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आज भी देवदूत (angel) हैं
दोस्तों क्या अपने देवदूत (angel) के बारे में सुना है… तो चलिए… आज हम पढेंगे डॉ. वी.के. शर्मा जी द्वारा लिखे कुछ संस्मरण… डॉ. वी.के. शर्मा जी एक बेहतरीन साहित्यकार हैं… अब तक उन्होंने कई विधाओं में साहित्यिक सृजन किया है… लीजिये… पेश हैं इनके द्वारा लिखे हुए कुछ संस्मरण…
उन दिनों मेरी नियुक्ति तंज़ानिया में काफ़ी रिसर्च इन्स्टीट्यूट ल्यामुंगो में थी। ल्यामुंगो से अरूशा ३५ मील दूर था। हमारी बेटी शुचि अरूशा स्कूल में पढ़ती थी। वह यहाँ बोर्डिंग होस्टल में रहती थी और हम उसे शनिवार शाम को घर ले आया करते थे और सोमवार को स्कूल समय से पहले ही पहुँचा देते थे। इस बार हम सभी शुचि को अरूशा स्कूल छोड़ने के बाद दार-ए-सलाम के लिए चले थे। हम अपनी ही गाड़ी से जा रहे थे। इस यात्रा में ७, ८ घण्टे लगते हैं॥ बच्चे हमेशा पिछली सीट पर और पत्नी आगे की सीट पर और मैं स्वयं ही गाड़ी चलाता था।
लगभग आधी यात्रा के बाद कोरोगवे में एक होटल की पार्किंग में खाना खाने के लिए रुके। बहुत लोग यहाँ खाना या अल्पाहार लेते हैं। यहाँ थोड़ा रैस्ट मिल जाता है। खाना हम घर से ही लाते थे क्योंकि इस मार्ग में शाकाहारी खाना नहीं मिलता था और जब भूख लगे, सुरक्षित स्थान पर गाड़ी रोक कर खाना खा लिया करते थे। साधारणतया यह ऐसा स्थान होता था जहाँ कुछ दुकानें या पैट्रोल पम्प हो। मार्ग में वन्य पशु सड़क के आर-पार आते जाते रहते थे, उनके लिए आप को गाड़ी दूरी पर ही रोकनी होती थी। कभी-कभी स्थानीय निवासी गाड़ी रुकी देख कर आपसे धन या कुछ और मांगने के बहाने आपसे दुर्व्यवहार करने के लिए तैयार रहते थे।
खाना खाने के लगभग आधा घण्टा बाद २, ३ बजे के मध्य, हम अभी कुछ ही दूर गये होंगे कि हमारी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई। पता नहीं चला कि वह कैसे सामने मिट्टी के ढेर से टकराई और वापस मुड़ कर सड़क के किनारे के पास मिट्टी के ढेर के साथ खड़ी हो गई। इस मार्ग पर टैंकर तथा बसें और छोटे वाहन चलते रहते हैं इसलिए आने जाने वाली गाड़ियों का तांता लगा रहता है।
जैसे ही अपनी गाड़ी टकरा कर खड़ी हुई, सामने से आ रही सफ़ेद रंग की गाड़ी रुकी। चालक और एक व्यक्ति (अफ़्रीकन) हमारे पास आए, गाड़ी के आगे के भाग को देख कर मुझे बाहर निकाला। चालक वाली ओर पहाड़ी की तरफ़ थी और वहाँ २ फुट गहरी नाली थी, ऊपर खींच कर बाहर निकाला। दूसरी ओर खुला स्थान था। बेटा और पत्नी बाहर सड़क पर आगये। सामने वाली गाड़ी से उतरे व्यक्ति ने मुझे पूछा, “आप ठीक हैं और कहाँ जा रहे हैं?” मैंने कहा, “ठीक हूँ और हम लोग दार-ए-सलाम जा रहे हैं।” और उस व्यक्ति ने कहा, “गाड़ी का मुंह अरुशा की ओर है आप कह रहे हैं कि हम दार-ए-सलाम जा रहे हैं।” साथ ही गाड़ी की ओर संकेत किया। मुझे पता ही नहीं चला कि गाड़ी कब टकराई और मुड़ी।
