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नेपोटिज्म (nepotism) के कारण अवसाद में प्रतिभा
नेपोटिज्म (nepotism) : अक्सर कहा जाता है कि ‘किसी की प्रतिभा छप जाती हैं और किसी की छिप जाती हैं’ लेकिन यथार्थ में बहुत सारी प्रतिभा को छिपा दिया जाता है। ये केवल एक क्षेत्र में नहीं होता है बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में होता हैं।
बॉलीवुड व राजनीति ने तो भाई भतीजावाद की नींव में सीमेंट डाल कर बहुत मज़बूत कर दिया है। बहुत सारे नवयुवक अपनी प्रतिभा का सही इस्तेमाल नेपोटिज्म के कारण नहीं कर पा रहे हैं अथवा उन्हें उचित स्थान नहीं दिया जा रहा है। इसके कारण वह अवसाद में चले जाते हैं और हानिकारक क़दम उठा लेते हैं।
नेपोटिज्म को मिटाना बहुत ही मुश्किल हैं क्योंकि जो शीर्ष पर बेठे है वह नेपोटिज्म के कारण ही बेठे है तो फिर नेपोटिज्म को कैसे मिटा सकते हैं। हालांकि नामुमकिन नहीं हैं।
एक दृष्टि से देखा जाए तो बहुत सारे व्यक्तियों ने नेपोटिज्म में होते हुए भी बहुत पसीना बहाकर अपने आप को क़ाबिल बनाया हैं। बहुत लोगों ने नेपोटिज्म की कोई परवाह किए बिना अपना कॅरियर बनाया और बहुत बड़े-बड़े पद हासिल किए। इसलिए ख़ुद को इतना क़ाबिल बना दो की किसी भी तरह का नेपोटिज्म आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सके। फिर भी प्रतिभा को उचित स्थान नहीं मिलने पर उनके अंदर का जुनून समाप्त हो जाता है और भविष्य की चिंता उन्हें अवसाद तक ले जाती हैं।
राजनीति के पंजे भी पूर्ण रूप से नेपोटिज्म में लिप्त हो चुके हैं जो देश के भविष्य के लिए बहुत बड़ा हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। राजनीति एक नेतृत्व करने की सत्ता हैं पर जब इसमें नेतृत्व करने वाला ही असक्षम होगा तो फिर गम्भीर समस्या पैदा हो सकती हैं। जहाँ तक नेपोटिज्म की बात करें तो कभी-कभी लगता है कि इसमें परीक्षा से पहले परिणाम सुरक्षित हो जाता हैं।
आज के परिदृश्य में जहाँ भी देखों भाई-भतीजावाद अपनी नींव को मज़बूत करने में लगा हुआ है बहुत क्षेत्रों में नींव की मंज़िल भी बना दी गई हैं। अल्प बुद्धी वाले व्यक्ति का किसी बड़े स्तर पर पहुँचने में नेपोटिज्म का ही प्रमुख सहारा होता हैं।
राजनीतिक नेपोटिज्म देश के लिए ख़तरनाक साबित हो रहा है तुच्छ सोच वाला व्यक्ति जब शीर्ष पर पहुँच जाता है तब देश का गर्त में जाना अवश्यंभावी हैं।
यहाँ पर कुछ नेपोटिज्म अथवा अन्य कारणों से मनुष्य के अवसाद को दूर करने के कुछ उपायों की बात की गई हैं
आधुनिकता का परिवेश मर्यादित जीवन को कोसों दूर ले जा रहा है। एक ओर जहाँ लोगों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर रिश्तों में बढ़ता खालीपन लोगों को अवसाद की ओर धकेलता है। अवसादग्रस्त व्यक्ति सिर्फ़ मानसिक तौर पर ही परेशान नहीं होता, बल्कि वह स्वयं को शारीरिक रूप से भी परेशान करता है। इतना ही नहीं, इसके कारण कई बार व्यक्ति की जान पर भी आफ़त आ जाती है।
आज मनुष्य छोटी-छोटी बातों को लेकर चिंतित हो उठता हैं। संयम और धैर्य से कोसों दूर मनुष्य ने स्वार्थ के सभी रास्तों में जाकर ख़ुद को तनावग्रस्त पाया हैं। अब मनुष्य की अल्प बुद्धी ने इस बीमारी को मानसिक रूप से विकसित तो कर लिया लेकिन इससे निजात पाना नहीं सीखा। अवसादग्रस्त व्यक्ति अपनी समस्त अच्छाइयों को भूल जाता हैं और बुराईयाँ का अपने मानसिक पटल पर पहाड़ पैदा कर देता है।
