भारत के प्रसिद्ध मंदिर (famous temples of india) हमारी संस्कृति की पहचान हैं। भारत की संस्कृति प्राचीन है एवं सनातन काल से यहां मंदिरो की विशेष मान्यताये है। इसी क्रम में भारत के हर छोटे बड़े राज्य में कई प्रसिद्ध मंदिर है। ऐसे मंदिर भी है जिनमे कि वर्ष भर आने वाले श्रद्धालुओ का तांता ही लगा रहता है।
भारत के प्रसिद्ध मंदिर (famous temples of india) हिन्दू समाज में एक अलग स्थान रखते हैं। प्राचीन काल में मंदिर सामाजिक केंद्र के महत्वपूर्ण स्थल थे। मंदिर ही ऐसी जगहें थीं, जहां नृत्य, संगीत और युद्ध की कलाओं को सम्मानित किया जाता था। देश में आज भी ऐसे कई मंदिर मौजूद हैं, जो अतीत के कारीगरों की बेहतरीन शिल्प कला की याद दिलाते हैं।
Table of Contents
भारत के प्रमुख मंदिर (famous temples of india)
- केदारनाथ मंदिर, उत्तराखंड
- बद्रीनाथ मंदिर, उत्तराखंड
- वैष्णो देवी, जम्मू
- स्वर्ण मंदिर, अमृतसर
- काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी
- स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली
- अमरनाथ, जम्मू कश्मीर
- दिलवाड़ा मंदिर, माउंट आबू
- मीनाक्षी मंदिर मदुरै तमिलनाडु
- प्रेम मंदिर, वृंदावन
- श्री जगन्नाथ पुरी मंदिर, पुरी
- मल्लिकार्जुन स्वामी मंदिर, श्रीशैलम
- महाकालेश्वर मंदिर, उज्जैन
- इस्कॉन (हरे कृष्ण) मंदिर, दिल्ली
- बैद्यनाथ धाम, देवघर
- सोमनाथ मंदिर, गुजरात
- सिद्धिविनायक मंदिर, मुंबई
- त्र्यंबकेश्वर,नाशिक
- भीमाशंकर मंदिर, पुणे
- शनि शिंगनापुर, महाराष्ट्र
- लोटस टेम्पल, नई दिल्ली
- सूर्य मंदिर, कोणार्क
- कामाख्या मंदिर, गुवाहाटी
- महाबोधि मंदिर, बोधगया
- अयप्पा मंदिर, सबरीमाला
- ओंकारेश्वर मंदिर, मध्यमहेश्वर
- लिंगराज मंदिर, भुवनेश्वर
- नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर, द्वारका
- श्रीनाथजी मंदिर, नाथद्वारा
- बिड़ला मंदिर, जयपुर
- श्री साईं बाबा संस्थान मंदिर, शिरडी
केदारनाथ मंदिर, उत्तराखंड
- भारत के उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में गढ़वाल हिमालय पर्वतमाला पर स्थित केदारनाथ मंदिर सबसे प्रतिष्ठित और पवित्र हिंदू मंदिरों में से एक है।
- ३५८३ मीटर की ऊंचाई पर स्थित, यह मंदिर १२ ज्योतिर्लिंगों में सबसे ऊंचा है और यह भगवान शिव को समर्पित है।
- वर्तमान केदारनाथ मंदिर का निर्माण आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया है, जो मूल रूप से पांडवों द्वारा हजार साल पहले बनाया गया था।
केदारनाथ धाम का इतिहास
केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखंड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ चार धाम और पंच केदार में से भी एक है। यह उत्तराखंड का सबसे विशाल शिव मंदिर है, जो कटवां पत्थरों के विशाल शिलाखंडों को जोड़कर बनाया गया है। ये शिलाखंड भूरे रंग की हैं। मंदिर लगभग ६ फुट ऊंचे चबूतरे पर बना है। इसका गर्भगृह प्राचीन है जिसे ८०वीं शताब्दी के लगभग का माना जाता है।
केदारनाथ धाम और मंदिर तीन तरफ़ पहाड़ों से घिरा है। एक तरफ़ है करीब २२ हज़ार फुट ऊंचा केदारनाथ, दूसरी तरफ़ है २१ हज़ार ६०० फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ़ है २२ हज़ार ७०० फुट ऊंचा भरतकुंड। केदारनाथ मंदिर न सिर्फ़ तीन पहाड़ बल्कि पांच नदियों का संगम भी है यहां-मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी। इन नदियों में से कुछ का अब अस्तित्व नहीं रहा लेकिन अलकनंदा की सहायक मंदाकिनी आज भी मौजूद है।
केदारनाथ धाम के इतिहास के अनुसार केदारनाथ मंदिर में स्थित शिवलिंग बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। जयोतिर्लिंग के दर्शन मात्र से ही समस्त पापो से मुक्ति मिल जाती है। केदारनाथ मंदिर के किनारे में केदारेश्वर धाम स्थित है। पत्थरो से बने कत्य्रुई शैली से बने केदारनाथ मंदिर के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पांडव वंश के जन्मेजय ने कराया था। लेकिन ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदिगुरू शंकराचार्य ने की। केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही होते है।
श्री केदारनाथ मंदिर में शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में पूजे जाते है। शिव की भूजाए तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदम्देश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को “पंचकेदार” कहा जाता है। यहाँ शिवजी के भव्य मंदिर बने है।
केदारनाथ धाम के बारे में कथा
हिमालय के केदार पर्वत पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित हैं। ऐसा माना जाता है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या अर्थात (परिवार वालो की हत्या) के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे।
इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे। लेकिन भगवान शंकर पांडवो से गुस्सा थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर भगवान शंकर पांडवो को वहाँ नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुँचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहाँ से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे। दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुँच ही गए।
भगवान शंकर ने बैल का रूप धारण करके अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था कि भगवान शंकर इन पशुओ के झुण्ड में उपस्थित है। तभी भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाड़ों पर पैर फैला दिए। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल का रूप धारण कर पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए।
तब भीम पूरी ताकत से बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतध्र्यान करने लगा। तब भीम ने बैल का पीठ का भाग पकड़ लिया और भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तुरंत दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ धाम में पूजे जाते हैं।
बद्रीनाथ मंदिर, उत्तराखंड
- गढ़वाल पहाड़ी पर स्थित, अलकनंदा नदी के पास, सबसे पवित्र बद्रीनाथ मंदिर या बद्रीनारायण मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है।
- मंदिर चार धाम और छोटा चार धाम तीर्थ स्थलों में से एक है।
- इसका उल्लेख भारत में भगवान विष्णु को समर्पित १०८ दिव्य देसमों में मिलता है।
- १०२७९ फीट की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर बुलंद हिमालय से घिरा हुआ है। मूल रूप से मंदिर संत, आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित माना जाता है
बद्रीनाथ मंदिर का इतिहास
बद्रीनाथ या बद्रीनारायण मंदिर एक हिन्दू मंदिर है। यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है, ये मंदिर भारत में उत्तराखंड में बद्रीनाथ शहर में स्थित है। बद्रीनाथ मंदिर, चारधाम और छोटा चारधाम तीर्थ स्थलों में से एक है। यह अलकनंदा नदी के बाएँ तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है। ये पंच-बदरी में से एक बद्री हैं। उत्तराखंड में पंच बदरी, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। यह मंदिर भगवान विष्णु के रूप बद्रीनाथ को समर्पित है।
ऋषिकेश से यह २१४ किलोमीटर की दुरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। बद्रीनाथ मंदिर शहर में मुख्य आकर्षण है। प्राचीन शैली में बना भगवान विष्णु का यह मंदिर बेहद विशाल है। इसकी ऊँचाई करीब १५ मीटर है। पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान शंकर ने बद्रीनारायण की छवि एक काले पत्थर पर शालिग्राम के पत्थर के ऊपर अलकनंदा नदी में खोजी थी। वह मूल रूप से तप्त कुंड हॉट स्प्रिंग्स के पास एक गुफा में बना हुआ था।
बद्रीनाथ मंदिर का निर्माण
सोलहवीं सदी में गढ़वाल के राजा ने मूर्ति को उठवाकर वर्तमान बद्रीनाथ मंदिर में ले जाकर उसकी स्थापना करवा दी। और यह भी माना जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने ८ वी सदी में मंदिर का निर्माण करवाया था। शंकराचार्य की व्यवस्था के अनुसार मंदिर का पुजारी दक्षिण भारत के केरल राज्य से होता है। यहाँ भगवान विष्णु का विशाल मंदिर है और पूरा मंदिर प्रकर्ति की गोद में स्थित है।
यह मंदिर तीन भागों में विभाजित है, गर्भगृह, दर्शनमण्डप और सभामण्डप। बद्रीनाथ जी के मंदिर के अन्दर १५ मुर्तिया स्थापित है। साथ ही साथ मंदिर के अन्दर भगवान विष्णु की एक मीटर ऊँची काले पत्थर की प्रतिमा है। इस मंदिर को “धरती का वैकुण्ठ” भी कहा जाता है। बद्रीनाथ मंदिर में वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।
पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के अनुसार यह स्थान भगवान शिव भूमि (केदार भूमि) के रूप में व्यवस्थित था। भगवान विष्णु अपने ध्यानयोग के लिए एक स्थान खोज रहे थे और उन्हें अलकनंदा के पास शिवभूमि का स्थान बहुत भा गया। उन्होंने वर्तमान चरणपादुका स्थल पर (नीलकंठ पर्वत के पास) ऋषि गंगा और अलकनंदा नदी के संगम के पास बालक रूप धारण किया और रोने लगे।
उनके रोने की आवाज़ सुनकर माता पार्वती और शिवजी उस बालक के पास आये। और उस बालक से पूछा कि तुम्हे क्या चाहिए। तो बालक ने ध्यानयोग करने के लिए शिवभूमि (केदार भूमि) का स्थान मांग लिया। इस तरह से रूप बदल कर भगवान विष्णु ने शिव पार्वती से शिवभूमि (केदार भूमि) को अपने ध्यानयोग करने हेतु प्राप्त कर लिया। यही पवित्र स्थान आज बद्रीविशाल के नाम से भी जाना जाता है।
वैष्णो देवी, जम्मू
- त्रिकुटा पहाड़ियों में समुद्रतल से १५ किमी की ऊँचाई पर स्थित माता वैष्णोदेवी का पवित्र गुफा मंदिर है, जो हिंदू धर्म के लोगों के लिए आध्यात्मिकता से भरपूर देवी का मंदिर है।
- वैष्णो देवी एक धार्मिक ट्रेकिंग डेस्टिनेशन है जहाँ तीर्थयात्री लगभग १३ किमी तक पैदल चलकर छोटी गुफाओं तक पहुँचते हैं जो 108 शक्तिपीठों में से एक है।
- वैष्णो देवी, जिसे माता रानी के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी दुर्गा की एक अभिव्यक्ति हैं।
- कुल मिलाकर यदि आप हिंदू धर्म और प्रकृति दोनों की ओर झुकाव रखते हैं तो यात्रा करने के लिए ये सबसे अच्छा मंदिर है।
वैष्णो देवी मंदिर का इतिहास
अधिकतर प्राचीनतम पवित्र मंदिरों की यात्राओं की तरह ही यह निश्चित कर पाना असंभव ही है कि इस पवित्र मंदिर की यात्रा कब आरम्भ हुई। गुफा के भू-वैज्ञानिक अध्ययन से पता चलता है कि इस पवित्र गुफा की आयु लगभग एक लाख वर्ष की है। वैदिक साहित्य किसी स्त्री देवता की पूजा की ओर संकेत नहीं करता जबकि चारों वेदों में प्राचीनतम ऋग्वेद में त्रिकुट पर्वत का संदर्भ मिल जाता है। शक्ति की आराधना की रीति अधिकतर पौराणिक काल से आरम्भ हुई है।
देवी माता का सबसे पहला वर्णन महाभारत में हुआ है। जब पाण्डव और कौरव कुरूक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अपनी सेनाओं का ब्यूह बनाए हुए थे, श्री कृष्ण के परामर्श पर पाण्डवों के प्रमुख सेनानी अर्जुन ने देवी माता का ध्यान लगाया और युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए आशीर्वाद मांगा। जब अर्जुन ने देवी माता का ध्यान लगाया और उनसे निवेदन किया तो उन्हें ‘जम्बूकातम चित्यायशु नित्यम सन्निहत्यालय’ कहा जिसका अभिप्राय है कि आप सदैव से जम्बू जो संभवतः आज कल के जम्मू को संदर्भित करता है; के पहाड़ की तलहटी के मंदिर में रहती आ रहीं हैं।
साधारण रूप से यह भी विश्वास किया जाता है कि पाण्डवों ने ही सबसे पहले देवी माता के प्रति अपनी भक्ति और श्रद्धा को प्रकट करते हुए कौल कंडोली और भवन मेें मंदिर बनवाए। त्रिकूटा पहाड़ के बिलकुल साथ लगते एक पहाड़ पर पवित्र गुफा को देखते हुए पांच पत्थरों के ढांचे पांच पाण्डवों के प्रतीक हैं।
किसी इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा पवित्र गुफा की यात्रा का शायद प्राचीनतम वर्णन गुरु गोविन्द सिंह जी के प्रति मिलता है जो कहा जाता है कि पुरमण्डल के रास्ते पवित्र गुफा तक पंहुचे। पवित्र गुफा को जाने वाला पुराना रास्ता इस बहुत प्रसिद्ध तीर्थ स्थल से होकर जाता था।
कुछ परम्पराओं में इस पवित्र गुफा मंदिर को शक्ति पीठों (वह स्थान जहाँ देवी माता यानी अनंत ऊर्जा का आवास है) में सर्वाधिक पवित्र माना जाता है क्योंकि सती माता का सिर यहाँ गिरा है। कुछ अन्य मान्यताओं के अनुसार लोग यह मानते हैं कि यहाँ सती माता की दायीं भुजा गिरी थी। परंतु कुछ पाण्डुलिपियाँ इस विचार से सहमत नहीं हैं, वहाँ यह माना गया है कि सती की दायीीं भुजा कश्मीर में गांदरबल के स्थान पर गिरी थी। निःसंदेह श्री माता वैष्णो देवी जी की पवित्र गुफा में मानवीय भुजा के पत्थर के अवशेष देखे जा सकते हैं, जो वरदहस्त के रूप में प्रसिद्ध है।
वैष्णो देवी मंदिर की खोज
श्री माता वैष्णो देवी के उद्भव और मंदिर की खोज से जुड़ी अनेक तरह की गाथाएँ प्रचलित हैं तदपि इस बात पर सभी सहमत प्रतीत होते हैं कि लगभग ७०० वर्ष पूर्व इस मंदिर की खोज पण्डित श्रीधर द्वारा की गई जिसके भण्डारे के आयोजन में माता जी ने सहायता की थी। जब माता भैरों नाथ से बचने के लिए भण्डारे को मध्य में छोड़ कर चली गई तो कहा जाता है कि पण्डित श्रीधर को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उन्होने अपने जीवन की प्रत्येक वस्तु गंवा दी। वह बहुत दुखी रहने लगे और भोजन और जल ग्रहण करना तक छोड़ दिया। वह अपने ही घर के एक कमरे में बंद हो गये और माता जी से पुनः प्रकट होने के लिए बड़े विनम्र भाव से निवेदन करने लगे।
तभी माता वैष्णवी श्रीधर के सपने में प्रकट हुई और उसे त्रिकूट पर्वत की तलहटियों में स्थित पवित्र गुफा को ढूँढने के लिए कहा। माता ने उस से अपना व्रत खोलने का आग्रह किया और उसे पवित्र गुफा का रास्ता भी दिखाया। माता की बात मान कर श्रीधर पर्वतों में स्थित उस पवित्र गुफा को ढूँढने के लिए चल पडे। कई बार उन्हे लगा कि वह रास्ता भूल गए है, परंतु तभी उनकी आंखों के सामने सपने में देखा वह दृष्य पुनः प्रकट हो जाता, अंततः वह अपने लक्ष्य पर पंहुच गए।
गुफा में प्रवेश करने पर उन्हे तीन सिरों में ऊपर उठी हुई एक शिला मिली। उसी क्षण माता वैष्णो देवी उनके समक्ष साक्षात् प्रकट हुईं (एक अन्य कथा में कहा गया है कि माता महा सरस्वती, माता महा लक्ष्मी एवं माता महा काली की महान दिव्य ऊर्जाएँ गुफा में प्रकट हुई) और उसे शिला के रूप में तीन सिरों (पवित्र पिण्डियों) की पूजा करने का आदेश दिया। श्रीधर को गुफा में और भी अनेक पहचान चिह्न मिले। माता जी ने श्रीधर को चार पुत्रों का वरदान दिया और उसे उन के उस स्वरूप की पूजा करने का अधिकार दे दिया। माता ने श्रीधर को पवित्र मंदिर की महिमा का प्रचार प्रसार करने के लिए कहा। उसके बाद श्रीधर ने अपना संपूर्ण जीवन माता जी की पवित्र गुफा में माता रानी की सेवा और भक्ति में बिता दिया।
माता वैष्णो देवी जी पौराणिक कथा
पौराणिक गाथा के अनुसार जब माता असुरों का संहार करने में व्यस्त थीं तो माता के तीन मूल रूप: माता महाकाली, माता महालक्ष्मी और माता महा सरस्वती एक दिन इकट्ठे हुए और उन्होंने अपनी दिव्य आध्यात्मिक शक्तियों यानी अपने तेज को एकत्रित करके परस्पर मिला दिया, तभी उस स्थान से जहाँ तीनों के तेज मिल कर एक रूप हुए आश्चर्य चकित करने वाली तीव्र ज्योति ने सरूप धारण कर लिया और उन तीनों के तेज के मिलने से एक अति सुंदर कन्या/युवति प्रकट हुई। प्रकट होते ही उस कन्या/युवति ने उन से पूछा, “मुझे क्यों बनाया गया है?” देवियों ने उसे समझाया कि उन्होंने उसे धरती पर रह कर सद्गुणों एवं सदाचार की स्थापना, प्रचार-प्रसार एवं रक्षा हेतु अपना जीवन बिताने के लिए बनाया है।
देवियों ने कहा, “अब तुम भारत के दक्षिण में रह रहे हमारे परम भक्त रत्नाकर और उनकी पत्नी के घर जन्म लेकर धरती पर रह कर सत्य एवं धर्म की स्थापना करो और स्वयं भी आध्यात्मिक साधना में तल्लीन हो कर चेतना के उच्यतम स्तर को प्राप्त करो। एक बार जब तुमने चेतना के उच्यतम स्तर को प्राप्त कर लिया तो विष्णु जी में मिलकर उनमें लीन होकर एक हो जाओगी।” ऐसा कह कर तीनों ने कन्या/युवति को वर प्रदान किए। कुछ समय उपरांत रत्नाकर और उसकी पत्नी के घर एक बहुत सुंदर कन्या ने जन्म लिया। पति-पत्नी ने कन्या का नाम वैष्णवी रखा।
कन्या में अपने शैशवकाल से ही ज्ञान अर्जित करने की जिज्ञासा रही। ज्ञान प्राप्त करने की उसकी भूख ऐसी थी कि किसी भी प्रकार की शिक्षा-दीक्षा से उसे संतुष्टि न होती। अंततः वैष्णवी ने ज्ञान प्राप्ति के लिए अपने मन में चिंतन लीन होना आरम्भ कर दिया और शीघ्र ही ध्यान लगाने की कला सीख ली और समझ गई कि चिंतन मनन और पश्चाताप स्वरूप तपस्या से ही वह अपने महान लक्ष्य तक पंहुच सकेगी। इस तरह वैष्णवी ने घरेलु सुखों का त्याग कर दिया और तपस्या के लिए घने जंगलों में चली गई। उन्हीं दिनों भगवान राम अपने १४ वर्ष के वनवास काल में वैष्णवी से आ कर मिले, तो वैष्णवी ने उन्हें एकदम पहचान लिया कि वह साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि भगवान विष्णु के अवतार हैं। वैष्णवी ने पूरी कृतज्ञता के साथ उनसे उन्हें अपने आप में मिला लेने का निवेदन किया ताकि वह परम सर्जक में मिलकर एकम-एक हो जाए।
जबकि राम ने इसे उचित समय न जान कर वैष्णवी को रोक दिया और उत्साहित करते हुए कहा कि वह उसे वनवास ख़त्म होने पर दुबारा मिलेंगे और उस समय यदि उसने उन्हें पहचान लिया तो वह उसकी इच्छा पूर्ण कर देंगे। अपने वचनों को सत्य करते हुए युद्ध जीतने के बाद राम उसे दुबारा मिले परंतु इस बार राम एक बूढ़े आदमी के भेष में मिले। दुर्भाग्य से इस बार वैष्णवी उन्हें पहचान न पाई और खीज कर उन्हें भला बुरा कहने लगी और दुखी हो गई। इस पर भगवान राम ने उन्हें सांत्वना दी कि सृजक से मिलकर उनमें एक हो जाने का अभी उसके लिए उचित समय नहीं आया है और अंततः वह समय कलियुग में आएगा जब वह (राम) कल्कि का अवतार धारण करेंगे।
