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प्रेम गुलाब (love rose)
प्रेम गुलाब (love rose): गुलाब तो गुलाब होता है भले ही रंग कोई हो। , हाँ लोग अपने-अपने आवश्यकतानुसार नामकरण कर लेते हैं जिससे उनके उद्देश्य की पूर्ति हो जाती है। जैसे-, जन्मदिन का गुलाब, स्वागत गुलाब, सुहागरात का गुलाब इत्यादि, खैर छोड़िये ये सब, यहाँ चर्चा कर रहे हैं हम प्रेम गुलाब का।
ठेठ देहाती होने के कारण कालेज में हम कोई गलफ्रेंड न बना सके या न बन सकी, जिससे प्रेम गुलाब देने का कभी सुअवसर नहीं मिला। हाँ कम्पनी के कार्यों से एक दो बार स्वागत गुलाब लेने-देने का मौका मिला है। कभी-कभी तो स्वागत गुलाब के नाम पर हमारे साथ धोखा भी हुआ है। असली गुलाब के जगह पर लोगों ने हमे नकली गुलाब पकड़ा दिया है और मैं असली समझकर स्वीकार कर लिया है, खैर नकली पहचान भी लेता तोऽ स्वागत गुलाब स्वीकार करने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था।
अब आते प्रेम गुलाब की कहानी पर, हुआ यह कि एक बार खेतों का भ्रमण करते समय अपने खेत में खिले लाल रंग के एक बड़े गुलाब को देखकर अपने को रोक न सका तथा धर्मपत्नी जी को प्रेम जताने के चक्कर में तोड़ लाया। वैसे हमारे पत्नी जी के लिए, करिया अक्षर भैंस बराबर है तथा थोड़ा ऊँचा सुनती हैं। परन्तु खेती-बारी, पशुपालन तथा गोबर-गोथार करने में महारथ हासिल हैं।
हाँ तोऽ गुलाब लेकर घर आया, उस समय धर्मपत्नी जी पशुबाड़ा से गोबर उठा रही थी हाथ में लिया हुआ गुलाब धर्मपत्नी जी को बढ़ाते हुए प्रेम गुलाब कहने के वजाय अंग्रेज़ी में ये लो लव गुलाब जी,। इतना कहना क्या था, कि धर्मपत्नी जी आग बबूला हो गईं और, करिया अक्षर भैंस बराबर, तथा ऊँचा सुनने के कारण अर्थ का अनर्थ करते हुए बोलना चालू कर दिया, काऽ इ नाटक बनायें हवऽ, लेब रोज, लेब रोज़ कइलेऽ हवऽ।
मैं मन ही मन हंसते हुए तबतक मुकदर्शक बना रहा जबतक वह शांत न हों गई, शांत होने पर धर्मपत्नी जी को समझाया कि लव गुलाब का मतलब होता है प्रेम गुलाब, प्रेम गुलाब, फिर उन्होंने कहा कि अईसन बात है, ! ठीक है हमरे जुड़ा में खोस देईउऽ।
इतना आदेश पर प्रेम गुलाब मैंने धर्मपत्नी जी के जुड़ा में खोस दिया, बदले में धर्मपत्नी जी ने हंसते हुए गोबर में सने हाथ मेरे गाल पर फेर दिया, मैं धत, कहने के अलावा धर्मपत्नीजी को कुछ और न कह सका क्योंकि प्रेम गुलाब देने की शुरूआत जो मैंने किया था।
बल्लू के बहुरिया
कहते हैं कि जब बल्लू के अम्मा गवनें आइल रहलीऽ। उस समय गाँव में उनके जोड़ की कोई बहुरिया न थी। बल्लू के अम्मा ने हस्सी के हँसगुल्ले में एमे० ओमे० की थी। गाँव भर के बुड़वा-जवान, लईका-सयान तथा लग्गू-भग्गू बल्लू के अम्मा के जबतक दर्शन करके दो-चार परछावन के पचरस नहीं सुन लेते थे। उनका खाना नहीं पचता था।
बल्लू के अम्मा भी गाँव के लग्गू-भग्गू लोगों के साथ बल्लू के पापा के जबतक परछावन के पचरस के कचरस न निकाल दें, तबतक चैन नहीं लेतीं थीं। इसी तरह से जीवन चल रहा था कि बल्लू के बहुरिया भी घर में पाँव रखी, खैर बल्लू की ब्याह के लिए बहुरिया को बल्लू की अम्मा ने ही देखी थीं।
