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प्रकृति का कहर (nature’s woes)
प्रकृति का कहर (nature’s woes): थोडी़ छूट मिलने पर वे काफ़ी दिनों बाद घर से निकले। दूर बगीचे से पार एक नदी बहती थी, वहाँ पहुँचे। मास्क उतार कर एक वृक्ष की छाँव में बैठे। एक ताज़ा सुगंधित हवा का झोंका उनके नाक के माध्यम से भीतर पहुँचा। एक ठ़ंड़क-सी महसूस हुई। शरीर में ताज़गी और स्फूर्ति आ गई।
चारों तरफ़ पेड़ ही पेड़, चिड़ियों की चहचहाहट, सूरज देव का आगमन और पशुओं का झुंड़ बनाकर घांँस चरने जाना; यह सब महसूस कर उन्हें लगा कि वे पौरोणिक युग में पहुँच गये है। इतने लंँबे जीवन में इतनी ताज़गी भरी सुबह पहली बार नसीब हुई।
शहरों में तो मिलें, गाड़ियों की रमझट, सीमेंट कंक्रीटी करण आदि से प्रदूषण काफ़ी बढ़ गया था। अब गाँव भी इन सबसे अछूते नहीं रहे। वन कटने लगे। तालाबों का पानी गंदा हो गया।
आज बड़ा अच्छा महसूस हो रहा था। पर, यह सब तब हुआ जब हम एक भयानक आपदा से आमने सामने हुए। काश! सबने पहले ध्यान दिया होता तो यह दिन न देखने पड़ते। अब भी संभलने का वक़्त है। ऐसे समय में बा बापुजी की याद हो आयी। वे पहले से ही इन सब बातों के प्रति सजग रहने की सलाह दिया करते थे।
परंतु आगे बढ़ जाने की जिजीविषा में हमने बहुत कुछ खो दिया, आचरण, अनुशासन, चरित्र और स्वास्थ्य।
वे धीरे से उठ खड़े हुए। सूरज भगवान को प्रणाम कर आसमान की तरफ़ हाथ जोड़ते हुए प्रार्थना की, -” हम सब आपकी संतान है। हमें माफ़ करे। आगे से हम संभल कर जीवन व्यतीत करेंगे।
ऐसा कर ना उन्हें अच्छा लगा। पेड़ों पर चिडियों की चहचहाहट बढ़ गयी थी।
पर्यावरण रक्षा
वे हर रोज़ की तरह घर के पीछे आँगन में पेड़-पौधों को पानी पिला रहे थे। साथ ही घाँस आदि को साफ़ करते जा रहे थे। नन्हाँ काव्य उनके साथ टहल भी रहा था और ज्ञान विज्ञान के बारे में पूछ भी रहा था।
बात चल पड़ी, पर्यावरण और पेड़पौधों की ज़रूरत और सुरक्षा की। वे काव्य से कह रहे थे, पेड़ पौधे हमारे जीवन के लिये कितने उपयोगी है, वे अशुद्ध वायु को ग्रहण कर हमें जीवन-दायिनी शुद्ध हवा प्रदान करते है।
परंतु हम मानव इस बात की क़दर नहीं करते है।
पेड़पौधे काट कर अपने लिये विनाश का साधन जुटाते है। यह जो बारिश का न होना, या होना प्रदूषण आदि, भूकंप, और अन्य तूफान आदि का आना, नदी नालों में मीलों के गंदे पानी का बहाना, हम सबके लिये सबक है। हमें अब भी संभल जाना होगा। नहीं तो एक दिन ऐसा आयेगा कि हम शुद्ध वायु को तरस जायेंगे।
तभी बाहर शोर उठा। देखने पर पता चला एक व्यक्ति पेड़ों की अवैध कटायी कर रहा था। वनविभाग के स्टाफ ने उसे पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया है।
काव्य भोलेपन से बोला-“, दादा यह व्यक्ति कितना ग़लत काम कर रहा था। यह हम भावी पीढ़ियों का अपराधी है, इसे सजा अवश्य मिलनी चाहिए।”
