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मलिन बचपन (filthy childhood)
मैने बचपन (filthy childhood को देखा है वह तो खीँच रहा था रिक्शा
ना खेल कूद ना उछलकूद ना स्कूल ना कोई शिक्षा
वो खीँच रहा था रिक्शा…
संख्या में वह दो तीन रहे थे
ढ़ेर कूड़े से कुछ बीन रहे थै
काम में वह तल्लीन रहे थे
भिखारी जैसे लग दीन रहे थे
हे प्रभूू।है तेरी ये कैसी परीक्षा
वो खीँच रहा था रिक्शा…
ना थी सज धज न रख रखाव
बोरी लटकी कमर पर नंगे पाव
मन में टीस और थे तन में घाव
मन में फिर भी जीने का चाव
जीवन से अब भी कैसा लगाव
दिल मेरा गया देख दरक सा
वो खीँच रहा था रिक्शा…
सिर पर उगे झाड़ से बाल
नहाने धोने का नहीं सवाल
तन पर चिंथड़े हैं फटे हाल
बुरा ही है बस जीवन का हाल
कहाँ तक पेश करुँ ये नक्शा
वो तो खीँच रहा था रिक्शा…
पेट भूख से है ये नीच करम
है लगी रोक फिर बाल श्रम
मज़हब ना कोई दीन धरम
क्या समझेगा कोई ये मरम
उनके मन में भी है हरक सा
वो खीँच रहा थख रिक्शा…
रोटी नहीं तो होगा कहाँ दूध
ऐसे बनेगा क्या इनका वजूद
सरकार ने रखी है आँख मूंद
चाहे हिन्दू हो या वह हो मसूद
क्यूँ है उनसे है ऐसी ये तिक्षा
वो खीँच रहा था रिक्शा…
कैसा रहा है बचपन ये बीत
बार २सियासी दलो की जीत
कोई हमदर्दी ना कोई है प्रीत
इस बचपन की है बस यही रीत
ना कोई शिक्षा ना कोई दीक्षा
वो खीँच रहा था रिक्शा…
भारत वासी
कोई बड़ी ये बात नहीं है
बस बात एक अदना सी
बंगाली गुजराती मद्रासी हैं
हम क्यूँ नहीं हैं भारतवासी
है मुश्किल विकास देश का
इस दोहरे राज के चलते
अन्धेरा यूँ ही विद्ममान रहेगा
इस दुसह दुराज के फलते
राष्ट्रीयता की यदि बात करे तो
लोग उड़ावें ये बात धुवाँ-सी
हम क्यूँ नहीं हैं भारतवासी
जब एक देश है एक मात है
एक दिन है और एक रात है
सूरज एक और चाँद एक है
फिर क्यूँ ना सबकी एक दूज हो
क्यूँ ना हो एक ही पूर्णमासी
हम क्यू्ँ नहीं हैं भारत वासी
एक ही अंग है एक संघ है
हर प्रदेश की अपनी जंग है
क्यू्ँ पंजाबी क्यू्ँ फिर बंग हैं
राग है अपना अपनी चंग है
क्यू्ँ राजस्थानी क्यू्ँ असम है
अब तो सबको एक क़सम है
कभी ना हो कोई बात जुदा सी।
हम क्यू्ँ नहीं हैं भारतवासी
एक संविधान और एक देश है
क्यू्ँ बटे हैं हम क्यूँ ये क्लेश है
बात अभी एक और शेष है
एक द्वीप एक उपनिवेश है
धर्म सम्प्रदाय चाहे कोई हो
पर हम सभी हैं भारतवासी
हम क्यू्ँ नहीं हैं भारतवासी
स्वाधीन भारत के हम प्रवासी
स्वाधीन रहें हम सब स्वदेशी
प्रदेशों की नागरिकता में बँटकर
क्यों कहलायें हम अब प्रदेसी
क्यू्ँ किसी को दें ऐसा मौका
बन जाये हम स्वयं उपहासी
हम क्यूँ नहीं हैं भारतवासी
कहने को तो ये देश है अपना
पर राष्ट्रभाव का भाव नहीं है
अपने घर आँगन तक सिमित
सोचो यह अच्छा प्रभाव नहीं है
भाव राष्ट्रीयता का भी तो उभरे
पर नहीं मिलती ऐसी कोई दवा सी