अवसाद से लड़ने के लिए ज़रूरी है कि आप ख़ुद को मानसिक रूप से मज़बूत बनाएँ। इसमें मेडिटेशन और एक्सर्साइज आपकी बहुत मदद कर सकते हैं। व्यायाम आपको सिर्फ़ शारीरिक रूप से ही स्वस्थ नहीं रखता, बल्कि यह आपके मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी उतना ही ज़रूरी है। आजकल लोग अपने काम में इतने बिजी हो जाते हैं कि वह ख़ुद को आराम देना ज़रूरी ही नहीं समझते। लेकिन ये छोटी-सी बात आपको अवसाद की ओर ढकेल सकती हैं।
आज के समय में लोगों के पास अपने रिश्तों के लिए समय ही नहीं है। ऐसे में धीरे−धीरे व्यक्ति को अकेलापन सताने लगता है और फिर व्यक्ति अवसादग्रस्त हो जाता है। परिवार के साथ भी समय व्यतीत करें। लेकिन आज की स्थिति को यथार्थ में देखा जाए तो मनुष्य का प्रकृति के साथ अत्याचार करना शरीर को मानसिक और शारीरिक रूप से गर्त में ढकेलना सिद्ध हो रहा हैं।
अनायास सब कुछ प्राप्त करने की चाह रखने वाले मनुष्य ने प्रकृति की नींव तक में प्रहार कर दिया है। मनुष्य का अवसादग्रस्त होने का मुख्य कारण प्रकृति के खिलाफ़ कार्य करना हैं। उन्मुक्तता पक्षियों के लिए स्वर्ग होती है, मनुष्य के लिए यह कार्य संस्कृति करती है। अतः मनुष्य को शांत स्वभाव से प्रकृति की समस्त क्रियाविधि में सहायक बनकर ख़ुद को अवसादग्रस्त होने से रोकना होगा।
अब निष्कर्ष में यह प्रश्न अनवरत दिमाग़ में आ रहा हैं कि नेपोटिज्म को कैसे समाप्त कर सकते हैं?
इसके लिए सर्वप्रथम हरेक उस क्षेत्र, जहाँ नेपोटिज्म से प्रतिभा का शिकार हो रहा हैं, में एक व्यावहारिक और व्यवस्थित तरीके से परीक्षा का आयोजन कराया जाए, लेकिन यहाँ एक बात और सामने आती हैं कि परीक्षा का परिणाम तो वह पहले ही सुरक्षित कर सकते हैं, तो इसके लिए एक प्रबंध ये करना पड़ेगा कि उनकी परीक्षा नेपोटिज्म के शिकार हुए प्रतिभावान व्यक्तियों के द्वारा ली जाए ताकि वह ख़ुद का संघर्ष याद करते हुए भावी पीढ़ी के भविष्य का ध्यान रख सकें। राजनीति में तो हर हाल में परीक्षा का होना ज़रूरी है क्योंकि यहाँ पर तो देश का सम्पूर्ण वर्तमान और भविष्य विराजमान हैं।
एक अन्य बात जब तक माता-पिता और बच्चे, चाचा-भतीजा और समाज, सभी मिलकर भाई-भतीजावाद को नकारते नहीं हैं और निजी रुचि तथा प्रतिभा को सम्मान नहीं देते हैं तब तक भारत के पेशेवर लोगों के परिदृश्य में बहुत अधिक बदलाव नहीं देखा जा सकेगा और बहुत सारी छिपी हुई प्रतिभा लोगों के सामने नहीं आ पाएँगी।
अतः देश की प्रतिभा को आगे लाने के लिए नेपोटिज्म जैसी तुच्छता को नकारना होगा और देश का भविष्य बुद्धिजीवी और प्रतिभावान व्यक्तियों के द्वारा सुरक्षित करना होगा।
ऐसे तो संविधान ख़त्म हो जाएगा
राष्ट्र के संपूर्ण कार्यों का क्रियान्वयन उस राष्ट्र के संविधान में ही निहित होता है। संविधान को किसी भी लोकतांत्रिक देश की रीड की हड्डी कहा जा सकता है। ऐसे में यदि संविधान को ख़तरा होता है तो वह पूरे लोकतांत्रिक देश के लिए ख़तरा साबित हो सकता है। आज भारत के संविधान की स्थिति एक ढहते हुए मकान की तरह हो गई हैं।
आज संविधान को इस तरह बना दिया कि ये उपर-उपर से तो हरा भरा दिख रहा है लेकिन अंदर से खोखला होता हुआ नज़र आ रहा है। भारत के संविधान को भारतीय राजनीति अपने हिसाब से उपयोग करने में लगी हुई है, जब चाहे तब संविधान की मर्यादा को तार-तार कर दिया जाता है। संविधान पंथनिरपेक्ष अथवा धर्म निरपेक्ष की बात कहता है तो भारतीय राजनीति धर्म के नाम पर ही लोगों को गुमराह करने में लग जाती है।