-“हाँ बेटा, हमें पेड़पौधों को नुक़सान नहीं पहुँचाना चाहिये। उसकी अच्छे से देखभाल करनी चाहिये। हर जन्मदिन पर पाँच पौधे अवश्य लगाना चाहिये। साथ ही हमें अपने आसपास की साफ़ सफ़ाई का भी ध्यान रखना चाहिये। ताकि आनेवाले दिनों में हमें किसी गंभीर मुसीबत या महामारी का सामना न करना पड़े।”-वे कह रहे थे।
उन्होंने ने देखा काव्य अपने नन्हें हाथों से गमलों की सफ़ाई कर रहा था। साथ ही छोटे मग से पानी भी ड़ाल रहा था। वे मुस्कुरा दिये। अब उन्हें लगा हमारा देश इन अबोध हाथों में सुरक्षित है।
मालिक पैसे काट लेगा
पिछले बरस की बात है। मई माह की चिलचिलाती धूप। पारा ४५ डिग्री को छू रहा था। राष्ट्रीय मार्ग पर स्थित राजू ढ़ाबे में ग्राहकों की लंबी भीड़ लगी थी। दोपहर के भोजन का समय था। आने जाने वाले सभी यात्री, ट्रक ड्राइवर, कंडक्टर आदि भोजन के लिये यहीं पर रूकते थे। सभी भोजन करते थे। सुस्ताते थे। पसीना पोंछते हुए तृप्त मन से अपने सफ़र पर निकल पड़ते थे।
ढ़ाबे का मालिक पैसे वसूलने में व्यस्त था। वेटर रामू आर्ड़र लेता जा रहा था और रसोईया गरमागरम तंँदूरी रोटीयांँ सेंकता जा रहा था। साथ हीपास रखे गंदे तौलिए से अपने माथे का पसीना भी पोंँछते जा रहा था।
-“एक रोटी दे दो बाबा। भगवान आपका भला करेगा। बड़ी भूख लगी है।”-मैले कुचेले कपडो में एक आठ वर्षीय बालिका हाथ में अल्युमिनियम का कटोरा लिये खड़ी थी।
रामू ने देखा। रोटियाँ परोसते हुए उसे अपने पुराने दिन याद आ गये, जब वह भी इसी तरह, भूखा प्यासा, एक रोटी के लिये दर-दर की ठोकरें खा रहा था। उसने रोटी को ग्राहक की प्लेट में परोसा और दूसरी रोटी के लिये तंदूर की तरफ़ देखने लगा।
मालिक ने रामू को देखा, और एक भद्दी गाली दी’ “ईधर उधर क्या देख रहा है। पहले ग्राहकों को देख।”
रामू को लगा कि मालिक ने उसके मन की बात समझ ली है, कि वह चाहता था, तंदूर पर की रोटी मालिक की नज़र बचा कर उस लड़की को दे देने की। मालिक की डाँट सुन कर वह अपने पुराने दिनों को भूल गया। अब उसे केवल इतना याद था कि बाहर ग्राहक बैठे है और उसे जल्दी से रोटियाँ परोसनी है।
वह जल्दी-जल्दी हाथ चलाने लगा। उसे ड़र था कि अगर उसने ऐसा न किया तो मालिक आज फिर से पैसे काट लेगा…
परिंदे
अचानक अरूपा का फ़ोन आया तो अन्विति आश्चर्य मिश्रित भाव से उछल पड़ी। वे दोनों कालेज के दिनों की सहेलियाँ थी। फिर विवाह और बाद में बच्चे हो गये। धीरे-धीरे सम्पर्क टूटता गया। औपचारिक बातों के दौरान अरूपा ने बताया कि बेटी डाक्टर है, और वेलसेट है। बेटा एक्सपोर्ट इंपोर्ट बिजनेस में है, बहु हाउस वाइफ है, एक पोता भी है।
अचानक अरूपा के स्वर में तल्ख़ी आ गयी। पूछने पर बोली, -“आज बहु ने पहली बार उनका विरोध किया। सामने से जवाब दिया।” अन्विति समझ गयी। वह पढ़ीलिखी सफल गृहिणी थी। आजकल तो लगभग हर घर की यही कहानी है। सांत्वना आदि देकर पूछा तो अरूपा खुल कर बोली-“अब तक तो सब ठीक चला। पर, आज बहु कह रही थी, -‘बारह बरसों से आपको सुनते चली आ रही हूँ, अब नहीं… अब मैं भी कहूंगी… मेरा बच्चा भी अब बड़ा हो गया है। इस घर पर मेरा भी बराबरी का हक़ है’। बेटा भी आजकल बहु का होकर रह गया है। शिकायत करो तो हँस कर टाल जाता है। शायद अब वे अलग रहना चाहते है। पर, मेरे मोह का क्या करूं, मेरा तो इकलौता बेटा है। उससे अलग कैसे रह पाऊंगी।”