भगवान राम ने उसे तपस्या करने का निर्देश दिया और त्रिकुटा पर्वत श्रेणियों की तलहटियों में आश्रम स्थापित करने और अपनी आध्यात्मिक शक्ति का स्तर उन्नत करने और मानव मात्र को आशीर्वाद देने और निर्धनों और वंचित लोगों के दुखों को दूर करने की प्रेरणा दी और कहा कि तभी विष्णाु उसे अपने में समाहित करेंगे। उसी समय वैष्णवी उत्तर भारत की ओर चल पड़ी और अनेक कठिनाइयों को झेलती हुई त्रिकुटा पर्वत की तलहटी में आ पंहुची। वहाँ पहुँच कर वैष्णवी ने आश्रम स्थपित किया और चिंतन मनन करते हुए तपस्या में लीन रहने लगी।
जैसा कि राम जी ने भविष्यवाणी की थी, उनकी महिमा दूर-दूर तक फैल गई और झुण्ड के झुण्ड लोग उनके पास आशीर्वाद लेने के लिए उनके आश्रम में आने लगे। समय बीतने पर महायोगी गुरु गोरखनाथ जी जिन्होंने बीते समय में भगवान राम और वैष्णवी के बीच घटित संवाद को घटते हुए देखा था, वह यह जानने के लिए उत्सुक हो उठे कि क्या वैष्णवी आध्यात्मिक उच्चता को प्राप्त करने में सफल हुई है या नहीं। यह सच्चाई जानने के लिए उन्होंने अपने विशेष कुशल शिष्य भैरव नाथ को भेजा।
आश्रम को ढूँढ कर भैरव नाथ ने छिप कर वैष्णवी की निगरानी करना आरम्भ कर दिया और जान गया कि यद्धपि वह साधवी है पर हमेशा अपने साथ धनुष वाण रखती है और हमेशा लंगूरों एवं भंयकर दिखने वाले शेर से घिरी रहती है। भैरव नाथ वैष्णवी की आसाधारण सुंदरता पर आसक्त हो गया। वह अपनी सारी सद्बुद्धि को भूलकर, वैष्णवी पर विवाह के लिए दबाव डालने लगा। इसी समय वैष्णवी के परम भक्त श्रीधर ने सामूहिक भण्डारे का आयोजन किया जिसमें समूचे गाँव और महायोगी गुरु गोरखनाथ जी को उनके सभी अनुयायियों को भैरव नाथ सहित निमंत्रण दिया गया।
सामूहिक भोज के दौरान भैरव नाथ ने वैष्णवी का अपहरण करना चाहा परंतु वैष्णवी ने भरसक यत्न करके उसे झिंझोड़ कर धकेल दिया। अपने यत्न में असफल रहने पर वैष्णवी ने पर्वतों में पलायन कर जाने का निर्णय कर लिया ताकि बिना किसी विघ्न के अपनी तपस्या कर सके। फिर भी भैरो नाथ ने उसने लक्ष्य स्थान तक उनका पीछा किया।
आजकल के बाणगंगा, चरणपादुका और अधकुआरी स्थानों पर पड़ाव के बाद अंततः देवी पवित्र गुफा मंदिर जा पंहुची। जब भैरों नाथ ने देवी को संघर्ष से बचने के उनके प्रयासों के बावजूद पीछा करना न छोड़ा तो देवी भी उसका वध करने के लिए विवश हो गई। जब माता गुफा के मुहाने के बाहर थीं तो उन्होंने भैरों नाथ का सिर धड़ से अलग कर दिया और अंततः भैरों नाथ मृत्यु को प्राप्त हुआ। भैरों नाथ का सिर दूर की पहाड़ी चोटी पर धड़ाम से गिरा।
अपनी मृत्यु के समय भैरों नाथ ने अपने उद्धेश्य की व्यर्थता को पहचान लिया और देवी से क्षमा प्रार्थना करने लगा। सर्वशक्तिमान माता को भैरों नाथ पर दया आ गई और उन्होंने उसे वरदान दिया कि देवी के प्रत्येक श्रद्धालु की देवी के दर्शनों के बाद भैरों नाथ के दर्शन करने पर ही यात्रा पूर्ण होगी। इसी बीच वैष्णवी ने अपने भौतिक शरीर को त्याग देने का निर्णय किया और तीन पिण्डियों वाली एक शिला के रूप में परिवर्तित हो गई और सदा के लिए तपस्या में तल्लीन हो गईं।
इस तरह तीन सिरों या तीन पिण्डियों वाली साढे पांच फुट की लम्बी शिला स्वरूप वैष्णवी के दर्शन श्रद्धालुओं की यात्रा का अंतिम पड़ाव होता है। इस तरह पवित्र गुफा में ये तीन पिण्डियाँ पवित्रतम स्थान है। यह पवित्र गुफा माता वैष्णो देवी जी के मंदिर के रूप में विश्व प्रसिद्ध है और सभी लोगों में सम्मान प्राप्त कर रही है।
स्वर्ण मंदिर, अमृतसर
- भारत में सबसे आध्यात्मिक स्थानों में से एक, गोल्डन टेम्पल,जिसे श्री हरमंदिर साहिब के नाम से भी जाना जाता है, सिख धर्म का सबसे पवित्र मंदिर है।
- विध्वंस के दौर से गुजरने के बाद, इसे १८३० में शुद्ध रूप से संगमरमर और सोने के साथ महाराजा रणजीत सिंह द्वारा फिर से बनाया गया था।
- लोग आध्यात्मिक समाधान और धार्मिक पूर्ति के लिए यहां आते हैं।
- मंदिर के भीतर मौजूद अमृत सरोवर की बहुत मान्यता है। कहा जाता है यहां स्नान करने से व्यक्ति की सभी बीमारी दूर हो जाती है।
स्वर्ण मंदिर
अमृतसर यहाँ स्थित सुंदर एवं अत्यधिक सम्मानित स्वर्ण मंदिर या श्री हरमंदिर साहिब के लिए विश्व प्रसिद्ध शहर है, जो देश के बेहद लोकप्रिय आध्यात्मिक गंतव्यों में से एक है। यह मंदिर दो मंज़िला है, जिसका आधा गुम्बद ४०० किलोग्राम विशुद्ध सोनपत्र से सुसज्जित है, इसी के कारण इसका अंग्रेज़ी में नाम गोल्डन टेम्पल पड़ा। ऐसा माना जाता है कि सिख साम्राज्य के नेता महाराजा रणजीत सिंह ने १९वीं सदी में इसके निर्माण का जिम्मा उठाया था। मंदिर का शेष परिसर सफेद संगमरमर से बनाया गया जिसमें बहुमूल्य तथा कम कीमती रत्न जड़े गए थे। भित्तिचित्र बनाने के लिए पच्चीकारी तकनीक का उपयोग किया गया था। इस शानदार मंदिर का विशाल आकार सभी को प्रभावित करता है।
स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने से पहले श्रद्धा-स्वरूप किसी भी महिला/पुरुष को अपना सिर ढकना होता है तथा अपने जूते उतारने पड़ते हैं। जब कोई यहाँ मधुर गुरुवाणी सुनता है तब मंदिर में व्याप्त आध्यात्मिक शांति आत्मा तक को संतुष्ट कर देती है। कोई भी व्यक्ति वहाँ मिलने वाला गुरु का लंगर खा सकता है, जहाँ जाति, धर्म या लिंग का भेदभाव किए बिना यहाँ प्रतिदिन लगभग २० हज़ार लोगों को निःशुल्क भोजन कराया जाता है। लंगर की समस्त प्रक्रिया कारसेवकों द्वारा पूरी की जाती है तथा यह सबसे सादगीपूर्ण अनुभवों में से एक हो सकता है।
इस मंदिर का वास्तुशिल्प शानदार है और यह मंदिर संगमरमर के ६७ फुट के चबूतरे पर बना हुआ है। स्वर्ण मंदिर के चारों ओर अमृत सरोवर है, जिसके सम्बंध में कहा जाता है कि इसके पानी में रोग निवारक शक्तियाँ हैं। इस झील में रंग-बिरंगी मछलियाँ तैरती देखी जा सकती हैं, श्रद्धालु इसके साफ़ नीले पानी में डुबकी लगाते हैं। सिखों के मूल सिद्धांतों को ध्यान में रखकर ही स्वर्ण मंदिर का डिज़ाइन तैयार किया गया है, जो सार्वभौमिक भाईचारे एवं सभी लोकाचारों के समावेश का पक्षधर है। इसलिए, यह सभी दिशाओं से एक समान दिखाई देता है।
इसके मुख्य द्वार पर शानदार क्लॉक टॉवर बना हुआ है जिसमें सिखों का मुख्य संग्रहालय भी है। यहाँ से स्वर्ण मंदिर का शानदार परिदृश्य देखा जा सकता है, जिसकी झलक अमृत सरोवर में पड़ती है। एक अन्य प्रविष्टि भव्य रूप से सुशोभित दर्शनी द्योढ़ी के चांदी के द्वारों से होती है, जो पवित्र मंदिर को जाने वाले उस रास्ते से जुड़ता है जिससे मंदिर की परिक्रमा की जाती है।
परिसर के उत्तर-पश्चिम छोर पर जुबी वृक्ष भी है। ऐसी मान्यता है कि ४५० वर्षों पहले स्वर्ण मंदिर के पहले उच्च ग्रंथी बाबा बुढ़ा जी ने यह पेड़ लगाया था। सिखों के पवित्र ग्रन्थ-गुरु ग्रन्थ साहिब को दिन में स्वर्ण मंदिर के भीतर रखा जाता है। रात को, इसे अकाल तख्त में रख दिया जाता है। इसमें सिख योद्धाओं द्वारा उपयोग में किए गए पुराने हथियार भी रखे गए हैं। श्री हरमंदिर साहिब के आसपास कुछ अन्य प्रसिद्ध मंदिर विद्यमान हैं जिनमें दुर्गियाना मंदिर, एक सुंदर बाग़ तथा बाबा अटल का बुर्ज प्रमुख हैं। ऐसा कहा जाता है कि वाल्मीकि ने महाग्रंथ रामायण की रचना इसी पावनस्थल पर ही की थी।
स्वर्ण मंदिर किसने बनवाया?
दरबार साहिब के नाम से भी मशहूर मंदिर को अमृतसर में १५७७ में चौथे सिख गुरु-गुरु राम दास ने इसकी शुरुआत की थी और पांचवें गुरु अर्जन ने मंदिर की स्थापना की थी। मंदिर का निर्माण १५८१ में शुरू हुआ था, मंदिर के पहले संस्करण को पूरा करने में आठ साल लगे थे।
गुरु अर्जन ने परिसर में प्रवेश करने से पहले विनम्रता पर ज़ोर देने के लिए मंदिर को शहर की ज़मीन से कुछ निचले स्तर पर रखने की योजना बनाई। उन्होंने यह भी मांग की कि मंदिर परिसर हर तरफ़ खुला हो, इस बात पर ज़ोर दिया जाए कि यह सभी के लिए खुला था।
सिखों और मुलिमों के बीच लंबे समय से चले विवाद के बाद १७६२ में मंदिर ध्वस्त हो गया था। १७७६ में एक नया मुख्य प्रवेश द्वार, मार्ग और गर्भगृह का निर्माण पूरा हुआ, जबकि तालाब के चारों ओर पूल का काम १७८४ में समाप्त हो गया। रणजीत सिंह ने घोषणा की कि वह संगमरमर और सोने के साथ इसका पुनर्निर्माण करेंगे। मंदिर को १८०९ में संगमरमर और तांबे में पुनर्निर्मित किया गया था और १८३० में रणजीत सिंह ने सोने की पर्त के साथ गर्भगृह को सुसज्जित करने के लिए सोना दान किया।
स्वर्ण मंदिर इतना पूजनीय क्यों है?
इसके निर्माण के बाद गुरु अर्जन ने सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ आदि ग्रंथ को स्थापित किया था। आदि ग्रंथ, सिखों द्वारा दस मानव गुरुओं के वंश के बाद अंतिम, संप्रभु और अनंत जीवित गुरु का रूप माना जाता है। इसमें १, ४३० पृष्ठ हैं, जिनमें से अधिकांश को ३१ रागों में विभाजित किया गया है। मंदिर में अकाल तख्त भी मौजूद है जो ‘ छठे गुरु का सिंहासन कहा जाता है। छठे गुरु-गुरु हरगोबिंद द्वारा इसे बनवाया गया था। यह सिखों के लिए-सत्ता की पांच सीटों में से एक है। अकाल तख्त राजनीतिक संप्रभुता का प्रतीक है और ऐसी जगह है जहाँ सिख लोगों के आध्यात्मिक और लौकिक सरोकारों को सम्बोधित किया जा सकता है।
काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी
- पवित्र नदी गंगा के पश्चिमी तट पर स्थित, काशी विश्वनाथ मंदिर को भगवान शिव को समर्पित सबसे लोकप्रिय हिंदू मंदिरों में से एक माना जाता है।
- काशी विश्वनाथ मंदिर के मुख्य देवता भगवान शिव हैं, जिन्हें विश्वनाथ या विश्वेश्वर के नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ है ‘ब्रह्मांड का शासक’।
- मंदिर में मौजूद ज्योतिर्लिंग को देश के सभी ज्योतिर्लिंगों में से १२ वां माना जाता है।
- पुराने समय में, शिवरात्रि जैसे विशेष त्योहारों पर, काशी के राजा (काशी नरेश) मंदिर में पूजा के लिए जाते थे, जिसके दौरान किसी और को मंदिर परिसर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी।
- मंदिर में कालभैरव, विष्णु, विरुपक्ष गौरी, विनायक और अविमुक्तेश्वर जैसे कई अन्य छोटे मंदिर भी हैं।
काशी विश्वनाथ मंदिर
काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। ज्ञानव्यापी मस्जिद ही असल काशी विश्वनाथ मंदिर है, ऐसा दावा किया जाता है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं। यहि पर सन्त एकनाथ जी ने वारकरी सम्प्रदायका महान ग्रन्थ श्रीएकनाथी भागवत लिखकर पुरा किया और काशिनरेश तथा विद्वतजनोद्वारा उस ग्रन्थ कि हाथी पर से शोभायात्रा ख़ूब धुमधामसे निकाली गयी। महाशिवरात्रि की मध्य रात्रि में प्रमुख मंदिरों से भव्य शोभा यात्रा ढोल नगाड़े इत्यादि के साथ बाबा विश्वनाथ जी के मंदिर तक जाती है।
काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण
वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा सन १७८० में करवाया गया था। बाद में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा १८५३ में १००० कि.ग्रा. शुद्ध सोने द्वारा बनवाया गया था।
काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास
उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में स्थित भगवान शिव का यह मंदिर हिंदूओं के प्राचीन मंदिरों में से एक है, जोकि गंगा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है। कहा जाता है कि यह मंदिर भगवान शिव और माता पार्वती का आदि स्थान है। जिसका जीर्णोद्धार ११ वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने करवाया था और वर्ष ११९४ में मुहम्मद गौरी ने ही इसे तुड़वा दिया था। जिसे एक बार फिर बनाया गया लेकिन वर्ष १४४७ में पुनं इसे जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया।
फिर साल १५८५ में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट ने इसे बनाया गया था लेकिन वर्ष १६३२ में शाहजंहा ने इसे तुड़वाने के लिए सेना की एक टुकड़ी भेज दी। लेकिन हिंदूओं के प्रतिरोध के कारण सेना अपने मकसद में कामयाब न हो पाई। इतना ही नहीं १८ अप्रैल १६६९ में औरंगजेब ने इस मंदिर को ध्वस्त कराने के आदेश दिए थे। साथ ही ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश पारित किया था। आने वाले समय में काशी मंदिर पर ईस्ट इंडिया का राज हो गया, जिस कारण मंदिर का निर्माण रोक दिया गया। फिर साल १८०९ में काशी के हिंदूओं द्वारा मंदिर तोड़कर बनाई गई ज्ञानवापी मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया।
इस प्रकार इतिहास के अनुसार काशी मंदिर के निर्माण और विध्वंस की घटनाएँ ११वीं सदी से लेकर १५वीं सदी तक चलती रही। हालांकि ३० दिसम्बर १८१० को बनारस के तत्कालीन ज़िला दंडाधिकारी मि। वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने के लिए कहा था, लेकिन यह कभी संभव ही नहीं हो पाया। तब से ही यह विवाद चल रहा है।
काशी विश्वनाथ मंदिर की धारणा
हिन्दू धर्म में कहते हैं कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यही नहीं, आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे संसार की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और इन्हीं की अर्चना से श्रीवशिष्ठजी तीनों लोकों में पुजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये।
काशी विश्वनाथ मंदिर की महिमा
सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। भगवान भोलानाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन से छुट जाता है, चाहे मृत-प्राणी कोई भी क्यों न हो। मतस्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवंम दुखों परिपीड़ित जनों के लिये काशीपुरी ही एकमात्र गति है। विश्वेश्वर के आनंद-कानन में पांच मुख्य तीर्थ हैं:-
- दशाश्वेमघ,
- लोलार्ककुण्ड,
- बिन्दुमाधव,
- केशव और
- मणिकर्णिका
और इन्हीं से युक्त यह अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है
स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली
- भारतीय संस्कृति, आध्यात्मिकता और वास्तुकला का एक प्रतीक, स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर २००५ में निर्मित भगवान का निवास है।
- भगवान स्वामीनारायण को समर्पित, मंदिर निस्संदेह किसी चमत्कार से कम नहीं है।
- अक्षरधाम ने गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दुनिया के सबसे बड़े व्यापक हिंदू मंदिर के रूप में अपनी जगह बनाई है।
स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर
अक्षरधाम या स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर दिल्ली में स्थित भारतीय संस्कृति, वास्तुकला और आध्यात्मिकता के लिए एक सच्चा चित्रण है। इस मंदिर परिसर को पूरा बनने में ५ साल का समय लगा जिसे श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था के प्रमुख स्वामी महाराज के कुशल नेतृत्व में पूरा किया गया। इस मंदिर को ११, ००० कारीगरों ने मिलकर बनाया है जिसमें ३००० से ज़्यादा स्वयंसेवक भी शामिल थे, इस मंदिर परिसर का उदघाटन आधिकारिक तौर पर ६ नवम्बर, २००५ को किया गया।
गौरतलब है कि मंदिर वास्तु शास्त्र और पंचरात्र शास्त्र की बारीकियों को ध्यान में रख कर बनाया गया है। पूरा मंदिर परिसर ५ प्रमुख भागों में विभाजित है। मुख्य मंदिर परिसर ठीक बीचोंबीच यानी केंद्र में स्थित है। इस १४१फीट उच्च संरचना में २३४ शानदार नक़्क़ाशीदार खंभे, ९ अलंकृत गुंबदों, २० शिखर, एक भव्य गजेंद्र (पत्थर हाथियों की कुर्सी) २०, ००० मूर्तियाँ शामिल हैं। साथ ही यहाँ दिव्य व्यक्तित्व, ऋषियों, भक्तों और संतों की प्रतिमाओं को भी बनाया गया है।
ये मंदिर गुलाबी बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर के मिश्रण से बनाया गया है, इस मंदिर में ग़ौर करने वाली बात ये है कि इस मंदिर के निर्माण के दौरान मंदिर के किसी भी भाग में इस्पात (स्टील) और कंक्रीट का इस्तेमाल नहीं किया गया है। इस मंदिर में एक “हॉल ऑफ वेल्यू” या सहजनद प्रदर्शन भी है जो एनिमेटेड रोबोटिक्स और का उपयोग कर स्वामीनारायण के जीवन से जुडी घटनाओं को दर्शाता है।
इन घटनाओं से हमें शांति, सद्भाव का सन्देश मिलता है साथ ही ये घटनाएँ हमें विनम्रता, दूसरों के लिए और सर्वशक्तिमान से भक्ति करने के लिए भी प्रेरित करती हैं। नीलकंठ कल्याण यात्रा है यहाँ विशाल स्क्रीन पर दिखाई जाने वाली फ़िल्म है जो इस मंदिर परिसर का एक अन्य आकर्षण है। यहाँ दिखाई जाने वाली फ़िल्में दर्शकों को विभिन्न धार्मिक स्थानों, उनकी संस्कृति, त्यौहार, आदि से रु-ब-रु कराती हैं। यहाँ आने वाले पर्यटक नाव की सवारी ले सकते हैं जो इस यात्रा के दौरान आपको कई सारी महत्त्वपूर्ण जानकारियों से भी अवगत कराया जायगा।
याज्ञनापुरुष कुंड में स्थित संगीतमय फव्वारा परिसर का एक और प्रमुख आकर्षण है। यह एक वैदिक यज्ञ कुंड और एक संगीतमय फव्वारा यहाँ का एक दुर्लभ संयोग है। कुंड या स्टेप्वेल दुनिया का सबसे बड़ा स्टेप्वेल है, शाम में यहाँ पर संगीतमय फव्वारा चलाया जाता है साथ ही यहाँ भारत में गणित के उन्नत ज्ञान को परिभाषित एक आठ पंखुड़ियों वाला कमल भी है। भारत उपवन या “भारत का गार्डन” एक विशाल रसीला उद्यान है जो बच्चों की पीतल की मूर्तियाँ, महिलाओं, स्वतंत्रता सेनानियों, प्रख्यात हस्तियों और भारत की उल्लेखनीय आंकड़े के साथ तैयार है। परिसर के अन्य आकर्षणों में योगी हृदय कमल, नीलकंठ अभिषेक, नारायण सरोवर, प्रेमवती अहर्ग्रून और आर्श केन्द्र शामिल हैं।
स्वामीनारायण अक्षरधाम मंदिर का इतिहास
अक्षरधाम मंदिर, अक्षरधाम मंदिर दिल्ली व स्वामी नारायण अक्षरधाम मंदिर एक हिन्दूओं का प्रसिद्ध मदिर है जो कि भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित है। यह मंदिर यमुना नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर भारतीय संस्कृति, सभ्यता, परंपराओं और आध्यात्मिकता की आत्मा को प्रदर्शित करता है। बोचसानवसी श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था (बीएपीएस) के आध्यात्मिक नेता प्रमुख स्वामी महाराज, के नाम पर १७ दिसम्बर २००७, को गिनेंस विश्व रिकाॅर्ड में इस मंदिर का नाम दर्ज किया गया था, अक्षरधाम मंदिर को विश्व के सबसे बड़े हिन्दू मंदिर परिसर के रूप में रिकाॅर्ड है।