जिन नेताओं को संविधान की प्रस्तावना की भी जानकारी नहीं है वह नेता संविधान पर बेबुनियाद आरोप लगा देते हैं। परिस्तिथियों के अनुसार बदलाव भी ज़रूरी है लेकिन संविधान की अवहेलना कहाँ तक उचित है। ये वही संविधान है जिसके दम से ‘हम भारत के लोग हैं’ उद्घोषित होता है।
भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने वाला संविधान आज कुछ अल्प बुद्धिजीवियों के सम्पर्क में आकर अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है। आज भी स्वतंत्र भारत में धर्म के नाम पर लोगों को राजनीति ने गुमराह करके रखा है, उन तक संविधान को पहुँचने ही नहीं दिया जा रहा है। संविधान जहाँ सबको समानता का अधिकार देता है वही आज की व्यवस्था ने अपने विशेष वर्ग को सबसे उपर रखा हुआ है।
बहुत जगह चर्चा अथवा बहस होती है कि आरक्षण देश को बर्बाद कर रहा है लेकिन यथार्थ में तो आरक्षण देश के उच्च स्तरीय पदों तक पहुँच ही नहीं पाता है, वहाँ पर तो नेपोटिज्म (भाई-भतीजावाद) पहले से अपनी नींव मज़बूत करके बैठा है। आज संविधान पर हर ओर से प्रतिघात नज़र आता है क्योंकि कुछ विशेष व्यवस्थायें अपनी-अपनी व्यवस्था का प्रबंध करना चाहती हैं।
विशाल संविधान के आवरण को देखे तो लगता है संविधान निर्माताओं ने कितनी सटीकता से इसका निर्माण किया है कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने हक़ की आवाज़ उठा सकता है लेकिन आज की व्यवस्था को उस आवाज़ से परेशानियों होने लगी है क्योंकि उनकी सच्चाई आम नागरिक भी जानने लगा है जो उनके लिए कदापि उचित नहीं है।
इसलिए कुछ लोगों को संविधान से परहेज़ होने लगा है, लेकिन उनको ये भी समझना चाहिए कि संविधान के द्वारा ही देश आज नए चमकते सितारों से परिचित हो पा रहा है, आम व्यक्ति की आवाज़ संविधान के द्वारा ही उठाई जाती हैं। यदि संविधान को भारत से हटा दिया जाता है तो भारत पर एक विशेष वर्ग का स्वामित्व हो जाएगा जो अंग्रेज सरकार से भी खतरनाक साबित होगा। ख़तरे के कगार पर संविधान को बचाने के लिए प्रत्येक भारतीय को एक होना पड़ेगा क्योंकि संविधान के बिना देश की कल्पना करना भी व्यर्थ है।
धर्म, मज़हब अथवा जाति विशेष को छोड़कर संविधान की अस्मिता बचाना प्रत्येक भारतीय का परम कर्तव्य है। देश में जब लोकतंत्र होता है तब संविधान ही वह शक्तियाँ प्रदान करवाता है जिससे आम आदमी भी अपने अधिकार अथवा हक़ के लिए आवाज़ उठा सके। लेकिन विडंबना की बात है कि कुछ केवल अपने धर्म, मज़हब अथवा अपनी विचारधारा के लिए देश के रीड पर ही प्रहार करने लग जाते हैं। संविधान को किसी विशेष धर्म, भाषा, संस्कृति, मज़हब अथवा संप्रदाय के लिए नहीं अपितु अपने देश के लिए बचाना होगा।
भारतीय न्याय व्यवस्था में आज खौफ़ की ज़रूरत है
खौफ़ शब्द का आजकल अपराधियों में कोई खौफ़ नहीं रहा हैं! भारतीय न्याय व्यवस्था इतनी कमज़ोर अथवा धीमी हैं कि कोई भी अपराधी आराम से बच निकलता है, हालांकि ये न्याय प्रणाली की भी विवशता हैं क्योंकि न्याय संविधान के द्वारा प्रदत्त व्यवस्था के अनुसार ही करना होता है जो हज़ारों सीढिय़ां चढ़ने के बाद भी मुश्किल से हाथ आता है लेकिन तब तक अपराधी उसी संविधान के द्वारा बारीकी गलियों से बच निकल जाता है। इन्हीं कारणों से अपराधियों के हौसले बुलंद है क्योंकि उन्हें पता है कि ज़मानत तो अवश्य ही मिल जाएगी और कुछ पैसों से पूर्ण रिहाई भी सम्भव है।