अन्विति ने अपनी बात कही कि मेरे भी दोबेटे है, बहुएँ है, एक प्यारा-सा पोता है। वे अपनी-अपनी जाब के सिलसिले में बड़े शहरों में रच-बस गये है। हम दोनों साल में दो बार उन सबके यहाँ जाते है। साल में दो तीन बार वे सब यहाँ आजाते है। और पारिवारिक कार्यक्रमों में तब एक साथ आ जुटते है। कोई दखल नहीं। सब स्वतंत्र, समझदार। ऐसे में प्रेम भी बना रहता है। आगे वे बोली-“शादी से पहले तुम ही कहती थी न कि सबको अपने ढ़ंग से जीने का हक़ है। बस यही बात फालो करे। साथ रहो तो प्रेमपूर्वक और अलग रहो तो भी मतभेद रहे पर, मनभेद नहीं हो।”
“-सारे मोह त्याग दो। यही मोह जीवन में हमें बहुत तकलीफ़ देता है।”
“-एक बात और बहु को बेटी समझ कर व्यवहार करो, फिर देखो वह तुम्हारे कदमों में आ बिछेगी।”
“अरुपा, बच्चे अब बड़े है गये है, उन्हें अपनी उड़ान उड़ने दो। नहीं तो आगे पछतावे के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं आयेगा।”
अरुपा ने फ़ोन रख दिया था। अन्विति सोच रही थी कि निजी सम्बंधों में हमारे “ईगो” ही आड़े आते है। वरना प्यार और स्नेह के बीच पारस्परिक मतभेद के लिये तो जगह ही शेष नहीं रह जाती।
वे अरूपा को जानती थी। मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि उनके बीच सब ठीक हो जाये॥
ऐसा भी हो सकता है
भोजन का समय हो चलाथा। टीवी पर धार्मिक धारावाहिक का प्रसारण हो रहा था। तभी दरवाजे पर दस्तक हुयी, और एक आवाज़ आयी-“भिक्षान देहि।” घर की महिला धार्मिक विचारों की थी। कुछ पका हुआ और कुछ कच्चा भोजन एक थाल में रख कर दरवाजे पर आयी। देखा, एक श्वेत दाढ़ी वाले दिव्य साधु दरवाजे पर खड़े थे। उनके ललाट में एक तेज था।
-“लीजिये बाबा।”-महिला ने कहा।
-“ठहरो देवी!” बुलंद आवाज़ में साधु बोले।
महिला ड़र गयी। हाथ जोड़ कर पूछा-“कोई भूलचूक हो गयी बाबा।”
-“नहीं। देवी। हम सिर्फ़ यह पूछना चाह रहे थे कि भोजन बनाने से पूर्व आपने हाथों को साबुन से धोया था। ठीक से सैनेटाईज किया था कि नहीं? आपका और परिवार जनों का कोरोना परीक्षण हो गया है कि नहीं। -“
महिला ड़र गयी-“नहीं बाबा। यह सब तो नहीं। पर, हाँ मैंने स्नान-ध्यान कर भोजन बनाया है।”
-“नहीं। नहीं। माते।”-हम यह अन्न ग्रहण नहीं कर सकते। आपका कल्याण हो। “
कह कर साधु आगे बढ़ गये। महिला ने अपने पतिदेव को पुकारा-“सुनिये जी। यह साधु बाबा नाराज होकर भिक्षा ग्रहण किये बिना जा रहे है।”
पतिदेव साधु के पीछे भागे-“नहीं। महाराज। इस तरह से मत जाईये। भोजन पूर्ण शुद्ध है। भोजन ग्रहण किजिये।”
-“यह क्या बड़बड़ा रहे है आप। कोई बुरा स्वप्न देख लिया क्या?”
