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कर्तव्य
गौरवशाली दिन आया आज
बना देश गणतंत्र हमारा
रचा गया सुदृढ संविधान
बनी लोकतांत्रिक सरकार
मिले मौलिक अधिकार हमें
खुशियाँ हमसब खूब मनाए
कर्तव्यों को लेकिन अपने
देखो हम भूल न जाएँ
हमारे ही कंधों पर आयी
आज बड़ी ये जिम्मेदारी
जाति धर्म से ऊपर उठकर
आगे बढनें की अब है बारी
आओ शपथ लें आज ये मिलकर
सुरक्षित हाँथों में ही सौपेंगे
सुशासन की बागडोर
देश रहे प्रगति पथ पर
खुशहाली हो चारो ओर….
किसान
तपती झुलसाती गरमी में
जब तन किसान का जलता है
तब जाकर धरती का सीना चीर
एक बीज प्रस्फुटित होता है
सींच पसीने से धरती को
जब तन मन की सुध बुध खोता है
तब मिटती है क्षुधा विश्व की
नव जीवन का अंकुर खिलता है
कड़कती बिजली और बारिश में किसान
जब जब हल को उठाकर चलता है
तब तब भरती हैं खलिहानें
तब जाकर कहीं निवाला बनता है
खुद डूबा रहता कर्ज़ों में
पेट हम सबका भरता है
टपकती है टूटी झोपड़ी की छत उसकी
छप्पन भोग का थाल हमारा सजता है
जो हम सबकी भूख मिटाता है
खुद दानें-दानें को तरसता है
शायदअगले साल बदलें हालात मेरे
हर साल यही सोच कर कटता है
है हम सबका अन्नदाता यही
फिर इसके घर चूल्हा क्यो नहीं जलता है
क्यो भूखे सोते हैं बच्चे
दिन फटेहाली में क्यों गुज़रता है
जब लहराती हैं फसलें खेतों में
देख झूम ख़ुशी से उठता है
अब होंगे पूरे अरमान सभी
सपने लाख संजोता है
इस बार ले दूँगा माँ को नई साड़ी
बच्चे न खेल खिलौनों को तरसेंगे
लेकिन कभी बाढ़ कभी सूखे के कारण
सारे सपनों पर पानी फिरता है
जीवन जब बन जाये अभिशाप ग़रीबी से
हाहाकार-सा दिल में उठता है
किस से कहे व्यथा अपनी
यहाँ कौन किसकी सुनता है…
यहाँ कौन किसकी सुनता है…
नारी
ना पूछ मुझसे
क्या हो कौन हो तुम?
प्रकृती का अनुपम वरदान हो तुम।
संतप्त हृदय को भावों से जो भर दे
ऐसा मधुर मदिर एक राग हो तुम।
इन्द्रधनुष के रंगो से सजी
फूलों का संदली पराग हो तुम।
मन के तारों से निकलने वाली
वीणा की मधुर एक तान हो तुम।
इन आवाजों के शोर में भी
सुकून भरा एक गान हो तुम।
कभी अबला, कभी असहाए हो तुम
कभी शक्ति की प्रचंड ज्वाल हो तुम।
कभी दीप शिखा-सी कम्पित हो
कभी प्रज्वलित अग्नि की मशाल हो तुम।
अबोध बालिका हो तुम कभी
तो कभी बहन के रूप में
घर घर की लाज हो तुम।
कभी बनती सखी सहेली तुम
कभी बचपन की अठखेली तुम।
कभी सुन्दरी सहचरी-सी कोमल काया
कभी पार ना हो ऐसी माया।
कभी माँ की ममता से भरी हुई
सागर-सी गहरी विशाल हो तुम।
कभी हो राधा, कभी रुक्मिणी
कभी मीरा हो तो कभी पदमिनी।
जाने कौन-सी हो संजीवनी
मन पर कर लेती अधिकार हो तुम
हर युग का है आरम्भ तुमसे
जीवन का आदी अनंत तुमसे।
चंचल, चपला, कामिनी, दामिनी
लाजवंती क्ष्माशील जन्मदायनी।
हर उपमा तुम में है समाहित
फिर भी तुम हो अपरिभाषित।
अपना तन मन अर्पण करने वाली
वन्दनीय एक नार हो तुम…
वन्दनीय एक नार हो तुम…
संघर्ष
सीप मिल जाते हैं किनारों पे
मोती मिलता है गहरे पानी में
जीवन सागर के मोती चुननें
खारे पानी में उतरना होगा
तपती मरुभूमि में भटके बिना
पानी के सोते कहाँ मिल पाते हैं
ठंडी छाँव में रुकनें से पहले
अंगारों पर चलना होगा