आज बेटियों के साथ बलात्कार तो रोज़मर्रा का कार्य हो चुका है क्योंकि भारतीय न्याय प्रणाली पूर्णतः नींद में सो रही है। यहाँ पर एक बलात्कारी को सज़ा देने में सात साल का समय लग जाता है वह भी तब जब एक माँ रात दिन जागकर, निडर होकर रोज़ कोर्ट के चक्कर लगाती हैं तब फ़ैसला होता है।
शर्म आती हैं ऐसे न्याय तंत्र पर जो इस प्रकार गठित है कि बड़े-बड़े अपराधी जैल जाने से पहले बेल प्राप्त कर लेते हैं। इस न्याय प्रणाली में परीक्षा से पहले परिणाम सुरक्षित कर दिया जाता है। दल बदलना तो ऐसे हो गया जैसे कपड़े बदल रहे हो, उनको सत्ता प्राप्ति के बाद उच्च पद की चाह जनता के बारे में सोचने ही नहीं देती, जो ज़्यादा माल जेब में, माफ़ कीजिए जेब में नहीं यहाँ पर स्विस बैंक लिखना सार्थक रहेगा क्योंकि जेब में इतने कैसे रखेंगे, उनकी कल जय बोलना अवश्य हैं।
बेटियाँ को इज्ज़त लूटे या जनता मरें उनको इससे कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ने वाला, हाँ ज़रूर पंद्रह मिनिट की प्रेस कॉन्फ्रेंस करके आँसू या आश्वासन दे दिया जाएगा।
आजकल के नेता और प्रशासनिक अधिकारी मिलकर सड़के अथवा शहरों को खा जाते हैं और नहरों की पूर्ण रूप से पी जाते हैं, कही बार किसी क्षेत्र में नहरें आ भी जाती हैं लेकिन पानी तो चुनाव के समय के लिए नेता जी अपने घर की टंकी में रख देते हैं। आज की स्थिति में भारत के बहुत सारे नौजवान राजनीति के बारे में जानने लगे हैं लेकिन इनमें भी बहुत सारे किसी एक दल की पूँछ पकड़ कर बैठ जाते हैं बस वोट उसी दल को जिसकी पूँछ पकड़ कर बैठे हैं यहाँ पर प्रत्याशी चाहें किसी को भी बिठा दिया जाए उनको अपने दल से मतलब रहता है, यथार्थ में ये बड़ी मूर्खता हैं क्योंकि इससे ये लोग योग्य उम्मीदवार को खो देते हैं और फ़िर क्षेत्र का विकास होना कैसे सम्भव होगा।
भारतीय राजनीति ने प्रशासन को भी बुरी तरह से जकड़ के रखा है वह योग्य अधिकारी को अपना कार्य नहीं करने देते हैं क्योंकि इससे उनकी स्विस बैंक के लॉकर में जंग लग जाएगी। फ़िर प्रशासनिक अधिकारी भी उनकी चपेट में आकर जेब गर्म करने के लिए तैयार हो जाते हैं।
यदि सच में भारत के संपूर्ण नेताओं के स्विस बैंक के लॉकर खुलवाया जाए तो पता चल जाएगा कि किसने कितना सच अथवा झूठ बोला है लेकिन ये कदापि सम्भव नहीं है क्योंकि शीर्ष पर वहीं हैं जिनका स्विस बैंक में जमा हैं।
यहाँ पर ‘रोम जल रहा है और नीरो बंसी बजा रहा है’ य़ह स्थिति बनी हुई है उक्त पंक्ति को पढ़कर आप लोगों को रोम के शासक नीरो की क्रूरता का स्मरण हो रहा होगा, जब पूरा रोम आग की लपटों में ६ दिन तक जलता रहा, जिसमें लाखों की संख्या में मनुष्य और जंगली पशुओं की मौत हुई, तब रोम का शासक ‘नीरो’ इस विनाश लीला को देख रहा था और सारंगी बजा रहा था। यही हाल आज सम्पूर्ण विश्व के साथ-साथ अपने देश का भी हो रहा है
अब भारतीय जनता के द्वारा ही भारत का विकास सम्भव है वहीं अपने क्षेत्र से बिना किसी दल की पूंछ पकड़े योग्य उम्मीदवार को वोट करें ताकि भविष्य में उनका विकास हो सके। बहुत सारे नेता ‘नीरो’ बने हुए बैठे हैं जो बड़ी-बड़ी दुखांत घटनाओं पर भी बंसी बजा रहे हैं।
न्याय प्रणाली में अब भी सुधार की बहुत आवश्यकता है इसमें ऐसा सुधार होना चाहिए कि अपराधी अपराध करने से पहले हज़ार बार सोचे की उसका हश्र क्या होगा, यदि बड़े पैमाने पर बलात्कारियों को बीच चौराहे पर लोगों के सामने मौत के घाट उतार दिया जाए तो उसे देखने वालों की रूह काँप जाएगी और भविष्य में ऐसा कृत्य करने से पहले उनके दिमाग़ में ये छवि दिखने लगेगी जिससे भय के कारण ऐसा कुकृत्य नहीं कर पाएंगे।
