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सर्दी की छुट्टियाँ
सर्दी की छुट्टियाँ
हो गई सर्दी की छुट्टियाँ,
मनाओ मौज मस्तियाँ।
ठंड पड़ रही पुरजोर है,
कांप रही बड़ी हस्तियाँ।
गर्म रखो अपनी रजाई,
लो चाय की चुस्कियाँ।
तंग करता कोहरा ठंड,
खाली पड़ी हैं कुर्सियाँ।
खाओ गच्चक रेवड़ी,
और गर्म मूंगफलियाँ।
घोषित शीत अवकाश,
शिक्षकों हेतु डुबकियाँ।
हर कोई बंद कमरे में,
तट खड़ी हैं किश्तियाँ।
मनसीरत सर्दी या गर्मी,
बसती रहेंगे ये हस्तियाँ।
रूठे-रूठे से हैं वह लगे
रूठे-रूठे से हैं वह लगे,
फीके-फीके से हैं वह लगे।
नजरों से नजरें मिली नहीं,
तीखे-तीखे से हैं वह लगे।
बातों में सच्चाई कहीं नहीं,
झूठे-झूठे से हैं वह लगे।
आँखे आँसू से भीगी हुई,
भीगे-भीगे से हैं वह लगे।
खुद ही ख़ुद में खोये हुए,
खोये-खोये से हैं वह लगे।
मनसीरत सूरत भी थकी,
सोये-सोये से हैं वह लगे।
चाँद सितारें झूठें हैं
सभी चाँद सितारें झूठे हैं,
खाली दिल प्रेम के भूखे है।
गैरों से उम्मीद क्या करनी,
खुद अपने हम से रूठें हैं।
पंछी खो कहीं छाया नहीं,
नजर भी कभी के सूखें हैं।
ऊपर से सूरत चिकनी सी,
रंग-ढंग लगते फीके हैं।
प्यार की भाषा आती नहीं,
मिजाज सभी के रूखें हैं।
मनसीरत भी सात्विक नहीं,
बर्तन भी तो सारे जूठें हैं।
ऐसी क्या बात हुईं
ऐसी क्या बात हुई,
दिन में ही रात हुई।
कैसी यह चाल चली,
क्यों भीतर घात हुई।
बादल तो पास नहीं,
पल् में बरसात हुई।
जीवन में आज कहीं,
यह पहली मात हुई।
मनसीरत जान गया,
कुछ् तो शुरुआत हुई।
सुनो सखी एक बात बताऊँ
सुनो सखी एक बात बताऊँ,
जन्म-जन्म तेरा साथ पाऊँ।
पत्ता-पत्ता डाली-डाली गवाह,
हवा बन कर मैं समा जाऊँ।
तितली-सी तू फूलों की रानी,
भंवरा बन तुझ पर मंडराऊँ।
नीरस जीवन की हो कविता
गीत ग़ज़ल सदा तेरे मैं गाऊँ।
मनसीरत तो है रमता जोगी,
मल्हार राग अनुरागी सुनाऊँ।
बेटी माँ की है परछाईं
बेटी माइके से चली आई,
ससुराल में आ कर समा्ई,
दो घरों से वह आने वाली,
होती हर घर में बेटी पराई।
बिन बेटी के हर घर अधूरा,
बेटी से होता है हर घर पूरा,
मां-बेटी का रिश्ता है प्यारा,
समझ पाये न कोई गहराई।
रौनक बेकी है बाबुल घर की,
पगड़ी होती बाप के सिर की,
फूलों जैसे है पाला जिस को,
निज हाथों से देता है विदाई।
बिना बोले माँ समझ जाए,
दुःख दिलों के है जान जाए,
कैसी भी हो बिटिया प्यारी,
बेटी माँ की होती है परछाईं।
बेटी से ही हर रिश्ता है बनता,
बेटी से ही हर घर है बसता,
बेटी के ही कारण है बजती,
जगत में घर-घर में शहनाई।
मोतियों की माला-सी है बेटी,
कब समझेंगे हम बहू को बेटी,
बेटों को मानते हैं घर का हीरा,
बेटी को क्यों मिलती रुसवाई।
बाबुल मैं तेरे सिर की पगड़ी
बाबुल मैं तेरे सिर की पगड़ी,
पगड़ी का सम्मान बढ़ाऊंगी,
तेरे ही तो आंगन की गुड़िया,
हर हाल मैं फ़र्ज़ निभाऊंगी।
तेरे-सी तो साये की परछाईं,
कभी नहीं करना मुझे पराई,
कुछ न मांगू तुझ से बाबुल,
भूखे पेट ही मैं सो जाऊंगी।
हाथ जोड़ करूं अराधना,
गर्भ के अंदर हमें न मारना,