अब पता चला कि हमारी गाड़ी ने आधा चक्कर काट कर वापस अरुशा की ओर मुंह कर लिया था। उसका अगला भाग पहाड़ वाली ओर था, बोनैट के कारण अधिक हानि नहीं हुई थी। बोनैट ऊपर उठा हुआ था। इसलिए लगा कि वह पिचक गया है। उस व्यक्ति को बताया कि हम लोग अरुशा से आ रहे हैं और मैं ल्यामुंगो में भारत से वहाँ प्रतिनियुक्ति पर हूँ। उसने कहा अच्छा हुआ कि आगे पीछे से कोई गाड़ी नहीं आई, अन्यथा टक्कर हो जाती। यह गाड़ी इस समय चलाने योग्य नहीं है और इसे यहाँ से ले जाने का प्रबन्ध मैं कर दूंगा। यहाँ से थोड़ा आगे छोटा अस्पताल है, वहाँ तक आप सब मेरे साथ चलिए और अपने चालक को सामान लाने को कहा। हम लोग उसके साथ हो लिए। मार्ग में मैंने उसे अपना पूरा परिचय दिया। उसने पूछा “मैं अरूशा ही जा रहा हूँ, यदि किसी व्यक्ति को संदेश देना हो तो बताइए।” मैंने उसे मोशी में एक मित्र ए-सी चोपड़ा का पता बता दिया और उसे कहना कि हम उनके यहाँ परसों को नहीं आ सकेंगे।
वह व्यक्ति शिष्टाचारी, उच्च अधिकारी और संभ्रांत लगा, उसके गले में सोने की चेन थी। उसने अपना परिचय नहीं दिया। स्वास्थ्य केन्द्र के पास उस व्यक्ति ने अपनी गाड़ी रुकवाई और वहाँ से हमारी गाड़ी को उठा कर यहाँ लाने को कहा और कुछ दिन बाद दार-ए-सलाम से हम उठवा लेंगे। उसने वहाँ से हमारी ड्रैसिंग करवाई और बस स्टाप पर छोड़ कर जाने लगा तो हमने उसका धन्यवाद किया। ऐसे देवदूत होते हैं, अपना नाम तक नहीं बताया और पूरा प्रबन्ध कर गया। उस समय शाम के चार बजे गए थे। कुछ ही देर में बस आई और हमें वहाँ खड़े देख रुक गयी। कंडक्टर ने बस में चढ़ने को कहा और हमारे पास एक ही बैग था। हमें आगे बिठाया और हमें दो टिकट दार-ए-सलाम के दिए। रास्ते में बस में ही रेडियो समाचार में अपने बारे में सुना कि एक परिवार जो अरुशा से दार-ए-सलाम आ रहा था। गाड़ी नं TDL २६१ की दुर्घटना शाम ३ बजे के लगभग हुई है। उसमें सभी सुरक्षित हैं और बस से दार-ए-सलाम आ रहें हैं। अब आप अनुमान लगाइए वह व्यक्ति कितना नेकदिल और सहायक था। हमारे लिए तो वह भगवान का दूत था। इसलिए उसका चेहरा आज भी स्मरण है। भगवान उसका भला करे।
खदराला का भ्रमण
खदराला जाने का अवसर मुझे १९७८ में मिला। शिमला से वाहन द्वारा टैक्सी या बस द्वारा ही वहाँ पहुँचा जाना संभव था। शिमला से बस द्वारा नारकंडा होते हुये सुंगरी-खदराला-रोहरू मार्ग पर जाना पड़ता है। नारकंडा तक तो सड़क पक्की थी और आगे कच्ची थी, परन्तु अब पक्की है। लगभग ११० किलो मीटर की यात्रा है परन्तु समय ७, ८ घंटे लग गया था।