न्याय प्रणाली का यदि कोई सबसे ज़्यादा सहयोग कर सकता है तो वह सामाजिक न्याय हैं अर्थात् समाज के न्याय को भी मान्यता मिले क्योंकि बहिन बेटी के साथ ग़लत कार्य किसी न किसी समाज में ही होता है और जब समाज की दंड संहिता लागू कर दी जाए तो अपराध समाज के डर से बड़ी मात्रा में कम हो जाएंगे।
लोकतंत्र में दलबदल नीति जनता का विश्वास डगमगा रही है
आधुनिक राजनीति में सत्तालोलुप राजनेता जनता की बिल्कुल परवाह किए बिना ही अपनी पार्टी बदल लेते हैं। जनता अपने पसंदीदा दल के नेता को चुनती है लेकिन वह नेता बड़े पद अथवा सत्ता पाने के लिए किसी भी हद्द तक जा सकता हैं। लोकतंत्र में जब जनता अपने प्रतिनिधि का चयन करती हैं तब वह अपने विशेष दल का ध्यान रखकर करती हैं लेकिन जब प्रतिनिधि निर्वाचित हो जाता है और उसके बाद जब वह पार्टी बदल देता है तब तो जनता के साथ एक प्रकार का धोखा हुआ ये मान लेना चाहिए।
बहुत सारी परिस्थितियों में जनता अपने क्षेत्र का नेता उसे ही चुनती हैं जिस दल से उनको लगाव होता हैं। लेकिन राजनीति में तो ‘अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता’ वाला स्लोगन हर राजनेता के अंदर स्वतः बैठ ही जाता हैं। यथार्थ में आज राजनीति से नीति शब्द अलग हो चुका है।
कभी कभी तो राजनीति ऐसे स्तर पर पहुँच जाती हैं कि ऐसा लगता है जैसे कि कोई नौटंकी करने वाला मंच हो। यथार्थ में राजनीति का परिदृश्य जनता तक कभी भी नहीं पहुँच पाता है क्योंकि राजनेताओं के द्वारा जनता को किसी न किसी मुद्दे पर भटका ही दिया जाता हैं। बड़े अफ़सोस की बात ये है कि बहुत सारे राजनेता किसी आरोप के कारण जैल में होने के बावजूद भी निर्वाचित हो जाते हैं ये कार्य जनता की जागरूकता में कमी के कारण होता है।
अपने देश में जनता अपने प्रतिनिधि की योग्यता की जगह उसकी जाति, धर्म इत्यादि देखती हैं और उसी के आधार पर वोट करती हैं। हालांकि राजनीति में बहुत सारे ऐसे भी नेता होते हैं जो अपने क्षेत्र में बहुत कुछ करना चाहते हैं लेकिन शीर्ष दबाव की विवशता में हाथ बाँध कर खड़े रहना पड़ता हैं।
भारतीय जनता में ‘श्मशान वैराग्य’ की भरमार हैं, श्मशान वैराग्य मतलब जब हम किसी श्मशान घाट में जाते हैं तब मन में ख़्याल आते हैं कि दुनियाँ नश्वर हैं, सभी को एक दिन मरना हैं, इतना दौड़ने से क्या मिलेगा आख़िर अंतिम समय तो खाली हाथ ही जाना हैं इत्यादि। पर जब श्मशान घाट से बाहर आते हैं तब वह सब कुछ भूलकर वापस अपने कार्य में लग जाते हैं ऐसा ही भारतीय जनता के साथ होता है, नेता चुनावों के दौरान उन्हें बहुत बड़े-बड़े वादे अथवा आश्वासन देते हैं कि आपके हित में सब कुछ कर लेंगे, इतने में जनता उनसे बहुत प्रभावित हो जाती है और उन्हें जीता देती हैं।
जनता भी अनायास सबकुछ प्राप्त करना चाहती हैं। आजकल नेताओं के द्वारा स्पष्ट रूप से कानून की अवहेलना की जा रही है जनता के भावनाओं के साथ खेला जा रहा है, स्वार्थपरता के इस दौर में सब अपना-अपना फायदा चाहते हैं।
कितनी शर्म की बात की जिस नेता का चुनाव अपने क्षेत्र के भविष्य के लिए करते हैं वहीं कुछ स्वार्थ के कारण बिक जाते हैं। इसी कारण कहीं बार जनता का लोकतंत्र से भी विश्वास डगमगा जाता है। देश की जनता को ये भी सोचना चाहिए कि जब नेता चुनाव जीतने के लिए लाखों, करोड़ो का ख़र्च करता हैं तब वह जीतने के बाद आपका भला करेगा या अपने ख़र्च पैसों की वापस भरपाई करेगा?
