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जाता हुआ दिसम्बर
जाता हुआ दिसम्बर
जाता हुआ ये दिसम्बर
देखो कुछ कह रहा है,
बीते साल की स्मृतियों को,
खुशियों संग विदा किया हैं॥
आने वाले समय के भव्य,
स्वागत के लिए तत्पर खड़ा
मुख मंडल पर मुस्कान लिए,
जाता हुआ ये दिसम्बर कुछ कह रहा॥
आओ समेट लो खुशियाँ तुम
मना लो त्यौहार मैं जा रहा हूँ!
आने वाले कल में, याद बनकर
मैं एक अच्छी याद चाहता हूँ॥
मैं सबकी दुआएँ चाहता हूँ,
मैं सबसे मिलना चाहता हूँ,
सबके लिए एक अच्छी ख़बर चाहता हूँ
जाता हुआ मैं कुछ कहना चाहता हूँ॥
गिले शिकवे भूलकर सब,
तुम सबको ही गले लगाना
कोई यदि ना याद करे तुमको तो,
नए साल में तुम ही क़दम बढ़ाना॥
बांटकर प्रेम के फूल तुम सबको
मुझे हर्षित कर, विदा कर जाना
कि जाता हुआ दिसम्बर तुमसे
ये कुछ कहना चाहता है॥
आत्मसम्मान को मत गवाना…
फिर कैलेंडर ने दस्तक दी
फिर कैलेंडर ने दस्तक दी है,
नव वर्ष की अपने आने पर
काम पूरा कोई, कोई अधूरा
चलता रहेगा ये मेला ठेला
कागज पर सिर्फ़ एक
तारीख बदल रही हैं,
बस कुछ नहीं बदलेगा॥
वही झूठा दिखावा
झूठी शान का गुमान
वही झूठा इंसान भी
फिर से झूठ बोलेगा
तारीख बदल रही हैं,
कुछ नहीं बदलेगा॥
यदि ज़मीर जाग उठे तो,
बोल देना अपने आप से सच
और वह करना जिसे देखकर तुम्हें,
खुश होने के दिखावे की,
झूठी ज़रूरत ना पड़े
होटों पर तुम्हारे मुस्कान सजे,
क्योंकि तारीख बदल रही है
कुछ नहीं बदलेगा॥
नव वर्ष का स्वागत तुम,
किसी नए उद्देश्य से नहीं
अपने उद्देश्यों के पूरे करने से करना।
किसी को दुख ना देना तुम
और किसी की बद्दुआ ना लेना,
क्योंकि तारीख बदल रही है
कुछ नहीं बदलेगा।
तुम्हारे शहर की फिज़ा
तुम्हारे शहर की फिज़ा अलग हैं
प्यार तो जैसे विका पड़ा है …
हैं ये नीलामी अपने ही दिल की,
जर्रे जर्रे पर जहाँ फ़रेब छुपा है॥
हर कोई राजा है अपने दिल का
शतरंज दिल का यहाँ बिछा हुआ है …
हम तो मोहब्बत में मशरूफ थे,
आज तेरी वफ़ा का हमें पता चला है…
तुम्हारे शहर की फिज़ा अलग है
प्यार है तो जैसे विका पड़ा हैं…
बहुत हुआ अब कत्था लगाना
ये प्रेम का पान तो बटा हुआ है…
सोच रहा हूँ में टिकट कटा लूं
मेरे गाँव का मुझे पता चला है…
मेरे विचार से “व्हाट्सएप”
आज मैं व्हाट्सएप की,
गलियों में घूम आया।
फिर सोचा मैंने,
वहाँ क्यों समय गवाया॥
मैसज देखकर जब अपने अंदाज़ से,
मोबाइल फ़ोन पर मेरे,
कुछ समूहों को मैंने फुलफिल
हरा भरा-सा पाया॥
कुछ समूह का आनंद लिया,
मैंने बहा बाते करके ही,
कुछ में जाकर टांग अड़ाया,
उत्तर दे प्रश्नों के सुलझाया॥
कुछ जन परिचित मिले,
वहाँ रोज़ के मेरे साथ के,
कहीं बिना पहचान के लोग
देखकर ही में तो लौट आया॥
इतने समूह में मैंने आख़िर,
क्या कोई एक दोस्त बना पाया।
यह पूछा मेरे दिल ने मुझसे,
मुझे मेरे दिमाग़ ने टटोला॥
फिर मैंने व्हाट्सएप के सभी,
सदस्यों पर एक नज़र घुमाया।
कुछ जाने पहचाने परिचित मिले,
कुछ राम-राम करते हुए पुराने मिले॥
कुछ नए अजनबी दोस्त बने
जिन्हें दोस्ती की तलाश थी।
और कुछ ऐसे भी थे जिन्हें
मुझसे काम की ही आस थी॥
हाथों में मोबाइल लिए,
बैठा रहा घंटों में,
पूरा पर एक दिन बीत गया
आंखें थक गई हो गई भारी॥
फिर सोचा मैंने,
इस दुनिया में सच!
