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सूखते बरगद (drying banyan)
सूखते बरगद (drying banyan) जे.एस. चौहान जी द्वारा लिखित एक बेहतरीन आलेख है… जे.एस. चौहान जी मध्य प्रदेश के इंदौर जिले के रहने वाले हैं… ये पेशे से शिक्षक हैं… साथ ही लेखन में भी विशेष रूचि रखते हैं… अब तक इन्होंने कई रचनाओं का सृजन किया है… तो आइये पढ़ते हैं जे.एस. चौहान जी का आलेख सूखते बरगद…
एक दिये से अनेक बाती जल सकती है, लेकिन अनेक बाती एक दिया नहीं जला सकती। वैसे ही मांँ बाप अनेक संतानों को अकेले पाल सकते हैं किंतु अनेक संतानें एक माँ-बाप को पालने में असमर्थ है। एक बरगद अपनी जड़ों को मज़बूत कर अनेक शाखाओं को संभाल सकता है वैसे ही मां-बाप भी एक बरगद है।
मनुष्य जीवन का अंतिम पड़ाव वृद्धावस्था है। यह वह स्थिति है जहाँ पर इंसान पुनः बाल्यवस्था प्राप्त करता है, अर्थात शिशु की तरह व्यवहार करने लग जाता है। अंतर केवल इतना है बुढ़ापे और बचपन में कि बचपन की अवस्था में बच्चे आने वाले भविष्य के प्रति कल्पनाशील होते हैं जबकि बुढ़ापे में इंसान अपने भूतकाल की यादों, अपनी उपलब्धियों में खोया रहता है। वृद्धावस्था की परिभाषा इस प्रकार से दी जा सकती हैं।
“जब मनुष्य उम्र के अंतिम पड़ाव पर आकर शारीरिक और मानसिक रूप से अपनी इंद्रियों से कार्य लेने में अक्षम हो जाता है तथा विभिन्न शारीरिक मानसिक बीमारीयों से घिर जाता है, वृद्धावस्था कहलाती है।”
वास्तव में यह अंतिम स्थिति है एक अंत की ओर एवं फिर आखिरी पड़ाव मृत्यु की ओर किंतु समस्या इस वृद्धावस्था के कठिन पड़ाव को पार करने की है। तो इस स्थिति में जब माँ-बाप वृद्ध हो जाते हैं तब क्या हमारा दायित्व नहीं है, कि जिन मां-बाप ने पढ़ा लिखा कर उचित शिक्षा देकर जीवन जीना सिखाया और यदि अच्छी शिक्षा पाकर भी माता-पिता की देखभाल नहीं कर सकते हैं। उन्हें वृद्धाश्रम का दरवाज़ा दिखाते हैं तो ऐसी शिक्षा को क्या कहेंगे। इस उम्र में आकर उनकी अपेक्षाएँ अपने परिवार जनों से बढ़ जाती है। किंतु जो वर्तमान पीढ़ी होती है वह समय से आगे होती है जो अधिकांशतः उनकी अनदेखी करती है यह पीढ़ी वृद्धों की भावनाओं को समझ नहीं सकती है। इसलिए बुजुर्गों को अपनी इच्छानुसार उचित व्यवहार का ना मिलना उन्हें चिड़चिड़ा और क्रोधी बना देता है। उन्हें गहरा आघात पहुँचता है कि जब हम बच्चों कि हर जीद को हँसकर पूरा करते थे। इनके दुखी बीमार होने पर अपनी जान की बाजी लगा देते थे। रुपया पैसा पानी की तरह बहा देते थे किंतु आज जब हमारा यह दौर आया है तब ऐसा तिरस्कार हो रहा है यह सोचकर वे बहुत ही दुखी और निराश हो जाते हैं।
वृद्धावस्था की समस्याएं
वृद्धजनों की कई समस्याएँ वृद्धावस्था में आकर घेर लेती है-
शारीरिक समस्याएं-
इस अवस्था में आकर मनुष्य के शारीरिक अंगो की कार्य क्षमता लगभग कम हो जाती है या समाप्त हो जाती है जिस कारण उनकी कार्य शक्ति का हृास हो जाता है। एवं अनेक बीमारियाँ जैसे डायबिटीज, दमा, नेत्र रोग आदि आ घेर लेते हैं। अपने स्वयं के शरीर पर नियंत्रण नहीं हो पाता है इसलिए वह शिशु की तरह मल मूत्र का त्याग करते हैं। अतः इस अवस्था में उनकी ख़ास देखभाल की आवश्यकता पड़ती है।
मानसिक समस्याएं-
इस अवस्था में अपने साथ परिवार जनों का उचित व्यवहार ना होने पर मानसिक रूप से चिड़चिड़े भी हो जाते हैं। वृद्धावस्था में बात-बात में उन्हें डांटना फटकारना उनके विचारों पर खेद प्रकट करना और उन्हें कुछ मामलों में बीच में बोलने से रोकना तथा उनके साथ कोई सलाह मशवरा नहीं करना वृद्ध जनों को-को मानसिक रोगी बना देता है। वे अकेलापन महसूस करते हैं।