ईधर राजनीति में भाई-भतीजावाद ने भी गहरी नींव जमा दी, अयोग्य व्यक्ति भी सत्ता के शीर्ष पर अपने पुरखों की वज़ह से बैठ जाता है और प्रतिभा का बहिष्कार कर दिया जाता है। वर्तमान में राजनेताओं की केवल एक ही महत्त्वाकांक्षा हैं किसी भी तरह सत्ता प्राप्त हो। राजनीति आज अनुशासन की पराकाष्ठा को तोड़ती हुई नज़र आ रही है। राजनीति में नैतिकता शब्द अब विसंगतियों में पड़ गया है।
आधुनिकता ने लोगों को राजनीति की प्रत्येक बारीकियों को समझने की सुविधाएँ प्रदान की हैं लेकिन कुछ लोग एक ही दल का पुंछ पकड़ कर बैठ जाते हैं प्रत्याशी चाहे कोई भी हो वोट दल को देखकर ही देते हैं, यहाँ पर उन लोगों की मूर्खता प्रकट होती हैं क्योंकि वोट दल को देखकर नहीं अपने प्रत्याशी को देखकर देना चाहिए, यदि प्रत्याशी योग्य नहीं होगा तो आपका विकास कभी भी सम्भव नहीं है।
पिछले कुछ सालों में भारतीय राजनीति में दलबदल बहुत तेज़ी से सक्रिय हो चुका हैं, जो जनता की भावनाओं को आहत कर रहा है। भारतीय संविधान भी इसकी भर्त्सना करता हैं लेकिन कुछ सत्तालोलुप बड़ा पद पाने की चाह में अपना दल छोड़कर दूसरे दल में चले जाते है लोकतंत्र में ये बड़े दुःख की बात है। हालांकि कही बार कुछ मजबूरियाँ भी होती हैं जब दल बदलना पड़ता हैं क्योंकि उनको महसूस होता है कि उसकी प्रतिभा को अनदेखा किया जा रहा है अथवा उनका ग़लत इस्तेमाल किया जा रहा है तब दल बदलना बिल्कुल सही साबित होता है।
आजकल की राजनीति के परिदृश्य को देखकर लगता है कि राजनीति में प्रवेश करने के लिए भी कुछ विशेष स्तर अथवा परीक्षा का प्रबंध किया जाना चाहिए और योग्य व्यक्तियों को ही राजनीति के उच्च शिखर पर जाने दिया जाना चाहिए। लेकिन नेपोटिज्म से ग्रस्त राजनीति प्रतिभा को छिपा देती हैं उन्हें आगे आने का अवसर भी नहीं दिया जाता हैं।
इसी कारण भारत के विकास का रथ आगे नहीं बढ़ पा रहा है। दल बदल इतना आसान हो चुका है कि आज कोई भी नेता अपने कुछ विधायक साथियों को लेकर सरकार के ख़िलाफ़ हो जाता है और सरकार पर बहुमत पास कराने का दबाव डाल दिया जाता है, हालाँकि ये सभी कार्य बहुत सोच समझकर किए जाते हैं जिसमें सत्तारूढ़ अथवा दबाव समुह भी सम्मिलित होते हैं। कानून के ज़रिए भी दल बदल के विरोध प्रदर्शन किए हैं, सरकार भी इसको समाप्त करना चाहती है।
दल-बदल विरोधी कानून ने राजनीतिक दल के सदस्यों को दल बदलने से रोक कर सरकार को स्थिरता प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हाल ही में कई बार यह देखा गया कि राजनेता अपने लाभ के लिये सत्ताधारी दल को छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल होकर सरकार बना लेते हैं जिसके कारण जल्द ही सरकार गिरने की संभावना बनी रहती थी।
ऐसी स्थिति में सबसे अधिक प्रभाव आम लोगों हेतु बनाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं पर पड़ता था। दल-बदल विरोधी कानून ने सत्ताधारी राजनीतिक दल को अपनी सत्ता की स्थिरता के बजाय विकास सम्बंधी अन्य मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये प्रेरित किया है।
कानून के प्रावधानों ने धन या पद लोलुपता के कारण की जाने वाली अवसरवादी राजनीति पर रोक लगाने और अनियमित चुनाव के कारण होने वाले व्यय को नियंत्रित करने में भी मदद की है। साथ ही इस कानून ने राजनीतिक दलों की प्रभाविता में वृद्धि की है और प्रतिनिधि केंद्रित व्यवस्था को कमज़ोर किया है। लेकिन आज की स्थितियों को देखकर लगता है कि व्यक्ति अपने लिए पद हेतु किसी भी कानून को मानने के लिए तैयार नहीं है। राजनेताओं की इसी महात्वाकांक्षी नीति के कारण जनता का लोकतंत्र से विश्वास डगमगा रहा है।
ऐसे बनेगा भारत आत्मनिर्भर
भारत की जनसंख्या विकराल होने के कारण आत्म निर्भर बनाना कठिन ज़रूर हैं लेकिन नामुमकिन नहीं। बहुत सारे लोगों के द्वारा सरकार पर आरोप लगाया जाता है कि यदि जब आत्म निर्भर बनना ही है तो चीन व अन्य देशों से आयात वस्तुओं पर पाबंदी क्यों नहीं लगाई जाती हैं?
वैश्विक स्तर पर देखे तो ये आरोप बेबुनियाद हैं क्योंकि सभी देशों के मध्य व्यापार को लेकर संधियाँ अथवा समझोते हो रखें हैं इसलिए हम किसी देश से वस्तुओं को आयात करना अचानक बंद नहीं कर सकते जब तक कोई ठोस कारण ना हो। तो कैसे होगा चीन का बहिष्कार?