फिर हम क्यू्ँ नहीं हैं भारतवासी
उपनामों और जात पात में उलझे
कैसे मसला ये देश का सुलझे
भारतमाता भी उतारेगी आरती
यदि बन जायें हम सभी भारती
हर देश हमारी तारीफ करेगा
हर कोई देगा भी तुम्हे शाबाशी
हम बंगाली गुजराती मद्रासी है
पर हम क्यूँ नहीं हैं भारतवासी
जो देश के हैं निर्माण में शामिल
हैं बहुत कुशल और काबिल
होने थे जो अज़ीज़ हर दिल
सम्मान उन्हे नहीं रहा है मिल
देश की मिट्टी से बने उपजे
वह श्रमिक हो गये कैसे प्रवासी
हम बंगाली गुजराती मद्रासी है
पर हम क्यूँ नहीं हैं भारत वासी
असमानताओं की वेदना
दूध पनीर सब लिये गोद में
बच्चा साथ में और अकड़ता था
एक तरफ़ भूख से अकुलाकर
बच्चा माँ का हाथ पकड़ता था
मुझे ये ले दे वह ले दे माँ
बस खाने को कुछ भी दे-दे माँ
नंगे ही पाँव गर्म-गर्म रेत में
पैर भी बच्चा ख़ूब रगड़ता था
एक तरफ़ वातानुकूलित मौसम
एक तरफ़ ठंड़ लगने का जोखिम
गर्म वस्त्रों के अभाव में देखो
ठंड़ से बच्चा रोज़ अकड़ता था
बीच बजरिया थे व्यंजन सारे
कुछ थे मीठे और कुछ थे खारे
माँ की पहुँच पर थे सब भारे
निरख बिलख ख़ूब फफकता था
एक तरफ़ तो सब दूध बादाम
एक तरफ़ ना हैं हाथ छदाम
हाथ खीँच माँ का माँगे दाम
बच्चे की हर कोशिश नाकाम
हिड़की मार के बच्चा रुदन करे
जमीँ पर पैर ख़ूब रगड़ता था
कुत्ता एक कार में क्या देखा
खिँच गयी एक मस्तक पर रेखा
कार के नीचे एक कुत्ता आया
मन मसोसा और अकुलाया
चंचल बस ये ही समझ में आया
कि कुत्ता वह तो सड़क का था
शिक्षा दीप
शिक्षा दीप हाथ में लेकर, अन्धेरों को दूर भगाओ
भटक रहे हैं जो राहों में उन्हे शिक्षा दीप दिखाओ
शिक्षा से सिर पर ताज हो, शिक्षा से ही हर राजन है
शिक्षा ही वह साधन है जिससे महके घर आँगन है
बिन शिक्षा भाग न जागे, शिक्षा से भाग जगाओ
भटक रहे हैं जो राहों में उन्हें शिक्षा दीप दिखाओ
शिक्षा से आशाऐं जगती आशा से दुनिया चलती है
शिक्षित हो होकर दुनिया देखो कैसे हमें छलती है
समीप तुम शिक्षा के आओ शिक्षा से दूर ना जाओ
भटक रहे हैं जो राहो में, उन्हें शिक्षा दीप दिखाओ
दीपशिखा ज्योति समेटकर, करती है अन्धियारा दूर
राह देख अग्रसरित होगा, हो न सकेगा कोई मजबूर
आनन्दित होगा भरपूर, शिक्षित होकर हाथ बढ़ाओ
भटक रहे हैं जो राहों में, उन्हें शिक्षा ।दीप दिखाओ
निरक्षरता एक अन्धकार है शिक्षा की ही दरकार है
जीवन ये हो जाये हल्का सिर अज्ञानता एक भार है
सफल जीवन हो कलका, सफलता इससे अब पाओ
भटक रहे हैं जो राहों में, उन्हे ये शिक्षा दीप दिखाओ
निरक्षर जो रह गया हो उन्हें ये अक्षर ज्ञान करवाओ
ऊँगली पकड़।पकड़ कर उनको शब्दसार समझाओ
निरक्षरों को समीप बुला कर, दीप से दीप जलाओ
भटक रहे हैं जो राहों में, उन्हें ये शिक्षा दीप दिखाओ
शिक्षा दीप हाथ में लेकर, अन्धेरों को दूर भगाओ
भटक रहे हैं जो राहों में, उन्हे ये शिक्षा दीप दिखाओ
शब्द सम्बोधन
