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मनहरण घनाक्षरी (Ghanakshari)
Ghanakshari : झूठ की जो लेता ओट,
मन में भरा हो खोट,
ऐसे दुष्ट पापियों से,
खुद को बचाइए।
सत्य का ही दें जो साथ,
झूठ को मिलेगी मात,
सुख का है मूल मंत्र,
सत्य अपनाइए।
चाहें खुशियों को पाना,
साधें लक्ष्य पर निशाना,
कांटे ही भले हो राह,
मंजिल को पाइए।
खुशी मिले असीमित,
बात यही सच मीत,
जीने का तो बस आप,
आनंद उठाइए॥
मनहरण घनाक्षरी
मेरा हिन्द मेरा देश,
भिन्न भिन्न परिवेश,
एकता अनेकता में,
ऐसी पहचान है।
शीश खड़ा हिम शैल,
पयोधि पखारे पैर,
गंगा जमुना-सी देखो,
नदियों से शान है।
आये यहाँ कितने ही,
पाये नहीं टिकने भी,
ऐसी पक्की मजबूती,
हमें अभिमान है।
भारत के मान पर,
इसके सम्मान पर,
आंच आने देंगे नहीं,
हमको ये आन है॥
मनहरण घनाक्षरी
बैठ के डोली में चली
पिया जी के घर गोरी,
मुखड़ा भी देखो कैसे
चमके जी आज है,
देख मुख सजनी का
घबराया चाँद भी तो,
उसको भी देखो कैसी
आय रही लाज है।
पिया के आँगन छाया
आनंद है अति भारी,
द्वारे देखोे सज रही
रंगोली की साज है,
बढ़ रही धीरे धीरे
पिया जी की देहरी पे,
पगों से बिखेर दिया
कलश अनाज है।
रूप घनाक्षरी
सुबह हुई है नव,
करे खग कलरव,
अरुण की ललिमाएँ
लेके आयीं नई भोर॥
तालों में खिले कमल,
कुहुक रही कोयल,
बगिया में देखो कैसे
नृत्य कर रहे मोर॥
हवा चले मंद मंद
फूलों की फैली सुगंध
कलियों के घूंघटे पे
भँवरे लेते हिलोर॥
प्रफुल्ल हुआ है मन,
झूम रहा है ये तन,
देख के ये दृश्य हम
भावों से हुए विभोर॥
रूप घनाक्षरी
बोल मीठे बोलिये जी,
मिसरी-सी घोलिये जी,
मीठे मीठे बोल देंगे
दिल की है गाँठें खोल॥
खोल देंगे गांठे ये तो
सबके बसेंगे मन,
मधुर बनेंगे रिश्ते
इसमें नहीं है झोल॥
झोल सब हट जाएँ,
दुख सब कट जाएँ,
इसीलिये बोलिये जी
बोलों को हमेशा तोल॥
तोल मोल ही बोलिये,
इससे नहीं डोलिये,
सीधे से ही दिल में जी
उतरें हैं मीठे बोल॥
रूप घनाक्षरी
द्रौपदी चीर हरण की पीड़ा को प्रस्तुत करती रूप घनाक्षरी
वार जब हुआ कोई,
अस्मिता है तब रोई,
हुई है आज देखिये
कि मर्यादा तार तार॥
तार तार हुआ चीर,
कहे किससे ये पीर,
अपमान भरा तीर
हृद के हुआ है पार।
पार न पीड़ा का कोई,
देख दृश्य लज्जा रोई,
रखा हो किसी ने जैसे
हिय जलता अंगार॥
अंगार-सा जले मन,
वेदना से हुआ सन्न,
जैसे कोई हथौड़े से
उर पर करे है वार॥
देव घनाक्षरी
विलासिता की होड़ में
अंधा हुआ मानव है,
बदल गया है आज
उसका रहन सहन॥
विदेशी करे नकल
मारी ही गयी अकल,
छोड़ सभ्यता अपनी
पश्चिम की करे वहन।
धरम करम छोड़
आगे बढ़ने की होड़,
संस्कृति हमारी का है
हो रहा दहन दहन॥
सुधरें हालात कैसे
हो रहा पतन ऐसे,
गिरना मानव का यूँ
सोच का विषय गहन॥
शकुन अग्रवाल
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