भूली-बिसरी यादें (forgotten memories)
भूली-बिसरी यादें (forgotten memories) : मेरे दोस्त राजेश मिश्रा ही सेक्रेटरी थे। इस फ़िल्म से पहले वह कई फ़िल्मों में मेकअप आर्टिस्ट और स्टंट का काम कर चुके और उन्हीं की नासमझी से मैं इस फ़िल्म का हीरो बना। मुझे मलयालम डॉयलॉग को रोमन में लिख कर दिया गया कि याद करूँ।
फ़िल्मसिटी गोरेगांव में छः नंबर सेट हमारा था जिसके सामने सड़क के किनारे शूटिंग की लोकेशन पर बस में मुझे चढ़ना था। दृश्य के मुताबिक़ मैं सीधा-सादा दक्षिण भारतीय नौजवान था और बंबई की लोकल लड़की से टकराने वाला था। वह लड़की टकराती है और मुझे आँख बंद करके जो डॉयलॉग बोलना था उसका मतलब हिन्दी में था कि ‘बहुत बेशर्म लड़की हो।’ उसके बाद उसका रोमेंटिक रिस्पॉन्स था।
सब कुछ कायदे से समझा दिया गया और मैं भी समझ गया। कैमरे को ट्राली के सहारे बस की खिड़की से लगाकर बिलकुल क्लोजअप सीन के मुताबिक़ तैयार रखा गया था। तीन रिहर्सल पहले ही हो चुकी थी और फाइनल शॉट के लिए बस के बीचोबीच रॉड पकड़ कर मैं कैमरे के ठीक सामने भीतर खड़ा था। जैसे ही कैमरा, लाईट, एक्शन कान में सुनाई दिया मेरी बगल में लड़की आ गई।
मैं पूरी तरह पहले से ही तैयार था। मैंने सीन के मुताबिक़ लड़की की बाँह पकड़ी और फटाफट डॉयलॉग बोल दिया। मैंने डॉयरेक्टर की आवाज़ सुना कट-कट-कट और साथ ही अपने गालों पर पट-पट-पट थप्पड़। यह जो कुछ हुआ पहले से तय नहीं था। लोग उस लड़़की को समझा रहे थे और मैं उसकी धुनाई कर रहा था। जब खींच कर मुझे उससे अलग कर बाहर लाया गया तब असलियत सामने आई।
दरअसल असली लड़की (हीरोइन) की जगह दूसरी लड़की जो कि मलयालम जानती थी उस बस को सामान्य बस समझ कर चढ़ गई। उसके पीछे हीरोइन। चूँकि मुझे कैमरे में देखना था इसलिए मैंने यह नहीं देखा कि आने वाली कोई और है। मेरे डॉयलॉग बोलते ही उसका वह रिस्पॉन्स नार्मल था लेकिन मुझे लगा कि नीचे रिहर्सल हो चुकी है तो इसने मारा क्यों? यह तो बस से निकलने के बाद देखा कि यह दूसरी लड़की है। व्हाइट टी-शर्ट और ब्लू जींस दोनों ने पहने हुए थे। जब भी कोई भूली-बिसरी बात सुनाने को कहता है, यह घटना याद आ जाती है।
उस दिन हमारी पैकिंग हो गई। वहाँ से पुलिस स्टेशन। थाना इंचार्ज मुझे देख कर बहुत चाहा कि मेरे खिलाफ चार्ज बनाए लेकिन यूनिट के लोगों ने सिफ़ारिश की और बताया कि डॉयलॉग आँख बंद करके बोलने की वज़ह से इस लड़की को मैं नहीं देख सका और यह डॉयलॉग रट्टा मारकर बोला था, मुझे सचमुच मलयालम नहीं आती।
इस पूरे संयोग को जब तक थाना इंचार्ज ने संयोगवश घटी दुर्घटना नहीं मान लिया तब तक हमारी पूरी यूनिट पुलिस स्टेशन में पड़ी रही। १९९७ में आज की तरह मोबाइल सभी के पास नहीं होते थे। इसीलिए मिश्रा जी का वकील उजाला रहते नहीं आ सका।
रात दस बजे लड़की के घर वालों से पूरे दस हज़ार रुपये देकर मामला सेटल हुआ। लड़की एफआईआर न दर्ज करवाए इस बात के लिए उसने शर्त रखा कि जब तक गोरेगांव में शूटिंग चलेगी उसको शूटिंग यूनिट के मेंबर की तरह ट्रीट किया जाएगा। इसका नतीजा यह हुआ कि जितने दिन वह और उसका परिवार आता-जाता और खाता-पीता रहा वह मेरी पेमेंट से कट रहा था।
डॉ. कविता नन्दन
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