ऐ शब्दो ऐ शब्दो! तुम आ जाओ
आओ मेरी पाती पर छा जाओ
तुम मेरी इस जाति पर ना जाओ
आओ मेरी पाती पर छा जाओ
मेरा मन एक कवि का मन है
संवेदन-सी एक छवि का मन है
ना कोई मंच नहीं ना ही आसन है
शौहरत और ख्याति पर ना जाओ
आओ मेरी पाती पर छा जाओ
तुम मेरी इस जाति पर ना जाओ
कोई संग्रह है ना कोई प्रकाशन
यूँ ही टपक रहा है मेरा छाजन
विगत छलित दलित हे-राजन
दीन हीन समझ ना टरकाओ
आओ मेरी पाती पर छा।जाओ
तुम मेरी इस जाति पर ना जाओ
अंधियारी निशा में दीप जला है
प्रकाश पुंजों के समीप जला है
बही हवा के विपरीत जला है
सिसकती इस बाती पर ना जाओ
आओ मेरी पाती पर छा जाओ
तुम मेरी पाती पर छा जाओ
अब कर रहा हूँ इतना मैं इंगित
नही बन पाया कवि मैं किंचित
अब भी क्यूँ रह जाऊँ मैं वंचित
तुम मेरी इस माटी पर ना जाओ
आओ मेरी पाती पर छा जाओ
तुम मेरी इस जाति पर ना जाओ
तुम सूर और तुलसी पर छाये
कृपा कबीरो जायसी पर जाये
हम पर नहीं कहीं दूर के साये
व्यथा आत्मघाती पर ना जाओ
आओ मेरी पाती पर छा जाओ
तुम मेरीइस जाति पर ना जाओ
मेरा कहाँ गया वह बचपन
अब मन मचले हम गये छले
कैसे कर सपने अपने सच ले
कितना ही कूदे कितना उछले
अब रह गयी मन में ये उलझन
अब मैं कहाँ से लाऊँ वह बचपन
पैर पैंजनी कटिबन्ध कमर में
थे बाँन्धे हाथ में कर बन्ध
बन्धन ये सब के सब टूट गये
पर बाँध ना पाये वह बचपन
अब मैं कहाँ से लाऊँ वह बचपन
काला डोरा पड़ा ना फीका
जंजाल बना वह ही जी का
बढ़ते पढते हो गया वह काला
हुई दिल मेंकैसे उसकी उतरन
अब मैं कहाँ से लाऊँ वह बचपन
वह अल्प साल थे बड़े कमाल
ना लोभ ना लालच का ख्याल
बढ़ती उम्र से हो गये मालामाल
साल हो गये ये पचपन छप्पन
अब मैं कहाँ से लाऊँ वह बचपन
ना जाति धर्म ना भेद, बैर भाव
जिज्ञासा, और बढने का भाव
ना स्वार्थ ना कोई लाग लगाव
ना हुई कभी किसी से अनबन
अब मैं कहाँ से लाऊ वह बचपन
मन में वह चंचलता वह चपलता
मन फिर उसके लिये मचलता
क्या वह पल थे क्या वह कल थे
रह गयी मन में वह तड़फन
अब मैं कहाँसे लाऊ वह बचपन
था मन पवित्र सदा सचरित्
बन गया कैसा अब रेखा चित्र
हम विचित्र ना अब रहे मित्र
थी ना कलुषिता ना लान्छन
अब मैं कहाँ से लाऊँ वह बचपन
है वही मही जाने क्या हवा बही
मक्खन रहा ना कहीँ दूध दही
फँस गये हम तमस गये हम
जाने कहाँ ये बोतल आयी है
और आया ये कहाँ से ढक्कन
अब मैं कहाँ से लाऊँ वह बचपन
है मलाल कहाँ वह बाल काल
बिचकी गाल ना है सर पै बाल
बिगडी चाल हम हो गये हलाल
बस रह गयी है मन में तड़फन
अब मैं कहाँ से लाऊँ वह बचपन
अब मेरा कहाँ गया वह बचपन
वैवाहिक विज्ञापन
मै ढ़ूँढ रहा था तुझको दुनियाँ के हँसी नजारों में
पर छप रही थी तुम राष्ट्रीय स्तर के अखबारो में
मध्यस्थो के किये रिश्ते जो लम्बे-लम्बे थे खिँँचते
अब खाली जल्दी हो जाते हर दिन रिसतेे रिसते
राह इस पीढी ने खोजी कब तक वह यूँ ही पिसते