१९६८ से योगी महाराज ने इस परिसर की योजना बनाई थी, उस समय बीएपीएस संस्था के आध्यात्मिक प्रमुख थे। १९७१ में, योगी महाराज की मृत्यु हो गई। १९८२ में, योगी महाराज के उत्तराधिकारी, बीएपीएस संस्था के आध्यात्मिक प्रमुख के रूप में कार्य करने वाले उत्तराधिकारी ने अपने गुरु के सपने को पूरा करने के लिए काम करना शुरू किया और अपने भक्तों को दिल्ली में परिसर के निर्माण की संभावना पर ग़ौर करने के लिए प्रोत्साहित किया।
८३ वर्षीय आध्यात्मिक नेता, प्रमुख स्वामी महाराज, के पूरे विश्व में ११ लाख अनुयायी हैं। अप्रैल २००० में, दिल्ली विकास प्राधिकरण और उत्तर प्रदेश सरकार ने क्रमशः इस परियोजना के लिए ६० एकड़ और ३० एकड़ ज़मीन की पेशकश की। मंदिर का निर्माण कार्य ८ नवंबर २००० को शुरू हुआ और ६ नवंबर २००५ को मंदिर अधिकृत रूप से आम जनता के लिए खोला गया। इस मंदिर का निर्माण कार्य ४ साल और ३६३ दिनों में पूरा हुआ था।
इस मंदिर के निर्माण के लिए राजस्थान से ६००० टन से अधिक गुलाबी बलुआ पत्थर लाया गया था। मंदिर के निर्माण की कुल लागत ४०० करोड़ रुपये थी। प्रधान स्वामी महाराज के ३, ००० स्वयंसेवकों ने मंदिर का निर्माण करने के लिए ७, ००० शिल्पकारों की मदद की। ६ नवम्बर २००५ को मंदिर के उद्घाटन के अवसर पर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह, विपक्ष के नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी और २५, ००० अतिथि उपस्थित थे।
अक्षरधाम परिसर के केंद्र में मुख्य स्मारक को वास्तु शास्त्रा और पंचत्र शास्त्रा के अनुसार बनाया गया है। यह स्मारक १४१ फुट ऊंचे, ३१६ फुट चैड़ा और ३७० फुट लंबा है और वनस्पतियों, जीव, नर्तकियों और देवताओं के उत्कीर्ण विवरणों के साथ ऊपर से नीचे तक आवरणित किया गया है। इस स्मारक में, केंद्रीय गुंबद के नीचे स्थित स्वामीनारायण की प्रतिमा है, जो ११ फुट ऊंची है और हिंदू परंपरा के अनुसार पाँच धातु का बना है। इस परिसर के अन्य आकर्षण तीन प्रदर्शनी हॉल हैं।
हॉल में सहानंद दर्शन, नीलकंठ दर्शन और संस्कृति विहार हैं। साहानानंद दर्शन पर, रोबोटिक्स द्वारा स्वामीनारायण का जीवन प्रदर्शित किया जाता है। नीलेकंठ धरांधन में भगवान के जीवन पर आधारित एक विशाल आई-मैक्स थिएटर फ़िल्म स्क्रीनिंग है और अंत में सांप्रती विहार मोर आकार की नौकाओं में लगभग १३ मिनट में भारतीय इतिहास की यात्रा पर आगंतुकों को लेती है। अक्षरधाम शिक्षा, अनुभव और ज्ञान का एक स्थान बन गया है।
अमरनाथ, जम्मू कश्मीर
- जम्मू कश्मीर में स्थित अमरनाथ गुफा दुनियाभर में स्थित भगवान शिव के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है।
- यहां का मुख्य आकर्षण का केंद्र है अमरनाथ की गुफा।
- अमरनाथ की गुफा श्रीनगर से १४१ किमी दूर ३८८८ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।
- गुफा की लंबाई १९ मीटर और चौड़ाई १६ मीटर है।
- सालभर ये गुफा घनघोर छाई बर्फ के कारण ढंकी रहती है।
- गर्मियों में जब यह बर्फ पिघलने लगती है, तब इसे कुछ समय के लिए श्रद्धालुओं के लिए खोला जाता है। वैसे अमरनाथ को तीर्थों का तीर्थ भी कहा जाता है, क्योंकि यहीं पर भगवान शिव ने अपनी दैवीय पत्नी पार्वती को जीवन और अनंत काल का रहस्य बताया था।
अमरनाथ
अमरनाथ हिन्दुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यह कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में १३५ सहस्त्रमीटर दूर समुद्रतल से १३,६०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई (भीतर की ओर गहराई) १९ मीटर और चौड़ाई १६ मीटर है। गुफा ११ मीटर ऊँची है। अमरनाथ गुफा भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। अमरनाथ को तीर्थों का तीर्थ कहा जाता है क्यों कि यहीं पर भगवान शिव ने माँ पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था।
यहाँ की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इसे स्वयंभू हिमानी शिवलिंग भी कहते हैं। आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षाबंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दर्शन के लिए लाखों लोग यहां आते हैं। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें ऊपर से बर्फ के पानी की बूँदें जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूँदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंग बनता है।
चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस बर्फ का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबकि गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड हैं।
अमरनाथ के बारे में जनश्रुतियाँ
जनश्रुति प्रचलित है कि इसी गुफा में माता पार्वती को भगवान शिव ने अमरकथा सुनाई थी, जिसे सुनकर सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गये थे। गुफा में आज भी श्रद्धालुओं को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई दे जाता है, जिन्हें श्रद्धालु अमर पक्षी बताते हैं। वे भी अमरकथा सुनकर अमर हुए हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जिन श्रद्धालुओं को कबूतरों को जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव पार्वती अपने प्रत्यक्ष दर्शनों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं। यह भी माना जाता है कि भगवान शिव ने अद्र्धागिनी पार्वती को इस गुफा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमें अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई।
कुछ विद्वानों का मत है कि भगवान शंकर जब पार्वती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने छोटे-छोटे अनंत नागों को अनंतनाग में छोड़ा, माथे के चंदन को चंदनबाड़ी में उतारा, अन्य पिस्सुओं को पिस्सू टॉप पर और गले के शेषनाग को शेषनाग नामक स्थल पर छोड़ा था। ये तमाम स्थल अब भी अमरनाथ यात्रा में आते हैं। अमरनाथ गुफा का सबसे पहले पता सोलहवीं शताब्दी के पूर्वाध में एक मुसलमान गडरिए को चला था। आज भी चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिए के वंशजों को मिलता है। आश्चर्य की बात यह है कि अमरनाथ गुफा एक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी-बड़ी गुफाएं दिखती हैं। वे सभी बर्फ से ढकी हैं
दिलवाड़ा मंदिर, माउंट आबू
- हरे-भरे अरावली पहाड़ियों के बीच स्थित, दिलवाड़ा मंदिर जैनियों के लिए सबसे सुंदर तीर्थ स्थल है।
- ११वीं और १३वीं शताब्दी के बीच वास्तुपाल तेजपाल द्वारा निर्मित, यह मंदिर संगमरमर और जटिल नक्काशी के शानदार उपयोग के लिए प्रसिद्ध है।
- दिलवाड़ा मंदिर में पाँच समान रूप से मंदिर हैं, जैसे- विमल वसाही, लूना वसाही, पित्तलहर, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी मंदिर जो क्रमशः भगवान आदिनाथ, भगवान ऋषभभो, भगवान नेमिनाथ, भगवान महावीर स्वामी और भगवान पार्श्वनाथ को समर्पित हैं।
दिलवाड़ा जैन मंदिर माउंट आबू
यह सिर्फ जैनियों का तीर्थ स्थल ही नहीं बल्कि एक संगमरमर से बनी एक जादुई संरचना है। जो यहाँ आने वाले पर्यटकों को बार-बार यहां आने पर मजबूर करती है। माउंट आबू में स्थित दिलवाड़ा मन्दिर प्राचीन भारत की अद्भुत निर्माण कला का आश्चर्यजनक उदाहरण है. क्योंकि इस मन्दिर में फोटो खींचने की मनाही है, इसीलिए बहुत से लोग इस अत्यंत सुंदर मन्दिर से अनजान है.
दिलवाड़ा जैन मंदिर किसने बनवाया?
इस जैन मंदिर का निर्माण ११वीं और १३ वीं शताब्दी ईस्वी में विमल शाह द्वारा करवाया गया था और यह ढोलका के जैन मंत्रियों, वास्तुपाल-तेजपाल द्वारा डिजाइन किया गया था। यह मंदिर जटिल संगमरमर की नक्काशी के लिए जाने जाते हैं।
दिलवाड़ा जैन मंदिर इतिहास
प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है। इस मंदिर को ११वीं से १३वीं शताब्दी के दौरान चालुक्य राजाओं वास्तुपाल और तेजपाल नामक दो भाईयों द्वारा १२३१ ई. में बनवाया गया था। जैन वास्तुकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण-स्वरूप दो प्रसिद्ध संगमरमर के बने मंदिर जो दिलवाड़ा या देवलवाड़ा मंदिर कहलाते हैं इस पर्वतीय नगर के जगत् प्रसिद्ध स्मारक हैं।
विमलसाह ने पहले कुंभेरिया में पार्श्वनाथ के ३६० मंदिर बनवाए थे किंतु उनकी इष्टदेवी अंबा जी ने किसी बात पर नाराज होकर पाँच मंदिरों को छोड़ अवशिष्ट सारे मंदिर नष्ट कर दिए और स्वप्न में उन्हें दिलवाड़ा में आदिनाथ का मंदिर बनाने का आदेश दिया। किंतु आबूपर्वत के परमार नरेश ने विमलसाह को मंदिर के लिए भूमि देना तभी स्वीकार किया जब उन्होंने संपूर्ण भूमि को रजतखंडों से ढक दिया। इस प्रकार ५६ लाख रुपय में यह ज़मीन ख़रीदी गई थी।
इन मंदिरों की भव्यता उनके वास्तुकारों की भवन-निर्माण में निपुणता, उनकी सूक्ष्म पैठ और छेनी पर उनके असाधारण अधिकार का परिचय देती है। इन मंदिर की प्रमुख विशेषता यह है कि सभी की छतों, द्वारों, तोरण, सभा-मंडपों का उत्कृष्ट शिल्प एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न है। पांच मंदिरों के इस समूह में दो विशाल मंदिर हैं और तीन उनके अनुपूरक।
मंदिरों के प्रकोष्ठों की छतों के गुंबद व स्थान-स्थान पर उकेरी गयीं सरस्वती, अम्बिका, लक्ष्मी, सव्रेरी, पद्मावती, शीतला आदि देवियों की दर्शनीय प्रतिमाएँ इनके शिल्पकारों की छेनी की निपुणता के साक्ष्य खुद-ब-खुद प्रस्तुत कर देती हैं। यहाँ उत्कीर्ण मूर्तियों और कलाकृतियों में शायद ही कोई ऐसा अंश हो जहाँ कलात्मक पूर्णता के दर्शन न होते हों। शिलालेखों और ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार प्राचीन काल में यह स्थल अबू नागा जनजाति का प्रमुख केंद्र था।
महाभारत में अबू पर्वत में महर्षि वशिष्ठ के आगमन का उल्लेख मिलता है। इसी तरह जैन शिलालेखों के अनुसार जैन धर्म के संस्थापक भगवान महावीर ने भी यहाँ के निवासियों को उपदेश दिया था। दिलवाड़ा जैन मंदिर प्राचीन वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। यह शानदार मंदिर जैन धर्म के र्तीथकरों को समर्पित हैं। इस मंदिर में जैन धर्म के कई तीर्थंकरों जैसे आदिनाथ जी, नेमिनाथ जी, पार्श्वनाथ जी और महावीर जी की मूर्तियाँ स्थापित हैं। इस देवालय में देवरानी-जेठानी मंदिर भी है जिनमें भगवान आदिनाथ और शांतिनाथ की प्रतिमाएँ स्थापित है।
मीनाक्षी मंदिर मदुरै तमिलनाडु
- ऐतिहासिक मीनाक्षी अम्मन मंदिर तमिलनाडु के मदुरैई नदी के दक्षिणी तट पर स्थित है।
- वर्ष १६२३ और १६५५ के बीच निर्मित, इस जगह की अद्भुत वास्तुकला विश्व स्तर पर प्रसिद्ध है।
- मीनाक्षी मंदिर मुख्य रूप से पार्वती को समर्पित है, जिसे मीनाक्षी और उनके पति, शिव के रूप में जाना जाता है।
- इस मंदिर को दूसरों से अलग बनाने का तथ्य यह है कि भगवान और देवी दोनों को एक साथ पूजा जाता है।
- पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान शिव पार्वती से विवाह करने के लिए मदुरै गए थे और यह देवी पार्वती के जन्म से ही पवित्र स्थान रहा है।
- मीनाक्षी मंदिर का निर्माण इसलिए किया गया था ताकि देवी को श्रद्धांजलि अर्पित की जा सके।
- मीनाक्षी अम्मन मंदिर परिसर शिल्पा शास्त्र के अनुसार बनाया गया है।
मीनाक्षी मंदिर, मदुरै
मदुरै का पुराना शहर २५०० वर्ष से अधिक पुराना है और इसका निर्माण पांडियन राजा कुलशेखर ने ६वीं शताब्दी में कराया था। परन्तु इस नायक का कार्यकाल मदुरै का स्वर्ण युग कहा जाता है जब कला, वास्तुकला और अधिगम्यता बहुत अधिक फली फूली। शहर में सबसे सुंदर भवन सहित इसके सबसे प्रसिद्ध स्मारक शामिल हैं जैसे कि मीनाक्षी मंदिर, जिसे नायक शासन काल के दौरान बनाया गया था। मदुरै शहर के हृदय में स्थित मीनाक्षी-सुंदरेश्वर का मंदिर भगवान शिव की पत्नी देवी मीनाक्षी के प्रति समर्पित है। यह भारत और विदेशों से आने वाले पर्यटकों का आकर्षण केन्द्र होने के साथ हिन्दु धार्मिक यात्राओं के महत्वपूर्ण स्थानों में से एक है। मदुरै के लोगों के लिए यह मंदिर उनकी सांस्कृतिक तथा धार्मिक ज़िन्दगी का केन्द्र है।
यह कहा जाता है कि शहर के लोग न केवल प्रकृति की आवाज़ सुनकर बल्कि मंदिर के मंत्रोच्चार को सुनकर भी जागते हैं। तमिलनाडु के सभी प्रमुख त्यौहार यहाँ श्रद्धा के साथ मनाए जाते हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार चितराई त्यौहार है, जिसका आयोजन अप्रैल-मई में किया जाता है। जब मीनाक्षी और सुंदरेश्वर की खगोलीय विधि से शादी आयोजित की जाती है और इसमें पूरे राज्य से लोगों का समूह जिसे देखने आता है।
शिल्पकारी वाले स्तंभ विशिष्ट भित्ति चित्रों से ढके हुए हैं जो राजकुमारी मीनाक्षी और भगवान शिव के साथ उनके विवाह के समय के दृश्यों से भर पूर हैं। आंगन के पार सुंदरेश्वर के मंदिर में भगवान शिव को लिंग के माध्यम से प्रतिनिधित्व दिया जाता है। यहाँ बने स्तंभ मीनाक्षी तथा सुंदरेश्वर के विवाह के दृश्यों से सजे हुए है। यहाँ लगभग ९८५ समृद्ध पच्चीकारी वाले स्तंभ है और सुंदरता में सभी एक दूसरे को पीछे छोड़ देते हैं।
मीनाक्षी मंदिर का इतिहास व पौराणिक कथा
हिन्दू आलेखों के अनुसार, भगवान शिव पृथ्वी पर [सुन्दरेश्वर] रूप में स्वयं देवी पार्वती पृथ्वी पर [मिनाक्षी] से विवाह रचाने अवतरित हुए। देवी पार्वती ने पूर्व में पाँड्य राजा मलयध्वज, मदुरई के राजा की घोर तपस्या के फलस्वरूप उनके घर में एक पुत्री के रूप में अवतार लिया था। वयस्क होने पर उसने नगर का शासन संभाला। तब भगवान आये और उनसे विवाह प्रस्ताव रखा, जो उन्होंने स्वीकार कर लिया।
इस विवाह को विश्व की सबसे बडी़ घटना माना गया, जिसमें लगभग पूरी पृथ्वी के लोग मदुरई में एकत्र हुए थे। भगवान विष्णु स्वयं, अपने निवास बैकुण्ठ से इस विवाह का संचालन करने आये। ईश्वरीय लीला अनुसार इन्द्र के कारण उनको रास्ते में विलम्ब हो गया। इस बीच विवाह कार्य स्थानीय देवता कूडल अझघ्अर द्वारा संचालित किया गया। बाद में क्रोधित भगवान विष्णु आये और उन्होंने मदुरई शहर में कदापि ना आने की प्रतिज्ञा की और वे नगर की सीम से लगे एक सुन्दर पर्वत अलगार कोइल में बस गये। बाद में उन्हें अन्य देवताओं द्वारा मनाया गया, एवं उन्होंने मीनाक्षी-सुन्दरेश्वरर का पाणिग्रहण कराया।
यह विवाह एवं भगवान विष्णु को शांत कर मनाना, दोनों को ही मदुरई के सबसे बडे़ त्यौहार के रूप में मनाया जाता है, जिसे चितिरई तिरुविझा या अझकर तिरुविझा, यानी सुन्दर ईश्वर का त्यौहार। इस दिव्य युगल द्वारा नगर पर बहुत समय तक शासन किया गया। यह वर्णित नहीं है कि उस स्थान का उनके जाने के बाद्, क्या हुआ? यह भी मना जाता है कि इन्द्र को भगवान शिव की मूर्ति शिवलिंग रूप में मिली और उन्होंने मूल मन्दिर बनवाया। इस प्रथा को आज भी मन्दिर में पालन किया जाता है, त्यौहार की शोभायात्रा में इन्द्र के वाहन को भी स्थान मिलता है।
मीनाक्षी मंदिर का आधुनिक इतिहास
आधुनिक ढांचे का इतिहास सही-सही अभी ज्ञात नहीं है, किन्तु तमिल साहित्य के अनुसार, कुछ शताब्दियों पहले का बताया जाता है। तिरुज्ञानसम्बन्दर, प्रसिद्ध हिन्दू शैव मतावलम्बी संत ने इस मन्दिर को आरम्भिक सातवीं शती का बताया है औरिन भगवान को आलवइ इरैवान कह है। इस मन्दिर में मुस्लिम शासक मलिक कफूर ने १३१० में ख़ूब लूटपाट की थी और इसके प्राचीन घटकों को नष्ट कर दिया। फिर इसके पुनर्निर्माण का उत्तरदायित्व आर्य नाथ मुदलियार (१५५९-१६०० A.D.) , मदुरई के प्रथम नायक के प्रधानमन्त्री, ने उठाया। वे ही ‘पोलिगर प्रणाली’ के संस्थापक थे। फिर तिरुमलय नायक, लगभग १६२३ से १६५९ का सर्वाधिक मूल्यवान योगदान हुआ। उन्होंने मन्दिर के वसंत मण्डप के निर्माण में उल्लेखनीय उत्साह दिखाया।
प्रेम मंदिर, वृंदावन
- भव्यता के साथ, प्रेम मंदिर एक विशाल मंदिर है जिसे जगदगुरु श्री कृपालुजी महाराज ने वर्ष २००१ में बनवाया था।
- यह भव्य धार्मिक स्थल राधा कृष्ण और सीता राम को समर्पित है और इसे “भगवान के प्रेम के मंदिर” के रूप में जाना जाता है।
- वृंदावन, उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले के पवित्र शहर में स्थित है।
- मंदिर कृष्ण के जीवन के विभिन्न दृश्यों, जैसे कि गोवर्धन पर्वत को उठाना, प्रेम मंदिर की परिधि पर चित्रित किया गया है।
- मंदिर की प्रकाश व्यवस्था इसके शानदार रूप को और गौरवान्वित करती है, विशेष रूप से रात के दौरान।
- मंदिर को १५० करोड़ रुपये की लागत से बनाया गया था और इसे पूरा करने में ग्यारह साल लगे। यह नवनिर्मित मंदिर पूरे बृज क्षेत्र में सबसे सुंदर है।
प्रेम मंदिर
प्रेम मंदिर भारत में उत्तर प्रदेश राज्य के मथुरा जिले के समीप वृंदावन में स्थित है। इसका निर्माण जगद्गुरु कृपालु महाराज द्वारा भगवान कृष्ण और राधा के मन्दिर के रूप में करवाया गया है। प्रेम मन्दिर का लोकार्पण १७ फरवरी को किया गया था। इस मन्दिर के निर्माण में ११ वर्ष का समय और लगभग १०० करोड़ रुपए की धन राशि लगी है। इसमें इटैलियन करारा संगमरमर का प्रयोग किया गया है और इसे राजस्थान और उत्तरप्रदेश के एक हजार शिल्पकारों ने तैयार किया है।
इस मन्दिर का शिलान्यास १४ जनवरी २००१ को कृपालुजी महाराज द्वारा किया गया था। ग्यारह वर्ष के बाद तैयार हुआ यह भव्य प्रेम मन्दिर सफेद इटालियन करारा संगमरमर से तराशा गया है। मन्दिर दिल्ली – आगरा – कोलकाता के राष्ट्रीय राजमार्ग २ पर छटीकरा से लगभग ३ किलोमीटर दूर वृंदावन की ओर भक्तिवेदान्त स्वामी मार्ग पर स्थित है। यह मन्दिर प्राचीन भारतीय शिल्पकला के पुनर्जागरण का एक नमूना है।
प्रेम मंदिर का इतिहास