हिमाचल प्रदेश के शिमला ज़िला में एक बहुत पुराना खदराला नाम का छोटा-सा गाँव है। वैसे तो शिमला ज़िला में गाँव फैले होते हैं। एक स्थान पर ४, ५ घर आसपास होते हैं तथा थोड़ी दूर ४, ५ घर और होंगे। यह स्थान समुद्रतल से लगभग २७०० मीटर की ऊंचाई पर है और यहाँ सदा ही ठंड रहती है। पुराने हिंदुस्तान-तिब्बत मार्ग पर होने के कारण उस समय यहाँ चहल-पहल होती थी। यहाँ से ही खच्चरों पर सामान चीन को जाता और आता था। व्यापारी यहाँ रात को विश्राम कर लेते थे। यहाँ बन विभाग का पुराना विश्राम गृह, डाक खाना और बैंक हैं। इस विश्राम गृह में नैशनल जियोग्राफी के अंग्रेज़ों के समय के कुछ अंक थे। यहाँ भारतवर्ष के पहले प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु और उनकी बेटी इन्दिरा गाँधी आये थे और इसी स्थान से नेहरू जी ने स्थानीय लोगों को सम्बोधन किया था।
यह क्षेत्र पहले आलू उत्पादन का प्रमुख केंद्र था और सीट पोटैटो के लिये जाना जाता था। आलू के कंद ही आलू का बीज कहा जाता है। दक्षिण भारत में इसी को आलू की बुवाई के लिये प्रयोग किया जाता है। खाने के लिये बहुत सुन्दर और अच्छा है। सन१९५० के आसपास यहाँ राज्य के कृषि विभाग ने सेब और अन्य समशीतोष्ण फलों का बागीचा लगाया जिसे देख कर स्थानीय लोगों ने सेब के बागीचे लगाने शुरू किये थे। कृषि विभाग का यह बागीचा अब उद्यान विभाग के अधीन है। यह बागीचा पुरानी हिंदुस्तान-तिब्बत मार्ग पर खदराला बन विभाग के विश्राम गृह से थोड़ा आगे है।
खदराला में यह सबसे विशाल और बड़ा अच्छा सेब का बागीचा लगा हुआ था और अब भी है। यहाँ सेब के अतिरिक्त और भी फलों के पेड़ थे। इन पेड़ों पर अप्रैल के अंत से मध्य मई में फूल आते हैं जो एक महीने बाद फल बन जाते हैं। फल के प्रकार और जाति के अनुसार फल पकने आरम्भ होते हैं और सितम्बर तक पेड़ पर रहते हैं। मई से सितम्बर तक पेड़ों पर सुन्दरता रहती है और पर्यटकों के लिए यही समय आनंद लेने का है। खुबानी, प्लम, चैरी और आड़ू के फल पहले तैयार होते हैं। सेब के फल जून के अंतिम से सितम्बर तक तैयार होते हैं। यहाँ के फल सुन्दर, बड़े और रसदार होते हैं तथा लम्बे समय तक भंडारित किये जा सकते हैं। चैरी के फलों के लिये बड़ा ही उपयुक्त स्थान है। गहरे लाल या जामुनी रंग के फल बड़े मीठे और रसीले होते थे। ब्लैक हार्ट नामक जाति प्रमुख थी। सन १९७० तक यहाँ की चैरी के फल राष्ट्रपति निवास तक जाते थे।
विभाग का बागीचा मुख्य सड़क से निचली तरफ़ लगा हुआ था। मैंने तो ऐसा बागीचा पहली बार देखा था। आधे से अधिक खुले समतल भाग पर लगा हुआ था और शेष भाग कंटूर पर था। सभी पेड़ पंक्तियाँ में लगे हुये हैं। शीत ऋतु में प्रायः ५-८ फुट बर्फ पड़ने के कारण भूमि में नमी बनी रहती थी। जल का स्रोत पास ही था। वर्षा का जल एकत्रित करने के लिये पक्का तालाब बनाया गया था और आवश्यकता होने पर जल का प्रयोग किया जाता था। वहाँ बिजली नहीं थी इसलिये सभी काम दिन में ही करने होते थे। सायंकाल में लैंप जला कर ही खाना बनाना होता था। विश्राम गृह, निवास गृह, कार्यालय, प्रयोगशाला आदि के भवन बहुत सुन्दर थे। दृश्य बहुत मनमोहक और आकर्षक है। सामने मुराल ढांडा आदि की बर्फ से ढकी चोटियों को देखना बहुत अच्छा लगता है। बागीचे की देखभाल करने वाले वहाँ अकेले ही होते हैं, वहाँ आसपास कोई नहीं होता। गाँव भी दूर धा। उन दिनों वहाँ दो निरीक्षक और कुछ कर्मचारी थे मन में विचार आते कि कितना परिश्रम कर यहाँ पेड़ लगाये होंगे। गड्ढे तैयार करने, खाद और पेड़ लाने का काम करना कठिन था। कहाँ से श्रमिक लाये गये होंगे और कौन उनकी देखभाल करता था। आज तो सब काम सुगम है। मेरा वहाँ एक दिन का ही काम था तथा एक दिन जाने के लिए लगा और एक दिन वापस आने को लगे। दो रात रहने का समय मिला और ऊपर से नीचे तक का बागीचा देख कर आश्चर्य और प्रसन्नता हुई।
अब तो पर्यटन विभाग ने यहाँ होटल खोला है। निजी होटल, दुकानें और ढाबे हैं। शीत ऋतु में विंटर सपोर्ट करवाये जाते हैं। खेल प्रेमी देश विदेश से आते हैं। उनके ठहरने आदि की व्यवस्था अच्छी है।
पुरानी यादें
आज की पीढ़ी को तो इससे वास्ता नहीं पड़ा होगा। उसे तो खानों वाली (गणित) , दो लाइन (हिंदी) और चार लाइन (अंग्रेज़ी) की कॉपी और नटराज, कैमलिन की पेंसिल, बालपैन दी गई होगी। तब से अब तक बहुत कुछ बदल गया है, स्वाभाविक है। शिक्षा के क्षेत्र में बहुत कुछ बदल गया है।
पट्टी पर लिखना
यह लकड़ी की पट्टी या तख्ती बहुत पहले कक्षा एक से लिखने के लिये प्रयोग में लाई जाती थी। इस पर गाजनी या पीली मिट्टी को पानी के साथ घिसा कर लेप की तरह लगाकर धूप में सुखाया जाता था। गाजनी विशेष प्रकार की हल्के पीले रंग के घुलनशील पत्थर की तरह का पदार्थ है। पीली मिट्टी को एक गोल टिकिया की तरह जमाया हुआ होता है। शीघ्र सुखाने के लिये पट्टी हाथ में लटका कर इधर उधर हिलाया जाता था, इससे वह शीघ्र सूख जाती थी। शिक्षक को मास्टर जी कहा करते थे, उनसे लिखने के लिये पट्टी पर पैंसिल से लाइन लगवा लेते और फिर क़लम से उस पर लिखा जाता था।
काली स्याही की मिट्टी की दवात, बोका या बुदका में क़लम डुबो कर सुन्दर अक्षरों में हिन्दी या उर्दू लिखा जाता था, सुलेख होना चाहिये। दवात में सूफ या कपड़े की कतरनें डालते थे ताकि डोबा लेने में सुविधा रहे। इससे स्याही गाढ़ी रहती थी और गिरती भी कम थी। पट्टी पर सुलेख लिखने के लिये अभ्यास आवश्यक था। आरम्भ में मास्टर जी पैंसिल से पट्टी पर लिख देते और उसके ऊपर स्याही से हम लिखा करते थे। सभी अक्षर और अंक एक समान होने चाहिए। कभी-कभी डांट भी पड़ती थी और सुलेख लिखने पर बल दिया जाता था।