अब’रिश्ते ही रिश्ते’ अब रोज़ छपतेअखबारो में
पर छप रही थी तुम…
जब तक हैं ख़्वाब कुँवारे दुनियाँ के हँसी नजारे
हर नगर गाँव गली तुम्हारा हमराही तुम्हे पुकारे
तलाश एक ही मन में हम दिल किस पर ये हारें
पर पल रही थी तुम तो माँ बाप के हँसीसहारों में
मैं ढूँढ रहा था…
मै ढूँढ रहा था तुमको तब तो वादिये कश्मीर में
खुदा से माँग रहा था अपनी सूनी-सी तक़दीर में
मैनै मोबाइल में देखा था एक सुन्दर-सी तस्वीर में
ये मध्यस्थ बना मोबाइल बिकता ख़ूब बाजारो में
मै ढूँढ रहा था…
मैं उलझा था नैट में देखकर तेरी उस तस्वीर को
उसमे एक आकर्षण मैं कोसता रहा तक़दीर को
रंज राँझे का मिट गया था देख के अपनी हीर को
भा गयी थी दिल को ऐसो थी नहीं कोई हजारो में
मै ढूँढ रहा था…
मै लैपटोप में पढ़ रहा था भविष्य की तक़दीर को
अविरलता सेथा देखता अपनेे हाथ की लकीर को
ग़मग़़ीन गज़लों में देखा कभी ग़ालिब को मीर को
चैट नैट में करके मैं भी हो गया शामिल अमीरों में
मै ढूँढ़ रहा था…
हम जात पात ढूँढ़ते पहले मिले जुले संस्कार भी
कैसा परिवार देखते, कैसा परिवार का वक्कार भी
टूटते नहीं थे वह रिश्ते, हों चाहे लाख तकरार भी
शीघ्र सूना हो ये जीवन, फिर रंगत कहाँ बहारो में
मै ढूँढ़ रहा था…
विज्ञापनों से हम अब ढूँढ़े है, अपने जीवन साथी
रिश्तेदारो की नहीं ज़रूरत ना चाहियें हमे बाराती
संस्कारो का अवमुल्यन संस्कारो पर चली दरांती
बात अब यूँ ही हो जाती पूरी विज्ञापनी इशारों में
मै ढूँढ़ रहा था तुमको दुनिया के हँसी नजारों में
पर छप रही थी तुम तो राष्ट्रीय स्तरके अखबारों में
हैलो और हा़य
जहाँ शुरू में सबसे पहले
सम्बोधन होता हैलो और हा़य है
ना राम नाम ना विनम्र नमन्
इस हाय का क्या अभिप्राय है
जहाँ शुरु में सबसे पहले सम्बोधन
हाथ उठा कर होती है टाटा
जैसे कोई मार रहा हो चाँटा
अभिवादन में भी कितना घाटा
इस संस्कृति को किसने छाँटा
हम तो यह समझ ना पाये हैं
ना राम नाम ना विनम्र नमन्
विचार नहीं किया है हमने
संस्कृति पर यह कैसी मार है
बाद इस हाय तौबा के लड़की
लड़को को बोलती यार हैं
लड़कियो के यार नहीं होते हैं
पर इनको कौन समझाये ये
ना विनम्र नमन् ना राम नाम
मिले तो कहते हैं अबे ओ साले
भाई रिश्ता कोई और बना ले
क्या रिश्तों के पड़ गये हैं लाले
क्या दोस्ती में कर दी बहन हवाले
इस रिश्ते से हम तो ख़ूब लजाये हैं
ना राम नाम ना विनम्र नमन्
सी-यू कहते हैं जब चलते हैं
मतलब सीधा मैं तुम्हें देखूगाँ
धमकी है या विनयशीलता
या जान ही जोखि़म में दे दूगाँ
हाथ उठाना चाँटा है या अभिनंदन
परस्पर चाँटा क्यूँ दिखाये हैं
ना राम नाम ना विनम्र नमन्
शर्मो-हया तो बैठ गयी है डोली
हा़य हैलो की बेशर्मी संग ठिठोली
यही बहुत है जो अब तक हो ली
शर्मो-हया और कोई लाज़ नहीं है
हम हो गये कितने हरजाये है
ना राम नाम ना विनम्र नमन्