इसके लिए सर्वप्रथम समस्त भारतीय लोगों को ही स्वदेशी चीज़ों को खरीदना प्रारम्भ करना पड़ेगा। जब भारत में चीन की चीज़े ख़रीदी ही नहीं जाएगी तो चीन निर्यात कैसे करेगा? लेकिन भारतीय राजनेताओं के द्वारा जनता को मुफ़्त चीज़े देना उनको विकलांग बनाने जैसा हैं। राजनेताओं को समझना चाहिए कि वोट बैंक की नीति में जनता को विकलांग ना बनाए। जब जनता आत्म निर्भर बनेगी तब भारत स्वतः आत्म निर्भर हो जाएगा।
इसके लिए प्रत्येक ज़िले में ज़िला प्रशासन अथवा राजनेताओं के द्वारा ब्लॉक स्तर पर एक ऐसे लघु उद्योग का निर्माण करना चाहिए जिसमें केवल उन लोगों को रोजगार दिया जाए जो पूर्ण रूप से असहाय हो और उस उद्योग में कार्य भी ऐसा रखा जाए जिससे वे सभी आसानी से करके अपनी रोज़ी रोटी कमा सके। इससे होगा ये कि लोगों को रोज़गार मिलेगा और स्वदेशी वस्तुओं का भी निर्माण होगा।
भारत को आत्म निर्भर बनाने में प्रशासन की अहम भूमिका हो सकती हैं। ज़िला प्रशासन के द्वारा ग्राम अथवा शहर के मुखिया से उनके क्षेत्रों में निवास करने वाले असहाय लोगों को सूची तैयार कर उन्हें उद्योग के लिए कार्य करने हेतु प्रेरित करना होगा। हम लोगों को भी केवल सोशल मीडिया तक सीमित नहीं रहना हैं आत्मनिर्भरता के लिए एक छोटा-सा अपना भी योगदान होना चाहिए।
क्यों न अनाथालय को वृद्धाश्रम से जोड़ दिया जाए?
छोटी छोटी व्यवस्थाओं से लोगों को अपार ख़ुशी प्रदान की जा सकती हैं। देश में ऐसे कहीं मुद्दे हैं जो लोगों को आपस में जोड़ कर एक दूसरे के प्रति आत्मीयता भरने का कार्य कर सकते हैं उनमें से एक अनाथालय और वृद्धाश्रम से जुड़ा हुआ है।
मनुष्य जीवन को देखे तो लगता है कि जो छोटे बच्चें होते हैं वह अपने माता पिता से ज़्यादा दादा दादी के साथ लगाव और समय व्यतीत करते हैं। परंतु कुछ स्वार्थपरता के कारण माता पिता को घर से निकाल दिया जाता है उधर कुछ ऐसे भी बच्चें होते हैं जो अनाथ हो जाते हैं अर्थात् उनका पालन पोषण करने वाला कोई नहीं रहता, उन्हें कुछ विराट ह्दय वाले मनुष्य के द्वारा अनाथालय की शरण प्रदान करायी जाती हैं।
यहाँ सोचने वाली बात यह है कि एक के जीवन में माँ बाप की कमी है और एक के बेटा, बेटी अथवा पोते इत्यादि की तो क्यों न कुछ ऐसा किया जाए कि एक को बेटा मिल जाए और दूसरे को माँ बाप का प्यार मिल जाए। ऐसा करने का केवल एक ही माध्यम हैं अनाथालय और वृद्धाश्रम को साथ में जोड़ दिया जाए। बहुत बार ये भी होता है कि माँ बाप को बेटे घर से बाहर नहीं निकालना चाहते हैं लेकिन उनका व्यवहार उनकों घर से बाहर निकालता हैं यहाँ पर उनका बच्चों के साथ सामंजस्य स्थापित करना भी कठिन हो सकता हैं लेकिन अनाथ बच्चों को उनसे थोड़ा ही सही किन्तु मार्गदर्शन तो अवश्य ही मिल सकता हैं।
ये कार्य करने में कोई विशेष राशि ख़र्च करने की ज़रूरत नहीं है बल्कि इससे तो पैसे की बचत होगी और बच्चों को बुजुर्गों से बहुत सारे अनुभव प्राप्त होगे। ये कार्य केवल सरकार के सान्निध्य में ना छोड़कर अपने क्षेत्र के धनिक व्यक्तियों के द्वारा भी विशेष रूप से किया जा सकता है।
वर्तमान में जितने अनाथालय और वृद्धाश्रम स्थापित हैं उनमें भी प्रशासन और राजनेताओं के द्वारा सामंजस्य स्थापित करने की पूर्ण कोशिश करनी चाहिए। ये जो छोटे-छोटे कार्य मानवता को सुख प्रदान करते हैं उनकों यथार्थ में अवश्य लाना चाहिए। इसलिए पुनः निवेदन है कि जल्द ही समस्त अनाथालय और वृद्धाश्रम को साथ में लाकर बच्चों व बुजुर्गों के जीवन में नई खुशियाँ का महोत्सव तैयार किया जाए।
भगवान से सबकी शिकायत करूंगा
खून से लथपथ तीन साल के बच्चे ने मरने से ठीक पहले ऐसी बात कही कि सुनकर किसी का भी दिल कांप जाए। इस बच्चे ने डॉक्टरों से कहा, ‘मैं भगवान से तुम सबकी शिकायत करूंगा। मैं उसे सब कुछ बताऊंगा।’
सीरिया बम हमले में घायल बच्चे को काफ़ी चोटें आई थीं और अंदरूनी ब्लीडिंग के कारण उसकी मौत हो गई। मरने से पहले दर्द से कहराते हुए उसने कहा कि अब वह भगवान से सब की शिकायत करेगा। कुछ वर्ष पहले ये घटना घटित हुई हालांकि इसको लेकर वाद विवाद चला किसी ने इस घटना को ग़लत बताया लेकिन सोचने का विषय यह है कि आज भी जब किसी निर्दोष पर अत्याचार होता होगा तो भगवान से शिकायत नहीं करता होगा क्या?