तुम्हारे कुल की मैं मर्यादा,
मिट्टी में कभी न मिलाऊंगी।
बाप को होती प्यारी बेटियाँ,
नेह की भूखी बेचारी बेटियाँ,
चुपचाप सबकुछ सह लूंगी,
जरा भी नहीं मैं घबराऊंगी।
जब बेटे तेरे हो जाएंगे न्यारे,
छोड़ जाएंगे तुम्हे तेरे सहारे,
संपत्ति में भी न मागू हिस्सा,
तेरे ग़म बांटने चली आऊंगी।
मनसीरत क्या है रीत बनाई,
दो घर की हो कर भी पराई,
कोई तो हमें मान लो अपना,
हर बंधन में मैं बंध जाऊंगी।
प्रेम से प्यारा नजारा नहीं
प्रेम से प्यारा नजारा नहीं,
प्यार बिन कोई गुज़ारा नहीं।
देख ली दुनिया नहीं आसरा,
आप-सा कोई हमारा नहीं।
जी न पाएंगे बिना साथ के,
पास साया ग़र तुम्हारा नहीं।
रात दिन जी ना सकेगें यहाँ,
याद से बढ़ कर सहारा नहीं।
देख लो जी भर सितारें यहाँ,
ख्वाब का कोई किनारा नहीं।
मौज कर लो जो जहाँ में मिले,
ज़िंदगी मिलती दुबारा नहीं।
साथ मनसीरत बुरा ही सभी,
यार मरना अब कुंवारा नहीं।
बंद डायरी के पन्ने
झूठा था तू झूठ बोल गया,
झूठे सारे बोल-बोल गया।
खिलौना जानकर ख़ूब खेला,
खेल खेल कर मुंह मोड़ गया।
हर सुंदर सूरत पर मरने वाले,
कंचन काया कोरी भोग गया।
नाजुक-सा दिल तन मन मेरा,
दिल का खिलौना तोड़ गया।
जिस्म की ख़ुश्बू सूंघी सारी,
ठिकरा मुझपर ही फोड़ गया।
लूटी सारी यौवन की दौलत,
तू गैरों से रिश्ता जोड़ गया।
मनसीरत बंद डायरी के पन्ने,
जिन्दगी के पन्ने खोल गया।
भाव दिल में थे न कभी घटे
रात-भर बदलते रहे हम करवटें,
बिस्तर पर पड़ी बहुत-सी सिलवटें।
पहली नज़र की देखनी का सिला,
देखते ही प्यारी सूरत थे मर मिटे।
कांटों भरी डगर महबूब की गली,
पलभर भी थे पथ से न पीछे हटे।
फूलों से भरी बिछाई सेज प्रेम की,
पता नहीं रहते हैं हम से कटे-कटे।
कोशिशें मिलने की नहीं सिरे चढ़ी,
मिल नहीं पाये कभी थे भाग्य फटे।
मनसीरत है चाहे उसे हर हाल में,
भाव उनके दिल में थे न कभी घटे।
अभी दो सांस बाक़ी हैं
चलें आओ अभी दो सांस बाक़ी है,
प्रेम की फंसी गले में फांस बाक़ी है।
खुली कब से दोनों बाहें मेरी यूँ ही,
मिलने की छोटी-सी आस बाक़ी है।
लूटी खुशियाँ जुदाई ने हमारी सब,
फिर भी मुख पर उल्लास बाक़ी है।
हुई हैं चूर हड्डियाँ बदन में ही सारी,
सूखे से तन पर कुछ मांस बाक़ी है।
हुए हो दूर हम से तुम तो मनसीरत,
मिल न सकेंगे हम वनवास बाक़ी है।
घड़ी दो घड़ी ही सही
बैठ जाओ सामने घड़ी दो घड़ी ही सही,
देख लूं जी भर तुझे घड़ी दो घड़ी ही सही।
जिंदगी तो मेल है दिलों को यूँ जोड़ने,
कौनसी ज़िद पर अड़े घड़ी दो घड़ी ही सही।
दूँ दुहाई हो खड़ा सनम क़सम है तुझे,
उठ रहे हैं बुलबले घड़ी दो घड़ी ही सही।
हो गई है इंतहा सबर बाँध है टूट्ता,
दो पल खुशियाँ मिले घड़ी दो घड़ी ही सही।
बात मनसीरत कहे समझ लो परख लो यही,
आ न् जाएँ सिरफिरे घड़ी दो घड़ी ही सही।
मैं औरत मेरा वजूद हैं कहाँ
मैं औरत मेरा वजूद हैं कहाँ,
थककर हारी देख सारा जहाँ।
मायके से मैं ससुराल् आ गई,
छोड़ बाबुल घर-बार आ गई,
खाली हाथों क्यों आई यहाँ।
मैं औरत मेरा वजूद है कहाँ।
मैं हूँ-बेटी, बहन-पत्नी सखा,