इस हाय का क्या अभिप्राय है
इक ख़बर ऐसी
इक ख़बर ऐसी सुनी थी कि दिल ये टूट गया
दामन-ऐ-सब्र बहुत थामा मगर फिर छूट गया
एक।परिन्दा जो क़ैद-ऐ-कफ़स था अब तक
वो परिन्दा उड़ चला वह परिन्दा अब छूट गया
वो उस अनन्त सफ़र पर, छोड़ के सब सामान
साथ लेकर कर्म चला, जग ये झूठा छूट गया
कवि हृदय कवित्व मन, संवेंदनाओं से था भरा
स्वर हृदय मन से उठा, मुखारबिंद से फूट गया
था अटल ऐसा पटल बंधा ना राजनीति के दल
हँसमुख विनोदी काव्य से, वाही-वाही लूट गया
श्रद्धा सुमन अर्पण से कर भी कम्पित हो गये
अंजलि सुमन झरने लगे, स्वर धारा फूट गया
आरती का दीया
है प्रफुल्लित कितना यूँ आज ये आरती का दीया
श्रद्धा के करों से जिसे जलता हुआ चलता किया
तेल आया बाती आयी और उसको उष्मित किया
पात्र का आलम्बन दिया और उसको पुष्पित किया
श्रद्धा की है अवधारणा श्रद्धा से ही प्रवाहित किया
भाव हृदय में संजोकर भावनाओ भी भावित किया
एक पुण्य की श्रद्धा उपजी और उसे नामित किया
फूलों की सेज पर वह इतराता इठलाता जलता दिया
श्रद्धा के करों से…
शीत शीतल लहरों पर, वो चलता गया कुछ डोलता
प्रतिबिम्ब जल में निरखता और मान तकता तौलता
शीतलता का परिवेश था, पर तेल हृदय में खौलता
नीर की नीरवता में निरन्तर रहा वह लौ को झौलता
झकझोर पवन ने दिया पर जब तक वह कुछ बोलता
पुष्प बाती तरल में तैरते, जीवन से हाथ मलता दीया
श्रद्धा के करों से…
जीवन की मुश्किलें कैसे वह बिन आलम्बन के तैरता
मिले सहारा कहाँ जिसके मन में भी ना कोई बैर था
मिट गया दीप जीवन ये जीवन भी कब तक ठहरता
था अग्नि सिर पर उठाये जीवन में जिसके कहर था
आतंकी-सी ज्वाला लिये अब मन में उसके ज़हर था
मिटने के लिये तैयार जो कब तक वह फलता दीया
श्रद्धा के करों से…
एक के मन की अवधारणा एक के का जीवन क्षरण
जीवन लेकर दूसरे का, कैसे बने है हम करुणा करण
चलता तो है संसार ये पर है ये कैसे-कैसे इसके चलण
कैसे माँगे जीव यहाँ किसी से अपने जीवन को शरण
बस अपने हित साधन को चंचल करें है जीवन हरण
श्रद्धा के करों से…
है प्रफुल्लित। कितना यूँ आज ये आरती का दीया
श्रद्धा के करों से जिसको जलता हुआ चलता किया
तिरंगा झंडा
शहीदो को नमन कर लो उनकी जान तिरंगा है
लहराये हमारा ये परचम हमारी शान तिरंगा है
हर कोने में दूनियाँ के हमारी पहचान तिरंगा है
चढे ऐवरेस्ट की चोटी कितना बलवान तिरंगा है
रंग केसरिया है ये शहीदो का बलिदान तिरंगा है
श्वेत रंग जवाहर की शान्ति का वरदान तिरंगा है
धानी रंग से खुशहाल कितना धनवान तिरंगा है
नीला रंग छाया सारे में धरती आसमान तिरंगा है
चक्र औरचौबीस तिली समय का ध्यान तिरंगा है
जाने कितने लोगों ने दे दी अपनी जान तिरंगा है
जो ना किसी से उतरे ऐसा ये ऐहसान तिरंगा है
बोस और गाँधी के सपनो का अरमान तिरंगा है
दबे कुचले लोगों का कुछ ऐसा निदान तिरंगा है