सम्पूर्ण मन्दिर ५४ एकड़ में बना है तथा इसकी ऊँचाई १२५ फुट, लम्बाई १२२ फुट तथा चौड़ाई ११५ फुट है। इसमें फव्वारे, राधा-कृष्ण की मनोहर झाँकियाँ, श्री गोवर्धन लीला, कालिया नाग दमन लीला, झूलन लीला की झाँकियाँ उद्यानों के बीच सजायी गयी है। यह मन्दिर वास्तुकला के माध्यम से दिव्य प्रेम को साकार करता है। सभी वर्ण, जाति, देश के लोगों के लिये खुले मन्दिर के लिए द्वार सभी दिशाओं में खुलते है।
मुख्य प्रवेश द्वारों पर आठ मयूरों के नक्काशीदार तोरण हैं तथा पूरे मन्दिर की बाहरी दीवारों पर राधा-कृष्ण की लीलाओं को शिल्पांकित किया गया है। इसी प्रकार मन्दिर की भीतरी दीवारों पर राधाकृष्ण और कृपालुजी महाराज की विविध झाँकियों का भी अंकन हुआ है। मन्दिर में कुल ९४ स्तम्भ हैं जो राधा-कृष्ण की विभिन्न लीलाओं से सजाये गये हैं।
अधिकांश स्तम्भों पर गोपियों की मूर्तियाँ अंकित हैं, जो सजीव जान पड़ती है। मन्दिर के गर्भगृह के बाहर और अन्दर प्राचीन भारतीय वास्तुशिल्प की उत्कृष्ट पच्चीकारी और नक्काशी की गयी है तथा संगमरमर की शिलाओं पर राधा गोविन्द गीत सरल भाषा में लिखे गये हैं। मंदिर परिसर में गोवर्धन पर्वत की सजीव झाँकी बनायी गयी है।
श्री जगन्नाथ पुरी मंदिर, पुरी
- पुरी के पवित्र शहर में स्थित, जगन्नाथ मंदिर ११वीं शताब्दी में राजा इंद्रद्युम्न द्वारा बनाया गया था।
- यह शानदार मंदिर भगवान जगन्नाथ का निवास है जो भगवान विष्णु का एक रूप है।
- यह हिंदुओं के लिए सबसे श्रद्धेय तीर्थ स्थल है और बद्रीनाथ, द्वारका और रामेश्वरम के साथ पवित्र चार धाम यात्रा में शामिल है।
- शहर के जीवंत धार्मिक त्योहार बड़ी संख्या में पर्यटकों को लुभाते हैं। उनमें से सबसे अधिक प्रतीक्षित रथयात्रा विशाल धूम धाम से मनाई जाती है। इस दौरान तीर्थयात्रियों का रंगीन माहौल, दिलचस्प अनुष्ठान और जोश देखने लायक है।
जगन्नाथ मंदिर की पौराणिक कथा
माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्वरम में विश्राम करते हैं। द्वापर के बाद भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और बन गए जग के नाथ अर्थात जगन्नाथ। पुरी का जगन्नाथ धाम चार धामों में से एक है। यहाँ भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं।
हिन्दुओं की प्राचीन और पवित्र ७ नगरियों में पुरी उड़ीसा राज्य के समुद्री तट पर बसा है। जगन्नाथ मंदिर विष्णु के ८वें अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है। भारत के पूर्व में बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर बसी पवित्र नगरी पुरी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से थोड़ी दूरी पर है। आज का उड़ीसा प्राचीनकाल में उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था। यहाँ देश की समृद्ध बंदरगाहें थीं, जहाँ जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, थाईलैंड और अन्य कई देशों का इन्हीं बंदरगाह के रास्ते व्यापार होता था।
पुराणों में इसे धरती का वैकुंठ कहा गया है। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है। इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं। यहाँ लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएँ की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहाँ भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए।
सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहाँ भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियाँ करते हैं।
पुराण के अनुसार नीलगिरि में पुरुषोत्तम हरि की पूजा की जाती है। पुरुषोत्तम हरि को यहाँ भगवान राम का रूप माना गया है। सबसे प्राचीन मत्स्य पुराण में लिखा है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र की देवी विमला है और यहाँ उनकी पूजा होती है। रामायण के उत्तराखंड के अनुसार भगवान राम ने रावण के भाई विभीषण को अपने इक्ष्वाकु वंश के कुल देवता भगवान जगन्नाथ की आराधना करने को कहा। आज भी पुरी के श्री मंदिर में विभीषण वंदापना की परंपरा क़ायम है।
स्कंद पुराण में पुरी धाम का भौगोलिक वर्णन मिलता है। स्कंद पुराण के अनुसार पुरी एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह है और यह ५ कोस यानी १६ किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। माना जाता है कि इसका लगभग २ कोस क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में डूब चुका है। इसका उदर है समुद्र की सुनहरी रेत जिसे महोदधी का पवित्र जल धोता रहता है। सिर वाला क्षेत्र पश्चिम दिशा में है जिसकी रक्षा महादेव करते हैं।
शंख के दूसरे घेरे में शिव का दूसरा रूप ब्रह्म कपाल मोचन विराजमान है। माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा का एक सिर महादेव की हथेली से चिपक गया था और वह यहीं आकर गिरा था, तभी से यहाँ पर महादेव की ब्रह्म रूप में पूजा करते हैं। शंख के तीसरे वृत्त में माँ विमला और नाभि स्थल में भगवान जगन्नाथ रथ सिंहासन पर विराजमान है।
श्री जगन्नाथ पुरी मंदिर का इतिहास
इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है। राजा इंद्रदयुम्न ने बनवाया था यहाँ मंदिर: राजा इंद्रदयुम्न मालवा का राजा था जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति था।
राजा इंद्रदयुम्न को सपने में हुए थे जगन्नाथ के दर्शन। कई ग्रंथों में राजा इंद्रदयुम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने यहाँ कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया। एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते हैं। तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो। राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति।
विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आख़िर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुँचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी।
विश्ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वह एक दिन उनके पास ज़रूर लौटेंगे बशर्ते कि वह एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे। राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा।
भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूँढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक़्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।
अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे २१ दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई।
लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाज़ा खोलने का आदेश दिया।
जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें ३ अधूरी मूर्तियाँ पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।
वर्तमान में जो मंदिर है वह ७वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व २ में भी हुआ था। यहाँ स्थित मंदिर ३ बार टूट चुका है। ११७४ ईस्वी में ओडिसा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्य मंदिर के आसपास लगभग ३० छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं।
मल्लिकार्जुन स्वामी मंदिर, श्रीशैलम
- कृष्णा नदी के दक्षिणी तट पर मल्लिकार्जुन स्वामी मंदिर श्रीशैलम शहर के लिए जाना जाता है।
- मंदिर का अस्तित्व ६वीं शताब्दी से माना जाता है, जिसे विजयनगर के राजा हरिहर राय ने बनवाया था।
- पौराणिक कथाओं के अनुसार, मंदिर में रहने वाले देवी पार्वती ने ऋषि सेडी को खड़े होने का शाप दिया था, क्योंकि उन्होंने केवल भगवान शिव की पूजा की थी।
- भगवान शिव ने देवी को सांत्वना देने के बाद, उन्हें तीसरा पैर दिया, ताकि वह और अधिक आराम से खड़े हो सकें।
- मंदिरों की दीवारों और स्तंभों को भी सुंदर नक्काशी और मूर्तियों से सजाया गया है।
- शहर के सबसे सुंदर मंदिरों में से एक, यह एक पवित्र संरचना है, जो नल्लामाला पहाड़ियों पर स्थित है।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य के दक्षिणी भाग में श्रीशैलम पर्वत पर कृष्णा नदी के तट पर स्थित हैं। आन्ध्र प्रदेश के इस दर्शनीय मंदिर को “दक्षिण के कैलाश” के नाम से भी जाना जाता है और यह भगवान शिव के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर के प्रमुख देवता माता पार्वती (मलिका) और भगवान शिव (अर्जुन) हैं।
यह स्थान भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। यह मंदिर हिन्दू धर्मं और संस्कृति के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। श्रीशैलम मल्लिकार्जुन दर्शन के लिए दूर-दूर से पर्यटक यहां आते हैं और मंदिर के आराध्य देव के दर्शन कर अपने आप को धन्य समझते हैं।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की कहानी
शिवपुराण के अनुसार मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की कहानी भगवान भोलेनाथ के परिवार से जुडी हुई हैं। माना जाता हैं की शंकर भगवान के छोटे पुत्र गणेश जी कार्तिकेय से पहले शादी करना चाहते थे। इसी बात पर भोलेनाथ और माता पार्वती ने इस समस्या को सुलझाने के लिए दोनों के समक्ष यह शर्त रखी की जो भी पहले पृथ्वी की परिकृमा करके लोटेगा उसका विवाह पहले होगा।
यह सुनकर कार्तिकेय ने परिकृमा शुरू कर दी लेकिन गणेश जी बुद्धि से तेज थे उन्होंने माता पार्वती और भगवान शिव की परिकृमा करके उन्हें पृथ्वी के सामान बताया। जब यह समाचार कार्तिकेय को पता चला तो वह रूस्ट होकर क्रंच पर्वत पर चले गए। उन्हें मनाने के सारे प्रयास जब असफल हुए तो देवी पर्वती उन्हें लेने गई लेकिन वह उन्हें देखकर वहा से पलायन कर गए। इस बात से हतास होकर पार्वती जी वही बैठ गई और भगवान भोलेनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रगट हुए। यह स्थान मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के रूप में दर्शनीय हुआ।
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर का इतिहास
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का इतिहास से जुड़े सातवाहन राजवंश के शिलालेख इस बात का प्रमाण हैं की यह मंदिर को दूसरी शताब्दी से अस्तित्व में हैं। मंदिर के अधिकांश आधुनिक जोड़ विजयनगर साम्राज्य के राजा हरिहर प्रथम काल से मिलते हैं।
महाकालेश्वर मंदिर, उज्जैन
- मध्य प्रदेश राज्य में रुद्र सागर झील के किनारे प्राचीन शहर उज्जैन में स्थित श्री महाकालेश्वर मंदिर आज हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र और उत्कृष्ट तीर्थ स्थानों में से एक है।
- भगवान शिव का मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
- महाकालेश्वर मंदिर मराठा, भूमिज और चालुक्य शैलियों से प्रभावित है ।
- यहां हर साल कई धार्मिक त्यौहार और उत्सव भी मनाए जाते हैं।
- इनके अलावा, मंदिर की भस्म-आरती एक अनुष्ठान समारोह है जिसे आपको जरूर देखना चाहिए।
श्री महाकालेश्वर मंदिर
उज्जयिनी के श्री महाकालेश्वर भारत में बारह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। महाकालेश्वर मंदिर की महिमा का विभिन्न पुराणों में विशद वर्णन किया गया है। कालिदास से शुरू करते हुए, कई संस्कृत कवियों ने इस मंदिर को भावनात्मक रूप से समृद्ध किया है। उज्जैन भारतीय समय की गणना के लिए केंद्रीय बिंदु हुआ करता था और महाकाल को उज्जैन का विशिष्ट पीठासीन देवता माना जाता था। समय के देवता, शिव अपने सभी वैभव में, उज्जैन में शाश्वत शासन करते हैं।
महाकालेश्वर का मंदिर, इसका शिखर आसमान में चढ़ता है, आकाश के खिलाफ एक भव्य अग्रभाग, अपनी भव्यता के साथ आदिकालीन विस्मय और श्रद्धा को उजागर करता है। महाकाल शहर और उसके लोगों के जीवन पर हावी है, यहां तक कि आधुनिक व्यस्तताओं के व्यस्त दिनचर्या के बीच भी, और पिछली परंपराओं के साथ एक अटूट लिंक प्रदान करता है।
भारत के १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक, महाकाल में लिंगम (स्वयं से पैदा हुआ), स्वयं के भीतर से शक्ति (शक्ति) को प्राप्त करने के लिए माना जाता है, अन्य छवियों और लिंगों के खिलाफ, जो औपचारिक रूप से स्थापित हैं और मंत्र के साथ निवेश किए जाते हैं- शक्ति। महाकालेश्वर की मूर्ति दक्षिणमुखी होने के कारण दक्षिणामूर्ति मानी जाती है। यह एक अनूठी विशेषता है, जिसे तांत्रिक परंपरा द्वारा केवल १२ ज्योतिर्लिंगों में से महाकालेश्वर में पाया जाता है।
महाकाल मंदिर के ऊपर गर्भगृह में ओंकारेश्वर शिव की मूर्ति प्रतिष्ठित है। गर्भगृह के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में गणेश, पार्वती और कार्तिकेय के चित्र स्थापित हैं। दक्षिण में नंदी की प्रतिमा है। तीसरी मंजिल पर नागचंद्रेश्वर की मूर्ति केवल नागपंचमी के दिन दर्शन के लिए खुली होती है। महाशिवरात्रि के दिन, मंदिर के पास एक विशाल मेला लगता है, और रात में पूजा होती है।
महाकालेश्वर मंदिर का इतिहास
इस मंदिर का पुनर्निर्माण ११वीं शताब्दी में हुआ था, लेकिन इसके १४० वर्ष बाद मुस्लिम आक्रमणकारी इल्तुतमिश ने इसे क्षतिग्रस्त कर दिया था। वर्तमान मंदिर मराठाकालीन माना जाता है। इसका जीर्णोद्धार तत्कालीन सिंधिया राज्य के दीवान बाबा रामचंद्र शैणवी ने करवाया था।
ऐसी मान्यता है कि उज्जयिनी का एक ही राजा है और वे हैं भूतभावन महाकालेश्वर। यही वजह है कि पुराने समय से ही कोई राजा उज्जैन में रात्रि विश्राम नहीं करता और ना ही राजा की तरह महाकालेश्वर के दर्शन करता है।
महाकालेश्वर मंदिर एक विशाल परिसर में स्थित है, जहां कई देवी-देवताओं के छोटे-बड़े मंदिर हैं। गर्भगृह में भगवान महाकालेश्वर का विशाल और विश्व का एकमात्र दक्षिणमुखी शिवलिंग है और इसकी जलाधारी पूर्व की तरफ है, जबकि दूसरे शिवलिंगों की जलाधारी उत्तर की तरफ होती है। साथ ही महाकालेश्वर मंदिर के शिखर के ठीक ऊपर से कर्क रेखा भी गुजरती है, इसलिए इसे पृथ्वी का नाभिस्थल भी माना जाता है।
ज्योतिष और तंत्र-मंत्र की दृष्टि से भी महाकाल का विशेष महत्व माना गया है। साथ ही गर्भगृह में माता पार्वती, भगवान गणेश व कार्तिकेय की मनमोहक प्रतिमाएं हैं। महाकाल मंदिर का सबसे बड़ा आकर्षण है भोलेनाथ की भस्म आरती, जो प्रात: ४ से ६ बजे तक होती है।
गर्भगृह में नंदी दीप भी स्थापित है, जो सदैव प्रज्जवलित रहता है। गर्भगृह के सामने विशाल कक्ष में नंदी की विशाल प्रतिमा स्थापित है। इस कक्ष में बैठकर हजारों श्रद्धालु शिव आराधना का पुण्यलाभ लेते हैं। मंदिर परिसर में ही एक विशाल कुंड है, जिसे कोटितीर्थ के नाम से जाना जाता है। महाकालेश्वर परिसर में कई दर्शनीय मंदिर हैं। इनमें नागचंद्रेश्वर मंदिर वर्ष में एक बार नागपंचमी के दिन ही श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए खोला जाता है।
इस्कॉन (हरे कृष्ण) मंदिर, दिल्ली
- इस्कॉन मंदिर, जिसे हरे राम हरे कृष्ण मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, भगवान कृष्ण को समर्पित है।
- इसकी स्थापना वर्ष १९९८ में अच्युत कनविंडे द्वारा की गई थी ।
- न केवल देश में बल्कि पूरे विश्व में इसका बड़े पैमाने पर अनुसरण किया जाता है।
- मंदिर में विभिन्न हॉल हैं जहां अन्य देवता मंदिर के स्थान को सुशोभित करते हैं।
- इस्कॉन मंदिर में एक संग्रहालय भी है जो मल्टीमीडिया शो का आयोजन करता है, जिसमें रामायण और महाभारत जैसे महान महाकाव्य प्रदर्शित होते हैं।
- जन्माष्टमी का त्यौहार यहाँ बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है।
इस्कॉन मंदिर दिल्ली
इस्कॉन मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित एक प्रसिद्ध मंदिर है जिसे “हरे राम हरे कृष्ण मंदिर” के रूप में भी जाना जाता है। आपको बता दें कि इस मंदिर स्थापना वर्ष १९९८ में अच्युत कनविंडे द्वारा की गई थी और यह नई दिल्ली के कैलाश क्षेत्र के पूर्व में हरे कृष्णा हिल्स में स्थित है। इस्कॉन मंदिर एक बेहद आकर्षक संरचना है जो बाहर की तरफ से उत्कृष्ट स्टोन वर्क से बना हुआ है और इसके अंदर प्राचीन कलाकृति है।
इस्कॉन मंदिर इस क्षेत्र के सबसे बड़े मंदिर परिसरों में से एक है, जहां पर बड़ी संख्या में भक्त और पर्यटक आते हैं। आपको बता दें कि इस मंदिर के अनुयायी श्रील प्रभुपाद में विश्वास करते हैं। यह परिसर वैदिक विज्ञान सीखने के लिए भी एक प्रमुख केंद्र है जिसका अनुसरण न केवल भारत में बल्कि दूसरे अन्य देशों में भी किया जाता है।
मंदिर के गर्भगृह में मूर्तियों को समृद्ध कपड़े और आभूषणों से सजाया गया है और उन्हें यहां बहुत अच्छी तरह से रखा जा सकता है। अगर आप इस मंदिर की यात्रा करने के लिए आते हैं तो यहां के सेंटर हॉल में “हरे रामा हरे कृष्णा” की धुन को सुन सकते हैं। इस्कॉन मंदिर में एक संग्रहालय भी है जो मल्टीमीडिया शो का आयोजन करता है। इस शो में दर्शक रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य का प्रदर्शन देख सकते हैं।
इस्कॉन मंदिर का इतिहास
इस्कॉन मंदिर पूरी दुनिया में अलग अलग जगह फैले हैं। जिन्हें अपना नाम द इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शसनेस मिला है। यह एक एक आध्यात्मिक संस्था है जिसकी स्थापना १९६६ में न्यूयॉर्क में अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा की गई थी। इस मंदिर की सभी मान्यताएं ५००० साल पुराने हिंदू धर्म ग्रंथ भगवद गीता पर आधारित हैं।
इस्कॉन भक्त श्री कृष्ण को भगवान के सभी अवतारों के स्रोत के रूप में मानते हैं। दुनिया भर में सभी इस्कॉन मंदिरों का निर्माण भक्ति योग के अभ्यास को फैलाने के लिए किया गया था। दिल्ली का इस्कॉन मंदिर का वास्तविक नाम श्री श्री राधा पार्थसारथी मंदिर है, जिसका निर्माण संगठन के तहत वर्ष १९९५ में वैदिक संस्कृति का ज्ञान फैलाने के लिए किया था।
बैद्यनाथ धाम, देवघर
- बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर को बैद्यनाथ धाम के रूप में जाना जाता है।
- भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक बैद्यनाथ भगवान शिव का सबसे पवित्र निवास माना जाता है।