इस जग की रीत निराली है
फूलों संग काँटों भरी फुलवारी है
फूलों के हार पहनने से पहले
काँटों से भी उलझना होगा
संयम का दीपक ग़र जलता रहे
अंधेरे सारे मिट जाते हैं
शीतल चाँदनी में सोने से पहले
संघर्षों की ज्वाला में जलना होगा
प्रयत्न किये बिना कुछ मिलता नही
सफलता मिलती नहीं आसानी से
कुंदन-सा दमकने से पहले
सोने-सा हमको तपना होगा
विघ्न बाधाओं से ठोकर खाकर ही
मंज़िल के निशाँ मिल पाते हैं
धूल धूसरित पथरीले पथ पर
गिर गिर कर फिर संभलना होगा…
गिर गिर कर फिर संभलना होगा…
साथ छूटे ना
देखो हाँथ छूटे ना कभो
साथ छूटे ना…
कदम क़दम संग बढ़ते जाएँ
हर आफत से लड़ते जाएँ
कैसी भी हो मुश्किल की घड़ी
देखो हाँथ छूटे ना कभी
साथ छूटे ना…
पत्थर मिलें या मिलें शूल
आये आंधी तूफान या दुख की धूल
पत्थर सब बन जाएंगे फूल
देखो हाँथ छूटे ना कभी
साथ छूटे ना…
जीवन है सुख दुख की लड़ी
मिले हाँथों से हाँथ तो बने कड़ी
इस कड़ी की ताकत है हर आफत से बड़ी
देखो हाँथ छूटे ना कभी
साथ छूटे ना
हैं अलग अलग, पर आज एक हो जायें
चलो आसमान पर छा जाए
मिल जायें तो क्या ना कर जाएँ
बस हाँथ छूटे ना कभी
देखो साथ छूटे ना…
ज़रूर
छाए बादल हैं घनघोर
कड़कती बिजली-सी चारों ओर
है अँधेरी स्याह रात
सूझता हाँथों को न हाँथ
पर देखना, चाँद निकलेगा ज़रूर…
मन हो रहा बेकल
जाने क्या होगा कल
ख्वाइशों पर पहरा है
घाव इस बार गहरा है
पर देखना, ये दिल संभलेगा ज़रूर…
लड़ाई है आर पार की
है फ़िक्र जीत हार की
मंज़िल है अभी दूर
हालातों से हैं मज़बूर
पर देखना, कोई राह निकलेगी ज़रूर…
ढूँढ रही है नज़र
मिले कोई अच्छी ख़बर
दिल कह रहा है मगर
बस कुछ देर और ठहर
फिर देखना, ये समा बदलेगा ज़रूर…
बस थोड़ी दूर और
पैदल चलते-चलते थक कर
माँ के आँचल को खींच कर
छोटू ने पूछा…
माँ हम कहाँ जा रहे हैं?
हमारा घर तो बहुत पीछे छूट गया
माँ माँ चलो न वापस घर चलो
हम कब पहुँचेंगे माँ?
बहुत भूख लगी है
धूप भी बहुत तेज़ है।
माँ अब और नहीं चला जाता
ये सड़क तो ख़त्म ही नहीं होती,
माँ माँ दो न एक रोटी।
छोटू का मैला मुँह
आँचल से पोंछ वह बोली,
बस थोड़ी दूर और…
जबकी उसे पता है
चलना है अभी मीलों और।
आसमाँ आग उगलने लगे
छोटू के पाँव जलने लगे,
सड़कें हुई अंगारों-सी गर्म
और छोटू के पाँव नर्म नर्म,
पैरों में नहीं हैं चप्पल
पास में पानी भी है कम।
वो थोड़ी देर रुक गई
ज़िन्दगी थक कर बैठ गई,
छोटू को झपकी-सी आ गई
वो बैठी सोचने लगी,
क्या से क्या हो गया…
भूख लेकर आये थे शहर
भूख ही वापस ले चली,
खाली हाँथ…नंगे पाँव,
वापस लौट रहा है गाँव,
छोड़ शहर की बेदर्द गली।
एक गाँव कभी बसता था शहर में
जो उजड़ गया इस क़हर में,
बहुत कुछ दिया इस शहर को
बदले में क्या मिला इन सबको…
सर पर एक टूटी-सी छत थी
वो भी अब नहीं रही,
रोज़ी रोटी कब की छिन गई
जेबें हैं खाली,
और खानें को कुछ नहीं।
फिर भी उम्मीद है कि मरी नहीं
हौसले ने साथ छोड़ा नहीं,
शहर ने बेघर किया
पर गाँव नें फिर पुकार लिया।
छाले भरे क़दम लिए
छोटू को गोद में किये,
जान बचाने की ज़िद पर अड़ी
वो फिर से पैदल चल पड़ी।
अब छोटू जाग गया
भूख से रोने लगा,
उसने रोते हुए पूछा
माँ और कितनी दूर?
