे को छोड़कर जाना बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था। रो-रो कर उसका तो बुरा हाल था और उधर दीनू जो कि किसी के सामने रो भी नहीं सकता था।

घर में खाना तो दूर रोटी बनना भी मुश्किल हो गया था दोनों रोज़ अस्पताल के बाहर जाकर अपने बेटे का हालचाल पता करने की कोशिश करते पर कुछ पता नहीं चलता और एक दिन दुख का पूरा पहाड़ दोनों पर टूट पड़ा, जब अस्पताल वालों ने कहा तुम्हारा बेटा आज मर गय। ऑक्सीजन ना मिल पाने के कारण उसका बेटा मर गया था।
दीनू का कलेजा उसी क्षण हज़ार टुकड़ों में टूट गया। दर्द जो कहा नहीं जाता था और उसके ऊपर बेटे को देख भी नहीं पाने का ग़म जो सबसे बड़ा था। माँ की ममता और बाप का प्रेम घुट-घुट कर अंदर ही अंदर से दोनों पर बड़ा भारी पड़ रहा था। पर पेट के लिए इंसान क्या-क्या नहीं करता अपने ग़म को भूल कर एक महीना बीतने पर एक दिन फिर दीनू अपना ठेला उठाकर चल दिया।
और तभी पांच नंबर वाली बीवी जी का फ़ोन आया दीनू तुम्हारा बेटा कैसा है? दीनू ने कहा बीवीजी “, बेटा तू चला गया” , बीवी जी ओह! बड़ा अफ़सोस हुआ। दीनू फिर भी मानवीयता दिखाते हुए बोला”, बीवी जी आप सब कैसे है? ठीक है ना। बीवी जी” , हम सब ठीक हैं। ” ,। दीनू फिर से अपने काम को शुरू करने लगा अपना ठेला उठा फिर से सब्जी बेचता।
एक दिन वह क्या देखता है कि पांच नंबर वाले साहब की गाड़ी रास्ते में खड़ी है और बिगड़ गई है। साहब के बेटे भी वही है लेकिन कुछ कर नहीं पा रहे हैं साहब बड़ी ज़ोर-जोर से हांफ रहे हैं सांस नहीं आ रहा है और बुखार में तप रहे हैं। बेटा भी मजबूर-सा देख रहा है दीनू ने पूछा साहब क्या हुआ मैं कुछ सहायता कर सकता हूँ? दीनू सांस नहीं आ रही है, अस्पताल जाना है दीनू ने कहा साहब आप चिंता मत करो वह ज़्यादा दूर नहीं है।
आप मेरे ठेले पर बैठे मैं ले चलता हूँ अरे दीनू तुम चिंता मत करो तुम भी बीमार हो जाओगे नहीं साहब ऊपर वाला सब देखता है और दीनू ठेले पर बैठाकर उन्हें अस्पताल पहुँचाता है। डॉक्टर कहता है तुम्हें भी टेस्ट कराना होगा। कर लीजिए डॉक्टर साहब पर ग़रीबी से तो कोरोना भी ज़्यादा देर नहीं बचेगा मेरा बेटा तो ले चुका है। अब और क्या लेगा डॉक्टर, अरे तुम्हारा बेटा कोरोना से मरा है और फिर भी तुम इनकी सेवा कर रहे हो तुम अपने ठेले पर ले कर आए हो।
साहब मेरे बेटे की उम्र ज़्यादा नहीं थी इसलिए वह हमें छोड़ गया पर इसका मतलब यह नहीं कि अब हम अपने अंदर की आत्मीयता इंसानियत व जिम्मेदारी सबको मार दे हम लोग साहब फेरीवाले हैं। रोज फेरी लगाते हैं। नई सब्जी लाते हैं, उसी तरह भगवान भी फेरीवाला है जो संसार में फेरी लगाकर लोगों की सहायता करता है लोग हमें कहते हैं अंदर की ताकत मज़बूत करो पर मैं कहता हूँ हमारे विचार और भाव मज़बूत होंगे हम तभी कोरोना सेजीत पायेंगे। डॉक्टर फेरीवाले को देखता रह गया।
वास्तविक सफलता
सुबह के नाश्ते के समय आशीष और उसकी माँ नाश्ता कर रहे थे। माँ ने आशीष को देख कर कहा”, क्यों आशीष आज नाश्ता पूरा ख़त्म क्यों नहीं हुआ? देख रही हूँ, आजकल खाने-पीने पर ध्यान नहीं दे रहे हो तुम।”
आशीष बोला माँ आजकल तो मानो भूख ही नहीं लगती है। पता नहीं हम लोग बड़े क्या हुए मानो हमारी ज़िन्दगी अजीब ही हो गई है। थोड़ा चौक ते हुए माँ ने कहा”, क्यों ऐसा क्या चल रहा है? जो ऐसी बातें कर रहे हो तुम, आशीष थोड़ा अपने आप को संभालते हुए बोला नहीं माँ वैसा कुछ नहीं बस आने वाली परीक्षा को लेकर थोड़ा तनाव में रहता हूँ। क्या होगा हमारा? हमारा चयन होगा या नहीं होगा, क्या करेंगे हम? …फिर पापा के सपने, आपकी आशाएँ पूरी भी कर पाऊंगा कि नहीं? माँ ने अपनी चिंता को छुपाते हुए कहा”, अरे ऐसा क्यों सोचता है रे बावले हमारा सपना तो तू ही है।