- भारत में झारखंड राज्य के संथाल परगना विभाग में देवघर में स्थित ज्योतिर्लिंग स्थापित है।
- मंदिर का उल्लेख कई प्राचीन धर्मग्रंथों में मिलता है।
- इस ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति की कहानी त्रेता युग में भगवान राम के काल में चली जाती है।
- लोकप्रिय हिंदू मान्यताओं के अनुसार, लंका के राजा रावण ने इस स्थान पर शिव की पूजा की थी। दिलचस्प बात यह है कि रावण ने भगवान शिव के बलिदान के रूप में एक के बाद एक अपने दस सिर चढ़ाए। इस कृत्य से प्रसन्न होकर, शिव रावण का इलाज करने के लिए पृथ्वी पर उतरे। चूंकि भगवान शिव ने एक डॉक्टर के रूप में काम किया था, इसलिए उन्हें ‘वैद्य’ के रूप में जाना जाता है और यह शिव के इस पहलू से है कि मंदिर का नाम उनके नाम पर है।
वैद्यनाथ मन्दिर, देवघर
माता के हृदय की रक्षा के लिए भगवान शिव ने यहाँ जिस भैरव को स्थापित किया था, उनका नाम बैद्यनाथ था। इसलिए जब रावण शिवलिंग को लेकर यहाँ पहुँचा, तो भगवान ब्रह्मा और बिष्णु ने भैरव के नाम पर उस शिवलिंग का नाम बैद्यनाथ रख दिया। देवघर के बैद्यनाथ धाम की गिनती देश के पवित्र द्वादश ज्योतिर्लिंगों में होती है।
शास्त्रों में भी यहाँ की महिमा का उल्लेख है। मान्यता है कि सतयुग में ही यहाँ का नामकरण हो गया था। स्वयं भगवान ब्रह्मा और बिष्णु ने भैरव के नाम पर यहाँ का नाम बैद्यनाथ धाम रखा। ऐसी आस्था है कि यहाँ मांगी हर मनोकामनाएँ पूरी होती हैं। इसके लिए सावन का महीना ख़ास होता है। इसलिए पूरे सावन में यहाँ श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।
बैद्यनाथ मंदिर की स्थापना व कथा
इस लिंग की स्थापना का इतिहास यह है कि एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवाँ सिर भी काटने को ही था कि शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों-के-त्यों कर दिये और उससे वरदान माँगने को कहा। रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिये उसे ले जाने की आज्ञा माँगी।
शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ दी कि यदि मार्ग में इसे पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगा। अन्ततोगत्वा वही हुआ। रावण शिवलिंग लेकर चला पर मार्ग में एक चिताभूमि आने पर उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई। रावण उस लिंग को एक अहीर जिनका नाम बैजनाथ था, को थमा लघुशंका-निवृत्ति करने चला गया।
इधर उन अहीर ने ज्योतिर्लिंग को बहुत अधिक भारी अनुभव कर भूमि पर रख दिया। फिर क्या था, लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे न उखाड़ सका और निराश होकर मूर्ति पर अपना अँगूठा गड़ाकर लंका को चला गया। इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की। शिवजी का दर्शन होते ही सभी देवी देवताओं ने शिवलिंग की वहीं उसी स्थान पर प्रतिस्थापना कर दी और शिव-स्तुति करते हुए वापस स्वर्ग को चले गये। जनश्रुति व लोक-मान्यता के अनुसार यह वैद्यनाथ-ज्योतिर्लिग मनोवांछित फल देने वाला है।
सोमनाथ मंदिर, गुजरात
- सोमनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग मंदिरों में से एक है।
- यह गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित है और देश के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है।
- इसका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों जैसे श्रीमदभागवत गीता, स्कंदपुराण, शिवपुराण और ऋग्वेद में किया गया है, जो इस मंदिर के महत्व को सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक के रूप में दर्शाता है।
- मंदिर प्राचीन त्रिवेणी संगम या तीन नदियों – कपिला, हिरन और सरस्वती के संगम पर स्थित है।
- ऐसा कहा जाता है कि महमूद गजनी, अलाउद्दीन खिलजी और औरंगजेब जैसे सम्राटों द्वारा मंदिर को सत्रह बार लूटा गया और नष्ट कर दिया गया।
- मंदिर का पुर्ननिर्माण १९५१ में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कराया था।
श्री सोमनाथ मंदिर
गुजरात प्रांत के काठियावाड़ क्षेत्र में समुद्र के किनारे सोमनाथ नामक विश्वप्रसिद्ध मंदिर में यह ज्योतिर्लिंग स्थापित है। पहले यह क्षेत्र प्रभासक्षेत्र के नाम से जाना जाता था। यहीं भगवान् श्रीकृष्ण ने ज़रा नामक व्याध के बाण को निमित्त बनाकर अपनी लीला का संवरण किया था। यहाँ के ज्योतिर्लिंग की कथा का पुराणों में इस प्रकार से वर्णन है-
दक्ष प्रजापति की सत्ताइस कन्याएँ थीं। उन सभी का विवाह चंद्रदेव के साथ हुआ था। किंतु चंद्रमा का समस्त अनुराग व प्रेम उनमें से केवल रोहिणी के प्रति ही रहता था। उनके इस कृत्य से दक्ष प्रजापति की अन्य कन्याएँ बहुत अप्रसन्न रहती थीं। उन्होंने अपनी यह व्यथा-कथा अपने पिता को सुनाई। दक्ष प्रजापति ने इसके लिए चंद्रदेव को अनेक प्रकार से समझाया।
किंतु रोहिणी के वशीभूत उनके हृदय पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अंततः दक्ष ने कुद्ध होकर उन्हें ‘क्षयग्रस्त’ हो जाने का शाप दे दिया। इस शाप के कारण चंद्रदेव तत्काल क्षयग्रस्त हो गए। उनके क्षयग्रस्त होते ही पृथ्वी पर सुधा-शीतलता वर्षण का उनका सारा कार्य रूक गया। चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। चंद्रमा भी बहुत दुखी और चिंतित थे।
उनकी प्रार्थना सुनकर इंद्रादि देवता तथा वसिष्ठ आदि ऋषिगण उनके उद्धार के लिए पितामह ब्रह्माजी के पास गए। सारी बातों को सुनकर ब्रह्माजी ने कहा-‘चंद्रमा अपने शाप-विमोचन के लिए अन्य देवों के साथ पवित्र प्रभासक्षेत्र में जाकर मृत्युंजय भगवान् शिव की आराधना करें। उनकी कृपा से अवश्य ही इनका शाप नष्ट हो जाएगा और ये रोगमक्त हो जाएंगे।
उनके कथनानुसार चंद्रदेव ने मृत्युंजय भगवान् की आराधना का सारा कार्य पूरा किया। उन्होंने घोर तपस्या करते हुए दस करोड़ बार मृत्युंजय मंत्र का जप किया। इससे प्रसन्न होकर मृत्युंजय-भगवान शिव ने उन्हें अमरत्व का वर प्रदान किया। उन्होंने कहा-‘ चंद्रदेव! तुम शोक न करो। मेरे वर से तुम्हारा शाप-मोचन तो होगा ही, साथ ही साथ प्रजापति दक्ष के वचनों की रक्षा भी हो जाएगी।
कृष्णपक्ष में प्रतिदिन तुम्हारी एक-एक कला क्षीण होगी, किंतु पुनः शुक्ल पक्ष में उसी क्रम से तुम्हारी एक-एक कला बढ़ जाया करेगी। इस प्रकार प्रत्येक पूर्णिमा को तुम्हें पूर्ण चंद्रत्व प्राप्त होता रहेगा। ‘ चंद्रमा को मिलने वाले इस वरदान से सारे लोकों के प्राणी प्रसन्न हो उठे।
सुधाकर चन्द्रदेव पुनः दसों दिशाओं में सुधा-वर्षण का कार्य पूर्ववत् करने लगे। शाप मुक्त होकर चंद्रदेव ने अन्य देवताओं के साथ मिलकर मृत्युंजय भगवान् से प्रार्थना की कि आप माता पार्वतीजी के साथ सदा के लिए प्राणों के उद्धारार्थ यहाँ निवास करें। भगवान् शिव उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार करके ज्योतर्लिंग के रूप में माता पार्वतीजी के साथ तभी से यहाँ रहने लगे।
पावन प्रभासक्षेत्र में स्थित इस सोमनाथ-ज्योतिर्लिंग की महिमा महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा स्कन्दपुराणादि में विस्तार से बताई गई है। चंद्रमा का एक नाम सोम भी है, उन्होंने भगवान् शिव को ही अपना नाथ-स्वामी मानकर यहाँ तपस्या की थी। अतः इस ज्योतिर्लिंग को सोमनाथ कहा जाता है इसके दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मांतर के सारे पाप और दुष्कृत्यु विनष्ट हो जाते हैं। वे भगवान् शिव और माता पार्वती की अक्षय कृपा का पात्र बन जाते हैं। मोक्ष का मार्ग उनके लिए सहज ही सुलभ हो जाता है। उनके लौकिक-पारलौकिक सारे कृत्य स्वयमेव सफल हो जाते हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिम में अरब सागर के तट पर स्थित आदि ज्योतिर्लिंग श्री सोमनाथ महादेव मंदिर की छटा ही निराली है। यह तीर्थस्थान देश के प्राचीनतम तीर्थस्थानों में से एक है और इसका उल्लेख स्कंदपुराणम, श्रीमद्भागवत गीता, शिवपुराणम आदि प्राचीन ग्रंथों में भी है। वहीं ऋग्वेद में भी सोमेश्वर महादेव की महिमा का उल्लेख है।
सोमनाथ मंदिर का इतिहास
यह लिंग शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से पहला ज्योतिर्लिंग माना जाता है। ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार आक्रमणकारियों ने इस मंदिर पर ६ बार आक्रमण किया। इसके बाद भी इस मंदिर का वर्तमान अस्तित्व इसके पुनर्निर्माण के प्रयास और सांप्रदायिक सद्भावना का ही परिचायक है। सातवीं बार यह मंदिर कैलाश महामेरु प्रसाद शैली में बनाया गया है। इसके निर्माण कार्य से सरदार वल्लभभाई पटेल भी जुड़े रह चुके हैं।
यह मंदिर गर्भगृह, सभामंडप और नृत्यमंडप- तीन प्रमुख भागों में विभाजित है। इसका १५० फुट ऊंचा शिखर है। इसके शिखर पर स्थित कलश का भार दस टन है और इसकी ध्वजा २७ फुट ऊंची है। इसके अबाधित समुद्री मार्ग- त्रिष्टांभ के विषय में ऐसा माना जाता है कि यह समुद्री मार्ग परोक्ष रूप से दक्षिणी ध्रुव में समाप्त होता है। यह हमारे प्राचीन ज्ञान व सूझबूझ का अद्भुत साक्ष्य माना जाता है। इस मंदिर का पुनर्निर्माण महारानी अहिल्याबाई ने करवाया था।
सोमनाथ मंदिर का धार्मिक महत्व
पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार सोम नाम चंद्र का है, जो दक्ष के दामाद थे। एक बार उन्होंने दक्ष की आज्ञा की अवहेलना की, जिससे कुपित होकर दक्ष ने उन्हें श्राप दिया कि उनका प्रकाश दिन-प्रतिदिन धूमिल होता जाएगा। जब अन्य देवताओं ने दक्ष से उनका श्राप वापस लेने की बात कही तो उन्होंने कहा कि सरस्वती के मुहाने पर समुद्र में स्नान करने से श्राप के प्रकोप को रोका जा सकता है। सोम ने सरस्वती के मुहाने पर स्थित अरब सागर में स्नान करके भगवान शिव की आराधना की। प्रभु शिव यहां पर अवतरित हुए और उनका उद्धार किया व सोमनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
सिद्धिविनायक मंदिर, मुंबई
- सिद्धिविनायक मंदिर एक प्रतिष्ठित मंदिर है जो भगवान गणेश को समर्पित है और
- यह मुंबई, महाराष्ट्र के प्रभादेवी में सबसे महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है।
- इस मंदिर का निर्माण वर्ष १८०१ में लक्ष्मण विठू और देउबाई पाटिल ने करवाया था।
- इस दंपति की अपनी कोई संतान नहीं थी और उन्होंने सिद्धिविनायक मंदिर बनाने का फैसला किया ताकि अन्य बांझ महिलाओं की इच्छाओं को पूरा किया जा सके।
- यह मुंबई के सबसे अमीर मंदिरों में से एक है और श्रद्धालु इस मंदिर में प्रतिदिन बड़ी संख्या में आते हैं। माना जाता है कि यहां भगवान गणेश की प्रतिमा स्वयंभू है।
सिद्धिविनायक मंदिर
सिद्धिविनायक मन्दिर मुम्बई स्थित एक प्रसिद्ध गणेशमन्दिर है। सिद्घिविनायक, गणेश जी का सबसे लोकप्रिय रूप है। गणेश जी जिन प्रतिमाओं की सूड़ दाईं तरह मुड़ी होती है, वे सिद्घपीठ से जुड़ी होती हैं और उनके मंदिर सिद्घिविनायक मंदिर कहलाते हैं। कहते हैं कि सिद्धि विनायक की महिमा अपरंपार है, वे भक्तों की मनोकामना को तुरन्त पूरा करते हैं। मान्यता है कि ऐसे गणपति बहुत ही जल्दी प्रसन्न होते हैं और उतनी ही जल्दी कुपित भी होते हैं।
चतुर्भुजी विग्रह
सिद्धि विनायक की दूसरी विशेषता यह है कि वह चतुर्भुजी विग्रह है। उनके ऊपरी दाएं हाथ में कमल और बाएं हाथ में अंकुश है और नीचे के दाहिने हाथ में मोतियों की माला और बाएं हाथ में मोदक (लड्डुओं) भरा कटोरा है। गणपति के दोनों ओर उनकी दोनो पत्नियां ऋद्धि और सिद्धि मौजूद हैं जो धन, ऐश्वर्य, सफलता और सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने का प्रतीक है। मस्तक पर अपने पिता शिव के समान एक तीसरा नेत्र और गले में एक सर्प हार के स्थान पर लिपटा है। सिद्धि विनायक का विग्रह ढाई फीट ऊंचा होता है और यह दो फीट चौड़े एक ही काले शिलाखंड से बना होता है।
सिद्धिविनायक मंदिर का इतिहास
किवदंती है कि इस मंदिर का निर्माण संवत् १६९२ में हुआ था। मगर सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक इस मंदिर का १९ नवंबर १८०१ में पहली बार निर्माण हुआ था। सिद्धि विनायक का यह पहला मंदिर बहुत छोटा था। पिछले दो दशकों में इस मंदिर का कई बार पुनर्निर्माण हो चुका है। हाल ही में एक दशक पहले १९९१ में महाराष्ट्र सरकार ने इस मंदिर के भव्य निर्माण के लिए २० हजार वर्गफीट की जमीन प्रदान की। वर्तमान में सिद्धि विनायक मंदिर की इमारत पांच मंजिला है और यहां प्रवचन ग्रह, गणेश संग्रहालय व गणेश विापीठ के अलावा दूसरी मंजिल पर अस्पताल भी है, जहां रोगियों की मुफ्त चिकित्सा की जाती है। इसी मंजिल पर रसोईघर है, जहां से एक लिफ्ट सीधे गर्भग्रह में आती है। पुजारी गणपति के लिए निर्मित प्रसाद व लड्डू इसी रास्ते से लाते हैं।
त्र्यंबकेश्वर,नाशिक
- भारत के सबसे पवित्र मंदिर के रूप में गिना जाने वाला, त्र्यंबकेश्वर मंदिर भगवान शिव के एक सबसे महत्वपूर्ण बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
- ब्रह्मगिरि पहाड़ियों के तल पर स्थित, मंदिर त्र्यंबक के पवित्र शहर में स्थित है, जो कि शक्तिशाली मृत्युंजय मंत्र का उल्लेख करता है।
- १८वीं शताब्दी में मराठा शासक पेशवा नाना साहेब द्वारा निर्मित, मंदिर क्लासिक वास्तुकला का एक आदर्श प्रतीक है।
त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर
त्र्यम्बकेश्वर ज्योर्तिलिंग मन्दिर महाराष्ट्र-प्रांत के नासिक जिले में त्रयंबक गांव में हैं। यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी का उद्गम है। इन्हीं पुण्यतोया गोदावरी के उद्गम-स्थान के समीप स्थित त्रयम्बकेश्वर-भगवान की भी बड़ी महिमा हैं गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विख्यात हुए।
मंदिर के अंदर एक छोटे से गढ्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिये चौड़ी-चौड़ी सात सौ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद ‘रामकुण्ड’ और ‘लष्मणकुण्ड’ मिलते हैं और शिखर के ऊपर पहुँचने पर गोमुख से निकलती हुई भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं।
त्र्यंबकेश्वर मंदिर का निर्माण
गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्वर मंदिर काले पत्थरों से बना है। मंदिर का स्थापत्य अद्भुत है। इस मंदिर के पंचक्रोशी में कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्न होती है। जिन्हें भक्तजन अलग-अलग मुराद पूरी होने के लिए करवाते हैं।
इस प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण तीसरे पेशवा बालाजी अर्थात नाना साहब पेशवा ने करवाया था। इस मंदिर का जीर्णोद्धार १७५५ में शुरू हुआ था और ३१ साल के लंबे समय के बाद १७८६ में जाकर पूरा हुआ। कहा जाता है कि इस भव्य मंदिर के निर्माण में करीब १६ लाख रुपए खर्च किए गए थे, जो उस समय काफी बड़ी रकम मानी जाती थी।
त्र्यंबकेश्वर मंदिर की पौराणिक कथा
इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में शिवपुराण में यह कथा वर्णित है-
एक बार महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहल्या से नाराज हो गईं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का अपमान करने के लिए प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त भगवान् श्रीगणेशजी की आराधना की।
उनकी आराधना से प्रसन्न हो गणेशजी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा उन ब्राह्मणों ने कहा-‘प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो किसी प्रकार ऋषि गौतम को इस आश्रम से बाहर निकाल दें।’ उनकी यह बात सुनकर गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर न माँगने के लिए समझाया। किंतु वे अपने आग्रह पर अटल रहे।
अंततः गणेशजी को विवश होकर उनकी बात माननी पड़ी। अपने भक्तों का मन रखने के लिए वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत में जाकर रहने लगे। गाय को फ़सल चरते देखकर ऋषि बड़ी नरमी के साथ हाथ में तृण लेकर उसे हाँकने के लिए लपके। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मचा।
सारे ब्राह्मण एकत्र हो गो-हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्यचकित और दुःखी थे। अब उन सारे ब्राह्मणों ने कहा कि तुम्हें यह आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाना चाहिए। गो-हत्यारे के निकट रहने से हमें भी पाप लगेगा।
विवश होकर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहल्या के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे। किंतु उन ब्राह्मणों ने वहाँ भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे-‘गो-हत्या के कारण तुम्हें अब वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया।’ अत्यंत अनुनय भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि आप लोग मेरे प्रायश्चित और उद्धार का कोई उपाय बताएँ।
तब उन्होंने कहा-‘गौतम! तुम अपने पाप को सर्वत्र सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। इसके बाद’ ब्रह्मगिरी’ की १०१ परिक्रमा करने के बाद तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके एक करोड़ पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरि की ११ बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा।
ब्राह्मणों के कथनानुसार महर्षि गौतम वे सारे कार्य पूरे करके पत्नी के साथ पूर्णतः तल्लीन होकर भगवान शिव की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न हो भगवान शिव ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा। महर्षि गौतम ने उनसे कहा-‘भगवान् मैं यही चाहता हूँ कि आप मुझे गो-हत्या के पाप से मुक्त कर दें।’ भगवान् शिव ने कहा-‘गौतम! तुम सर्वथा निष्पाप हो। गो-हत्या का अपराध तुम पर छल पूर्वक लगाया गया था। छल पूर्वक ऐसा करवाने वाले तुम्हारे आश्रम के ब्राह्मणों को मैं दण्ड देना चाहता हूँ।’