क्या मैं किसी का हो पाया
क्या कोई सच्चा मित्र बनाया॥
दोस्ती यारी जिससे भी निभानी,
वह साक्षात, पास हो तो बेहतर है।
व्हाट्सएप की दुनिया है यारों!
मोबाइल अपडेट की है कहानी॥
अजनवी नमस्कार भी,
यहाँ सुंदर प्रतीत होती हैं,
इसीलिए देखकर, सोचा कि मैंने
व्यर्थ यहाँ इतना समय क्यूं गवाया॥
एक किरदार ऐसा भी …
किनारा कर गए आज,
रिश्ते, नाते, दोस्त सारे
उनके एहसान चुकाना
कहाँ आसान था॥
किस्तों में देते रहे
हम कतरा कतरा
मूल से भी ज्यादा,
उनका व्याज था॥
गैरों ने संभाला,
उसका जनाजा आखिर,
कमबख्त उसे उम्र भर
रिश्तो पर नाज़ था॥
ताउम्र करता रहा मदद
खुला रखा अपना आशियाँ
सबके लिए जिसने रखी भावना
उसके लिए न बची ज़मीन न आसमां॥
सबकी ज़ुबान पर उसका चर्चा
सबकी ज़ुबान पर उसका नाम था
हमदर्द, मददगार और किसी के लिए
वो सिर्फ़ एक किरदार था। ।
अच्छा हुआ दोस्त
अच्छा हुआ दोस्त,
जो भ्रम टूट गया
साथ होने का तेरा वादा,
जो अब छूट गया॥
तुझे बादशाही मुबारक
तेरे शहर की,
मुझे मेरे गाँव का
मुसाफिर ही रहने दे॥
अच्छा हुआ चलन नहीं रहा
अब किसी के विश्वास का
खुद के खुदा को आखिर
किसी की कोई तलाश कहा॥
दोस्ती के लिए तेरा अक्सर,
मेरे घर आना, जाना, हम प्याला
वक्त के साथ-साथ अच्छा हुआ
किताबी बातों की तरह छूट गया॥
आज ठोकर खाई है
तब जाकर कहीं आज
मतलबी दुनिया की ये,
दोस्ती समझ आई॥
हमने तो कोशिश की थी
रंग ज़माने की यारी में,
तेरे विचारों की भी कहीं
बहुत गहरी खाई थी शायद॥
दोस्ती के लिए, कहाँ रहा गया
वह दोस्ताना माहौल पहिले जैसा
मैं तो मुसाफिर हूँ मेरे गाँव का ही,
मैंने तेरे शहर आना अब छोड़ दिया॥
पत्थर
उकेरते जाते हैं अक्स,
तो सितम ढाती हैं छैनी
यहाँ दर्द की परिभाषा
मेरी, जाने भला कौन
हूँ मोन ही बस मोन॥
बिखरी पड़ी है इमारतों पर
कई सालो से भाषाओं की,
उकेरी गई हर प्रतिलिपि यहाँ
मेरी दर्द की तस्वीर की तरह॥
में तराशा गया, तुम्हारे लिए
कभी गुम्मद हुआ मकबरे का
कभी सजाया गया मंदिरों में,
कभी दीवार तो कभी मीनार
और कभी नीव का पत्थर बना॥
ज़रूरतें तुम्हारी ही रही सदैव
और काटकर लाया गया मुझे
दास्तान तो तुम्हारी ही रही हैं
तराशा गया हमेशा ही मुझे॥
मेरे दर्द से तुझे न मतलब रहा
इंसान तू बहुत खुदगर्ज रहा
तू टुकड़े करता रहा लाख मेरे
पर मैं भी मज़बूत हूँ दिल से॥
अपनी ज़रूरत के लिए पूजा,
मैं दिल से सालेग्राम हो गया
तूने अपनाया जब भी मुझे
में तेरा मकान की दीवार हो गया॥
दिल तो बच्चा हैं जी…
सुनता कहाँ किसी की कभी
करता रहता ये मनमानियाँ…
दिलकश अदाएँ इसकी बड़ी
चुपचाप रहता संग खामोशियाँ
किसी को बताता बिल्कुल नहीं
मनमौजी बहुत करता नादानियाँ
गुमसुम नहीं ये, यह मालूम है
मुझे है पता दिल तो मशगूल
अपनी ही धुन मैं रहता है ये,
छुटपन-सी करता है शैतानियाँ
फिर भी संभालू मैं तो इसे
डर लगता भटक न जाए कहीं …
इसे ज़िन्दगी का अनुभव नहीं
हाँ ये दिल तो बच्चा है जी …
हाँ हाँ थोड़ा कच्चा है जी …
दिल तो बच्चा है जी…
आशी प्रतिभा दुबे (स्वतंत्र लेखिका)
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
भारत
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