Table of Contents
दास्ताने जिन्दगी
दास्ताने जिन्दगी
बादलों की छाँव-सी है, दास्ताने-जिन्दगी।
आ गयी है हम सभी को, आजमाने-जिन्दगी।
फूल खिलते हैं तनिक, काँटो का ही अंबार है,
कौन जाने कब लगेगी, किस ठिकाने जिन्दगी।
किसको हम अपना कहें, जब हम किसी के ना रहे,
कब तलक आख़िर चलेगी, इस बहाने जिन्दगी।
खून से सींचा जिसे, वह चमन मुरझाने लगा,
अब भला कैसे कटेगी, रामजानें जिन्दगी।
चार दिन की चाँदनी में, गर न कोई गैर हो,
फिर तो आयेगी यकीनन, सिर झुकाने जिन्दगी।
गर समता की चाहत है तो
इस चार दिवस के जीवन में,
करना घमण्ड बेकार सखे।
उसमें भी सुन्दरता कब तक,
इस सत्य को भी स्वीकार सके।
काया की क्षणिक सुघरता पर,
ना ये जीवन कुर्बान सखे।
क्षणभंगुरता इसकी कहती,
जारी रखना अभिमान सखे।
कल खुशियाँ जिनपे छायी थीं,
दुःख की बदली ने घेरा है।
यह चक्र न थमने वाला है,
ये जग तो रैन बसेरा है।
हंसते देखा रोते देखा,
दुनिया की है रीत यही।
अरि की घात कहीं देखा तो,
अपने भी मनमीत यहीं।
मानव-मानव से जलता है,
ऊँच-नीच की खाईं देखी।
हुए खोखले रिश्ते सारे,
आपस की कटुताई देखी।
गले मिलें होकर संकल्पित,
अब ना कोई बहाना होगा।
गर समता की चाहत है तो,
सबको गले लगाना होगा।
आखिर क्यूँ?
कभी लोग कितना ग़लत सोच लेते हैं?
अपनत्व भरा स्नेह, जल जाता है कूड़े की तरह;
सन्देह करने लगते हैं ख़ुद पर,
समाज के झूठे भय से।
वर्षों का परस्पर प्रेम,
पल में चूर-चूर कर,
अभिशप्त कर देते हैं रिश्ते को;
घृणा के ज़हर से।
आखिर क्यूँ?
मानता हूँ न चाहते हुए भी,
सन्देह दूर कर पाने में असफल;
निराश, बेवश,
घुट-घुट कर पी जाते हैं।
अपनेपन को; कड़वे घूँट की तरह। ।
आखिर क्यूँ?
किस भय से
नर्वस हैं, परवश हैं, विवश हैं:
आखिर क्यूँ?
कहने को तो हम आजाद हैं।
फिर क्यूँ?
ये ऊँच-नीच, भेदभाव, बाप बेटे,
माँ-बेटी, शौहर बीबी या यूं कहे
ईसा इंसा के बीच की खाँई,
नित-बढ़-सी रही है,
आखिर क्यूँ?
आखिर क्यूँ?
विन्ध्येश्वरी प्रसाद ‘विन्ध्य’
वाराणसी
यह भी पढ़ें-
2 thoughts on “दास्ताने जिन्दगी”