बहुरिया के उतरते ही बल्लू की अम्मा ने कहाँ था कि, ऐ, बहुरिया पाँव सम्भाल के रखऽ, घर में सास-ससुर हवें, पाँव गम्भीर होखे के चाहिए। इतना सुनते ही बहुरिया ने तपाक से नहले पर दहला फेकते हुए कहा, माँ जी, निश्चिंत रहींऽ, पाँव भारी ही रखबऽ, जहाँ से केहू उठ न पाई।
खैर बात की बात रही किन्तु बहुरिया भी अपने सासु से कम न थी। बल्लू की अम्मा ने हँसी के हसगुल्ले में एमे० ओमे० की थी तोऽ वहीं बहुरिया हँसी और हँसाने में पच० डी०, पी०टेक की थी। कहते हैं कि बल्लू की बहुरिया मायका के ग्राम पंचायत के सभी लोगों के खोज-खबर के साथ ही अपने ठीक हुए ब्याह के ससुरबाड़ी का पूरी खोज-खबर रखती थी।
बल्लू के अम्मा जब भी बहुरिया से कुछ काम कहने के लियें सोचती, तबतक बहुरिया उनको वही काम करने के लिए कह देती तथा बातों के बतंगण में उलझा देती थी।
एक दिन बल्लू की अम्मा ने बहुरिया से कहा कि, देखो बहुरिया हमारे बेटा-पतोहू हो गये हैं। प्रत्येक बातो का जबाब देना सही नहीं है। अपने से बड़ो का इज़्ज़त करना सीखो। इसपर बहुरिया ने कहा, देखो सासु माँ जी इज़्ज़त तो करना सबका काम है हमारे भी आप के जईसन बेटा-पतोहू होगें।
इसलिए जब भी आप बोलें सोच समझकर बोलें,। खैर बहुरिया ने भी सही ही कहा था किन्तु यह बात बल्लू के अम्मा के समझ न आई। बल्लू के अम्मा गाँव में छाती पीटते हुए शोरगुल मचावल चालू कइ दिहलीऽ कि, बाप रे बाप, ई, बहुरिया के दुई दिन अइले नाहीं भइल कि कहतिया कि तोहरे जइसन हमरो बेटा-पतोहू हवें।
जवन बल्लू के अम्मा रोज़ गाँव भर के बुड़वा-जवान, लईका-सयान तथा लग्गू-भग्गू के संग हँसी के हँसगुल्ला के रस पियत और पियावत रहलीऽ,। बहुरिया के अवते ही भुला गइलीऽ और हँसरस के रस पियलऽ और पियावलऽ सपना हो गईलऽ।
नज़र और नज़राना
क्या कह गई किसी की नज़र कुछ ना पूछिए,
समझकर नजरों का इशारा गहरा राज ढूँढिए।
क्या कह गई किसी की नज़र—————
कहने को नज़र केवल देखती है परन्तु इन नजरों में बहुत गहरा राज छिपा होता है। ये जालीम नज़र बड़ी कातिलाना होती है। ये कातिलाना नजरों के कारण ही लैला-मजनू एक दूसरे से मिलने के लिए दर-दर की ख़ाक छानते थे। जो आज भी प्रेमी-प्रेमियों के लिए आदर्श हैं।
कहतें हैं कि जब जमींदारी प्रथा में कोठे-कोठियों का ताना-बाना होता था तब तवायफों के नृत्यगान के लटके-झटके शुरू होने से पहले तवायफों के नज़र का नज़राना कोठे पर आये मेहमानों से लिया जाता था ताकि तवायफों के कातिल नजरों का कोई शिकार न हो जाये, फिर भी नज़र तो नज़र है कोई न कोई घायल होकर ही जाता था।
कई बार तो गोरिया की कातिल रसभरी नजरों से घायल होकर आशिक परवाने बनकर घुमते हुए दर्द भरी नगमें गाने लगते हैं,
हम तोऽ मारे गये तेरे कातिल नजरों से,
रहमकर मुझपर लगाले अपने अधरों से।
गोरिया के नज़रो का यह कातिलाना तीर बड़े-बड़े शूरमाओं, गुंडा-मवालियों, अधिकारियों तथा धनाढ्य व्यक्तियों जिनकी तूती बोलती है उनको भी लकीर का फ़क़ीर बनने के लिए बाध्य कर देतें है और वे भीगी बिल्ली बनकर अपनी प्रेमिका के आदेश का डंका बजाते हैं।