दादी-नानी-मामी-चाची बुआ,
भाभी-चाची-मौसी-ननद मॉ,
मैं औरत मेरा वजूद है कहाँ।
फूलों से है भरी डाली-डाली,
मैं ही हूँ घर आँगन की माली,
फिर भी हूँ पराई यहाँ-वहाँ।
मैं औरत मेरा वजूद है कहाँ।
चौबीस घंटे करूं रहूँ चौकरी,
बिना तनख्वाह करूं नौकरी,
किस को कैसे बताऊँ कहाँ।
मैं औरत मेरा वजूद है कहाँ।
सोहनजूही बेल-सी अलबेली,
जीवन मेरा जैसे कोई पहेली,
सूना-सूना वीरान मेरा जहाँ।
मैं औरत मेरा वजूद है कहाँ।
यौवन से भरी हरीभरी पटारी,
हरमोड़ मैं देखूं खड़ा शिकारी,
जिस्मी रंग पाऊँ जाऊँ जहाँ।
मैं औरत मेरा वजूद है कहाँ।
आंचल मैं दूध आंखों मैं पानी,
सदियों से है मेरी यही कहानी,
कभी नहीं बदली कहीं व्यथा।
मैं औरत मेरा वजूद है कहाँ।
मनसीरत नारी अपमान नहीं,
औरत जैसा कोई महान नहीं,
छू नहीं पाए कहीं कोई बलां।
मैं औरत मेरा वजूद है कहाँ।
मैं औरत मेरा वजूद है कहाँ।
थककर हारी देख सारा जहाँ।
सफेद हो गया लहू
सफेद हो गया तन का लहू,
हाल ए दिल बयाँ कैसे कहूँ।
हो गया है दामन दाग दाग,
कैसे मन पर अवसाद सहूँ।
मन पर हो गया बोझ भारी,
भार का अवमान कैसे करूँ।
जिन्दगी की हर दफा बुरी,
जफ़ा का अपमान कैसे सहूँ।
लोग करते रहते कारशैतानी,
जन का व्यभिचार कैसे सहूँ।
आज़ाद परिंदे ही रहते खुश,
कैद से मैं निजात कैसे करूँ।
मनसीरत की सुन लो पुकार,
बिन दर्द आवाज़ कैसे करूँ।
जीवन हुआ है रूठा-रूठा सा
जीवन हुआ है रूठा-रूठा सा,
सांसों का साथ टूटा-टूटा सा।
बंदिशों में है जीना क़ैद हुआ,
सब्र का है बाँध टूटा-टूटा सा।
बेसहारा हुए हैं अपने घर में,
सहारों का हाथ टूटा-टूटा सा।
सहरों में रोशनी गुम-सी हुई,
किरणों का बिंब टूटा-टूटा सा।
खुली हवा में है दम घुटने लगे,
श्वासों का दामन टूटा-टूटा सा।
परिंदे क़ैद से हैं आजाद हुए,
इंसानों का तंत्र टूटा-टूटा सा।
हैवानियत की हदें हैं पार हुई,
ईश्वर का प्रताप टूटा-टूटा सा।
मनसीरत बातें करता सच्ची,
दिखता है दिल टूटा-टूटा सा।
जीना नहीं है आसान
अब जीना नहीं रहा है आसान,
लाशों से भरे पड़े हैं शमशान।
क्या हो गया खुदा के संसार को,
कोई भी रहा नहीं अब कद्रदान।
कब रुकेगा मौतों का काफिला,
कब लेगा कुदरत अपना संज्ञान।
कितनी जानों के हो गए हैं सौदे,
कितना ओर सहना हैं नुकसान।
बेवकूफियों की हदें पार देखकर,
सियाने भी बन चुके अब नादान।
मुल्क में रहा न कोई भी हितेषी,
काम न आ रहा दिया बलिदान।
मनसीरत देखकर है पागल हुआ,
गली और कूचे हो गए हैं सुनसान।
मानव रावण बन घर-घर बैठे
पग पग पाँव पसारे हैं बैठे
मानव रावण बन घर-घर बैठे
लंकेश्वर का पूतला फूंके
मन में रावण है घर कर बैठे
दानवता की चुनरी को ओढें
मानवता का ढोंग करने बैठे
अबला अब है कहाँ सुरक्षित
सीता को पर नर हरने हैं बैठे
धर्म नाम पर ध्वज फहराते
धर्म में अन्धे अंधर्मी बन बैठे
सत्य पर असत्य हुआ भारी
सत्यमेव जयते को हार बैठै
जन जन हो रहे व्यभाचारी
सच्चे झूठ तले दुबक के बैठे
निर्लज्जता हो गई है हद पार
पद प्रतिष्ठा तार-तार कर बैठे
मनसीरत मन हुआ पराजित
हालातों को बेकाबू कर बैठे
यार अमूल्य निधि