क्या ऐसे व्यक्तियों की शिकायतें भगवान के पास नहीं पहुँचती होगी? यदि नहीं तो ज़रा सोचो इस पृथ्वी पर अनेक प्रकार के जीव जंतु, कीट पतंग, कीटाणुओं की लाखों प्रजातियाँ हैं पर वैश्विक महामारी ने केवल इंसानो को ही क्यों चुना? क्योंकि ये सब उन निर्दोषों की शिकायतों का परिणाम हैं जिनको मनुष्य ने बेमौत मार दिया।
आज दुनियाँ की परिस्थिति को देखकर लगता है उस बच्चे की शिकायत को भगवान ने सुन ली हैं और उसकी सजा भी इंसानों को मिल रही है हालांकि यह सजा इंसानों के लिए बिल्कुल नगण्य हैं। लेकिन इंसानों की निर्दयता को देखकर लगता है कि ऐसी शिकायतें अनगिनत संख्या में भगवान के पास पहुँची होगी। चीन में हाल ही में लाखों जीव-जंतुओं को मौत के घाट उतार दिया गया उनकी चीखें भगवान तक नहीं पहुँची होगी क्या?
आज अपने देश में भी कुछ आदमखोर दरिंदों के द्वारा छोटी-छोटी बच्चियों के साथ कुकृत्य करना भगवान तक नहीं पहुँचता होगा क्या? आज भी अपने देश में धर्म अथवा मज़हब के नाम पर लड़ाई होती रहती है, कभी बेटियाँ बचाने अथवा पर्यावरण बचाने के लिए ऐसी लड़ाई लड़ी हैं क्या?
हाँ ज़रूर सोशल मीडिया पर अनेक पोस्ट की हैं जिनका आज की स्थिति में कोई औचित्य नहीं रहा! आज केवल पर्यावरण दिवस पर ही पर्यावरण की बातें होती हैं उस दिन एक गमले में पौधा लगा दिया जाता है और उसके साथ फोटो लेकर सोशल मीडिया पर प्रसारित कर दिया जाता है। बाद में वह फोटो ही जीवित रहते हैं पौधा नहीं!
निर्भया जैसी बेटी के साथ दरिंदगी करने वालों को सात साल बाद सज़ा मिलना ये देश के लोगों का न्याय प्रणाली पर से विश्वास उठना कहलाता है ज़रा सोचों यदि निर्भया की माँ ने दिन-रात जागकर संघर्ष नहीं किया होता तो उन जालिमों को सज़ा मिलती? ऐसी कितनी ही निर्भया हैं जिनको आज तक न्याय नहीं मिल पा रहा हैं। उनकी सब की शिकायत अवश्य पहुँचती होगी!
आज के समय की सबसे बड़ी बात कोरोना महामारी की वैक्सीन बनाने के लिए निर्दोष जीव जंतुओं का प्रयोग क्यों किया जा रहा है जबकि बहुत सारे दरिन्दे क़ैद पड़े हैं वह कब काम आयेंगे? आज कल व्यक्ति गुटखा खाते हुए कैंसर का ज्ञान देता है यही हाल पर्यावरण के बारे में हैं जो सोशल मीडिया तक ही सीमित है। यदि यही हाल पर्यावरण का रहा तो दुनिया में वह दिन दूर नहीं जब व्यक्तियों को अपने पीठ पर ऑक्सीजन का सिलेंडर बाँधना पड़ेगा!
आज प्रत्येक परिस्थितियों का कारण लोगों के द्वारा सिर्फ़ राजनीति को ठहराना कहाँ तक उचित है? हालांकि लोग ख़ुद अपने दम पर कुछ कार्य नहीं करते हैं केवल सोशल मीडिया के द्वारा प्रत्येक प्रकार का आरोप राजनीति पर थोप देते है।
शर्म की बात तो तब होती है जब बलात्कार, दुष्कर्म इत्यादि पर भी राजनीति शुरू कर दी जाती है। अंत में यही कहना चाहता हूँ कि वह बच्चा तो अपने अंतिम शब्द बोल कर चला गया लेकिन सोचों जब किसी बहिन, बेटी पर तेजाब फेंक दिया जाता है और वह अपनी ज़िन्दगी घुट-घुट कर जीती हैं तब वह भगवान से पल-पल की शिकायत नहीं करती होगी क्या?
दशरथ प्रजापत
पथमेड़ा, जालोर (राजस्थान)
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