आशीष उदास मन से बोला, फिर भी माँ मैं अपने आप को साबित करना चाहता हूँ। मेरा चयन नहीं हुआ तो पता नहीं क्या होगा कुछ पता नहीं पता नहीं बस यही सब चलता है मेरे दिमाग़ में। लेकिन माँ मुझे स्वयं से भी ज़्यादा चिंता अनूप की होती है उसके पापा तो जैसे-कैसे करके कपड़े सिलाई करके उसे पढ़ा रहे हैं और पैसा उधार लेकर फीस भरते हैं क्योंकि वह अच्छा पढता है। पता नहीं बेचारे का चयन होगा कि नहीं वह मेरा प्यारा दोस्त है।
माँ क्या होगा यदि हम लोगों का चयन नहीं हुआ तो… माँ ने बड़े प्यार से सिर सहलाते हुए कहा बेटा यह जो तूने अभी कहा बस यही सबसे बड़ी बात है कि तू दूसरों के लिए भी चिंता करता है और हमें अच्छे विचार वाला आशीष चाहिए। हमारे लिए तो तेरी सफलता इसी में है, हमारे लिए तुम हमेशा ऐसे ही प्यारे रहोगे चाहे तुम्हारा चयन हो या नहीं हो। बस अब तुम कोचिंग जाओ और मन लगाकर मेहनत करो और आशीष घर से निकलता है यह सोचते हुए कि’ नहीं माँ मैं फिर भी देखना आपको अपने चयन की ख़बर दूंगा, नहीं तो मुंह नहीं दिखाऊंगा।
आशीष को कोचिंग में अनूप मिलता है अनूप कहता है” , भाई मेहनत तो रोज़ करते हैं पर डर भी उतना ही लग रहा है। मैं तो सुबह उठकर पापा का मुंह देखता हूँ तो मेरा मन बहुत दुखी होता है, कि पापा मेरे लिए इतना काम करते हैं कि रात-रात में बैठकर लोगों की पोशाक पूरी करते हैं। ताकि मैं कुछ अच्छा कर पाऊँ। अगर मेरा चयन नहीं होता है, तो मेरे पापा तो मर ही जाएंगे।
मेहनत तो इतनी कर रहे हैं पापा मेरे लिए उस पर उधार का भी बोझ है। मेरा तो घर ही बिगड़ जाएगा, मेरी तो बहन भी है। आशीष अपने दोस्त को दिलासा देता है, अरे सब कुछ अच्छा होगा देखना हम दोनों दोस्त एक ही साथ एक ही कॉलेज में जाएंगे ऐसा-वैसा कुछ मत सोच। चल अब पढ़ाई करते हैं। परसो तो परीक्षा है ही हम अच्छा ही करेंगे और दोनों ख़ूब मेहनत कर रहे होते हैं॥ दोनों परीक्षा अच्छे से दे कर आते हैं और जब प्रवेश परीक्षा का परिणाम आता है तो, आशीष की अच्छी रैंक आती है और अनूप की कम आती है।
अनूप बहुत दुखी मन से रो-रोकर अंदर ही अंदर घुट कर रह जाता है। सोचता है कि अगर मैं दुखी हो जाऊंगा तो घर में सब जान जाएंगे इसीलिए वह चुपचाप प्रसन्नता दिखा कर सो जाता है। आशीष अपनी सफलता से खुश तो था पर अनूप के लिए बहुत दुखी था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कर सकता है।
अब दोनों को कॉलेज में काउंसलिंग के लिए बुलाया जाता है। पर आशीष की सीट पक्की होती है परंतु अनूप की सीट प्रतीक्षा में थी कि यदि कोई बच्चा अपनी सीट छोड़ दे तो अनूप का भी नंबर आ जाए। और उधर आशीष अपने पापा के साथ अपनी सफलता की चमक चेहरे पर लिए बड़े आत्मविश्वास के साथ अंदर जाता है और वहाँ बैठे विद्वान गणों व प्रवक्ताओं को अपने जवाबों से संतुष्ट करके वह अपना चयन पत्र पाता है, तो वह उसे यह कहकर लौटा देता है, “श्रीमान जी मेरा लक्ष्य यह नहीं था।” मैं गलती से यहाँ आया हूँ।
इसलिए मैं एक सीट खराब नहीं करना चाहता, यह सीट आप किसी अन्य विद्यार्थी को दे दें, जिसका लक्ष्य यही हो। आशीष ने ऐसा किया क्योंकि, वह अच्छी तरह जानता था कि उसके सीट छोड़ने से अनूप का चयन हो जाएगा और वह खुशी-खुशी बाहर आकर अनूप से बिना कुछ कहे अपने पापा के साथ घर चला आता है और घर आकर अपनी माँ से सब कुछ बताता है कि कैसे उसने अपनी इतनी बड़ी चाहत को दोस्ती पर बलिदान कर दिया।
मां-बाप दोनों आशीष का माथा चूम लेते हैं और उनकी आंखों में एक अनोखी चमक होती है। दोनों आशीष से कहते हैं कि हमारे लिए तो, आज की परीक्षा में सफल होना ही वास्तविक सफलता है और आशीष गर्व से अपनी माँ से लिपट जाता है और ख़ुशी के आंसू उसके गालों पर आ जाते हैं और माँ कहती है”, आज हमारे संस्कार और शिक्षा सफल हुए, तेरी यह सफलता हमारी बड़ी जीत है।”
मित्रों हमें और इस समाज के सभी अभिभावकों को यह सीखना होगा कि हमें भौतिकवादी नहीं संस्कारी बच्चे चाहिए। हमें मशीनें नहीं अच्छे हृदय वाले व्यक्तित्व बनाने हैं समाज का निर्माण करने हेतु।
नीरज गौतम
सरसावा, सहारनपुर
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