बिन्दा:
बिन्दा: पूस के महीने की अंधेरी रात थी, शीत लहर घने कोहरे के साथ सायं-सायं की आवाज़ करते हुए बह रही थी। हवा के साथ ठंड से अकड़े हुए पत्ते, कड़कड़ाते हुए उड़ जाते। जो वातावरण को और भी भीवत्स बना रहे थे। कभी-कभी कोहरा इतना घना हो जाता कि गाड़ी की रौशनी भी किसी मध्यम लौ से जलते हुए दीप की तरह टिमटिमाने लगती और सामने कुछ भी दिखाई देना सम्भव नहीं होता।
ऐसी कड़ाके की ठंड में, मैं यही कोई रात के ग्यारह बजे अपनी ऑफिस से लौट रहा था; और मन ही मन अपने समय से अधिक काम करने की आदत पर झुंझला भी रहा था। सोच रहा था कि यदि मैं भी ऑफिस बन्द होते ही घर चला जाता तो इस कड़ाके की ठंड से तो बचा जा सकता था। अब भुगतो। इस जान छुड़ाने वाली सर्दी को। मैं मन ही मन अपने विचारों में घुलता हुआ, धीरे-धीरे अपने गंतव्य की और बढ़ ही रहा था कि किसी की सिसकियों ने मेरी तन्द्रा को भंग किया।
मैं यह क्या देख रहा हूँ, एक सात-आठ वर्षीय बालक बाहर सड़क के दाएँ ओर बने मकान के दरवाजे से बिल्कुल सट कर बैठा हुआ है। शीत लहर के कारण, बहुत रोकने पर भी उसकी सिसकी बाहर निकल ही जाती। अपने दोनों घुटनों को अपने पेट में घुसाए और हाथों से रस्सी की भांति दोनों पैरों की पिडलियों को बाँध कर, जबरदस्ती उसमें अपना सिर घुसाए हुए वह ठंड से कांपता हुआ बड़े आराम से बैठा था। जब कभी ठंड ज़ोर से लगती तो वह दरवाजे की ओर खिसक जाता। कभी अपने एक पैर के पंजे को नीचे रखकर, दूसरे पंजे को उसपर रखकर एक पैर को गर्माहट देता, फिर यही प्रक्रिया दूसरे के साथ करता। कभी अपने दोनों हाथों से अपने दोनों कानों को ढक लेता।
मैंने उसके पास जाकर गाड़ी ब्रेक लगाए। खिरर! की आवाज़ के साथ गाड़ी रुकी तो उसका ध्यान मेरी गाड़ी की तरफ़ खिंचा। पहले तो वह मुझे दबी हुई नज़र से देख रहा था, पर जब मैं गाड़ी से नीचे उतर उसकी और लपका तो वह सर्दी से कम और भय से अधिक कांप गया। उसने मेरी ओर नज़र दौड़ाई फिर दरवाजे के उस तरफ़ झाँकने की नाकाम कोशिश कर, खुद में ही सिमट कर बैठ गया। मैंने पूछा; यहाँ क्या कर रहे हो? दबी-सी आवाज़ आई; बैठा हूँ।
इतनी कड़ाके की ठंड में इतनी रात गए यहाँ क्यूँ बैठे हो? मैंने पूछा… फिर दबी-सी आवाज़ आई, मैं मन से थोड़े बैठा हूँ, मुझे तो यहाँ मजबूरी में बैठना पड़ रहा है। मुझे उसपर कुछ शक हुआ। कहीं वह चोरी करने की फ़िराक में तो नहीं है। कैसी मजबूरी? और किसने बैठा रखा है। मैंने कुछ रौब देकर-देकर पूछा। वह अंदर तक हिल गया, भय के कारण कुछ न बोल सका। मेरा शक अब और मज़बूत होता जा रहा था; मैंने अब और कड़ाई से पूछा, बोलो क्यूँ बैठे हो यहाँ पर? क्या कर रहे हो इतनी रात इस कड़ाके की ठंड में? वह ख़ामोश रहा, और अपना सिर दोनों घुटनों के बीच ठूस कर, बैठा रहा।
अब मेरा गुस्सा बढ़ता जा रहा था, मैंने उसे झुंझला कर पूछा, मेरी बात का जवाब देते हो या नहीं? इस बार उसने मेरी तरफ़ नज़र भर कर देखा। मेरी आँखों से आँखे मिलाई। कितना मासूम-सा चेहरा था उसका। बिल्कुल भोला-भाला, सीधा-सादा-सा बालक। उसकी आँखों में भय नहीं रहा, बल्कि कातरता का गीलापन था। जैसे वह कह रहा हो कि भले आदमी तुम अपने रस्ते जाओ और मुझे मेरे जीवन का यह उत्तरदायित्व पूरा करने दो। उसने कहा, मैं शाम को गली के लड़कों के साथ गिल्ली डंडा खेल रहा था तो मुझे खेलते हुए पापा ने देख लिया। मैंने पूछा; तो? तो पापा ने खेलने के दण्डस्वरूप मुझे घर से निकाल दिया, उसने कहा।