राजा-महाराजा के ज़माने में कातिलाना नज़र वाली लड़कियों को बचपन से ही दुशमन देश के गुप्त योजनाओं की जानकारी इकठ्ठा करने के लिए प्रशिक्षण देकर तैयार किया जाता था। ये लड़कियाँ दुशमन देश के राजकुमार और सेनापति को अपने हुस्न और कातिलाना नजरों के जाल में फ़ंसा कर अपने गुप्त योजनाओं को अंजाम देती थी।
आज भी इन नजरों का ही देन है कि हनीट्रैप के मामले देखने-सुनने में आते हैं। अपने हुस्न और कातिलाना नजरों के बदौलत विदेशी बालायें हमारे देश के हुनरमंद नौजवानों तथा सैनिकों का शिकार बनाती हैं तथा इनके नजरों का शिकार होकर ये युवा अपने देश की खुफिया जानकारी उनसे साझा कर देते हैं। जिससे देश की संप्रभुता पर ख़तरा मंडराने लगता है।
मातायें भी अपने दुधमुहें बच्चे को नज़रों के नज़राना से बचाने के लिए काला टिका लगातीं हैं। जब इन नज़रों का प्रयोग योगी-यति, पीर-फकीर नाराज़ होने पर करतें हैं तोऽ हरा-भरा मंज़र भी वीरान हो जाता है। कहतें हैं कि जब दुर्वासा ॠषि के कुपित होने पर उनके नजरों की भृकुटी तनती तोऽ बड़े-बड़े राजा-महाराजा थर-थर कांपने लगते थे तथा सेवाभाव की याचना लिए कोपभाजन से बचने के लिए अनुनय-विनय करने लगते थे।
अर्जुन को गीता का उपदेश देने वाले श्रीकृष्ण ने नज़रों के इशारों से ही महाभारत के युद्ध में कौरवों पर पांडवो की विजय दिलाया था। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी अपने नजरों के विलक्षण प्रतिभा से मिलने वाले व्यक्ति के मनोभावों को जान लेते थे। अंग्रेज अपने कुटिल भावों को छिपाने के उद्देश्य से गांधीजी से कभी भी नज़र मिलाकर बात नहीं करते थे। गांधीजी नजरों के पारखी होने से अंग्रेजों के भावों को समझकर देश की आजादी के लिए भावी रणनीति तैयार करते थे।
वैसे आजकल नज़रों का नज़राना तथा नज़रों का खेल भ्रष्ट कर्मचारियों के दफ्तर में बहुतेरे देखे-सुने जा सकते हैं। किसी भी कार्य की कार्यवाही के लिए क़लम से पहले नज़रें ही चलती हैं। इन भ्रष्ट कर्मचारियों के दफ्तर में तवायफों की तरह नज़राना लेने के बाद ही क़लम का तराना चालू होता है। इन नज़राना के आदान-प्रदान में नज़रों का अहम भूमिका होती है।
नज़रों के पारखी तोऽ बड़े-बड़े काम राह चलते पल भर में कर देते हैं। इनका स्लोगन ही होता है कि, एक नज़र देख लेतें है। नज़र का कमाल ही है कि राह चलते ओझा-सोखा और ज्योतिषी पल भर में भविष्य का लेख पढ़कर लोगों के भाग्य बदलने का ठेका ले लेतें हैं और इन नज़रों के ज्ञान से अज्ञान भोला-भाला इंसान इन ओझा-सोखा और ज्योतिषियों को भाग्य-विधाता समझकर सबकुछ गंवा बैठता है।
नज़रों के इस महाज्ञान को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है। इन नज़रों के ज्ञान को जानने तथा अच्छे-बुरे व्यक्तियों के मनोभावों को समझने के लिए नज़र से नज़र मिलाकर ही बात करना चाहिए। तभी व्यक्ति के मनोदशा का पता चलता है तथा नज़र पारखी के प्रतिभा का विकास होता है।
यह तो सत्य ही है कि नज़रों के पारखी व्यक्तियों की तूती बोलती है तथा दुनिया उनको मान-सम्मान देती है। जैसे, कि मैं नज़र दिखाने पर अपने धर्मपत्नीजी का करता हूँ।
त्रिवेणी कुशवाहा “त्रिवेणी”
कुशीनगर-उत्तर प्रदेश
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