पत्नी उन्हें झिंझोड़ कर जगा रही थी। उनींदे स्वर में वेअब भी कह रहे थे-“कहाँ गये साधुबाबा?”
पत्नी ने फिर कहा-“अरे आप किस साधु की बात कर रहे है। यहाँ कोई नहीं आया। आप तो गहरी नींद में सो रहे थे। जागना नहीं है। सुबह हो गयी है।”
वे आँखे मलते हुएउठ कर बैठ गये। माथे पर आये पसीने को पोंछा। फिर पत्नी को देखा। कुछ आश्वस्त हुए। ओह! तो यह… एक…सपना…ही था।
परंतु अगर सचमुच ऐसा हो गया तो।
वे ड़र गये। और बाथरूम की तरफ़ बढ़ गये।
ऐसे ऐसे वीर
महामारी का कठिन दौर। ऐसे में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की गतिविधियांँअपनी पराकाष्ठा पर हो रही थी। अच्छे काम भी हो रहे थे। सब ज़रूरत मंदों तक सहायता भी पहुँच रही थी। लोग अपनी-अपनी हैसियत से सबका भला करने में जुटे थे।
ऐसे ही समय में एक दानवीर से मुलाकात हुई। उनसे पूछा गया, -आपने इस कठिन समय में ऐसा कौनसा काम किया, जिससे आपको कोरोना वीर की श्रेणी में रखा जाये।
उनके चेहरे पर मुस्कान आयी। फिर वे बोले-” इस कठिन दौर में साधारण व्यक्ति यों को गुडाखु, तम्बाकू और सीगरेट बीड़ी आदि सुलभ नहीं हो रहा है। बेचारे पांच रूपये की चीज सतर रूपयों में खरीद रहे थे। कुछ साथियों की सहायता से हमने इन्हें उचित मूल्य पर यह सब वस्तुऐं सुलभ करायी।
लोग भूखे रह लेंगे पर यह सब नशा तो उन्हें चाहिए ही। ऐसे में उनकी मदद करना वाक ई बहुत महान कार्य था। उस महान हस्ती को नमन कर दूसरे मुहल्ले पहुँचे तो देखा एक युवक के कपड़े फटे हुए थे, उसे चोटें भी आयी थी। पूछने पर पता चला, मुहल्ले की शराब दुकान खुल गयी थी। भारी भीड़ लगी थी। एक बुढ़ा व्यक्ति गिरता पड़ता कतार में खड़ा था। उसे नशे की लत थी। उसे शराब की ज़रूरत थी। दया आ गयी तो सोचा चलो इसका भला किया जाये। कतार तोड़कर लड़ झगड़ कर उस बूढ़े व्यक्ति को शराब की एक बोतल मुहैया करायी। वाक ई यह भी बड़ा महान कार्य था। इस सैनानी को भी सलाम।
पड़ोस के ही एक मुहल्ले में अनाज और भोजन के पैकेट बंँट रहे थे। सफेद झक कपड़ों में एक समाज सेवक फोटो खिंचवाने में मशरूफ थे। ताकि दूसरें दिन अखबारों की सुर्खियाँ बटोर सके। इन्हें तो दो-दो बार नमन॥
इसी बीच एक ख़बर आ रही थी। एक ट्रक वालें ने हजारों रूपयों लेकर कुछ मजदूरों को उनके घर पहुँचाने का वादा किया और रूपये लेकर भाग खड़ा हुआ। इस वीर की वीरता को क्या कहियेगा? ऐसे ऐसे सैकड़ों उदाहरण आपको अपने आसपास नज़र आयेंगे। क्या आप उन्हें नमन करना नहीं चाहेंगे? हम तो आज कृत-कृतज्ञ हो गये। आप अपनी बताये?
महेश राजा
वसंत 51, कालेज रोड़, महासमुंद, छत्तीसगढ़
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