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तीर जिगर के पार (arrow across the liver)
तीर जिगर के पार (arrow across the liver) : फिलहाल एक प्रसिद्ध आभूषण निर्माता कंपनी का विज्ञापन इन दिनों ख़ूब चर्चा में है। हो भी न क्यों हो। सौ करोड़ से भी ज़्यादा आबादी वाले हिन्दू धर्म के लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ थोड़े ही न सहन की जाएगी। तलवारें खींच जाएंगी, तलवारें।
सब कुछ सहन कर लेंगे पर ये सहन नहीं करेंगे। ये तो भला हो उन कम्पनी वालों का जिन्होंने तथाकथित धर्म ठेकेदारों से भयभीत होकर विज्ञापन वापस लेने के साथ-साथ माफी भी मांग ली। अन्यथा न जाने क्या से क्या हो जाता।
आप भी सोच रहे होंगे कि आज व्यंग्य में आक्रमकता कहाँ से आ गई। नदी उलटी दिशा में क्यों बहने लगी। सुप्तप्राय रहने वाली भावनाओं का समुन्द्र क्यों उफान लेने लगा। ऐसा कोई पहली बार थोड़े ही न हुआ है। फिर उबाल क्यों। तो सुनें मनोस्थिति के विकराल रूप धरने की वजह।
सुबह-सुबह हमारे एक धर्मप्रेमी मित्र रामखिलावन जी का फ़ोन आ गया। हर धार्मिक पर्व पर उनके सन्देश स्वभाविक रूप से हमारे पास आते रहते हैं। एक बड़ी धार्मिक संस्था में पदाधिकारी भी हैं। सम्बोधन भी सदा जय सियाराम से ही करते हैं। घर-परिवार की कुशलक्षेम के बाद बोले-जी, एक बात आपसे कहनी थी। मेरे बोले बिना ही फिर शुरू हो गए। बोले-इस बार धनतेरस पर……ज्वेलर्स से कोई खरीदी मत करना।
मैंने कहा- इस बार तो पत्नी को कंगन की हामी भरी हुई है। ये तो मुश्किल हो जाएगा। खैर आपका मान रख भी लेंगे पर वज़ह तो बताओ। बड़ा ब्रांड है, विश्वसनीयता है। अचानक ये विरोध क्यों। बोले-बड़ा ब्रांड है इसका मतलब ये थोड़े ही है कि वह हमारी भावनाओं से खेलें। राम जी की कसम, उसका ये क़दम कईयों को सीख दे जाएगा। देखना इस बार उनके वर्कर मक्खियाँ उड़ाते नज़र आएंगे।
पूरा मामला जान आदतन मुझसे भी रहा न गया। मैं बोला-बुरा न मानें तो मैं भी कुछ कहूँ। धर्म के प्रति हम ख़ुद कितने ही समर्पित हैं। बोले-हम तो पूरा समर्पित हैं। मैंने कहा-खाक समर्पित है। धर्म के नाम का बस खाली चोला लिए फिरते हैं। न जाने कितनी बार देवताओं की प्रतिमाओं पर प्रहार किया गया है। पेंटिंग के बहाने अंग वस्त्रों के साथ हमारे दैवीय स्वरूप दिखा कलाकारी की वाहवाही लूटी गई है। फ़िल्मों में हमारी आस्था को ढोंग रूप में दिखा हमसे ही ताली बजवाई गई।
मुझे आक्रमक होते देख बोले-बात तो आपकी सही है पर विरोध न करें तो कल कोई और ऐसा करेगा। मैं फिर शुरू हो गया। हमारे साथ ऐसा कोई पहली बार थोड़े ही न हुआ है। न जाने कितनी बार हमारे देवी-देवताओं की तस्वीरें शराब की बोतलों पर चिपकी दिखाई दी हैं। गणेश जी को मांस की टेबल पर बैठे दिखाया गया।
सारे देवी-देवता एक सैलून का प्रचार करते तक दिखाए जा चुके हैं। महादेव को (शिव) बीड़ी का ब्रांड बना रखा हैं। गजानन को (गणेश) जर्दा खैनी की जिम्मेदारी दी रखी है। ऑनलाइन वेबसाइटों पर देवताओं के चित्र वाले सोफ़ा कवर, टॉयलेट शीट तक बेची जा चुकी हैं। रामजी, चाट भंडार, पशु आहार खोले बैठे हैं।
दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी पर गाजे-बाजे के साथ देव प्रतिमा घर लाते हैं। पूजन के बाद बाकायदा उनका विसर्जन भी करते हैं। बाद में वे ही प्रतिमाएँ खंडित रूप में समुन्द्र, नदी, नहर किनारे पड़ीं मिलती हैं। घर पर कोई पूजन सामग्री, धार्मिक कलेंडर, खंडित मूर्ति हो तो उसे बहते पानी में बहा अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। बाद में सफ़ाई के दौरान वही सब चीजें नहर-नदी किनारे बिखरी नज़र आती है।
खुशियों के पर्व दिवाली पर पटाखे छोड़ें तो प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। होली पर औरों के साथ-साथ हम भी पानी बचाने की अपील करने लग जाते हैं। तब कहाँ होता है हमारा धर्म। वह बोले-तो क्या करें? मैने कहा-सिस्टम को सुधारना है तो पहले ख़ुद सुधरें फिर दूसरों से उम्मीद करें। किसी को मौका ही न दें ऐसे माहौल को क्रिएट करने का। उन्हें तो प्रचार चाहिए होता है और वह हम फ्री में कर देते है। लाइक के साथ डिसलाइक का बटन भी होता है जनाब। खामोशी के साथ उसका प्रयोग करें और देखें। अपने आप मुहंतोड़ जवाब मिल जाएगा।
अब रामखिलावन जी सहमत से दिखे। बोले-जी धन्य हैं प्रभु आप। पूरा गीता ज्ञान दे दिया। ज़रूर विचार करेंगे। कहकर फ़ोन काट दिया। मेरी भावनाओं का वेग अभी भी चरम पर था। अचानक आँख खुल गई। पत्नी चाय लिए खड़ी थी। बोलीं-उठ जाओ, धर्म के ठेकेदार। नींद में भी दो-दो करेक्टर निभाना कोई आपसे सीखे। दिन के साथ अब रात को भी जनता की अदालत लगने लगी हैं। अब तो चाय पीकर चुप रहने को सर्वोपरि धर्म मानने में ही मेरी भलाई थी।
(नोट: लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे किसी सन्दर्भ में न जोड़ें)
सुशील कुमार ‘नवीन’
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।
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