इस पर महर्षि गौतम ने कहा कि प्रभु! उन्हीं के निमित्त से तो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। अब उन्हें मेरा परमहित समझकर उन पर आप क्रोध न करें। ‘ बहुत से ऋषियों, मुनियों और देव गणों ने वहाँ एकत्र हो गौतम की बात का अनुमोदन करते हुए भगवान् शिव से सदा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात मानकर वहाँ त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतमजी द्वारा लाई गई गंगाजी भी वहाँ पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगीं। यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है।
भीमाशंकर मंदिर, पुणे
- भीमाशंकर मंदिर पुणे, महाराष्ट्र के पास खेड़ में ५०० किमी उत्तर पश्चिम में स्थित एक हिंदू तीर्थ है।
- सह्याद्री पहाड़ियों की गोद में स्थित, मंदिर पूरे भारत में स्थित बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग है।
- हाल के दिनों में, इसे बहुत महत्व मिला है और इसे वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया गया है।
- मामूली रूप से सुंदर मंदिर १३वीं शताब्दी का है और बुद्ध के साथ-साथ अलंकृत है।
- भीमाशंकर का पवित्र मंदिर वास्तुकला की नागा शैली का एक काम है।
भीमाशंकर मंदिर
भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर महाराष्ट्र राज्य में पुणे से करीब १०० किलोमीटर दूर सह्याद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। यह शिव के पवित्र द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यहीं से भीमा नामक एक नदी बहती है जो कृष्णा नदी में जाकर मिलती है। इस मंदिर का शिवलिंग काफी मोटा है। इसलिए इसे मोटेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है।
भीमाशंकर मंदिर का महात्म्य
पुराणों में ऐसी मान्यता है कि जो भक्त श्रद्वा से प्रतिदिन प्रातःकाल १२ ज्योतिर्लिगों का नाम जापते हुए भीमाशंकर मंदिर के दर्शन करता है, उसके सात जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा उसके लिए स्वर्ग के मार्ग खुल जाते हैं।
भीमाशंकर मंदिर की पौराणिक कथा
इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के पीछे कुंभकर्ण पुत्र “भीम” की एक कथा प्रसिद्ध है। क्या है पूरी कथा चलिए विस्तार से जानते है-
एक समय यात्रा के दौरान रावण के भाई कुंभकर्ण को कर्कटी नाम की एक महिला पर्वत पर मिली थी, जिसे देखकर कुंभकर्ण उस पर मोहित हो गया और उससे विवाह कर लिया। विवाह के बाद कुंभकर्ण लंका लौट आया, लेकिन कर्कटी पर्वत पर ही रहने लगी। कुछ समय बाद कर्कटी को भीम नाम का एक पुत्र प्राप्त हुआ। जब उसे अपने पिता की मृ्त्यु भगवान श्री राम के हाथों होने की जानकारी प्राप्त हुई तो वह भगवान राम और देवताओं को सबक सीखने के लिए शक्ति अर्जित करने लगा।
अनेक वर्षो के कठोर तप से उसने ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर विभिन्न विंध्वंसकारी शक्ति अर्जित कर ली। वरदान पाने के बाद राक्षस निरंकुश हो गया। युद्ध में उसने देवताओं को भी परास्त करना प्रारंभ कर दिया। उसने देताओं के पूजन करने को भी बंद करवा दिया। उस समय कामरूपेश्वप नाम के एक शिव भक्त राजा थे। एक दिन भीम ने राजा को शिवलिंग की पूजा करते हुए देख लिया।
भीम ने राजा को भगवान शिव की पूजा छोड़ उसकी पूजा करने को कहा। राजा के बात न मानने पर भीम ने उन्हें बंदी बना लिया। राजा ने बंदीग्रह में ही शिवलिंग बना कर उनकी पूजा करने लगा। जब भीम ने यह देखा तो क्रोध में आकर उसने शिवलिंग को तोड़ने के लिए जैसे ही अपनी-अपनी उठाई। भगवान शिव प्रकट हो गए और भगवान शिव और भीम के बीच घोर युद्ध हुआ, जिसमें भीम की मृत्यु हो गई।
फिर देवताओं के विनती पर भगवान शिव ने हमेशा के लिए उसी स्थान पर लिंग रूप में रहने की प्रार्थना स्वीकार कर ली और देवताओं के कहने पर शिव लिंग के रूप में उसी स्थान पर स्थापित हो गए। इस स्थान पर भीम से युद्ध करने की वज़ह से इस ज्योतिर्लिंग का नाम भीमशंकर पड़ गया।
शनि शिंगनापुर, महाराष्ट्र
- अहमदनगर जिले का शानदार और अनूठा शनि शिगनापुर मंदिर भगवान शनि के लिए प्रसिद्ध है।
- शनि ग्रह के प्रतीक हिंदू देवता को स्वायंभु कहा जाता है।
- प्रभु में लोगों का विश्वास इतना मजबूत है कि चमत्कारिक गाँव के किसी भी घर में दरवाजे और ताले नहीं हैं।
- लोगों का मानना है कि भगवान शनि चोरों से उनके कीमती सामान की रक्षा कर रहे हैं।
शनिदेव का धाम – शनि शिंगणापुर
शिंगणापुर के इस चमत्कारी शनि मंदिर में स्थित शनिदेव की प्रतिमा लगभग पाँच फीट नौ इंच ऊँची व लगभग एक फीट छह इंच चौड़ी है। देश-विदेश से श्रद्धालु यहाँ आकर शनिदेव की इस दुर्लभ प्रतिमा का दर्शन लाभ लेते हैं। यहाँ के मंदिर में स्त्रियों का शनि प्रतिमा के पास जाना वर्जित है। महिलाएँ दूर से ही शनिदेव के दर्शन करती हैं। सुबह हो या शाम, सर्दी हो या गर्मी यहाँ स्थित शनि प्रतिमा के समीप जाने के लिए पुरुषों का स्नान कर पीताम्बर धोती धारण करना अत्यावश्क है। ऐसा किए बगैर पुरुष शनि प्रतिमा का स्पर्श नहीं पर सकते हैं। इस हेतु यहाँ पर स्नान और वस्त्रादि की बेहतर व्यवस्थाएँ हैं।
खुले मैदान में एक टंकी में कई सारे नल लगे हुए हैं, जिनके जल से स्नान करके पुरुष शनिदेव के दर्शनों का लाभ ले सकते हैं। पूजनादि की सामग्री के लिए भी यहाँ आसपास बहुत सारी दुकानें हैं, जहाँ से आप पूजन सामग्री लेकर शनिदेव को अर्पित कर सकते हैं। शनि मंदिर का एक विशाल प्रांगण है जहाँ दर्शन के लिए भक्तों की कतारें लगती हैं।
मंदिर प्रशासन द्वारा शनिदेव के दर्शनों की बेहतर व्यवस्थाएँ की गई हैं, जिससे भक्तों को यहाँ दर्शन के लिए धक्का-मुक्की जैसी किसी भी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता है। जब आप यहाँ स्थित विशाल शनि प्रतिमा के दर्शन करेंगे तो आप स्वयं सूर्यपुत्र शनिदेव की भक्ति में रम जाएँगे। प्रत्येक शनिवार, शनि जयंती व शनैश्चरी अमावस्या आदि अवसरों पर यहाँ भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है।
शिंगणापुर मंदिर की महिमा
हिन्दू धर्म में कहते हैं कि कोबरा का काटा और शनि का मारा पानी नहीं माँगता। शुभ दृष्टि जब इसकी होती है, तो रंक भी राजा बन जाता है। देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग ये सब इसकी अशुभ दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं। परंतु यह स्मरण रखना चाहिए कि यह ग्रह मूलतः आध्यात्मिक ग्रह है। महर्षि पाराशर ने कहा कि शनि जिस अवस्था में होगा, उसके अनुरूप फल प्रदान करेगा।
जैसे प्रचंड अग्नि सोने को तपाकर कुंदन बना देती है, वैसे ही शनि भी विभिन्न परिस्थितियों के ताप में तपाकर मनुष्य को उन्नति पथ पर बढ़ने की सामर्थ्य एवं लक्ष्य प्राप्ति के साधन उपलब्ध कराता है। नवग्रहों में शनि को सर्वश्रेष्ठ इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह एक राशि पर सबसे ज्यादा समय तक विराजमान रहता है। श्री शनि देवता अत्यंत जाज्वल्यमान और जागृत देवता हैं। आजकल शनि देव को मानने के लिए प्रत्येक वर्ग के लोग इनके दरबार में नियमित हाजिरी दे रहे हैं।
लोटस टेम्पल, नई दिल्ली
- नई दिल्ली में स्थित, लोटस टेम्पल बहाई विश्वास को समर्पित है।
- इस इमारत की शानदार संरचना एक शानदार सफेद पंखुड़ी वाले कमल के रूप में सामने आती है और यह दुनिया के सबसे अधिक देखे जाने वाले प्रतिष्ठानों में से एक है।
- इस मंदिर के डिजाइन की अवधारणा कनाडाई वास्तुकार फारिबोरज़ साहबा ने बनाई थी और वर्ष १९८६ में पूरी हुई थी।
- यह मंदिर सर्वशक्तिमान की एकता का प्रचार करना चाहता है इसलिए यह सभी धर्म के लोगों के लिए खुला रहता है।
- लोटस मंदिर दुनिया भर में मौजूद सात बहाई सभाओं में से एक है।
- न केवल अद्भुत वास्तुकला के लिए बल्कि पूरी तरह से अलग, आनंदित माहौल में ध्यान के लिए इस मंदिर की यात्रा जरूर करनी चाहिए।
कमल मंदिर
लोटस टेंपल या कमल मंदिर, भारत की राजधानी दिल्ली के नेहरू प्लेस (कालकाजी मंदिर) के पास स्थित एक बहाई (ईरानी धर्मसंस्थापक बहाउल्लाह के अनुयायी) उपासना स्थल है। यह अपने आप में एक अनूठा मंदिर है। यहाँ पर न कोई मूर्ति है और न ही किसी प्रकार का कोई धार्मिक कर्म-कांड किया जाता है, इसके विपरीत यहाँ पर विभिन्न धर्मों से संबंधित विभिन्न पवित्र लेख पढ़े जाते हैं।
भारत के लोगों के लिए कमल का फूल पवित्रता तथा शांति का प्रतीक होने के साथ ईश्वर के अवतार का संकेत चिह्न भी है। यह फूल कीचड़ में खिलने के बावजूद पवित्र तथा स्वच्छ रहना सिखाता है, साथ ही यह इस बात का भी द्योतक है कि कैसे धार्मिक प्रतिस्पर्धा तथा भौतिक पूर्वाग्रहों के अंदर रह कर भी, कोई व्यक्ति इन सबसे अनासक्त हो सकता है। कमल मंदिर में प्रतिदिन देश और विदेश के लगभग आठ से दस हजार पर्यटक आते हैं। आनेवाले सभी पर्यटकों को बहाई धर्म का परिचय दिया जाता है और मुफ्त बहाई धार्मिक सामग्री वितरित की जाती है। यहाँ का शांत वातावरण प्रार्थना और ध्यान के लिए सहायक है।
मंदिर का उद्घाटन २४ दिसंबर १९८६ को हुआ लेकिन आम जनता के लिए यह मंदिर १ जनवरी १९८७ को खोला गया। इसकी कमल सदृश आकृति के कारण इसे कमल मंदिर या लोटस टेंपल के नाम से ही पुकारा जाता है। बहाई उपासना मंदिर उन मंदिरों में से एक है जो गौरव, शांति एवं उत्कृष्ठ वातावरण को ज्योतिर्मय करता है, जो किसी भी श्रद्धालु को आध्यात्मिक रूप से प्रोत्साहित करने के लिए अति आवश्यक है। उपासना मंदिर मीडिया प्रचार प्रसार और श्रव्य माध्यमों में आगंतुकों को सूचनाएं प्रदान करता है।
मंदिर में पर्यटकों को आर्किषत करने के लिए विस्तृत घास के मैदान, सफेद विशाल भवन, ऊंचे गुंबद वाला प्रार्थनागार और प्रतिमाओं के बिना मंदिर से आकर्षित होकर हजारों लोग यहां मात्र दर्शक की भांति नहीं बल्कि प्रार्थना एवं ध्यान करने तथा निर्धारित समय पर होने वाली प्रार्थना सभा में भाग लेने भी आते हैं। यह विशेष प्रार्थना हर घंटे पर पांच मिनट के लिए आयोजित की जाती है। गर्मियों में सूचना केंद्र सुबह ९:३० बजे खुलता है, जो शाम को ६:३० पर बंद होता है। जबकि सर्दियों में इसका समय सुबह दस से पांच होता है। इतना ही नहीं लोग उपासना मंदिर के पुस्तकालय में बैठ कर धर्म की किताबें भी पढ़ते हैं और उनपर शोध भी करने आते हैं।
कमल मंदिर का स्थापत्य
मंदिर का स्थापत्य वास्तुकार फ़रीबर्ज़ सहबा ने तैयार किया है। इस मंदिर के निर्माण के बाद ऐसी जगह की जरूरत महसूस हुई, जहाँ पर सभी जिज्ञासुयों के प्रश्नों का सहजता से उत्तर दिया जा सके। तब सूचना केंद्र के गठन के बारे में निर्णय लिया गया। सूचना केंद्र के निर्माण में करीब पांच साल का समय लगा। इसको मार्च २००३ में जिज्ञासुओं के लिए खोला गया। सूचना केंद्र में मुख्य सभागार है, जिसमें करीब ४०० लोग एक साथ बैठ सकते हैं। इसके अतिरिक्त दो छोटे सभागार भी हैं, जिसमें करीब ७० सीटें है।
सूचना केंद्र में लोगों को बहाई धर्म के बारे में जानकारी भी दी जाती है। इसके साथ ही आगंतुकों को लोटस टेंपल की जानकारी दी जाती है। इस मंदिर के साथ विश्वभर में कुल सात बहाई मंदिर है। जल्द ही आठवाँ मंदिर भी बनने वाला है। भारतीय उपमहाद्वीप में भारत के कमल मंदिर के अलावा छह मंदिर एपिया-पश्चिमी समोआ, सिडनी-आस्ट्रेलिया, कंपाला-यूगांडा, पनामा सिटी-पनामा, फ्रैंकफर्ट-जर्मनी और विलमाँट- संयुक्त राज्य अमेरिका में भी हैं।
प्रत्येक उपासना मंदिर की कुछ बुनियादी रूपरेखाएँ मिलती जुलती है तो कुछ अपने अपने देशों की सांस्कृतिक पहचानों को दर्शाते हुए भिन्न भी हैं। इस दृष्टि से यह मंदिर ‘अनेकता में एकता’ के सिद्धांत को यथार्थ रूप देता हैं। इन सभी मंदिरों की सार्वलौकिक विलक्षणता है – इसके नौ द्वार और नौ कोने हैं। माना जाता है कि नौ सबसे बड़ा अंक है और यह विस्तार, एकता एवं अखंडता को दर्शाता है। उपासना मंदिर चारों ओर से नौ बड़े जलाशयों से घिरा है, जो न सिर्फ भवन की सुंदरता को बढ़ता है बल्कि मंदिर के प्रार्थनागार को प्राकृतिक रूप से ठंडा रखने में भी महत्वपूर्ण योगदान करते है।
बहाई उपासना मंदिर उन मंदिरों में से है जो गौरव शांति एवं उत्कृष्ट वातावरण को ज्योतिर्मय करता है। उपासना मंदिर मीडिया प्रचार प्रसार और श्रव्य माध्यमों में आगंतुकों को सूचनाएँ प्रदान करता है। सुबह और शाम की लालिमा में सफेद रंग की यह संगमरमरी इमारत अद्भुत लगती है। कमल की पंखुड़ियों की तरह खड़ी इमारत के चारों तरफ लगी दूब और हरियाली इसे कोलाहल भरे इलाके में शांति और ताजगी देने वाला बनाती हैं।
सूर्य मंदिर, कोणार्क
- पुरी के उत्तर पूर्वी कोने पर स्थित, कोणार्क सूर्य मंदिर एक विश्व धरोहर स्थल है और ओडिशा के प्रमुख पर्यटक आकर्षणों में से एक है।
- सात घोड़ों के एक समूह द्वारा खींचा गया, बाईं ओर चार और दाईं ओर तीन, यह विशाल मंदिर सूर्य देवता के विशालकाय रथ के रूप में बनाया गया है।
- इस विशाल मंदिर को सूर्य देवता का लौकिक रथ माना जाता है।
- मंदिर के तीन अलग-अलग हिस्सों में सूर्य देव को समर्पित यह तीन देवता हैं जो सुबह, दोपहर और शाम को सूर्य की सीधी किरणों के साथ मंदिर में प्रवेश करते हैं।
- मंदिर परिसर के अंदर एक समर्पित पुरातात्विक संग्रहालय भी है।
- कोणार्क नृत्य महोत्सव हर साल आम तौर पर फरवरी के महीने में आयोजित किया जाता है जो विदेशी और भारतीय पर्यटकों को आकर्षित करता है।
- सूर्य मंदिर एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है जो सूर्य देव के भक्तों को समर्पित है।
सूर्य मंदिर कोणार्क
कोणार्क सूर्य मंदिर विश्व का सर्वाधिक प्रसिद्ध सूर्य मंदिर है। इसके वर्तमान स्वरूप को देखकर इसकी प्राचीन काल की भव्यता एवं शोभा की कल्पना करना असंभव ना सही, कठिन अवश्य है। जब यह अखंडित मंदिर अपने सम्पूर्ण वैभव में अस्तित्व में था तथा इसके सातों घोड़े ऐसे प्रतीत होते थे मानों सूर्य के विशाल रथ को लेकर हवा से बातें कर रहे हों। इस मंदिर की विशालता एवं भव्यता का यदि थोड़ा सा आभास कोई दे सकता है तो वह है पुरी का जगन्नाथ मंदिर।
ओडिशा में ४ विभिन्न क्षेत्र हैं। इन्हे उन ४ वस्तुओं से जाना जाता है जिन्हे भगवान विष्णु अपने चार हाथों में धारण करते हैं। उनमें से एक पद्म अर्थात कमल है। कोणार्क को पद्म क्षेत्र कहा जाता है। वस्तुतः एक समय कोणार्क सूर्य मंदिर को पद्मकेसर देऊल कहा जाता था तथा मंदिर के अधिष्ठात्र सूर्य देव, महाभास्कर के नाम से जाने जाते थे। कोणार्क उन कोने को दर्शाता है जहां सूर्य देव अर्थात आदित्य की आराधना की जाती है। इस क्षेत्र को अर्क क्षेत्र भी कहते हैं।
कोणार्क सूर्य मंदिर का इतिहास
पौराणिक सूत्रों के अनुसार उत्कल की चंद्रभागा नदी का तट सूर्य की आराधना का स्थल था। उत्कल ओडिशा का ही प्राचीन नाम है। किवदंतियों में कृष्ण एवं जांबवती के पुत्र सांब से इस स्थान का संबंध प्राप्त होता है। प्राचीन कथाओं के अनुसार सांब ने अपनी किसी त्वचा विकार से मुक्ति पाने के लिए यहीं सूर्य की उपासना की थी। इस स्थान का संबंध मुल्तान से भी जोड़ा जाता है जो किसी समय सूर्य उपासना का प्रमुख केंद्र था। यदि आपको स्मरण हो तो चिनाब नदी को भी चंद्रभागा कहा जाता है क्योंकि यह चंद्रा एवं भागा इन दो नदियों के संगम से अस्तित्व में आई है।
ज्ञात ऐतिहासिक सूत्रों की चर्चा की जाए तो स्थानीय तालपत्र पांडुलिपियों से हमें जानकारी मिलती है कि प्रारंभ में केसरी वंश के राजाओं ने एक सूर्य मंदिर का निर्माण किया था। तत्पश्चात गंगा वंश के राजाओं ने इस मंदिर में पूजा अर्चना जारी रखी। १३ वीं. सदी में राजा नरसिंहदेव ने पुराने मंदिर के समक्ष इस मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर के निर्माण में १२ वर्षों का समय लगा। इस पर प्रथम आक्रमण १६ वीं. सदी के मध्य में हुआ जब आक्रमणकारी मंदिर का कलश एवं ध्वज ले जाने में सफल हुए। चैतन्य महाप्रभु एवं अबू फजल उन प्रसिद्ध यात्रियों में से हैं जिन्होंने इस मंदिर के दर्शन किए थे।
कामाख्या मंदिर, गुवाहाटी
- असम में गुवाहाटी के पश्चिमी भाग में नीलांचल पहाड़ी पर स्थित कामाख्या मंदिर भारत में शक्ति के सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है।
- यह मंदिर देश के ५१ शक्तिपीठों में से एक है और यह चार सबसे महत्वपूर्ण शक्ति पीठों में से एक है।
- कामाख्या मंदिर इच्छा की देवी है। तंत्र संप्रदाय के अनुयायी कामाक्षी या कामाख्या में अपना विश्वास रखते हैं और इसलिए यह तीर्थ धार्मिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व रखता है।
- हालाँकि कामाख्या इस मंदिर के पीठासीन देवता हैं।
- मंदिर में एक विशाल गुंबद है जो पृष्ठभूमि में विचित्र नीलांचल पहाड़ियों को दर्शाता है।
कामाख्या मंदिर
५१ शक्तिपीठों में से एक कामाख्या शक्तिपीठ बहुत ही प्रसिद्ध और चमत्कारी है। कामाख्या देवी का मंदिर अघोरियों और तांत्रिकों का गढ़ माना जाता है। असम की राजधानी दिसपुर से लगभग ७ किलोमीटर दूर स्थित यह शक्तिपीठ नीलांचल पर्वत से १० किलोमीटर दूर है।
कामाख्या मंदिर सभी शक्तिपीठों का महापीठ माना जाता है। इस मंदिर में देवी दुर्गा या माँ अम्बे की कोई मूर्ति या चित्र आपको दिखाई नहीं देगा। वल्कि मंदिर में एक कुंड बना है जो की हमेशा फूलों से ढका रहता है। इस कुंड से हमेशा ही जल निकलता रहतै है। चमत्कारों से भरे इस मंदिर में देवी की योनि की पूजा की जाती है और योनी भाग के यहाँ होने से माता यहाँ रजस्वला भी होती हैं।
मंदिर धर्म पुराणों के अनुसार माना जाता है कि इस शक्तिपीठ का नाम कामाख्या इसलिए पड़ा क्योंकि इस जगह भगवान शिव का माँ सती के प्रति मोह भंग करने के लिए विष्णु भगवान ने अपने चक्र से माता सती के ५१ भाग किए थे जहाँ पर यह भाग गिरे वहाँ पर माता का एक शक्तिपीठ बन गया और इस जगह माता की योनी गिरी थी, जोकी आज बहुत ही शक्तिशाली पीठ है। यहाँ वैसे तो सालभर ही भक्तों का तांता लगा रहता है लेकिन दुर्गा पूजा, पोहान बिया, दुर्गादेऊल, वसंती पूजा, मदानदेऊल, अम्बुवासी और मनासा पूजा पर इस मंदिर का अलग ही महत्त्व है जिसके कारण इन दिनों में लाखों की संख्या में भक्त यहाँ पहुचतें है।