डा० साहब का कानून उनका संविधान तिरंगा है
शीश गर्व से ऊँचा रहे ऐसा ये अभिमान तिरंगा है
तीन रंगों से है शोभित ऐसा ये परिधान तिरंगा है
जयघोष से ग्रवित कर दे ऐसा जयगान तिरंगा है
चंचल जिसे गौरव से गाये ऐसा यह गान तिरंगा है
करुण कौवा
कौवे को कपटी कहें, करे हैं कोयल का गुणगान
कौवे के उपकार को, नही सका कोई भी पहचान
कौव्वे शुभ सन्देश को, लेके बैठे हैं मुण्डेरी आन
शुभ शकुन सन्देश दें, कोई आने वाला है मेहमान
कौव्वों में कौमी एकता, जब जाये कौव्वे की जान
कौव्वे की अकेली जान पर होना चाहें सब कुर्बान
देखो हम कितना बँट चुके, सीख इनसे लो नादान
कोई मरे।या कोई जिये, है कहाँ तुलना में इन्सान
कोयल कौवे के नीड़ की एक कर लेती है पहचान
अपने मौसम के आनन्द में उसमें अण्डे देती आन
कौव्वे उनकी सेवा करें पर ये कोयल है धोखे बाज़
परवरिश भी कौव्वा करे, कोई छुपा नहीं है राज
श्राद्धों, पित्रपक्ष में, करते फिरें हैं कोव्वों की खोज
पित्रपक्ष में धरा पर विचरण करें, काक रूप में रोज
कौव्वे तो पित्र तुल्य हैं, ना करो कौव्वौं का अपमान
इन गुणों को देखकर, कौव्वें तो हैं कोयल से महान
चंचल जिनकी मीठी वाणी, वो हैं अति स्वार्थी लोग
मधु वाणी के आधार पे, साधते फिरते हैं अपने जोग
अन्तरराष्ट्रीय पुरुष दिवस पर
पुरष पौरष जब-जब बढ़े, बढे़ परिवार की शान
पर पीड़ा को पुरुष जो परखे, वही पुरुष बलवान
बहुत रत्न इस दुनिया मे, दुनिया रत्नों की खान
पर सन्तोषी परुष धन पराया, समझे धूरि समान
कर्म जो पुरुष करे कर्म से ही, तो परुष पहचान
अकर्मण्यता जहाँ रहे, वो हैं सदा ही पुरुष नादान
सदाचारी व्यवहारी पुरुष, सदा पाता है सम्मान
सदाचार व्यवहार में, बस सबको ही अपना जान
परिवार का प्रहरी रहे, हर भले बुरे का रहे संज्ञान
कोई क्या-क्या कर रहा, उसे सबकी रहे पहचान
संसार की हर शय का, पुरुष को चाहिएअभिज्ञान
वो विकट घड़ी में ढूँढले हर समस्या का समाधान
स्त्री का सब गुणगान करें, ना कोई पुरष ले संज्ञान
पुरुष परिवार का साया हैपर ये कौन करे पहचान
वंचित है ये व्यथा है, पर है सजग एक स्वाभिमान
चंचल मान चाहिए, ना हो मान का कहीँ अपमान
नारी कितनी महान
अल्प-सी अन्तर्मन में करो कल्पना
नारी बिन खाली ये सारा जहान है
रत्न प्रसविनी वसुधा-सी है नारी
नारी की महिमा ही बड़ी महान है
नारी मधुरता है ममता है ।माया है
प्राण पुरुष की नारी ही तो काया है
नारी पत्नी है पन्ना रूप है धाया है
पुरुष पूर्णता नारी से ही तो पाया है
लाल ज्वाहर जैसे आये हैं धरा पर
कहीं हनन ना हो रत्नो की खान है
अल्प-सी अन्तर्मन में करो कल्पना…
महान पुरुषो की नेपथ्य नारी होती है
अपना बस सब कुछ वह हारी होती है
नारी की कितनी भागीदारी होती है
नारी की आभारी दुनियादारी हौती है
नारी की भक्ति शक्ति पर अभिमान है
अल्प-सी अन्तर्मन में करो कल्पना…
रिश्तों में बहन बेटी माँ और दादी है