अज्ञाता जो थी एक साहित्यकार
साहित्यकार का किया तिरस्कार
काव्य भाव का दे कर के हवाला
कर दिया था समूह से बहिष्कार
समूह में सम्मिलित अमूल्य निधि
मिला मित्र स्वरूप सुन्दर उपहार
व्यथित मन की व्यथा को समझा
प्रिय मित्र का दूँ मैं हार्दिक उपहार
व्यक्तिगत वैचारिक आदान प्रदान
हंसी, कहकहे, ठहाकों की फुहार
दिनप्रतिदिन घनिष्ठता थी बढ़ गई
आपसी रिश्तों में खिल गई बहार
मित्रता प्रेमतंदों में बदलने लग गई
सुहाना लगने लग गया जग संसार
पिछले जन्मों का जो लेखा जोखा
सामने आ गया जनता के दरबार
एक दूसरे को सुहाने लग गया था
अपना उनका सुन्दर-सा परिवार
मनसीरत अज्ञाता का है गुण गावे
मनभावन मनोरम रम्य दिया यार
निकिता हत्याकांड
हरियाणा में प्रतिदिन घट रहे हैं नये-नये कांड
दिनदहाड़े खुली सड़क पर निकिता हत्याकांड
मुख्मयंत्री मौन है और गृहमंत्री हो गया गौण
खूब आवारा घूम रहे राहों पर करते गोलीकांड
लूटपाट की घटनाएँ घटित होती हैं सरेआम
सरकार तमाशा देख रही है बन कर जैसे भाँड
कानूनी व्यवस्था ठप्प पड़ी, बंद सरकारी काम
चोर लूटरे आजाद है जनता का हो रहा रिमांड
दिन दोगुनी रात चौगुनी उन्नति करते अपराध
जगह जगह पर हो रहे प्रदेश में घिनौने कांड
जनता की समस्याओं पर नहीं सरकार ध्यान
खूब दूध मलाई खा रहे है नेतागण संग खांड
अपनी अपनी बांसुरी और गाते हैं निज राग
जनता जाए भाड़ में वजीरों का हुआ ब्रह्मांड
मनसीरत दूर खड़ा देखता हो गई काली दाल
सफेदपोश बाँट-बाँट खा रहे जैसे खुले सांड
प्रश्नों के उत्तर
तुमने गाँठ हृदय की खोल दी
मेरे काँधें पर सिर रख रो दी
मैंने तुमको यूँ ही समझ लिया
पहेली दिल की यूँ ही खोल दी
प्रश्नों की जो झड़ी लगाई थी
उत्तर के बर्तनों में है उड़ेल दी
मुँह से तुमने जो भी बोला था
उन कथनो की ढ़ेरी है तोल दी
तुम ख़ुद हो उत्तर हो प्रश्नों के
सफेद पन्नों पर स्याही डोल दी
कुछ दूर फैला हुआ अंधियारा
उजियारों की बत्ती है खोल दी
तुम साथ हमारे ही हो ली हो
एकांतवास की पीड़ा फोड़ दी
कबसे तुम्हें हम समझ पाए हैं
नासमझी की परत निकाल दी
मनसीरत इन्तजार है ख़त्म हुई
गहरी नींद में आँखें हैं खोल दी
शरद पूर्णिमा पर अमृत वर्षण
शरद पूर्णिमा रात को अमृत बरसाना
धन, वैभव समृद्धि को घर में लाना
शरद पूर्णिमा को कोजागरी भी कहते
शुभ माना जाता महालक्ष्मी पूजा जाना
विष्णु और लक्ष्मी जी को जो जन पूजे
मनभावन फल निश्चित हो जाता पाना
अश्विन मास पूर्णिमा को समुद्र मंथन
महालक्ष्मी प्रकट हुई, मुख खिल जाना
सौलह कलाओं से परिपूर्ण होता चाँद
किरणों से अमृत बूँदों का हो गिर जाना
खुले आसमान तले रखते चावल खीर
लक्ष्मी देवी का धरा पै भोग लगा जाना
चन्द्रमा धरती के बहुत होता है नजदीक
चंद्रकिरणों से औषधीय गुण आ जाना
मथुरा, वृदांवन जेसे मंदिर सजाये जाते
विशेष आयोजनों का क्रियान्वयन होना
मनसीरत बासी खीर खाके हो कल्याण
सेहत को तंदरूस्ती दान का मिल जाना
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)
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