मैं सुन्न पड़ गया गया, जैसे कि उस रात की सम्पूर्ण शीत लहर दल-बल के साथ मुझे पर टूट पड़ी हो। मैं कुछ बोल पाता इससे पहले ही वह बोला गिल्ली-डंडा खेलने पर आपके पापा भी आपको ऐसे घर से पीटकर निकाल देते थे? आप जब गिल्ली-डंडा खेलने जाते तब आपके पापा भी आपको खाना नहीं देते थे? अब तक खून को जमा देने वाली ठंड, और बादलों के समान घना कोहरा, मेरी आँखों से गर्म होकर बहने लगा था।
यह क्या जिस लडके को मैं कोई चोर-उच्चका समझ रहा था वह मासूम तो पिता की पितृसत्ता का पालन कर रहा था। खून जमा देने वाली सर्दी में भी वह भूखा-प्यासा रहकर बाहर बैठ, पिता की आज्ञा का पालन कर रहा था। और पिता स्वयं को उस मासूम का स्वयंभू समझ कर, उसे सजा देकर स्वयं पर इठला रहा होगा। मैंने पूछा; तुम्हारा नाम क्या है बेटा? बिन्दा! उसने दबी-सी आवाज़ में कहा। जब तुम को पापा ने घर से बाहर निकाला तो तुम्हारी मम्मी ने तुम्हारे पापा को टोका नहीं, तुम्हें घर से बाहर निकालने से रोका नहीं?
एक साथ कई प्रश्न सुन, वह पहले तो झेंप गया। फिर मेरी तरफ़ कातर दृष्टि से देखता हुआ बोला; रोका था। पर पापा ने मेरे साथ मम्मी की भी पिटाई की। वे मम्मी को पीटते जा रहे थे और साथ ही कहते भी जा रहे थे कि तेरे ही लाड़-प्यार ने इसे बिगाड़ रखा। क्या माँ का लाड़-प्यार बच्चों को बिगाड़ देता है? उसने पूछा। नहीं, बिल्कुल नहीं। माँ का लाड़-प्यार तो बच्चों को मज़बूत बनाता है। मैंने उसे फुसलाने के लिए कहा। तो फिर मेरे पापा ऐसा क्यूँ कहते हैं? उसने फिर मेरी तरफ़ प्रश्न उछाला। जिसका जवाब मेरे ज्ञानकोष में नहीं था। मैं उसे फुसलाते हुए कहने लगा कि आपके पापा को अभी इस बात की जानकारी नहीं है। वह नहीं जानते कि माँ का लाड़-प्यार ही बच्चों में मानवता का निर्माण करता है।
इस बार वह पापा की अज्ञानता पर थोड़ा आश्वस्त होते हुए बोला, काश! मेरे पापा भी जानते? उसका यह प्रश्न शीत लहर के झकोरे की भाँति मेरे ह्रदय को झकझोर गया। काश! मेरे पापा भी जानते? उस अबोध बच्चे को मैं कैसे कहूँ कि आपके पापा सब कुछ जानते हुए भी, पितृसत्ता के मद में चूर हो, स्वयं को तुम्हारा स्वयंभू बनाने की जुगत में है। यह कुछ हद तक ठीक भी है कि माँ-बाप ही बच्चे के भाग्य विधाता होते हैं, वह बच्चे को जैसा बनाने चाहते हैं, वह बन जाता है। पर इसका मतलब यह तो कतई नहीं है कि अपनी इच्छाओं को जबरदस्ती अपने बच्चों पर लादों। अगर बालक कुछ अलग करना चाहता है, वह किसी अलग दिशा में अपने कौशल का प्रदर्शन करना चाहता है तो उसे रोक दो। और फिर हम कहें कि हम बच्चों की अच्छी परवरिश कर रहे हैं।
वह मूढ़ पिता उस अबोध बच्चे के मन के अंतर्द्वंद्व को क्या जाने, वह क्या जाने की एक बच्चे के विकास के लिए खेलना, घर-घर दौड़ना कितना ज़रूरी है। बालक को स्वयं के निर्माण के लिए उसे समाज में स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए। और माँ-बाप को केवल मार्गदर्शक की भूमिका में उसे सही ग़लत की पहचान करानी चाहिए। पर आज के समाज की मनोवृत्ति ही कुछ अलग है; वे अपने पिता होने के दम्भ में, बालक की सुरक्षा की झूठी आड़ में, उसका शोषण करते नज़र आते हैं।