आर्थिक समस्याएं-
शारीरिक एवं मानसिक समस्या का प्रभाव व्यक्ति की आर्थिक स्थिति पर भी पड़ता है। व्यक्ति अपनी संपत्ति का उपभोग नहीं कर पाता है, क्योंकि कमाई हुई पूंजी पर परिवार बच्चों का आधिपत्य स्थापित हो जाता है। जिससे कि उन्हें वंचित रखा जाता है। वे अपनी ही संपत्ति का उचित उपभोग नहीं कर पाते हैं।
नैतिक एवं चारित्रिक समस्याएं-
प्राय: देखा यह गया है, कि वृद्ध जनों का उदाहरण दिया जाता है। उनके नक़्शे क़दम पर चलने की प्रेरणा लोग देते हैं। वृद्धजन यह सोचते हैं कि अगर मैं कोई ऐसा कार्य करूंगा तो लोग क्या कहेंगे वैसा कार्य करूंगा तो लोग क्या कहेंगे और वे अपने जीवन के अनेक आनंद से वंचित रहते हैं उन्हें शर्म और झिझक महसूस होती है और खासकर वे अपने चरित्र को लेकर बहुत ही जागरूक रहते हैं कि ऐसा नहीं किसी से कुछ बात हो जाए जिससे उनके चरित्र पर बुढ़ापे में दाग लग जाए यह समस्या भी उन्हैं जीवन का आनंद उठाने से रोकती है।
शहरों में या पश्चिम के देशों में वृद्धाश्रम का चलन बढ़ता ही जा रहा है। जब वृद्ध उपेक्षा का शिकार होने पर चिड़चिड़े हो जाते हैं। तथा परिवार जन उनका तिरस्कार करते हैं उनके साथ प्रेम पूर्वक बातचीत और कुछ पल बैठकर सुख दुःख का समय व्यतीत नहीं करते हैं। परिवार जन वृद्ध माता-पिता को बोझ समझते हैं और तंग आकर छुटकारा पाने की सोचते हैं तथा जब अधिक परेशान हो जाते हैं तब वृद्धाश्रम भेज दिया जाता है और प्राय देखा गया है कि अधिकांश मामलों में वृद्ध जनों को वृद्धाश्रम में भेजने के पीछे किसी न किसी स्त्री का ही हाथ होता है। क्योंकि जो प्रेम वह अपने मायके में देती है वह अपने ससुराल में नहीं दे पाती है या फिर यह भी हो सकता है कि जो प्रेम उसे अपने मायके में मिलता है वह उसे ससुराल में नहीं मिल पाता है कोई भी कारण हो सकता है। आये दिन समाचार पत्रों, मीडिया में ऐसी माता-पिता पर जूल्मों की घटनाएँ पढ़ने को मिल जाती हैं और कुछ तो विडियो भी वाइरल होते हैं। किंतु सोचने वाली बात यह है कि हमारी संस्कृति में यह मूल्य कैसे आए। हमारे यहाँ तो मेहमान को भी भगवान कहते हैं। तो फिर इंसान इतना हैवान क्यों बन गया है।
जो भी हो सरकार ने भी वृद्धावस्था की समस्या को समझा है तथा कई कानून बनाए गए हैं उन्हें मुफ्त सरकारी मासिक पेंशन सहायता के साथ-साथ सरकारी अस्पतालों में मोतियाबिंद आदि कई बीमारियों का मुफ्त में इलाज़ भी किया जा रहा है। यह सब तो ठीक है पर पहली जिम्मेदारी तो हमारी है कि इस अवस्था में इनका उचित खानपान आदि का ख़ास ध्यान रखा जाए एवं केवल इन्हें घर का चौकीदार ना समझते हुए शादी समारोह सामाजिक कार्यक्रम आदि खुशियों में भी बुजुर्गों को सम्मिलित किया जाए। जिससे वह भी मुख्यधारा से जुड़े रहें। उन्हैं तिरस्कार नहीं अपनेपन की ज़रूरत है।
वृद्ध माता-पिता वह नींव है जिस पर परिवार रूपी घर टिका हुआ है। वह सूर्य है जिसकी चमक से घर-बार सुंदर है। वह रोशनी है जो हमें विपरीत में भी दिशा दिखाती है। वे कुल का गौरव है। जिस घर में बुज़ुर्ग है वह तो घर ही स्वर्ग है। अतः हमारी आने वाली पीढ़ी संस्कारवान और माता-पिता की आज्ञाकारी बने। इसके लिए हमें इस वर्तमान पीढ़ी को संस्कारवान नैतिक शिक्षा देनी होगी तब ही हम समाज के इस कुसंस्कार को संसार में फैलने से रोक सकते हैं। वरना हो सकता है कि वृद्ध जब हम हो तब हमें भी ऐसे ही आईने देखने को मिल जाए।
जे. एस. चौहान ‘जय’ (शिक्षक)
गोकुलपूर, देपालपूर इन्दौर (मप्र)
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