हर साल यहाँ अम्बुबाची मेला के दौरान पास में स्थित ब्रह्मपुत्र का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है। पानी का यह लाल रंग कामाख्या देवी के मासिक धर्म के कारण होता है। फिर तीन दिन बाद दर्शन के लिए यहाँ भक्तों की भीड़ मंदिर में उमड़ पड़ती है। आपको बता दें की मंदिर में भक्तों को बहुत ही अजीबो गरीब प्रसाद दिया जाता है।
दूसरे शक्तिपीठों की अपेक्षा कामाख्या देवी मंदिर में प्रसाद के रूप में लाल रंग का गीला कपड़ा दिया जाता है। कहा जाता है कि जब माँ को तीन दिन का रजस्वला होता है, तो सफेद रंग का कपडा मंदिर के अंदर बिछा दिया जाता है। तीन दिन बाद जब मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं, तब वह वस्त्र माता के रज से लाल रंग से भीगा होता है। इस कपड़ें को अम्बुवाची वस्त्र कहते है। इसे ही भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है।
कामाख्या मंदिर की पौराणिक कथा
कामाख्या के बारे में किंवदंती है कि घमंड में चूर असुरराज नरकासुर एक दिन मां भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था। कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्राम-गृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊँगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है।
गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिये और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुक्कुट (मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गयी, जिससे नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला। यह स्थान आज भी `कुक्टाचकि’ के नाम से विख्यात है। बाद में मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया। नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना। भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और सामंत राजा कामरूप पर अपना शासन करने लगा।
नरकासुर के नीच कार्यों के बाद एवं विशिष्ट मुनि के अभिशाप से देवी अप्रकट हो गयी थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या मंदिर ध्वंसप्राय हो गया था। आद्य-शक्ति महाभैरवी कामाख्या के दर्शन से पूर्व महाभैरव उमानंद, जो कि गुवाहाटी शहर के निकट ब्रह्मपुत्र ‘नद’ के मध्य भाग में टापू के ऊपर स्थित है, का दर्शन करना आवश्यक है। यह एक प्राकृतिक शैलदीप है, जो तंत्र का सर्वोच्च सिद्ध सती का शक्तिपीठ है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहीं पर समाधिस्थ सदाशिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि से जाग्रत होने पर सदाशिव ने उसे भस्म कर दिया था। भगवती के महातीर्थ (योनिमुद्रा) नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुन जीवनदान मिला था। इसीलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से भी जाना जाता है।
महाबोधि मंदिर, बोधगया
- महाबोधि मंदिर जिसे “महान जागृति मंदिर” भी कहा जाता है, बिहार के बोधगया में स्थित एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल है।
- यह बोधगया में एक बौद्ध मंदिर है, जो उस स्थान को चिन्हित करता है जहाँ भगवान बुद्ध ने आत्मज्ञान प्राप्त किया था।
- भगवान बुद्ध भारत के धार्मिक इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं क्योंकि उन्हें माना जाता है कि वे ९वें और भगवान विष्णु के सबसे हाल के अवतार हैं जिन्होंने धरती पर कदम रखा था।
- मंदिर ४.८ हेक्टेयर के क्षेत्र में फैला है और ५५ मीटर लंबा है।
- पवित्र बोधि वृक्ष मंदिर के बाईं ओर स्थित है और माना जाता है कि यह वास्तविक वृक्ष का प्रत्यक्ष वंशज है, जिसके नीचे बैठकर भगवान गौतम बुद्ध ने ध्यान किया और आत्मज्ञान प्राप्त किया।
महाबोधि मंदिर
बोध गया में स्थित महाबोधि मंदिर का संकुल भारत के पूर्वोत्तर भाग में बिहार राज्य का मध्य हिस्सा है। यह गंगा नदी के मैदानी भाग में मौजूद है। महाबोधि मंदिर बुद्ध भुगवान की ज्ञान प्राप्ति के स्थान पर स्थित है। बिहार महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित चार पवित्र स्थानों से एक है और यह विशेष रूप से उनके ज्ञान बोध की प्राप्ति से जुड़ा हुआ है।
प्रथम मंदिर तीसरी शताब्दी बी. सी. में सम्राट अशोक द्वारा निर्मित कराया गया था और वर्तमान मंदिर पांचवीं या छठवीं शताब्दी में बनाए गए। यह ईंटों से पूरी तरह निर्मित सबसे प्रारंभिक बौद्ध मंदिरों में से एक है जो भारत में गुप्त अवधि से अब तक खड़े हुए हैं। महाबोधि मंदिर का स्थल महात्मा बुद्ध के जीवन से जुड़ी घटनाओं और उनकी पूजा से संबंधित तथ्यों के असाधारण अभिलेख प्रदान करते हैं, विशेष रूप से जब सम्राट अशोक ने प्रथम मंदिर का निर्माण कराया और साथ ही कटघरा और स्मारक स्तंभ बनवाया। शिल्पकारी से बनाया गया पत्थर का कटघरा पत्थर में शिल्पकारी की प्रथा का एक असाधारण शुरूआती उदाहरण है।
महाबोधि मंदिर का इतिहास
करीब ५०० ई.पू. में गौतम बुद्ध फाल्गु नदी के तट पर पहुँचे और बोधि पेड़ के नीचे तपस्या कर्ने बैठे। तीन दिन और रात के तपस्या के बाद उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिस्के बाद से वे बुद्ध के नाम से जाने गए। इसके बाद उन्होंने वहाँ ७ हफ्ते अलग-अलग जगहों पर ध्यान करते हुए बिताया और फिर सारनाथ जा कर धर्म का प्रचार शुरू किया। बुद्ध के अनुयायिओं ने बाद में उस जगह पर जाना शुरू किया जहाँ बुद्ध ने वैशाख महीने में पुर्णिमा के दिन ज्ञान की प्रप्ति की थी। धीरे-धीरे ये जगह बोध्गया के नाम से जाना गया और ये दिन बुद्ध पुर्णिमा के नाम से जाना गया।
लगभग ५२८ ई.पू. के वैशाख (अप्रैल-मई) महीने में कपिलवस्तु के राजकुमार गौतम ने सत्य की खोज में घर त्याग दिया। गौतम ज्ञान की खोज में निरंजना नदी के तट पर बसे एक छोटे से गाँव उरुवेला आ गए। वह इसी गाँव में एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान साधना करने लगे। एक दिन वह ध्यान में लीन थे कि गाँव की ही एक लड़की सुजाता उनके लिए एक कटोरा खीर तथा शहद लेकर आई। इस भोजन को करने के बाद गौतम पुन: ध्यान में लीन हो गए। इसके कुछ दिनों बाद ही उनके अज्ञान का बादल छट गया और उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। अब वह राजकुमार सिद्धार्थ या तपस्वी गौतम नहीं थे बल्कि बुद्ध थे।
बुद्ध जिसे सारी दुनिया को ज्ञान प्रदान करना था। ज्ञान प्राप्ति के बाद वे अगले सात सप्ताह तक उरुवेला के नज़दीक ही रहे और चिंतन मनन किया। इसके बाद बुद्ध वाराणसी के निकट सारनाथ गए जहाँ उन्होंने अपने ज्ञान प्राप्ति की घोषणा की। बुद्ध कुछ महीने बाद उरुवेला लौट गए। यहाँ उनके पांच मित्र अपने अनुयायियों के साथ उनसे मिलने आए और उनसे दीक्षित होने की प्रार्थना की। इन लोगों को दीक्षित करने के बाद बुद्ध राजगीर चले गए। इसके बुद्ध के उरुवेला वापस लौटने का कोई प्रमाण नहीं मिलता है। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद उरुवेला का नाम इतिहास के पन्नों में खो जाता है। इसके बाद यह गाँव सम्बोधि, वैजरसना या महाबोधि नामों से जाना जाने लगा। बोधगया शब्द का उल्लेख १८ वीं शताब्दी से मिलने लगता है।
विश्वास किया जाता है कि महाबोधि मंदिर में स्थापित बुद्ध की मूर्त्ति सम्बंध स्वयं बुद्ध से है। कहा जाता है कि जब इस मंदिर का निर्माण किया जा रहा था तो इसमें बुद्ध की एक मूर्त्ति स्थापित करने का भी निर्णय लिया गया था। लेकिन लंबे समय तक किसी ऐसे शिल्पकार को खोजा नहीं जा सका जो बुद्ध की आकर्षक मूर्त्ति बना सके। सहसा एक दिन एक व्यक्ति आया और उसे मूर्त्ति बनाने की इच्छा जाहिर की।
लेकिन इसके लिए उसने कुछ शर्त्तें भी रखीं। उसकी शर्त्त थी कि उसे पत्थर का एक स्तम्भ तथा एक लैम्प दिया जाए। उसकी एक और शर्त्त यह भी थी इसके लिए उसे छ: महीने का समय दिया जाए तथा समय से पहले कोई मंदिर का दरवाज़ा न खोले। सभी शर्त्तें मान ली गई लेकिन व्यग्र गांववासियों ने तय समय से चार दिन पहले ही मंदिर के दरवाजे को खोल दिया।
मंदिर के अंदर एक बहुत ही सुंदर मूर्त्ति थी जिसका हर अंग आकर्षक था सिवाय छाती के। मूर्त्ति का छाती वाला भाग अभी पूर्ण रूप से तराशा नहीं गया था। कुछ समय बाद एक बौद्ध भिक्षु मंदिर के अंदर रहने लगा। एक बार बुद्ध उसके सपने में आए और बोले कि उन्होंने ही मूर्त्ति का निर्माण किया था। बुद्ध की यह मूर्त्ति बौद्ध जगत में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त मूर्त्ति है। नालन्दा और विक्रमशिला के मंदिरों में भी इसी मूर्त्ति की प्रतिकृति को स्थापित किया गया है।
अयप्पा मंदिर, सबरीमाला
- भगवान अयप्पा को समर्पित सबरीमाला मंदिर सभी प्रमुख मंदिरों में से एक है।
- यह मंदिर न केवल अपने धार्मिक तत्वों के लिए बल्कि इसके साथ जुड़े सांस्कृतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तत्वों के लिए भी महत्वपूर्ण है।
- शायद यही कारण है कि यह दुनिया के सबसे बड़े वार्षिक तीर्थयात्राओं में से एक है, जो प्रत्येक वर्ष १०० मिलियन से अधिक भक्तों को आकर्षित करता है।
- केरल में पठानमथिट्टा जिले के पश्चिमी घाटों में स्थित, सबरीमाला मंदिर १८००० अन्य पहाड़ियों के बीच, समुद्र तल से लगभग ४००० फीट की ऊँचाई पर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है।
- जिन लोगों ने मंदिर की यात्रा की है, वे मानते हैं कि सबरीमाला की तीर्थयात्रा के लिए मन की शक्ति, शारीरिक सहनशक्ति, भक्ति और दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है।
सबरीमाला मंदिर
भारत के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है विश्व प्रसिद्ध सबरीमाला का मंदिर। यहां हर दिन लाखों लोग दर्शन करने के लिए आते हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगा प्रतिबंध हटा दिया है। करीब ८०० साल पुराने इस मंदिर में ये मान्यता पिछले काफी समय से चल रही थी कि महिलाओं को मंदिर में प्रवेश ना करने दिया जाए। इसके कुछ कारण बताए गए थे।
सबरीमाला मंदिर की पौराणिक कथा
कम्बन रामायण, महाभागवत के अष्टम स्कंध और स्कन्दपुराण के असुर काण्ड में जिस शिशु शास्ता का उल्लेख है, अयप्पन उसी के अवतार माने जाते हैं। कहते हैं, शास्ता का जन्म मोहिनी वेषधारी विष्णु और शिव के समागम से हुआ था। उन्हीं अयप्पन का मशहूर मंदिर पूणकवन के नाम से विख्यात १८ पहाडि़यों के बीच स्थित इस धाम में है, जिसे सबरीमला श्रीधर्मषष्ठ मंदिर कहा जाता है। यह भी माना जाता है कि परशुराम ने अयप्पन पूजा के लिए सबरीमला में मूर्ति स्थापित की थी। कुछ लोग इसे रामभक्त शबरी के नाम से जोड़कर भी देखते हैं।
कुछ लोगों का कहना है कि करीब ७००-८०० साल पहले दक्षिण में शैव और वैष्णवों के बीच वैमनस्य काफी बढ़ गया था। तब उन मतभेदों को दूर करने के लिए श्री अयप्पन की परिकल्पना की गई। दोनों के समन्वय के लिए इस धर्मतीर्थ को विकसित किया गया। आज भी यह मंदिर समन्वय और सद्भाव का प्रतीक माना जाता है। यहां किसी भी जाति-बिरादरी का और किसी भी धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति आ सकता है। मकर संक्रांति और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के संयोग के दिन, पंचमी तिथि और वृश्चिक लग्न के संयोग के समय ही श्री अयप्पन का जन्म माना जाता है। इसीलिए मकर संक्रांति के दिन भी धर्मषष्ठ मंदिर में उत्सव मनाया जाता है।
सबरीमाला मंदिर की मान्यता
यहां ज्यादातर पुरुष भक्त देखें जाते हैं। महिला श्रद्धालु बहुत कम होती हैं। अगर होतीं भी हैं तो बूढ़ी औरतें और छोटी कन्याएँ । इसका कारण यह है की श्री अयप्पन ब्रह्माचारी थे। इसलिए यहां पे छोटी कन्याएँ आ सकती हैं, जो रजस्वला न हुई हों या बूढ़ी औरतें, जो इससे मुक्त हो चुकी हैं।
जाति-धर्म का बंधन न मानने के बाद भी यह बंधन श्रद्धालुओं को मानना होता है। बाकी, धर्म निरपेक्षता का अद्भुत उदाहरण यहाँ देखने को मिलता है कि यहां से कुछ ही दूरी पर एरुमेलि नामक जगह पर श्री अयप्पन के सहयोगी माने जाने वाले मुसलिम धर्मानुयायी वावर का मकबरा भी है, जहां मत्था टेके बिना यहां की यात्रा पूरी नहीं मानी जाती।
यह भी कहा जाता है कि अगर कोई व्यक्ति तुलसी या रुद्राक्ष की माला पहनकर, व्रत रखकर, सिर पर नैवेद्य से भरी पोटली (इरामुडी) लेकर यहां पहुंचे, तो उसकी मनोकामना जरूर पूरी होती है। माला धारण करने पर भक्त स्वामी कहलाने लगता है और तब ईश्वर और भक्त के बीच कोई भेद नहीं रहता। वैसे श्री धर्मषष्ठ मंदिर में लोग जत्थों में आते हैं। जो व्यक्ति जत्थे का नेतृत्व करता है, उसके हाथों में इरामुडी रहती है। पहले पैदल मीलों यात्रा करने वाले लोग अपने साथ खाने-पीने की वस्तुएं भी पोटलियों में लेकर चलते थे। तीर्थाटन का यही प्रचलन था।
अब ऐसा नहीं है पर भक्ति भाव वही है। उसी भक्ति भाव के साथ यहां करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। कुछ वर्ष पहले नवंबर से जनवरी के बीच यहां आने वाले लोगों की संख्या पांच करोड़ के करीब आंकी गई। यहां की व्यवस्था देखने वाले ट्रावनकोर देवासवम बोर्ड के अनुसार, इस अवधि में तीर्थस्थल ने केरल की अर्थव्यवस्था को १० हजार करोड़ रुपये प्रदान किए हैं।
ओंकारेश्वर मंदिर, मध्यमहेश्वर
- ओंकारेश्वर मंदिर महान पंच केदार का एक अभिन्न अंग है और भगवान शिव को समर्पित है।
- सर्दियों के दौरान, केदारनाथ मंदिर और मध्यमहेश्वर से मूर्तियों को ऊखीमठ लाया जाता है और छह महीने तक यहां पूजा की जाती है।
- उखीमठ उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले का एक छोटा तीर्थ शहर है। माना जाता है कि यहां से कोई भी खाली हाथ नहीं जाता है।
- देश के सबसे पुराने मंदिरों में से एक, ओंकारेश्वर मंदिर में सर्दियों के महीनों के दौरान केदारनाथ और मदमहेश्वर के देवताओं का निवास होता है। साथ ही, इस मंदिर की दीवारों के भीतर जो पानी है, उसे अत्यधिक पवित्र माना जाता है।
- माना जाता है कि मंदिर के दर्शन करने से भ्गवान शिव हमेशा अपने भक्त की रक्षा करते हैं
ओंकारेश्वर मंदिर
उखीमठ भारत के उत्तराखंड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित एक तीर्थ स्थल है। यह १३११ मीटर की ऊंचाई पर है और रुद्रप्रयाग से ४१ किलोमीटर की दूरी पर है। सर्दियों के दौरान, केदारनाथ मंदिर और मध्यमहेश्वर से मूर्तियों (डोली) को उखीमठ रखा जाता है और छह माह तक उखीमठ में इनकी पूजा की जाती है। उषा (बाणासुर की बेटी) और अनिरुद्ध (भगवान कृष्ण के पौत्र) की शादी यहीं सम्पन की गयी थी।
उषा के नाम से इस जगह का नाम उखीमठ पड़ा। सर्दियों के दौरान भगवान केदारनाथ की उत्सव डोली को इस जगह के लिए केदारनाथ से लाया जाता है। भगवान केदारनाथ की शीतकालीन पूजा और पूरे साल भगवान ओंकारेश्वर की पूजा यहीं की जाती है। यह मंदिर उखीमठ में स्थित है।
ओंकारेश्वर मंदिर का इतिहास
ऊखीमठ (जिसे ओखीमठ भी कहा जाता है), एक छोटा शहर और रुद्रप्रयाग जिले, उत्तराखंड में एक हिंदू तीर्थ स्थल है। यह समुद्रतल से लगभग १३११ मीटर की ऊंचाई पर और रुद्रप्रयाग से ४१ किमी की दूरी पर स्थित है। सर्दियों के दौरान, केदारनाथ मंदिर, और मध्यमहेश्वर से मूर्तियों को उखीमठ लाया जाता है और छह महीने तक यहाँ पूजा की जाती है। उखीमठ का उपयोग आस-पास स्थित विभिन्न स्थानों, अर्थात् मधमहेश्वर (दूसरा केदार), तुंगनाथ (तीसरा केदार) और देवरिया ताल (एक प्राकृतिक ताजे पानी की झील) और कई अन्य रमणीय स्थानों पर जाने के लिए केंद्र स्थल के रूप में किया जा सकता है।
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, उषा की शादी (वनसुर की बेटी) और अनिरुद्ध (भगवान कृष्ण के पोते) को यहां रखा गया था। उषा के नाम से इस स्थान का नाम उषमठ पड़ा, जिसे अब ऊखीमठ के नाम से जाना जाता है। राजा मान्धाता ने भगवान शिव की तपस्या की। सर्दियों के दौरान भगवान केदारनाथ की उत्सव डोली को केदारनाथ से इस स्थान पर लाया जाता है। भगवान केदारनाथ की शीतकालीन पूजा और भगवान ओंकारेश्वर की साल भर की पूजा यहाँ की जाती है। यह मंदिर ऊखीमठ में स्थित है जो रुद्रप्रयाग से ४१ किमी की दूरी पर है।
लिंगराज मंदिर, भुवनेश्वर
- लिंगराज मंदिर, भुवनेश्वर शहर में स्थित एक प्राचीन पूजा स्थल है और भगवान शिव को समर्पित शहर में स्थित सबसे बड़ा मंदिर है।
- मंदिर ७ वीं शताब्दी में राजा जाजती केशरी द्वारा बनाया गया था।
- मंदिर का मुख्य भाग उड़ीसा शैली की वास्तुकला का एक बेहतरीन उदाहरण है हैं।
- कहने को तो यह मंदिर मुख्य रूप से भगवान शिव को समर्पित है, लेकिन भगवान विष्णु के चित्र भी यहां मौजूद हैं।
- शिवरात्रि के दौरान करीब २ लाख लोग मंदिर में दर्शन के लिए पहुंचते हैं।
लिंगराज मंदिर
ओडिशा में भुवनेश्वर का प्राचीन लिंगराज मंदिर भारत के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में गिना जाता है। लिंगराज का अर्थ होता है ‘लिंगम के राजा’, जो यहां भगवान शिव को कहा गया है। पहले यहां भगवान शिव की पूजा कीर्तिवास के रूप में की जाती थी, फिर बाद में उन्हें हरिहर के नाम से पूजा जाने लगा। मान्यता है कि भुवनेश्वर नगर का नाम उन्हीं के नाम पर पड़ा। भगवान शिव की पत्नी को यहां भुवनेश्वरी कहा जाता है।
यह मंदिर कलिंग वास्तुशैली का अनुपम उदाहरण है। करीब ढाई लाख वर्ग फुट के विशाल क्षेत्र में फैला यह मंदिर पवित्र बिंदुसागर झील के तट पर स्थित है। मंदिर की बाहरी संरचना की नक्काशी तो ऐसी है कि देख कर विश्वास ही नहीं होता कि वह मनुष्यों द्वारा की गई होगी। मंदिर की ऊंचाई ५५ मीटर है। मंदिर के चार प्रमुख भाग हैं- गर्भ गृह, यज्ञ शैलम, भोग मंडप और नाट्यशाला।
सबसे पहले बिन्दुसरोवर में स्नान किया जाता है, उसके बाद क्षेत्रपति अनंत वासुदेव के दर्शन किए जाते हैं। फिर गणेश पूजा के बाद गोपालनी देवी और शिव जी के वाहन नंदी की पूजा कर लिंगराज के दर्शन के लिए मुख्य स्थान में प्रवेश करते हैं। यहां आठ फीट मोटा और लगभग एक फीट ऊंचा ग्रेनाइट का स्वयंभू लिंग स्थित है। मान्यता है कि भारत में जो द्वादश ज्योतिर्लिंग हैं, उन सभी का अंश इस शिवलिंग में है, इसीलिए इसे लिंगराज कहा जाता है।
