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कैंसर पीड़िता (Cancer victim) की मनोव्यथा
(Cancer victim): कैसे अचानक छिन गया सब कुछ,
एक पल में ही जीवन गया रुक।
सोचा न था ये सफ़र चंद मीलों में रुक जाएगा,
एक दिन दर्पण मुझे, मुझसे ही डराएग।
न कोई रूप न कोई शृंगार,
वो मांग ही न रही जिसमें भर्ती थी सिंदूर लाल।
पति को नहीं दिखता रूप विहीन चेहरा,
उन्हें तो दिखता है,
साँसों का साँसों से रिश्ता गहरा।
बच्चे नहीं देखते माँ का केश विहीन चेहरा,
उन्हें तो दिखती है माँ की सांसे,
ममता और आँचल का रिश्ता गहरा।
उन्हें मतलब था तो बस इतना कि मैं मोती-सी न बिखरू,
मतलब था तो इतना की मैं उम्मीदों से न हारू।
मेरे नैनो के दीप उन्हें रौशन कर जाते,
मेरे नैनो के अश्रु उन्हें बहुत सताते।
सोच लिया मैंने होके मायूस शाम-सा न ढलना होगा,
जिंदगी भोर है सूरज की तरह निकालना होगा।
यह पड़ाव भी ज़रूरी था
यह ठहराओ भी ज़रूरी था, यह पड़ाव भी ज़रूरी था।
मशीन से हो चुकी थी जिंदगी,
उखड़ी हुई सांसो-सी चल रही थी जिंदगी,
अपने ही अनजाने से हो चले थे,
घड़ी की टिक-टिक पर कट रही थी जिंदगी।
लकड़ी की काठी-काठी पर घोड़ा गाना भूल चुके थे,
मां की नाज़ुक हथेलियों की थपथपाहट,
गर्माहट भूल चुके थे
छोटे थे तो गोद खिलाने को थी आया,
बड़े हुए तो स्कूल बैग में था जीवन समाया।
बैग से ऊपर भी है कोई जिंदगी,
यह अब समझ में आया।
यह बदलाव भी ज़रूरी था,
यह ममता का आँचल भी ज़रूरी था।
हमारा आंखों में आंखें डाल कर देखना,
मेरी झुकी पलकें
और तुम्हारा मेरी लटो को सँवारना भूल चुके थे,
था तो सिर्फ़ घर और दफ्तर,
ना तुम्हें मेरी ना मुझे तुम्हारी थी खबर।
यह प्यार भी ज़रूरी था,
यह एहसास भी ज़रूरी था।
बूढ़े माँ बाप संग कब बिताए थे सुकून के पल,
कब सुने थे उनके ठहाके, उनके ज़माने की बातें,
उनको मिलता था तो सिर्फ़ एक वादा,
अगली छुट्टियों में आने का।
उनके लिए रह जाता था तो सिर्फ़ एक लंबा इंतजार,
अपने बच्चों से मिल पाने का।
यह साथ भी ज़रूरी था यह संग भी ज़रूरी था,
इस दौर में-
मुझे जीना है यह बता गई है जिंदगी,
मुझे काटना नहीं है, यह समझा गई है ज़िन्दगी।
ठहरे हुए वक़्त से सबक लें,
जिंदगी नाम नहीं सिर्फ़ सांस लिए जाने का,
यह सिखा गई है जिंदगी।
माना कि कष्ट आए हजार,
पर रिश्तो को पलकों पर बैठा गई है जिंदगी।
आयेगा वक़्त फिर से मेहनत करने का,
बिठा लेना तालमेल इस बार,
उद्देश्य न हो केवल दौलत कमाने का,
आज वक़्त ने सामाजिक दूरियाँ बढ़ाई है,
जिंदगी ने हमें ज़िन्दगी समझाई है।
कल वक़्त नज़दीक भी लाएगा,
पर यह ठहराव भी ज़रूरी था, यह पड़ाव भी ज़रूरी था।
कुछ पल सुकून चाहिए
बहुत हो गया बस अब, ज़िन्दगी में नूर चाहिए।
बहुत हुआ सीना छलनी, फौलादी अब जिगर चाहिए।
मुझे अब सुकून भरे, कुछ पल चाहिए।
क्या है रिश्ते, क्या है नाते,
हर रिश्ते नातों से अब, पल कुछ दूर चाहिए।
कोई न जाने पहचाने मुझको,
ऐसा घर अब दूर चाहिए।
बहुत हो चुका बस, दिल अब मज़बूत चाहिए।
मुझे अब सुकून भरे कुछ पल चाहिए।
कितना झूठ, कितना फरेब, कितना धोखा…
हर एक ने सताया, जिसको जैसा मिला मौका।
हर पीड़ा हर ग़म से दूर, खुशियाँ अब भरपूर चाहिए।
मुझे अब सुकून भरे कुछ पल चाहिए।
संध्या हो चली है जीवन की, डूबने से पहले,
उजालों का सरूर चाहिए।
नाउम्मीदो से ऊपर, रौशनी की किरण चाहिए।
बहुत हो चुका बस, मुझे अब सुकून भरे कुछ पल चाहिए।
आया सावन झूम के
मेरी सूनी-सूनी आँखे, मेरे थके-थके कदम,
देते थे मेरे मन की पीड़ा का परिचय,
पर कहाँ था वक्त, तुम पढ़ पाते मेरा हृदय।
तुम्हें तो था किसी और से प्रेम, किसी और से प्रणय।
हर सावन अपने आंगन से देखती, काले-काले बदरा।
पर कहाँ था वह मेरा सावन, वह था किसी और का।
कितने बरस एक ही घर में थे अजनबी हम,
पल का भी सकून न मिला, मिला ग़म ही ग़म।
यूं लगा कि ख़त्म कर लू जीवन अपना,
समा जाऊँ किसी नदिया के जल में,
या कूद जाऊँ किसी रेल के आगे।
बाहर सावन की झडी थी, अंदर आंसुओ की लड़ी थी,
चल दी में यह सोच कर, अब मैं यह जीवन न रहने दूंगी।
बहुत दुःख सह लिए अब और न सहूगी।
तभी नज़र आया चेहरा पिता का,
जिनकी जान थी मैं अभिमान थी मै।
चल दिये क़दम उधर ही, जहाँ पहचान थी मै।
उनके लिए न थी मैं कभी मोटी न भद्दी,
उनके लिए तो मैं थी सिर्फ़ परी।
मेरी लाडो, मेरी बेटी,
देखते ही व्याकुल हो दौड़े।
लगा लिया सीने से, सावन भादो नयनों से उमड़े।
छोड़ आयी पीछे वह दुःखद संसार,
लौट आयी जहाँ था असीमित प्यार।
बहुत वक़्त बाद सकूं मिला, हंसी आयी अधरों पे,
मेरे लिए तो आज आया था, मेरा सावन झूम के।
पुष्पा बंसल
गाज़ियाबाद
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