प्रेम रूप में प्रेमिका-सी शहजादी है
बन्दिशें है ना कहीं पूर्ण आजादी है
समानता से विरत आधी आबादी है
फिर पूर्ण समर्पण बडा बलिदान है
अल्प-सी अन्तर्मन में करो कल्पना…
जीवन भर धर्म परायण करती है
नर को नर से नारायण वह करती है
रुप बदल रूप कँई धारण करती है
विशिष्ठ कर्म, नही साधारण करती है
कोई अन्जान नहीं सबको ये भान है
अल्प-सी अन्तर्मन में करो कल्पना
नारी बिन खाली सारा ये जहान है
भृंग-भ्रमर
अलि कली गली-गली भ्रमित भ्रमर है
हर पुष्प पराग पर त्वरित तीव्र नज़र है
ललचाया फिरता है एक रंग रूप का
तलाश प्रकाश एक ही है हर घूप का
रस रंगी जंगी दंगी रूप एक अनूप का
पुष्प चयन को उड़ता फिरता फरफर है
हर पुष्प पराग पर त्वरित तीव्र नज़र है
संरचना रूप रंग तो इसका काला है
खिले हर फूल-फूल पर ये उड़ने वाला है
भृंग उड़ता लिये तरंग रंग ढंग निराला है
हर फूल सुगन्ध से कैसा वह तरबतर है
हर पष्प पराग पर त्वरित तीव्र नज़र है
भँवरा भटकता फिर रहा है बाग़ बाग में
मधुप मधुपान की तड़फ एक अनुराग में
कुसुम के कलुषित लिपटा फिरे पराग में
प्रेम पिपासा एक जिज्ञासा में मधुकर है
हर पुष्प पराग पर त्वरित तीव्र नज़र है
भँवरे की गुन्जन एक गुन्जार मधुर।है
जाता है कुसुम सुन्दर सम्भार जिधर है
रस प्लावित भँवरा रहता भी तरबतर है
ये चंचरीक मिलिन्द मिलीमुख भ्रमर है
हर पुष्प पराग पर त्वरित तीव्र नज़र है
ऐसे ही मानव मन भी जग में भ्रमित है
एक एक देख-देख के ना होता तृपित है
कर होश सन्तोष ही जीवन का अमृत है
मत मचल हो सफल ये चंचल का स्वर।है
हर पुष्प पराग पर त्वरित तीव्र नज़र है
तितली
ये अनजाने कौन देश से आयी तितली
ये कैसे रंगीले परिवेश को पायी तितली
मन हरणी तितलियों के होते पर रंगीले
उमंगभर तितलियों को देख कर जी लें
मधुरस तितली कोमल पुष्पों से पी ले
रंग रंगीले हैं पर, पर इनके कँई कबीले
खिले हर फूल पर जाती पायी तितली
ये अनजाने कौन देश से आयी तितली
मन चाहे हाथ बढ़ाये तितली को छू लें
कभी कोई इसकी ना परवाज को भूले
कोमल फूलों की पंखुड़ियों पर ये झूले
मन मन मुस्काये और मन ही मन फूले
शूल संकट से नाकभी घबरायी तितली
ये अनजाने कौन देश से आयी तितली
कँई रंगों से है रंगीन रंग रंगीली तितली
पल पल में छल ये छैल छबीली तितली
मकरन्द पराग देखकर मचली तितली
बच्चे चंचल बने चंचल बन जाये तितली
अंकुराये फूल बाड़ी में अंकुराई तितली
ये अनजाने कौन देश से आयी तितली
करती देखी सदा रंगों से होड़ तितली
पकड़े इसको देती है रंग छोड़ तितली
पर्यावरण में बड़ी विचित्र खोड़ तितली
एक दो नहीं यें हैं कँई करोड़ तितली
उड़ती कतराती इतराती आयी तितली
ये अनजाने कौन देश से आयी तितली
तितलियाँ उड़ते से फूल हैं बिन डाली के
देख परखती फिरती करतब ये माली के
मुस्कुराते फूल शोभा पूजा की थाली के
मुऱझायें तो पात्र बन जाये जो नाली के