छोटू के आँसू और अपना पसीना पोंछ
धुँधला गई आँखों से
अंतहीन सड़क की ओर देख कर बोली
बस थोड़ी दूर और छोटू…
बस थोड़ी दूर और…
मेरी दादागिरी
आजकल सुबह कुछ देर से उठती हूँ
पति को आफिस भेजनें की हड़बड़ी नहीं
बच्चों को स्कूल जानें कि जल्दी नहीं
तो पति को चाय पकड़ा
आराम से योगा भी कर लेती हूँ
पति को दिखा दिखाकर
दो तीन काम एक्स्ट्रा कर लेती हूँ
और फिर थक गई कहकर
बैठकर मोबाइल चलाती हूँ
और सबकी सहानुभूति भी पा लेती हूँ।
” देखो जी बड़ी नाज़ुक हूँ मैं
कोरोना हुआ तो मैं न बचूँगी”
ये कहकर प्यार जताती हूँ
और पति को झूठ मूठ का डराती हूँ
बेचारे पतिदेव डर के मारे
बाज़ार से सौदा ले आते हैं
काम में मेरा हाँथ भी बटाते हैं
और मेरी तबीयत की चिंता भी करते हैं
बच्चों को भी कुछ कम नहीं धमकाती
“ऑनलाइन क्लास के बड़े मजे हैं तुम्हारे”
कहकर ख़ूब चिढ़ाती हूँ
” दिनभर टीवी, लैपटॉप और मोबाइल
में मत रहा करो
कभी कुछ मेरी मदद भी किया करो”
ये कहकर डांट लगाती हूँ
बच्चों को डांट खाता देख
पति भी सहमें से रहते हैं
डर डर कर ही कुछ भी कहते हैं
” दिन भर कितनी चाय पीते हो
हर वक़्त फ़ोन में ही लगे रहते हो” …
‘ और ये तुम्हारी ऑनलाइन मीटिंग की बकबक,
इस से तो सर दुखता है मेरा”
कहकर मीठी झिड़की भी लगाती हूँ
” कितने दिनों से कोई साड़ी नहीं दिलाई
न ही शॉपिंग ही कराई”
” लॉकडाउन का अच्छा बहाना है
तुम्हें बस पैसे बचाना है”
कहकर ताना भी सुनाती हूँ
पति बेचारे सब चुपचाप सुनते हैं
किचन बन्द हो गया तो
खाने को तरस जाएँगे
बाहर से मँगाया तो
बीमार पड़ जाएँगे
तो बेचारे पतिदेव डर से
कुछ नहीं कहते हैं
मेरी हाँ में हाँ मिलाते हैं
और कभी-कभी मेरा सर भी दबाते हैं
आपलोग पढ़कर हँस लीजियेगा
असलियत कुछ और है,
बड़ी भोली भाली हूँ मैं
आपलोग ग़लत मत समझ लीजिएगा
गुहार
करे मानवता करुण पुकार
सुन लो प्रभु सबकी गुहार
दया दृष्टि डालो हम पर
बन्द हो सृष्टि का संहार
आयी हम पर विपदा भारी
विध्वंस हो रही दुनिया सारी
रोको अब प्रलय लीला रघुरारी
कर जोड़ करूँ विनती तुम्हारी
कैसा समय का ये प्रहार
मचा हर ओर इक हाहाकार
कर दो बस इतना उपकार
जग को मिले नया रूप आकार
अब न दूजी कोई अभिलाषा
सुन लो मूक नयनों की भाषा
तुम चाहो अगर तो क्या है बाधा
दो नया जीवन नई आशा
नहीं क़बूल
ठोकरें खाई हैं बहुत
पर हम संभलेंगे ज़रूर
अभी मुश्किलें नहीं खत्म
लड़खड़ाए से है कदम
पर गिरना नहीं क़बूल
माना की आज ग़म है
मायूसियों का मौसम है
घुटन-सी है सीने में
और साँस भी कम है
पर मरना नहीं क़बूल
ज़िंदगी और मौत में
आज फासले चंद हैं
गमों की क़ैद में
खुशियाँ नज़रबन्द हैं
पर टूट कर बिखरना नहीं क़बूल
रौशनी की बाट जोहते अंधियारे
चुपचाप सहमे से सब नज़ारे
बेज़ार-सी खड़ी है जिंदगी
पर उजाड़ना नहीं क़बूल
देख उखड़ती साँसों का तमाशा
है अज़ब बेचैनी और हताशा
दर ब दर भटकती आंखें
पथरा गईं नम-सी आँखें
पर हारना नहीं क़बूल
है नाउम्मीदी के गहरे साये
जाएँ तो किधर जाएँ
परेशां है आज मन
नही गुलज़ार हैं गुलशन
पर वीराना नहीं क़बूल…
गर्दिश में है जहाँ
है हर शख़्स परेशां
थक गए कदम
पर कैसे जाएँ थम
हमें रुकना नहीं क़बूल…
रीना सिन्हा
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