लिंगराज मंदिर की मान्यता
धार्मिक कथा है कि ‘लिट्टी’ तथा ‘वसा’ नाम के दो भयंकर राक्षसों का वध देवी पार्वती ने यहीं पर किया था। संग्राम के बाद उन्हें प्यास लगी, तो शिवजी ने कूप बनाकर सभी पवित्र नदियों को योगदान के लिए बुलाया। यहीं पर बिन्दुसागर सरोवर है तथा उसके निकट ही लिंगराज का विशालकाय मन्दिर है। सैकड़ों वर्षों से भुवनेश्वर यहीं पूर्वोत्तर भारत में शैवसम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र रहा है। कहते हैं कि मध्ययुग में यहाँ सात हजार से अधिक मन्दिर और पूजास्थल थे, जिनमें से अब लगभग पाँच सौ ही शेष बचे हैं।
लिंगराज मंदिर का इतिहास
इतिहासकारों के मुताबिक वर्तमान मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजा जजाति केसरी ने ११वीं शताब्दी में कराया था। कुछ इतिहासकारों के मतानुसार, यह मंदिर सातवीं शताब्दी में अस्तित्व में आ गया था, क्योंकि ७वीं सदी के संस्कृत लेखों में इस मंदिर का उल्लेख किया गया है। कुछ अन्य विद्वान मानते हैं कि मंदिर की शुरुआत ललाट इंदु केशरी ने ६१५ से ६५७ ईस्वी के बीच की थी। मान्यता है कि विष्णु और शिव दोनों इस मंदिर में बसते हैं। यहाँ शिवलिंग के बीच में चांदी के शालिग्राम भगवान स्थित हैं, मानो भगवान शिव के हृदय में भगवान विष्णु विराजमान हैं।
मंदिर प्रात: ६.३० बजे खुलता है। मंदिर में मनाया जाने वाला मुख्य त्यौहार शिवरात्रि है। श्रावण मास में सुबह हजारों लोग महानदी से पानी भरकर पैदल मंदिर आते हैं और जल चढ़ाते हैं। भाद्रपद महीने में सुनियन दिवस मनाया जाता है। इस दिन मंदिर के सेवक, किसान और दूसरे लोग लिंगराजा को निष्ठा और श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इसके अलावा, मंदिर में २२ दिनों तक चलने वाला चंदन यात्रा त्यौहार भी धूमधाम से मनाया जाता है। यहाँ का महाप्रसादम भी भक्तों के बीच बहुत प्रसिद्ध है। उसे मिट्टी के बर्तनों में पुजारियों द्वारा तैयार किया जाता है। पहले इसका भोग भगवान को लगाया जाता है, फिर भक्तों को बांटा जाता है।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर, द्वारका
- १२ प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंगों में से एक, नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर भी भारत का प्रसिद्ध मंदिर है।
- भगवान शिव की विशाल, सुंदर और कलात्मक प्रतिमा पर्यटकों और श्रद्धालुओं को मंत्रमुग्ध कर देती है।
- शिवरात्रि के दौरान मंदिर में हजारों की संख्या में लोग आते हैं, तब यहां का नजारा देखने योग्य होता है।
नागेश्वर मंदिर
नागेश्वर मन्दिर एक प्रसिद्द मन्दिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह द्वारका, गुजरात के बाहरी क्षेत्र में स्थित है। यह शिव जी के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। हिन्दू धर्म के अनुसार नागेश्वर अर्थात नागों का ईश्वर होता है। यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है। रुद्र संहिता में इन भगवान को दारुकावने नागेशं कहा गया है।
भगवान् शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग १७ मील की दूरी पर स्थित है। इस पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है। कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान् शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर की कथा
इस ज्योतिर्लिंग के सम्बंध में पुराणों में यह कथा वर्णित है-
सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी वैश्य था। वह भगवान् शिव का अनन्य भक्त था। वह निरन्तर उनकी आराधना, पूजन और ध्यान में तल्लीन रहता था। अपने सारे कार्य वह भगवान् शिव को अर्पित करके करता था। मन, वचन, कर्म से वह पूर्णतः शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था। उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्व रहता था।
उसे भगवान् शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी। वह निरन्तर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि उस सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुँचे। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था। उस दुष्ट राक्षस दारुक ने यह उपयुक्त अवसर देखकर नौका पर आक्रमण कर दिया। उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़कर अपनी राजधानी में ले जाकर क़ैद कर लिया। सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्यनियम के अनुसार भगवान् शिव की पूजा-आराधना करने लगा।
अन्य बंदी यात्रियों को भी वह शिव भक्ति की प्रेरणा देने लगा। दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर उस कारागर में आ पहुँचा। सुप्रिय उस समय भगवान् शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आँखें बंद किए बैठा था। उस राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देखकर अत्यन्त भीषण स्वर में उसे डाँटते हुए कहा-‘अरे दुष्ट वैश्य! तू आँखें बंद कर इस समय यहाँ कौन-से उपद्रव और षड्यन्त्र करने की बातें सोच रहा है?’ उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिवभक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई। अब तो वह दारुक राक्षस क्रोध से एकदम पागल हो उठा। उसने तत्काल अपने अनुचरों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया। सुप्रिय उसके इस आदेश से ज़रा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ।
वह एकाग्र मन से अपनी और अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान् शिव से प्रार्थना करने लगा। उसे यह पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान् शिवजी इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएँगे। उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शंकरजी तत्क्षण उस कारागार में एक ऊँचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गए। उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत-अस्त्र भी प्रदान किया। इस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायक का वध करके सुप्रिय शिवधाम को चला गया। भगवान् शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।
श्रीनाथजी मंदिर, नाथद्वारा
- नाथद्वारा, राजस्थान का श्रीनाथजी मंदिर एक हिंदू मंदिर है जो भगवान कृष्ण के अवतार – श्रीनाथजी में से एक को समर्पित है।
- यह उदयपुर के खूबसूरत शहर से ४८ किमी की दूरी पर बनास नदी के तट पर स्थित है।
- नाथद्वारा का श्रीनाथजी मंदिर देवता के शृंगार के लिए प्रसिद्ध है जहाँ मूर्ति को हर दिन एक नई पोशाक पहनाई जाती है।
- मूर्ति के विभिन्न रूपों को देखने के लिए दुनिया भर से भक्त आते हैं।
श्रीनाथजी मंदिर
श्रीनाथजी श्रीकृष्ण भगवान के ७ वर्ष की अवस्था के रूप हैं। श्रीनाथजी हिंदू भगवान कृष्ण का एक रूप हैं, जो सात साल के बच्चे के रूप में प्रकट होते हैं। श्रीनाथजी का प्रमुख मंदिर राजस्थान के उदयपुर शहर से ४९ किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित नाथद्वारा के मंदिर शहर में स्थित है। श्रीनाथजी वैष्णव सम्प्रदाय के केंद्रीय पीठासीन देव हैं जिन्हें पुष्टिमार्ग या वल्लभाचार्य द्वारा स्थापित वल्लभ सम्प्रदाय के रूप में जाना जाता है। श्रीनाथजी को मुख्य रूप से भक्ति योग के अनुयायियों और गुजरात और राजस्थान में वैष्णव और भाटिया एवं अन्य लोगों द्वारा पूजा जाता है।
वल्लभाचार्य के पुत्र विठ्ठलनाथजी ने नाथद्वारा में श्रीनाथजी की पूजा को संस्थागत रूप दिया। श्रीनाथजी की लोकप्रियता के कारण, नाथद्वारा शहर को ‘श्रीनाथजी’ के नाम से जाना जाता है। लोग इसे बावा की नगरी भी कहते हैं। प्रारंभ में, बाल कृष्ण रूप को देवदमन के रूप में संदर्भित किया गया था। वल्लभाचार्य ने उनका नाम गोपाल रखा और उनकी पूजा का स्थान ‘गोपालपुर’ रखा। बाद में, विट्ठलनाथजी ने उनका नाम श्रीनाथजी रखा। श्रीनाथजी की सेवा दिन के ८ भागों में की जाती है।
श्रीनाथजी मंदिर का इतिहास
पुष्टिमार्ग के अनुयायी बताते हैं कि स्वरूप का हाथ और चेहरा पहले गोवर्धन पहाड़ी से उभरा था और उसके बाद माधवेंद्र पुरी के आध्यात्मिक नेतृत्व में स्थानीय निवासियों ने गोपाल (कृष्ण) देवता की पूजा शुरू की। इन्हीं गोपाल देवता को बाद में श्रीनाथजी कहा गया। इस प्रकार, माधवेन्द्र पुरी को गोवर्धन के पास गोपाल देवता की खोज के लिए मान्यता दी जाती है, जिसे बाद में वल्लभाचार्य द्वारा श्रीनाथजी के रूप में अनुकूलित और पूजा गया। प्रारंभ में, माधवेंद्र पुरी ने देवता के ऊपर उठे हुए हाथ और बाद में, चेहरे की पूजा की।
पुष्टिमार्ग साहित्य के अनुसार, श्रीनाथजी ने श्री वल्लभाचार्य को हिंदू विक्रम संवत १५४९ में दर्शन दिए और वल्लभाचार्य को निर्देश दिया कि वे गोवर्धन पर्वत पर पूजा शुरू करें। वल्लभाचार्य ने उन देवता की पूजा के लिए व्यवस्था की, और इस परंपरा को उनके पुत्र विठ्ठलनाथजी ने आगे बढ़ाया।
बिड़ला मंदिर, जयपुर
- जयपुर में बिरला मंदिर एक हिंदू मंदिर है जो देश भर में स्थित कई बिरला मंदिरों में से एक का हिस्सा है।
- मोती डूंगरी पहाड़ी पर स्थित मंदिर लक्ष्मी नारायण मंदिर के रूप में भी जाना जाता है,
- मंदिर का निर्माण वर्ष १९८८ में बिरला द्वारा किया गया था, जब जयपुर के महाराजा ने एक रुपये की टोकन राशि के लिए जमीन दे दी थी।
- विशुद्ध रूप से सफेद संगमरमर से निर्मित, बिड़ला मंदिर की इमारत प्राचीन हिंदू वास्तुकला शैली और आधुनिक डिजाइन का एक समामेल है।
- जैसा कि नाम से पता चलता है, लक्ष्मी नारायण मंदिर, भगवान विष्णु (नारायण), संरक्षक और उनकी पत्नी लक्ष्मी, धन की देवी को समर्पित है।
- मंदिर की दीवारें हिंदू पवित्र ग्रंथों में वर्णित महत्वपूर्ण घटनाओं और रहस्योद्घाटन का चित्रण करती हैं।
बिरला मंदिर जयपुर
बिरला मंदिर जयपुर का एक ऐसा मंदिर है जो भारत में स्थित कई बिरला मंदिरों का एक हिस्सा है। बिरला मंदिर को “लक्ष्मी नारायण मंदिर” के रूप में भी जाना जाता है जो मंदिर मोती डूंगरी पहाड़ी पर स्थित है। जयपुर के बिरला मंदिर का निर्माण १९८८ में बिरला द्वारा किया गया था, जब जयपुर के महाराजा ने एक रुपये की टोकन राशि के लिए जमीन दे दी थी। सफेद संगमरमर से निर्मित, बिड़ला मंदिर की संरचना में आप प्राचीन हिंदू वास्तुकला शैली और आधुनिक डिजाइन का मेल देख सकते हैं।
इस मंदिर की दीवारों को देवी-देवताओं की गहन नक्काशी, पुराणों और उपनिषदों के ज्ञान भरे शब्दों से सजाया गया है। इस मंदिर में सुकरात, क्राइस्ट, बुद्ध, कन्फ्यूशियस जैसे कई जैसे ऐतिहासिक प्राप्तकर्ताओं और आध्यात्मिक संतों के चित्र भी देखने को मिलते हैं। अगर आप जयपुर के बिरला मंदिर को देखने के लिए जाना चाहते हैं तो आप जन्माष्टमी के समय जाएँ, क्योंकि इस समय मंदिर में कई धार्मिक गतिविधियाँ होती हैं।
बिरला मंदिर को लक्ष्मी नायायण मंदिर भी कहा जाता है क्योंकि यह मंदिर भगवान विष्णु (नारायण) उनकी पत्नी धन की देवी लक्ष्मी को समर्पित है। पत्थर के एक टुकड़े से उकेरे गए लक्ष्मी नारायण देवता का विशेष ध्यान जाता है। इन सभी मूर्तियों के अलावा इस मंदिर में गणेश की मूर्ति भी है जो पारदर्शी दिखाई देती है।
बिड़ला मंदिर का इतिहास
आज जयपुर में जिस जगह पर बिरला मंदिर स्थित है उस जगह को जयपुर के महाराज द्वारा एक रूपये की टोकन राशी के रूप में बिरला को दे दी थी। इसके बाद इस भूमि को मंदिर के लिए उपयुक्त मानते हुए बिरला परिवार ने वर्ष १९८८ में यहां मंदिर का निर्माण किया तभी से यह मंदिर तीर्थ यात्रियों के लिए एक दर्शनीय स्थल बन गया है।
श्री साईं बाबा संस्थान मंदिर, शिरडी
- श्री साईं बाबा संस्थान मंदिर महाराष्ट्र के शिरडी में एक धार्मिक स्थल है, जो श्री साईं बाबा को समर्पित है।
- माना जाता है कि साईं बाबा को अभूतपूर्व शक्तियां प्राप्त हैं और उन्हें श्री साईं बाबा संस्थान मंदिर में भगवान के रूप में पूजा जाता है।
- मंदिर परिसर लगभग २०० वर्ग मीटर के कुल क्षेत्र में फैला हुआ है और यह शिरडी ग्राम के केंद्र में स्थित है।
- मंदिर परिसर हाल ही में वर्ष १९९८ में पुनर्निर्मित किया गया था।
- शिर्डी को एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान बनाने के पीछे तथ्य है कि यहाँ साईं बाबा जीवन भर लोगों की मदद करने और अपने जीवन को बदलने के लिए यहां बने रहे।
श्री साईबाबा मंदिर
श्री साईबाबा का मंदिर शिर्डी गांव, जो अहमदनगर राज्य, महाराष्ट्र भारत में स्थित है। यह मंदिर सभी धर्मो का धार्मिक स्थल कहा जाता है। यह शिर्डी गाँव के दिल में स्थित है और यह दुनिया भर से तीर्थयात्रियों का एक प्रमुख केंद्र है। श्री साईबाबा के मंदिर परिसर लगभग २०० वर्ग मीटर में बना हुआ है।
इस मंदिर को शिर्डी के साईं बाबा के नाम से भी जाना जाता है। साईं बाबा के आध्यात्मिक गुरु थे। साईं बाबा को उनके भक्तों द्वारा संत, एक फकीर, एक सत्गुरु और भगवान शिव के अवतार के रूप में मानते है। साईं बाबा अपने जीवन काल में हिन्दूं और मुस्लिम भक्तों द्वारा एक भगवान के रूप में सम्मानित किये जात थे तथा आज भी एक भगवान के रूप में ही स्वीकार व सम्मनित किये जाते है।
साईबाबा को अब श्री दत्तात्रेय के अवतार के रूप में सम्मानित किया गया है और सागुना ब्रह्मा के रूप में माना जाता है। साईं को अपने भक्तों द्वारा इस ब्रह्मांड के निर्माता, स्थिर और विध्वंसक होने का श्रेय दिया है। वह गहने और सभी प्रकार के हिंदू वैदिक देवताओं से सजाया जाता है क्योंकि वह सर्वोच्च भगवान है।
ऐसा माना जात है कि साईं बाबा का जन्म १८३८ ई. में हुआ था। उनके जन्म, परिवार और शुरूआती सालों को कोई विवरण स्पष्ट नहीं है। उन्होंने १८५८ से शिर्डी में रहना शुरू कर दिया था। साईं बाबा ने अपने जीवन काल में कई चमत्कार किए, जिनमें से अधिकांश चमत्कारों द्वारा बीमारियों का उपचार भी किया था। इसमें हैजा, कुष्ठ रोग और प्लेग जैसे रोगों का पर्याप्त इलाज़ न मिल पाने के कारण बीमारियाँ बड़े पैमाने पर थीं।
साईं बाबा ने भी धर्म या जाति के आधार पर भेद की निंदा की। यह स्पष्ट नहीं है कि वह मुस्लिम या हिंदू थे। दोनों हिंदू और मुस्लिम अनुष्ठानों का अभ्यास करते थे, दोनों परंपराओं से शब्दों और आंकड़ों को पढ़ाते थे और अन्त में १५ अक्टूबर १९१८ में शिरडी में समाधि ली थी। साईं बाबा हमेशा एक बात बोलते थे, ‘अल्लाह मालिक’ और ‘सबका मलिक एक’ जो हिंदू और इस्लाम दोनों के साथ जुड़ा हुआ है। उन्होंने यह भी कहते थे कि ‘तुम मुझे देखो, मैं तुम्हारा ख़्याल रखोंगा’।
साईं बाबा मंदिर में हर रोज़ लगभग २५,००० श्रद्धालु साईं बाबा के दर्शन करने के लिए शिर्डी गाँव में आते हैं। त्यौहार के मौसम में, १,००,००० से अधिक भक्त मंदिर हर रोज़ का दर्शन करने आतेे हैं। मंदिर परिसर वर्ष १९९८-९९ में पुनर्निर्मित किया गया है और अब दर्शन लेन, प्रसादल (दोपहर का भोजन और डिनर), दान काउंटर्स, प्रसाद काउंटर, कैंटीन, रेलवे आरक्षण काउंटर, बुकस्टॉल आदि जैसी सभी आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध हैं। आवास की सुविधा संस्थान द्वारा प्रदान की गई है।
वर्तमान मंदिर अहमदनगर जिले के श्री साँईं बाबा संस्थान ट्रस्ट द्वारा प्रशासित है। मंदिर परिसर में सभी बुनियादी सुविधाएँ हैं, जैसे पीने का पानी, विश्रामगृह, बैठने और आराम करने के लिए। मंदिर में धार्मिक वस्तुएँ, किताबें, चित्र और खाद्य पदार्थों की बिक्री करने वाली कई दुकानों उपलब्ध है। साई बाबा मंदिर में देश की सबसे बड़ी किचन है यहाँ किचन में सोलर एनर्जी का उपयोग खाना बनाने के लिए किया जाता है। इस जगह दैनिक आधार पर ४०,००० से अधिक भक्तों की सेवा कर रहा है।
FAQs
भारत में कितने हिंदू मंदिर है?
भारत में कुल कितने मंदिर हैं, इसे सही-सही बता पाना को नामुमकिन है, लेकिन एक अनुमान के मुताबिक भारत में 10 लाख से भी ज्यादा मंदिर हैं और इनमें से 100 मंदिर ऐसे हैं, जिनका सालाना चढ़ावा भारत के बजट के कुल योजना व्यय के बराबर होगा।
भारत के प्रसिद्ध मंदिर कौन कौन से हैं?
काशी विश्वनाथ मंदिर स्थान: वाराणसी, उत्तर प्रदेश
भगवान जगन्नाथ मंदिर स्थान: पुरी, ओडिशा
वेंकटेश्वर तिरुपति बालाजी मंदिर स्थान: आंध्र प्रदेश
वैष्णो देवी मंदिर स्थान: जम्मू
सोमनाथ मंदिर स्थान: गुजरात
कामख्या देवी मंदिर स्थान: असम
महाबोधि मंदिर परिसर स्थान: बिहार
सिद्धिविनायक मंदिर स्थान: महाराष्ट्र
भारत का प्राचीन मंदिर कौन सा है?
भारत का सबसे प्राचीन मंदिर मुंडेश्वरी देवी का मंदिर माना जाता है जिसका निर्माण 108 ईस्वी में हुआ था।
कितने मंदिरों को मुगलों द्वारा नष्ट कर दिया गया?
मुस्लिम शासक हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सके, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए। डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब ‘दान हारावली’ में इसका जिक्र किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। इसके अलावा असंख्य हिन्दू मंदिर मुस्लिम शासकों के द्वारा तोड़े गए.
मंदिरों को क्यों नष्ट किया गया?
गुजरात के वेरावल बंदरगाह में स्थित मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी. अरब यात्री अल बरूनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन 1025 में सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया. अधिकांश मंदिर सम्पदा लूटने के उद्देश्य से ही नष्ट किये गए.
उपरोक्त जानकारियों को तैयार करने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जिन माध्यमों/संसाधनों/व्यक्तियों की सहायता ली गई, उनका सादर आभार एवम् धन्यवाद…!
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२- क्या सच में हैं ३३ करोड़ देवी-देवता?
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