हमें बच्चों में संस्कार का निर्माण करना चाहिए, संस्कार ही संस्कृति को बनाते हैं, नवीन सभ्यता को गढ़ते हैं। लेकिन हम संस्कारों पर ध्यान न देकर, बच्चे की स्वंतत्रता को छीन लेते हैं, और स्वयं को संस्कारी कहते हैं। छोटे बालक के सामने उसकी माँ के साथ मारपीट करना, संस्कार तो नहीं है, हमारी संस्कृति में भी नहीं है कि बच्चों की गलती पर, बच्चे के सामने ही माँ की पिटाई की जाए। आह! इक्कीसवी सदी और विचारधारा वहीं रूढ़।
कब हम अधिकार सत्ता से बाहर निकल कर, सभी को बराबर अधिकार देंगें। मैं अपने विचारों की दुनिया से निकल वास्तविक जगत में आया तो देखा, बिन्दा झपकी ले रहा था। मैंने कहा मेरे साथ मेरे घर चलोगे? नहीं। पर क्यूँ? मैं यहीं रहूँगा, माँ के पास। माँ के पास? पर माँ तो तुम्हारे पास नहीं है। वह तो घर के भीतर है और तुम घर के बाहर। हाँ! पर मैं उसे छोड़ कर बिल्कुल नहीं जाऊँगा। अगर गया तो पापा, मम्मी को और मारेंगे। फिर एक शीत लहर ने मेरे अंतःकरण को झकझोर दिया। पापा मम्मी को और मारेंगे!
अब कुछ बात मेरी समझ में आई, कि आजकल बच्चे अपने पिता के प्रति विद्रोहीभाव लिए हुए क्यूँ होते हैं। वो इसलिए कि पिता स्वयं को उनका भाग्य विधाता मानता है, और जिम्मेदारी की आड़ में उनकी स्वतंत्रता छीन लेता है। जबकि माँ का वात्सल्य गम्भीर होता है, जबकि पिता का विकट गम्भीर। बच्चे पिता से ज्यादा, माँ को महत्त्व देते हैं, तो उसका कारण यही है।
अगर पिता चाहता कि बालक उसके संस्कारों को धारण करें तो वह बालक से गम्भीर वात्सल्य प्रकट करे। उसके मार्गदर्शक के रूप में, उसके मित्र के रूप में, जीवन की हर सीख उसे दे। स्वयं को उससे भिन्न नहीं समझे, अगर ऐसा नहीं है तो पिता-पुत्र के इन रिश्तों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी और कटुता आती जाएगी। वर्तमान समय में यह स्थिति सामान्य हो सकती है लेकिन आने वाले समय में भयंकर रूप ले लेगी।
आज अधिकांशतः बच्चे पिता से नाखुश हैं तो उसका कारण है, पिता के द्वारा कहीं न कहीं उसकी स्वतंत्रता का ह्रास किया जा रहा है, पिता के द्वारा अपने को अनसुना किया जा रहा है, पिता के द्वारा उसकी आवाज़ को दबाया जा रहा है। बिन्दा दरवाजे के उस तरफ़ झाँकने की कोशिश कर रहा था। मैं सोच रहा था कि शायद! यह मासूम इस आशा में है कि अब तो पापा अंदर बुला लेंगे।
मैंने उससे फिर कहा, मेरे साथ मेरे घर चलोगे। उसने फिर मना कर दिया। साथ ही मुझे भी कह दिया कि आप चले जाओ। मैं यहीं रहूँगा। मैंने कहा, तुम यहाँ अकेले डरोगे तो नहीं? उसने कहा; नहीं। वह क्यूँ? क्योंकि मैं यहाँ अकेला नहीं बैठा हूँ। मतलब? मैंने आश्चर्यचकित हो पूछा। तो उसने कहा कि मैं यहाँ अकेला नहीं बैठा हूँ, दरवाजे के उस तरफ़ मेरी माँ बैठी है।
अभिषेक कुमार ‘अवनि’
मूडियासाद वैर भरतपुर राजस्थान
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