रंगों से चटखी ना कभी मुरझाई तितली
ये अनजाने कौन देश से आयी तितली
हे वतन तुझको नमन
जो फिजाँ देखी थी मैने, वो फिजाँ तेरी थी वतन
पहली सरगोशी-ऐ-हवा, भी तो तेरी ही थी वतन
पालने के झूले में लगी, वो हवा भी तेरी थी वतन
जिस धरा पर पाँव था धरा, वह भी तेरी थी वतन
रक्स करते थे पाँव, जिस जमीँ पर तेरी थी वतन
हे वतन तुझको नमन…
अब हर घड़ी हर पल सोचता रहूँ मैं हर जतन
भावाविरोध कोई ना उपजे ना किसी भी जतन
कोई दुश्मन कर ना पाये, कभी तेरा कोई पतन
तेरा है तुझ पर ही जायेगा, मेरा ये जान-ओ-तन
हर सूरत क़ायम रहे, हमारा ये अमन-ओ-अमन
हे वतन तुझको नमन…
नज़र तुझ पर जो कोई उठे, होगा उसका शमन
हो जायेगा हर सूरत, अब हरेक दुश्मन का दमन
पहन लेगें हम भी अब इस तिरंगे का ही कफ़न
आज हम सब मिलकर बोलें, बस ऐसे ही बचन
हे वतन तुझको नमन…
तेरा तन, तेरा ही मन है, तेरा ही सब धन हे वतन
तुझ पर कोई आँख उठाये, होने देगें हम ये कतन
एक हमारी संस्कृति, और एक ही है गंगो-जमन
एक पूजा एक ही वाणी, एक ही शब्द-ओ-कीर्तन
देशभक्ति की इस धार में, बहता रहा है मेरा ये मन
हे वतन तुझको नमन-हे वतन है तुझको नमन
मायका कितना बद जायका
वर, वधु से ससुराल की बात करें तो
उसका मुंह हो जाता है बद जायका
ऐसी पत्नी से पति कैसे लेगा पंगा
जिसके मुँह पर मायका ही मायका
मायके की ही हर दम वह बात करे
मायका है उसके आदर्शो की नगरी
सास ससुर चाहे। प्यासे मर जावें
ना ही भर कर लावे जल गगरी
कहे कि क़िस्मत फूट गयी है मेरी
मैं क्या करूं ऐसे लापरवाह वर का
जो चौबीस घंटे में एक बार भी
ना कभी ज़िक्र ही करे मेरे घर का
मेरी माँ तो छीन झपट कर लावे
सब चीजेघर में इधर उधर से
सारे दिन मैं मौज करा करू थीं!
और वह ही काम करे सब घर के
मेरी बहन ने तो ससुराल में जाके
लगा दी अपनी सास भी ठिकाने
तेरी माँ का भी मैं इलाज़ ना कर दूं
तू तब तो मुझको जाणे मरजाणे
मेरा तो है बाप भी है ऐसा कि
मेरी माँ के आगे भी कभी ना बोले
मेरी माँ यदि आँख दिखा दे तो
वह उसके आगे और पीछे ही डोले ।
हाँ तेरे बाप की भी ना रहू्ँ धौँस में मैं
हाँ बस तू अब इतना अब करले
हम दोनों की तो कटे मौज से
त्रबस अब बर्तन अलग तू धर लें
फौन कान से हर दम लगा ही रहे
जैसे वह रिपोर्टर हो टी वी की
वर भी अब लाचार-सा दिखे है
जैसे नौकरी कर ली हो बीवी की
रिश्तेदार का भी कोई मान भी नहीं
अब ख़त्म सब की हिस्सेदारी
सम्मान मायके वालों का केवल
रह गयी जैसे एक ही रिश्तेदारी
बोला वर हमारा कैसे होगा गुजारा
तर्ज़ तेरी कुछ ये ठीक नहीं है
मात-पिता का अधिकार है सेवा
कुछ उनको यह कोई भीख नहीं है
ये सुनकर वधु भी यह बोल उठी
ठीक तो तेरी भी ये तर्ज नहीं है
मात-पिता कुछ भी क्यों नहीं देंगे
क्या उनका कोई कुछ फर्ज़ नहीं है
धर्मपाल सिंह वाल्मीकि
सहारनपुर
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