पहली कक्षा से चौथी कक्षा तक यही कापी होती थी। भाषा और गणित इसी पर होता था। कागज़ पर नहीं लिखा जाता था। लिखने की क़लम दो प्रकार ही होती थी। साधारण क़लम की नोक शीघ्र ही टूट जाती थी इसलिये बांस की क़लम अच्छी मानी जाती थी। गुरु जी क़लम बना देते थे। जब कभी साथ वाले लड़के से अनबन हो जाये तो क़लम हथियार बन जाती थी। एक दूसरे को चुभा देते थे। स्कूल से बाहर घर आते हुये कभी-कभी पट्टी ढाल बन जाती थी और फिर टूट जाती थी। कलम, पट्टी, पैर और हाथ लड़ाई के हथियार बन जाते परन्तु अगले दिन सुलह हो जाती थी। आज यह सब कुछ नहीं है और उस समय हमारे लिये यही सब कुछ था। पहाड़े और गणित भी उसी पर लिखा जाता था और पहाड़े जुवानी याद करने होते थे और वह भी सुर में होता था।
तीसरी कक्षा से स्लेट पर गणित का अभ्यास करवाया जाता था। स्लेट पर लिखने के लिये सफेद सलेटी होती थी। उसकी नोक बारीक रखने के लिए दांत से चबा लेते थे। स्लेट को साफ़ करने के लिये कपड़ा कमीज़ या थूक ही होता था। कोई देख न ले इसलिये अंगुली पर थूक लगा कर स्लेट साफ़ कर ली जाती थी। शायद इस तरह कैल्शियम का अभाव न होता हो। पहली से चौथी कक्षा तक बच्चों को बैठने के लिए लम्बा बैंच होता था। पीछे सहारे के लिये १० इंच पट्टी लगी होती थी। एक बैंच पर ४ बच्चे ही बैठते थे। पांचवी कक्षा से एक डैस्क पर २ बच्चे ही बैठते थे और पीछे सहारा होता था। प्रायः २ डेस्क जोड़ दिये जाते थे। सभी का मुंह ब्लैकबोर्ड की ओर होता था।
पांचवी कक्षा से कापियों पर लिखने का काम आरम्भ होता था। हिन्दी के लिये साधारण लाईन वाली और अंग्रेज़ी के लिये चार लाइन की कापी होती थी। चार लाइनों में पहली और चौथी लाइन लाल रंग की तथा दूसरी और तीसरी नीले रंग की होती थी। लिखने के लिये होल्डर होते थे जिसमें हिन्दी और अंग्रेज़ी लिखने के लिये पृथक-पृथक निब लगती थी। तांबिया रंग की जी वाली निब अंग्रेज़ी के लिये और सुनहरी विवरली की हिन्दी आदि के लिये प्रयोग में लाई जाती थी। डेस्क पर ही दवात फिट होती थी और उसमें नीली स्याही चपरासी पहले ही डाल देता था। नवम कक्षा में आने पर कुछ बच्चों को फाउंटेन पैन मिल जाता था।
परिवर्तन
अब हर बच्चे को पृथक डेस्क और बैंच या कुर्सी मिल जाती है। कलम, पैंसिल, फाउंटेन पैन के स्थान पर बालपैन है। पट्टी और स्लेट का कोई काम नहीं। आज तो स्मार्ट क्लासरूम की सुविधा है। शिक्षा का स्तर ऊंचा हो गया है। कुछ विषय या बातें जो हमने कालेज में पढ़ी थीं वह अब स्कूल में पढ़ाई जाने लगी हैं। यह बात बहुत अच्छी है। देश के अधिकांश स्कूलों में आज भी प्रायमरी कक्षा के लिये दरी या टाट ही उपलब्ध हैं और उन्हें स्कूल में पढ़ाने के लिये शिक्षकों को परिश्रम करना पड़ता है। इस क्षेत्र में बहुत कुछ करने को है तभी सभी साक्षर होंगे।
डॉ. वी. के. शर्मा
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